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Incest चक्रव्यूह

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अभी को मेरा अभिवादन.. हाज़िर हूं आपके सामने एक कहानी के साथ! आशा है कि आप सभी अपनी प्रतिक्रियाओं से कहानी की शोभा बढ़ाएंगे...

धन्यवाद!

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पात्र - परिचय


• सूर्यकांत (दिवंगत)

• गायत्री (67) : “गायत्री काकी तो अपनी बहुओं को ऐसे रखती हैं, जैसे उनकी अपनी बेटियां हों”.. था एक वक्त जब गांव की महिलाएं आपस में ये बात कहते नहीं थकती थी। परंतु वर्षों पूर्व हुए “उस” एक हादसे ने शायद सब कुछ बदलकर रख दिया। कभी अपनी बहुओं से ऊंचे स्वर में बात न करने वाली गायत्री का स्वभाव आज अत्यंत ही कटु हो चुका था। इतना कटु की जो संबंध किसी समय प्रेम की डोर से बंधे थे, आज घृणा के धब्बे उनपर पड़ चुके थे।


• जितेंद्र (48) : गायत्री का बड़ा बेटा। अपने पिता के बाद यही खेतों, मवेशियों व ज़मीन से जुड़े सभी मसले देखता है। जितेंद्र का व्यक्तित्व सदैव ही शांत स्वभाव का रहा है। बचपन से लेकर आज तक कभी भी इसने शायद ही किसी से बहस की हो। दूसरे शब्दों में, जितेंद्र अपने काम से काम रखने वाला शख्स है, जिसके ऊपर शायद किसी के कटु वचनों का प्रभाव भी नहीं पड़ता। अक्सर ही ये अपनी बीवी द्वारा अपनी मां के बारे में, या अपनी मां से बीवी के बारे में, फ़रियाद या शिकायतें सुन ही रहा होता है।

• भावना (45) : जितेंद्र की बीवी। एक वक्त था जब गायत्री के प्रति भावना के मन में बहुत आदर व अपनत्व का भाव था, पर आज शायद हकीकत कुछ और ही है। उस प्रेम ने कब घृणा का रूप ले लिया, ये भावना को स्वयं भी पता नहीं चला। हालत कुछ यूं है कि भावना गायत्री के ताने और शिकायतें सुन तो लेती है, परंतु हर बात उसके हृदय में गायत्री का स्थान और भी नीचे करती चली जा रही है। अपने बेटे को लेकर अक्सर ही चिंतित रहती है।

• उत्कर्ष (25) : पढ़ाई पूरी करने के बाद भी उत्कर्ष को शायद वो सफलता नहीं मिली, जिसकी उसे और बाकी सभी को आशा थी। आज वो अपने पिता और चाचा के साथ ही खेतों में काम तो सीख रहा है, पर ये उसका लक्ष्य कभी था ही नहीं। शहर से पढ़ाई पूरी करने के पश्चात वो वहीं किसी अच्छे संस्थान में नौकरी करना चाहता था, परंतु शुरू से ही पढ़ाई में थोड़ा कमज़ोर होने के कारण, वो अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर सका। इसके बावजूद भी कभी परिवार के किसी सदस्य ने इस पर किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाया। अपने पिता की ही भांति काफी शांत स्वभाव का है... और हां, इसकी शादी के लिए घर वाले लड़की देख रहे हैं।

• निधि (21) : भावना व जितेंद्र की बेटी। डॉक्टरी पढ़ रही है, कुछ दो साल बचे हैं इसकी पढ़ाई पूरी होने में, और इस बात में कोई संदेह नहीं कि निधि एक काबिल डॉक्टर बन ही जाएगी। बचपन से ही निधि की सहेलियां उसकी किताबें ही रही हैं, ना कभी इसने गांव में किसी लड़की से ज़्यादा बातचीत की, और न स्कूल अथवा कॉलेज में। अब भी सुबह उत्कर्ष के साथ कॉलेज जाती है, और शाम को बस से वापिस गांव.. वापिस आकर कुछ देर अपनी मां और चाची के साथ घर के कामों में हाथ बंटाती है, और फ़िर देर रात तक पढ़ाई.. यही दिनचर्या है निधि की।

