रात का खाना खत्म हो चुका था, घर में हल्की-हल्की बातें चल रही थीं। रमा ने थाली साफ की, हरि की तरफ चुपके से देखा—उसकी आँखों में वो पुरानी चिंगारी। रवि किताबें लेकर सोने चला गया, थका-हारा। उमेश ने चाय का आखिरी घूँट लिया, मन में उथल-पुथल—शाम का वो किस, सिनेमा हॉल की लार भरी यादें। खुशबू अभी भी टेबल पर बैठी, साड़ी के पल्लू से खेल रही, गालों पर हल्की लाली बाकी। 'बेटा, चल ऊपर छत पर। कुछ बात करनी है।' उमेश ने कहा, आवाज नरम लेकिन आदेश जैसी। खुशबू ने सिर हिलाया, आँखों में शरारत—'हाँ पापा... आ रही हूँ।' रमा ने सुना, मुस्कुराई, लेकिन हरि की तरफ देखा। 'तुम लोग जाओ, हम साफ-सफाई करेंगे।' घर में सन्नाटा पसर गया, सिर्फ झींगुरों की आवाजें।
छत पर चाँदनी बिखरी हुई थी, हवा ठंडी लेकिन गर्माहट भरी। उमेश ने खुशबू को बुलाया, हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा किया। 'खुशबू... शाम का वो किस... पापा को भूल नहीं रहा। तेरे होंठों का स्वाद...' वो झुक गया, गाल पर हल्का किस किया—नरम, रोमांटिक। खुशबू सिहर उठी, हाथ उमेश की कमर पर रखा। 'पापा... आपकी जीभ... अभी भी महसूस हो रही। लेकिन मम्मी-पापा... ये गलत है न?' आवाज काँपती, लेकिन शरीर करीब सरक आया। उमेश ने बालों में उंगलियाँ फिराईं, 'गलत? तू मेरी बेटी है, लेकिन आज से... मेरी रानी।' फिर होंठों पर किस—धीमा, गहरा, जीभें लिपटीं, सलाइवा का हल्का आदान-प्रदान। खुशबू की सांसें तेज, चूचियाँ तन गईं साड़ी में। रोमांस की लहर दौड़ी, लेकिन उमेश का मन कहीं और—ईर्ष्या की ज्वाला। वो पीछे हटा, आँखें सिकुड़ीं। 'लेकिन तू... वो प्रोफेसर? साली, उसके लंड को मुंह देती है तू?'
खुशबू चौंकी, 'पापा... वो तो...' लेकिन उमेश ने बात काटी, हाथ उठाया। 'झूठ मत बोल! मैंने देखा था, कॉलेज में। तेरी वो चूसाई... रंडी बनी हुई!' गुस्सा भरा, लेकिन हवस से लिपटा। खुशबू को घुमाया, साड़ी-पेटीकोट ऊपर सरकाया—गांड नंगी, गोल, सफेद। पहला थप्पड़ पड़ा—जोरदार, चटाक की आवाज। खुशबू चीखी, 'आह... पापा!' लेकिन उमेश रुका नहीं। दूसरा, तीसरा—बारी-बारी दोनों गालों पर। 'ये ले... याद आया? तेरा अफेयर उस बूढ़े के साथ! तेरी चूत उसकी, लेकिन गांड... ये मेरी है!' थप्पड़ों की बौछार—पाँच, छह, सात... गांड लाल हो गई, जलन भरी, लेकिन निशान गहरे। खुशबू रोने लगी, लेकिन कमर झुकाए रखी—आँसू गालों पर, लेकिन चूत गीली। 'सॉरी पापा... वो तो मजा के लिए... आह! मारो ना और... याद दिलाओ!' दर्द, शर्म, लेकिन उत्तेजना। उमेश का लंड सख्त, पैंट में दबा। 'साली रंडी... तेरी गांड मारकर ही सुधरेगी। प्रोफेसर को बोलूँगा, तेरी चूत अब बंद!' आखिरी थप्पड़—सबसे जोरदार, खुशबू का शरीर काँप उठा।
उमेश ने घुटनों पर बैठाया, खुशबू को झुकाया—गांड ऊपर, दरार खुली। चाँदनी में चमकती, लाल निशान। वो झुक गया, जीभ निकाली—पहले दरार पर रगड़ी। नमकीन स्वाद, पसीने का। 'उफ्फ... तेरी गांड की महक... साली, कितनी गंदी है तू। प्रोफेसर को ये चाटता होगा?' जीभ अंदर धकेली, चाटने लगा—गहराई तक, सर्कुलर मोशन में। खुशबू सिसकारी भरने लगी, 'आह... पापा... आपकी जीभ... उफ्फ, गहरा! वो तो नहीं... सिर्फ आप... चाटो ना मेरी गांड, साफ करो!' गंदे संवादों की बाढ़—उमेश: 'तेरी गांड का छेद... कितना कसा हुआ। उंगली डालूँ? या लंड ठूंस दूँ, रंडी बेटी?' जीभ तेज, चाटते हुए थूक टपकाया। खुशबू: 'हाँ पापा... डालो उंगली... प्रोफेसर की तरह नहीं, आप तो मेरा मालिक हो। आह... चूसो मेरी चाटते-चाटते उमेश का हाथ पैंट में—लंड बाहर, सहलाने लगा।
नीचे, घर का अंदरूनी कमरा—रमा और हरि अकेले। खाना साफ करने का बहाना, लेकिन दरवाजा बंद। हरि ने रमा को दीवार से सटा लिया, 'दीदी... दिन भर सहा नहीं गया। तेरी कमर... तेरी चूचियाँ...' रमा सिहर उठी, लेकिन धक्का नहीं दिया। 'हरि... ऊपर उमेश-खुशबू हैं। चुप...' लेकिन हरि ने साड़ी खींची, ब्लाउज खोला—चूचियाँ बाहर, भरी हुई। मुंह में लिया, चूसा जोर से। रमा की सिसकारी, 'आह... हरि... रफ मत... लेकिन... हाँ!' रोमांस नहीं, रफ सेक्स—हरि ने पेटीकोट ऊपर किया, पैंटी फाड़ दी। लंड बाहर—मोटा, काला—सीधा चूत में ठोका। 'दीदी... तेरी चूत... अभी भी कसी हुई! जवानी से चोद रहा हूँ तुझे!' कमर पकड़कर धक्के मारे—जोरदार, बेड हिल उठा। रमा के नाखून हरि की पीठ पर, 'हरि... जोर से... उमेश जैसा नहीं, तू तो जानवर है! आह... फाड़ दे मेरी चूत!' पसीना बहा, थप्पड़ गालों पर, बाल खींचे—रफ, जंगली। हरि के धक्कों से दीवार हिली, लेकिन ऊपर की आवाजें दब गईं। रमा चरम पर, 'हरि... आ... डाल दे अंदर!' हरि ने गटक लिया, लेकिन धक्के न रुके।
