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दोहे -रसभरे

Umakant007

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आर्याकश्चुम्बति कुलपुरुषो वेश्याधरपल्लवं मनोज्ञमपि ।चारभटचौरचेटकनटविटनिष्ठीवनशरावम् ? ॥ ९१ ॥अर्थ:वैश्य का अधर-पल्लव (ओंठ) यद्यपि अतीव मनोहर है; किन्तु वह जासूस, सिपाही, चोर, नट, दास, नीच और जारों के थूकने का ठीकरा है । इसलिए कौन कुलीन पुरुष उसे चूमना चाहेगा ।

वसन्ततिलकाधन्यास्त एव तरलायतलोचनानांतारुण्यदर्पघनपीनपयोधराणाम् ॥क्षामोदरोपरिलसत्त्रिवलीलतानांदृष्ट्वाऽऽकृतिं विकृतिमेति मनो न येषाम् ॥ ९२ ॥
अर्थ:
चञ्चल और बड़ी बड़ी आँखों वाली, यौवन के अभिमान से पूर्ण, दृढ़ और पुष्ट स्तनों वाली अवं क्षीण उदरभाग पर त्रिवली से सुशोभित युवती स्त्रियों की सूरत देखकर, जिन पुरुषों के मन में विकार उत्पन्न नहीं होता, वे पुरुष धन्य हैं ।
दोहा: क्षीण लङ्क अरु पीन कुच, लखि तिय के दृगतीर । जे अधीर नहिं करत मन, धन्य-धन्य ते धीर ।।
 
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मंदाक्रान्ताबाले लीलामुकुलितममी सुंदरा दृष्टिपाताःकिं क्षिप्यन्ते विरम विरम व्यर्थ एष श्रमस्ते ॥सम्प्रत्यन्त्ये वयसि विरतं बाल्यमास्था वनान्ते
क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोकयामः ॥ ९३ ॥अर्थ:
हे बाले ! लीला से जरा जरा खुले हुए नेत्रों से सुन्दर कटाक्ष हम पर क्यों फेंकती है ? विश्राम ले ! विश्राम ले ! हमारे लिए तेरा यह श्रम व्यर्थ है । क्योंकि अब हम पहले जैसे नहीं रहे; अब हमारा छछोरपन चला गया, अज्ञान दूर हो गया । हम बन में रहते हैं और जगज्जाल को तिनके के सामान समझते हैं ।



शिखरिणीइयं बाला मां प्रत्यनवरतमिन्दीवरदल-प्रभाचोरं चक्षुः क्षिपति किमभिप्रेतमनया ? ॥गतो मोहोऽस्माकं स्मरशबरबाणव्यतिकर-ज्वलज्ज्वालाः शांतास्तदपि न वराकी विरमति ॥ ९४ ॥
अर्थ:
इस बाला का क्या मतलब है, जो यह अपने कमल-दल की शोभा को तिरस्कार करने वाले नेत्रों को मेरी ओर चलाती है? मेरा अज्ञान नाश हो गया और कामदेव रुपी भील के बाणों से उत्पन्न हुई अग्नि भी शान्त हो गई, तथापि यह मूर्ख बाला विश्राम नहीं लेती !
 
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शुभ्रं सद्य सविभ्रमा युवतयः श्वेतातपत्रोज्ज्वला
लक्ष्मीर् इत्य् अनुभूयते स्थिरम् इव स्फीते शुभे कर्मणि ।
विच्छिन्ने नितराम् अनङ्ग-कलह-क्रीडा-त्रुटत्-तन्तुकं
मुक्ता-जालम् इव प्रयाति झटिति भ्रश्यद्-दिशो दृश्यताम् ॥ ९५ ॥
अर्थ:
जब तक मनुष्य के पूर्वजन्म के शुभ कर्मों का प्रभाव रहता है, तब तक उज्जवल भवन, हाव्-भाव युक्त सुंदरी नारियां और सफ़ेद छत्र चँवर प्रभृति से शोभायमान लक्ष्मी – ये सब स्थिर भाव से भोगने में आते हैं; किन्तु पूर्वजन्म के पुण्यों का क्षय होते ही, ये सब सुखैश्वर्य के समान – कामदेव की क्रीड़ा के कलह में टूटे हुए हार के मोतियों के समान – शीघ्र ही जहाँ तहाँ लुप्त हो जाते हैं ।
दोहा:शुभ कर्मन के उदय में, गृह तिय वित सब ठोर । अस्त भये तीनो नहीं, ज्यों मुक्त बिन डोर ।।
 

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शिखरिणी
यदा योगाभ्यासव्यसनवशयोरात्ममनसो-
रविच्छिन्ना मैत्री स्फुरति यमिनस्तस्य किमु तैः ॥
प्रियाणामालापैरधरमधुभिर्वक्त्रविधुभिः
सनिःश्वासामोदैः सकुचकलशाश्लेषसुरतैः ? ॥ ९६ ॥

अर्थ:

जो अपने मन को वश में करके, आत्मा को सदा योगाभ्यास-साधन में लगाए रहना ही पसन्द करते हैं – उन्हें प्यारी प्यारी स्त्रियों की बातचीत, अधरामृत, श्वासों की सुगन्धि सहित मुखचन्द्र और कुचकलशों को ह्रदय से लगाकर काम-क्रीड़ा से क्या मतलब?



अनुष्टुभ्
अजितात्मसु सम्बद्धः समाधिकृतचापलः ।
भुजङ्गकुटिलः स्तब्धो भ्रूविक्षेपः खलायते ॥ ९७ ॥

अर्थ:

अजितेन्द्रिय मनुष्यों से सम्बन्ध रखनेवाला, चित्त की एकाग्रता या समाधि में अतीव चञ्चलता करनेवाला, सर्प के समान कुटिल और स्तब्ध स्त्रियों का भ्रूक्षेप या कटाक्ष खल के समान आचरण करता है ।

दोहा:
तिय कटाक्ष खल सरिस है, करात समाधिहि भङ्ग ।
प्राकृत जान संसर्ग रत, शठ-इव कुटिल भुजङ्ग ।।
 

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वसंततिलका
मत्तेभकुम्भपरिणाहिनि कुङ्कुमार्द्रे
कान्तापयोधरतटे रसखेदखिन्नः ॥
वक्षो निधाय भुजपञ्जरमध्यवर्ती
धन्यः क्षपां क्षपयति क्षणलब्धनिद्रः ॥ ९८ ॥

अर्थ:

जो पुरुष मैथुन के श्रम से थक कर, मतवाले हाथी के कुम्भों के समान वितीर्ण और केशर से भीगे हुए स्त्री के स्तनों पर अपनी छाती रखकर, उसके भुजा रुपी पञ्जर के बीच में पड़ा हुआ, एक क्षण भी सोकर रात बीतता है, वह धन्य है ।

छप्पय:
कुमकुम कर्दम युक्त, मत्तगज कुम्भ बने मनु।
कान्ता कुचतट माहि सने, रस-खेद खिन्न जनु।
तेहि भुज-पञ्जर मध्य, रहे सुख सो लिपटाने।
क्षण इक निद्रा लहें, क्षपा बीतत नहिं जाने।
इमि निज वक्षस्थल ताहि सों, जोरि रहे जे शुभग नर।
हैं तेई यहि संसार में, धन्यवाद के योग्य बर।।
 

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उपजाति
सुधामयोऽपि क्षयरोगशान्त्यै नासाग्रमुक्ताफलकच्छलेन ॥
अनङ्गसंजीवनदृष्टशक्तिर्मुखामृतं ते पिबतीव चन्द्रः ॥ ९९ ॥

अर्थ:

हे प्यारी ! ये चन्द्रमा अमृतमय, अतएव काम चैतन्य करने वाला होने पर भी, अपने क्षय रोग की शान्ति के लिए, नाक के अगले हिस्से में लटकते हुए मोती के मिससे, तेरे अधरामृत को पी रहा है ।

दोहा:
प्रिये ! सुधाकर रोग निज, क्षयी-निवृत्ति-उपाय।
चन्द पिबत मधु अधर को, नाथ-मोती-मिस आय।

दोहा:
मनसिज-वर्द्धक अमृतमय, क्षयी-हरण शशि जान।
नाशा-मोती मिस किये,करे अधरामृत पान।।
 
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मालिनी
दिशः वनहरिणीभ्यः स्निग्धवंशच्छवीनां
कवलमुपलकोटिच्छिन्नमूलं कुशानाम् ॥
शुकयुवतिकपोलापाण्डु ताम्बूलवल्ली-
दलमरूणनखाग्रैः पाटितं वा वधूभ्यः ॥ १०० ॥

अर्थ:

हे पुरुषों ! या तो तुम वन-मृगियों के लिए बांस के दण्डे के समान छविवाली, पत्थर की नोक से कटी हुई मूलवाली, कुश नाम का घास के ग्रास दो अथवा सुन्दरी बहुओं के लिए लाल लाल नाखूनों से तोड़े हुए सुई – तोती के कपोल के समान, जरा जरा पीले रंग के पान दो ।
सार: दो में से एक काम करो: १) या तो बन में जा ईश्वर भजन करो, अथवा २) घर में रहकर नव-वधुओं को भोगो ।
 

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शिखरिणी
यदाऽऽसीदज्ञानं स्मरतिमिरसञ्चारजनितं
तदा सर्वं नारीमयमिदमशेषं जगदभूत् ।
इदानीमस्माकं पटुतरविवेकाञ्जनदृशां
समीभूता दृष्टिस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म मनुते ॥ १०१ ॥

अर्थ:

जब तक मुझमें काम का अज्ञान-अन्धकार था, तब तक मुझे सारा संसार स्त्रीमय दीखता था; लेकिन अब मैंने आँखों में विवेक-अञ्जन लगाया है, इसलिए मेरी समदृष्टि हो गयी है, मुझे त्रिलोकी ब्रह्ममय दीखती है ।



वैराग्ये सञ्चरत्येको नीतौ भ्रमति चापरः।
श्रृङ्गारे रमते कश्चिद् भुवि भेदः परस्परम्।। १०२ ।।

अर्थ:

कोई वैराग्य को पसंद करता है, कोई नीति में मस्त रहता है और कोई श्रृंगार में मग्न रहता है । इस भूतल पर, मनुष्यों में परस्पर इच्छाओं का भेदाभेद है ।
 

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यद्यस्य नास्ति रुचिरं तस्मिंस्तस्य स्पृहा मनोज्ञेऽपि । रमणीयेऽपि सुधांशौ न मनःकामः सरोजिन्याः ।। १०३ ।।

अर्थ:

जिसकी जिस चीज़ में रूचि नहीं होती, वह चाहे जैसी सुन्दर क्यों न हो, उसे वह अच्छी नहीं लगती । चन्द्रमा सुन्दर है, परन्तु कमलिनी उसे नहीं चाहती ।

दोहा:
जो जाके मन भावतौ, ताको तासों काम ।
कमल न चाहत चांदनी, बिकसत परसत घाम ।।



।। इति श्रृंगार शतकम् ।।
 
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