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Romance कायाकल्प [Completed]

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aman rathore

Enigma ke pankhe
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मैं अगले दो दिन तक वहीं आस पास ही रहा, लेकिन मुझे शक्ति सिंह जी का कोई फ़ोन नहीं आया। मैं कोई व्यग्रता और अति आग्रह नहीं दर्शाना चाहता था, इसलिए मैंने उनको उन दो दिनों तक फोन नहीं किया, और न ही संध्या का पीछा किया। मैं नहीं चाहता था कि वो या उसका परिवार मेरे कारण लज्जित हो। मेरा मन अब तक काफी हल्का हो गया था कि कम से कम मैंने अपने मन की बात उनसे कह तो दी। अब मैं आगे की यात्रा आरम्भ करना चाह रहा था। इसलिए मैंने अपने होटल वाले को अपनी आगे की यात्रा का विवरण दिया। मैंने उसको बताया कि मैंने शक्ति सिंह जी के परिवार से बातें करी हैं। और यदि किसी को मुझसे मिलना हो तो यह ब्यौरा कारगर साबित होगा। फिर मैं आगे की यात्रा पर निकल पड़ा - कौसानी की ओर। निकलने से पहले मैंने शक्ति सिंह जी को भी फोन करके बता दिया। उनके शब्दों से मुझे किसी प्रकार की तल्खी नहीं सुनाई दी – यह एक अच्छी बात थी।

***********

कौसानी तक आते-आते उत्तराँचल के भू-क्षेत्र अलग हो जाते हैं – संध्या का घर, बद्रीनाथ धाम, फूलों की घाटी इत्यादि गढ़वाल में थे, और कौसानी कुमाऊँ में। कौसानी तक की यात्रा मेरे लिए ठिठुराने वाली थी – एक तो बेहद घुमावदार सड़कें, और ऊपर से ठंडी ठंडी वर्षा। लेकिन वहाँ पहुँच कर मेरे आनंद में कोई सीमा नहीं रही। कौसानी को महात्मा गाँधी जी ने ‘भारत का स्विट्ज़रलैंड’ की उपाधि दी थी। उनके अनुसार इतनी सुन्दर जगह हिमालय में शायद ही कहीं मिलेगी। लेकिन जैसा मैंने पहले भी बताया है कि उत्तराँचल के प्रत्येक स्थान की सुंदरता है। उसी तर्ज़ पर कौसानी की प्राकृतिक भव्यता की कोई मिसाल नहीं दी जा सकती है - देवदार के घने वृक्षों से घिरे इस पहाड़ी स्थल से हिमालय के तीन सौ किलोमीटर चौड़े विहंगम दृश्य को देखा जा सकता है। मैं दिन में बाहर जा कर पैदल यात्रा करता और रात में अपने होटल के कमरे से बाहर के अँधेरे में आकाशगंगा देखने का प्रयास करता।

लेकिन मेरे दिलो-दिमाग पर बस संध्या ही छायी हुई थी।

‘क्या उन लोगो को याद भी है मेरे बारे में?’ मैं यह अक्सर सोचता।

कौसानी में अत्यंत शान्ति थी, अतः कुछ दिन वहीँ रहने का निश्चय किया। वैसे भी उत्तराँचल घूमने की मेरी कोई निश्चित योजना नहीं थी। जहाँ मन रम जाय, वहीं रहने लगो! किसी ने बताया कि आगे मुनस्यारी गाँव है जो कि और भी सुन्दर है, तो दो दिन वहाँ भी हो आया। खैर, यह सब करते हुए, करीब पाँच दिन बाद मुझे शक्ति सिंह जी के नंबर से रात में फ़ोन आया।

“हेल्लो!” मैंने कहा।

“जी..... मैं संध्या बोल रही हूँ।”

“संध्या? आप ठीक हैं? घर में सभी ठीक हैं?” मैंने जल्दी जल्दी प्रश्न दाग दिए। लेकिन वो जैसे कुछ नहीं सुन रही हो।

“जी.... हमें आपसे कुछ कहना था।"

"हाँ कहिए न?" मेरा दिल न जाने क्यों जोर जोर से धड़कने लगा।

“जी..... हम आपसे प्रेम करते हैं।” कहकर उसने फोन काट दिया।

मुझे अपने कानो पर विश्वास ही नहीं हो रहा था – ये क्या हुआ? ज़रूर शक्ति सिंह ने मेरे बारे में तहकीकात करवाई होगी, और कुल मिला कर यह पाया होगा कि संध्या और मेरा एक अच्छा मेल है। हाँ, ज़रूर यही बात रही होगी। पारम्परिक भारतीय समाज में आज भी, यदि माता-पिता अपनी लड़की का विवाह तय कर देते हैं, तो वह लड़की अपने होने वाले पति को विवाह से पूर्व ही पति मान लेती है।

‘वो भी मुझसे प्रेम करती है!’

संध्या के फोन ने मेरे दिल के तार कुछ इस प्रकार झनझना दिए की रात भर नींद नहीं आई। मैंने पलट कर फोन नहीं किया। हो सकता है कि ऐसा करने पर वो लोग मुझे असभ्य समझें। बहुत ही बेचैनी में करवटें बदलते हुए मेरी रात किसी प्रकार बीत ही गई।

‘संध्या का कैसा हाल होगा?’ यह विचार मेरे मन में बार बार आता।
:superb: :good: awesome update hai bhai,
Behad hi shandaar, lajawab aur amazing update hai bhai,
Aapne sandhya ke saundarya ka bahot hi adbhut varnan prastut kiya hai :love3: ,
Ab dekhte hain ki aage kya hota hai,
waiting for next update
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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अगले दिन मुझको मेरे ऑफिस से मेरे बॉस का, और मेरे हाउसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी का फ़ोन आया। उन लोगों ने बताया कि कोई मेरे बारे में पूछताछ कर रहे थे। मैंने उन लोगो को सारी बात का विवरण दे दिया। दोनों ही लोग बहुत खुश हो गए - दरअसल सभी को मेरी चिंता खाए जाती थी। खासतौर पर मेरा बॉस... उसको लगता था कि कहीं मैं वैरागी न बन जाऊं। काम मैं अच्छा कर लेता हूँ, इसलिए उसको मुझे खोने का डर हमेशा लगा रहता था। जिस व्यक्ति में जड़ न हो, वो कहीं भी जा सकता है। आपने यदि हरमन हेस की ‘सिद्धार्थ’ पढ़ी हो तो आप यह बात थोड़ा अच्छी तरह से समझ सकेंगे।

खैर, बॉस कि ही तरह मेरी हाउसिंग सोसाइटी का सेक्रेटरी सोचता कि मैं रहता तो इतने बड़े घर में हूँ, लेकिन अकेले रहते रहते कहीं उसको खराब न कर दूं। आस पास ज्यादातर लोग परिवार वाले हैं। और एक अकेला आदमी केवल गलत कारणों से सभी का ध्यान आकर्षित करता है। लेकिन, अगर मैं शादी कर लेता हूँ, तो उन लोगों कि अपनी अपनी चिंता समाप्त हो जाती। इसलिए उन लोगों ने मौका मिलते ही मेरे बारे में जांच करने वाले व्यक्ति को अच्छी-अच्छी बातें बताई और मेरी इतनी बढाई कर दी जैसे मुझसे बेहतर कोई और आदमी न बना हो। शायद यही बाते शक्ति सिंह को भी पता चली हों और उन्होंने अपने घर में मेरे बारे में विचार विमर्श किया हो।

यह सभी संकेत सकारात्मक थे। अवश्य ही शक्ति सिंह के घर में मुझको पसंद किया गया हो। संध्या के फोन के बाद मुझे अब शक्ति सिंह के फोन का इंतज़ार था। पूरे दिन इंतजार किया, लेकिन कोई फोन नहीं आया। आखिरकार, शाम को करीब तीन बजे शक्ति सिंह का फोन आया।

“हेल्लो... रूद्र जी, मैं शक्ति सिंह बोल रहा हूँ ..”

“जी.. सर! नमस्ते! हाँ... बोलिए... आप कैसे हैं?”

“जी हम सभी बिल्कुल बढ़िया हैं! अगर आपको थोड़ी फुर्सत हो तो आपसे एक बहुत ज़रूरी बात करनी है। आप हमारे यहाँ एक बार फिर से आ सकते हैं?”

“जी.. बिल्कुल आ सकता हूँ। लेकिन मुझे दो दिन का समय तो लगेगा। अभी तो कौसानी में ही हूँ!”

“कोई बात नहीं। आप आराम से आइये। लेकिन मिलना ज़रूरी है, क्योंकि यह बात फोन पर नहीं हो सकती।”

“जी.. ठीक है” कह कर मैंने फोन काट दिया, और मन ही मन शक्ति सिंह को धिक्कारा।

‘अरे यार! यह बात सवेरे बता देते तो कम से कम मैं एक तिहाई रास्ता पार चुका होता अब तक!’

खैर, इतने शाम को ड्राइव करना मुश्किल काम था, इसलिए मैंने सुबह तड़के ही निकलने कि योजना बनाई। अपना सामान पैक किया, और रात का खाना खा कर लेटा ही था, कि मुझे फिर से शक्ति सिंह के नंबर से कॉल आया। मैंने तुरंत उठाया - दूसरी तरफ संध्या थी।

“संध्या जी, आप कैसी हैं?” मैंने कहा।

“जी..... मैं ठीक हूँ। .... आप कैसे हैं?”

“मैं भी बिल्कुल ठीक हूँ ... आपको फिर से देखने के लिए बेकरार हूँ...”

उधर से कोई जवाब तो नहीं आया, लेकिन मुझे लगा कि संध्या शर्म के मारे लाल हो गई होगी।

“संध्या?” मैंने पुकारा।

"जी... मैं हूँ यहाँ। बोलिए!”

“तो आप कुछ बोलती क्यों नहीं?”

“..... आपको मालूम है कि आपको पिताजी ने क्यों बुलाया है?”

“कुछ कुछ आईडिया तो है। लेकिन पूरा आप ही बता दीजिए।”

“जी... पिताजी आप से हमारे बारे में बात करना चाहते हैं.....” जब मैंने जवाब में कुछ नहीं कहा, तो संध्या ने कहना जारी रखा, “.... आप सच में मुझसे शादी करेंगे?”

“क्या आपको लगता है कि मैंने मजाक कर रहा हूँ? आपसे मैं ऐसा मजाक क्यों करूंगा?”

“नहीं नहीं... मेरा वो मतलब नहीं था। हम लोग बहुत ही साधारण लोग हैं... आपके मुकाबले बहुत गरीब! और... मैं तो आपके लायक बिल्कुल भी नहीं हूँ... न आपके जितना पढ़ी लिखी, और न ही आपके तौर तरीके जानती हूँ..”

“संध्या... मुझे लगता है कि मैं आपके लायक नहीं! और... शादी का मतलब अंत नहीं है... यह तो हमारी शुरुआत है। मैं तो चाहता हूँ कि आप अपनी पढ़ाई जारी रखिए। खूब पढ़िए – मुझसे ज्यादा पढ़िए। भला मैं क्यों रोकूंगा आपको। रही बात मेरे तौर तरीके सीखने की, तो भई, मेरा तो कोई तरीका नहीं है... बस मस्त रहता हूँ! ठीक है?”

