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Non-Erotic चरित्रहीन [Completed]

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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
4,022
22,383
159
मिट्टी के चूल्हे पर चढ़े लोहे के तवे पर रोटी सिंक रही थी। साथ ही साथ, यंत्रवत, वो चकले पर आटे की लोइयाँ रख कर रोटी भी बेल रही थी। इस दौरान वो कभी चूल्हे में लकड़ी रख कर, तो कभी हटा कर उसकी आँच कभी तेज़ तो कभी धीमी कर रही थी। चूल्हे से उठने वाले धुएँ से अम्मा की आँखों से अनवरत आँसू भी बह रहे थे। वैसे आज उनके आँसुओं की एक और वजह थी। रोटियाँ बेलते और सेंकते वो रह रह कर अपनी बेटी के विवाह का गीत भी गुनगुना रही थीं।

बेरिया की बेरिया मै बरिज्यो बाबा जेठ जनि रचिहो बियाह … हठी से घोडा पियासन मरिहै गोरा बदन कुम्हलाय
कहो तो मोरी बेटी छत्रछाहों कहो तो नेतवा ओहार … कहो तो मोरी बेटी सुरजू अलोपों गोरा बदन रहि जाय


अम्मा की आँखों से एक बड़ा सा आँसू ढलक कर रोटी पर गिर जाता है, और रोटी का आकार बेलन से चिपक कर ख़राब हो जाता है। अम्मा पूरे धैर्य से रोटी को फिर से परथन में लपेट कर फिर से बेलने लगती हैं।

अपनी अम्मा के पास में ही बैठी हुई गायत्री बोल पड़ी, “अम्मा, काहे रोवत हो?”

“नाही रोइत है। आँच कै धुवाँ है बिटिया। लकड़िया कच्ची है न।”

“हमसे काहे छुपावत हौ अम्मा? का हम नाही समझित कि बियाह गीत गावत गावत तुम काहे रो रही हो?”

“ई तौ खुसी के आँसू हैं फुलवा!” कह कर अम्मा फिर से रोने लगी।

“ऐ अम्मा, तू ऐसे रोयेगी त हम बियाह नाही करेंगे।” गायत्री ने बहुत लाड़ से, अम्मा के गले में गलबैयाँ डाल कर कहा।

उसकी ऐसी भोली बात पर अम्मा के होंठों पर एक फीकी सी मुस्कान आ गई।

“बिटिया तो पराया धन होती है। लोक रीति यही है। अम्मा-बाबा क आपन कलेजा पै पत्थर धरै क पड़ी, औउर आपन बिटिया क भेजेन क पड़ी।”

यह बात बोलते बोलते अम्मा के हृदय में एक पीड़ादायक टीस उठी। वो बेचारी अपनी बेटी को क्या बताती कि विवाह का जो सपना वह देख रही है, वह तो भंगुर शीशे के समान कब का टूट गया है। और उन टूटे हुए सपनों की किरचन उसकी उम्र भर गड़ेगी। बचपन और जवानी के दोराहे पर कड़ी गायत्री को कहाँ पता था कि उसकी अम्मा उसके विवाह की प्रसन्नता से नहीं, बल्कि दुःख से रो रही है। वो अब अपनी भोली बिटिया को कैसे समझाएँ कि उनका और बाबा का हृदय मानों तलवार की धार पर रखा हुआ है। एक तरफ तो उनकी बड़ी बेटी है, तो दूसरी ओर छोटी। जहाँ एक का जीवन सँवर रहा है, तो दूसरी का तबाह हो रहा है! उनकी दशा उस बाती जैसी है जिसके दोनों छोरों पर आग लगी हुई है। अंत में बस राख़ बचनी है। देवता भी किसी शत्रु को भी ऐसे दिन न दिखाएं!

**

आजकल जीजा का घर आना जाना काफ़ी बढ़ गया था। वो जब आते हैं तब गायत्री के लिए कपड़े, चप्पलें, चूड़ी, और लाली भी ले आते हैं। ऐसे उपहार पा कर वो बहुत खुश होती है। उसको ऐसे खुश होते देख कर जीजा भी बहुत खुश होते हैं। कभी-कभी वो उसका हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा भी लेते हैं। एक दिन जब जीजा के आने पर गायत्री खेत से हरी सब्ज़ियाँ तोड़ कर वापस आई, तब उसने सुना कि अम्मा, बाबा, और जीजा उसके विवाह की बातें कर रहे थे। स्त्री सुलभ संकोच से, गायत्री यह बातें सुन कर लजा गई।

जब उसकी बड़ी दीदी का विवाह जीजा से हुआ था वो गायत्री कोई तरह साल की थी, और जीजा का छोटा भाई, राजकुमार, कोई पंद्रह साल का था। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। आस-पास के चार पाँच गाँवों में बस यही एक ही स्कूल था।

एक-दो बार तो उसने स्कूल में ही गायत्री का हाथ भी पकड़ लिया था।

“अम्मा का पता चली तो काट डरिहैं हमका।” गायत्री ने विरोध किया।

“अच्छा! तो अगर हम तुमको बियाह कै ले गए, तब तो नहीं काटेंगी न?” राज ने आत्मविश्वास से कहा।

कुछ बात थी उसके कहने में जिससे गायत्री के हृदय में एक धमक सी हो गई।

“तब काहे को काटेंगी?” गायत्री ने लजाते हुए कहा।

लज्जा से उसके शरीर की रंगत सदाबहार के फूल के जैसे ही गुलाबी हो गई थी। क्यों न हो जाती वो गुलाबी? उसका रंग ही ऐसा था। फूल जैसा! गुलाबी गुलाबी। अम्मा बाबा उसका नाम फुलवा रखना चाहते थे। लेकिन पंडित जी के विचरवाने से उसका नाम गायत्री रखा गया। फिर भी अम्मा अक्सर प्यार से उसको फुलवा बुलाती थी। सुन्दर, भोला सा अण्डाकार चेहरा, सुतवाँ नाक, बड़ी बड़ी आँखें! गाँव देहात में लड़कियों का ऐसा रूप रंग और ऐसी काया कहाँ होती है? जब गायत्री धूप में निकलती तो उसकी रंगत लाल हो जाती थी। यही सब देख कर गाँव के सब लोग कहते कि गायत्री बहुत भाग्यशाली है।