सुंदरता तो खैर इसे अपनी मां से तोहफे में मिली ही है, परंतु इसे सबसे अलग बनाती हैं इसकी वो बड़ी - बड़ी आँखें, और उन पर सजा वो पतली डंडी वाला चश्मा।


• अर्जुन (दिवंगत)
• संध्या (43) : अर्जुन की बीवी।
• मीरा (23) : संध्या की बड़ी बेटी।
• अभिमन्यु (20) : संध्या का बेटा।
• निशा (18) : संध्या की छोटी बेटी।


• विभोर (35) : गायत्री का सबसे छोटा बेटा। जितेंद्र के साथ ही खेतों का काम देखता है। हिसाब - किताब शुरू से विभोर ही देखता आया है, क्योंकि गणित में ये हमेशा ही घर में सबसे आगे रहा। कोई संतान न होने के कारण निश्चित ही उदास रहता है, परंतु अपनी पत्नी से बेहद प्यार भी करता है। संतान न होने के कारण अक्सर ही गांव की महिलाओं, यहां तक कि गायत्री से भी ताने सुनने को मिल जाते हैं नंदिनी को, परंतु आज तक विभोर ने कभी उसका अनादर नहीं किया।

• नंदिनी (33) : विभोर की पत्नी। बेहद ही खूबसूरत और मन की भी उतनी ही साफ। अब इसे तक़दीर का खेल कहो या कुछ और, बच्चों से आसानी से घुल - मिल जाने वाली नंदिनी की अपनी ही कोई संतान नहीं है। यूं तो हमेशा ही खुद को प्रसन्न दिखाती है, परंतु वो खालीपन जो इसके जीवन में है, किसी से भी छिपा नहीं।


साथ बने रहिए...
 
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अध्याय ~ 1


• संध्या (43)
• मीरा (23)
• अभिमन्यु (20)
• निशा (18)

~

उत्तर भारत की बर्फीली पर्वतमालाओं के बीच, एक ढलान पर बसे गांव का नाम है — देवधर। देवदार के घने जंगलों से घिरा यह छोटा सा गांव मानो प्रकृति की गोद में छुपा एक रहस्य हो। हर सुबह सूरज की पहली किरणें जब हिमालय की चोटियों से टकरा कर देवधर की घाटियों में उतरती हैं, तो पूरा गांव सोने की तरह चमक उठता है। वसंत में यहाँ के जंगलों में बुरांश के लाल फूल खिलते हैं, और सर्दियों में बर्फ की चादर ओढ़े हर चीज़ शांत और पवित्र लगती है।

देवधर की जलवायु ठंडी और सुखद है — गर्मियां हल्की और सुहावनी होती हैं और सर्दियों में यहां की ढलानों पर बर्फ गिरती है। मानसून में हल्की-हल्की बारिश से खेतों की प्यास बुझती है और हवा में मिट्टी की खुशबू भर जाती है। घाटियों में बहते झरनों की कलकल ध्वनि, और देवदार के पेड़ों के बीच से छन कर आती ठंडी हवा, मानो आत्मा को छू जाती है।

गांव के चारों ओर फैले घने जंगल, सिर्फ सुंदरता नहीं, संसाधनों का भी स्रोत हैं — लकड़ी, जड़ी-बूटियाँ, वन्य फल, और शहद यहाँ के जीवन का हिस्सा हैं। इन जंगलों में कभी-कभी तेंदुआ, मृग, और भालू भी दिख जाते हैं। कठफोड़वे का शोर और झरने के किनारे चहकती चिड़ियाँ गांव के संगीत का हिस्सा बन गए हैं।

