- 4,022
- 22,383
- 159
मिट्टी के चूल्हे पर चढ़े लोहे के तवे पर रोटी सिंक रही थी। साथ ही साथ, यंत्रवत, वो चकले पर आटे की लोइयाँ रख कर रोटी भी बेल रही थी। इस दौरान वो कभी चूल्हे में लकड़ी रख कर, तो कभी हटा कर उसकी आँच कभी तेज़ तो कभी धीमी कर रही थी। चूल्हे से उठने वाले धुएँ से अम्मा की आँखों से अनवरत आँसू भी बह रहे थे। वैसे आज उनके आँसुओं की एक और वजह थी। रोटियाँ बेलते और सेंकते वो रह रह कर अपनी बेटी के विवाह का गीत भी गुनगुना रही थीं।
‘बेरिया की बेरिया मै बरिज्यो बाबा जेठ जनि रचिहो बियाह … हठी से घोडा पियासन मरिहै गोरा बदन कुम्हलाय
कहो तो मोरी बेटी छत्रछाहों कहो तो नेतवा ओहार … कहो तो मोरी बेटी सुरजू अलोपों गोरा बदन रहि जाय’
अम्मा की आँखों से एक बड़ा सा आँसू ढलक कर रोटी पर गिर जाता है, और रोटी का आकार बेलन से चिपक कर ख़राब हो जाता है। अम्मा पूरे धैर्य से रोटी को फिर से परथन में लपेट कर फिर से बेलने लगती हैं।
अपनी अम्मा के पास में ही बैठी हुई गायत्री बोल पड़ी, “अम्मा, काहे रोवत हो?”
“नाही रोइत है। आँच कै धुवाँ है बिटिया। लकड़िया कच्ची है न।”
“हमसे काहे छुपावत हौ अम्मा? का हम नाही समझित कि बियाह गीत गावत गावत तुम काहे रो रही हो?”
“ई तौ खुसी के आँसू हैं फुलवा!” कह कर अम्मा फिर से रोने लगी।
“ऐ अम्मा, तू ऐसे रोयेगी त हम बियाह नाही करेंगे।” गायत्री ने बहुत लाड़ से, अम्मा के गले में गलबैयाँ डाल कर कहा।
उसकी ऐसी भोली बात पर अम्मा के होंठों पर एक फीकी सी मुस्कान आ गई।
“बिटिया तो पराया धन होती है। लोक रीति यही है। अम्मा-बाबा क आपन कलेजा पै पत्थर धरै क पड़ी, औउर आपन बिटिया क भेजेन क पड़ी।”
यह बात बोलते बोलते अम्मा के हृदय में एक पीड़ादायक टीस उठी। वो बेचारी अपनी बेटी को क्या बताती कि विवाह का जो सपना वह देख रही है, वह तो भंगुर शीशे के समान कब का टूट गया है। और उन टूटे हुए सपनों की किरचन उसकी उम्र भर गड़ेगी। बचपन और जवानी के दोराहे पर कड़ी गायत्री को कहाँ पता था कि उसकी अम्मा उसके विवाह की प्रसन्नता से नहीं, बल्कि दुःख से रो रही है। वो अब अपनी भोली बिटिया को कैसे समझाएँ कि उनका और बाबा का हृदय मानों तलवार की धार पर रखा हुआ है। एक तरफ तो उनकी बड़ी बेटी है, तो दूसरी ओर छोटी। जहाँ एक का जीवन सँवर रहा है, तो दूसरी का तबाह हो रहा है! उनकी दशा उस बाती जैसी है जिसके दोनों छोरों पर आग लगी हुई है। अंत में बस राख़ बचनी है। देवता भी किसी शत्रु को भी ऐसे दिन न दिखाएं!