बहुत भाग्यशाली है गायत्री! जिस साल उसका जन्म हुआ था, उस साल बाबा के खेतों में फसल भी बहुत लहलहाई थी। उसके जन्म के दो साल बाद उसके छोटे भाई का जन्म भी हुआ था। और अब देखो, यह उसकी किस्मत ही है कि बाबा को उसके लिए वर ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी! विवाह प्रस्ताव स्वयं चल कर आया!

उसकी दीदी का रंग थोड़ा कम अवश्य है, लेकिन शरीर की गढ़न और नैन नक्श में उसका भी कोई जोड़ नहीं है। इसलिए जीजा उसको कभी नहीं छोड़ते। वो जब भी मायके आती हैं, जीजा साथ ही आते है और साथ ले जाते हैं। दीदी के विवाह को पांच वर्ष हो गए हैं, लेकिन उनकी गोद अभी भी खाली है। संभवतः यही कारण है कि अब उनका आना जाना बहुत कम हो गया है। इस वर्ष तो वो आई भी नहीं। पीठ पीछे कोई कुछ कहे तो कहे, किन्तु यदि कोई मुँह पर ही कुछ कह दे, तो सहन नहीं होता है। इसलिए अब केवल जीजा ही आते हैं।
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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22,383
159
उस दिन स्कूल से वापस आते ही गायत्री ने अम्मा को कह दिया, “अम्मा, जीजा का भाई हमसे बियाह करने को कह रहा था।”

अम्मा का मुँह खुला रह गया था, “ई का कह रही हो, फुलवा?”

“हाँ अम्मा, सच्ची।”

कुछ देर सोचने के बाद अम्मा ने कहा, “कल राजकुमार को कहना की अम्मा उनका घरै बुलाईन हैं।”

“ठीक है अम्मा।”

अगले दिन स्कूल के बाद राजकुमार जब गायत्री के घर पहुँचा, तो अम्मा ने कहा,

“हम ई का सुन रहे हैं पाहून?”

राजकुमार में आत्मविश्वास है, लेकिन बड़ों के लिए आदर और संकोच भी है। अपनी आँखें धरती पर ही गड़ाए वो बोला, “कछु गलत सुनी हैं का?”

“कछु गलत नहीं बेटा। तुम तौ देखै सुनै हो। हमरी गायत्री की सहोदर दिदिया कै देउर। गायत्री के बाबा और हमरी खातिर ऐसे बढ़ के का ख़ुसी होईहै की हमरी दुन्नो बिटियैं एक्के घर मा रहैं।”

“त फिर का चिंता है अम्मा?” राजकुमार ने उत्साहित मन से पूछा।

“चिंता कछु नाही पाहून, बस बियाह के पहले बदनामी कै डर है।”

“तो फिर बियाह काहे नहीं कर देती हैं? बाबा का भेज दीजिये घरै।” राजकुमार ने प्रस्ताव रखा।

“बात तौ तुम्हरी ठीक है पाहून, लेकिन पहिले गायत्री का मेट्रिक कै लियै दियो। अउर तुम भी बारहवीं कै लियौ। तब तक तुम दूनौ जनै की उमर भी सही हो जायेगी।”

“ठीक है अम्मा! तो बात तय रही। तब तक हम भी आपकी बेटी का हाथ नहीं पकड़ेंगे। किन्तु देखने पर त रोक नहीं है न?” राजकुमार ने ढिठाई से पूछा।

उसकी भोली बात पर अम्मा की हँसी छूट गई थी। बालपन के प्रेम में सच्चाई होती है। तब जीवन के संघर्षों का ज्ञान अनुमान नहीं होता। बस होता है तो केवल विशुद्ध प्रेम और आकर्षण।

**


वो दिन भी आ गया जब राजकुमार का मैट्रिक की परीक्षा का फार्म भरा गया था। अब शीघ्र ही उसका स्कूल आना जाना बंद होने वाला था। उसके शहर जाने की तैयारी शुरू हो गयी थी। अम्मा और बाबा की अनुमति मिलने के बाद गायत्री ने मन ही मन राजकुमार को अपना पति मान लिया था। उसने प्रत्येक सोमवार को व्रत रखना शुरू कर दिया था। अब वो प्रत्येक सोमवार को स्कूल जाने से पहले भोलेनाथ के मंदिर जाती थी।

उसके गले में सफ़ेद चन्दन को देख कर राजकुमार ने मुस्कुराते हुए पूछा था, “का मांगी हो भगवान् से?”

“हमको कछु कमी है का? ई तो बस तुमको पाने की खातिर हम तपस्या कर रहे हैं।” गायत्री ने लजाते हुए कहा।

“तो एमाँ कउनो झंझट थोड़े न है। बस दू साल का बात है।”

“अच्छा! तो तब तक हम का करें? किसका मुँह देख के दिन बिताएँ?”

“चिंता काहे करती हो? भगवान भोलेनाथ से हमको मांगी हो, तौ वही हमको मिलवायेंगे।” राजकुमार ने बड़ी सहजता से कह दिया।

“कैसे मिलवाएंगे, हमको समझाओ जरा?” गायत्री उसकी बात कुछ समझ न सकी।

“तुमसे मिलने हर सोमवार को हम मंदिर आएंगे।” राजकुमार ने वचन दिया।

“सच कह रहे हो?”

