यह कहानी किसी भी व्यक्ति धर्म अथवा संप्रदाय से संबंधित नहीं है।
मैं अभी 43 वर्षीय महिला हुँ। मेरा नाम सुषमा है। यह कहानी बहुत ही अजीब है तथा इसकी शुरुआत मेरी बेटी के विवाह के पश्चात हुई है। मेरी बेटी का नाम शायमा है।
मैं अभी एक नौकरीपेशा महिला हुँ। यह नौकरी मुझे मेरे पति की मृत्यु के पश्चात अनुकंपा के आधार पर प्राप्त हुई है। मेरे पति की मृत्यु मेरी बेटी के जन्म के दो साल बाद ही हो गई थी। मैं अपने मायके तथा ससुराल दोनों तरफ से अकेली हुँ। मेरा कोई नजदीकी रिश्तेदार नहीं है। मेरे पति भी एकमात्र संतान थे और मैं भी अपने माता पिता की एकमात्र संतान हुँ। इसीलिए जब मेरे पति की मृत्यु हुई तो मैनें अपने दोनों तरफ के अचल संपत्ति को बेचकर एक जगह ही अपने कार्यस्थल के निकट ही एक अच्छा मकान जमीन लेकर बनवाया। इस जगह पर पढ़ाई की व्यवस्था अच्छी थी, तो मैनें अपनी बेटी को भी बेहतर शिक्षा दिलवायी। अपनी बेटी के स्नातक उत्तीर्ण होते ही उसकी शादी एक अच्छे घर में कर दिया। जिस वक्त मैनें इस जगह पर अपना मकान बनवाया था तब यह शहर का बाहरी इलाका था, परंतु इतने वर्षों के उपरांत अब यहाँ से कुछ ही दूरी पर कुछ सरकारी कार्यालय के आने से अच्छी प्रगति हुई थी । अब यह काफी उन्नत स्थान बन गया था। कई सारे कारखाने भी यहाँ खुल गये थे।
मेरी बेटी, शायमा, शादी के बाद अपने पति यानि मेरे दामाद के साथ ही रहती है।मेरे दामाद का नाम निरंजन है। उसके ससुराल में उन दोनों के अलावा उसका देवर और सास रहते थे। सास की मृत्यु शायमा के शादी के कुछ महीने बाद ही हो गई थी। उसका देवर ने स्नातकोत्तर करके एक अच्छी नौकरी पकड़ ली थी। उसका नाम मनोरंजन था। सभी उसे प्यार से मनु कहते थे। मनु की पदस्थापना कुछ समय पूर्व ही मेरे शहर मे हुई थी। चूँकि शायमा की शादी के बाद मैं भी अपने घर में अकेली ही रहती थी, इसीलिए शायमा ने मेरी सुरक्षा और अपने देवर के सहुलियत को देखते हुये मनु को मेरे घर पर ही रहने को मना लिया था।
हमारे यहाँ दामाद के भाई को भी बराबर का दर्जा दिया जाता है।इसलिए मैंने भी मनु जी को उचित सत्कार के साथ अपने यहाँ रहने की व्यवस्था कर दी थी।
मेरा घर ज्यादा बड़ा तो नहीं है, फिर भी मुख्य सड़क के ठीक पचास मीटर अंदर है। मेरे घर आने वाली सड़क के दोनों ओर भी घर बने हैं, परंतु उन घरों का मुख्य दरवाजा मुख्य सड़क के तरफ ही है। मेरा घर चारों तरफ से चाहरदीवारी से घिरा है और सुरक्षा के लिए दीवार के उपर काँटेदार जाली लगाई गई है। उसके मुख्य दरवाजे के अंदर एक छोटा बगीचा है, उसके बाद एक छोटा सा पोर्टिको है। फिर अंदर आने पर बरामदा है।अंदर आकर ड्राइंग रुम है, इसके दोनों तरफ कमरे हैं। एक ओर रसोई घर और उसके विपरीत एक स्नानागार सह शौचालय है।शौचालय के बगल से उपर के लिए सीढ़ियाँ है। उपर भी एक बड़ा कमरा है।