“जी...”

“तो फिर जल्दी ही मिलते हैं.. ओके?”

“ओ.. के..”

“और हाँ, एक ज़रूरी बात... आई लव यू टू”

जवाब में उधर से खिलखिला कर हंसने कि आवाज़ आई।
 

avsji

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अगली सुबह सूर्य कि पहली किरण के साथ ही मैं संध्या से मिलने निकल पड़ा। मौसम अच्छा था - हलकी बारिश और मंद मंद बयार। ऐसे में तो पूरे चौबीस घंटे ड्राइव किया जा सकता है। लेकिन, पहाड़ों पर थोड़ी मुश्किल आती है। खैर, मन कि उमंग पर नियंत्रण रखते हुए मैंने जैसे तैसे ड्राइव करना जारी रखा - बीच बीच में खाने पीने और शरीर कि अन्य जरूरतों के लिए ही रुका। ऐसे करते हुए शाम ढल गई, लेकिन फिर भी संध्या का घर कम से कम पाँच से छः घंटे के रास्ते पर था। बारिश के मौसम में, और वह भी शाम को, पहाड़ों पर ड्राइव करने के लिए बहुत ही अधिक कौशल चाहिए। अतः मैंने वह रात एक छोटे से होटल में बिताई। अगली सुबह नहा धोकर और नाश्ता कर मैंने फिर से ड्राइव करना शुरू किया और करीब छह घंटे बाद शक्ति सिंह जी के घर पहुँचा।

सवेरे निकलने से पहले मैंने उनको फोन कर दिया था कि आज ही आने वाला हूँ, इसलिए उनके घर पर सामान्य दिनों से अधिक चहल पहल देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। दरवाज़े पर शक्ति सिंह जी और नीलम ने मेरा स्वागत किया और फिर मुझे घर के अन्दर पूरे आदर और सम्मान के साथ लाया गया। घर के अंदर चार पाँच बुजुर्ग पुरुष थे - उनमे से एक तो निश्चित रूप से पण्डित लग रहा था। जान पहचान के समय यह बात भी साफ़ हो गई। शक्ति सिंह वाकई आज मेरे प्रस्ताव को अगले स्तर पर ले जाना चाहते थे। उन बुजुर्गों में दो लोग शक्ति सिंह के बड़े भाई थे, और बाकी लोग उस समाज के मुखिया थे। भारतीय शादियाँ, विशेष तौर पर छोटी जगह पर होने वाली भारतीय शादियाँ काफी जटिल और पेचीदा हो सकती हैं - इसका ज्ञान मुझे अभी हो रहा था।

ऐसे ही हाल चाल लेते हुए, बातें करते हुए, और लगभग पूरे समाज से मिलते हुए, दोपहर का खाना जमा दिया गया। बहुत ही रुचिकर गढ़वाली खाना परोसा गया था - पेट भर गया, लेकिन मन नहीं। अब आप कहेंगे कि ससुराल का खाना तो पसंद आएगा ही! लेकिन वो बात नहीं है। नाश्ता सवेरे किया था, इसलिए भूख तो जम कर लगी थी - इसलिए मैंने तो डटकर खाया। लेकिन सादे खाने में भी इतना स्वाद हो सकता है, इस बात का ख़याल मुझे एक बहुत अर्से के बाद हुआ। खाना खाते हुए अन्य लोगों से मेरे उत्तराँचल आने, मेरी पढ़ाई लिखाई और काम के विषय में औपचारिक बातें हुईं। वैसे भी उन लोगों को अब मेरे बारे में काफी कुछ मालूम हो चुका था, लेकिन वहाँ बात करने के लिए कुछ तो होना चाहिए - ऐसा सोच कर बस औपचारिकता निभाई जा रही थी। वैसे भी, गंभीर विषय पर जो चर्चा होनी थी, वो सब खाने के बाद ही होनी थी।

शक्ति सिंह जी ने कहा, “रूद्र जी, मैं जानता हूँ कि आप बहुत अच्छे आदमी हैं, और आपके जैसा वर ढूंढना मेरे अपने खुद के बस में संभव नहीं है... और मैं यह भी जानता हूँ कि आप मेरी बेटी को बहुत जिम्मेदारी और प्यार से रखेंगे। लेकिन.. यह सब बातें और आगे बढ़ें, इसके पहले मैं आपको बता दूं कि हम लोग अपनी परम्पराओं में बहुत विश्वास रखते हैं।”

मैंने सिर्फ अपना सर सहमति में हिलाया... शक्ति सिंह ने बोलना जारी रखा, “.... वैसे तो हम लोग अपने समाज के बाहर अपने बच्चों को नहीं ब्याहते, लेकिन आपकी बात कुछ और ही है। फिर भी, जन्मपत्री और कुंडली तो मिलानी ही पड़ती है न...”

“मुझे इस बात पर कोई ऐतराज नहीं... आप मिला लीजिए… लेकिन कुंडली नहीं है मेरे पास!” मैंने मन ही मन शक्ति को उनकी मूर्खता के लिए कोसा, ‘कहीं ये बुड्ढा (पंडित) कचरा न कर दे’

“आप उसकी चिंता न करें!” उन्होंने मेरी बात पर होने वाले लोगों के ठहाकों के बीच कहा, “इसके लिए मैंने पंडित जी को बुलाया हुआ है... आप बस अपनी जन्म तिथि, जन्म का समय और जन्म-स्थान बता दीजिए। पंडित जी इसका मिलान कर देंगे।”

“जी ठीक है ... बिलकुल ..” यह कह कर मैंने पंडित को अपने जन्म सम्बंधित सारे ब्योरे दे दिए।

पंडित ने अपने मोटे-मोटे पोथे खोल कर न जाने कौन सी प्राचीन, लुप्तप्राय पद्धति लगा कर हमारे भविष्य के लिए निर्णय लेने कि क्रिया शुरू कर दी। यह सब करने में करीब करीब एक घंटा लगा होगा उस मूर्ख को। खैर, उसने अंततः घोषणा करी कि लड़का और लड़की के बीच अष्टकूट मिलान छब्बीस हैं, और यह विवाह श्रेयष्कर है। यह सुनते ही वहां उपस्थित सभी लोगों में ख़ुशी कि लहर दौड़ गई - खासतौर पर मुझमें। चूंकि घर कि सारी स्त्रियां और लड़कियां घर के अंदर के कमरों में थीं, इसलिए मुझे उनके हाव-भाव का पता नहीं।
 

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खैर, इस घोषणा के बाद शक्ति सिंह और उनकी पत्नी दोनों ने मुझे कुर्सी पर आदर से बिठा कर मेरे मस्तक पर तिलक लगाया और मिठाई खिलाई। मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा था - खैर, मैं भी बहती धारा के साथ बहता जा रहा था। ऐसे ही कुछ लोगों ने टीका इत्यादि किया - अभी यह क्रिया चल ही रही थी कि बैठक में संध्या आई। उसने लाल रंग की साड़ी पहनी हुई थी - शायद अपनी माँ की। हिन्दू रीतियों में लाल रंग संभवतः सबसे शुभ माना जाता है। इसलिए शादी ब्याह के मामलों में लाल रंग की ही बहुतायत है। साड़ी का पल्लू उसके सर से होकर चेहरे पर थोड़ा नीचे आया हुआ था - इतना कि जिससे आँख ढँक जाए।

‘क्या बकवास!’ मैंने मन में सोचा, ‘इतनी दूर तक आया... और चेहरा भी नहीं देख सकता ..!’

खैर, संध्या को मेरे बगल में एक कुर्सी पर बैठाया गया। वहाँ बैठे समस्त लोगों के सामने हम दोनों का विधिवत परिचय दिया गया। उसके बाद पंडित जी ने घोषणा करी कि वर (यानि कि मैं), वधु (यानि कि संध्या) से विवाह करने की इच्छा रखता हूँ, और यह कि दोनों परिवारों (मैं तो कब से तैयार बैठा था) के और समाज के वरिष्ठ जनों ने इस विवाह के लिए सहमति दे दी है। उसके बाद सभी लोगों ने हम दोनों को अपनी हार्दिक बधाइयाँ और आशीर्वाद दिए। मैंने और संध्या ने एक दूसरे को मिठाई खिलाई।

पंडित ने एक और दिल तोड़ने वाली बात की घोषणा कर दी कि चूँकि अभी चातुर्मास चल रहा है, इसलिए विवाह की तिथि नवम्बर में निश्चित हुई है। मेरा मन हुआ कि इस बुढ़ऊ का सर तोड़ दिया जाए। खैर, कुछ किया नहीं जा सकता था। बस इन्तजार करना पड़ेगा। यह भी तय हुआ कि शादी पारंपरिक रीति के साथ करी जाएगी। यह सब होते होते शाम ढल गई। इस गहमागहमी के बीच में पंद्रह बीस मिनट मुझे संध्या से कुछ देर, एकांत जैसी हालत में बात करने का अवसर मिला।

“आप खुश हैं?” मैंने संध्या से पूछा।

उसने सर हिला कर “हाँ” कहा।

“अरे यार! ऐसे इशारों में बात नहीं जमती। मैंने वापस बैंगलोर चला जाऊँगा तो उसके लिए कम से कम अपनी आवाज़ तो सुना दीजिए! ऐसे इशारे से बातें करेंगी तो वहां जा कर इतना दिन कैसे रहूँगा आपके बिना?” मैंने ठिठोली करी।

“जी मैं बहुत खुश हूँ” संध्या ने खिलखिला कर हँसते हुए कहा।

कुछ देर उससे बात हुई कि कुछ और मिलने मिलाने वाले लोग आ गए। फिर उसके बाद एकांत नहीं मिल सका। खैर, शाम होने पर उन लोगों ने मुझसे रात में वहीं रुकने का अनुरोध किया, लेकिन मैंने उनसे विदा ली। शादी से पहले ससुराल में नहीं रुकना चाहिए। और मेरे वहाँ रुकने पर हो सकता है उनको और भी बोझ महसूस हो, इसलिए मैंने अपने पहले वाले होटल में रात गुजारी। होटल के मालिक ने मुझे बधाई दी, और मुझे मुफ्त में रात का खाना खिलाया।

सवेरे उठने के साथ मैंने सोचा कि अब आगे क्या किया जाए! शादी के लिए छुट्टी तो लेनी ही पड़ेगी, तो क्यों न यह छुट्टियाँ बचा ली जाए, और वापस चला जाया जाए। इस समय का उपयोग घर इत्यादि जमाने में किया जा सकता था। अतः मैंने सवेरे ही शक्ति सिंह के घर जा कर अपनी यह मंशा उनको बतायी। उन्हीं के यहाँ खाना इत्यादि खा कर मैंने वापसी का रुख लिया। दुःख की बात यह कि जाते समय संध्या से बात भी न हो सकी और न ही मुलाकात।

‘दकियानूसी कि हद!’ खैर, क्या कर सकते हैं!