“वचन है हमारा। अउर फिर स्कूल आने में हमको कोई मनाही थोड़े न है। जब तुमको देखने का, या तुमसे मिलने का मन होगा तो आ जाया करेंगे। अम्मा बोली हैं की देखने पर कोई रोक नहीं है।”

“अउर जब हमारा मन होगा?” अपनी कही इस बात पर गायत्री को खुद ही लज्जा आ गई थी। उसके गाल लाल-लाल हो गए थे।



गायत्री की भाँति राजकुमार भी प्रत्येक सोमवार को भोलेनाथ के मंदिर में फल, फूल, दूब, बेलपत्र और दूध लेकर पहुँच जाता। एक दो सोमवार तक तो ठीक चला, लेकिन उसके बाद मंदिर के पंडित जी जैसे उसकी मंशा ताड़ गए।

“तुम्हारे गाँव में कौनों मंदिर नहीं है का बबुआ?” उन्होंने पूछा था।

“मंदिर तो है, बाबा। किन्तु इतनी मान्यता वाला नहीं है। और फिर हुआं देवी-दर्शन नहीं होता है।” कहते हुए राजकुमार ने पंडित जी के हाथ में एक रुपया रख कर उनका पैर छू लिया।

“आशीर्वाद है बेटा, मनोकामना पूरी होगी।” कहकर पंडित जी ने उसके सिर पर हाथ रख दिया, “लेकिन ध्यान रखना बेटा, किसी के मान सम्मान की बात है।”

उस घटना के बाद राजकुमार पुनः मंदिर नहीं गया। किन्तु कभी-कभी स्कूल अवश्य आ जाता था। छुट्टी के समय भीड़-भाड़ में पता नहीं चलता कि कौन स्कूल पास कर चुका है और कौन नहीं। गायत्री और राजकुमार दोनों एक दूसरे को जी भर कर देख लेते थे और कभी-कभी सबसे नज़रें चुरा के हँस भी लेते थे।

**


जब गायत्री ने नौवीं कक्षा पास कर ली, तो जीजा उसके विवाह की बात उठाए थे। लेकिन अम्मा-बाबा ‘मेट्रिक के बाद’ वाली बात कह कर उस बात को टाल गए थे। लेकिन अब जब उसकी मैट्रिक की परीक्षा हो गई है तो जीजा मानों ज़िद ही पकड़ लिए हैं।

उसको थोड़ा-थोड़ा सुनाई पड़ा था... जीजा कह रहे थे कि गायत्री के बच्चे से उसकी दीदी की भी गोदी भर जायेगी।

आगे सुनने के लिए वह वहाँ रुक न सकी। लज्जा तो स्त्री का पहला श्रृंगार होता है। गायत्री भी लज्जा से लाल हो गई थी। लज्जा से गड़ी हुई, अपनी गर्दन झुकाए वो घर के उस एकांत की तरफ चल दी जहाँ उसके कोमल सपने प्रतिदिन दुपहरिया के फूल की भाँति खिलते, और वो स्वयं छुई-मुई की पत्ती जैसी हो जाती - स्वयं में ही सिकुड़ी!

‘जीजा ठीकै तो कह रहे हैं!’ उसने सोचा, ‘जब उसको पहला बच्चा होगा, तो वो उसको दीदी की गोद में डाल देगी।’

एक बहुत पुरानी कहावत है, ‘माई मरे, मौसी जिये’। मौसी का प्रेम माता समान ही तो होता है। मौसी यदि वास्तव में मौसी हो, तो वो माता से भी बढ़कर होती है।

‘उ बच्चा हमसे कम भाग्यसाली न होगा। दो-दो माँएँ! कितना भाग्य! दीदी उसकी माँ भी होगी, मौसी भी और चाची भी!’

गायत्री के चेहरे पर संतोष के साथ-साथ प्रसन्नता के भी भाव उभर गए थे।

उस रात गायत्री ने बहुत सुन्दर सपना भी देखा। उसने देखा कि उसके बगीचे के आम के सभी वृक्ष बौरा गए हैं और उसकी संतानें सभी उन वृक्षों के नीचे खेल रहे हैं। सपने में अत्यधिक प्रसन्नता होने से उसकी नींद टूट गई और फिर नींद नहीं आई।

‘हे प्रभु, कछु ऐसा उपाय रहता कि हम आपन दिदिया के लगे पहुँच जाई!’ उसने अपने इष्टों से विनती करी।

**
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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उसके विवाह में अब बस एक ही सप्ताह बचा हुआ था, किन्तु उसकी बड़ी बहन अब तक नहीं आई थी।

“अम्मा दिदिया कब आएगी? उसके बिना सब खुसी आधी आधी लग रही है।”

“आ जइहैं फुलवा। एक दू दिन मा आ जइहैं। ओका त दूनौं तरफ क देखें क परी ना।”

“हाँ अम्मा।”

गायत्री ने देखा कि आज अम्मा को रोटियाँ बेलने में बहुत जतन लगाना पड़ रहा था। उनकी आँखों से आँसू अनवरत गिर रहे थे। जैसे अपना ही मन बहलाने को, उनका विवाह गीत गुनगुनाना जारी रहा,

काहे को मोरे बाबा छत्रछाहों काहे कैं नेतवा ओहार ... काहे को मोरे बाबा सुरजू अलोपों गोरा बदन रहि जाय
आजू कै रोजे बाबा तोहरी मडैइया कालही सुघर बार के साथ ... काचहि दुधवा पियायो मोरी बेटी दहिया खियायो सढीयार


अम्मा की गुनगुनाने की भीगी आवाज़ मानों गायत्री को भी भिगो रही थी।

“हमरै बियाह से तुम और बाबा बहुत दुखी हौ न,” गायत्री ने बहुत लाड़ से कहा, “महिना में पन्दरह दिन हम इहै रहेंगे अम्मा, कहे देते हैं।”

“बिटिया के बिदाई से नैहर से ओके नाता खतम थोड़ै न होता है फुलवा।”

अम्मा ने मुस्कुराते हुए उसके गाल को छुआ। उस गरम छुवन में जैसे उनकी सारी ममता समाई हुई थी। गायत्री का मन थोड़ा हल्का हुआ।

“अच्छा, तो फिर फूफू काहे नाही आई हैं? उनसे झगड़ा की हो का?”