मेरा घर एक उच्च सामाजिक क्षेत्र(पौश कालोनी) है। इसीलिए यहाँ किसी को एक दुसरे से ज्यादा मतलब नहीं होता है। मनुजी को रहने के लिए ऊपर का कमरा दे दिया था। सुबह उठकर नहाकर पूजा के बाद मैं नास्ता बनाती फिर मनु जी को उठाकर थोड़ी देर अखबार पढ़ती, तब तक मनुजी भी आ जाते फिर हम दोनों साथ में चाय पीते और इधर उधर की बातें करते। फिर मैं खाना बनाती और वे टहलने चले जाते। मनुजी एक सुंदर और मृदुभाषी व्यक्ति थे। वह मुझे अपने भाई की तरह मम्मीजी कहते थे फिर एक दिन मैंने इसके लिए टोका तब से मुझे आंटी कहने लगे।
जब तक मनुजी टहलकर आते तब तक भोजन तैयार हो जाता, फिर वह नहाकर तैयार हो कर आकर बैठते । तब तक मैं भी तैयार हो कर आती और दोंनों साथ साथ खाना खाते। फिर मैं उन्हें भी नास्ता देती और खुद भी नास्ता लेकर दोंनों अपने अपने कार्यालय चले जाते। शाम को मैं पहले आती क्योंकि मेरा कार्यालय नजदीक था और मेरी छुट्टी भी पहले होती थी। कुछ देर आराम करके मैं रात के भोजन की व्यवस्था करने में लग जाती थी। तब तक मनुजी भी आ जाते। वह जबतक कपड़ें बदलकर आते तब तक मैं खाना लगा देती थी। खाने के बाद दोनों कुछ हल्की फुल्की बात कर सोने को अपने अपने कमरे में चले जाते। अपने बेटी से मैं सुबह और रात में बिस्तर पर जाने के बाद प्रतिदिन बात करती थी। यही मेरी दिनचर्या थी।
यही दिनचर्या कुछ महीनों तक चली जब तक की मैं बिमार ना पड़ी। हुआ कुछ युँ कि कार्यालय के कार्य से मुझे नजदीकी शहर जाना पड़ा और उस दिन मौसम अत्यंत खराब था। वापस आते आते मुझे काफी देर हो गई और मैं पूर्णतः भींग गई। दिन भर कार्य की आपाधापी में कई बार भींगी। नतीजतन उस रात ही मुझे बुखार चढ़ आया और मैं कंपकंपाने लगी। मनुजी ऊपर अपने कमरे में थे। संयोगवश वे पानी पीने के लिए नीचे आए और मेरे कंपकंपाहट को सुनकर उन्होंने मुझे आवाज दी, परंतु मैं इस स्थिति में नहीं थी कि कुछ जवाब दुँ। कुछ देर तक ठहरने के पश्चात वे मेरे कक्ष में दाखिल हुए। मुझे ठंड से कंपकंपाते देख तुरंत मेरे सिर को छुकर देखा। तब उन्हें यह एहसास हुआ कि मुझे तीव्र बुखार है। तत्काल वहीं पास में पड़े एक कंबल को मेरे उपर डाला। फिर भी कुछ राहत ना मिलने पर अपने कमरे से कंबल और रजाई दोनों लाकर मुझे ढँका और रसोईघर से गर्म तेल और पानी लाकर रातभर मे रे सिरहाने बैठकर मेरे सिर पर पानी की पट्टियां देते रहे और मेरे हाथों और पैरों की मालिश करते रहे। सुबह होने पर मेरा बुखार नियंत्रण में आया तो मुझे लेकर पास ही एक चिकित्सक को दिखाया। चिकित्सक ने संपूर्ण निरीक्षण के पश्चात मुझे दवाईयाँ दी और एक सप्ताह पूर्ण आराम करने को कहा। फिर घर आकर उन्होंने मुझे आराम करने को कहा और मेरे कार्यालय में मेरे वरीय को दूरभाष पर सूचित कर दिया। उसके बाद मनुजी ने नास्ता बनाया। तब तक मैं भी अपने दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर आयी और दोनों नें साथ नास्ता किया। फिर शायमा से मेरी बातचीत हुई। उसके कहने पर मैंने मनुजी को ऊपर के कमरे को छोड़कर नीचे के एक खाली पड़े कमरे में रहने को कहा। उन्होंने भी मेरी सेहत को देखते हुए नीचे के कमरे में रहना ही बेहतर समझा। फिर दिनभर मुझे दी हुई दवाइयों का ध्यान रखते हुए घर की साफ सफाई कर रात मेरे हाथ पैरों की हल्की मालिश की और अपने कमरे