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Adultery उल्टा सीधा

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नमस्कार प्रणाम आप सभी को आशा करता हूं सब अच्छे से होंगे, काफ़ी दिनों तक एक साइलेंट रीडर रहने के बाद और बहुत सी उन्नत कहानियां पढ़ने के बाद मेरे मन में भी इच्छा है एक कहानी लिखने की, तो उसे ही शुरू करने जा रहा हूं, कहानी इंसेस्ट और एडल्ट्री दोनो ही तरह के विषयों को छुएगी, आप लोग साथ रहेंगे तो आगे बढ़ती जायेगी।
 
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अध्याय 1

बात 1960 के दशक की है, पूरा देश आजादी के दूसरे दशक में संभलने की कोशिश कर रहा था, देश में गरीबी से बुरा हाल था, राजनीतिक उथल पुथल जारी थी, पड़ोसी देशों से खतरे का डर था, ऐसे सब खतरों को झेलते हुए देश संघर्ष कर रहा था। वहीं देश के एक राज्य के एक कोने के ज़िले में बसा हुआ था एक छोटा सा गांव बरहपुर, जिसके होने ना होने का शायद ही सरकार में कोई दस्तावेज़ भी हो, एक ओर पर्वत एक ओर नदी और एक ओर घने जंगल से घिरा हुआ ये गांव प्रकृति की सुंदरता का नमूना था, जिस पर अभी समाज के मच्छरों की नजर नहीं पड़ी थी जो कि प्रकृति का ख़ून चूस चूस कर अपने लालच की तोंद को भरते रहते थे। किसी सरकारी रिकॉर्ड में नाम न होना एक तरह से गांव के लिए अच्छा ही था, बरहपुर नदी के किनारे ही बसा हुआ था,
यहां के लोगों का मुख्य काम खेती और पशुपालन था, यहां के लोग अन्न के साथ सब्जियों की खेती ज़्यादा करते थे जिन्हें वो नदी के रास्ते शहर में जाकर बेचते थे, जिनके भैंस या गाय ज़्यादा थी वो दूध दही घी भी शहर में बेचकर आते थे, जिससे इनकी आमदनी होती थी, घर सारे कच्चे ही थे, लोग भोले भी हैं और चालू भी जैसा हर जगह होता है, अच्छाई और बुराई, सही और गलत, प्रेम और हवस ये गांव सब से भरपूर है खैर आप लोग गांव के बारे में समझ गए होंगे तो अब शुरू करते हैं और गांव के हाल जानते हैं।
लल्लू- अरे जल्दी बिछा यार अब रहा नहीं जा रहा,
छोटू - बिछा तो रहे हैं उधर का कोना तो पकड़ ना।
भूरा - ये साला ऐसा ही है, कोई काम नही करना चाहता।
लल्लू - कर तो रहा हूं तुम दोनो ना तुंरत गांड़ जैसा मुंह बनाने लगते हो,
लल्लू ने भी अपनी ओर से चादर को पकड़ते हुए कहा, और जल्दी ही तीनों ने चादर बिछा दी और तुरंत उस पर चढ़ कर बैठ गए, अभी तीनों ही गांव से सटे जंगल के कोने पर ही एक पेड़ के नीचे अपने प्रतिदिन के ठिकाने पर थे,
छोटू- चल बिछ गई अब बताओ आज कौन किसे किसे पेलेगा,
छोटू अपने पुराने से पजामे के ऊपर से ही अपने सांप का गला घौंटते हुए बोला।
भूरा- भैया आज मेरी तो नज़र मुन्नी चाची की गांड पर है आज उनकी गांड मारे बिना नहीं छोड़ूंगा।
लल्लू- अरे वाह साले, तो आज मैं भी तगड़ा माल चोदूंगा,
छोटू - किसे?
लल्लू - पंडितायन को, अःह्ह्ह क्या मोटी मोटी दूध की थैलियां हैं यार। तेरा मन आज किस पर आ रहा है बे,
छोटू - आज मेरा मन तो सुबह से ही दुकान वाली पंखुड़ी चाची पर आया है, सुबह दुकान में जबसे झुकते हुए उनके पतीले देखे हैं यार लोड़ा बैठने का नाम ही नहीं ले रहा,
भूरा - अह्ह् साले कड़क माल चुना है, मज़ा आ जायेगा।
लल्लू - तो अब शुरू करते हैं यार अब रुका नहीं जा रहा।
लल्लू ने अपना पजामा नीचे खिसकाते हुए अपना कड़क लंड बाहर निकालकर हिलाते हुए कहा,
लल्लू के साथ ही भूरा और छोटू ने भी अपने अपने लंड बाहर निकाल लिए और दोनों ने अपनी अपनी मुठियां अपने अपने हथियार पर कस लीं और गोलियां चलानी शुरू कर दीं, तीनों का ये प्रतिदिन का काम था तीनों मिलकर एक साथ गांव की औरतों को चोदने की कल्पना करते हुए अपने अपने लंड मुठियाते थे, इस खेल की शुरुआत लल्लू से हूई थी जो कि पहले अकेले आकर जंगल में मुठ मारता था, कुछ ही दिनों में पर छोटू और भूरा ने उसे पकड़ लिया तो शुरुआती झिझक के बाद ये दोनों भी खेल में शामिल हो गए, क्योंकि दोनों को ही मजा आने लगा, पहले तो तीनों एक बाद बार जो सिनेमा में हीरोइन देखी थी उसे सोच सोच कर मुठियाते थे, फ़िर धीरे धीरे आपसी सहमति से उनके गांव की औरतें ही उनके पानी गिराने का कारण बनने लगी, और बनें भी क्यों न एक से बढ़कर एक भरे हुए बदन की औरत थी उनके गांव में, अब ये ही उनका खेल भी था मनोरंजन भी और हवस मिटाने का तरीका भी। आज भी उसी खेल का एक और भाग चल रहा था जिसमें सबसे पहले अपनी दौड़ खत्म की भूरा ने जो मुन्नी चाची की गांड को ख्यालों में चोदते हुए झड़ने लगा, उसके लंड से रस की पिचकारी निकल कर घास को भिगाने लगी, अगर घास गर्भ धारण कर सकती तो जल्दी ही भूरी घास उगने लगती वहां, क्योंकि भूरा ने इतना रस को गिराया था, भूरा झड़ने के बाद पीछे होकर लंबी सांसे भरकर आराम लेने लगा, उसके बाद लल्लू और छोटू भी पीछे नहीं थे और जल्दी ही दोनों के लंड पिचकारी छोड़ रहे थे, और अपने अपने सामने की घास को तर कर रहे थे। झड़ने के बाद और थोड़ा सा आराम करने के बाद तीनों गांव की ओर निकल गए।