फिर, धीमे धीमे, हरि ने रमा को गले लगाया, साँसें तेज। 'दीदी... एक बात कहूँ? खुशबू... तेरी बेटी... वो इतनी हसीन है। दिन में देखा, उसकी कमर... मैं... मैं उसे चाहता हूँ। चोदना चाहता हूँ।' रमा चौंकी, लेकिन हँसी, 'हरि... तू पागल! वो तो उमेश की बेटी... लेकिन... हाँ, वो वैसी ही लगती है जैसी मैं जवानी में। लेकिन सावधान, ये राज़ रहे।' हरि ने सिर हिलाया, लेकिन आँखों में नई भूख। ऊपर से थप्पड़ों की हल्की आवाजें आईं
अगले दिन की सुबह धूप चटकीली थी, लेकिन घर में हवा भारी—रात की आग अभी भी सुलग रही। उमेश स्कूल जाने की बजाय तैयार हो गया, कुर्ता-पायजामा पहने, लेकिन मन में वो फैंटसी घूम रही—खुशबू को चोदने की। नाश्ते पर वो बोला, 'खुशबू बेटा, आज कॉलेज में एक स्पेशल लेक्चर है। पापा छोड़ दूँगा, और शाम तक वेट करूँगा। चल तैयार हो।' खुशबू ने आँखें सिकुड़ीं, लेकिन मुस्कुराई—कल रात के थप्पड़ और चाटने की याद। 'हाँ पापा... लेकिन शाम को जल्दी आना।' रमा ने सुना, 'अच्छा है, हरि तो आज गाँव घूमने गया। रवि घर संभाल लेगा।' रवि ने सिर हिलाया, लेकिन आँखें माँ पर ठहरीं—कल रात की अजीब आवाजें सुनाई दी थीं। उमेश और खुशबू बाहर निकले, पुरानी बाइक पर। रास्ते में उमेश का हाथ कमर पर—हल्का, लेकिन दबाव। 'बेटा... आज पापा तेरी फैंटसी पूरी करेगा। होटल में... तुझे मेरी रानी बनाऊँगा।' खुशबू सिहर उठी, 'पापा... गंदा मत बोलो... लेकिन हाँ, चाहती हूँ।'
शहर पहुँचकर कॉलेज के बहाने उमेश सीधा एक छोटे-से होटल में घुसा—पुराना, लेकिन प्राइवेट रूम्स। रिसेप्शन पर झूठ बोला, 'पत्नी के साथ... मीटिंग।' रूम में घुसे—सादा बेड, कूलर, लेकिन प्राइवेसी। उमेश ने झोला खोला, एक पैकेट निकाला—एक छोटी फ्रॉक, रेड कलर की, नेक डीप, लेंथ घुटनों तक, लेकिन टाइट, गंदी फैंटसी वाली—जैसे कोई स्लट्टी ड्रेस। 'ये पहन बेटा... पापा की फैंटसी। तू मेरी छोटी रंडी लगेगी।' खुशबू ने शरमाते हुए लिया, 'पापा... ये तो बहुत छोटी... लेकिन... ठीक है।' बाथरूम में गई, सलवार-कमीज उतारी, फ्रॉक पहनी—चूचियाँ ऊपर उभरीं, कूल्हे टाइट, गांड की आकृति साफ। बाहर आई, घूमी—'कैसी लग रही हूँ पापा?' उमेश का लंड सख्त, 'उफ्फ... साली, तेरी ये फ्रॉक... चूचियाँ तो बाहर आने को बेताब। आ... पापा को गले लगा।' वो खींच लिया, होंठों पर किस—जोरदार, जीभ अंदर 'मम्म... बेटी, तेरी लार... मीठी रसी। थूक दूँ तुझे।' उमेश ने मुंह से थूक निकाला, खुशबू के होंठों पर गिराया। खुशबू ने चाटा, 'पापा... आपका थूक... गर्म। और दो... मेरी जीभ पर।' किस गहरा, सलाइवा टपकता—उमेश की लार खुशबू के गाल पर, वो चाटती। 'तेरी चूत... फ्रॉक के नीचे गीली हो गई न? पापा की रंडी... चोदूँगा तुझे आज।' हाथ फ्रॉक ऊपर, पैंटी पर दबाया—गीली। 'हाँ पापा... चोदो... लेकिन धीरे... थूक से गीला करो।'
उमेश ने बेड पर पटका, फ्रॉक ऊपर की—पैंटी उतारी, चूत नंगी, बालों वाली, गीली। 'उफ्फ... तेरी चूत... प्रोफेसर को दी थी न? लेकिन आज पापा की।' जीभ निकाली, चूत पर रगड़ी—चाटा, होंठों को चूसा। खुशबू सिसकारी, 'आह... पापा... आपकी जीभ... गहरा! वो तो मुंह में लेती थी, लेकिन आप... चूसो मेरी चूत!' उमेश ने थूक गिराया चूत पर, मला—गीला, चिपचिपा। लंड बाहर निकाला—मोटा, सुपारा चमकता। 'ले... देख तेरे पापा का लंड। थूक दे तू।' खुशबू ने थूक दिया सुपारे पर, हाथ से मला। 'पापा... कितना मोटा... फाड़ देगा मेरी चूत। डालो ना... लार से गीला।' उमेश ने धक्का मारा—आधा अंदर, खुशबू चीखी, 'आह... पापा! धीरे... लेकिन जोर से!' धक्के शुरू—जोरदार, बेड हिला। 'साली रंडी... तेरी चूत कस रही... पापा का लंड चूस रही। थूक... मुंह में ले!' लार टपकती चूचियों पर। 'हाँ पापा... चोदो... आपकी बेटी रंडी है... आह... आ रही हूँ!' उमेश तेज, 'ले... मेरा रस... अंदर डालूँ!' झटके के साथ वीर्य भरा—गर्म, चिपचिपा। दोनों हाँफे, लिपटे। 'पापा... प्यार करते हो न?' 'हाँ बेटी... लेकिन तू सिर्फ मेरी।' फ्रॉक ठीक की, होटल से निकले—कॉलेज के बहाने। शाम तक घर लौटे, चेहरे पर थकान, लेकिन आग बुझी न।