में न जाकर वहीं पास में कुर्सी पर ही रातभर ऊँघते हुए काटी। इसीप्रकार तीन दिन तक चला। तब तक मेरी तबियत काफी हद तक सुधरी। तब भी मेरी कमजोरी का हवाला देकर पूरे सप्ताह तक सभी कार्य किया। इस दौरान परिवर्तन केवल यह हुआ कि रात को मेरे हाथों और पैरों की मालिश के बाद वह नीचे ही बगल के कमरे में सोने चले जाते। इस दौरान मैं शायमा से बातचीत के दौरान मनुजी की काफी प्रशंसा करती थी। एक सप्ताह में हुए घटनाओं के बाद मैं भी अब मनुजी से काफी निकट हो गई थी। फिर जब मैं अपने कार्यालय जाने लगी तो अपने पुराने दिनचर्या को पकड़ लिया। परंतु अब मैं अगर पहले आ जाती तो उनका इंतजार करती, फिर मनुजी के आने के बाद दोनों मिलकर रात का भोजन बनाने का निर्णय लेते और जब तक मैं खाना बनाती तब तक वह भी मेरी कुछ कुछ मदद किया करते। फिर दोंनों कुछ हल्के फुल्के मजाक करते हुए रात्रि भोजन करके सोने को अपने अपने कक्ष चले जाते।
इसी प्रकार क्रियाकलाप करते हुए कुछ महीने बीत गए। अब उनकी नौकरी भी मेरे शहर में ही पक्की हो गई। जिस दिन यह खबर आई उन्होंने मुझसे कहा, आज हम बाहर खाना खाते हैं। मैनें भी उनके कथन मे हामी भरी और दोनों साथ में खाना खाने कुछ दूर स्थित एक रेस्टोरेंट गए। वहाँ खाने के बाद मनुजी ने मुझसे आइसक्रीम का पूछा तो मैंनें भी अपनी मनपसंद आइसक्रीम मँगवाई। फिर उन्होंने पहले खुद ही मुझे आइसक्रीम खिलाई। उसके बाद दोनों ने आइसक्रीम खाया और वापस घर को निकले। मनुजी द्वारा किए गए इतने दिनों के देखभाल और आज के आत्मीय व्यवहार से मैं उनके प्रति अत्यंत आभारी थी। पूरे रास्ते मैं अपने अतीत के बारे में सोच सोच कर अत्यंत भावुक हो गई थी। जब मेरे पति थे तो इसी प्रकार आग्रह कर मुझे बाहर ले जाकर खाना खिलाने के बाद आइसक्रीम खिलाते थे। इसी तरह सोचते हुए हम घर पहुँच गए।
फिर तो यही क्रियाकलाप प्रतिदिन का हो गया। प्रतिदिन रात में हम दोनों आइसक्रीम खाने जाते और थोड़ी देर घुमकर घर आकर हम अपने अपने कमरे में जाकर सो जाते थे। कभी कभी मनुजी अपने कार्यालय से वापस आते हुए आइसक्रीम लेकर आ जाते और फिर खाना खाने के बाद आइसक्रीम खाते थे। अब मैं भी प्रतिदिन उनके कार्यालय से वापस लौट आने का इंतजार करने लगी थी। युँ ही एक दिन आइसक्रीम खाने के समय मैंनें मनुजी को अपने पति का जिक्र करते करते अत्यंत भावुक हो गई और भावुकता के अतिरेक में मेरी आँखें नम हो गई। तब मैंने मनुजी को गले लगा लिया और काफी देर तक उसी अवस्था में उनसे लिपटी रही। फिर मुझे अपने अवस्था का भान होने पर मैं उनसे अलग होने लगी तो पुनः मनुजी ने मुझे अपने आगोश में समेट लिया। कुछ देर इसी तरह रहने के बाद मैं उनसे अलग हुई और बिना कुछ कहे मैं अपने कमरे में चली गई। कमरे में जाकर मैं सीधे अपने बिस्तर पर लेट गई। फिर कब मुझे नींद आ गई इसका भी पता नहीं चला। अगली सुबह उठकर मैं नित्यकर्म से निवृत्त होकर बाहर आई तो देखा कि सुबह की चाय और नास्ता तैयार रखा है। साथ ही एक पत्र भी था जिसमें लिखा था "कल अगर मुझसे कोई गुस्ताखी हुई हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी।"
