चाचाजी के बार बार आग्रह भरे खत आने से आखिर मैंने यह गर्मी की छुट्टी अपने गाँव वाले घर में बिताने का फ़ैसला किया. मैं जब गाँव पहुंचा तो चाचाजी बहुत खुश हुए. चाची को पुकारते हुए बोले. "लो, अनुराग आ गया तुम्हारा साथ देने को. अनुराग बेटे, अब मैं निश्चिंत मन से दौरे पर जा सकता हूँ नहीं तो महीना भर अकेले रह कर तुम्हारी चाची बोर हो जाती."
माया चाची मुस्कराती हुई मेरी ओर देखकर बोली. "हाँ लल्ला, बहुत अच्छा किया जो आ गये. वैसे मैंने अपनी भांजी को भी चिठ्ठी लिखी है, शायद वो भी आ जाये अगले हफ़्ते. तेरे आने का पक्का नहीं था ना इसलिये"
चाचाजी सामान अपनी बैग में भरते हुए बोले. "चलो, दो से तीन भले. मैं तो चला. भाग्यवान संभाल कर रहना. वैसे अब अनुराग है तो मुझे कोई चिंता नहीं. अनुराग बेटे चाची का पूरा खयाल रखना, उसकी हर जरूरत पूरी करना, अब महीने भर घर को और चाची को तेरे सहारे ही छोड. कर जा रहा हूँ" चाचाजी ने बैग उठायी और दौरे पर निकल गये.
मेरे राजेशचाचा बड़े हेंडसम आदमी थे. गठीला स्वस्थ बदन और गेंहुआ रंग. मेरे पिताजी के छोटे भाई थे और गाँव के बड़े पुश्तैनी घर में रहते थे. वहीं रहकर एक अच्छी कंपनी के लिये आस पास के शहरों में मार्केटिंग की नौकरी करते थे इसलिये अक्सर बाहर रहते थे. गाँव के घर में चाची के सिवाय और कोई नहीं था. पाँच साल पहले बत्तीस की आयु में शादी की थी, वह भी घर वालों की जिद पर, नहीं तो शादी करने का उनका कभी इरादा नहीं था.
माया चाची उनसे सात आठ साल छोटी थी. वे शादी में सिर्फ़ पच्चीस छब्बीस साल की होंगी. उन्हें अब तक कोई संतान नहीं हुई थी. घर वालों को इसमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ था क्योंकी चाचाजी को पहले से ही शादी मे दिलचस्पी नहीं थी. मुझे तो लगता है कि उन्हों ने कभी माया चाची का चुंबन भी नहीं लिया होगा, संभोग तो दूर की बात रही.
मैं चाचाजी की शादी में छोटा था. तब शादी के जोड़े में लिपटी वह कमसिन सुंदर चाची मुझे बहुत भा गयी थी. उसके बाद इन पाँच सालों में मैं उन्हें बस एक बार दो दिन के लिये मिला था. गाँव आने का मौका भी नहीं मिला. आज उन्हें फ़िर देख कर मुझे बड़ा अच्छा लगा. सच बात तो यह है कि बहुत संयम बरतने पर भी न मान कर मेरा लंड खड़ा होने लगा.
मुझे बड़ा अटपटा लगा क्योंकी चाचाजी की मैं इज्जत करता था. उनकी जवान पत्नी की ओर मेरे ऐसे विचार मन में आने से मुझे शर्म सी लगी. पर एक तो मेरा अठारह साल का जोश, दूसरे माया चाची का भरपूर जोबन. वे अब तीस इकतीस साल की भरी पूरी परिपक्व जवान महिला थी और घूँघट लिये हुए सादी साड़ी में भी उनका रूप छुपाये नहीं छुप रहा था.
वे बड़ा सा सिंदूर लगायी हुई थी और बिना लिपस्टिक के भी उनके कोमल उभरे होंठ लाल लाल गुलाब की पंखुड़ियों से लग रहे थे. साड़ी उनके बदन में लिपटी हुई थी, फ़िर भी उसमें से भी उनके वक्ष का उभार नहीं छुपता था. हरी चूड़ियाँ पहने उनकी गोरी बाँहें देख कर सहसा मेरे मन में विचार आ गया कि चाची का बदन नग्न कैसा दिखेगा? अपने इस कामुक मन पर मैंने फ़िर अपने आप को कोस डाला.