खैर, वहाँ से निकल कर मैं वापस बैंगलोर में अपने घर कब आ गया, मुझे उसका कुछ पता ही नहीं चला। समय कहाँ उड़ गया, कब उड़ गया, मुझे उसका कोई ख़याल ही नहीं रहा - बस अपने खयालो कि दुनिया में ही घूमता रहा। कुछ याद नहीं कि कब ड्राइव करके वापस देहरादून पहुँचा और कब वापस घर!

संध्या के लिए मेरे प्रेम ने मुझे पूरी तरह से बदल दिया था। सुना था, कि लोग प्रेम के चक्कर में पड़ कर न जाने कैसे हो जाते हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोचा था कि मेरा भी यही हाल होगा। घर पहुँचने के बाद मैं जो भी कुछ कर रहा था, वह सब संध्या को ही ध्यान में रख कर कर रहा था। बेडरूम की सजावट कैसी हो, उसमे रंग रोगन कैसा हो - यह सब सोचने लगा। उन रंगों के तर्ज़ पर नया बेड और नयी अलमारियां खरीदीं, खिड़कियों के परदे और दीवारों की सजावट सब बदलवा दी। बालकनी में फूलों वाले नए पौधे लगवा दिए, जिससे संध्या के आने तक उनमें बहार आ जाए। चिड़ियों के चुग्गे के लिए दो तीन बर्ड-फ़ीडर लगाए, जिससे उनको यहाँ आ कर चहकने की आदत पड़ जाए। यह सब कुछ बस इसलिए जिससे संध्या का प्रकृति से जुड़ाव बना रहे। उत्तराँचल तो बैंगलोर नहीं लाया जा सकता, लेकिन प्रकृति से संपर्क तो कहीं भी बनाया जा सकता है।

मुझे जानने वाले सभी लोग आश्चर्यचकित थे। मेरे जैसे बैरागी के अंदर ऐसे सकारात्मक बदलाव देख कर सभी को हैरत होती। लेकिन जब मेनका जैसी संध्या मेरे जीवन में आ गई थी, तो बिना वजह विश्वामित्र बने रहने का क्या मतलब! इन कुछ महीनों में मैंने क्या क्या किया, उसका ब्यौरा तो नहीं दूंगा, लेकिन अगर कुछ ही शब्दों में बयान करना हो तो बस इतना कहना काफी होगा कि ‘प्यार में होने’ का एहसास गज़ब का था। ऐसा नहीं था कि मैं और संध्या फोन पर दिन रात लगे रहते थे - वास्तविकता में इसका उल्टा ही था। विवाह के अंतराल तक हमारी मुश्किल से पांच-छः बार ही बात हुई थी, और वह भी निश्चित तौर पर उसके परिवार वालो के सामने। लिहाज़ा, मिला-जुला कर कोई पांच-छः मिनट! बस! मतलब, सगाई से शादी तक बस कोई आधा घंटा बात! लेकिन फिर भी, उसकी आवाज़ सुन कर दुनिया भर की एनर्जी भर जाती मुझमें, जो उसके अगले फोन कॉल तक मुझको जीवित रखती।

मेरा सचमुच का कायाकल्प हो गया था।
 

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खैर, अंततः वह दिन भी आया जब मुझे संध्या को ब्याहने उसके घर जाना था। निकलने से पूर्व, एक इवेंट ऑर्गेनाइजर को बुला कर विवाहोपरांत रिसेप्शन भोज के निर्देश दिए और अपने घर की चाबियाँ हाउसिंग सोसाइटी के सेक्रेटरी को सौंप कर वापस उत्तराँचल चल पड़ा। उनसे यह निवेदन भी किया कि व मेरे पीछे घर की साफ़ सफाई, और पौधों और चिड़ियों की देखभाल करवाते रहें। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं निश्चिंत हो कर जाऊँ और अपने विवाह का आनंद उठाऊँ।

बारात के नाम पर मेरे दो बहुत ही ख़ास दोस्त ही आ सके। खैर, मुझे बारात जैसे तमाशे की आवश्यकता भी नहीं थी। कोर्ट में ज़रूरी कागजात पर हस्ताक्षर करना मेरे लिए काफी था। विवाह, दरअसल मन से होता है, नौटंकी से नहीं। एक सफल विवाह के लिए पारस्परिक प्रेम, एक दूसरे के लिए आदर सम्मान, और अपनी अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होना सबसे आवश्यक है। मंत्र पढ़ने, आग के सामने चक्कर लगाने से विवाह में प्रेम, आदर और सम्मान नहीं आते – वो सब प्रयास कर के लाने पड़ते हैं। लेकिन मैं यह सब उनके सामने नहीं बोल सकता था – उन सबके लिए अपनी बड़ी लड़की का विवाह करना बहुत ही बड़ी बात थी, और वो सभी इस अवसर को अधिक से अधिक पारंपरिक तौर-तरीके से मनाना चाहते थे। मेरे मित्रों ने देहरादून शक्ति सिंह जी के घर तक स्वयं ही गाड़ी चलाई, और मुझे नहीं चलाने दी।

शक्ति सिंह जी के बहुत बार कहने पर भी मैंने उनसे हमारे रुकने ठहरने की कोई व्यवस्था न करने को कहा। जिससे उन पर अलग से कोई आर्थिक बोझ न पड़े। वैसे भी उन पर कोई कम बोझ नहीं था। उस कस्बे में वही, अपने वाले होटल में हमने तीन सबसे बड़े कमरे हमने बुक कर लिए थे, जिससे कोई कठिनाई नहीं हुई। संध्या के आभूषणों के लिए भी पहले से ही मैंने शक्ति सिंह जी को बोल दिया था कि वो व्यवस्था मैं करूँगा। पत्नी को आभूषण पति पहनाता है, पिता नहीं। शुरू में उन्होंने थोड़ी आनाकानी करी, लेकिन फिर मान गए।

विवाह सम्बन्धी क्रिया विधियां और संस्कार, शादी के दो दिन पहले से ही प्रारंभ हो गई - ज्यादातर तो मुझे समझ ही नहीं आई, कि क्यों करी जा रही हैं। पारंपरिक बाजे गाजे, संगीत इत्यादि कभी मनोरम लगते तो कभी बेहद चिढ़ पैदा करने वाले! दोस्तों के डांस करने में मज़ा आता। कभी कभी नीलम भी साथ दे देती। संध्या तो न जाने कहाँ गायब हो गई थी। खैर, इतने दिनों में कम से कम एक दर्जन, लम्बी चौड़ी विवाह रीतियाँ (मुझे नहीं लगता कि आपको वह सब विस्तार में जानने में कोई रुचि होगी) जब संपन्न हुईं, तब कहीं जाकर मुझे संध्या को अपनी पत्नी कहने का अधिकार मिला। यह सब होते होते इतनी देर हो चली थी कि मेरा मन हुआ कि बस अब जाकर सो जाया जाए। ऐसी हालत में भला कौन आदमी सेक्स अथवा सुहागरात के बारे में सोच सकता है! लेकिन जब मैंने अपनी घड़ी पर नज़र डाली, तो देखा कि अभी तो मुश्किल से सिर्फ दस बज रहे थे - और मुझे लग रहा था कि रात के कम से कम दो बज रहे होंगे। सर्दियों में शायद पहाड़ों पर रात जल्दी आ जाती है, जिसकी मुझे आदत नहीं थी। खैर, अगले आधे घंटे में हमने खाना खाया और शुभचिंतकों से बधाइयाँ स्वीकार कर के, विदा ली। मेरा प्लान तो संध्या को अपने होटल के कमरे में लिवा लाने का था, लेकिन उन्होंने आग्रह किया कि हम होटल न जाएँ, बल्कि घर पर ही रहें। यह बात मैंने मान ली।

खैर, तो मेरी सुहागरात का समय आ ही गया, और संध्या जैसी परी अब पूरी तरह से मेरी है - यह सोच सोच कर मैं बहुत खुश हो रहा था। दिल में एक अनोखी सी गुदगुदी हो रही थी। अब, भई, यहाँ मेरी कोई भाभी या बहन तो थी नहीं, अन्यथा सोने के कमरे में जाने से पहले भारी चुंगी देनी पड़ती। मुझे नीलम ने सोने के कमरे का रास्ता दिखाया। मैंने नीलम को एक हज़ार रुपए का नोट दिया, उसको गुड नाईट और धन्यवाद कहा, और अपने कमरे में प्रवेश किया। हमारे सोने का इंतजाम उसी घर में एक कमरे में कर दिया गया था। यह काफी व्यवस्थित कमरा था - उसमें दो दरवाज़े थे और एक बड़ी खिड़की थी। कमरे के बीच में एक पलंग था, जो बहुत चौड़ा नहीं था (मुश्किल से चार फीट चौड़ा रहा होगा), उस पर एक साफ़, नयी चादर, दो तकिये और कुछ फूल डाले गए थे। संध्या उसी पलंग पर अपने में ही सिमट कर बैठी हुई थी। संध्या ने लाल और सुनहरे रंग का शादी में दुल्हन द्वारा पहनने वाला जोड़ा पहना हुआ था। मैं कमरे के अन्दर आ गया और दरवाज़े को बंद करके पलंग पर बैठ गया। पलंग के बगल एक मेज रखी हुई थी, जिस पर मिठाइयाँ, पानी का जग, गिलास, और अगरबत्तियां लगी हुई थी। पूरे कमरे में एक मादक महक फैली हुई थी। बाहर हाँलाकि बहुत ठंडक थी, लेकिन इस कमरे में ठंडक नहीं लग रही थी। संभव है कि पत्थर, और चूने जैसे पारम्परिक पदार्थों से बना होने के कारण यहाँ ठंडक कम लग रही हो।
 

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कुछ लिख लेता हूँ
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‘क्या सोच रही होगी ये? क्या इसके भी मन में आज कि रात को लेकर सेक्सुअल भावनाएं जाग रही होंगी?’

मैं यही सब सोचते हुए बोला - “संध्या ..?”

“जी”

“आई लव यू.....”

