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दोहे -रसभरे

Umakant007

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अनुष्टुभ्स्मृता भवति तापाय दृष्ट्वा चोन्मादवर्धिनी ।स्पृष्टा भवति मोहाय ! सा नाम दयिता कथम् ? ॥ ७३॥

अर्थ:

जो स्त्री स्मरणमात्र करने से सन्ताप कराती है, देखते ही उन्माद बढाती है और छूते ही मोह उत्पन्न करती है, उसे न जाने क्यों प्राण-प्यारी कहते हैं ?

दोहा:
सुधि आये सुधि-बुधि हरत, दरसन करत अचेत ।
परसत मन मोहित करत, यह प्यारी किहि हेत ?
 

Umakant007

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अनुष्टुभ्तावदेवामृतमयी यावल्लोचनगोचरा ।चक्षुःपथादतीता तु विषादप्यतिरिच्यते ॥ ७४ ॥

अर्थ:

स्त्री जब तक आँखों के सामने रहती है, तब तक अमृत सी मालूम होती है परन्तु आँखों की ओट होते ही, विष से भी अधिक दुःखदायिनी हो जाती है ।
दोहा:
जौलों सन्मुख नयन के, अबला अमृत रूप।
दूर भये तो सहज ही, होय यही विष-कूप ।।



अनुष्टुभ्
नामृतं न विषं किञ्चिदेकां मुक्त्वा नितम्बिनीम् ।सैवामृतरुता रक्ता विरक्ता विषवल्लरी ॥ ७५ ॥
अर्थ:

सुंदरी नितम्बिनी को छोड़कर न और अमृत है और न विष । स्त्री अगर अपने प्यारे को चाहे तो अमृत लता है और जब वह उसे न चाहे तो निश्चय ही विष की मञ्जरी है ।

दोहा:
नहिं विष नहिं अमृत कहूं, एक तिया तू जान।
मिलवे में अमृत नदी, बिछुरे विष की खान।।
 

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स्रग्धराआवर्तः संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानांदोषाणां संविधानं कपटशतमयं क्षेत्रमप्रत्ययानाम् ॥स्वर्गद्वारस्य विघ्नौ नरकपुरमुखं सर्वमायाकरण्डंस्त्रीयन्त्रं केन सृष्टं विषममृतमयं प्राणिलोकस्य पाशः ॥ ७६ ॥

अर्थ:

संदेहों का भंवर, अविनय का घर, साहसों का नगर, पाप दोषों का खजाना, सैकड़ों तरह के कपट और अविश्वास का क्षेत्र, स्वर्ग-द्वार का विघ्न, नरक नगर का द्वार, साड़ी मायाओं का पिटारा, अमृत रूप में विष और पुरुषों को मोह जाल में फ़साने वाला स्त्री-यंत्र न जाने किसने बनाया?
 

Umakant007

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शार्दूलविक्रीडितनो सत्येन मृगाङ्क एष वदनीभूतो न चेन्दीवर-द्वन्द्वं लोचनतां गतं न कनकैरप्यङ्गयष्टिः कृता ॥किं त्वेवं कविभिः प्रतारितमनास्तत्त्वं विजानन्नपित्वङ्मांसास्थिमयं वपुर्मृगदृशां मन्दो जनः सेवते ॥ ७७ ॥

अर्थ:
अगर हमसे पक्षपात रहित सच्ची बात पूछी जाय, तो हमको कहना होगा कि चन्द्रमा स्त्री का मुख नहीं, कमल उसके नेत्र नहीं; उसका भी शरीर और सब प्राणियों की तरह हाड़, काम और मांस का है | इस बात को जानकर भी, कवियों की मिथ्या उक्तियों के भुलावे में पड़कर, हमलोग स्त्रियों पर आसक्त रहते हैं और उन्हें सेवन करते हैं |



उपजातिलीलावतीनां सहजा विलासास्त एव मूढस्य हृदि स्फुरन्ति ॥रागो नलिन्या हि निसर्गसिद्धस्तत्र भ्रमत्येव वृथा षडङ्घ्रिः ॥७८ ॥

अर्थ:

जिस तरह मूर्ख भौरा कमलिनी की स्वाभाविक ललाई को देखकर उसपर मुग्ध हो जाता है और उसके चारों ओर गूंजता फिरता है; उसी तरह मूढ़ पुरुष लीलावती स्त्रियों के स्वाभाविक हाव्-भाव और नाज-नखरों को देखकर उनपर मुग्ध हो जाते हैं |

दोहा:
कामिनि बिलसत सहज में, मूरख मानत प्यार |
सहज सुगन्धित कुसुमिनि, भौंरा भ्रमत गंवार ||
 

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शिखरिणीयदेतत्पूर्णेन्दुद्युतिहरमुदाराकृतिवरंमुखाब्जं तन्वङ्ग्याः किल वसति तत्राधरमधु ॥इदं तत्किम्पाकद्रुमफलमिवातीव विरसं