मेरी नजर शायद उन्हों ने पहचान ली थी क्योंकी मेरी ओर देखकर चाची बड़ी शरारती नजर से देख कर बोली. "कितने जवान हो गये हो लल्ला, इतना सा देखा था तुझे. शादी कर डालो अब, गाँव के हिसाब से तो अब तक तुम्हारी बहू आ जाना चाहिये."
उनके बोलने के और मेरी ओर देखने के अंदाज से मैं एक बात तुरंत समझ गया. माया चाची बड़ी "चालू" चीज़ थी. कम से कम मेरे साथ तो बहुत इतरा रही थी. मैं थोड़ा शरमा कर इधर उधर देखने लगा.
हम अब अकेले थे इसलिये वे घूँघट छोड. कर अपने कपड़े ठीक करते हुए मुझसे गप्पे लगाने लगी. उनके बाल भी बड़े लंबे खूबसूरत थे जिसका उन्हों ने जुड़ा बांध रखा था. "चाय बना कर लाती हूँ लल्ला." कहकर वे चली गई. अब साड़ी उनकी कमर से हट गयी थी और उस गोरी चिकनी कमर को देखकर और उनके नितंब डुलाकर चलने के अंदाज से ही मेरा लंड और कस कर खड़ा हो गया.
वे शायद इस बात को जानती थी क्योंकी जान बूझ कर अंदर से पुकार कर बोली. "यहीं रसोई में आ जाओ लल्ला. हाथ मुंह भी धो लो" मेरा ऐसा कस कर खड़ा था कि मैं उठ कर खड़ा होने का भी साहस नहीं कर सकता था, चल कर उनके सामने जाने की तो दूर रही. "बाद में धो लूँगा चाची, नहा ही लूँगा, चाय आप यहीं ले आइये ना प्लीज़."
वे चाय ले कर आई. मेरी ओर देखने का अंदाज उनका ऐसा था कि जैसे सब जानती थी कि मेरी क्या हालत है. बातें करते हुए बड़ी सहज रीति से उन्हों ने अपना ढला हुआ आँचल ठीक किया. यह दस सेकंड का काम करने में उन्हें पूरे दो मिनिट लगे और उन दो मिनटों में पाँच छह बार नीचे झुककर उन्हों ने अपनी साड़ी की चुन्नटें ठीक की.
इस सारे कार्य का उद्देश्य सिर्फ़ एक था, अपने स्तनों का उभार दिखा कर मेरा काम तमां करना जिसमें माया चाची शत प्रतिशत सफ़ल रही. उस लाल लो-कट की चोली में उनके उरोज समा नहीं पा रहे थे. जब वे झुकी तो उन गोरे मांसल गोलों के बीच की खाई मुझे ऐसी उत्तेजित कर गई कि अपने हाथों को मैंने बड़ी मुश्किल से अपने लंड पर जाने से रोका नहीं तो हस्तमैथुन के लिये मैं मरा जा रहा था.
मेरा हाल देख कर चाची ने मुझ पर तरस खाया और अपना छिछोरापन रोक कर मेरा कमरा ठीक करने को ऊपर चली गई. मुझे अपना लंड बिठाने का समय देकर कुछ देर बाद बातें करती हुई मुझे कमरे में ले गयी. "शाम हो गयी है अनुराग, तुम नहा लो और नीचे आ जाओ. मैं खाने की तैयारी करती हूँ."
"इतनी जल्दी खाना चाची?" मैंने पूछा. वे मेरी पीठ पर हाथ रख कर बोली. "जल्द खाना और जल्द सोना, गाँव में तो यही होता है लल्ला. तुम भी आदत डाल लो." और बड़े अर्थपूर्ण तरीके से मेरी ओर देखकर वे मुस्कुराने लगी.