देवधर के लोग सरल लेकिन मेहनती हैं। अधिकतर ग्रामीण कृषि पर निर्भर हैं — यहां के सीढ़ीनुमा खेतों में मक्का, गेंहू, आलू, और गर्मियों में राजमा और फली उगाई जाती हैं। सेब के बागान कुछ परिवारों की अतिरिक्त आमदनी का स्रोत हैं। महिलाएं जंगलों से औषधीय पौधे और लकड़ियाँ लाती हैं, जबकि पुरुष गाय-भैंस, बकरियां, और भेड़ें पालते हैं। कुछ लोग शहरी क्षेत्रों में मजदूरी करने जाते हैं, और सर्दियों के महीनों में वहां की कमाई से घर की ज़रूरतें पूरी करते हैं। कुछ परिवार स्थानीय देवता के मंदिर से जुड़े कार्य करते हैं — पूजा-पाठ, त्यौहारों की तैयारियाँ, और तीर्थयात्रियों की सेवा।

देवधर में जीवन कठिन जरूर है, लेकिन इसमें एक अनोखी संतुष्टि और आत्मीयता है। देवधर प्रकृति के साथ सामंजस्य में बसा हुआ, परंपराओं को थामे हुए, और आने वाले बदलावों को धीरे-धीरे अपनाता हुआ एक स्वर्ग सा सुंदर गांव है।

इसी गांव के उत्तरी छोर पर बने एक घर की कहानी है ये.. कहानी एक परिवार की जो टूटकर बिखर गया, पर शायद वो टूटा हुआ टुकड़ा ही अपने आप में संपूर्ण था। वेदना, विछोह, बेबसी, तिरस्कार.. हर तरह की कठिनाइयों से गुज़रने के बाद उस परिवार से टूटा हुआ ये “टुकड़ा” आज शायद एक बेहतर सुबह का आनंद ले रहा था। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं कि ये “बेहतर सवेरा” यूंही नहीं आ गया था, इसे किसी ने तो खरीदा ही था, मेहनत से, लगन से और शायद बहुत सी कुर्बानियों से!




“मीरा.. ओ मीरा.. जाकर अपने भाई को जगा दे, आज शहर जाना है उसे”

(मीरा.. 23 वर्ष की ये कन्या किसी अप्सरा से कम नहीं थी। अक्सर ही पहाड़ों की छाया में रहने वालों की रंगत दूध सी ही होती है, पर मीरा सबसे भिन्न थी। गोरे रंग में मानो केसर घोलकर इस कलाकृति को रचा गया था, ऐसा मुखड़ा की मानो छूने भर से मैला हो जाए.. भूरे रंग को ओढ़े ऐसे नयन जिससे आयना भी लज्जा जाए.. घने काले बालों से झलकती वो विद्रोही लट जो बारंबार उस हसीं चेहरे पर अपनी मौजूदगी दर्ज कर देती, मानो हर नज़र से उसे बचाने का प्रयास कर रही हो.. ऐसी सुंदर काया की जैसे संसार के सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार ने स्वयं उसे आकार दिया हो.. परन्तु इन सभी से उत्तम, मीरा का हृदय और उसका मन!)

मीरा, जो अभी स्नानघर से निकली ही थी, अपनी मां की आवाज़ सुन, मुस्कुराते हुए सीढ़ियों से ऊपर की तरफ चल पड़ी।

(ये घर लगभग सौ गज के क्षेत्रफल में बना हुआ था। यूं तो जगह कोई बहुत ज़्यादा नहीं थी परंतु निर्माण करते समय, क्षेत्रफल के अनुकूल उत्तम संरचना की गई थी। घर में प्रवेश करते ही दाईं ओर रसोईघर और एक कमरा बने हुए थे, ये कमरा संध्या का था। बाईं ओर स्नानघर मौजूद था, और मध्य में एक और कमरा, जोकि मीरा और निशा का था। स्नानघर से लगते हुए पहली मंज़िल पर जाने के लिए सीढ़ियां मौजूद थीं, जिनसे ऊपर जाने पर दो कमरे देखे जा सकते थे। इनमें से एक अनाज व अन्य सामान रखने हेतु था, वहीं दूसरा अभिमन्यु का।)