घर पर, रवि अकेला था—माँ रमा बाजार गई, हरि (मामा) अभी लौटा नहीं। लेकिन दोपहर में रमा लौटी, हरि भी साथ—दोनों के चेहरे लाल, साँसें तेज। रवि ने छिपकर देखा—रसोई में, हरि ने रमा को दीवार से सटा लिया, हाथ साड़ी में। 'दीदी... बाजार में तेरी कमर देखकर... खड़ा हो गया।' रमा सिसकी, 'हरि... रवि घर पर... चुप!' लेकिन हरि ने चूचियाँ दबाईं, 'साली... तेरी चूचियाँ... अभी भी जवानी वाली। चूसूँ?' रवि का दिल धड़का—माँ का अफेयर? वो दरवाजे से झाँका, लंड सख्त। रमा ने धक्का दिया, लेकिन हँसी, 'रात को... रफ से चोदना।' हरि ने किस किया, थूक वाला—रवि ने देखा, हाथ पैंट में। दोनों अलग हुए, लेकिन रवि का मन उत्तेजित। शाम को माँ नहाई, ब्रा लटकाई—काली, लेस वाली। रवि चुपके कमरे में घुसा, ब्रा उठाई—माँ की महक, पसीने की। 'मम्मी... आपकी ब्रा... उफ्फ।' लंड बाहर, सहलाया—कल्पना में माँ की चूचियाँ। 'मम्मी... चूसूँगा मैं... चोदूँगा।' स्पीड तेज, वीर्य गिराया ब्रा पर—चिपचिपा, गर्म। ब्रा वापस लटकाई, भागा। रमा ने बाद में देखा, लेकिन सोचा हरि का—मुस्कुराई।
रात गहराई, घर सोया। लेकिन हरि ने चुपके दारू की बोतल निकाली—शहर से लाई। अकेले पी, वो खुशबू के कमरे के बाहर गया, दरवाजा खटखटाया। 'भतीजी... खुशबू... खोल ना। मामू है।' खुशबू जागी, नाइटी में—कल रात पापा की याद। 'मामू? इतनी रात?' दरवाजा खोला, हरि अंदर घुसा, दरवाजा बंद। नशे में लाल चेहरा। 'खुशबू... तू... कितनी हसीन है। दिन से देखा, तेरी कमर... तेरी चूचियाँ। मैं... तुझे चाहता हूँ। प्रपोज कर रहा हूँ—मेरी बन जा। चोदूँगा तुझे हर रात।' खुशबू चौंकी, लेकिन मुस्कुराई'मामू... दारू पी ली? लेकिन... रज़ी हूँ। शर्त ये—तू मेरा गुलाम बनेगा। जो कहूँगा, वो करेगा। मेरी चूत चाटेगा, गांड चाटेगा... बिना सवाल।' हरि नशे में सिर हिलाया, 'हाँ रानी... तेरा गुलाम। आज से।' खुशबू ने बेड पर बिठाया, नाइटी ऊपर—चूत नंगी। 'तो चाट... मेरी चूत। जीभ से साफ कर, गुलाम।' हरि घुटनों पर, झुका—जीभ निकाली, चूत पर रगड़ी। 'उफ्फ... रानी... तेरी चूत... कितनी मीठी। बालों वाली... चूसूँ?' चाटने लगा—गहरा, होंठ चूसे। खुशबू के हाथ उसके बालों में, दबाया। 'हाँ गुलाम... चूस... पापा की तरह नहीं, तू तो कुत्ता है मेरा। लार डाल... गीला कर।' हरि ने थूक गिराया, जीभ अंदर—चट-चट आवाज। 'रानी... तेरी चूत का रस... स्वादिष्ट। गांड भी चाटूँ?' खुशबू सिसकी, 'हाँ... लेकिन आज सिर्फ चूत। जोर से... आ रही हूँ!' चरम पर पहुँची, रस हरि के मुंह पर। हरि चाटता रहा, 'तेरा गुलाम... हमेशा।' खुशबू मुस्कुराई, 'जा सो... कल फिर।' हरि गया, लेकिन राज़ बंध गया—गुलामी का।
अगली सुबह की पहली किरणें खिड़की से चुपके-चुपके घुस रही थीं, जैसे कोई राज़ उजागर करने को बेताब। घर में अभी भी रात की गर्माहट बाकी थी—हवा में हल्की-हल्की पसीने और वीर्य की महक घुली हुई। उमेश की आँखें सबसे पहले खुलीं, बिस्तर पर लेटे हुए वो खुशबू के कमरे की तरफ देख रहा था, जहाँ से हल्की सांसों की आवाज आ रही। रमा अभी सो रही थी, उसके चेहरे पर थकान की लकीरें, हरि के रफ सेक्स की यादें। उमेश का लंड सुबह-सुबह ही हल्का सख्त हो गया—कल होटल की चुदाई की याद, खुशबू की चूत में डाले धक्के, वो फ्रॉक में लिपटी बॉडी। 'साली... आज सुबह ही चखूँगा तुझे।' मन में बड़बड़ाया। वो चुपके से बिस्तर से उतरा, दाँत साफ किये बिना—सुबह की साँसों में वो कड़वापन, जो उसे और गंदा महसूस करा रहा। पैरों पर चलते हुए खुशबू के कमरे में घुसा, दरवाजा धीरे से बंद किया।
खुशबू सो रही थी, नाइटी आधी ऊपर चढ़ी हुई, एक बूब आधा नंगा—गुलाबी निप्पल हल्का तना। उसके बाल बिखरे, चेहरा ताजा लेकिन नींद से भरा। उमेश बिस्तर के पास बैठ गया, हाथ बढ़ाया—गाल पर हल्का स्पर्श। खुशबू की आँखें खुलीं, झपकी ली, फिर मुस्कुराई—'पापा... सुबह-सुबह?' आवाज नींद भरी, लेकिन आँखों में चमक। उमेश झुक गया, चेहरा करीब—'हाँ बेटा... पापा को तेरी याद आ गई। कल रात सोचा तो लंड खड़ा हो गया।' बिना ब्रश के साँसें—कड़वी, सिगरेट और रात के खाने की। खुशबू ने महसूस किया, नाक सिकुड़ी हल्की, लेकिन पीछे न हटी। 'पापा... आपकी साँस... गंदी लग रही। लेकिन... आओ।' वो करीब सरकी, होंठ मिले—धीरे से, लेकिन उमेश ने दबाया। किस गहरा हो गया, जीभ बाहर—खुशबू की जीभ ने जवाब दिया। लार का मेल—उमेश की कड़वी सलाइवा, सुबह की, खुशबू की मीठी, नींद वाली। 'उम्म... बेटी, तेरी जीभ... चूसूँ तुझे। थूक दे... पापा के मुंह में।' उमेश फुसफुसाया, जीभें लिपटीं, चट-चट की आवाज। खुशबू ने थूक दिया—हल्का, गर्म—उमेश ने गटक लिया, फिर अपना थूक उसके मुंह में डाला। 'आह... पापा, आपका थूक... कड़वा लेकिन... उत्तेजक। और... चूसो मेरी जीभ।' किस लंबा चला, लार टपकने लगी—खुशबू के गाल पर, ठुड्डी पर। साँसें तेज, कमरा गर्म हो गया।