व्यतीतेऽस्मिन् काले विषमिव भविष्यत्यसुखदम् ॥ ७९ ॥

अर्थ:

स्त्री का पूर्णिमा के चन्द्रमा की छवि को हरने वाला कमलमुख, जिसमें अधरामृत रहता है, मन्दार के फल की तरह अज्ञात या यौवनावस्था तक ही अच्छा मालूम होता है; समय बीतने यानि बुढ़ापा आने पर वही कमल मुख अनार के पके और सड़े फल की तरह विष सा हो जाता है ।

शार्दूलविक्रीडितउन्मीलत्त्रिवलितरङ्गनिलया प्रोत्तुङ्गपीनस्तन-द्वन्द्वेनोद्यतचक्रवाकमिथुना वक्त्राम्बुजोद्भासिनी ॥कान्ताकारधरा नदीयमभितः क्रूराशया नेष्यतेसंसारार्णवमज्जनं यदि तदा दूरेण सन्त्यज्यताम् ॥ ८० ॥
सार:

रूप ही जल है, चञ्चल नयन मछलियां हैं, नाभि भंवर है और सर के बाल सर्प हैं – यह तरुण स्त्री रुपी नदी, दुस्तर नदी है। इस नदी में श्रृंगार-शास्त्र प्रवीण सज्जन स्नान करते हैं ।
 

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अनुष्टुभ्जल्पन्ति सार्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमम् ।

हृद्गतं चिन्तयन्त्यन्यं प्रियः को नाम योषिताम् ? ॥ ८१ ॥

अर्थ:

स्त्रियां बात तो किसी से करती हैं, देखतीं किसी और को हैं, दिल में चाहती किसी और को हैं । विलासवती स्त्रियों का प्यारा कौन है ? दोहा: मन में कछु बातन कछु, नैनं में कछु और। चित की गति कछु और ही, यह प्यारी किहि ठौर?


वैतालीयमधु तिष्ठति वाचि योषितां हृदि हालाहलमेव केवलम् ।
अत एव निपीयतेऽधरो हृदयं मुष्टिभिरेव ताड्यते ॥ ८२ ॥
अर्थ:
स्त्रियों की बातों में अमृत और ह्रदय में हलाहल विष होता है; इसीलिए पुरुष उनका अधरामृत पान और उनकी छातियों का मर्दन करते हैं ।
दोहा:अधरन में अमृत बसत, कुच कठोरता बास।यातें इनको लेत रस, उनको मर्दन त्रास।।
 

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हरिणीअपसर सखे दूरादस्मात्कटाक्षविषानलात्प्रकृतिकुटिलाद्योषित्सर्पाद्विलासफणाभृतः ॥इतरफणिना दष्टः शक्यश्चिकित्सितुमौषधे-श्चतुरवनिताभोगिग्रस्तं त्यजन्ति हि मन्त्रिणः ॥ ८३ ॥
अर्थ:
हे मित्र ! सहज ही क्रूर, विलास रुपी फण वाले और कटाक्ष रुपी विषाग्नि धारण करने वाले स्त्री-रुपी सर्प से दूर भाग; क्योंकि और सर्पों का काटा हुआ तो मन्त्र और औषधियों से अच्छा हो सकता है; पर चतुर स्त्री रुपी सर्प के डसे हुए को झाड़-फूंक वाले गारुड़ी भी छोड़ भागते हैं ।



वसंततिलकाविस्तारितं मकरकेतनधीवरेणस्त्रीसंज्ञितं बडिशमत्र भवाम्बुराशौ ॥येनाचिरात्तदधरामिषलोलमर्त्य-मत्स्याद्विकृष्य स पचत्यनुरागवह्नौ ॥ ८४ ॥

अर्थ:

इस संसार रुपी समुद्र में कामदेव रुपी धीमर ने स्त्री रुपी जाल फैला रखा है । इस जाल में वह अधरमिष-लोभी पुरुष-रुपी मछलियों को, शीघ्रता से, खींच खींच कर, अनुराग-रुपी अग्नि में पकता है ।
 

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अनुष्टुभ्कामिनीकायकान्तारे स्तनपर्वतदुर्गमे ।मा सञ्चर मनःपान्थ ! तत्रास्ते स्मरतस्करः ॥ ८५ ॥
अर्थ:
हे मन-रुपी पथिक ! कुच रुपी पर्वतों में होकर, दुर्गम कामिनी के शरीर रुपी वन में न जाना, क्योंकि वहां कामदेव-रुपी तस्कर रहता है ।
कुण्डलिया एरे मन मेरे पथिक ! तू न जाहु इहि ओर।तरुणी तन धन सघन में, कुच पर्वत बर जोर।कुच पर्वत बर जोर, चोर एक तहाँ बसत है।कर में लिए कमान, बाण पांचों बरसत हैं।लूट लेत सब साज, पकर कर राखत चेरे।मूँद नैन अरु कान, भुलान्यो तू कित एरे ?