मीरा ने जैसे ही कमरे के दरवाज़े को हटाते हुए भीतर प्रवेश किया तो उसकी मुस्कान और भी गहरी हो गई। सामने “उसे” चैन की नींद सोता देख, मानो मीरा को वो सुख प्राप्त हो रहा था, जिसके लिए व्यक्ति हर दिन जद्दोजहद करता है.. और आखिर हो भी क्यों न? कितनी ही बार “वो” रातें जागकर, अपनी सीमा से अधिक मेहनत करता था.. सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने परिवार के लिए। यूं तो संध्या भी जीवन भर के लिए स्वयं को “उसका” ऋणी मान चुकी थी, निशा के मन में भी “उसके” लिए सबसे ऊंचा स्थान था.. परंतु मीरा! मीरा के तो जीवन का सूर्य और चंद्रमा, दोनों बस “वही” था!

उसके सिरहाने बैठी मीरा कुछ देर उसे यूंही ताकती रही और फ़िर बड़े ही प्रेम से उसके बालों में हाथ फेरते हुए उसे पुकारने लगी..

“अभि.. भाई उठ जा, निशा को कॉलेज भी जाना है”..

“अभिमन्यु” ने जैसे ही आँखें खोली तो अपने समक्ष मीरा को देखकर स्वयं ही एक मुस्कुराहट उसके होंठों पर उभर आई। मीरा ने पुनः उसके सर पर हाथ फेरा और वहां से जाने लगी। तभी, अभिमन्यु ने सहसा ही उसकी कलाई थाम ली। मीरा ने मुड़कर उसकी ओर देखा तो अभिमन्यु सहजता से उठ खड़ा हुआ और फ़िर मीरा की आंखों में देखते हुए,

“आप जानती हो न दीदी की आप तीनों मेरे लिए क्या हो? और आप सबकी खुशी मेरे लिए कितनी ज़रूरी है.. आप सब जानती हो। फ़िर आप अपने भाई को इतना कमज़ोर क्यों समझती हो कि आपकी छोटी सी पसंद भी मैं पूरी न कर सकूं?”

अभिमन्यु के शब्द मीरा को असमंजस में डाल गए। पर वो समझ चुकी थी कि उसके कहे बिना ही, उसकी हर इच्छा पूरी करने वाला उसका भाई, शायद आज फ़िर...

अभिमन्यु ने वहीं बिस्तर पर रखे तकिए के नीचे से एक छोटी सी डिबिया निकालकर मीरा के हाथ में थमा दी। जैसे ही मीरा ने उस डिबिया को खोला तो हमेशा की ही तरह, भावनाओं के एक तेज़ ज्वार ने उसके हृदय को झकझोर दिया। अभी तीन ही दिन तो हुए थे इस बात को, जब मीरा अपने कॉलेज से कुछ दस्तावेज़ लेने शहर गई थी। वहीं एक दुकान के बाहर से उसने ये सोने के झुमके देखे थे। देखे थे.. और उसे बेहद ही पसंद भी आए थे। परंतु, जैसा हर बार होता है, अभिमन्यु के ऊपर और बोझ न पड़े, इसलिए मीरा ने देखने भर से ही अपना मन भर लिया। लेकिन...

अपने दोनों हाथों में उस डिबिया को थामे हुए मीरा अपनी भावनाओं से द्वंद्व कर रही थी। उसका सर झुका हुआ था और धीरे – धीरे उसके सुबकने की ध्वनि सुनाई देने लगी थी। अभिमन्यु ने आगे बढ़कर उसे अपनी बाहों में भर लिया। यूं तो मीरा आयु में उससे तीन वर्ष बड़ी ही थी, परंतु इस पल में जैसे वो एक छोटी सी लड़की बन चुकी थी। जैसे उसे किसी खिलौने की चाह हो, और उम्मीद न होते हुए भी वो खिलौना उसे मिल गया हो। जाने कितनी ही देर मीरा यूंही अपने भाई को थामे सुबकती रही..