**
आजकल जीजा का घर आना जाना काफ़ी बढ़ गया था। वो जब आते हैं तब गायत्री के लिए कपड़े, चप्पलें, चूड़ी, और लाली भी ले आते हैं। ऐसे उपहार पा कर वो बहुत खुश होती है। उसको ऐसे खुश होते देख कर जीजा भी बहुत खुश होते हैं। कभी-कभी वो उसका हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा भी लेते हैं। एक दिन जब जीजा के आने पर गायत्री खेत से हरी सब्ज़ियाँ तोड़ कर वापस आई, तब उसने सुना कि अम्मा, बाबा, और जीजा उसके विवाह की बातें कर रहे थे। स्त्री सुलभ संकोच से, गायत्री यह बातें सुन कर लजा गई।
जब उसकी बड़ी दीदी का विवाह जीजा से हुआ था वो गायत्री कोई तरह साल की थी, और जीजा का छोटा भाई, राजकुमार, कोई पंद्रह साल का था। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। आस-पास के चार पाँच गाँवों में बस यही एक ही स्कूल था।
एक-दो बार तो उसने स्कूल में ही गायत्री का हाथ भी पकड़ लिया था।
“अम्मा का पता चली तो काट डरिहैं हमका।” गायत्री ने विरोध किया।
“अच्छा! तो अगर हम तुमको बियाह कै ले गए, तब तो नहीं काटेंगी न?” राज ने आत्मविश्वास से कहा।
कुछ बात थी उसके कहने में जिससे गायत्री के हृदय में एक धमक सी हो गई।
“तब काहे को काटेंगी?” गायत्री ने लजाते हुए कहा।
लज्जा से उसके शरीर की रंगत सदाबहार के फूल के जैसे ही गुलाबी हो गई थी। क्यों न हो जाती वो गुलाबी? उसका रंग ही ऐसा था। फूल जैसा! गुलाबी गुलाबी। अम्मा बाबा उसका नाम फुलवा रखना चाहते थे। लेकिन पंडित जी के विचरवाने से उसका नाम गायत्री रखा गया। फिर भी अम्मा अक्सर प्यार से उसको फुलवा बुलाती थी। सुन्दर, भोला सा अण्डाकार चेहरा, सुतवाँ नाक, बड़ी बड़ी आँखें! गाँव देहात में लड़कियों का ऐसा रूप रंग और ऐसी काया कहाँ होती है? जब गायत्री धूप में निकलती तो उसकी रंगत लाल हो जाती थी। यही सब देख कर गाँव के सब लोग कहते कि गायत्री बहुत भाग्यशाली है।
बहुत भाग्यशाली है गायत्री! जिस साल उसका जन्म हुआ था, उस साल बाबा के खेतों में फसल भी बहुत लहलहाई थी। उसके जन्म के दो साल बाद उसके छोटे भाई का जन्म भी हुआ था। और अब देखो, यह उसकी किस्मत ही है कि बाबा को उसके लिए वर ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी! विवाह प्रस्ताव स्वयं चल कर आया!
उसकी दीदी का रंग थोड़ा कम अवश्य है, लेकिन शरीर की गढ़न और नैन नक्श में उसका भी कोई जोड़ नहीं है। इसलिए जीजा उसको कभी नहीं छोड़ते। वो जब भी मायके आती हैं, जीजा साथ ही आते है और साथ ले जाते हैं। दीदी के विवाह को पांच वर्ष हो गए हैं, लेकिन उनकी गोद अभी भी खाली है। संभवतः यही कारण है कि अब उनका आना जाना बहुत कम हो गया है। इस वर्ष तो वो आई भी नहीं। पीठ पीछे कोई कुछ कहे तो कहे, किन्तु यदि कोई मुँह पर ही कुछ कह दे, तो सहन नहीं होता है। इसलिए अब केवल जीजा ही आते हैं।
‘बेरिया की बेरिया मै बरिज्यो बाबा जेठ जनि रचिहो बियाह … हठी से घोडा पियासन मरिहै गोरा बदन कुम्हलाय
कहो तो मोरी बेटी छत्रछाहों कहो तो नेतवा ओहार … कहो तो मोरी बेटी सुरजू अलोपों गोरा बदन रहि जाय’
अम्मा की आँखों से एक बड़ा सा आँसू ढलक कर रोटी पर गिर जाता है, और रोटी का आकार बेलन से चिपक कर ख़राब हो जाता है। अम्मा पूरे धैर्य से रोटी को फिर से परथन में लपेट कर फिर से बेलने लगती हैं।
अपनी अम्मा के पास में ही बैठी हुई गायत्री बोल पड़ी, “अम्मा, काहे रोवत हो?”
“नाही रोइत है। आँच कै धुवाँ है बिटिया। लकड़िया कच्ची है न।”
“हमसे काहे छुपावत हौ अम्मा? का हम नाही समझित कि बियाह गीत गावत गावत तुम काहे रो रही हो?”
“ई तौ खुसी के आँसू हैं फुलवा!” कह कर अम्मा फिर से रोने लगी।
“ऐ अम्मा, तू ऐसे रोयेगी त हम बियाह नाही करेंगे।” गायत्री ने बहुत लाड़ से, अम्मा के गले में गलबैयाँ डाल कर कहा।
उसकी ऐसी भोली बात पर अम्मा के होंठों पर एक फीकी सी मुस्कान आ गई।
“बिटिया तो पराया धन होती है। लोक रीति यही है। अम्मा-बाबा क आपन कलेजा पै पत्थर धरै क पड़ी, औउर आपन बिटिया क भेजेन क पड़ी।”
यह बात बोलते बोलते अम्मा के हृदय में एक पीड़ादायक टीस उठी। वो बेचारी अपनी बेटी को क्या बताती कि विवाह का जो सपना वह देख रही है, वह तो भंगुर शीशे के समान कब का टूट गया है। और उन टूटे हुए सपनों की किरचन उसकी उम्र भर गड़ेगी। बचपन और जवानी के दोराहे पर कड़ी गायत्री को कहाँ पता था कि उसकी अम्मा उसके विवाह की प्रसन्नता से नहीं, बल्कि दुःख से रो रही है। वो अब अपनी भोली बिटिया को कैसे समझाएँ कि उनका और बाबा का हृदय मानों तलवार की धार पर रखा हुआ है। एक तरफ तो उनकी बड़ी बेटी है, तो दूसरी ओर छोटी। जहाँ एक का जीवन सँवर रहा है, तो दूसरी का तबाह हो रहा है! उनकी दशा उस बाती जैसी है जिसके दोनों छोरों पर आग लगी हुई है। अंत में बस राख़ बचनी है। देवता भी किसी शत्रु को भी ऐसे दिन न दिखाएं!