तीनों ही एक ही उमर के थे, तीनों अभी किशोर थे जिनके अंदर जवानी पूरी तरह से रंग दिखा रही थी, आइए अब आपका परिचय करा दिया जाए। लल्लू तीनों में थोड़ा लम्बा था और कुछ महीने बढ़ा भी, इसलिए तीनों का मुखिया चाहे अनचाहे ये ही बन जाता था, लल्लू के परिवार में कुल मिलाकर पांच लोग ही थे उसकी मां लता, बाप मगन उसकी बड़ी बहन नंदिनी और चौथा वो खुद और पांचवें उसके दादा कुंवर पाल।

भूरा के घर में भी कुछ ऐसा ही हाल था उसके पिताजी राजकुमार, मां रत्ना, उसकी एक बड़ी बहन थी रानी जिसका विवाह हो चुका था फिर एक बड़ा भाई राजू उसके दादा प्यारेलाल और अंत में वो उसका असली नाम रजत था, पर शायद ही कभी कोई उसका नाम भूरा के अलावा लेता हो।

अंत में था छोटू जो कि अपने थोड़े छोटे कद के कारण इस नाम से प्रसिद्ध हुआ था उसका असली नाम पवन था , उसके घर में उसकी मां पुष्पा और बाप सुभाष थे साथ ही उसके चाचा संजय चाची सुधा और उनका एक बेटा राजेश और बेटी नीलम भी रहते थे, साथ ही उसके दादा सोमपाल और दादी फुलवा रहती थी,

ये था इनका एक छोटा सा परिचय बाकी जैसे जैसे आप सबसे मिलते जायेंगे उनके बारे में जानते जाएंगे।
 
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अध्याय 2
शाम का समय हो चला था तीनों दोस्त भी साथ में अपनी अपनी भैंसों को चराकर लौट रहे थे, गांव में कोई विद्यालय तो था नहीं तो पढ़ना लिखना तो था ही नहीं, हां बस हिसाब लगाने लायक तीनों को ही उनके बाप दादा ने सिखा दिया था अभी तो तीनों पर पशुओं की जिम्मेदारी होती थी, उनके बाप दादा भाई खेती और शहर जाकर सब्जी बेचने का काम करते थे, गांव ज्यादा बढ़ा तो था नहीं इसलिए तीनों के घर भी आस पास ही थे, और लगभग एक ही तरह से बने हुए थे, जिनमें जानवरों के लिए भी घर में ही छप्पर डालकर जगह बनाई हुई थी।