“हमेशा.. उन्ह्ह.. हमेशा ऐसा क्यों करता है तू.. उन्ह्ह.. क्यों मेरे लिए इतना..”

अभिमन्यु पीछे हुए और उसके चेहरे को हाथों में थाम, उसके गालों से आंसुओं को पोंछते हुए,

“आपके लिए नहीं करूंगा, तो और किसके लिए करूंगा दीदी!”

मानो भावनाओं के उस ज्वार ने मीरा को दोबारा झकझोर दिया। कृतज्ञता, प्रेम और समर्पण से भरी अपनी आंखों से अभिमन्यु को देखते हुए सहसा ही वो उसके गले से लग गई।

“चलो अब जल्दी से पहन कर तो दिखाओ...”

मीरा को खुद से अलग करते हुए अभिमन्यु ने कहा। वहीं रखे आयने में देखते हुए जब मीरा ने वो झुमके अपने कानों में सजाए, तो उन्हें देखने की बजाए उसका सर ध्यान अभिमन्यु के चेहरे पर था। आयने में दिखता उसका वो मुस्कुराता चेहरा, जिसकी खुशी अपनी बड़ी बहन की खुशी से ही थी.. आज मीरा के मन में अभिमन्यु और भी गहराई से छप चुका था। वैसे ये कहना गलत नहीं होगा कि वो झुमके शायद मीरा के ही लिए बने थे, उसके चेहरे पर सुसज्जित होकर मानो उनकी शोभा में चार चांद लग गए हों। पर तभी,

“तेरे पास इतने पैसे कहां से आए अभि?”

उसकी तरफ मुड़ते हुए मीरा ने पूछा..

“क्या दीदी!? मेरे होते हुए पैसों के बारे में चिंता करने की आपको कोई ज़रूरत नहीं है और न ही कभी होगी।”

“बात को घुमा मत, अभि। बता तेरे पास इतने पैसे कहां से आए?”

अभिमन्यु आगे बढ़ा और मीरा के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए, “आप कभी मुझसे कुछ मांगकर तो देखो दीदी.. सारी दुनिया की दौलत भी क्यों न लग जाए, मैं आपको हर वो चीज़ लाकर दूंगा जो आप चाहो!”

मीरा खामोशी से उसकी आंखों में झांक रही थी, उसके हर शब्द में सच्चाई थी, जोकि उसकी आंखों में प्रतिबिंब सी झलक रही थी। मीरा शायद और कुछ उससे कह नहीं पाई और उसके सर पर एक और बात हाथ फेरते हुए वहां से चली पड़ी।

(अभिमन्यु... 20 बरस की आयु में ये अपने परिवार की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर धारण किए हुए था। यूं तो अपने जीवन के 16 वसंत देखने से पूर्व ही अभिमन्यु अपने सपनों को छोड़ अपनी मां और बहनों के सपनों को पूरा करने की दौड़ में लग गया था, पर आज की स्थिति और ही थी। जिस उम्र लड़के अपनी इच्छाओं तले अपने परिवार तथा परिजनों को दबाए रखते हैं, उस उम्र में अभिमन्यु अपने परिवार की बागडोर संभाल रहा था। सुबह उठना, फिर खेतों की तरफ सारा काम संभालना, मवेशियों की ज़िम्मेदारी, फसल और सब्ज़ियों को शहर पहुंचाना, अकेले दम पर ये सब कुछ संभाल रहा था। ऐसा नहीं था कि इसे सहायता की ज़रूरत महसूस नहीं होती थी, या इसके परिवारजन इसकी सहायता करने से इंकार कर देते थे.. अभिमन्यु नहीं चाहता था कि उसके होते हुए उसकी मां अथवा बहनों को किसी भी प्रकार की तकलीफ़ उठानी पड़े। ये समर्पण सबूत था उस प्रेम का जो इसके निश्छल हृदय में था, उन तीनों के ही लिए!