“झगड़ा नाही कियन हन बिटिया। तुमरे बियाहै से पहिले तुमरी फूफू आ जाईहें।”

“न जाने कैसा बियाह है हमारा। केहू का कौनो खुसी ही न है। बस अब पाँच दिन के बादै बियाह है, लेकिन न तो दीदी आई है, अउर न ही फूफू।”

“दूनौ जनी आ जहियैं बिटिया, एक दू दिने मा। आपन मन काहे छोटा कर रही हो? अब देखौ न, फसल का समय है। त घर से निकरै मा दिक्कत तौ होतै है।”

“फिर आगै कै तारीख काहे नाही निकरवायौ? ई हड़बड़ी कौन बात कै?”

“जल्दी त पाहून किये रहे बिटिया।” कह कर अम्मा पुनः गीत गाने लगी।

एकहू गुनहिया न लाइयु मोरी बेटी चल्यु परदेसिया के साथ ... काहे कै मोरे बाबा दुधवा पियायो दहिया खियायो सढीयार
जानत रह्यो बेटी पर घर जइहें गोरा बदन रहि जाय ... इहै दुधवा बाबा भैया कैं पीऔत्यों जेनि तोहरे दल कै सिंगार


“हड़बड़ी कै बियाह, कनपटी मा सेंदुर” गायत्री बड़बड़ाई।

उसके विवाह की तैयारी वैसी नहीं चल रहा थी जैसी दीदी के विवाह के समय हुई थी। घर से न तो कोई फूफू को न्योता देने गया, और न ही घर की रंगाई पोताई हुई। उसकी दृष्टि बचा कर अम्मा बाबा गुप-चुप कुछ बतियाते रहते। जैसे ही उसको निकट आता देखते, वो चुप्पी साध लेते। दोनों का मुँह भी दिन भर लटका रहता है। शादी जैसी प्रसन्नता कुछ दिखती ही नहीं! उसको कुछ गड़बड़ लग रहा था, सो एक दिन वो दबे पाँव अम्मा बाबा की सारी बातें सुन ली।

जीजा ने बाबा को धमकाया था कि यदि गायत्री को उनके साथ नहीं ब्याह दिया, तो वो बड़की दीदी यहीं छोड़ जायेंगे।

यह बात सुन कर गायत्री के तो होश ही उड़ गए। अब उसको समझ आया कि क्यों अम्मा बाबा का मुँह उतरा हुआ रहता है। क्यों दीदी अभी तक घर नहीं आई थी। क्यों फूफू घर आने में कतरा रही थीं। क्यों घर में प्रसन्नता नहीं थी। विवाह कहाँ था यह? यह तो आजीवन कारावास था! दण्ड था! किस बात का, यह तो प्रभु ही बताएँगे!

**

आज सोमवार था। उसके विवाह से पहले का अंतिम सोमवार। फल, फूल, बेलपत्र और दूध लेकर वो मंदिर जाने लगी तो अम्मा ने उसको रोक दिया।

“हल्दी का बाद घरै के बाहर जाना सुभ नाही है बिटिया।” उन्होंने उसको समझाया।

“अम्मा हम त मंदिर जा रहे है। एमा का सुभ अउर का असुभ?”

“सब बड़े बुजुर्ग इहे कहत रहे बिटिया।” उसको रोकने का सहस अम्मा में नहीं बचा था।

“दू साल से हम भोलेनाथ की सेवा कर रहे हैं अम्मा। आज जब उ हमरी झोली भर दिए हैं तो का हम उनकी पूजा प्रार्थना छोड़ दें?”

“ठीक है बिटिया, जाओ। हो आओ। लेकिन जल्दी वापस आए जायो।” कहकर अम्मा पुनः रोने लगी।

अब वो अपनी फुलवा को क्या बताएँ कि भोलेबाबा ने उसके साथ कैसा अन्याय किया है।

मंदिर में गायत्री को राजकुमार कहीं नहीं दिखा। लेकिन वह जानती है भोले बाबा उसके साथ अन्याय नहीं कर सकते। उसने सबसे पहले पूरे मन से पूजा पाठ किया। जब वो पूजा कर्म से निवृत्त हुई तो उसने दृष्टि उठा कर देखा, तो राजकुमार अब भी नहीं आया था। अपनी दृष्टि इधर उधर फिरा कर गायत्री उधर मंदिर में ही बैठ गई। उसके साथ आई उसकी सहेली का भी मुँह उतर गया था। नैराश्य और बेचैनी उसके अंदर खौलते पानी की तरह उबल रही थी।

उसने अपनी सहेली से पूछा, “तुमने खबर भिजवाई थी ना?”'