खैर तीनों दोस्त अपने अपने पशुओं को हांकते हुए चले आ रहे थे,
लल्लू - ए हट्ट सीधी चल हुरर।
भूरा - ओए छोटू कल टेम से नहीं उठा न तो बताऊंगा तुझे,
छोटू - अरे हां ना एक दिन थोड़ा आंख क्या लग गई तू तो मेरी गांड के पीछे ही पड़ गया है।
भूरा - मुझे न तेरी गांड के पीछे लगने का कोई शौक नहीं है, साले तेरी वजह से जिनकी देखनी थी उनकी नहीं देख पाया।
लल्लू- अरे कोई बात नहीं भूरा अगर ये कल नहीं उठा ना तो हम दोनों ही निकल जाएंगे,
छोटू - अरे यार ये क्या बात हुई, मतलब ये ही दोस्ती है का,
भूरा - अरे दोस्ती है तो तेरा ठेका ले लें उठाने का, भेंचो गांड उठाकर सोता क्यूं रहता है इतनी देर तक?
लल्लू - ज़रूर ये रात में जागता रहता होगा,
छोटू ये सुन थोड़ा सकपका जाता है।
छोटू - नहीं तो, मैं तो जल्दी ही सो जाता हूं, देखना कल तुम आओगे उससे पहले उठा मिलूंगा,
भूरा - नहीं उठेगा तो तेरा ही नुकसान है क्यों बे लल्लू,
लल्लू - और क्या, हम तो चले जाएंगे रोज रोज थोड़े ही तेरे जागने का इंतजार करेंगे।
छोटू - अरे ठीक है ना बोला तो कल सबसे पहले ही उठ कर मिलूंगा।
भूरा - चल देखते हैं।

ऐसे ही बहस करते हुए तीनों घर के पास आ गए और फिर अपने अपने पशुओं के साथ घर में घुस गए,
लल्लू - दीदी, मां, जरा बंधवाना तो, आ गया मैं।
लल्लू ने घर में घुसते ही आवाज लगाई, क्योंकि सारे जानवरों को बांधना अकेले के बस की बात नहीं थी क्योंकि एक को पकड़ो तो दूसरा भाग जाता था, उसकी आवाज सुनकर तुरंत उसकी बहन नंदिनी कमरे से आई और उसकी मदद करने लगी,
नंदिनी - क्यूँरे इतनी देर से क्यों आया आज सूरज डूबने को है?
लल्लू: अरे दीदी जंगल के अंदर गए थे न, इसलिए ज़रा देर हो गई।
लल्लू रस्सी को खूंटे में बांधता हुआ बोला।
नंदिनी: अच्छा तुम तीनों को पहले ही बोला है ना कि जंगल के अंदर मत जाया करो, सही नहीं है। नंदिनी भी रस्सी के फंदे खूंटे में लगाते हुए बोली।
लल्लू: अरे मैदान की घास तो पहले ही चर चुकी है, अब कुछ दिन लगेंगे उगने में तो तब तक कुछ तो जुगाड़ बैठाना पड़ेगा ना।
नंदिनी: जुगाड़ तो ठीक है पर ध्यान से जंगल में अंदर जाना ठीक नही है ध्यान से रहना तीनों।
लल्लू: हां दीदी, हम ध्यान रखते हैं और साथ ही रहते हैं,
दोनों ने मिलकर सब पशुओं को बांध दिया था,
नंदिनी: चल ठीक है अब हाथ पैर धो ले आ पानी डाल देती हूं,
नंदिनी और लल्लू दोनों पटिया पर आ गए और नंदिनी बाल्टी से पानी लोटे में भरकर लल्लू के हाथ पैर धुलवाने लगी।

झुककर हाथ पैर धोते हुए अकस्मात ही लल्लू की नज़र नंदिनी की छाती पर चली गई जो कि नंदिनी के झुके होने से उसका सूट नीचे लटक रहा था और लल्लू को अपनी बहन की छाती की रेखा नज़र आने लगी ये देख लल्लू थोड़ा सकुचाया और उसने तुरंत अपनी नज़र वहां से हटा ली, हालांकि वो तीनों दोस्त गांव की औरतों को सोचकर मुठियाते ज़रूर थे पर अपने घर की औरतों के लिए उनके मन में कोई भी मैल नहीं आया था। एक बार नज़र जाने के बाद लल्लू के मन में एक पल को खयाल भी आया दोबारा से झांकने का पर उस खयाल को लल्लू ने मन में ही दबा दिया।
वैसे लल्लू इस तरह का खयाल आना गलत नहीं था, आखिर जवान होता लड़का था और उसे ऐसा दृश्य दिखेगा तो कौन नहीं डोलेगा? आखिर नंदिनी किसी भी तरह से अब कम नहीं रह गई थी, लल्लू से तीन वर्ष बड़ी थी पर उसका बदन कुछ और ही कहानी बयां करता था, जवानी के बादल उस पर बड़ी जोर से बरसे थे, गोरे रंग का पूरा बदन बिलकुल कस गया था, कुछ बरस पहले छाती पर जहां नींबू थे अब वो पके हुए आम बन चुके थे, पिछले बरस में बने सारे सूट उसे कसके आने लगे थे, खासकर छाती पर।
उसके नितंब भी अब ऐसे हो गए थे कि जिन्हें हर कोई एक बार आंख भर के देखता ज़रूर था कई पुरानी सलवार तो बैठते झुकते हुए उधड़ चुकी थी, नंदिनी जवानी के पूरे चढ़ाव पर थी। कली पूरी तरह रस से भर चुकी थी, और बस इंतज़ार था तो भंवरे का जो उसे कली से फूल बनाता।

