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Note: I am not a Original Writer, It is c/p Story From Net.
Credit goes to original writer : Jatin
दोस्तों ये कहानी है इंसानी रिश्तों की जो कक आज भी हमें ससखाती है कक हमें रिश्ते कै से ननभाने चाहहए। दोस्तों
रिश्तों में कभी भी बासीपन नह ं आना चाहहए।
***** *****
“ये मैंकहा ह ूँ? मैं तो अपने कमिे में नींद की गोल लेकि सोई थी। मैं यहां कै से आ गई? ककसका कमिा है
ये?” आूँखें खुलते ह ज़ि ना के मन में हजािों सवाल घम ने लगते हैं। एक अजं ाना भय उसके मन को घेि लते ा
है। वो कमिे को बड़े गोि से देखती है।
“कह मैं सपना तो नह ं देख िह …” ज़ि ना सोचती है।
“नह ं नह ं ये सपना नह ं है। पि मैंह ूँकहा?” ज़ि ना हैिानी में पड़ जाती है। वो हहम्मत किके धीिे से बबस्ति से
खड़ी होकि दबे पाूँव कमिे से बाहि आती है।
“बबल्कुल सन सान सा माहौल है। आखखि हो क्या िहा है?” ज़ि ना को सामने बने ककचन में कुछ आहट सनु ाई
देती है।
“ककचन में कोई है। कौन हो सकता है?” ज़ि ना दबे पाूँव ककचन के दिवाजे पि आती है। अंदि खड़े लड़के को
देखकि उसके होश उड़ जाते हैं।
“अिे, ये तो आहदत्य है… ये यहां क्या कि िहा है? क्या ये मझु े यहां लेकि आया है। इसकी हहम्मत कैसे हुई?”
ज़ि ना दिवाजे पि खड़े-खड़े सोचती है।
आहदत्य उसका क्लास मेट भी था औि पड़ोसी भी। आहदत्य औि ज़ि ना के परिवािों में बबल्कुल नह ं बनती थी।
अक्सि आहदत्य की मम्मी औि ज़ि ना की अम्मी में ककसी ना ककसी बात को लके ि कहा सनु ी हो जाती थी। इन
पड़ोससयों का झगड़ा पि े मोहल्ले में मशह ि था। अक्सि इनकी सभड़तं देखने के सलए लोग इक्कठ्ठा हो जाते थे।
ज़ि ना औि आहदत्य भी एक दस िे को देखकि बबल्कुल खुश नह ं थे। जब कभी कालेज में वो एक दस िे के
सामने आते थे तो मूँहु फेिकि ननकल जाते थे। हालत कुछ ऐसी थी कक अगि उनमें से एक कालेज की कैंट न में
होता था तो दस िा कैंट न में नह ं घसु ता था। शकु ि है कक दोनों अलग-अलग सेक्सन में थे। विना क्लास अटेंड
किने में भी प्राब्लम हो सकती थी।
“क्या ये मझु से कोई बदला ले िहा है?” ज़ि ना सोचती है। अचानक ज़ि ना की नजि ककचन के दिवाजे के पास
िखे फ लदान पि पड़ी। उसने धीिे से फ लदान उठाया।
आहदत्य को अपने पीछे कुछ आहट महसस हुई तो उसने तिुंत पीछे मड़ु कि देखा। जब तक वो कुछ समझ
पाता। ज़ि ना ने उसके सि पि फ लदान दे मािा। आहदत्य के सि से ख न बहने लगा औि वो लड़खड़ा कि गगि
गया।
“तम्ुहाि हहम्मत कैसे हुई मेिे साथ ऐसी हिकत किने की?” ज़ि ना गचल्लाई। ज़ि ना फौिन दिवाजे की तिफ
भागी औि दिवाजा खोलकि भागकि अपने घि के बाहि आ गई। पि घि के बाहि पहुूँचते ह उसके कदम रुक
गये। उसकी आूँखें जो देख िह थी उसे उस पि ववश्वास नह ं हो िहा था। वो थि-थि काूँपने लगी।
उसके अध-जले घि के बाहि उसके अब्बा औि अम्मी की लाश थी औि घि के दिवाजे पि उसकी छोट बहन
फानतमा की लाश ननववस्र पड़ी थी। गल में चािों तिफ कुछ ऐसा ह माहौल था। ज़ि ना को कुछ समझ में नह ं
आता। उसकी आूँखों के आगे अधं ेिा छाने लगता हैऔि वो फ ट-फ ट कि िोने लगती है।
इतने में आहदत्य भी वहां आ जाता है।
ज़ि ना उसे देखकि भागने लगती है। पि आहदत्य तजे ी से आगे बढ़कि उसका मूँहु दबोच लेता है औि उसे घसीट
कि वावपस अपने घि में लाकि दिवाजा बंद किने लगता है। ज़ि ना को सोफे के पास िखी हाकी नजि आती है।
वो भागकि उसे उठाकि आहदत्य के पेट में मािती है औि तेजी से दिवाजा खोलने लगती है। पि आहदत्य जल्द
से संभालकि उसे पकड़ लेता है।
“पागल हो गई हो क्या? कहां जा िह हो। दंगे हो िहे हैं बाहि। इंसान… भेड़ड़ए बन चुके हैं। तम्ुहें देखते ह नोच-
नोच कि खा जाएूँगे…”
ज़ि ना ये सनु कि हैिानी से पछ ती है- “द… द… दंगे… कै से दंगे?”