मैं हड़बड़ा गया. किसी तरह अपने आप को संभाल कर नहाने जाने लगा तो पीछे से चाची बोली. "जल्दी नहाना अच्छे बच्चों जैसे, कोई शरारत नहीं करना अकेले में" और खिलखिलाती हुई वे सीढ़ियाँ उतर कर रसोई में चली गई. मैं थोड़ा शरमा गया क्योंकी मुझे लगा कि उनका इशारा इस तरफ़ था कि नहाते हुए मैं हस्तमैथुन न करूँ.
चाची के इस खेल से मेरे मन में एक बड़ी हसीन आशा जाग उठी. और वह आशा विश्वास में बदल गयी जब मैं नहा कर रसोई में पहुंचा. अब मैं पूरी तैयारी से आया था. मन मार कर किसी तरह मैंने अपने आप को हस्तमैथुन करने से रोका था. बाद में लंड को खड़ा पेट से सटाकर और जाँघिया पहनकर ऊपर से उसी पर मैंने पाजामे की नाड़ी बांध ली थी और ऊपर से कुर्ता पहन लिया था. अब मैं चाहे जितना मजा ले सकता था, लंड खड़ा भी होता तो किसी को दिखता नहीं.
चाची रसोई की तैयारी कर रही थी. मैं वहीं कुर्सी पर बैठ कर उनसे बातें करने लगा. चाची ने कुछ बैंगन उठाये और हंसिया लेकर उन्हें काटने मेरे सामने जमीन पर बैठ गई. अपनी साड़ी घुटनों के ऊपर कर के एक टांग उन्हों ने नीचे रखी और दूसरी मोड कर हँसिये के पाट पर अपना पाँव रखा. फ़िर वे बैंगन काटने लगी.
उनकी गोरी चिकनी पिंडलियों और खूबसूरत पैरों को मैं देखता हुआ मजा लेने लगा. वे बड़े सहज भाव से सब्जी काट रही थी. अचानक मुझे जैसे शॉक लगा और मेरा लंड ऐसे उछला जैसे झड़ जायेगा. हुआ यह कि चाची ने आराम से बैठने को थोड़ा हिल डुलकर अपनी टाँगे और फैलाई. इस से उनकी गोरी नग्न जांघें तो मुझे दिखी ही, उनके बीच काले घने बालों से आच्छादित उनके गुप्तांग का भी दर्शन हुआ. माया चाची ने साड़ी के नीचे कुछ नहीं पहना था.
मैं शरमा गया और बहुत उत्तेजना भी हुई. पहले मैने यह समझा कि उन्हें पता नहीं है कि उनका सब खजाना मुझे दिख रहा है इसलिये झेंप कर नजर फ़िरा कर दूसरी ओर देखकर मैं उनसे बातें करने लगा. पर वे कहाँ मुझे छोड़ने वाली थी. दो ही मिनिट में शरारत भरे अंदाज में वे बोली. "चाची क्या इतनी बुरी है लल्ला कि बात करते समय उसकी ओर देखना भी नहीं चाहते?"
मैंने मुड कर उनकी ओर देखा और कहा. "नहीं चाची, आप तो बहुत सुंदर हैं, अप्सरा जैसी, मुझे तो लगता है आप को लगातार देखता रहूँ पर आप बुरा न मान जाएँ इसलिये घूरना नहीं चाहता था."
"तो देखो ना लल्ला. ठीक से देखो. मुझे भी अच्छा लगता है कि तेरे जैसा कोई प्यारा जवान लड़का प्यार से मुझे देखे. और फ़िर तो तू मेरा भतीजा है, घर का ही लड़का है, तेरे तकने को मैं बुरा नहीं मानती" कहकर उस मतवाली नारी ने अपनी टाँगे बड़ी सहजता से और फ़ैला दी और बैंगन काटती रही.
अब तो शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. चाची मुझे रिझा रही थी. मैं भी शरम छोड. कर नजर जड़ा कर उनके उस मादक रूप का आनंद लेने लगा. गोरी फ़ूली बुर पर खूब रेशमी काले बाल थे और मोटी बुर के बीच की गहरी लकीर थोड़ी खुल कर उसमें से लाल लाल योनिमुख की भी हल्की झलक दिख रही थी.