जवाब में संध्या सिर्फ मुस्कुरा दी।

“मैं आपका घूंघट हटा सकता हूँ?” संध्या ने धीरे से हाँ में सर हिलाया।

मैंने धड़कते दिल से संध्या का घूंघट उठा दिया - बेचारी शर्म से अपनी आँखें बंद किये बैठी रही। अपने साधारण मेकअप और गहनों (माथे के ऊपरी हिस्से से होती हुई बेंदी, मस्तक पर बिंदी, नाक में एक बड़ा सा नथ, कानो में झुमके) और केसरिया सिन्दूर लगाई हुई होने पर भी संध्या बहुत सुन्दर लग रही थी - वस्तुतः वह आज पहले से अधिक सुन्दर लग रही थी। उसके दोनों हाथों में कोहनी तक मेहंदी की विभिन्न प्रकार की डिज़ाइन बनी हुई थी, और कलाई के बाद से लगभग आधा हाथ लाल और स्वर्ण रंग की चूड़ियों से सुशोभित था। उसके गले में तीन तरह के हार थे, जिनमे से एक मंगलसूत्र था।

“प्लीज अपनी आँखें खोलो...” मैंने कम से कम तीन-चार बार उससे बोला तब कहीं उसने अपनी आँखें खोली। आँखें खुलते ही उसको मेरा चेहरा दिखाई दिया।

‘क्या सोच रही होगी ये? और क्या सोचेगी? शायद यही कि यह आदमी इसका कौमार्य भंग करने वाला है।’

यह सोचकर मेरे होंठों पर एक वक्र मुस्कान आ गई। ऐसा नहीं है कि संध्या को पाकर मैं उसके साथ सिर्फ सेक्स करना चाहता था – लेकिन सुहागरात के समय पुरुष मन की दशा न जाने कैसी हो जाती है, कि सिर्फ सम्भोग का ही ख़याल रहता है। संध्या ने दो पल मेरी आँखों में देखा। संभवतः उसको मेरे पौरुष, और मेरी आँखों में कामुक विश्वास और संकल्प का आभास हो गया होगा, इसलिए उसकी आँखें फिर से नीचे हो गईं।

“मे आई किस यू?” मैंने पूछा।

उसने कुछ नहीं बोला।

“ओके। देन यू किस मी।” मैंने आदेश देने वाली आवाज़ में कहा।

संध्या एक दो सेकंड के लिए हिचकिचाई, फिर आगे की तरफ थोडा झुक कर मेरे होंठो पर जल्दी से एक चुम्बन दिया, और उतनी ही जल्दी से पीछे हट गई। उसका चेहरा अब और भी नीचे हो गया।

‘भला यह भी क्या किस हुआ!’ मैंने सोचा और उसके चेहरे को ठुड्डी से पकड़ कर ऊपर उठाया।

कुछ पल उसके भोले सौंदर्य को देखता रहा और फिर आगे की तरफ़ झुक कर उसके होंठो को चूमना शुरू कर दिया। यह कोई गर्म या कामुक चुम्बन नहीं था - बल्कि यह एक स्नेहमय चुम्बन था - एक बहुत ही लम्बा, स्नेहमय चुम्बन। मुझे समय का कोई ध्यान नहीं कि यह चुम्बन कब तक चला। लेकिन अंततः हमारा यह पहला चुम्बन टूटा।

लेकिन, बेचारी संध्या का हाल इतने में ही बहुत बुरा हो चला था - वह बुरी तरह शर्मा कर काँप रही थी, उसके गाल इस समय सुर्ख लाल हो चले थे और साँसे भारी हो गई थी। संभवतः यह उसके जीवन का पहला चुम्बन रहा होगा। उसकी नाक का नथ हमारे चुम्बन में परेशानी डाल रहा था, इसलिए मैंने आगे बढ़कर उसको उतार कर अलग कर दिया। ऐसा करने हुए मुझे सहसा यह एहसास हुआ कि थोड़ी ही देर में इसी प्रकार संध्या के शरीर से धीरे-धीरे करके सारे वस्त्र उतर जायेंगे। मेरे मन में कामुकता की एक लहर दौड़ गई।

“संध्या?”

“जी?”

“आपको इंग्लिश आती है?”

“थोड़ी-थोड़ी ... आपने क्यों पूछा?”

“बिकॉज़, आई वांट टू सी यू नेकेड” मैंने उसके कान के बहुत पास आकर फुसफुसाती आवाज़ में कहा।

“जी?” उसकी बहुत ही भयभीत आवाज़ आई।

“मैं आपको बिना कपड़ो के देखना चाहता हूँ.... पूरी नंगी” मैंने वही बात हिन्दी में दोहरा दी, और उसको आँखें गड़ा कर देखता रहा। वह बेचारी घबराहट और शर्म के मारे कुछ भी नहीं बोल पा रही थी। मैंने कहना जारी रखा, “मैं आपके सारे कपड़े उतार कर, आपके निपल्स चूमूंगा, आपके बम और ब्रेस्ट्स को दबाऊंगा और फिर आपके साथ ज़ोरदार सेक्स करूंगा...”

मेरी खुद की आवाज़ यह बोलते बोलते कर्कश हो गई, और मेरे शिश्न में उत्थान आना शुरू हो गया।
 

avsji

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“ज्ज्ज्जीईई .. म्म्ममुझे बहुत डर लग रहा है” बड़े जतन से वह सिर्फ इतना ही बोल पाई।

“आई कैन अंडरस्टैंड दैट डिअर। मैं आपको किसी भी ऐसी चीज़ को करने को नहीं कहूँगा, जिसके लिए आप रेडी नहीं हैं।”

संध्या ने समझते हुए बहुत धीरे से सर हिलाया। कुछ कहा नहीं।

मैंने उसकी लाल गोटेदार साड़ी का पल्लू उसकी छाती से हटा दिया। लाल रंग के ही ब्लाउज में कैद उसके युवा स्तन, उसकी तेज़ी से चलती साँसों के साथ ही ऊपर नीचे हो रहे थे। मेरा बहुत मन हुआ कि उसके कपड़े उसके शरीर से चीर कर अलग कर दूँ, लेकिन मेरे अन्दर उसके लिए प्यार और जिम्मेदारी के एहसास ने मुझे ऐसा करने से रोक लिया। लिहाज़ा, मेरी गति बहुत ही मंद थी। वैसे मेरे खुद के हाथ कांप रहे थे, लेकिन मैंने यह निश्चय किया था कि इस परम सुंदरी परी को आज तो मैं प्यार कर के रहूँगा।

मैंने उसकी साड़ी को उसकी कमर में बंधे पेटीकोट से जैसे तैसे अलग कर दिया और उसके शरीर से उतार कर नीचे फेंक दिया। इस समय वह सिर्फ ब्लाउज और पेटीकोट में बैठी हुई थी। मेरी अगली स्वाभाविक पसंद (उतारने के लिए) उसका ब्लाउज थी। कितनी ही बार मैंने कल्पना कर कर के सोचा था कि मेरी जान के स्तन कैसे होंगे, और इस समय मुझे बहुत मन हो रहा था कि उसके स्तनों के दर्शन हो ही जाएँ। मैं कांपते हुए हाथ से उसके ब्लाउज के बटन धीरे-धीरे खोलने लगा। करीब तीन बटन खोलने के बाद मुझे एहसास हुआ कि उसने अन्दर ब्रा नहीं पहनी है।

“आप ब्रा नहीं पहनती?” मैंने बेशर्मी से पूछ ही लिया।

संध्या घबराहट और शर्म के मारे कुछ भी नहीं बोल पा रही थी। उसका चेहरा नीचे की तरफ झुका हुआ था, मानो वह उसके ब्लाउज के बटन खोलते मेरे हाथों को देख रही हो। उसकी तेज़ी से चलती साँसे और भी तेज़ होती जा रही थी। उसने उत्तर में सिर्फ न में सर हिलाया - और वह भी बहुत ही हलके से। खैर, यह तो मेरे लिए अच्छा था - मुझे एक कपड़ा कम उतारना पड़ता। मैंने उसकी ब्लाउज के बचे हुए दोनों बटन भी खोल दिए। उसकी त्वचा शर्म या उत्तेजना के कारण लाल होती जा रही थी। मैंने अंततः उसके ब्लाउज के दोनों पट अलग कर दिए, और मुझे उसके स्तनों के दर्शन हो गए।

संध्या के स्तन अभी भी छोटे थे - मध्यम आकार के सेब जैसे, और ठोस। उसकी त्वचा एकदम दोषरहित थी। उन पर गहरे भूरे रंग के अत्यंत आकर्षक स्तनाग्र (निप्पल्स) थे, जिनका आकार अभी छोटा लग रहा था। महिलाओं के स्तन बढ़ती उम्र, मोटापे, अक्षमता और गुरुत्व के मिले जुले कारणों से बड़े हो जाते हैं, और कई बार दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से नीचे लटक से जाते हैं। लेकिन संध्या इन सब प्रभावों से दूर, अभी अभी यौवन की दहलीज़ पर आई थी। लिहाज़ा, उसके स्तनों पर गुरुत्व का कोई प्रभाव नहीं था, और उसके स्तनाग्र भूमि के समानांतर ही सामने की ओर निकले हुए थे। संध्या के स्तन उसकी तेज़ी से चलती साँसों के साथ ही ऊपर नीचे हो रहे थे। यह सारा नज़ारा देख कर मुझे नशा सा आ गया - वाकई इन स्तनों को किसी भी ब्रा की आवश्यकता नहीं थी।

“संध्या ... यू आर सो प्रीटी! आप मेरे लिए दुनिया कि सबसे सुन्दर लड़की हैं!” यह सब कहना स्वयं में ही कितना उत्तेजनापूर्ण था - खास तौर पर तब, जब यह सारी बातें सच थी।

मुझसे अब और रहा नहीं जा रहा था। उसके जवान, ठोस स्तनों पर मैंने अपने मुंह से हमला कर दिया। मेरा सबसे पहला एहसास उसके स्तनों की महक का था - आड़ू जैसी महक! उसके चिकने चूचक पहले मुलायम थे, लेकिन मेरे चूसे और चुभलाए जाने से कड़े होते जा रहे थे। मेरे इस क्रियाकलाप का सकारात्मक असर संध्या पर भी पड़ रहा था, क्योंकि उसने उन्मादित हो कर अपने दोनों हाथों से मेरे सर को पकड़ लिया था। मैंने कुछ देर तक उसके स्तनों को ऐसे ही दुलार किया - लेकिन इतना होते होते संध्या और मेरा, दोनों का ही, गला एकदम शुष्क हो गया। मैंने रुक कर पास ही रखे गिलास से पानी पिया और संध्या को भी पिलाया। उसके बाद मैंने उसके ब्लाउज को उसके शरीर से अलग कर के ज़मीन पर फेंक दिया। ऐसा होते ही मेरी जान अपने में ही सिमट गई और अपने हाथो से अपनी नग्न अवस्था को छुपाने की कोशिश करने लगी। चूड़ियों और मेहंदी से भरे हाथों से ऐसा करते हुए वह और भी प्यारी लग रही थी। मैंने उसके हाथ हटाने की कोशिश नहीं की, लेकिन उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेकर उसके होंठों पर एक गहरा चुम्बन किया, और फिर सिलसिलेवार तरीके से चुम्बनों की बौछार कर दी।