शार्दूलविक्रीडितव्यादीर्घेण चलेन वक्रगतिना तेजस्विना भोगिनानीलाब्जद्युतिनाऽहिना वरमहं दष्टो, न तच्चक्षुषा ॥दष्टे सन्ति चिकित्सका दिशि-दिशि प्रायेण धर्मार्थिनोमुग्धाक्षीक्षणवीक्षितस्य न हि मे वैद्यो न चाप्यौषधम् ॥ ८६ ॥

अर्थ:
बड़े लम्बे, तेज चलने वाले, टेढ़ी चालवाले, भयंकर फनधारी काले से काटा जाना भला; पर अत्यन्त विशाल, चञ्चल, टेढ़ी चालवाले, तेजस्वी और नीलकमल की कान्तिवाले कामिनी के नेत्रों से डसा जाना भला नहीं; क्योंकि सर्प के काटे हुए को बचाने वाले धर्मार्थी मनुष्य सर्वत्र मिलते हैं; पर सुनयना की दृष्टि से काटे हुए की न कोई दवा है न वैद्य ।
 

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मालिनी
इह हि मधुरगीतं नृत्यमेतद्रसोऽयं
स्फुरति परिमलोऽसौ स्पर्श एष स्तनानाम् ।
इति हतपरमार्थैरिन्द्रियैर्भाम्यमाणः
स्वहितकरणदक्षैः पञ्चभिर्वञ्चितोऽसि ॥८७ ॥
अर्थ:
यह कैसा मधुर गाना है, यह कैसा उत्तम नाच है, इस पदार्थ का स्वाद कैसा अच्छा है, यह सुगन्ध कैसी मनोहर है, इन स्तनों को छूने से कैसा मजा आता है ! हे मनुष्य ! तू इन पांच विषयों में भ्रमता हु – परमार्थ नाशिनी नरकादि की साधनभूत पांचों इन्द्रियों से ठगा गया है ।



शिखरिणीन गम्यो मन्त्राणां न च भवति भैषज्यविषयोन चापि प्रध्वंसं व्रजति विविधैः शान्तिकशतैः ॥भ्रमावेशादङ्गे कमपि विदधद्भङ्गमसकृत्
स्मरापस्मारोऽयं भ्रमयति दृशं धूर्णयति च ॥ ८८ ॥
अर्थ:
जब कामदेव रुपी अकस्मार – मृगी- रोग का, भ्रम के आवेश से दौरा होता है, तब शरीर में असह्य वेदना होती है, शरीर दुखता है, मन घूमता है और आँखें चक्कर खाती हैं । यह रोग मन्त्र, औषधि, नाना प्रकार के शान्ति कर्म और पूजा पाठ, किसी से भी नाश नहीं होता।

दोहा:
मन्त्र दवा अरु आपसों, वेदन मिटै न बैद।
कामबाण सों भ्रमत मन, कैसे मिटहै कैद।
 

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शार्दूलविक्रीडितजान्त्यन्धाय च दुर्मुखाय च जराजीर्णाखिलाङ्गाय चग्रामीणाय च दुष्कुलाय च गलत्कुष्ठाभिभूताय च ॥यच्छन्तीषु मनोहरं निजवपुर्लक्ष्मीलवाकाङ्क्षयापण्यस्त्रीषु विवेककल्पलतिकाशस्त्रीषु रज्येत कः ? ॥८९ ॥
अर्थ:
कुरूप, बुढ़ापे से शिथिल, गंवार, नीच और गलित कुष्ठी को, थोड़े से धन की आशा से, जो अपना सुन्दर शरीर सौंप देती है और जो विवेक रुपी कल्पलता के लिए छुरी के सामान है, उस वैश्या से कौन विद्वान् रमण करना चाहेगा ?

किसी ने कहा है:
धर्म-कर्म-धन भक्षिणी, सन्तति खावनहार ।
वैश्या है अति राक्षसी, बुधजन कहत पुकार।।

और भी:
दर्शनात हरते चित्तं, स्पर्शनात हरते बलम् ।
मैथुनात हरते वीर्यं, वैश्या प्रत्यक्ष राक्षसी ।।



अनुष्टुभ्वेश्याऽसौ मदनज्वाला रूपेन्धनविवर्धिता ।कामिभिर्यत्र हूयन्ते यौवनानि धनानि च ॥ ९० ॥
अर्थ:
यह वैश्य सुंदरता रुपी इन्धन से जलती हुई प्रचंड कामाग्नि है । कामी पुरुष इस अग्नि में अपने यौवन और धन की आहुति देते हैं
दोहा:गनिका कनिका आहिन की, रूप समिध मजबूत।होम करत कामी पुरुष, धन यौवन आहूत ।।
 
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