सवेरे उठने पर मन के सभी मकड़-जाल खुद-ब-खुद ही नष्ट हो गए। मैंने निश्चय कर लिया की मैं शक्ति सिंह जी से मिलूंगा और अपनी बात कहूँगा। आज रविवार था - तो आज संध्या का स्कूल नहीं लगना था। आज अच्छा दिन है सभी से मिलने का। नहा-धोकर मैंने अपने सबसे अच्छे अनौपचारिक कपडे पहने। छुट्टी पर यह सोच कर नहीं निकला था कि अपने लिए दुल्हन भी देखना पड़ जाएगा। खैर, जीन्स और टी-शर्ट पहन कर, मैंने नाश्ता किया और फिर उनके घर की ओर चल पड़ा। न जाने किस उधेड़बुन में था की वहाँ तक पहुंचने में मुझे कम से कम एक घंटा लग गया। आज के जितना बेचैन तो मैंने अपने आपको कभी नहीं पाया। बेचैन भी और नर्वस भी। खैर, संध्या के घर पहुच कर मैंने तीन-चार बार गहरी साँसे ली और फिर दरवाज़ा खटखटाया।
दरवाज़ा संध्या ने ही खोला।
‘हे भगवान!’ मेरा दिल धक् से हो गया। संध्या पौ फटने के समय सूरज जैसी सुन्दर लग रही थी। उसने अभी अभी नहाया हुआ था - उसके बाल गीले थे, और उनकी नमी उसके हलके लाल रंग के कुर्ते को कंधे के आस पास भिगोए जा रही थी।
‘कितनी सुन्दर! जिसके भी घर जाएगी, वह धन्य हो जायेगा।’
“जी?” मुझे एक बेहद मीठी और शालीन सी आवाज़ सुनाई दी। कानो में जैसे मिश्री घुल गई हो।
“अ..अ आपके पिताजी हैं?” मैंने जैसे-तैसे अपने आपको संयत किया।
“जी। आप अंदर आइए ... मैं उनको अभी भेजती हूँ।”
“जी, ठीक है।”
संध्या ने मुझे बैठक में एक बेंत की कुर्सी पर बैठाया और अन्दर अपने पिता को बुलाने चली गई। आने वाले कुछ मिनट मेरे जीवन के सबसे कठिन मिनट होने वाले थे, ऐसा मुझे अनुमान हो चुका था। करीब दो मिनट बाद शक्ति सिंह जी बैठक में आए। शक्ति सिंह जी साधारण कद-काठी के पुरुष थे, उम्र करीब चालीस - बयालीस के आस-पास रही होगी। खेत में काम करने से सिर के बाल असमय सफ़ेद हो चले थे। लेकिन उनके चेहरे पर संतोष और गर्व का अद्भुत तेज था।
‘एक आत्मसम्मानी पुरुष!’ मैंने मन ही मन आँकलन किया, ‘बहुत सोच समझ कर बात करनी होगी।’
मैं कुर्सी छोड़ कर उनके सम्मान में उठ गया।
“नमस्कार! आप मुझसे मिलना चाहते हैं?” शक्ति सिंह जी ने बहुत ही शालीनता के साथ कहा।
“नमस्ते जी। जी हाँ। मैं आपसे एक ज़रूरी बात करना चाहता हूँ ..... लेकिन मेरी एक विनती है, कि आप मेरी पूरी बात सुन लीजिए। फिर आप जो भी कहेंगे, मुझे स्वीकार है।” मैंने हाथ जोड़े हुए उनसे कहा।
“अरे! ऐसा क्या हो गया? बैठिए बैठिए। हम लोग बस नाश्ता करने ही वाले थे, आप आ गए हैं - तो मेहमान के साथ नाश्ता करने से अच्छा क्या हो सकता है? आप पहले मेरे साथ नाश्ता करिए, फिर आराम से अपनी बात कहिए।”
“नहीं नहीं! प्लीज! आप पहले मेरी बात सुन लीजिए। भगवान ने चाहा तो हम लोग नाश्ता भी कर लेंगे।”
“अच्छा! ठीक है। बताइए! क्या बात हो गई? आप इतना घबराए हुए से क्यों लग रहे हैं? सब खैरियत तो है न?”
“ह्ह्ह्हाँ! सब ठीक है... जी वो मैं आपसे यह कहने आया था कि....” बोलते बोलते मैं रुक गया। गला ख़ुश्क हो गया।
“बोलिए न?”
“जी वो मैं.... मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ!” मेरे मुंह से यह बात ट्रेन की गति से निकल गई..
‘मारे गए अब!’
“क्या? एक बार फिर से कहिए। मैंने ठीक से सुना नहीं।”
मैंने दो तीन गहरी साँसे भरीं और अपने आपको काफी संयत किया, “जी मैं आपकी बेटी संध्या से शादी करना चाहता हूँ।”
“...........................................”
“मैं इसी सिलसिले में आपसे मिलना चाहता था।”
शक्ति सिंह कुछ देर समझ नहीं पाए कि वो मुझसे क्या कहें। संध्या से मेरी मुलाक़ात जितनी अप्रत्याशित थी, उतनी की अप्रत्याशित बात उनके लिए अपनी बेटी के लिए एक अनजान आदमी से विवाह प्रस्ताव मिलने से थी। वो अचकचा गए थे, लेकिन फिर खुद को संयत करते हुए बोले,
“आप संध्या को जानते हैं?"
“जी जानता तो नहीं। मैंने उनको दो दिन पहले देखा।”
“और बस इतने में ही आपने उससे शादी करने की सोच ली?” शक्ति सिंह का स्वर अभी भी संयत लग रहा था।
“जी।”
“मैं पूछ सकता हूँ की आप संध्या से शादी क्यों करना चाहते है?”
“सर, मैंने आपके और आपके परिवार के बारे में यहाँ एक दो लोगों से पूछा है और मुझे मालूम चला है कि आप लोग बहुत ही भले लोग हैं। आज आपसे मिल कर मैं आपको अपने बारे में बताना चाहता था। इसलिए मेरी यह विनती है कि आप मेरी बात पूरी सुन लीजिए। उसके बाद आप जो भी कुछ कहेंगे, मुझे वो सब मंजूर रहेगा।”
“हम्म! देखिए, आप हमारे मेहमान भी है और... और शादी का प्रस्ताव भी लाए हैं। इसलिए हमारी मर्यादा, हमारे संस्कार यह कहते हैं कि आप पहले हमारे साथ खाना खाइए। फिर हम लोग बात करेंगे। .... आप बैठिये। मैं अभी आता हूँ।” यह कह कर शक्ति सिंह अन्दर चले गए।
मैं अब काफी संयत और हल्का महसूस कर रहा था। पिटूँगा तो नहीं। निश्चित रूप से अन्दर जाकर मेरे बारे में और मेरे प्रस्ताव के बारे में बात होनी थी। मेरे भाग्य पर मुहर लगनी थी। इसलिए मुझे अपना सबसे मज़बूत केस प्रस्तुत करना था। यह सोचते ही मेरे जीवन में मैंने अपने चरित्र में जितना फौलाद इकट्ठा किया था, वह सब एक साथ आ गए।
‘अगर मुझे यह लड़की चाहिए तो सिर्फ अपने गुणों के कारण चाहिए।’
शक्ति सिंह कम से कम दस मिनट बाद बाहर आये। उनके साथ उनकी छोटी बेटी भी थी।
“यह मेरी छोटी बेटी नीलम है।” नीलम करीब चौदह-पंद्रह साल की रही होगी।
“नमस्ते। आपका नाम क्या है? क्या आप सच में मेरी दीदी से शादी करना चाहते हैं? आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं?” नीलम नें एक ही सांस में न जाने कितने ही प्रश्न दाग दिए।
मैं उसको कोई जवाब नहीं दे पाया... बोलता भी भला क्या? बस, मुस्कुरा कर रह गया।
“मुझे आपकी स्माइल पसंद है ...” नीलम ने बाल-सुलभ सहजता से कह दिया।
वाकई शक्ति सिंह के घर में लोग बहुत सीधे और भले हैं - मैंने सोचा। कितना सच्चापन है सभी में। कोई मिलावट नहीं, कोई बनावट नहीं। नीलम एकदम चंचल बच्ची थी, लेकिन उसमे भी शालीनता कूट कूट कर भरी हुई थी। खैर, मुझे उससे कुछ तो बात करनी ही थी, इसलिए मैंने कहा,
“नमस्ते नीलम। मेरा नाम रूद्र है। मैं अभी आपको और आपके माता पिता को अपने बारे में सब बताने वाला हूँ।”
शक्ति सिंह वहीं पर खड़े थे, और हमारी बातें सुन रहे थे। इतने में शक्ति सिंह जी की धर्मपत्नी भी बाहर आ गईं। उन्होंने अपना सर साड़ी के पल्लू से ढका हुआ था।
“जी नमस्ते!” मैंने उठते हुए कहा।
“नमस्ते नमस्ते! बैठिए न।” उन्होंने बस इतना ही कहा। परिश्रमी और आत्मसम्मानी पुरुष की सच्ची साथी प्रतीत हो रही थीं।
मुझे इतना तो समझ में आ गया की यह परिवार वाकई भला है। माता पिता दोनों ही स्वाभिमानी हैं, और सरल हैं। इसलिए बिना किसी लाग लपेट के बात करना ही ठीक रहेगा। हम चारों लोग अभी बस बैठे ही थे कि उधर से संध्या नाश्ते की ट्रे लिए बैठक में आई। मैंने उसकी तरफ बस एक झलक भर देखा और फिर अपनी नज़रें बाकी लोगों की तरफ कर लीं – ऐसा न हो कि मैं मूर्खों की तरह उसको पुनः एकटक देखने लगूं, और मेरी बिना वजह फजीहत हो जाए।
“और ये संध्या है – हमारी बड़ी बेटी। खैर, इसको तो आप जानते ही हैं। नीलम बेटा! जाओ दीदी का हाथ बटाओ।”
दोनों लड़कियों ने कुछ ही देर में नाश्ता जमा दिया। लगता है कि वो बेचारे मेरे आने से पहले खाने ही जा रहे थे, लेकिन मेरे आने से उनका खाने का गणित गड़बड़ हो गया। खैर, मैं क्या ही खाता! मेरी भूख तो नहीं के बराबर थी – नाश्ता तो किया ही हुआ था और अभी थोड़ा घबराया हुआ भी था। लेकिन साथ में खाने पर बैठना आवश्यक था – कहीं ऐसा न हो कि वो यह समझें कि मैं उनके साथ खाना नहीं चाहता। खाते हुए बस इतनी ही बात हुई कि मैं उत्तराँचल में क्या करने आया, कहाँ से आया, क्या करता हूँ, कितने दिन यहाँ पर हूँ ..... इत्यादि इत्यादि। नाश्ता समाप्त होने पर सभी लोग बैठक में आकर बैठ गए।
शक्ति सिंह थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, “रूद्र जी, मेरा यह मानना है की अगर लड़की की शादी की बात चल रही हो तो उसको भी पूरा अधिकार है की अपना निर्णय ले सके। इसलिए संध्या यहाँ पर रहेगी। उम्मीद है कि आपको कोई आपत्ति नहीं।”
“जी, बिलकुल ठीक है। मुझे भला क्यों आपत्ति होगी?” मैंने संध्या की ओर देखकर बोला। उसके होंठो पर एक बहुत हलकी सी मुस्कान आ गई और उसके गाल थोड़े और गुलाबी से हो गए।
फिर मैंने उनको अपने बारे में बताना शुरू किया की मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक हूँ, मैंने देश के सर्वोच्च प्रबंधन संस्थान और अभियांत्रिकी संस्थान से पढ़ाई की है। बैंगलोर में रहता हूँ। मेरा पैतृक घर कभी मेरठ में था, लेकिन अब नहीं है। परिवार के बारे में बात चल पड़ी तो बहुत सी कड़वी, और दुःखदायक बातें भी निकल पड़ी। मैंने देखा कि मेरे माँ-बाप की मृत्यु, मेरे संबंधियों के अत्याचार और मेरे संघर्ष के बारे में सुन कर शक्ति सिंह जी की पत्नी और संध्या दोनों के ही आँखों से आँसू निकल आए। मैंने यह भी घोषित किया कि मेरे परिवार में मेरे अलावा अब कोई और नहीं है।
उन्होंने ने भी अपने घर के बारे में बताया कि वो कितने साधारण लोग हैं, छोटी सी खेती है, लेकिन गुजर बसर हो जाती है। उनके वृहद परिवार के फलाँ फलाँ व्यक्ति विभिन्न स्थानों पर हैं। इत्यादि इत्यादि।
“रूद्र, आपसे मुझे बस एक ही बात पूछनी है। आप संध्या से शादी क्यों करना चाहते हैं? आपके लिए तो लड़कियों की तो कोई कमी नहीं हो सकती।” शक्ति सिंह ने पूछा।
मैंने कुछ सोच के बोला, “ऊपर से मैं चाहे कैसा भी लगता हूँ, लेकिन अन्दर से मैं बहुत ही सरल साधारण आदमी हूँ। मुझे वैसी ही सरलता संध्या में दिखी। इसलिए। ... मैं बस एक सिंपल सी ज़िन्दगी जीना चाहता हूँ। उसके लिए संध्या जैसी एक साथी मिल जाए तो क्या बात है!”
फिर मैंने बात आगे जोड़ी, “आप बेशक मेरे बारे में पूरी तरह पता लगा लें। आप मेरा कार्ड रख लीजिए - इसमें मेरी कंपनी का पता लिखा है। अगर आप बैंगलोर जाना चाहते हैं तो मैं सारा प्रबंध कर दूंगा। और यह मेरे घर का पता है (मैंने अपने विजिटिंग कार्ड के पीछे घर का पता भी लिख दिया था) - वैसे तो मैं अकेला रहता हूँ, लेकिन आप मेरे बारे में वहाँ पूछताछ कर सकते हैं। मैं यहाँ, उत्तराँचल में, वैसे भी अगले दो-तीन सप्ताह तक हूँ। इसलिए अगर आप आगे कोई बात करना चाहते हैं, तो आसानी से हो सकती है।”
शक्ति सिंह ने हामी में सर हिलाया, फिर कुछ सोच कर बोले, “संध्या और आप आपस में कुछ बात करना चाहते हैं, तो हम बाहर चले जाते हैं।” और ऐसा कह कर तीनो लोग बैठक से बाहर चले गए।
अब वहाँ पर सिर्फ मैं और संध्या रह गए थे। ऐसे ही किसी और पुरुष के साथ एक कमरे में अकेले रह जाने का संध्या का संभवतः यह पहला अनुभव था। उसके लिए यह सब कितना मुश्किल होगा, मुझे समझ में आ रहा था। घबराहट और संकोच से उसने अपना सर नीचे कर लिया। मैंने देखा की वो अपने पांव के अंगूठे से फर्श को कुरेद रही थी। उसके कुर्ते की आस्तीन से गोरी गोरी बाहें निकल कर आपस में उलझी जा रही थी। मैं उसकी मुश्किल बढ़ाना नहीं चाहता था। लेकिन बात करने का मन तो था।
“संध्या! मेरी तरफ देखिए।” उसने बड़े जतन से मेरी तरफ देखा।
“आपको मुझसे कुछ पूछना है?” मैंने पूछा।
उसने सिर्फ न में सर हिलाया।
“तो मैं आपसे कुछ पूछूं?” उसने सर हिला के हाँ कहा।
“आप मुझसे शादी करेंगी?”
मेरे इस प्रश्न पर मानो उसके शरीर का सारा खून उसके चेहरे में आ गया। घबराहट में उसका चेहरा एकदम गुलाबी हो चला। वो शर्म के मारे उठी और भाग कर कमरे से बाहर चली गई। कुछ देर में शक्ति सिंह जी अन्दर आए, उन्होंने मुझे अपना फ़ोन नंबर और पता लिख कर दिया और बोले कि वो मुझे फ़ोन करेंगे। जाते जाते उन्होंने अपने कैमरे से मेरी एक तस्वीर भी खीच ली। मुझे समझ आ गया कि आगे की तहकीकात के लिए यह प्रबंध है। अच्छा है - एक पिता को अपनी पूरी तसल्ली कर लेनी चाहिए। आखिर अपनी लड़की किसी और के सुपुर्द कर रहे हैं!