“एक ग्रप ने ट्रेन फूँ क द , औि दस िे ग्रप के लोग अब घि-बाि फूँ क िहे हैं… चािों तिफ… हा-हा काि मचा है…
ख न की होल खेल जा िह है…”
“मेिे अम्मी, अब्बा औि फानतमा ने ककसी का क्या बबगाड़ा था?” ज़ि ना कहते हुये सबुक पड़ती है।
“बबगाड़ा तो उन लोगों ने भी नह ं था जो ट्रेन में थे। बस य समझ लो कक किता कोई हैऔि भिता कोई… सब
िाजनीनतक षडयंर है…”
“तमु मझे यहां क्यों लाए ु ? क्या मझु से बदला ले िहे हो?”
“जब पता चला कक ट्रेन फूँ क द गई तो मैंभी अपना आपा खो बठै ा था…”
“हां-हां माइनोरिट के खखलाफ आपा खोना बड़ा आसान है…”
“मेिे माूँ-बाप उस ट्रेन की आग में झुलस कि मािे गये, ज़ि ना। कोई भी अपना आपा खो देगा…”
Credit goes to original writer : Jatin
- एक अनोखा बंधन
दोस्तों ये कहानी है इंसानी रिश्तों की जो कक आज भी हमें ससखाती है कक हमें रिश्ते कै से ननभाने चाहहए। दोस्तों
रिश्तों में कभी भी बासीपन नह ं आना चाहहए।
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“ये मैंकहा ह ूँ? मैं तो अपने कमिे में नींद की गोल लेकि सोई थी। मैं यहां कै से आ गई? ककसका कमिा है
ये?” आूँखें खुलते ह ज़ि ना के मन में हजािों सवाल घम ने लगते हैं। एक अजं ाना भय उसके मन को घेि लते ा
है। वो कमिे को बड़े गोि से देखती है।
“कह मैं सपना तो नह ं देख िह …” ज़ि ना सोचती है।
“नह ं नह ं ये सपना नह ं है। पि मैंह ूँकहा?” ज़ि ना हैिानी में पड़ जाती है। वो हहम्मत किके धीिे से बबस्ति से
खड़ी होकि दबे पाूँव कमिे से बाहि आती है।
“बबल्कुल सन सान सा माहौल है। आखखि हो क्या िहा है?” ज़ि ना को सामने बने ककचन में कुछ आहट सनु ाई
देती है।
“ककचन में कोई है। कौन हो सकता है?” ज़ि ना दबे पाूँव ककचन के दिवाजे पि आती है। अंदि खड़े लड़के को
देखकि उसके होश उड़ जाते हैं।
“अिे, ये तो आहदत्य है… ये यहां क्या कि िहा है? क्या ये मझु े यहां लेकि आया है। इसकी हहम्मत कैसे हुई?”