पाँच मिनिट के उस काम में चाची ने पंद्रह मिनिट लगाये और मुझसे जान बूझ कर उकसाने वाली बातें की. मेरी गर्लफ़्रेन्ड्स हैं या नहीं, क्यों नहीं हैं, आज के लड़के लड़कियां तो बड़े चालू होते हैं, मेरे जैसा सुंदर जवान लड़का अब तक इतना दबा हुआ क्यों है इत्यादि इत्यादि. मैं समझ गया कि चाची जरूर मुझ पर मेहरबान होंगी, शायद उसी रात मैं खुश भी हुआ और चाचाजी का सोच कर थोड़ी अपराधीपन की भावना भी मन में हुई.
आखिर चाची उठीं और खाना बनाने लगी. मैं बाहर के कमरे में जाकर किताब पढ़ने लगा. अपनी उबलती वासना शांत करने का मुठ्ठ मारने के सिवाय कोई चारा नहीं था इसलिये मन लगाकर जो सामने दिखा, पढ़ता रहा. कुछ समय बाद चाची ने खाने पर बुलाया और हम दोनों ने मिल कर बिलकुल यारों जैसी गप्पें मारते हुए खाना खाया.
खाना समाप्त करके मैं अपने कमरे में जाकर सामान अनपैक करने लगा. सोच रहा था कि चाची कहाँ सोती हैं और आज रात कैसे कटेगी. तभी वे ऊपर आई और मुझे छत पर बुलाया. "अनुराग, यहाँ आ और बिस्तर लगाने में मेरे मदद कर."
मैं छत पर गया. मेरा दिल डूबा जा रहा था. गरमी के दिन थे. साफ़ था कि सब लोग बाहर खुले में सोते थे. ऐसी हालत में क्या बात बननी थी चाची के साथ. छत पर दो खाटें थी. हमने उनपर गद्दियाँ बिछाई. "गरमी में बाहर सोने का मजा ही और है लल्ला" कह कर मुझे चिढ़ाती हुई वे मच्छरदानियाँ लेने चली गई.
वापस आई तो दोनों मच्छरदानियाँ फ़टी निकलीं. माया चाची मेरी नजरों में नजर डाल कर बोली. "मच्छर तो बहुत हैं अनुराग, सोने नहीं देंगे. गरमी इतनी है कि नीचे सोया नहीं जायेगा. ऐसा कर, तू खाटें सरकाकर मिला ले, मैं डबल वाली मच्छादानी ले आती हूँ. तू शरमायेगा तो नहीं मेरे साथ सोने में? वैसे मैं तेरी चाची हूँ, मां जैसी ही समझ ले."
मैं शरमा कर कुछ बुदबुदाया. चाची मंद मंद मुस्कराकर डबल मच्छरदानी लेने चले गई. वापस आई तो हम दोनों उसे बांधने लगे. मैंने साहस करके पूछा. "चाची, आजू बाजू वाले देखेंगे तो नहीं." वे हंस पड़ीं. "इसका मतलब है तूने छत ठीक से नहीं देखी." मैंने गौर किया तो समझ गया. आस पास के घरों से हमारा मकान बहुत ऊंचा था. दीवाल भी अच्छी ऊंची थी. बाहर का कोई भी छत पर नहीं देख सकता था.
तभी चाची ने मीठा ताना मारा. "और लोग देखें भी तो क्या हुआ बेटे. तू तो इतना सयाना बच्चा है, तुरंत सो जायेगा सिमट कर." मैंने मन ही मन कहा कि चाची मौका दो तो दिखाता हूँ कि यह बच्चा तुम्हारे मतवाले शरीर का कैसे रस निकालता है.
आखिर चाची नीचे जाकर ताला लगाकर बत्ती बुझाकर ऊपर आई. मैं तब तक मच्छरदानी खोंस कर अपनी खाट पर लेट गया था. चाची भी दूसरी ओर से अंदर आकर दूसरी खाट पर लेट गई.
पास से चाची के बदन की मादक खुशबू ने फ़िर अपना जादू दिखाया और मेरा मस्त खड़ा हो गया. चाची भी गप्पें मारने के मूड में थी और फ़िर वही गर्लफ़्रेन्ड वाली बातें मुझसे करने लगी. मेरा लंड अब तक अपनी लगाम से छूटकर पाजामे में तंबू बना कर खड़ा हो गया था.