शुरू में उसका शरीर, होंठ, चेहरा - सब कुछ - एकदम से कड़ा हो गया, शायद नर्वस होने से ... लेकिन चुम्बनों की संख्या बढ़ते रहने से वह भी धीरे-धीरे शांत होने लगी। उसने मेरी आँखों में देखा, और फिर आँखें बंद कर के चुम्बन में यथासंभव सहयोग देने लगी। उसके होंठ गर्म और मुलायम थे - एकदम शानदार! उसके मुख से मीठी सी महक आ रही थी। चुम्बन करते हुए मैं अपनी जीभ को उसके मुंह में डालने का प्रयास करने लगा। संभवतः उसको यह बात समझ में आ गई - उसने अपने होंठ ज़रा से खोल दिए। मैंने बहुत सावधानीपूर्वक अपनी जीभ उसके मुंह में प्रविष्ट कर दी। एक बात और हुई, उसने अपने हाथ अपने सीने से हटा कर, मुझे अपनी बाहों में भर लिया। संध्या के मुंह का स्वाद बहुत अच्छा था - हल्की सी मिठास लिए हुए। मैं बयान नहीं कर सकता कि यह अनुभव कितना बढ़िया था। यह एक कामुक चुम्बन था, जिसके उन्माद में अब हम दोनों ही बहे जा रहे थे। मेरे हाथ उसके चेहरे से हट कर उसकी कमर पर चले गए और वहां से धीरे धीरे उसके नितम्बों पर। मेरी उत्तेजना मुझे संध्या को अपनी तरफ भींचने को मजबूर कर रही थी। मैंने उसको अपनी तरफ खीच लिया - मुझे अपने सीने पर संध्या के स्तनों का एहसास होने लगा। इस तरह से संध्या को चूमना और भी सुखद लग रहा था।

खैर, ऐसे ही कुछ देर चूमने के बाद हम दोनों के मुंह अलग हुए। मैंने संध्या की कमर पर नज़र डाली - उसके पेटीकोट का नाड़ा ढूँढने के लिए। नाड़ा उसकी कमर से बाएं तरफ था, जिसको मैंने तुरंत ही खीच कर ढीला कर दिया। अब पेटीकोट उसके शरीर पर बस नाम-मात्र के लिए ही रह गया। उसकी स्थिति अब गया कि तब गया वाली हो गई थी। इसलिए मैंने उसको उतारने में ज़रा भी देर नहीं की। लेकिन मेरी इस जल्दबाजी में संध्या बिस्तर पर चित होकर गिर गई। पेटीकोट के उतरते ही उसने अपना चेहरा अपने हाथों से ढक लिया - शायद अब उसको अपने स्तनों के प्रदर्शन पर उतना एतराज नहीं था, लेकिन ऐसी नग्न अवस्था में वह मुझे अपना चेहरा नहीं दिखाना चाहती थी। मेरी आशा के विपरीत, संध्या ने चड्ढी पहनी हुई थी। चड्ढी का रंग काला था। उसमें कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था - बस रोज़मर्रा पहनी जाने वाली सामान्य सी चड्ढी थी। हाँ लेकिन एक बात है - वह चड्ढी नयी थी। सामने से देखने पर उसकी चड्ढी अंग्रेजी के "V" जैसी, कमर कि तरफ फैलाव लिए और वहां, जहाँ पर उसकी योनि थी, एक सौम्य उभार लिए हुए थी। संध्या के नितम्ब स्त्रियोचित फैलाव लिए हुए प्रतीत होते थे, लेकिन उसका कारण यह था कि उसकी कमर पतली थी। उसके शरीर का आकर वस्तुतः एक कमसिन, छरहरी और तरुण लड़की जैसा था।

मैंने और नीचे नज़र डाली। संध्या के दोनों पाँव भी मेहंदी से अलंकृत थे। दोनों ही टखनों में चांदी की पायलें थीं। उसके पैरों में मैंने ही बिछिया पहनाई थी। उसके दोनों पाँव के निचली परिधि लाल रंग (महावर) से रंगे हुए थे। मेरी दृष्टि वापस उसके योनि क्षेत्र पर चली गई। मेरा मन हुआ कि उसकी चड्ढी भी उतार दी जाए - मेरे लिंग का स्तम्भन और कसाव बढ़ता ही जा रहा था, और मैं अब संध्या के अंदर समाहित होने के लिए व्याकुल हुआ जा रहा था। लेकिन मुझे अभी कुछ और देर उसके साथ खेलने का मन हो रहा था। मैंने पलंग पर संध्या के काफी पास अपने घुटने पर बैठ कर, अपना कुर्ता उतार दिया। अब मैंने सिर्फ चूड़ीदार पजामा और उसके अन्दर स्लिम फिट चड्ढी पहनी हुई थी।

“संध्या ..?” मैंने उसको आवाज़ लगाई।

“जी?” बहुत देर बाद उसने अपना चेहरा ढके हुए ही बोला।

“आपको मेरा एक काम करना होगा ....” मेरे आगे कुछ न बोलने पर उसने अपने चेहरे से हाथ हटा कर मेरी तरफ देखा।

“जी ... बोलिए?” मेरे कसरती शरीर को देख कर उसको और भी लज्जा आ गई, लेकिन इस बार उसने छुपने का प्रयास नहीं किया।

“अपने हाथ मुझे दीजिए”

उसने थोड़ा सा हिचकिचाते हुए अपने हाथ आगे बढ़ाए, जिनको मैंने अपने हाथों में थाम लिया, और फिर अपने पजामे के कमर के सामने वाले हिस्से पर रख दिया।

“यह पजामा आपको उतारना पड़ेगा। आपके कपड़े उतार-उतार कर मैं तो थक गया।” मैंने मुस्कुराते हुए उससे कहा।

उसने पहले तो थोड़ा सा संकोच दिखाया, लेकिन फिर मेरी बात मान कर इस काम में लग गई। उसने बहुत सकुचाते हुए मेरे पजामे का नाड़ा ढीला कर दिया और मेरे पजामे को धीरे से सरका दिया। मेरी चड्ढी के अन्दर मेरा लिंग बुरी तरह कस जा रहा था, और अब मेरा मन था कि लिंग को मेरी चड्ढी के बंधन से अब मुक्त कर संध्या के नरम, गरम और आरामदायक गहराई में समाहित कर दिया जाए। मेरी चड्ढी के वस्त्र को बुरी तरह से धकेलते हुए मेरे लिंग को संध्या भी बड़े कौतूहल से देख रही थी।

“इसे भी..” मैंने उसको उकसाया। मेरा इशारा मेरी चड्ढी की तरफ था।

संध्या को फिर से घबराहट होने लग गई.. उसने न में सर हिलाया। यह देख कर मैंने उसके हाथ पकड़ कर जबरदस्ती अपनी चड्ढी कि इलास्टिक पर रख दिया और उसको नीचे कि तरफ खीच दिया। और इसके साथ ही मेरा अति-उत्तेजित लिंग मुक्त हो गया।

“बाप रे!” संध्या के मुंह से निकल ही गया, “इतना बड़ा!”

संध्या की दृष्टि मेरे कस के तने हुए लिंग पर जमी हुई थी।

जैसा कि मैंने पहले भी उल्लेख किया है, मेरा शरीर शरीर इकहरा और कसरती है। और उसमें से इतने गर्व से बाहर निकले हुए मेरा लिंग (गाढ़े भूरे रंग का एक मोटा स्तंभ, जिसकी लम्बाई सात इंच और मोटाई संध्या की कलाई से भी ज्यादा है) देखकर वह निश्चित रूप से घबरा गई थी। चड्ढी नीचे सरकाने कि क्रिया में मेरे लिंग का शिश्नग्रछ्छद स्वयं ही थोड़ा पीछे सरक गया और लिंग के आगे का गुलाबी चमकदार हिस्सा कुछ-कुछ दिखाई देने लगा। संध्या को मेरे लिंग को इस प्रकार देखते हुए देख कर मेरा शरीर कामाग्नि से तपने लग गया - संभवतः संध्या भी इसी तरह कि तपन खुद भी महसूस कर रही थी।

उसको अचानक ही अपनी कही हुई बात, अपनी स्थिति, और अपने साथ होने वाले क्रियाकलाप का ध्यान हो आया। उसने लज्जा से अपना मुंह तकिये में छुपा लिया। लेकिन उसका हाथ मुक्त था - मैंने उसको पकड़ कर अपने लिंग पर रख दिया। उसकी हथेली मेरे लिंग के गिर्द लिपट गई। घेरा पूरा बंद नहीं हुआ। मेरा संदेह सही था - संध्या का हाथ तप रहा था। उसके हाथ को पकडे-पकडे ही मैंने अपने लिंग को घेरे में ले लिया और ऐसे ही घेरे हुए अपने हाथ को तीन चार बार आगे पीछे किया, और अपना हाथ हटा लिया। संध्या अभी भी मेरे लिंग को पकड़े हुए थी, हाँलाकि वह आगे पीछे वाली क्रिया नहीं कर रही थी। मेरे लिंग की लम्बाई का कम से कम आधा हिस्सा उसके हाथ की पकड़ से बाहर निकला हुआ था। लेकिन इस तरह से सजे हुए कोमल हाथ से घिरा हुआ मेरा लिंग मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।

“जी.... हमें शरम आती है” उसने अंततः तकिये से अपना चेहरा अलग करके कहा। उसकी आवाज़ पहले जैसी मीठी नहीं लगी - उसमे अब एक अलग ही तरह की कर्कशता थी - मैंने सोचा कि शायद वह खुद भी उत्तेजित हो रही है। लिहाजा मैंने इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया।

“अपने पति से शर्म? ह्म्म्म ... चलिए, आपकी शर्म दूर कर देते हैं।” कहते हुए मैंने उसकी चड्ढी को नीचे सरका दी।

मेरी इस हरकत से संध्या शर्म से दोहरी होकर अपने में ही सिमट गई। कहाँ मैंने उसकी शरम मिटानी चाही थी, और कहाँ यह तो और भी अधिक शरमा गई। कोई दो पल बाद ही मुझे उसका शरीर थिरकता हुआ लगा - ठीक वैसे ही जैसे सुबकने या सिसकियाँ लेते समय होता है। मारे गए..... संभवतः मेरी हरकतों ने उसकी भावनाओं को किसी तरह से ठेस पहुंचा दी थी।
 

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“संध्या ...”

कोई उत्तर नहीं! मेरे मन में अब उधेड़बुन होने लगी।

‘क्या यार! सब कचरा हो गया। एक तो यह एक छोटी सी लड़की है, और ऊपर से इतने धर्म-कर्म मानने वाले परिवार से। इसको आज तक शायद ही किसी लड़के ने छुआ हो। मेरी जल्दबाजी और जबरदस्ती ने सारा मज़ा खराब कर दिया।’

सारा मज़ा सचमुच ख़राब हो चला था - मेरा लिंगोत्थान तेज़ी से घटने लग गया। खैर अभी इस बात की चिंता नहीं थी। चिंता तो इस बात की थी, कि जिस लड़की को मैं प्रेम करता हूँ, वह मेरे ही कारण दुःखी हो गई थी। अब यह मेरा दायित्व था कि मैं उसको मनाऊँ, और अगर किस्मत ने साथ दिया तो संभवतः सेक्स भी किया जा सके। मैं संध्या के बगल ही लेट गया, और प्यार से उसको अपनी बाहों में भर लिया। थोड़ी देर पहले उसका तपता शरीर अपेक्षाकृत ठंडा लग रहा था। अच्छा, एक बात बताना तो भूल ही गया - मैं पलंग पर अपने बाएं करवट पर लेटा हुआ था, और संध्या मेरे ही तरफ मुंह छुपाए लेटी हुई थी।

“संध्या ... मेरी बात सुनिए, प्लीज!”

उसने मेरी तरफ देखा - मेरा शक सही था, उसकी आँखों में आँसू उमड़ आये थे, और उसके काजल को अपने साथ ही बहाए ले जा रहे थे।

“श्ह्ह्ह्ह .... प्लीज मत रोइये। मेरा आपको ठेस पहुंचाने का कोई इरादा नहीं था। आई ऍम सो सॉरी! ऑनेस्ट! मैंने आपको प्रॉमिस किया था कि मैं आपको किसी भी ऐसी चीज़ को करने को नहीं कहूँगा, जिसके लिए आप रेडी नहीं हैं। शायद इसके लिए आप रेडी नहीं हैं। मैं आपको बहुत प्यार करता हूँ, और आपको कभी दुःखी नहीं देख सकता।”

ऐसी बातें करते हुए मैं संध्या को चूमते, सहलाते और दुलारते जा रहा था, जिससे उसका मन बहल जाए और वह अपने आपको सुरक्षित महसूस कर सके।

मेरा मनाना न जाने कितनी देर तक चला, खैर, उसका कुछ अनुकूल प्रभाव दिखने लगा, क्योंकि संध्या ने अपने में सिमटना छोड़ कर अपने बाएँ हाथ को मेरे ऊपर से ले जाकर मुझे पकड़ लिया - अर्ध-आलिंगन जैसा। उसके ऐसा करने से उसका बायाँ स्तन मेरी ही तरफ उठ गया। मेरा मन तो बहुत हुआ कि पुनः अपने कामदेव वाले बाण छोड़ना शुरू कर दूं, लेकिन कुछ सोच कर ठहर गया।

“अगर आप चाहें, तो हम लोग आज कि रात ऐसे ही लेटे रह कर बात कर सकते हैं।”

उसने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।

“ऐसा नहीं है कि मैं आपके साथ सेक्स नहीं करना चाहता - अरे मैं तो बहुत चाहता हूँ। लेकिन आपको दुःख देने के एवज़ में नहीं। जब तक आप खुद कम्फ़र्टेबल न हो जाएँ, तब तक मुझे नहीं करना है यह सब ...”

मेरी बातों में सच्चाई भी थी। शायद उसने उस सच्चाई को देख लिया और पढ़ भी लिया।

“नहीं ... आप मेरे पति हैं, और आपका अधिकार है मुझ पर। और हम भी आपको बहुत प्यार करते हैं और आपका दिल नहीं दुखाना चाहते। मैं डर गई थी और बहुत नर्वस हो गई थी।” उसकी आँखों से अब कोई आंसू नहीं आ रहे थे।

‘सचमुच कितनी ज्यादा प्यारी है यह लड़की!’ मैंने प्रेम के आवेश में आकर उसकी आँखें कई बार चूम ली।

“आई लव यू सो मच! और इसमें अधिकार वाली कोई बात नहीं है। हम दोनों अब लाइफ पार्टनर हैं – बराबर के। मैं आपके साथ कोई जबरदस्ती नहीं कर सकता हूँ।”

“नहीं..........” वह थोड़ा रुकते हुए बोली, “आपको मालूम है कि मैंने कभी शादी के बारे में सोचा ही नहीं था। सोचती थी, कि खूब पढ़ लिख कर माँ, पापा और नीलम को सहारा दूँगी। माँ और पापा बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन यहाँ पहाड़ो में उनको उस मेहनत का फल नहीं मिलता। ...... लेकिन, फिर आप आए, और मेरी तो सुध बुध ही खो गई। सब कुछ इतना जल्दी जल्दी हुआ है कि मैं खुद को तैयार ही नहीं कर सकी ...”

मैंने समझाते हुए कहा, “संध्या, मैंने आपसे पहले भी कहा है कि मैं आपको पढ़ने लिखने से कभी नहीं रोकूंगा। बल्कि मैं तो चाहता हूँ कि आप अपने सारे सपने पूरे कर सकें। मैं तो बस उन सारे सपनो का हिस्सा बनना चाहता हूँ।”

संध्या ने अपनी झील जैसी गहरी आँखों से मुझे देखा - बिना कुछ बोले। उसने अपनी उंगली से मेरे गाल को हलके से छुआ - जैसे छोटे बच्चे जब किसी नयी चीज़ को देखते हैं, तो उत्सुकतावश उसको छूते हैं।

“आपसे एक बात पूछूँ?” आखिरकार उसने कहा।

“हाँ .. पूछिए न?”

“आपके जीवन में बहुत सी लड़कियां आई होंगी? ... देखिए सच बताइएगा!”

“हाँ ... आई तो थीं। लेकिन मैंने उनके अन्दर जिस तरह की बेईमानी और मानव हीनता देखी है, उससे मेरा स्त्री जाति से मानो विश्वास ही उठ गया था। शुरू शुरू में मीठी मीठी बातें करने वाली लड़कियों की हकीकत पर से जब पर्दा हटता है, तो दिल टूट जाता है। लेकिन ... फिर मैंने आपको देखा ... आपको देखते ही मेरे दिल को ठीक वैसे ही ठंडक पहुंची, जैसे धूप से बुरी तरह तपती हुई ज़मीन को बरसात कि पहली बूंदो के छूने से पहुंचती होगी। आपको देख कर मुझे यकीन हो गया कि आप ही मेरे लिए बनी हैं - और आपका साथ पाने के लिए मैं अपनी पूरी उम्र इंतज़ार कर सकता था।”

मेरे बोलने का तरीका और आवाज़ बहुत ही भावनात्मक हो चले थे। यह सब सुन कर संध्या ने मेरे चेहरे को अपने हाथों में ले लिया और मेरे होंठो पर एक छोटा सा मीठा सा चुम्बन दे दिया।

“आई लव यू ....” उसने बहुत धीरे से कहा, “.... मैं आपसे एक और बात पूछूं? .... आपने ... आपने कभी.... पहले भी .... आपने कभी सेक्स किया है?” संध्या ने बहुत हिचकिचाते हुए पूछा।

“नहीं ... मैंने कभी किसी के साथ सेक्स नहीं किया।”

यह बात आंशिक रूप से सच थी - ऐसा नहीं है कि मैंने मेरी भूतपूर्व महिला मित्रों के साथ किसी भी तरह का कामुक सम्बन्ध नहीं बनाया था। मेरा यह मानना था कि यदि किसी चीज़ में समय और धन का निवेश करो, तो कम से कम कुछ ब्याज़ तो मिलना ही चाहिए। इसलिए, मैंने कम से कम उन सभी के स्तनों का मर्दन और चूषण तो किया ही था। एक के साथ बात काफी आगे बढ़ गई थी, तो उसके दोनों स्तनों के बीच में अपने लिंग को फंसा कर मैथुन का आनंद भी उठाया था, और एक अन्य ने मेरे लिंग को अपने मुंह में लेकर मुझे परम सुख दिया था। लेकिन कभी भी किसी भी लड़की के साथ योनि मैथुन नहीं किया।

मैंने कहना जारी रखा, “...... कुछ एक के साथ मैं थोड़ा क्लोज़ तो था, लेकिन उनके साथ भी ऐसा कुछ नहीं किया है। मेरा यह मानना है कि फर्स्ट-टाइम सेक्स को एक स्पेशल दिन और एक स्पेशल लड़की के लिए बचा कर रखना चाहिए।”

संध्या चुप रही ... लेकिन उसके चेहरे पर एक गर्व का भाव मुझे दिखा।

“और मैं सोच रहा था कि वह स्पेशल दिन आज है .... क्या मैं सही सोच रहा हूँ?” मैंने अपनी बात जारी रखी।

संध्या ने कुछ देर सोचा और फिर धीरे से कहा, “जी .....? जी हाँ ... लेकिन .. लेकिन मुझे लगता नहीं कि ‘ये’ मेरे अन्दर आ भी पाएगा।”

“वह मुझ पर छोड़ दो ... बस यह बताइए कि क्या हम आगे शुरू करें ..?” मैंने पूछा, तो उसने सर हिला कर हामी भरी।
 

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मेरा मन ख़ुशी के मारे नाच उठा। बीवी तो तैयार है, लेकिन मुझे सावधानी से आगे बढ़ना पड़ेगा। इसके लिए मुझे इसके सबसे संवेदनशील अंग को छेड़ना पड़ेगा, जिससे यह खुद भी उतनी कामुक हो जाए कि मना न कर सके। इसके लिए मैंने संध्या के स्तनों पर अपना दाँव फिर से लगाया। जैसा कि मैंने पहले भी बताया है कि संध्या के स्तन अभी भी छोटे थे - मध्यम आकार के सेब जैसे और उन पर गहरे भूरे रंग के अत्यंत आकर्षक स्तनाग्र थे। वाकई उसके स्तन बहुत प्यारे थे .... खास तौर पर उसके निप्पल्स। इतने प्यारे और स्वादिष्ट, जैसे कस्टर्ड भरी कटोरी पर चेरी सजा दी गई हो। उसके स्तनों को अगर पूरी उम्र भर चूसा और चूमा जाए, तो भी कम है।

अतः मैंने यही कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया। मैंने पहले संध्या के बाएं निप्पल को अपनी जीभ से कुछ देर चाटा, और फिर उसको मुंह में भर लिया। संध्या के मुह से हलकी सिसकारी निकल पड़ी। मैं बारी बारी से उसके दोनों स्तनों को चूसता जा रहा था। जब मैं एक स्तन को अपने होंठो और जीभ से दुलारता, तो दूसरे को अपनी उँगलियों से। साथ ही साथ मैंने अपने खाली हाथ को संध्या की योनि को टटोलने भेज दिया। संध्या के समतल पेट से होते ही मेरा हाथ उसकी योनि स्थल पर जा पहुंचा। उसकी योनि पर बाल तो थे, लेकिन वह अभी घने बिलकुल भी नहीं थे। योनि पर हाथ जाते ही कुछ गीलेपन का एहसास हुआ। कुछ देर तक मैंने उसकी योनि के दोनों होंठों, और उसके भगनासे को सहलाया, और फिर अपनी उंगली संध्या की योनि में धीरे से डाल दी। मेरे ऐसा करते ही संध्या हांफ गई। उंगली मुश्किल से बस एक इंच जितनी ही अन्दर गई होगी, लेकिन उसके यौवन का कसाव इतना अधिक था, कि संध्या को हल्का सा दर्द महसूस हुआ। उसके गले से आह निकल गई।

मैंने अपनी उंगली रोक ली, लेकिन उसको योनि से बाहर नहीं निकलने दिया। साथ ही साथ उसके स्तनों का आनंद उठाता रहा। कोई एक दो मिनट में मैंने महसूस किया कि संध्या अब तनाव-मुक्त हो गई है। मैंने धीरे धीरे अपनी उंगली को उसकी योनि के अन्दर बाहर करना शुरू कर दिया। इन सभी क्रियाओं का सम्मिलित असर यह हुआ कि संध्या अब काफी निश्चिन्त हो गई थी और उसकी योनि कामरस कि बरसात करने लगी। मेरी उंगली पूरी तरह से भीग चुकी थी और आसानी से अन्दर बाहर हो पा रही थी।

उंगली अन्दर बाहर होते हुए मुश्किल से दो मिनट हुए होंगे कि इतने में ही संध्या ने पहली बार चरमसुख प्राप्त कर लिया। उसकी सांस एक पल को थम गई, और जब आई तो उसके गले से एक भारी और प्रबल आह निकली। मुझे पक्का यकीन है कि बाहर अगर कोई बैठा हो या जाग रहा हो, तो उसने यह आह ज़रूर सुनी होगी। फिर वह निढाल होकर बिस्तर पर गिर गई और गहरी गहरी साँसे भरने लगी। मैंने उंगली की गति धीमी कर दी, जिससे उसकी योनि की उत्तेजना ख़तम न हो।

“जस्ट रिलैक्स! अभी ख़तम नहीं हुआ है। असली काम तो बाकी है।” मैंने प्यार से बोला।

लगता है अभी अभी मिले आनंद से वह प्रोत्साहित हो गई थी, लिहाजा उसने हाँ में सर हिलाया।

मैं उठ कर बैठ गया, और थोड़ा सुस्ताने लगा। थोड़ी देर के आराम के बाद मैंने उसकी दोनों जांघो को फैला दिया, जिससे उसकी योनि के होंठ खुल गए थे। उसकी योनि के बाहर का रंग उसके निप्पल के जैसा ही था, लेकिन योनि के अन्दर का रंग ‘सामन’ मछली के रंग के जैसा था। मेरा मन हुआ कि कुछ देर यहीं पर मुखमैथुन किया जाए, लेकिन मेरी खुद की दशा ऐसी नहीं थी कि इतनी देर तक अपने आपको सम्हाल पाता। मुझे यह भी डर लग रहा था कि कहीं शीघ्रपतन जैसी समस्या न आ खड़ी हो जाए। मेरा लिंग अब वापस खड़ा हो चुका था, और अपने गंतव्य को जाने को व्याकुल हो रहा था। एक गड़बड़ थी - मेरा लिंग उसकी योनि के मुकाबले बहुत विशाल था, और अगर मैं जरा सी भी जबरदस्ती करता, या फिर अगर लिंग अन्दर डालने में कोई गड़बड़ी हो जाती तो यह लड़की पूरी उम्र भर मुझसे डरती रहती।

मेरे पास अपने लिंग को चिकना करने के लिए कुछ भी नहीं था ..... ‘एक सेकंड ... मैं अपने लिंग को ना सही, लेकिन उसकी योनि को तो अच्छे से चिकना कर सकता हूँ न!’ मेरे दिमाग में अचानक ही यह विचार कौंध गया।

मैंने उसकी योनि पर हाथ फिराया - संध्या की सिसकारी छूट पड़ी। उसके शरीर के सबसे गुप्त और महफूज़ स्थान में आज सेंध लगने जा रही थी। यहाँ छूना कितना आनंददायक था - कितना कोमल .. कितना नरम! मैं वासना में अँधा हुआ जा रहा था .. मैंने उसके भगोष्ठ के होंठों को अपनी उँगलियों से पुनः जांचना आरम्भ कर दिया। मैंने उसकी योनि से रस निकलता हुआ देखा, और समझ गया कि अब यह सही समय है।

मैंने बिस्तर पर लेटी संध्या के नग्न रूप का पुनः अवलोकन किया। उसकी आँखें बंद थी, लेकिन लिंग प्रवेश की स्थिति में होने वाली पीड़ा की घबराहट में उसके शरीर की विभिन्न मांसपेशियां कसी हुई थी। उसको पूरी तरह शांत और शिथिल करने के लिए मैंने उसके कान को चूमना आरम्भ किया। ऐसे करते करते, धीरे धीरे उसकी ठोढ़ी की तरफ बढ़ते हुए मैं उसके होंठो को चूम रहा था, और गले से होते हुए शरीर के ऊपरी भाग को चूमना और हलके हलके चाटना जारी रखा। कुछ देर ऐसे ही करते हुए, इस समय मैं संध्या के निप्पल्स को चूम और चूस रहा था। संध्या की आहें छूट पड़ीं और मेरे होंठो पर एक मुस्कान आ गई। चूसते चूसते मैंने उसके स्तन पर दांत से हल्का सा काट लिया और उसकी सिसकी निकल गई। संध्या अब मूड में आने लग गई थी - उसकी साँसे भारी हो गई थी, बढ़ते रक्त-संचालन के कारण उसके गोरे गोरे शरीर में लालिमा आ गई थी। लेकिन अभी मैं उसको छोड़ने के मूड में नहीं था, और लगातार उसके शरीर के साथ लगातार छेड़-छाड़ करता जा रहा था।

संध्या को चूमते, चाटते और छेड़ते हुए जब मैं उसके योनि क्षेत्र पर पहुंचा तो उसने योनि द्वार को दो तीन बार चाटा और फिर उसकी जांघों के अंदरूनी हिस्से को चूमने और चाटने लगा। संध्या वापस अपनी उत्तेजना के चरम बिंदु पर पहुच चुकी थी। मैं कभी उसकी जांघों, तो कभी उसकी योनि को चूमता-काटता जा रहा था। संध्या का शरीर अब थर थर कांप रहा था और साँसे भारी हो गई। लेकिन फिर भी मैं अगले दो तीन मिनट तक उसकी योनि के साथ खिलवाड़ करता रहा। उसकी आँखें अब बंद थी और शरीर बुरी तरह थरथरा रहा था। यह मेरे लिए संकेत था कि अब वाकई सही समय आ गया है। मैंने उसकी टांगों को फैला दिया। उसकी योनि का खुला हुआ मुख काम-रस से भीगने के कारण चमक रहा था।

“जस्ट ट्राई टू रिलैक्स! ओके?”

कह कर मैंने एक हाथ से उसकी योनि को थोड़ा और फैलाया और अपने लिंग को उसकी योनि मुख से सटा कर धीरे-धीरे आगे की तरफ जोर लगाया, जिससे मेरा लिंग अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा। मेरे लिंग का सुपाड़ा, लिंग के बाकी हिस्सों से बड़ा है, अतः संध्या को सबसे अधिक पीड़ा शुरू के एक दो इंच से ही होनी चाहिए थी। लेकिन यह लड़की अभी भी छोटी थी, और उसके शरीर की बनावट परिपक्वता की तरफ भी अग्रसर थी। यह बात मुझसे छिपी हुई नहीं थी। लेकिन वासना के अंधे को रोकना बड़ा दुष्कर है। मैंने सुपाड़े का बस आधा हिस्सा ही अन्दर डाला और उसकी योनि से निकलते रस से उसको अच्छी तरह से भिगो लिया। सबसे खतरनाक बात यह थी कि मुझमें अब इतना धैर्य नहीं बचा हुआ था। मुझे लग रहा था कि अगर कुछ देर मैंने यह क्रिया जारी रखी तो इसी बिस्तर पर स्खलित हो जाऊँगा। न जाने क्यों, संध्या के अन्दर अपना वीर्य डालना मुझे इस समय दुनिया का सबसे ज़रूरी कार्य लग रहा था।
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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मेरा लिंग तैयार था। मैंने एकदम से जोरदार धक्का लगाया और मेरा आधा लिंग संध्या की योनि में समा गया।

“आआह्ह्ह ...” संध्या की गहरी चीख निकल गई। मुझे तो मानो काटो तो खून नहीं! मैं एकदम से सकपका गया,

‘कहीं इसको चोट तो नहीं लग गई?’ मैंने एक दो पल ठहर कर संध्या की प्रतिक्रिया भांपी - लेकिन भगवान की दया से उसने आगे और कुछ नहीं कहा। बाहर लोगों ने सुना तो ज़रूर होगा ...

‘भाड़ में जाएँ सुनने वाले! लड़की के साथ यह तो होना ही है आज तो...’ मैंने रुकने का कोई उपक्रम नहीं किया। मैंने अपना लिंग संध्या की योनि से बाहर निकालना शुरू किया, लेकिन पूरा नहीं निकाला ... इसके बाद पुनः थोडा सा और अन्दर डाला और पुनः निकाल लिया।

ऐसे ही मैंने कम से कम पांच छः बार किया। संध्या अब चीख तो नहीं रही थी, लेकिन मेरी हर हरकत पर कराह ज़रूर रही थी। लेकिन इस समय मेरे पास इन सब के बारे में सोचने का धैर्य बिल्कुल भी नहीं था। मैंने अपना लिंग संध्या के अन्दर और भीतर तक घुसा दिया और सनातन काल से प्रतिष्ठित पद्धति से काम-क्रिया आरम्भ कर दी। संध्या का चेहरा देखने लायक था - उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन मुँह पूरा खुला हुआ था। इस समय उसके लिए साँसे लेने, हिचकियाँ लेने और सिसकियाँ निकालने का यही एकमात्र साधन और द्वार था। मेरे हर धक्के से उसके छोटे स्तन हिल जाते। और नीचे का हिस्सा, जहाँ पेट और योनि मिलते हैं, मेरे पुष्ट मांसल लिंग के कुटाई से लाल होता जा रहा था।

मैंने संध्या को भोगने की गति तेज़ कर दी । संध्या अपनी उत्तेजना के चरम पर थी, लेकिन अभी उसको इसकी अभिव्यक्ति करनी नहीं आती थी - बस उसने मेरे कन्धों को जोर से जकड़ रखा था। संभवतः उसको अपनी कामाभिव्यक्ति करने में लज्जा आ रही हो। मुझको भी महसूस हुआ कि उसका खुद का चरम-आनंद भी पास में है। हमारे सम्भोग की गति और तेज़ हो गई - संध्या कि रस से भीगी योनि में मेरे लिंग के अन्दर बाहर जाने से ‘पच-पच’ की आवाज़ आने लग गई थी। पलंग के पाए ज़मीन पर थोड़ा थोड़ा घिसटने से किकियाने कि लयबद्ध आवाज़ निकाल रहे थे, उसी के साथ हमारी कामुकता भरी आहें भी निकल रही थीं। कमरे में एक कामुक माहौल बन चला था।

इस पूरे काम में इतना समय लग चुका था कि मेरा कुछ क्षणों से अधिक टिकना संभव नहीं था। और हुआ भी वही। मेरे लिंग से एक विस्फोटक स्खलन हुआ, और उसके बाद तीन चार और बार वीर्य निकला। हर स्खलन में मैंने अपना लिंग संध्या की योनि के और अन्दर ठेलने का प्रयत्न कर रहा था। मेरे चरमोत्कर्ष पाने के साथ ही संध्या पुनः चरम आनंद प्राप्त कर चुकी थी। इस उन्माद में उसकी पीठ एक चाप में मुड़ गई, जिससे उसके स्तन और ऊपर उठ गए। मैंने उसका एक स्तनाग्र सहर्ष अपने मुँह में ले लिया और उसके ऊपर ही निढाल होकर गिर गया।

मेरा संध्या की मखमली गहराई से निकलने का मन ही नहीं हो रहा था। इसलिए मैंने अपने लिंग को उसकी योनि के बाहर तब तक नहीं निकाला, जब तक मेरा पुरुषांग पूरी तरह से शिथिल नहीं पड़ गया। इस बीच मैंने संध्या को चूमना, दुलारना जारी रखा। अंततः हम दोनों एक दुसरे से अलग हुए। मैंने संध्या को मन भर के देखा; वह बेचारी शर्मा कर दोहरी हुई जा रही थी और मुझसे आँखे नहीं मिला पा रही थी। उसके चेहरे पर लज्जा की लालिमा फैली हुई थी।

मैंने पूछा, “संध्या! आप ठीक हैं?” उसने आँखें बंद किए हुए ही हाँ में सर हिलाया।

“मज़ा आया?” मैंने थोड़ा और कुरेदा - ऐसे ही सस्ते में कैसे जाने देता? संध्या का चेहरा मेरे इस प्रश्न पर और लाल पड़ गया - वह सिर्फ हलके से मुस्कुरा दी। मैंने उसको अपनी बांहों में कस के भर कर उसके माथे को चूम लिया, और अपने से लिपटा कर बिस्तर पर लिटा लिया।

हम लोग कुछ समय तक बिस्तर पर ऐसे ही पड़े पड़े अपनी सांसे संयत करते रहे। लेकिन कुछ ही देर में वह बिस्तर पर से उठ बैठी। वह इस समय आराम में बिलकुल भी नहीं लग रही थी। मुझे लगा कि कहीं सेक्स की ग्लानि के कारण तो वह ऐसे नहीं कर रही है? मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि उसकी ओर डाली।

“क्या हुआ आपको?”