ख़ैर सूरज डूब चुका था लल्लू हाथ पैर धोकर आंगन में पड़ी खाट पर आकर पसर जाता है, नंदिनी भी घर के काम में लग जाती है, लल्लू का घर वैसा ही था जैसे उस समय अक्सर घर होते थे, घर में दो कमरे थे दोनों एक दूसरे के बगल में थे, कमरों के आगे छप्पर पड़ा था जिसके नीचे रसोई थी जैसी गांव में होती थी, मिट्टी का चूल्हा था और एक कच्ची 3 फुट की दीवार ओट के लिए जिससे आंगन में से रसोई ना दिखे, साथ ही हवा भी न लगे चूल्हे में, छप्पर के आगे आंगन था और आंगन के दूसरी ओर एक और छप्पर था जिसमें पशु बंधे थे, आंगन में ही एक ओर नल लगा हुआ था उसके बगल में ही खुली हुई पटिया थी और उसके बगल में ही चार बांस गाड़ कर और उन्हें कपड़े और चादर आदि से ढक कर औरतों के नहाने के लिए एक जगह बनी हुई थी, बाकी आदमी तो खुली हुई पटिया पर ही नहा लेते थे।

लल्लू ओ लल्लू ले खाना ले जा।
रसोई में से ही लता ने आवाज लगाकर लल्लू को पुकारा,
लल्लू: आया मां।
लल्लू तुरंत उठ कर रसोई में पहुंचा तो लता ने उसके हाथ में थाली पकड़ा दी,
लल्लू: मां आम का अचार भी दे दो ना,
लता: अरे तेरा आम का अचार, रुक अभी देती हूं,
लता अपने पल्लू से चेहरे पर आए पसीने को पोंछते हुए बोली, लल्लू भी अपनी थाली लेकर वहीं बैठ गया, लता ने पीछे से डिब्बा लिया और आम का अचार लल्लू की थाली में डाल दिया, लल्लू बड़े चाव से खाने लगा,
लता: अरे तू क्यों यहां बैठ के खा रहा है, देख कितनी गर्मी है चूल्हे के आगे, जा आंगन में बैठ कर खा ले,
लता ने चूल्हे में लकड़ियों को सरकाते हुए कहा,
लल्लू: अरे मां फिर रोटी लेने बार बार आना पड़ेगा,
लता: अरे देखो तो अभी से इतना आलस लगता है तुझ पर सबसे ज्यादा बुढ़ापा चढ़ रहा है,
लल्लू ये सुनकर दांत निपोरने लगा,
लता: ले और रोटी ले जा और आंगन में ही बैठ, मुझे तो झेलनी पड़ ही रही है तू क्यूं झुलस रहा है,
लल्लू ने अपनी मां की बात मानी और थाली लेकर आंगन में बैठ गया खाने, वैसे भी वो गर्मी से परेशान मां को गुस्सा दिलाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था, इतने में नंदिनी भी कमरे से बाहर आ गई काम निपटा कर, लल्लू का खाना खत्म हुआ ही था कि उसके पापा मगन और दादा कुंवरपाल भी खेत से घर आ गए, लल्लू ने दोनों के हाथ पैर धुलवाए, और फिर नंदिनी ने दोनों को खाना परोसा, उन्हें खिलाने के बाद मां बेटी ने खाया और फ़िर बर्तन आदि का काम निपटाया, बिजली का तो कोई नाम ही नहीं था गांव में इसलिए सूरज डूबने तक खाना पीना निपटा कर सब सोने के लिए लेट जाते थे, सुबह जल्दी उठना फिर शौच के लिए खेतों में जाना, दिनचर्या ही गांव की अक्सर ऐसी होती है।
सब निपटा कर लल्लू और नंदिनी ने मिलकर सबके बिस्तर लगा दिए, चार खाट आंगन में बिछा दी गई जिसमें एक पर लल्लू के दादा कुंवर पाल एक पर उसके पापा मगन एक पर नंदिनी और एक पर लल्लू खुद सोता था, लता कमरे के अंदर सोती थी क्यूंकि ससुर के सामने बहु कैसे सो सकती थी, लल्लू अपने दादा से कहानी सुनने की ज़िद करता जो कि बचपन से उसकी आदत थी, कुंवरपाल भी अपने अनुभव की किताब से एक पन्ना निकालकर जोड़ तोड़ कर कहानी सुनाने लगे, हालांकि कहानी सुनने का रोमांच नंदिनी को भी होता था पर वो अपने आप से कहती नहीं थी। कहानी सुनते सुनते लल्लू और नंदिनी सो गए तो कुंवर पाल ने भी आंखें मूंद ली और नींद की गहराई में खो गए, सब नींद के आगोश में चले गए सिर्फ मगन के जो कि हर बार की तरह ही सबके सोने के बाद अपनी खाट से आहिस्ता से उठे और धीरे धीरे कमरे की ओर बढ़ गए जहां उनकी पत्नी लता सो रही थी,