“भेजवाए तो थे” सहेली ने डरते डरते कहा। गायत्री के दुःख से वो भी कोई कम दुखी नहीं थी।

अचानक ही दूर से राजकुमार आता हुआ दिखाई दिया तो गायत्री ने जोर से अपनी सहेली का हाथ पकड़ लिया था। नैराश्य में सम्बल मिला। डूबते को तिनके का सहारा मिला। बहुत देर तक गायत्री अपने राजकुमार के साथ बतियाती रही और फिर घर लौट आई।

**


आज गायत्री का विवाह होना था। उसकी दीदी अभी भी नहीं आई थी। हाँ, उसकी फूफू आ गई थी। सबके चेहरे ऐसे उतरे हुए थे जैसे उसके विवाह में नहीं बल्कि उसके श्राद्ध में आए हुए हों! न कोई किसी से कुछ कह रहा था, न कोई किसी को कुछ बता रहा था। शाम को बारात उसके दरवाज़े पर आ गई। गाना बाजा ऐसा जैसे मरने में होता है। गायत्री ने देखने की चेष्टा करी, लेकिन उसको राजकुमार कहीं नहीं दिखा।

विवाह के बाद रातों-रात विदा कर दिया गया था गायत्री को, जैसे उसका विवाह न किया गया था, बल्कि कोई पाप कर्म किया गया था।

जब वो ससुराल पहुँची तो उसकी दीदी ने उसकी आरती उतारी। दीदी का चेहरा तो हँस रहा था, लेकिन उसकी आँखें रो रही थीं। घर भर की प्यारी दुलारी को किसके और किस पाप का दण्ड मिला था, इसका उत्तर किसी के पास नहीं था। आरती के बाद दीदी उसको गुड़हल और कनेर के पुष्पों की माला से सजी धजी कोठरी में पहुँचा कर, पल्ला सटा कर किसी दूसरी कोठरी में चली गई थी। गायत्री को अपने दुर्भाग्य का सामना करने अकेला छोड़ कर।

गायत्री अपने दूल्हे का इंतज़ार करने लगी।

कोई दो घंटे बाद, सस्ते नशे में चूर उसका जीजा जोर से दरवाजा खोल कर कोठरी में घुसा था, लेकिन कोठरी के अंदर का दृश्य देखकर वो उलटे पैर भागा।

कोठरी में सुहाग सेज पर गायत्री और उसका राजकुमार पूर्ण नग्न हो कर, एक दूसरे के आलिंगन में गुत्थम-गुत्था हो कर बेसुध सो रहे थे। वो अपनी साली को ब्याह तो लाया, लेकिन उसको अपने राजकुमार का होने से रोक नहीं सका।



समाप्त!
 

pawanqwert

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मिट्टी के चूल्हे पर चढ़े लोहे के तवे पर रोटी सिंक रही थी। साथ ही साथ, यंत्रवत, वो चकले पर आटे की लोइयाँ रख कर रोटी भी बेल रही थी। इस दौरान वो कभी चूल्हे में लकड़ी रख कर, तो कभी हटा कर उसकी आँच कभी तेज़ तो कभी धीमी कर रही थी। चूल्हे से उठने वाले धुएँ से अम्मा की आँखों से अनवरत आँसू भी बह रहे थे। वैसे आज उनके आँसुओं की एक और वजह थी। रोटियाँ बेलते और सेंकते वो रह रह कर अपनी बेटी के विवाह का गीत भी गुनगुना रही थीं।

बेरिया की बेरिया मै बरिज्यो बाबा जेठ जनि रचिहो बियाह … हठी से घोडा पियासन मरिहै गोरा बदन कुम्हलाय
कहो तो मोरी बेटी छत्रछाहों कहो तो नेतवा ओहार … कहो तो मोरी बेटी सुरजू अलोपों गोरा बदन रहि जाय


अम्मा की आँखों से एक बड़ा सा आँसू ढलक कर रोटी पर गिर जाता है, और रोटी का आकार बेलन से चिपक कर ख़राब हो जाता है। अम्मा पूरे धैर्य से रोटी को फिर से परथन में लपेट कर फिर से बेलने लगती हैं।

अपनी अम्मा के पास में ही बैठी हुई गायत्री बोल पड़ी, “अम्मा, काहे रोवत हो?”

“नाही रोइत है। आँच कै धुवाँ है बिटिया। लकड़िया कच्ची है न।”

“हमसे काहे छुपावत हौ अम्मा? का हम नाही समझित कि बियाह गीत गावत गावत तुम काहे रो रही हो?”

“ई तौ खुसी के आँसू हैं फुलवा!” कह कर अम्मा फिर से रोने लगी।

“ऐ अम्मा, तू ऐसे रोयेगी त हम बियाह नाही करेंगे।” गायत्री ने बहुत लाड़ से, अम्मा के गले में गलबैयाँ डाल कर कहा।

उसकी ऐसी भोली बात पर अम्मा के होंठों पर एक फीकी सी मुस्कान आ गई।

“बिटिया तो पराया धन होती है। लोक रीति यही है। अम्मा-बाबा क आपन कलेजा पै पत्थर धरै क पड़ी, औउर आपन बिटिया क भेजेन क पड़ी।”

यह बात बोलते बोलते अम्मा के हृदय में एक पीड़ादायक टीस उठी। वो बेचारी अपनी बेटी को क्या बताती कि विवाह का जो सपना वह देख रही है, वह तो भंगुर शीशे के समान कब का टूट गया है। और उन टूटे हुए सपनों की किरचन उसकी उम्र भर गड़ेगी। बचपन और जवानी के दोराहे पर कड़ी गायत्री को कहाँ पता था कि उसकी अम्मा उसके विवाह की प्रसन्नता से नहीं, बल्कि दुःख से रो रही है। वो अब अपनी भोली बिटिया को कैसे समझाएँ कि उनका और बाबा का हृदय मानों तलवार की धार पर रखा हुआ है। एक तरफ तो उनकी बड़ी बेटी है, तो दूसरी ओर छोटी। जहाँ एक का जीवन सँवर रहा है, तो दूसरी का तबाह हो रहा है! उनकी दशा उस बाती जैसी है जिसके दोनों छोरों पर आग लगी हुई है। अंत में बस राख़ बचनी है। देवता भी किसी शत्रु को भी ऐसे दिन न दिखाएं!

**

आजकल जीजा का घर आना जाना काफ़ी बढ़ गया था। वो जब आते हैं तब गायत्री के लिए कपड़े, चप्पलें, चूड़ी, और लाली भी ले आते हैं। ऐसे उपहार पा कर वो बहुत खुश होती है। उसको ऐसे खुश होते देख कर जीजा भी बहुत खुश होते हैं। कभी-कभी वो उसका हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा भी लेते हैं। एक दिन जब जीजा के आने पर गायत्री खेत से हरी सब्ज़ियाँ तोड़ कर वापस आई, तब उसने सुना कि अम्मा, बाबा, और जीजा उसके विवाह की बातें कर रहे थे। स्त्री सुलभ संकोच से, गायत्री यह बातें सुन कर लजा गई।

जब उसकी बड़ी दीदी का विवाह जीजा से हुआ था वो गायत्री कोई तरह साल की थी, और जीजा का छोटा भाई, राजकुमार, कोई पंद्रह साल का था। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। आस-पास के चार पाँच गाँवों में बस यही एक ही स्कूल था।

एक-दो बार तो उसने स्कूल में ही गायत्री का हाथ भी पकड़ लिया था।

“अम्मा का पता चली तो काट डरिहैं हमका।” गायत्री ने विरोध किया।

“अच्छा! तो अगर हम तुमको बियाह कै ले गए, तब तो नहीं काटेंगी न?” राज ने आत्मविश्वास से कहा।

कुछ बात थी उसके कहने में जिससे गायत्री के हृदय में एक धमक सी हो गई।

“तब काहे को काटेंगी?” गायत्री ने लजाते हुए कहा।

लज्जा से उसके शरीर की रंगत सदाबहार के फूल के जैसे ही गुलाबी हो गई थी। क्यों न हो जाती वो गुलाबी? उसका रंग ही ऐसा था। फूल जैसा! गुलाबी गुलाबी। अम्मा बाबा उसका नाम फुलवा रखना चाहते थे। लेकिन पंडित जी के विचरवाने से उसका नाम गायत्री रखा गया। फिर भी अम्मा अक्सर प्यार से उसको फुलवा बुलाती थी। सुन्दर, भोला सा अण्डाकार चेहरा, सुतवाँ नाक, बड़ी बड़ी आँखें! गाँव देहात में लड़कियों का ऐसा रूप रंग और ऐसी काया कहाँ होती है? जब गायत्री धूप में निकलती तो उसकी रंगत लाल हो जाती थी। यही सब देख कर गाँव के सब लोग कहते कि गायत्री बहुत भाग्यशाली है।

बहुत भाग्यशाली है गायत्री! जिस साल उसका जन्म हुआ था, उस साल बाबा के खेतों में फसल भी बहुत लहलहाई थी। उसके जन्म के दो साल बाद उसके छोटे भाई का जन्म भी हुआ था। और अब देखो, यह उसकी किस्मत ही है कि बाबा को उसके लिए वर ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी! विवाह प्रस्ताव स्वयं चल कर आया!

उसकी दीदी का रंग थोड़ा कम अवश्य है, लेकिन शरीर की गढ़न और नैन नक्श में उसका भी कोई जोड़ नहीं है। इसलिए जीजा उसको कभी नहीं छोड़ते। वो जब भी मायके आती हैं, जीजा साथ ही आते है और साथ ले जाते हैं। दीदी के विवाह को पांच वर्ष हो गए हैं, लेकिन उनकी गोद अभी भी खाली है। संभवतः यही कारण है कि अब उनका आना जाना बहुत कम हो गया है। इस वर्ष तो वो आई भी नहीं। पीठ पीछे कोई कुछ कहे तो कहे, किन्तु यदि कोई मुँह पर ही कुछ कह दे, तो सहन नहीं होता है। इसलिए अब केवल जीजा ही आते हैं।
बहुत सुंदर आकर्षक , मनमोहक अपडेट हैं।❤️❤️

अगले अपडेट की जल्द आशा में 💚🙏🏼🙏🏽🙏🏽

आपकी हर कहानी बहुत अच्छी लगती है, खासकर
संयोग का सुहाग
और
गौरी ✌️✌️

दोनों की भाषा भी बहुत अच्छी हैं ❣️
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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बहुत सुंदर आकर्षक , मनमोहक अपडेट हैं।❤❤

अगले अपडेट की जल्द आशा में 💚🙏🏼🙏🏽🙏🏽

आपकी हर कहानी बहुत अच्छी लगती है, खासकर
संयोग का सुहाग
और
गौरी ✌✌

दोनों की भाषा भी बहुत अच्छी हैं ❣

बहुत बहुत धन्यवाद, पवन। यह कहानी तो समाप्त हो गई। बस एक छोटी सी कहानी लिखने का मन हुआ, तो लिख दिया 😊
 

kamdev99008

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बहुत बहुत धन्यवाद, पवन। यह कहानी तो समाप्त हो गई। बस एक छोटी सी कहानी लिखने का मन हुआ, तो लिख दिया 😊
बहुत बढ़िया.....
गायत्री के जीजा ने जो दुख गायत्री, उसकी जीजी और अपने भाई के लिये पैदा किया....
अब वो दुख उसे अपनी पूरी ज़िन्दगी झेलना पड़ेगा....

आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति

कभी-कभी संकट को मिटाने के लिये मर्यादा तोड़ भी देनी चाहिए
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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बहुत बढ़िया.....
गायत्री के जीजा ने जो दुख गायत्री, उसकी जीजी और अपने भाई के लिये पैदा किया....
अब वो दुख उसे अपनी पूरी ज़िन्दगी झेलना पड़ेगा....

आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति

कभी-कभी संकट को मिटाने के लिये मर्यादा तोड़ भी देनी चाहिए

भाई साहब, बहुत दिनों के बाद भेंट हुई। आशा है सब कुशल मंगल है?
कुछ दिन पहले 'हम आपके हैं कौन' देखा, और सोचा कि अगर कहानी में 'वैसा' न हो कर 'ऐसा' हो तो कैसा हो?
बस। और ऐसा नहीं है कि ऐसे वृत्तांत सुनने को नहीं मिलते। बिलकुल मिलते हैं।
इसलिए यह कहानी :)
 

pawanqwert

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उसके विवाह में अब बस एक ही सप्ताह बचा हुआ था, किन्तु उसकी बड़ी बहन अब तक नहीं आई थी।

“अम्मा दिदिया कब आएगी? उसके बिना सब खुसी आधी आधी लग रही है।”

“आ जइहैं फुलवा। एक दू दिन मा आ जइहैं। ओका त दूनौं तरफ क देखें क परी ना।”

“हाँ अम्मा।”

गायत्री ने देखा कि आज अम्मा को रोटियाँ बेलने में बहुत जतन लगाना पड़ रहा था। उनकी आँखों से आँसू अनवरत गिर रहे थे। जैसे अपना ही मन बहलाने को, उनका विवाह गीत गुनगुनाना जारी रहा,

काहे को मोरे बाबा छत्रछाहों काहे कैं नेतवा ओहार ... काहे को मोरे बाबा सुरजू अलोपों गोरा बदन रहि जाय
आजू कै रोजे बाबा तोहरी मडैइया कालही सुघर बार के साथ ... काचहि दुधवा पियायो मोरी बेटी दहिया खियायो सढीयार


अम्मा की गुनगुनाने की भीगी आवाज़ मानों गायत्री को भी भिगो रही थी।

“हमरै बियाह से तुम और बाबा बहुत दुखी हौ न,” गायत्री ने बहुत लाड़ से कहा, “महिना में पन्दरह दिन हम इहै रहेंगे अम्मा, कहे देते हैं।”

“बिटिया के बिदाई से नैहर से ओके नाता खतम थोड़ै न होता है फुलवा।”

अम्मा ने मुस्कुराते हुए उसके गाल को छुआ। उस गरम छुवन में जैसे उनकी सारी ममता समाई हुई थी। गायत्री का मन थोड़ा हल्का हुआ।

“अच्छा, तो फिर फूफू काहे नाही आई हैं? उनसे झगड़ा की हो का?”

“झगड़ा नाही कियन हन बिटिया। तुमरे बियाहै से पहिले तुमरी फूफू आ जाईहें।”

“न जाने कैसा बियाह है हमारा। केहू का कौनो खुसी ही न है। बस अब पाँच दिन के बादै बियाह है, लेकिन न तो दीदी आई है, अउर न ही फूफू।”

“दूनौ जनी आ जहियैं बिटिया, एक दू दिने मा। आपन मन काहे छोटा कर रही हो? अब देखौ न, फसल का समय है। त घर से निकरै मा दिक्कत तौ होतै है।”

“फिर आगै कै तारीख काहे नाही निकरवायौ? ई हड़बड़ी कौन बात कै?”

“जल्दी त पाहून किये रहे बिटिया।” कह कर अम्मा पुनः गीत गाने लगी।

एकहू गुनहिया न लाइयु मोरी बेटी चल्यु परदेसिया के साथ ... काहे कै मोरे बाबा दुधवा पियायो दहिया खियायो सढीयार
जानत रह्यो बेटी पर घर जइहें गोरा बदन रहि जाय ... इहै दुधवा बाबा भैया कैं पीऔत्यों जेनि तोहरे दल कै सिंगार


“हड़बड़ी कै बियाह, कनपटी मा सेंदुर” गायत्री बड़बड़ाई।

उसके विवाह की तैयारी वैसी नहीं चल रहा थी जैसी दीदी के विवाह के समय हुई थी। घर से न तो कोई फूफू को न्योता देने गया, और न ही घर की रंगाई पोताई हुई। उसकी दृष्टि बचा कर अम्मा बाबा गुप-चुप कुछ बतियाते रहते। जैसे ही उसको निकट आता देखते, वो चुप्पी साध लेते। दोनों का मुँह भी दिन भर लटका रहता है। शादी जैसी प्रसन्नता कुछ दिखती ही नहीं! उसको कुछ गड़बड़ लग रहा था, सो एक दिन वो दबे पाँव अम्मा बाबा की सारी बातें सुन ली।

जीजा ने बाबा को धमकाया था कि यदि गायत्री को उनके साथ नहीं ब्याह दिया, तो वो बड़की दीदी यहीं छोड़ जायेंगे।

यह बात सुन कर गायत्री के तो होश ही उड़ गए। अब उसको समझ आया कि क्यों अम्मा बाबा का मुँह उतरा हुआ रहता है। क्यों दीदी अभी तक घर नहीं आई थी। क्यों फूफू घर आने में कतरा रही थीं। क्यों घर में प्रसन्नता नहीं थी। विवाह कहाँ था यह? यह तो आजीवन कारावास था! दण्ड था! किस बात का, यह तो प्रभु ही बताएँगे!

**

आज सोमवार था। उसके विवाह से पहले का अंतिम सोमवार। फल, फूल, बेलपत्र और दूध लेकर वो मंदिर जाने लगी तो अम्मा ने उसको रोक दिया।

“हल्दी का बाद घरै के बाहर जाना सुभ नाही है बिटिया।” उन्होंने उसको समझाया।

“अम्मा हम त मंदिर जा रहे है। एमा का सुभ अउर का असुभ?”

“सब बड़े बुजुर्ग इहे कहत रहे बिटिया।” उसको रोकने का सहस अम्मा में नहीं बचा था।

“दू साल से हम भोलेनाथ की सेवा कर रहे हैं अम्मा। आज जब उ हमरी झोली भर दिए हैं तो का हम उनकी पूजा प्रार्थना छोड़ दें?”

“ठीक है बिटिया, जाओ। हो आओ। लेकिन जल्दी वापस आए जायो।” कहकर अम्मा पुनः रोने लगी।

अब वो अपनी फुलवा को क्या बताएँ कि भोलेबाबा ने उसके साथ कैसा अन्याय किया है।

मंदिर में गायत्री को राजकुमार कहीं नहीं दिखा। लेकिन वह जानती है भोले बाबा उसके साथ अन्याय नहीं कर सकते। उसने सबसे पहले पूरे मन से पूजा पाठ किया। जब वो पूजा कर्म से निवृत्त हुई तो उसने दृष्टि उठा कर देखा, तो राजकुमार अब भी नहीं आया था। अपनी दृष्टि इधर उधर फिरा कर गायत्री उधर मंदिर में ही बैठ गई। उसके साथ आई उसकी सहेली का भी मुँह उतर गया था। नैराश्य और बेचैनी उसके अंदर खौलते पानी की तरह उबल रही थी।

उसने अपनी सहेली से पूछा, “तुमने खबर भिजवाई थी ना?”'

“भेजवाए तो थे” सहेली ने डरते डरते कहा। गायत्री के दुःख से वो भी कोई कम दुखी नहीं थी।

अचानक ही दूर से राजकुमार आता हुआ दिखाई दिया तो गायत्री ने जोर से अपनी सहेली का हाथ पकड़ लिया था। नैराश्य में सम्बल मिला। डूबते को तिनके का सहारा मिला। बहुत देर तक गायत्री अपने राजकुमार के साथ बतियाती रही और फिर घर लौट आई।

**


आज गायत्री का विवाह होना था। उसकी दीदी अभी भी नहीं आई थी। हाँ, उसकी फूफू आ गई थी। सबके चेहरे ऐसे उतरे हुए थे जैसे उसके विवाह में नहीं बल्कि उसके श्राद्ध में आए हुए हों! न कोई किसी से कुछ कह रहा था, न कोई किसी को कुछ बता रहा था। शाम को बारात उसके दरवाज़े पर आ गई। गाना बाजा ऐसा जैसे मरने में होता है। गायत्री ने देखने की चेष्टा करी, लेकिन उसको राजकुमार कहीं नहीं दिखा।

विवाह के बाद रातों-रात विदा कर दिया गया था गायत्री को, जैसे उसका विवाह न किया गया था, बल्कि कोई पाप कर्म किया गया था।

जब वो ससुराल पहुँची तो उसकी दीदी ने उसकी आरती उतारी। दीदी का चेहरा तो हँस रहा था, लेकिन उसकी आँखें रो रही थीं। घर भर की प्यारी दुलारी को किसके और किस पाप का दण्ड मिला था, इसका उत्तर किसी के पास नहीं था। आरती के बाद दीदी उसको गुड़हल और कनेर के पुष्पों की माला से सजी धजी कोठरी में पहुँचा कर, पल्ला सटा कर किसी दूसरी कोठरी में चली गई थी। गायत्री को अपने दुर्भाग्य का सामना करने अकेला छोड़ कर।

गायत्री अपने दूल्हे का इंतज़ार करने लगी।

कोई दो घंटे बाद, सस्ते नशे में चूर उसका जीजा जोर से दरवाजा खोल कर कोठरी में घुसा था, लेकिन कोठरी के अंदर का दृश्य देखकर वो उलटे पैर भागा।

कोठरी में सुहाग सेज पर गायत्री और उसका राजकुमार पूर्ण नग्न हो कर, एक दूसरे के आलिंगन में गुत्थम-गुत्था हो कर बेसुध सो रहे थे। वो अपनी साली को ब्याह तो लाया, लेकिन उसको अपने राजकुमार का होने से रोक नहीं सका।



समाप्त!


जैसे अपना ही मन बहलाने को, उनका विवाह गीत गुनगुनाना जारी रहा,

काहे को मोरे बाबा छत्रछाहों काहे कैं नेतवा ओहार ... काहे को मोरे बाबा सुरजू अलोपों गोरा बदन रहि जाय
आजू कै रोजे बाबा तोहरी मडैइया कालही सुघर बार के साथ ... काचहि दुधवा पियायो मोरी बेटी दहिया खियायो सढीयार


बिल्कुल ठेठ गांव की भाषा का आपने एकदम शुद्ध तरीके से वर्णन किया है 😲😲❤️❤️❤️

आपकी भाषा लाज़वाब है ✌️✌️💛
 

kamdev99008

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भाई साहब, बहुत दिनों के बाद भेंट हुई। आशा है सब कुशल मंगल है?
कुछ दिन पहले 'हम आपके हैं कौन' देखा, और सोचा कि अगर कहानी में 'वैसा' न हो कर 'ऐसा' हो तो कैसा हो?
बस। और ऐसा नहीं है कि ऐसे वृत्तांत सुनने को नहीं मिलते। बिलकुल मिलते हैं।
इसलिए यह कहानी :)
भाई आप सब मित्रों के आशीर्वाद से सपरिवार कुशल मंगल हूं और आप सब के भी कुशलतापूर्वक होने की कामना करता हूँ
.... जहां तक बात है ऐसे वृतान्त की....
"यथार्थ कल्पना से भी परे हो सकता है"
"truth can be strange than fiction"
 

avsji

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जैसे अपना ही मन बहलाने को, उनका विवाह गीत गुनगुनाना जारी रहा,

काहे को मोरे बाबा छत्रछाहों काहे कैं नेतवा ओहार ... काहे को मोरे बाबा सुरजू अलोपों गोरा बदन रहि जाय
आजू कै रोजे बाबा तोहरी मडैइया कालही सुघर बार के साथ ... काचहि दुधवा पियायो मोरी बेटी दहिया खियायो सढीयार


बिल्कुल ठेठ गांव की भाषा का आपने एकदम शुद्ध तरीके से वर्णन किया है 😲😲❤❤❤

आपकी भाषा लाज़वाब है ✌✌💛

यह तो अवधी भाषा में एक पारम्परिक विवाह गीत ही है। :)
 
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