“जी ... मुझे टॉयलेट जाना है ....” उसने कसमसाते हुए बोला।

दरअसल, संध्या को सेक्स करने के बाद मूत्र विसर्जन का अत्यधिक तीव्र एहसास होता है। निःसंदेह उसको और मुझको यह बात अभी तक नहीं मालूम थी। हम लोग अभी तो एक दूसरे को जानने की पहली दहलीज पर पाँव रख रहे थे। उसकी इस आदत का उपयोग हम लोगों ने अपने बाद के सेक्स जीवन में खूब किया है। खैर, उसको टॉयलेट जाना था और तो और, मुझे भी जाना था। मैंने देखा कि कमरे से लगा हुआ कोई टॉयलेट नहीं था।

“इस कमरे से लगा हुआ कोई टॉयलेट नहीं है क्या?”

संध्या ने न में सर हिलाया ...

“तो फिर कहाँ जायेंगे ..?”

“घर में है ...”

“लेकिन ... मुझे तो अंदर से लोगों के बात करने की आवाज़ सुनाई दे रही है। लगता है लोग अभी तक नहीं सोये।” मैंने कहा, “... और घर में ऐसे, नंगे तो नहीं घूम सकते न? सिर्फ टॉयलेट जाने के लिए पूरे कपडे पहनने का मन नहीं है मेरा।”

संध्या कुछ बोल नहीं रही थी।

“वैसे भी सबने अन्दर से हमारी आवाजें सुनी होंगी ... मुझे नहीं जाना है सबके सामने ... आप मेहनत कर सकतीं हैं, तो करिए।” मैंने अपनी सारी बात कह दी।

“इस कमरे का यह दूसरा दरवाज़ा बाहर बगीचे में खुलता है ...”

“ओ के .. तो?”

“.... हम लोग बगीचे में टॉयलेट कर सकते हैं ... वहां एकांत होगा ..”

एडवेंचर! लड़की तो साहसी है! इंटरेस्टिंग!

“ह्म्म्म .. ठीक है। चलिए फिर।” मैंने पलंग से उठते हुए बोला। संध्या अभी भी बैठी हुई थी - शायद शरमा रही थी, क्योंकि उठते ही वह (मनोवैज्ञानिक तौर पर) पूरी तरह से नग्न हो जाती (बिस्तर पर चादर इत्यादि तो थे ही, जिनके कारण आच्छादित (कपड़े पहने रहने) होने का एहसास तो होता ही है)।

मैंने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ाया, “चलिए न ..” संध्या ने सकुचाते हुए मेरा हाथ थाम लिया और मैंने उसको सहारा देकर पलंग से उठा लिया।

अपनी परी को मैंने पहली बार पूर्णतया नग्न, खड़ा हुआ देखा। मैंने उसके नग्न शरीर की अपर्याप्त परिपूर्णता की मन ही मन प्रशंसा की। उसके शरीर पर वसा की अनावश्यक मात्रा बिल्कुल भी नहीं थी। उसके जांघे और टाँगे दृढ़ मांसपेशियों की बनी हुई थीं। एक बात तो तय थी कि आने वाले समय में यह लड़की, अपनी सुंदरता से कहर ढा देगी। मेरे लिंग में पुनः उत्थान आने लगा। मुझे इस प्रकार उसको देखता हुआ देख कर संध्या की दृष्टि पुनः लज्जा के कारण नीची हो गई। लेकिन उसने दूसरे दरवाज़े का रुख कर लिया।

मैंने उसको दरवाज़ा खोलने से रोका और स्वयं उसको खोल कर बाहर निकल आया, सब तरफ देख कर सुनिश्चित किया कि कोई वहाँ न हो और फिर उसको इशारा देकर बाहर आने को कहा। वह दबे पाँव बाहर निकल आई, किन्तु इतनी सावधानी रखने के बाद भी उसकी पायल और चूड़ियों की आवाजें आती रही। बगीचा कमरे से बाहर कोई आठ-दस कदम पर था। रात में यह तो नहीं समझ आ रहा था कि वहां पर किस तरह के पेड़ पौधे थे, लेकिन यह अवश्य समझ आ रहा था कि किस जगह पर मूत्र किया जा सकता है। संध्या किसी झाड़ी से कोई दो फुट दूरी पर जा कर बैठ गई। अँधेरे में कुछ दिखाई तो नहीं दिया, लेकिन मूत्र विसर्जन करने की सुसकारती हुई आवाज़ आने लगी। मेरा यह दृश्य देखने का मन हो रहा था, लेकिन कुछ दिख नहीं पाया।

मैंने संध्या के उठने का कुछ देर इंतज़ार किया। उसने कम से कम एक मिनट तक मूत्र किया होगा, और फिर कुछ देर तक ऐसे ही बैठी रही। मैंने फिर उसको उठ कर मेरी तरफ आते देखा। यह सब होते होते मेरा लिंग कड़क स्तम्भन प्राप्त कर चुका था। इस दशा में मेरे लिए मूत्र करना संभव ही नहीं था।

“आप भी कर लीजिए...”

“चाहता तो मैं भी हूँ, लेकिन मुझसे हो नहीं पा रहा है ...”

“क्यों .. क्या हुआ?” संध्या की आवाज़ में अचानक ही चिंता के सुर मिल गए। अब तक वह मेरे एकदम पास आ गई थी।

“आप खुद ही देख लीजिये ...” कहते हुए मैंने उसका हाथ पकड़ कर अपने लिंग पर रख दिया। उसके हाथ ने मेरे लिंग के पूरे दंड का माप लिया - अँधेरे में लज्जा कम हो जाती है। उसको समझ आ रहा था कि लिंगोत्थान के कारण ही मैं मूत्र नहीं कर पा रहा था।

“आप कोशिश कीजिए ... मैं इसको पकड़ लेती हूँ?” उसने एक मासूम सी पेशकश करी।

“ठीक है ...” कह कर मैंने अपने जघन क्षेत्र की मांसपेशियों को ढीला करने की कोशिश की। संध्या के कोमल और गर्म स्पर्श से यह काम होने में समय लगा। खैर, बहुत कोशिश करने के बाद मैंने महसूस किया कि मूत्र ने मेरे लिंग के गलियारे को भर दिया है ... तत्क्षण ही मैंने मूत्र को बाहर निकलता महसूस किया।

“इसकी स्किन को पीछे कि तरफ सरका लो...” मैंने संध्या को निर्देश दिया।

संध्या ने वैसे ही किया, लेकिन बहुत कोमलता से। मैंने भी लगभग एक मिनट तक मूत्र विसर्जन किया। मुझे लगता है कि संभवतः संध्या ने छोटे लड़कों को मूत्र करवाया होगा, इसलिए जब मैंने मूत्र कर लिया, तब उसने बहुत ही स्वाभाविक रूप से मेरे लिंग को तीन-चार बार झटका दिया, जिससे मूत्र की बची हुई बूँदें भी निकल जाएँ। मैंने उसकी इस हरकत पर बहुत मुश्किल से अपनी मुस्कराहट दबाई। इसके बाद हम दोनों वापस अपने कमरे में आ गए।

अच्छा, हमारी तरफ शादी की पहली रात को एक रस्म होती है, जिसको ‘मुँह-दिखाई’ कहा जाता है। इसमें दुल्हन का घूंघट उठाने पर उसको एक विशेष स्मरणार्थ वस्तु (निशानी) दी जाती है। मुझे इसके बारे में याद आया, तो मैंने अपने बैग में से संध्या के लिए खास मेड-टू-आर्डर करधनी निकाली। यह एक 18 कैरट सोने की करधनी थी, जिसमें संध्या के रंग को ध्यान में रखते हुए इसमें लाल-भूरे, नीले और हरे रंग के मध्यम मूल्यवान जड़ाऊ पत्थर (सेमी प्रेशियस स्टोन्स) लगे हुए थे। वह उत्सुकतावश मुझे देख रही थी कि मैं क्या कर रहा हूँ, और यूँ ही नग्न अवस्था में बिस्तर के बगल खड़ी हुई थी। मैं वापस आकर बिस्तर पर बैठ गया और संध्या को अपने एकदम पास बुलाकर उसकी कमर में यह करधनी बाँध दी, और थोड़ा पीछे हटकर उसके सौंदर्य का अवलोकन करने लगा।

संध्या के नग्न शरीर पर यह करधनी ही सबसे बड़ी वस्तु बची हुई थी – उसकी बेंदी और नथ तो कब कि उतर चुकी थीं, और बिंदी हमारे सम्भोग क्रिया के समय न जाने कब खो गई। उसका सिन्दूर और काजल अपने अपने स्थान पर फ़ैल गया, और लिपस्टिक का रंग मिट गया था। किन्तु न जाने कैसे यह होने के बावजूद, वह इस समय बिलकुल रति का अवतार लग रही थी। थोड़ी ऊर्जा होती तो एक बार पुनः सम्भोग करता। लेकिन अभी नहीं।

“आपको यह उपहार अच्छा लगा?”

संध्या ने लज्जा भरी मुस्कान के साथ सर हिला कर मेरा उपहार स्वीकार किया। मैंने उसकी कमर को आलिंगन में लेकर उसकी नाभि, और फिर उसकी कमर को करधनी के ऊपर से चूमा।

“आई लव यू!” कह कर मैंने उसको अपने पास बिठा लिया और फिर हम दोनों बिस्तर पर लेट कर एक दूसरे की बाहों में समां कर गहरी नींद में सो गए।
 
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