उमेश का हाथ नाइटी में घुसा, बूब दबाया—निप्पल मरोड़ा। लेकिन मन कहीं और। 'बेटा... तेरी बगल... सुबह की महक। उठ... पापा चाटेगा।' खुशबू हँसी हल्की, लेकिन उत्साहित—'पापा... गंदा हो आप। लेकिन... हाँ।' वो बाहें ऊपर कीं, नाइटी सरकाई। बगल नंगी—हल्के बाल, पसीने की हल्की महक, सुबह की ताजगी। उमेश झुका, नाक सटा ली—सोंघा। 'उफ्फ... तेरी बगल की खुशबू... पसीने वाली, मीठी। साली, कितनी सेक्सी।' जीभ निकाली, चाटा—धीरे से, त्वचा पर रगड़ा। नमकीन स्वाद, हल्का नम। खुशबू सिहर उठी, 'आह... पापा... आपकी जीभ... गुदगुदा रही। और चाटो... गहरा।' उमेश ने चाटना तेज किया, जीभ अंदर घुमाई—बगल के बालों को भी चूसा। 'तेरी बगल... चूत जैसी गर्म। कल होटल में चोदा था न? आज सुबह ये चाटकर तुझे भेजूँगा।' दूसरी बगल पर मुड़ा, वही—चाटा, थूक गिराया, मला। खुशबू का हाथ उसके बालों में, दबाया। 'पापा... उफ्फ... आपकी लार... मेरी बगल गीली हो गई। कॉलेज में महक आएगी... सब सोचेंगे मैं रंडी हूँ।' दोनों हँसे, लेकिन किस फिर—लार भरा, गंदा। समय बीता, लेकिन उमेश रुका। 'चल... तैयार हो। कॉलेज छोड़ दूँगा।' खुशबू ने मुंह धोया, लेकिन बगलें वैसी ही—गीली, महकती। साड़ी पहनी, बाहर निकले। बाइक पर, रास्ते में उमेश का हाथ कमर पर—'बेटा... शाम को फिर होटल?' खुशबू फुसफुसाई, 'हाँ पापा... लेकिन प्रोफेसर से मिलूँगी पहले।'
कॉलेज में क्लास खत्म होने के बाद, लाइब्रेरी के पीछे वो पुराना रूम। खुशबू पहुँची, साड़ी में थोड़ी सिकुड़ी—बगल की महक अभी बाकी। डॉ. शर्मा इंतजार कर रहे थे, चश्मा ऊपर, लंड पैंट में उभरा। 'खुशबू... आज देर हो गई। क्या बात है?' खुशबू मुस्कुराई, करीब सरकी—'सर... पापा ने छोड़ा। लेकिन आपकी याद में गीली हूँ।' शर्मा ने हाथ बढ़ाया, कमर पकड़ी। 'साली... तेरी साड़ी में आज कुछ अलग। बगल से महक आ रही... क्या किया तूने?' खुशबू हँसी, साड़ी का पल्लू सरकाया—ब्लाउज खुला, चूचियाँ झलकीं। 'सर... सुबह पापा ने... चाटा। लेकिन आप... चूस लो।' शर्मा की साँसें तेज, झुका—बगल पर नाक सटाई। 'उफ्फ... तेरी बगल... लार वाली? तेरे पापा ने चाटा? रंडी, तू घर में भी चुदती है?' जीभ निकाली, चाटा—गहरा, थूक डाला। खुशबू सिसकी, 'हाँ सर... पापा का राज़। लेकिन आपका लंड... आज मुंह में लूँगी।' शर्मा ने पैंट खोली, लंड बाहर—मोटा, सुपारा चमकता। 'ले... चूस रंडी। तेरी बगल चाटते हुए तू चूसेगी।' खुशबू घुटनों पर, मुंह में लिया—चूसाई शुरू, जीभ घुमाई। 'मम्म... सर, आपका लंड... कड़वा स्वाद। थूक दो मेरे मुंह में।' शर्मा ने थूक गिराया, चाटा बगल। 'तेरी चूत... शाम को चोदूँगा। घर जाकर पापा को बोलना, तेरी गांड उनकी।' रोमांस गंदा, लेकिन गहरा—हाथ चूचियों पर, थप्पड़ हल्के। क्लास की घंटी बजी, लेकिन वो रुके नहीं—सर... आ रही हूँ शाम को। लेकिन पापा का इंतजार भी।' शर्मा हँसा, 'दोनों को संभाल रंडी... तू मेरा सामान है।' अलग हुए, लेकिन आग बाकी।
दिन के मध्य, घर सूना था—उमेश स्कूल में, खुशबू कॉलेज में, हरि बाहर। रमा रसोई में काम कर रही, साड़ी में पसीना बह रहा—गर्मी से। रवि अपना कमरा में, किताबें फैलाईं लेकिन मन भटका। कल की ब्रा वाली मुठ की याद, माँ की चूचियाँ हरि के हाथों में। लंड सख्त हो गया। वो बिस्तर पर लेटा, पैंट नीचे—लंड पकड़ा, सहलाने लगा। 'मम्मी... रमा मम्मी... तेरी चूचियाँ... चूसूँगा मैं। तेरी चूत... भाई जैसी। आह... मम्मी!' आवाज हल्की, लेकिन सिसकारियाँ। स्पीड तेज, कल्पना में माँ को नंगा। तभी दरवाजा खुला—रमा अंदर घुसी, पानी का गिलास लिये। 'रवि... बेटा, पढ़ रहे हो न?' वो रुक गई, आँखें फटीं—बेटा लंड सहला रहा, 'मम्मी' नाम लेते हुए। रवि चौंका, चादर खींची, चेहरा लाल। 'म... मम्मी! सॉरी... मैं...'
रमा का दिल बैठ गया—शॉक, लेकिन कहीं गहरे में पुरानी यादें, हरि के साथ जवानी। गिलास नीचे रखा, बिस्तर पर बैठी। 'रवि... क्या कर रहे हो? और... मेरा नाम? बेटा, ये गलत है। तू मेरा बेटा है, ऐसा सोचना भी पाप है।' आवाज नरम, लेकिन सख्त—हाथ उसके कंधे पर। रवि सिर झुकाया, लेकिन लंड अभी भी सख्त, चादर के नीचे उभरा। 'मम्मी... सॉरी। लेकिन कल रात... आपकी आवाजें... मामू के साथ। मैंने देखा... आपकी चूचियाँ... उफ्फ। मैं कंट्रोल नहीं कर पाया। आप इतनी हसीन हो।' आँखें नम, लेकिन इच्छा साफ। रमा का चेहरा गर्म हो गया—अपराध, लेकिन शरीर में सिहरन। 'बेटा... वो... हरि तो मेरा भाई... पुरानी बातें। लेकिन तू... नहीं। पढ़ाई पर ध्यान दे। माँ तेरी है, लेकिन...' रवि न हिला, चादर सरकी हल्की—लंड झलक गया। 'मम्मी... समझाओ मत। मैं जानता हूँ गलत है, लेकिन तुझे सोचकर... मुठ मारता हूँ रोज। तेरी साड़ी में कमर... तेरी गांड। बस एक बार... छू लूँ?' आवाज काँपती, नादान लेकिन भूखी।
रमा ने सिर झुकाया, मन उलझा—उमेश से रूटीन, हरि से रफ, अब बेटा? लेकिन माँ का प्यार, और कहीं हवस की चिंगारी। 'रवि... नहीं। लेकिन... अगर मान जाऊँ तो क्या? तू मेरी चूत देखना चाहता है? चूसना?' आवाज धीमी, लेकिन कामुक। रवि की साँस अटकी, 'हाँ मम्मी... तेरी चूत... बालों वाली? चाटूँगा मैं। तेरी गांड... थप्पड़ मारूँगा।' रमा सिहर उठी, साड़ी का पल्लू सरकाया—ब्लाउज खुला, चूचियाँ आधी नंगी। 'बेटा... ये गंदा है। लेकिन... देख ले। माँ की चूचियाँ... छू।' रवि का हाथ बढ़ा, दबाया—नरम, गर्म। 'उफ्फ मम्मी... कितनी भरी... निप्पल्स कड़े। चूसूँ?' रमा ने सिर हिलाया, 'हाँ... लेकिन सिर्फ चूस।' रवि झुका, मुंह में लिया—चूसा, जीभ घुमाई। रमा सिसकी, 'आह... रवि... तेरी जीभ... हरि जैसी। लेकिन तू मेरा बेटा... उफ्फ।' 'मम्मी... तेरी चूत... गीली है न? उंगली डालूँ?' रमा ने रोका, लेकिन मुस्कुराई, 'नहीं... आज बस चूस। कल... सोचूँगी।' रवि ने चूसा लंबे समय, लार टपकाई।
शाम की लालिमा सड़क पर बिखर रही थी, जैसे कोई पुरानी यादें उकेर रही हो। उमेश की पुरानी बाइक धीरे-धीरे गाँव की ओर बढ़ रही थी, इंजन की गड़गड़ाहट हवा में घुली हुई। खुशबू पीछे बैठी, साड़ी का पल्लू हवा में लहरा रहा, लेकिन उसकी कमर उमेश की पीठ से सटी हुई—हल्का दबाव, जो सुबह के किस और बगल चाटने की याद दिला रहा। कॉलेज से लौटते हुए दोनों चुप थे, लेकिन हवा में वो तनाव भरा रोमांस लटका हुआ था। प्रोफेसर के साथ लाइब्रेरी रूम की वो गंदी चूसाई अभी भी खुशबू के होंठों पर महसूस हो रही—शर्मा सर की लार का नमकीन स्वाद, लेकिन अब पापा की कड़वी साँस की याद ने उसे कवर कर दिया। उमेश ने बाइक थोड़ा धीमा किया, एक सुनसान मोड़ पर, और पीछे मुड़कर फुसफुसाया, 'बेटा... दिन भर क्या किया? प्रोफेसर का लंड फिर मुंह में लिया न? साली, तेरी चूसाई की कल्पना से पापा का लंड खड़ा रहता है।'
खुशबू की सांसें तेज हो गईं, हाथ उमेश की कमर पर कस गया—साड़ी के नीचे चूत में हल्की हलचल। 'पापा... हाँ, लिया। सर ने मेरी बगल चाटी, आपकी लार वाली महक सूंघी। बोले, "रंडी, घर में कौन चाटता है तुझे?" मैंने कहा, "पापा... मेरे पापा।" वो जल उठे, लंड मुंह में ठोंसे और बोले, "आज शाम तेरी चूत फाड़ूँगा।"' आवाज धीमी, लेकिन कामुक—हवा में घुलती हुई, जैसे कोई गुप्त कबूलनामा। उमेश का चेहरा गर्म हो गया, ईर्ष्या की ज्वाला लेकिन साथ ही उत्तेजना की लहर। बाइक और धीमी, एक खेत के किनारे रुकी। 'उफ्फ... साली, तू प्रोफेसर को मेरी बातें बताती है? तेरी चूत... उसकी हो गई? लेकिन पापा की नहीं?' हाथ पीछे बढ़ाया, खुशबू की जांघ पर रखा—साड़ी के ऊपर से दबाया, उंगलियाँ ऊपर सरकाईं। खुशबू सिहर उठी, पैर फैलाए हल्के। 'नहीं पापा... सर तो मजा के लिए। लेकिन आप... आपकी जीभ मेरी बगल में... उफ्फ, वो कड़वापन। आज कॉलेज में हर क्लास में सोचा, शाम को फिर चाटोगे न? मेरी चूत में उंगली डालकर थूक दोगे?' बाइक के इंजन की आवाज दब गई उनकी फुसफुसाहट में।
उमेश ने बाइक साइड में खड़ी की, मुड़कर खुशबू को देखा—आँखें लाल, लंड पैंट में दर्द कर रहा। 'बेटा... तू जानती है पापा कितना पागल हो गया तुझसे। सुबह तेरी बगल चाटी, तो लगा जैसे चूत चाट रहा हूँ। बालों वाली, पसीने वाली... कितनी गंदी महक, लेकिन पापा को दीवाना बना दी। प्रोफेसर को बोल, तेरी गांड अब पापा की। कल होटल में फिर फ्रॉक पहनना, लेकिन इस बार गांड में लंड लूँगा। थूक से गीला करके, धीरे-धीरे फाड़ूँगा। तू चिल्लाएगी, "पापा... दर्द हो रहा, लेकिन जोर से!"' खुशबू का चेहरा लाल, साड़ी के नीचे हाथ सरका लिया—पैंटी पर दबाया खुद। 'हाँ पापा... फाड़ दो मेरी गांड। सर तो गांड पर सिर्फ थप्पड़ मारते हैं, लेकिन आप... अंदर डालोगे। कल्पना करो, मैं घुटनों पर, आप पीछे से... "ले रंडी बेटी, पापा का लंड तेरी गांड में!" और मैं... "हाँ पापा, चोदो अपनी बेटी को, प्रोफेसर को भूल जाऊँगी।"' उमेश का हाथ जांघ पर ऊपर, पेटीकोट में घुसा—चूत पर उंगली रगड़ी। 'आह... गीली हो गई साली। शाम को घर पहुँचकर रमा सो जाए, तो तेरे कमरे में आऊँगा। लेकिन पहले... ये ले।' एक उंगली अंदर धकेली, धीरे-धीरे हिलाई। खुशबू सिसकी, 'पापा... बाइक पर... कोई देख लेगा। लेकिन... और गहरा... थूक दो उंगली पर।' उमेश ने उंगली निकाली, थूक लगाया, फिर अंदर—गीला, चिपचिपा। संवाद चला, बाइक फिर चली—घर पहुँचे, लेकिन आग सुलगती रही।
रात गहरा चुकी थी, घर में सन्नाटा पसर गया। रमा और हरि अपने कमरे में, रवि सो चुका—दिन की घटना की थकान से। खुशबू ने किताबें उठाईं, नाइटी पहने—पतली, बिना ब्रा की, चूचियाँ उभरीं। वो उमेश के कमरे के दरवाजे पर खड़ी, धीरे से खटखटाया। 'पापा... मैथ्स की पढ़ाई... परीक्षा नजदीक है।' आवाज मासूम, लेकिन आँखों में शरारत। उमेश बिस्तर पर लेटा था, किताबें फैलाईं—लेकिन मन पढ़ाई में न था। 'आ जा बेटा... लेकिन आज सख्ती से। गलती हुई तो सजा मिलेगी।' दरवाजा बंद किया, बेड पर बैठे। खुशबू बगल में, किताब खोली—अलजेब्रा के सवाल। पहला सवाल सुलझाया, लेकिन गलत। उमेश का चेहरा सख्त, हाथ उठा—गाल पर थप्पड़, हल्का लेकिन चुभने वाला। 'अरे साली... ये भी नहीं आता? तेरी बुद्धि प्रोफेसर के लंड पर लगी रहती है क्या?' थप्पड़ की जलन गाल पर फैली, लेकिन खुशबू की सांसें तेज—हॉर्नी फीलिंग जागी। 'सॉरी पापा... गलती हो गई। लेकिन... मारो ना, सजा दो।' उमेश ने मुस्कुराया, किताब नीचे की—खुशबू को घुमाया, नाइटी ऊपर। गांड नंगी, गोल। दूसरा थप्पड़—गांड पर, चटाक! 'ये ले रंडी... गलती का फल। तेरी गांड... कितनी सफेद, लेकिन आज लाल कर दूँगा। प्रोफेसर को दिखाएगी न? "देखो सर, पापा ने मारा।"' 'आह... पापा, दर्द हो रहा... लेकिन अच्छा लग रहा। और मारो... बोलो, "तेरी चूत भी मारूँगा थप्पड़ से।"'
दूसरा सवाल—फिर गलत। उमेश ने गाल पर थप्पड़ मारा, जोरदार—लाल निशान। 'साली बेटी... तू जानबूझकर गलत कर रही? पापा का लंड खड़ा करने के लिए?' लेकिन फिर गांड पर दो थप्पड़। 'चटाक! चटाक! ये ले... तेरी गांड फड़क रही। कल होटल में चोदते वक्त ये निशान देखूँगा, और कहूँगा, "गलती की सजा, अब लंड की।"' खुशबू की आँखें नम, लेकिन होंठ काँपते मुस्कान से— 'पापा... हाँ, जानबूझकर। आपका थप्पड़... मेरी चूत को गुदगुदा रहा। मारो और... गाल पर, गांड पर। बोलो, "रंडी बेटी, तेरी फैंटसी क्या है? पापा को बता।"' तीसरा सवाल गलत—थप्पड़ों की बौछार: गाल पर एक, गांड पर तीन—चटाक-चटाक-चटाक! 'उफ्फ... साली, तेरी गांड लाल हो गई। प्रोफेसर को बोलूँगा, "तेरी स्टूडेंट को मैं सिखा रहा, थप्पड़ से।"' उमेश का लंड बाहर—खुशबू की गांड पर रगड़ा। 'बेटा... तू इतनी हॉर्नी हो गई? चूत गीली... पापा की उंगली लेगी?' खुशबू सिसक रही, लेकिन उत्साहित—'हाँ पापा... लेकिन पहले मेरी फैंटसी सुनो।'
खुशबू ने किताब फेंकी, उमेश की गोद में सरका—आँखें बंद, फुसफुसाई। 'पापा... मेरी डर्टी फैंटसी... आप मुझे बाँध लो। कमरे में, रस्सी से हाथ बाँधो। फिर थप्पड़ मारो—गाल, चूचियाँ, गांड, चूत पर। हर थप्पड़ के बाद कहो, "ले रंडी, प्रोफेसर भूल जा।" फिर... आपका लंड मुंह में ठूंस दो, गला तक। थूक से गीला करके, चोदो मुंह को। उसके बाद चूत में, गांड में—एक साथ दो उंगलियाँ डालकर। और अंत में... आपका रस चेहरे पर, बालों में, चूचियों पर। मैं चिल्लाऊँगी, "पापा... और... मैं आपकी गुलाम हूँ!"' खुशबू का चेहरा शर्म से लाल, लेकिन उत्तेजना से चमकता। उमेश का दिल धड़का, आँखें चमकीं—खुशी की लहर, जैसे कोई सपना पूरा। 'बेटा... उफ्फ... तू... मेरी फैंटसी से भी गंदी! पापा बहुत खुश है... तू सच्ची रंडी बेटी है। कल होटल में यही करेंगे—बाँधूँगा तुझे, थप्पड़ बरसाऊँगा। तेरा हर हिस्सा मेरा। प्रोफेसर को भूल, सिर्फ पापा का लंड।' वो खुशबू को गले लगा लिया, किस किया—लंबा, लार भरा। किताबें बिखरीं, लेकिन पढ़ाई भूल उमेश का मन उछल रहा—बेटी की डर्टीनेस ने उसे और दीवाना बना दिया।
रात का सन्नाटा घर पर गहरा था, लेकिन रमा का मन उछल रहा—होली की रात, वो मौका जो साल में एक बार आता है। रसोई में अकेली, वो लड्डू गूंध रही थी—गुड़, बेसन, घी से बने, मोटे-मोटे। हरि बाहर धूम्रपान कर रहा था, उमेश और बच्चे सो चुके। लेकिन रमा के दिमाग में प्लान पक्का था—पुरानी यादें, हरि के साथ जवानी की होली, जब भांग के नशे में दोनों नदी किनारे लिपटे थे। 'इस बार... सबको नशा दूँगी। परिवार की आग भड़काऊँगी।' वो अलमारी से भांग का छोटा पैकेट निकाला—गाँव के पंडित जी से चुपके लिया। लड्डू में मिलाई—हर एक में थोड़ी-थोड़ी, मीठेपन में घुल जाए। उमेश के लिए दो, रवि के लिए एक बड़ा, खुशबू के लिए भी—'बेटा... तू भी मचलेगी आज।' हरि के लिए अलग रखा, लेकिन उसमें ज्यादा—'मेरा भाई... नशे में फिर जानवर बनेगा।' लड्डू ढक दिए, मुस्कुराई—'कल होली... रंगों की होली नहीं, हवस की होली।'
अगले दिन होली की धूम मच गई। गाँव में ढोल-नगाड़े, रंग उड़ रहे—लाल, हरा, नीला। घर का आंगन गीला, सब नहा-धोकर बाहर। रमा ने लड्डू बाँटे—'खाओ सब, होली का प्रसाद।' सबने खाया, मीठा लगे। उमेश ने दो गटक लिए, 'अच्छा है रमा... लेकिन कुछ तीखा सा।' रवि ने चाव से खाया, 'मम्मी... स्वादिष्ट!' खुशबू ने हँसकर, 'मम्मी, इसमें क्या मिलाया? मन उड़ने लगा।' हरि ने आँख मारकर, 'दीदी... तेरा हाथ... जादू है।' भांग धीरे-धीरे चढ़ने लगी—सबके चेहरे लाल, हँसी बेपरवाह। रंग खेलने लगे—उमेश ने खुशबू पर रंग मला, हाथ कमर पर रुका। रवि ने रमा को गीला किया, पानी की बौछार से साड़ी चिपक गई—चूचियाँ उभरीं। हरि ने रमा को गले लगाया, 'होली है दीदी... रंग लगाओ।' लेकिन नशे में हाथ फिसला, गांड पर दबाया। रमा सिसकी हल्की, लेकिन हँसी। खुशबू ने हरि पर रंग फेंका, 'मामू... आज तो मचलोगे!'