आगे की कहानी जारी रहेगी। धन्यवाद।।
 

insotter

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अध्याय 2
शाम का समय हो चला था तीनों दोस्त भी साथ में अपनी अपनी भैंसों को चराकर लौट रहे थे, गांव में कोई विद्यालय तो था नहीं तो पढ़ना लिखना तो था ही नहीं, हां बस हिसाब लगाने लायक तीनों को ही उनके बाप दादा ने सिखा दिया था अभी तो तीनों पर पशुओं की जिम्मेदारी होती थी, उनके बाप दादा भाई खेती और शहर जाकर सब्जी बेचने का काम करते थे, गांव ज्यादा बढ़ा तो था नहीं इसलिए तीनों के घर भी आस पास ही थे, और लगभग एक ही तरह से बने हुए थे, जिनमें जानवरों के लिए भी घर में ही छप्पर डालकर जगह बनाई हुई थी।

खैर तीनों दोस्त अपने अपने पशुओं को हांकते हुए चले आ रहे थे,
लल्लू - ए हट्ट सीधी चल हुरर।
भूरा - ओए छोटू कल टेम से नहीं उठा न तो बताऊंगा तुझे,
छोटू - अरे हां ना एक दिन थोड़ा आंख क्या लग गई तू तो मेरी गांड के पीछे ही पड़ गया है।
भूरा - मुझे न तेरी गांड के पीछे लगने का कोई शौक नहीं है, साले तेरी वजह से जिनकी देखनी थी उनकी नहीं देख पाया।
लल्लू- अरे कोई बात नहीं भूरा अगर ये कल नहीं उठा ना तो हम दोनों ही निकल जाएंगे,
छोटू - अरे यार ये क्या बात हुई, मतलब ये ही दोस्ती है का,
भूरा - अरे दोस्ती है तो तेरा ठेका ले लें उठाने का, भेंचो गांड उठाकर सोता क्यूं रहता है इतनी देर तक?
लल्लू - ज़रूर ये रात में जागता रहता होगा,
छोटू ये सुन थोड़ा सकपका जाता है।
छोटू - नहीं तो, मैं तो जल्दी ही सो जाता हूं, देखना कल तुम आओगे उससे पहले उठा मिलूंगा,
भूरा - नहीं उठेगा तो तेरा ही नुकसान है क्यों बे लल्लू,
लल्लू - और क्या, हम तो चले जाएंगे रोज रोज थोड़े ही तेरे जागने का इंतजार करेंगे।
छोटू - अरे ठीक है ना बोला तो कल सबसे पहले ही उठ कर मिलूंगा।
भूरा - चल देखते हैं।

ऐसे ही बहस करते हुए तीनों घर के पास आ गए और फिर अपने अपने पशुओं के साथ घर में घुस गए,
लल्लू - दीदी, मां, जरा बंधवाना तो, आ गया मैं।
लल्लू ने घर में घुसते ही आवाज लगाई, क्योंकि सारे जानवरों को बांधना अकेले के बस की बात नहीं थी क्योंकि एक को पकड़ो तो दूसरा भाग जाता था, उसकी आवाज सुनकर तुरंत उसकी बहन नंदिनी कमरे से आई और उसकी मदद करने लगी,
नंदिनी - क्यूँरे इतनी देर से क्यों आया आज सूरज डूबने को है?
लल्लू: अरे दीदी जंगल के अंदर गए थे न, इसलिए ज़रा देर हो गई।
लल्लू रस्सी को खूंटे में बांधता हुआ बोला।
नंदिनी: अच्छा तुम तीनों को पहले ही बोला है ना कि जंगल के अंदर मत जाया करो, सही नहीं है। नंदिनी भी रस्सी के फंदे खूंटे में लगाते हुए बोली।
लल्लू: अरे मैदान की घास तो पहले ही चर चुकी है, अब कुछ दिन लगेंगे उगने में तो तब तक कुछ तो जुगाड़ बैठाना पड़ेगा ना।
नंदिनी: जुगाड़ तो ठीक है पर ध्यान से जंगल में अंदर जाना ठीक नही है ध्यान से रहना तीनों।
लल्लू: हां दीदी, हम ध्यान रखते हैं और साथ ही रहते हैं,
दोनों ने मिलकर सब पशुओं को बांध दिया था,
नंदिनी: चल ठीक है अब हाथ पैर धो ले आ पानी डाल देती हूं,
नंदिनी और लल्लू दोनों पटिया पर आ गए और नंदिनी बाल्टी से पानी लोटे में भरकर लल्लू के हाथ पैर धुलवाने लगी।

झुककर हाथ पैर धोते हुए अकस्मात ही लल्लू की नज़र नंदिनी की छाती पर चली गई जो कि नंदिनी के झुके होने से उसका सूट नीचे लटक रहा था और लल्लू को अपनी बहन की छाती की रेखा नज़र आने लगी ये देख लल्लू थोड़ा सकुचाया और उसने तुरंत अपनी नज़र वहां से हटा ली, हालांकि वो तीनों दोस्त गांव की औरतों को सोचकर मुठियाते ज़रूर थे पर अपने घर की औरतों के लिए उनके मन में कोई भी मैल नहीं आया था। एक बार नज़र जाने के बाद लल्लू के मन में एक पल को खयाल भी आया दोबारा से झांकने का पर उस खयाल को लल्लू ने मन में ही दबा दिया।
वैसे लल्लू इस तरह का खयाल आना गलत नहीं था, आखिर जवान होता लड़का था और उसे ऐसा दृश्य दिखेगा तो कौन नहीं डोलेगा? आखिर नंदिनी किसी भी तरह से अब कम नहीं रह गई थी, लल्लू से तीन वर्ष बड़ी थी पर उसका बदन कुछ और ही कहानी बयां करता था, जवानी के बादल उस पर बड़ी जोर से बरसे थे, गोरे रंग का पूरा बदन बिलकुल कस गया था, कुछ बरस पहले छाती पर जहां नींबू थे अब वो पके हुए आम बन चुके थे, पिछले बरस में बने सारे सूट उसे कसके आने लगे थे, खासकर छाती पर।
उसके नितंब भी अब ऐसे हो गए थे कि जिन्हें हर कोई एक बार आंख भर के देखता ज़रूर था कई पुरानी सलवार तो बैठते झुकते हुए उधड़ चुकी थी, नंदिनी जवानी के पूरे चढ़ाव पर थी। कली पूरी तरह रस से भर चुकी थी, और बस इंतज़ार था तो भंवरे का जो उसे कली से फूल बनाता।

ख़ैर सूरज डूब चुका था लल्लू हाथ पैर धोकर आंगन में पड़ी खाट पर आकर पसर जाता है, नंदिनी भी घर के काम में लग जाती है, लल्लू का घर वैसा ही था जैसे उस समय अक्सर घर होते थे, घर में दो कमरे थे दोनों एक दूसरे के बगल में थे, कमरों के आगे छप्पर पड़ा था जिसके नीचे रसोई थी जैसी गांव में होती थी, मिट्टी का चूल्हा था और एक कच्ची 3 फुट की दीवार ओट के लिए जिससे आंगन में से रसोई ना दिखे, साथ ही हवा भी न लगे चूल्हे में, छप्पर के आगे आंगन था और आंगन के दूसरी ओर एक और छप्पर था जिसमें पशु बंधे थे, आंगन में ही एक ओर नल लगा हुआ था उसके बगल में ही खुली हुई पटिया थी और उसके बगल में ही चार बांस गाड़ कर और उन्हें कपड़े और चादर आदि से ढक कर औरतों के नहाने के लिए एक जगह बनी हुई थी, बाकी आदमी तो खुली हुई पटिया पर ही नहा लेते थे।

लल्लू ओ लल्लू ले खाना ले जा।
रसोई में से ही लता ने आवाज लगाकर लल्लू को पुकारा,
लल्लू: आया मां।
लल्लू तुरंत उठ कर रसोई में पहुंचा तो लता ने उसके हाथ में थाली पकड़ा दी,
लल्लू: मां आम का अचार भी दे दो ना,
लता: अरे तेरा आम का अचार, रुक अभी देती हूं,
लता अपने पल्लू से चेहरे पर आए पसीने को पोंछते हुए बोली, लल्लू भी अपनी थाली लेकर वहीं बैठ गया, लता ने पीछे से डिब्बा लिया और आम का अचार लल्लू की थाली में डाल दिया, लल्लू बड़े चाव से खाने लगा,
लता: अरे तू क्यों यहां बैठ के खा रहा है, देख कितनी गर्मी है चूल्हे के आगे, जा आंगन में बैठ कर खा ले,
लता ने चूल्हे में लकड़ियों को सरकाते हुए कहा,
लल्लू: अरे मां फिर रोटी लेने बार बार आना पड़ेगा,
लता: अरे देखो तो अभी से इतना आलस लगता है तुझ पर सबसे ज्यादा बुढ़ापा चढ़ रहा है,
लल्लू ये सुनकर दांत निपोरने लगा,
लता: ले और रोटी ले जा और आंगन में ही बैठ, मुझे तो झेलनी पड़ ही रही है तू क्यूं झुलस रहा है,
लल्लू ने अपनी मां की बात मानी और थाली लेकर आंगन में बैठ गया खाने, वैसे भी वो गर्मी से परेशान मां को गुस्सा दिलाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था, इतने में नंदिनी भी कमरे से बाहर आ गई काम निपटा कर, लल्लू का खाना खत्म हुआ ही था कि उसके पापा मगन और दादा कुंवरपाल भी खेत से घर आ गए, लल्लू ने दोनों के हाथ पैर धुलवाए, और फिर नंदिनी ने दोनों को खाना परोसा, उन्हें खिलाने के बाद मां बेटी ने खाया और फ़िर बर्तन आदि का काम निपटाया, बिजली का तो कोई नाम ही नहीं था गांव में इसलिए सूरज डूबने तक खाना पीना निपटा कर सब सोने के लिए लेट जाते थे, सुबह जल्दी उठना फिर शौच के लिए खेतों में जाना, दिनचर्या ही गांव की अक्सर ऐसी होती है।
सब निपटा कर लल्लू और नंदिनी ने मिलकर सबके बिस्तर लगा दिए, चार खाट आंगन में बिछा दी गई जिसमें एक पर लल्लू के दादा कुंवर पाल एक पर उसके पापा मगन एक पर नंदिनी और एक पर लल्लू खुद सोता था, लता कमरे के अंदर सोती थी क्यूंकि ससुर के सामने बहु कैसे सो सकती थी, लल्लू अपने दादा से कहानी सुनने की ज़िद करता जो कि बचपन से उसकी आदत थी, कुंवरपाल भी अपने अनुभव की किताब से एक पन्ना निकालकर जोड़ तोड़ कर कहानी सुनाने लगे, हालांकि कहानी सुनने का रोमांच नंदिनी को भी होता था पर वो अपने आप से कहती नहीं थी। कहानी सुनते सुनते लल्लू और नंदिनी सो गए तो कुंवर पाल ने भी आंखें मूंद ली और नींद की गहराई में खो गए, सब नींद के आगोश में चले गए सिर्फ मगन के जो कि हर बार की तरह ही सबके सोने के बाद अपनी खाट से आहिस्ता से उठे और धीरे धीरे कमरे की ओर बढ़ गए जहां उनकी पत्नी लता सो रही थी,