**
आजकल जीजा का घर आना जाना काफ़ी बढ़ गया था। वो जब आते हैं तब गायत्री के लिए कपड़े, चप्पलें, चूड़ी, और लाली भी ले आते हैं। ऐसे उपहार पा कर वो बहुत खुश होती है। उसको ऐसे खुश होते देख कर जीजा भी बहुत खुश होते हैं। कभी-कभी वो उसका हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा भी लेते हैं। एक दिन जब जीजा के आने पर गायत्री खेत से हरी सब्ज़ियाँ तोड़ कर वापस आई, तब उसने सुना कि अम्मा, बाबा, और जीजा उसके विवाह की बातें कर रहे थे। स्त्री सुलभ संकोच से, गायत्री यह बातें सुन कर लजा गई।
जब उसकी बड़ी दीदी का विवाह जीजा से हुआ था वो गायत्री कोई तरह साल की थी, और जीजा का छोटा भाई, राजकुमार, कोई पंद्रह साल का था। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। आस-पास के चार पाँच गाँवों में बस यही एक ही स्कूल था।
एक-दो बार तो उसने स्कूल में ही गायत्री का हाथ भी पकड़ लिया था।
“अम्मा का पता चली तो काट डरिहैं हमका।” गायत्री ने विरोध किया।
“अच्छा! तो अगर हम तुमको बियाह कै ले गए, तब तो नहीं काटेंगी न?” राज ने आत्मविश्वास से कहा।
कुछ बात थी उसके कहने में जिससे गायत्री के हृदय में एक धमक सी हो गई।
“तब काहे को काटेंगी?” गायत्री ने लजाते हुए कहा।
लज्जा से उसके शरीर की रंगत सदाबहार के फूल के जैसे ही गुलाबी हो गई थी। क्यों न हो जाती वो गुलाबी? उसका रंग ही ऐसा था। फूल जैसा! गुलाबी गुलाबी। अम्मा बाबा उसका नाम फुलवा रखना चाहते थे। लेकिन पंडित जी के विचरवाने से उसका नाम गायत्री रखा गया। फिर भी अम्मा अक्सर प्यार से उसको फुलवा बुलाती थी। सुन्दर, भोला सा अण्डाकार चेहरा, सुतवाँ नाक, बड़ी बड़ी आँखें! गाँव देहात में लड़कियों का ऐसा रूप रंग और ऐसी काया कहाँ होती है? जब गायत्री धूप में निकलती तो उसकी रंगत लाल हो जाती थी। यही सब देख कर गाँव के सब लोग कहते कि गायत्री बहुत भाग्यशाली है।
बहुत भाग्यशाली है गायत्री! जिस साल उसका जन्म हुआ था, उस साल बाबा के खेतों में फसल भी बहुत लहलहाई थी। उसके जन्म के दो साल बाद उसके छोटे भाई का जन्म भी हुआ था। और अब देखो, यह उसकी किस्मत ही है कि बाबा को उसके लिए वर ढूंढने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी! विवाह प्रस्ताव स्वयं चल कर आया!
उसकी दीदी का रंग थोड़ा कम अवश्य है, लेकिन शरीर की गढ़न और नैन नक्श में उसका भी कोई जोड़ नहीं है। इसलिए जीजा उसको कभी नहीं छोड़ते। वो जब भी मायके आती हैं, जीजा साथ ही आते है और साथ ले जाते हैं। दीदी के विवाह को पांच वर्ष हो गए हैं, लेकिन उनकी गोद अभी भी खाली है। संभवतः यही कारण है कि अब उनका आना जाना बहुत कम हो गया है। इस वर्ष तो वो आई भी नहीं। पीठ पीछे कोई कुछ कहे तो कहे, किन्तु यदि कोई मुँह पर ही कुछ कह दे, तो सहन नहीं होता है। इसलिए अब केवल जीजा ही आते हैं।
Last edited: