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यह कहानी मेरी वाइफ अंजलि ने लिखी थी। पुरानी सारी कहानियाँ मेरे हार्ड-ड्राइव से जाती रहीं, लेकिन ये कहानी किसी ने मुझे वापस ईमेल में भेजी थी।
इसलिए इसको यहाँ ज्यों का त्यों कॉपी पेस्ट कर रहा हूँ। उम्मीद है अच्छी लगेगी।
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“ए बबुआ, सीधे सीधे बैठे रहो। बियाह करवा रहे हैं तुम्हारा। कोई लूट पाट नहीं हो रही है। अपनी बेटी दे रहे हैं, और साथ में भर भर कर आसीस। फूल सी बेटी है हमारी। तुम्हारा जीवन सवर जाएगा।” एक दबंग ने अपनी लाठी को अखिलेश के पीछे हलके से कोंचते हुए कहा। विवाह का मंडप अश्लील ठहाकों से भर गया।
और, विवाह की वेदी पर अखिलेश अपमान का घूँट पी कर बैठा रहा।
अभी अभी हुई मार की पीड़ा रह रह कर टीस दे रही थी। वो पीड़ा तो खैर सतही थी - असल में तो उसके आत्म सम्मान पर आघात हुआ था। उसकी सम्भ्रान्तता का हरण हुआ था। इन दो कौड़ी के गुंडों ने मार मार कर उसको उनकी बात मानने के लिए बेबस कर दिया था। उनकी जली कटी गालियाँ सुन कर उसके कानों में घंटे बज रहे थे। मरता क्या न करता? इसलिए बेमन से अपनी बलि-वेदी पर बैठा रहा। अपनी बुरी किस्मत को कोसता रहा। ईश्वर को दोष देता रहा, और साथ ही साथ इन दुष्टों के सपरिवार संहार के लिए अपने अभीष्ट से प्रार्थना करता रहा। उधर, पंडित जितनी जल्दी हो सके, मंत्र पढ़े जा रहा था, और रस्में पूरी किए जा रहा था। ऐसे काम जितनी जल्दी समाप्त हो जाएँ, उतना ही अच्छा।
“... विष्णुरूपिणे वराय, भरण-पोषण-आच्छादन-पालनादीनां,स्वकीयउत्तरदायित्व-भारम्, अखिलं अद्य तव पत्नीत्वेन, तुभ्यं अहं सम्प्रददे।”
विष्णु स्वरुप वर! हुँह! ऐसा विष्णुस्वरूप होता, तो मुझे मार मार कर ऐसे भुरता बनाते? और उत्तरदायित्व मुझे क्यों दे रहे हैं? ये तो अपनी बला मेरे सर मढ़ रहे हैं..’
अखिलेश कुमार अपनी कम्पनी की तरफ से एक काम के सिलसिले में इस गाँव से होकर अक्सर गुजरता था। इस गाँव के कुछ लोगों से उसकी जान पहचान भी हो गई थी। कभी कभार चाय पानी के लिए यहाँ रुकता भी था। आज जब वो इधर आया तो जीप में सवार कुछ लोगो ने जब उससे पूछा कि ‘अखिलेश कुमार आप ही हैं?’ तो उसने ‘हाँ’ कहते हुए सोचा भी नहीं होगा कि उसके साथ ऐसा भी कुछ हो सकता है, और यह कि आज ही उसका ‘जबरिया ब्याह’ भी हो जाएगा।
प्रतिज्ञा लेते हुए अखिलेश ने एक भी शब्द नहीं बोला। जब बिन मन की, बिना इच्छा के विवाह हो रहा हो, तो इन सब बातों का मतलब ही क्या रह जाता है? उसके बगल डरी सहमी बैठी उसकी ‘पत्नी’ गायत्री को तो संभवतः इन मन्त्रों का अर्थ भी नहीं मालूम था। वो तो बस यंत्रवत, जो भी कुछ उसको बोला जा रहा था, वो करती जा रही थी। कहने का मतलब यह कि इस शादी का शास्त्रों से कोई मतलब नहीं था ; हाँ, सामाजिक महत्व अवश्य था। यह सब रस्में पूरी हो जाने के बाद, अखिलेश और गायत्री पति पत्नी कहलाएँगे।
इसलिए इसको यहाँ ज्यों का त्यों कॉपी पेस्ट कर रहा हूँ। उम्मीद है अच्छी लगेगी।
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“ए बबुआ, सीधे सीधे बैठे रहो। बियाह करवा रहे हैं तुम्हारा। कोई लूट पाट नहीं हो रही है। अपनी बेटी दे रहे हैं, और साथ में भर भर कर आसीस। फूल सी बेटी है हमारी। तुम्हारा जीवन सवर जाएगा।” एक दबंग ने अपनी लाठी को अखिलेश के पीछे हलके से कोंचते हुए कहा। विवाह का मंडप अश्लील ठहाकों से भर गया।
और, विवाह की वेदी पर अखिलेश अपमान का घूँट पी कर बैठा रहा।
अभी अभी हुई मार की पीड़ा रह रह कर टीस दे रही थी। वो पीड़ा तो खैर सतही थी - असल में तो उसके आत्म सम्मान पर आघात हुआ था। उसकी सम्भ्रान्तता का हरण हुआ था। इन दो कौड़ी के गुंडों ने मार मार कर उसको उनकी बात मानने के लिए बेबस कर दिया था। उनकी जली कटी गालियाँ सुन कर उसके कानों में घंटे बज रहे थे। मरता क्या न करता? इसलिए बेमन से अपनी बलि-वेदी पर बैठा रहा। अपनी बुरी किस्मत को कोसता रहा। ईश्वर को दोष देता रहा, और साथ ही साथ इन दुष्टों के सपरिवार संहार के लिए अपने अभीष्ट से प्रार्थना करता रहा। उधर, पंडित जितनी जल्दी हो सके, मंत्र पढ़े जा रहा था, और रस्में पूरी किए जा रहा था। ऐसे काम जितनी जल्दी समाप्त हो जाएँ, उतना ही अच्छा।
“... विष्णुरूपिणे वराय, भरण-पोषण-आच्छादन-पालनादीनां,स्वकीयउत्तरदायित्व-भारम्, अखिलं अद्य तव पत्नीत्वेन, तुभ्यं अहं सम्प्रददे।”
विष्णु स्वरुप वर! हुँह! ऐसा विष्णुस्वरूप होता, तो मुझे मार मार कर ऐसे भुरता बनाते? और उत्तरदायित्व मुझे क्यों दे रहे हैं? ये तो अपनी बला मेरे सर मढ़ रहे हैं..’
अखिलेश कुमार अपनी कम्पनी की तरफ से एक काम के सिलसिले में इस गाँव से होकर अक्सर गुजरता था। इस गाँव के कुछ लोगों से उसकी जान पहचान भी हो गई थी। कभी कभार चाय पानी के लिए यहाँ रुकता भी था। आज जब वो इधर आया तो जीप में सवार कुछ लोगो ने जब उससे पूछा कि ‘अखिलेश कुमार आप ही हैं?’ तो उसने ‘हाँ’ कहते हुए सोचा भी नहीं होगा कि उसके साथ ऐसा भी कुछ हो सकता है, और यह कि आज ही उसका ‘जबरिया ब्याह’ भी हो जाएगा।
प्रतिज्ञा लेते हुए अखिलेश ने एक भी शब्द नहीं बोला। जब बिन मन की, बिना इच्छा के विवाह हो रहा हो, तो इन सब बातों का मतलब ही क्या रह जाता है? उसके बगल डरी सहमी बैठी उसकी ‘पत्नी’ गायत्री को तो संभवतः इन मन्त्रों का अर्थ भी नहीं मालूम था। वो तो बस यंत्रवत, जो भी कुछ उसको बोला जा रहा था, वो करती जा रही थी। कहने का मतलब यह कि इस शादी का शास्त्रों से कोई मतलब नहीं था ; हाँ, सामाजिक महत्व अवश्य था। यह सब रस्में पूरी हो जाने के बाद, अखिलेश और गायत्री पति पत्नी कहलाएँगे।
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