आगे की कहानी जारी रहेगी। धन्यवाद।।
Badiya update 🎉🎉 badiya shuruwat 👍👍 Sabhi ko ek sath leke chalna maza aayega
 
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अध्याय 1

बात 1960 के दशक की है, पूरा देश आजादी के दूसरे दशक में संभलने की कोशिश कर रहा था, देश में गरीबी से बुरा हाल था, राजनीतिक उथल पुथल जारी थी, पड़ोसी देशों से खतरे का डर था, ऐसे सब खतरों को झेलते हुए देश संघर्ष कर रहा था। वहीं देश के एक राज्य के एक कोने के ज़िले में बसा हुआ था एक छोटा सा गांव बरहपुर, जिसके होने ना होने का शायद ही सरकार में कोई दस्तावेज़ भी हो, एक ओर पर्वत एक ओर नदी और एक ओर घने जंगल से घिरा हुआ ये गांव प्रकृति की सुंदरता का नमूना था, जिस पर अभी समाज के मच्छरों की नजर नहीं पड़ी थी जो कि प्रकृति का ख़ून चूस चूस कर अपने लालच की तोंद को भरते रहते थे। किसी सरकारी रिकॉर्ड में नाम न होना एक तरह से गांव के लिए अच्छा ही था, बरहपुर नदी के किनारे ही बसा हुआ था,
यहां के लोगों का मुख्य काम खेती और पशुपालन था, यहां के लोग अन्न के साथ सब्जियों की खेती ज़्यादा करते थे जिन्हें वो नदी के रास्ते शहर में जाकर बेचते थे, जिनके भैंस या गाय ज़्यादा थी वो दूध दही घी भी शहर में बेचकर आते थे, जिससे इनकी आमदनी होती थी, घर सारे कच्चे ही थे, लोग भोले भी हैं और चालू भी जैसा हर जगह होता है, अच्छाई और बुराई, सही और गलत, प्रेम और हवस ये गांव सब से भरपूर है खैर आप लोग गांव के बारे में समझ गए होंगे तो अब शुरू करते हैं और गांव के हाल जानते हैं।
लल्लू- अरे जल्दी बिछा यार अब रहा नहीं जा रहा,
छोटू - बिछा तो रहे हैं उधर का कोना तो पकड़ ना।
भूरा - ये साला ऐसा ही है, कोई काम नही करना चाहता।
लल्लू - कर तो रहा हूं तुम दोनो ना तुंरत गांड़ जैसा मुंह बनाने लगते हो,
लल्लू ने भी अपनी ओर से चादर को पकड़ते हुए कहा, और जल्दी ही तीनों ने चादर बिछा दी और तुरंत उस पर चढ़ कर बैठ गए, अभी तीनों ही गांव से सटे जंगल के कोने पर ही एक पेड़ के नीचे अपने प्रतिदिन के ठिकाने पर थे,
छोटू- चल बिछ गई अब बताओ आज कौन किसे किसे पेलेगा,
छोटू अपने पुराने से पजामे के ऊपर से ही अपने सांप का गला घौंटते हुए बोला।
भूरा- भैया आज मेरी तो नज़र मुन्नी चाची की गांड पर है आज उनकी गांड मारे बिना नहीं छोड़ूंगा।
लल्लू- अरे वाह साले, तो आज मैं भी तगड़ा माल चोदूंगा,
छोटू - किसे?
लल्लू - पंडितायन को, अःह्ह्ह क्या मोटी मोटी दूध की थैलियां हैं यार। तेरा मन आज किस पर आ रहा है बे,
छोटू - आज मेरा मन तो सुबह से ही दुकान वाली पंखुड़ी चाची पर आया है, सुबह दुकान में जबसे झुकते हुए उनके पतीले देखे हैं यार लोड़ा बैठने का नाम ही नहीं ले रहा,
भूरा - अह्ह् साले कड़क माल चुना है, मज़ा आ जायेगा।
लल्लू - तो अब शुरू करते हैं यार अब रुका नहीं जा रहा।