मैं अभी 43 वर्षीय महिला हुँ। मेरा नाम सुषमा है। यह कहानी बहुत ही अजीब है तथा इसकी शुरुआत मेरी बेटी के विवाह के पश्चात हुई है। मेरी बेटी का नाम शायमा है।
मैं अभी एक नौकरीपेशा महिला हुँ। यह नौकरी मुझे मेरे पति की मृत्यु के पश्चात अनुकंपा के आधार पर प्राप्त हुई है। मेरे पति की मृत्यु मेरी बेटी के जन्म के दो साल बाद ही हो गई थी। मैं अपने मायके तथा ससुराल दोनों तरफ से अकेली हुँ। मेरा कोई नजदीकी रिश्तेदार नहीं है। मेरे पति भी एकमात्र संतान थे और मैं भी अपने माता पिता की एकमात्र संतान हुँ। इसीलिए जब मेरे पति की मृत्यु हुई तो मैनें अपने दोनों तरफ के अचल संपत्ति को बेचकर एक जगह ही अपने कार्यस्थल के निकट ही एक अच्छा मकान जमीन लेकर बनवाया। इस जगह पर पढ़ाई की व्यवस्था अच्छी थी, तो मैनें अपनी बेटी को भी बेहतर शिक्षा दिलवायी। अपनी बेटी के स्नातक उत्तीर्ण होते ही उसकी शादी एक अच्छे घर में कर दिया। जिस वक्त मैनें इस जगह पर अपना मकान बनवाया था तब यह शहर का बाहरी इलाका था, परंतु इतने वर्षों के उपरांत अब यहाँ से कुछ ही दूरी पर कुछ सरकारी कार्यालय के आने से अच्छी प्रगति हुई थी । अब यह काफी उन्नत स्थान बन गया था। कई सारे कारखाने भी यहाँ खुल गये थे।
मेरी बेटी, शायमा, शादी के बाद अपने पति यानि मेरे दामाद के साथ ही रहती है।मेरे दामाद का नाम निरंजन है। उसके ससुराल में उन दोनों के अलावा उसका देवर और सास रहते थे। सास की मृत्यु शायमा के शादी के कुछ महीने बाद ही हो गई थी। उसका देवर ने स्नातकोत्तर करके एक अच्छी नौकरी पकड़ ली थी। उसका नाम मनोरंजन था। सभी उसे प्यार से मनु कहते थे। मनु की पदस्थापना कुछ समय पूर्व ही मेरे शहर मे हुई थी। चूँकि शायमा की शादी के बाद मैं भी अपने घर में अकेली ही रहती थी, इसीलिए शायमा ने मेरी सुरक्षा और अपने देवर के सहुलियत को देखते हुये मनु को मेरे घर पर ही रहने को मना लिया था।
हमारे यहाँ दामाद के भाई को भी बराबर का दर्जा दिया जाता है।इसलिए मैंने भी मनु जी को उचित सत्कार के साथ अपने यहाँ रहने की व्यवस्था कर दी थी।
मेरा घर ज्यादा बड़ा तो नहीं है, फिर भी मुख्य सड़क के ठीक पचास मीटर अंदर है। मेरे घर आने वाली सड़क के दोनों ओर भी घर बने हैं, परंतु उन घरों का मुख्य दरवाजा मुख्य सड़क के तरफ ही है। मेरा घर चारों तरफ से चाहरदीवारी से घिरा है और सुरक्षा के लिए दीवार के उपर काँटेदार जाली लगाई गई है। उसके मुख्य दरवाजे के अंदर एक छोटा बगीचा है, उसके बाद एक छोटा सा पोर्टिको है। फिर अंदर आने पर बरामदा है।अंदर आकर ड्राइंग रुम है, इसके दोनों तरफ कमरे हैं। एक ओर रसोई घर और उसके विपरीत एक स्नानागार सह शौचालय है।शौचालय के बगल से उपर के लिए सीढ़ियाँ है। उपर भी एक बड़ा कमरा है।
मेरा घर एक उच्च सामाजिक क्षेत्र(पौश कालोनी) है। इसीलिए यहाँ किसी को एक दुसरे से ज्यादा मतलब नहीं होता है। मनुजी को रहने के लिए ऊपर का कमरा दे दिया था। सुबह उठकर नहाकर पूजा के बाद मैं नास्ता बनाती फिर मनु जी को उठाकर थोड़ी देर अखबार पढ़ती, तब तक मनुजी भी आ जाते फिर हम दोनों साथ में चाय पीते और इधर उधर की बातें करते। फिर मैं खाना बनाती और वे टहलने चले जाते। मनुजी एक सुंदर और मृदुभाषी व्यक्ति थे। वह मुझे अपने भाई की तरह मम्मीजी कहते थे फिर एक दिन मैंने इसके लिए टोका तब से मुझे आंटी कहने लगे।
जब तक मनुजी टहलकर आते तब तक भोजन तैयार हो जाता, फिर वह नहाकर तैयार हो कर आकर बैठते । तब तक मैं भी तैयार हो कर आती और दोंनों साथ साथ खाना खाते। फिर मैं उन्हें भी नास्ता देती और खुद भी नास्ता लेकर दोंनों अपने अपने कार्यालय चले जाते। शाम को मैं पहले आती क्योंकि मेरा कार्यालय नजदीक था और मेरी छुट्टी भी पहले होती थी। कुछ देर आराम करके मैं रात के भोजन की व्यवस्था करने में लग जाती थी। तब तक मनुजी भी आ जाते। वह जबतक कपड़ें बदलकर आते तब तक मैं खाना लगा देती थी। खाने के बाद दोनों कुछ हल्की फुल्की बात कर सोने को अपने अपने कमरे में चले जाते। अपने बेटी से मैं सुबह और रात में बिस्तर पर जाने के बाद प्रतिदिन बात करती थी। यही मेरी दिनचर्या थी।
यही दिनचर्या कुछ महीनों तक चली जब तक की मैं बिमार ना पड़ी। हुआ कुछ युँ कि कार्यालय के कार्य से मुझे नजदीकी शहर जाना पड़ा और उस दिन मौसम अत्यंत खराब था। वापस आते आते मुझे काफी देर हो गई और मैं पूर्णतः भींग गई। दिन भर कार्य की आपाधापी में कई बार भींगी। नतीजतन उस रात ही मुझे बुखार चढ़ आया और मैं कंपकंपाने लगी। मनुजी ऊपर अपने कमरे में थे। संयोगवश वे पानी पीने के लिए नीचे आए और मेरे कंपकंपाहट को सुनकर उन्होंने मुझे आवाज दी, परंतु मैं इस स्थिति में नहीं थी कि कुछ जवाब दुँ। कुछ देर तक ठहरने के पश्चात वे मेरे कक्ष में दाखिल हुए। मुझे ठंड से कंपकंपाते देख तुरंत मेरे सिर को छुकर देखा। तब उन्हें यह एहसास हुआ कि मुझे तीव्र बुखार है। तत्काल वहीं पास में पड़े एक कंबल को मेरे उपर डाला। फिर भी कुछ राहत ना मिलने पर अपने कमरे से कंबल और रजाई दोनों लाकर मुझे ढँका और रसोईघर से गर्म तेल और पानी लाकर रातभर मे रे सिरहाने बैठकर मेरे सिर पर पानी की पट्टियां देते रहे और मेरे हाथों और पैरों की मालिश करते रहे। सुबह होने पर मेरा बुखार नियंत्रण में आया तो मुझे लेकर पास ही एक चिकित्सक को दिखाया। चिकित्सक ने संपूर्ण निरीक्षण के पश्चात मुझे दवाईयाँ दी और एक सप्ताह पूर्ण आराम करने को कहा। फिर घर आकर उन्होंने मुझे आराम करने को कहा और मेरे कार्यालय में मेरे वरीय को दूरभाष पर सूचित कर दिया। उसके बाद मनुजी ने नास्ता बनाया। तब तक मैं भी अपने दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर आयी और दोनों नें साथ नास्ता किया। फिर शायमा से मेरी बातचीत हुई। उसके कहने पर मैंने मनुजी को ऊपर के कमरे को छोड़कर नीचे के एक खाली पड़े कमरे में रहने को कहा। उन्होंने भी मेरी सेहत को देखते हुए नीचे के कमरे में रहना ही बेहतर समझा। फिर दिनभर मुझे दी हुई दवाइयों का ध्यान रखते हुए घर की साफ सफाई कर रात मेरे हाथ पैरों की हल्की मालिश की और अपने कमरे में न जाकर वहीं पास में कुर्सी पर ही रातभर ऊँघते हुए काटी। इसीप्रकार तीन दिन तक चला। तब तक मेरी तबियत काफी हद तक सुधरी। तब भी मेरी कमजोरी का हवाला देकर पूरे सप्ताह तक सभी कार्य किया। इस दौरान परिवर्तन केवल यह हुआ कि रात को मेरे हाथों और पैरों की मालिश के बाद वह नीचे ही बगल के कमरे में सोने चले जाते। इस दौरान मैं शायमा से बातचीत के दौरान मनुजी की काफी प्रशंसा करती थी। एक सप्ताह में हुए घटनाओं के बाद मैं भी अब मनुजी से काफी निकट हो गई थी। फिर जब मैं अपने कार्यालय जाने लगी तो अपने पुराने दिनचर्या को पकड़ लिया। परंतु अब मैं अगर पहले आ जाती तो उनका इंतजार करती, फिर मनुजी के आने के बाद दोनों मिलकर रात का भोजन बनाने का निर्णय लेते और जब तक मैं खाना बनाती तब तक वह भी मेरी कुछ कुछ मदद किया करते। फिर दोंनों कुछ हल्के फुल्के मजाक करते हुए रात्रि भोजन करके सोने को अपने अपने कक्ष चले जाते।
इसी प्रकार क्रियाकलाप करते हुए कुछ महीने बीत गए। अब उनकी नौकरी भी मेरे शहर में ही पक्की हो गई। जिस दिन यह खबर आई उन्होंने मुझसे कहा, आज हम बाहर खाना खाते हैं। मैनें भी उनके कथन मे हामी भरी और दोनों साथ में खाना खाने कुछ दूर स्थित एक रेस्टोरेंट गए। वहाँ खाने के बाद मनुजी ने मुझसे आइसक्रीम का पूछा तो मैंनें भी अपनी मनपसंद आइसक्रीम मँगवाई। फिर उन्होंने पहले खुद ही मुझे आइसक्रीम खिलाई। उसके बाद दोनों ने आइसक्रीम खाया और वापस घर को निकले। मनुजी द्वारा किए गए इतने दिनों के देखभाल और आज के आत्मीय व्यवहार से मैं उनके प्रति अत्यंत आभारी थी। पूरे रास्ते मैं अपने अतीत के बारे में सोच सोच कर अत्यंत भावुक हो गई थी। जब मेरे पति थे तो इसी प्रकार आग्रह कर मुझे बाहर ले जाकर खाना खिलाने के बाद आइसक्रीम खिलाते थे। इसी तरह सोचते हुए हम घर पहुँच गए।
फिर तो यही क्रियाकलाप प्रतिदिन का हो गया। प्रतिदिन रात में हम दोनों आइसक्रीम खाने जाते और थोड़ी देर घुमकर घर आकर हम अपने अपने कमरे में जाकर सो जाते थे। कभी कभी मनुजी अपने कार्यालय से वापस आते हुए आइसक्रीम लेकर आ जाते और फिर खाना खाने के बाद आइसक्रीम खाते थे। अब मैं भी प्रतिदिन उनके कार्यालय से वापस लौट आने का इंतजार करने लगी थी। युँ ही एक दिन आइसक्रीम खाने के समय मैंनें मनुजी को अपने पति का जिक्र करते करते अत्यंत भावुक हो गई और भावुकता के अतिरेक में मेरी आँखें नम हो गई। तब मैंने मनुजी को गले लगा लिया और काफी देर तक उसी अवस्था में उनसे लिपटी रही। फिर मुझे अपने अवस्था का भान होने पर मैं उनसे अलग होने लगी तो पुनः मनुजी ने मुझे अपने आगोश में समेट लिया। कुछ देर इसी तरह रहने के बाद मैं उनसे अलग हुई और बिना कुछ कहे मैं अपने कमरे में चली गई। कमरे में जाकर मैं सीधे अपने बिस्तर पर लेट गई। फिर कब मुझे नींद आ गई इसका भी पता नहीं चला। अगली सुबह उठकर मैं नित्यकर्म से निवृत्त होकर बाहर आई तो देखा कि सुबह की चाय और नास्ता तैयार रखा है। साथ ही एक पत्र भी था जिसमें लिखा था "कल अगर मुझसे कोई गुस्ताखी हुई हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी।"