पर क्या ये कहना गलत नहीं होगा कि अभिमन्यु ने अपने सपनों को खुद ही छोड़ दिया? क्या ये सत्य नहीं कि सारी दुनिया ही जुट गई थी ऐसी स्थिति बनाने में जिसके बोझ तले कोई भी शख्स टूटकर बिखर जाए? क्या अभिमन्यु भी टूट गया था उन परिस्थितियों के सामने, या किस्सा कुछ और था? क्या थी वो चुनौतियां, और क्या थे वो मोड़ जिसने एक नौजवान को मजबूर कर दिया, खुद को ही भूलने पर?)




“निशु...”

निशा, अभिमन्यु की मोटरसाइकिल से उतरकर, धीमे से कदमों से कॉलेज की तरफ़ जैसे ही बढ़ने लगी, तभी अभिमन्यु ने उसे पुकारा।

(निशा.. ये कहना गलत नहीं होगा कि घर में सबकी लाडली थी निशा। संध्या, मीरा व अभिमन्यु, तीनों ही निशा से बेहद प्रेम तो करते, परंतु, अक्सर ही उसके लिए चिंतित भी रहा करते थे। वर्षों पूर्व हुए ‘उस हादसे’ ने जैसे निशा की मुस्कुराहट और चुलबुलेपन को उससे छीन लिया था। बचपन में अपनी शैतानी और शोर से पूरे घर को जागृत रखने वाली निशा ने खुद को मौन कर लिया था। किताबें और बस किताबें.. निशा का पूरा दिन बस अपनी पढ़ाई में ही गुज़रता था, जैसे उसका सारा जीवन ही वही हो.. ना कोई सहेली, ना ही कोई शौक, निशा की जीवनशैली देखने में उदासीन ही प्रतीत होती थी। पर क्या वो सदैव ही इसी रूप में रहने वाली थी, या कुछ था जो उसे पहले जैसा कर सकता था?)

अभिमन्यु ने निशा के कंधे पर थपकी देते हुए जैसे उसे साहस दिया, आखिर आज उसका कॉलेज का पहला ही दिन था।

“ध्यान रखना, और कुछ भी बात हो तो मुझे फोन करना”... अभिमन्यु ने मुस्कुराते हुए उसे आश्वासन दिया कि उसका बड़ा भाई हर पल उसके साथ था। अब ये बात निशा भी भली–भांति समझती थी। उसने हल्के से हाथ हिलाते हुए अभिमन्यु को विदा किया और अंदर की तरफ चली गई।

“चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े निशु, तेरी हंसी मैं वापिस लाकर रहूंगा”... अपने आप से ही जैसे एक वादा कर वो वापिस गांव की तरफ लौट गया।




दोपहर का वक्त था जब संध्या रसोईघर में अपने काम में जुटी हुई थी जब उसने मीरा को पुकारा।

“जी मां..”

“ले अभि के लिए खाना ले जा।”

एक टिफिन उसे थमाते हुए संध्या ने कहा और जैसे ही मीरा वहां से जाने को हुई तो, “बेटा ये झुमके.. ये कहां से आए?”

अपनी बेटी के कानों में उन अनजान झुमकों को देखते हुए उसने सवाल किया जिसके जवाब में मीरा की नज़रें अपने आप ही उस टिफिन की तरफ चली गईं। संध्या के लिए भी समझना मुश्किल नहीं था कि अभिमन्यु ने ही मीरा को वो तोहफा दिया होगा। परंतु उनकी चमक संध्या की परखी नज़रों से ये सत्य छुपा नहीं पा रही थी कि वो स्वर्ण था।

“तूने पूछे उससे की उसके पास इतने पैसे कहां से आए?”

“हमेशा की तरह उसने बात टाल दी..” थोड़ी उदासी से भरी आवाज़ में कहा मीरा ने।

“चल तू चिंता मत कर, और हां बाहर पहनकर मत जाना, कोई भरोसा नहीं आज कल, कैसे – कैसे लोग घूमते हैं”...