ज़ि ना दिवाजे पि खड़े-खड़े सोचती है।
आहदत्य उसका क्लास मेट भी था औि पड़ोसी भी। आहदत्य औि ज़ि ना के परिवािों में बबल्कुल नह ं बनती थी।
अक्सि आहदत्य की मम्मी औि ज़ि ना की अम्मी में ककसी ना ककसी बात को लके ि कहा सनु ी हो जाती थी। इन
पड़ोससयों का झगड़ा पि े मोहल्ले में मशह ि था। अक्सि इनकी सभड़तं देखने के सलए लोग इक्कठ्ठा हो जाते थे।
ज़ि ना औि आहदत्य भी एक दस िे को देखकि बबल्कुल खुश नह ं थे। जब कभी कालेज में वो एक दस िे के
सामने आते थे तो मूँहु फेिकि ननकल जाते थे। हालत कुछ ऐसी थी कक अगि उनमें से एक कालेज की कैंट न में
होता था तो दस िा कैंट न में नह ं घसु ता था। शकु ि है कक दोनों अलग-अलग सेक्सन में थे। विना क्लास अटेंड
किने में भी प्राब्लम हो सकती थी।
“क्या ये मझु से कोई बदला ले िहा है?” ज़ि ना सोचती है। अचानक ज़ि ना की नजि ककचन के दिवाजे के पास
िखे फ लदान पि पड़ी। उसने धीिे से फ लदान उठाया।
आहदत्य को अपने पीछे कुछ आहट महसस हुई तो उसने तिुंत पीछे मड़ु कि देखा। जब तक वो कुछ समझ
पाता। ज़ि ना ने उसके सि पि फ लदान दे मािा। आहदत्य के सि से ख न बहने लगा औि वो लड़खड़ा कि गगि
गया।
“तम्ुहाि हहम्मत कैसे हुई मेिे साथ ऐसी हिकत किने की?” ज़ि ना गचल्लाई। ज़ि ना फौिन दिवाजे की तिफ
भागी औि दिवाजा खोलकि भागकि अपने घि के बाहि आ गई। पि घि के बाहि पहुूँचते ह उसके कदम रुक
गये। उसकी आूँखें जो देख िह थी उसे उस पि ववश्वास नह ं हो िहा था। वो थि-थि काूँपने लगी।
उसके अध-जले घि के बाहि उसके अब्बा औि अम्मी की लाश थी औि घि के दिवाजे पि उसकी छोट बहन
फानतमा की लाश ननववस्र पड़ी थी। गल में चािों तिफ कुछ ऐसा ह माहौल था। ज़ि ना को कुछ समझ में नह ं
आता। उसकी आूँखों के आगे अधं ेिा छाने लगता हैऔि वो फ ट-फ ट कि िोने लगती है।
इतने में आहदत्य भी वहां आ जाता है।
ज़ि ना उसे देखकि भागने लगती है। पि आहदत्य तजे ी से आगे बढ़कि उसका मूँहु दबोच लेता है औि उसे घसीट
कि वावपस अपने घि में लाकि दिवाजा बंद किने लगता है। ज़ि ना को सोफे के पास िखी हाकी नजि आती है।
वो भागकि उसे उठाकि आहदत्य के पेट में मािती है औि तेजी से दिवाजा खोलने लगती है। पि आहदत्य जल्द
से संभालकि उसे पकड़ लेता है।
“पागल हो गई हो क्या? कहां जा िह हो। दंगे हो िहे हैं बाहि। इंसान… भेड़ड़ए बन चुके हैं। तम्ुहें देखते ह नोच-
नोच कि खा जाएूँगे…”
ज़ि ना ये सनु कि हैिानी से पछ ती है- “द… द… दंगे… कै से दंगे?”
“एक ग्रप ने ट्रेन फूँ क द , औि दस िे ग्रप के लोग अब घि-बाि फूँ क िहे हैं… चािों तिफ… हा-हा काि मचा है…
ख न की होल खेल जा िह है…”
“मेिे अम्मी, अब्बा औि फानतमा ने ककसी का क्या बबगाड़ा था?” ज़ि ना कहते हुये सबुक पड़ती है।
“बबगाड़ा तो उन लोगों ने भी नह ं था जो ट्रेन में थे। बस य समझ लो कक किता कोई हैऔि भिता कोई… सब
िाजनीनतक षडयंर है…”
“तमु मझे यहां क्यों लाए ु ? क्या मझु से बदला ले िहे हो?”
“जब पता चला कक ट्रेन फूँ क द गई तो मैंभी अपना आपा खो बठै ा था…”
“हां-हां माइनोरिट के खखलाफ आपा खोना बड़ा आसान है…”
“मेिे माूँ-बाप उस ट्रेन की आग में झुलस कि मािे गये, ज़ि ना। कोई भी अपना आपा खो देगा…”