लल्लू ने अपना पजामा नीचे खिसकाते हुए अपना कड़क लंड बाहर निकालकर हिलाते हुए कहा,
लल्लू के साथ ही भूरा और छोटू ने भी अपने अपने लंड बाहर निकाल लिए और दोनों ने अपनी अपनी मुठियां अपने अपने हथियार पर कस लीं और गोलियां चलानी शुरू कर दीं, तीनों का ये प्रतिदिन का काम था तीनों मिलकर एक साथ गांव की औरतों को चोदने की कल्पना करते हुए अपने अपने लंड मुठियाते थे, इस खेल की शुरुआत लल्लू से हूई थी जो कि पहले अकेले आकर जंगल में मुठ मारता था, कुछ ही दिनों में पर छोटू और भूरा ने उसे पकड़ लिया तो शुरुआती झिझक के बाद ये दोनों भी खेल में शामिल हो गए, क्योंकि दोनों को ही मजा आने लगा, पहले तो तीनों एक बाद बार जो सिनेमा में हीरोइन देखी थी उसे सोच सोच कर मुठियाते थे, फ़िर धीरे धीरे आपसी सहमति से उनके गांव की औरतें ही उनके पानी गिराने का कारण बनने लगी, और बनें भी क्यों न एक से बढ़कर एक भरे हुए बदन की औरत थी उनके गांव में, अब ये ही उनका खेल भी था मनोरंजन भी और हवस मिटाने का तरीका भी। आज भी उसी खेल का एक और भाग चल रहा था जिसमें सबसे पहले अपनी दौड़ खत्म की भूरा ने जो मुन्नी चाची की गांड को ख्यालों में चोदते हुए झड़ने लगा, उसके लंड से रस की पिचकारी निकल कर घास को भिगाने लगी, अगर घास गर्भ धारण कर सकती तो जल्दी ही भूरी घास उगने लगती वहां, क्योंकि भूरा ने इतना रस को गिराया था, भूरा झड़ने के बाद पीछे होकर लंबी सांसे भरकर आराम लेने लगा, उसके बाद लल्लू और छोटू भी पीछे नहीं थे और जल्दी ही दोनों के लंड पिचकारी छोड़ रहे थे, और अपने अपने सामने की घास को तर कर रहे थे। झड़ने के बाद और थोड़ा सा आराम करने के बाद तीनों गांव की ओर निकल गए।

तीनों ही एक ही उमर के थे, तीनों अभी किशोर थे जिनके अंदर जवानी पूरी तरह से रंग दिखा रही थी, आइए अब आपका परिचय करा दिया जाए। लल्लू तीनों में थोड़ा लम्बा था और कुछ महीने बढ़ा भी, इसलिए तीनों का मुखिया चाहे अनचाहे ये ही बन जाता था, लल्लू के परिवार में कुल मिलाकर पांच लोग ही थे उसकी मां लता, बाप मगन उसकी बड़ी बहन नंदिनी और चौथा वो खुद और पांचवें उसके दादा कुंवर पाल।

छोटू के घर में भी कुछ ऐसा ही हाल था उसके पिताजी राजकुमार, मां रत्ना, उसकी एक बड़ी बहन थी रानी जिसका विवाह हो चुका था फिर एक बड़ा भाई राजू उसके दादा प्यारेलाल और अंत में वो उसका असली नाम रजत था, पर शायद ही कभी कोई उसका नाम छोटू के अलावा लेता हो।

अंत में था भूरा जो कि अपने बालों के रंग के कारण इस नाम से प्रसिद्ध हुआ था उसका असली नाम पवन था , उसके घर में उसकी मां पुष्पा और बाप सुभाष थे साथ ही उसके चाचा संजय चाची सुधा और उनका एक बेटा राजेश और बेटी नीलम भी रहते थे, साथ ही उसके दादा सोमपाल और दादी फुलवा रहती थी,

ये था इनका एक छोटा सा परिचय बाकी जैसे जैसे आप सबसे मिलते जायेंगे उनके बारे में जानते जाएंगे।
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