“मां.. बस अभी पहन जाऊं? वो देखेगा तो उसे अच्छा लगेगा”... मीरा ने संध्या से पूछा तो स्वतः ही उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई।

“जा, और जल्दी आना..” अपनी बेटी के चेहरे पर उभरी खुशी देख संध्या बस प्रार्थना कर रही थी कि उसके बच्चों के बीच ये प्रेम सदैव बना रहे। इतने वर्षों की तपस्या के बाद अब जब जीवन पटरी पर आने लगा था, तो संध्या के मन में पुनः कुछ गलत होने की आशंका ने घर बना लिया था। पिछले कुछ दिनों से उसे अक्सर ही दुस्वप्नों ने घेर रखा था, पर कहीं न कहीं उसे विश्वास भी था कि बस.. अब और नहीं! जितना बुरा उनके साथ होना था, हो चुका, अब और नहीं! इसी विश्वास के साथ वो अपने काम में दोबारा मग्न हो गई।

(संध्या... अपने जीवन के 43 बसंत देख चुकी थी संध्या। पर फ़िर भी उसका रूप ऐसा था कि अप्सराएं भी लज्जित हो जाएं। तक़दीर की मार ने भले ही उसके चेहरे की रौनक को छीन लिया हो, पर आज भी संध्या जैसी देवधर में तो क्या, पास के किसी गांव में कहीं नहीं थी। वर्षों पूर्व हुए हादसे के बाद जो कुछ भी संध्या के साथ हुआ था, जैसे नसीब ने उससे दुश्मनी कर ली हो, ऐसा प्रतीत होने लगा था। परंतु, समय के साथ ही वो ज़ख्म भरने लगा, अपने बच्चों को बड़ा होता देख, उन्हें संभलते देख, वो ज़ख्म भरने लगा था। लेकिन जो कीमत इस मरहम के लिए चुकाई गई थी वो एक नासूर था संध्या के लिए। वो हमेशा तैयार थी अपने बच्चों के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए, पर नसीब ने उस कुर्बानी के लिए अभिमन्यु को चुना था। अपने बेटे का भविष्य धूमिल होते संध्या ने अपनी आंखों से देखा था, और आज भी ये कसक उसके दिल में थी कि वो कुछ भी न कर सकी।

पर क्या इसमें संध्या की गलती थी? बिल्कुल भी नहीं। क्या सिर्फ़ नसीब पर ही संपूर्ण दोष मढ़ना सही होगा? शायद नहीं। हकीकत तो ये थी कि जिस भंवर में संध्या और उसके बच्चों की कश्ती फंसी थी, वो नसीब का बोया हुआ नहीं था। वो था एक षडयंत्र के तहत रचा गया... चक्रव्यूह!)


साथ बने रहिए...
 

rajeev13

Active Member
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(मीरा.. 23 वर्ष की ये कन्या किसी अप्सरा से कम नहीं थी। अक्सर ही पहाड़ों की छाया में रहने वालों की रंगत दूध सी ही होती है, पर मीरा सबसे भिन्न थी। गोरे रंग में मानो केसर घोलकर इस कलाकृति को रचा गया था, ऐसा मुखड़ा की मानो छूने भर से मैला हो जाए.. भूरे रंग को ओढ़े ऐसे नयन जिससे आयना भी लज्जा जाए.. घने काले बालों से झलकती वो विद्रोही लट जो बारंबार उस हसीं चेहरे पर अपनी मौजूदगी दर्ज कर देती, मानो हर नज़र से उसे बचाने का प्रयास कर रही हो.. ऐसी सुंदर काया की जैसे संसार के सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार ने स्वयं उसे आकार दिया हो.. परन्तु इन सभी से उत्तम, मीरा का हृदय और उसका मन!)

वाह.. क्या बात है.. मीरा के रूप का वर्णन आपने कितना सुन्दर किया है..

साथ ही कहानी के घटनाक्रम को भी बहुत अच्छी तरह से लिखा है, उस रहस्य के साथ जिसका हमें अब तक पता नहीं!,
लेकिन जानने की कितनी उत्सुकता है।

अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी...
 
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