खुशी के बीच, रमा का मन रवि पर ठहर गया—बेटा, नशे में चेहरा लाल, आँखें चमकतीं। दिन की वो घटना—बेटे का लंड सहलाना, चूचियाँ चूसना। 'आज... पूरा कर लूँ।' वो रवि को आंगन के कोने में खींच लिया, रंग के बहाने। 'बेटा... मम्मी को रंग लगाओ... गहरा।' रवि का नशा चढ़ा, हाथ काँपते—साड़ी पर रंग मला, लेकिन कमर पकड़ी। 'मम्मी... आपकी कमर... कितनी नरम। कल की तरह... चूचियाँ दबाऊँ?' रमा ने सिर हिलाया, नशे में बिंदास—'हाँ रवि... लेकिन आज... और आगे। मम्मी की चूत... तेरी है आज।' साड़ी ऊपर सरकाई, पेटीकोट नीचे—पैंटी गीली। रवि का लंड सख्त, पैंट फाड़ता। 'मम्मी... आपकी चूत... बालों वाली, गुलाबी। लंड डालूँ?' रमा ने दीवार से सटा लिया, पैर फैलाए—'डाल बेटा... जोर से। मम्मी की चुदाई... तेरे पापा से बेहतर। आह!' रवि ने पैंट नीचे की, लंड बाहर—युवा, मोटा—सीधा चूत में ठोका। धक्के मारे—जोरदार, नशे में बिना रुके। 'उफ्फ मम्मी... तेरी चूत... कस रही, रस टपक रहा। चोदूँगा रोज!' रमा सिसकारियाँ, नाखून पीठ पर—'हाँ रवि... चोद... मम्मी रंडी तेरी। हरि को देखकर जलता था न? अब मैं तेरी। आह... गहरा!' चुदाई तेज, आंगन में रंग उड़ रहे, लेकिन कोने में छिपे—पसीना, रस, थप्पड़ हल्के। 'मम्मी... रस डालूँ अंदर!' रमा ने दबाया, 'हाँ... भर दे!' वीर्य भरा, गर्म।
इधर, खुशबू का नशा चढ़ा—भांग ने शरारत जगाई। हरि को पकड़ा, आंगन में घसीटा—'मामू... आज होली, तू मेरा गुलाम। चल, पीछे।' हरि नशे में हँसा, लेकिन आज्ञाकारी—'हाँ रानी... तेरा क्या कहना।' खुशबू ने उसे नीम के पेड़ के पीछे बिठाया, नाइटी जैसी साड़ी ऊपर—गांड नंगी। 'मामू... तेरी गुलामी याद? हाथ उठाया, थप्पड़ मारा—गांड पर, जोरदार। 'चटाक! ये ले... मेरी चूत चाटने का इनाम।' हरि सिसका, लेकिन लंड सख्त—'आह रानी... मारो... तेरी गांड पर थप्पड़ खाने का मन कर रहा।' खुशबू ने और मारा—पाँच-छह, लाल निशान। 'साली गुलाम... तेरी जीभ मेरी चूत में डाल। लेकिन पहले... चाट मेरी बगल।' हरि ने झुका, बगल चाटी—नमकीन, रंग वाली। खुशबू ने बाल पकड़े, दबाया—'चूस... कुत्ता! तू रमा मम्मी को चोदता है, लेकिन मैं तेरी मालकिन।' हरि सिसक रहा, लेकिन मजा लेता—'रानी... तेरी बगल... स्वादिष्ट। चूत चाटूँ?' खुशबू ने पैर फैलाए, 'हाँ... लेकिन जोर से।' हरि चाटने लगा, लेकिन खुशबू ने उंगली डाली उसके मुंह में—'चूस... गंदा गुलाम। आज तेरी गांड में उंगली डालूँगी।' खुशबू हँस रही, हरि गिड़गिड़ा रहा। 'रानी... और... मैं तेरा कुत्ता।' होली का रंग उनके पसीने में घुला।
होली की धूम में उमेश का नशा भी चढ़ा—खुशबू को देखा, फ्रॉक वाली याद। 'बेटा... चल बाथरूम। रंग धो लें।' खुशबू मुस्कुराई, 'हाँ पापा... लेकिन गंदे से।' बाथरूम में घुसे, दरवाजा बंद—पानी चलाया, लेकिन रंग न धुला। उमेश ने साड़ी खींची, नंगा किया—'साली... तेरी बॉडी रंगों में चमक रही। चूचियाँ... दबाऊँ?' 'हाँ पापा... दबाओ। कल की फैंटसी... बाँधना भूल गए। आज थप्पड़ मारो।' उमेश ने गाल पर थप्पड़ मारा, 'चटाक! रंडी बेटी... प्रोफेसर का लंड सोचा आज?' खुशबू सिहरी, 'हाँ पापा... लेकिन आपका बेहतर। चोदो... जोरदार।' उमेश ने लंड बाहर निकाला, दीवार से सटा दिया—'ले... तेरी चूत में। गंदा बोलूँगा। तेरी चूत... बालों वाली रंडी चूत। थूक!' थूक गिराया चूत पर, धक्का मारा—जोरदार, पानी की बौछार के बीच। 'आह... पापा... फाड़ दो! आपका लंड... मोटा, नसों वाला। प्रोफेसर का पतला है।' चुदाई तेज—धक्के, थप्पड़ गांड पर। 'साली... तेरी गांड... कल फैंटसी में फाड़ूँगा। आज चूत भर दूँगा। बोल, "पापा... रस दो!"' खुशबू चिल्लाई, 'हाँ... रस दो चूत में! आह... आ रही हूँ!' उमेश झटके मारा, वीर्य भरा—गर्म, चिपचिपा। पानी से धुला, लेकिन निशान बाकी। 'बेटा... प्यार है तुझसे।' किस किया, बाहर निकले.
इसी बीच, हरि ने आंगन में रमा-रवि का सीन देख लिया—पीछे से, कोने में चुदाई। नशे में हँसा, लेकिन जलन। 'दीदी... बेटे के साथ? साली... रंडी है तू।' लेकिन लंड सख्त। वो चुपके बाथरूम की तरफ गया, लेकिन रमा ने देख लिया। होली खत्म, शाम ढली—सब थके। रात को रमा ने हरि को कमरे में बुलाया, रवि को भी—'आओ दोनों... मम्मी सब संभालेगी।' दरवाजा बंद। रमा नंगी हो गई, घुटनों पर। 'हरि... तूने देखा न? लेकिन आज... दोनों के लंड चूसूँगी।' हरि ने पैंट खोली, लंड बाहर—'दीदी... रंडी... चूस।' रवि घबरा गया, लेकिन नशा बाकी—'मम्मी... मामू के साथ?' रमा ने दोनों लंड पकड़े—रवि का युवा, हरि का मोटा। 'हाँ बेटा... चूसूँगी दोनों को। ले... मुंह में।' पहले हरि का मुंह में लिया—चूसा, जीभ घुमाई। 'मम्म... भाई... तेरा लंड... जवानी का स्वाद।' फिर रवि का—'बेटा... तेरा... ताजा। चूस मम्मी।' दोनों को बारी-बारी चूसा—लार टपकती, थूक डाला। हरि: 'दीदी... गला तक ले... रंडी!' रवि: 'मम्मी... आह... आपकी जीभ... चोद रही।' रमा ने दोनों को रगड़ा, चूसा—'दोनों का रस... मुंह में लूँगी।' चरम पर दोनों फूटे—वीर्य मुंह में, गटक लिया। रमा मुस्कुराई, 'अब सो जाओ... होली की याद बनेगी।'
अगले दिन की सुबह होली की थकान से भरी हुई थी, घर का आंगन अभी भी रंगों के धब्बों से सजा हुआ, हवा में भांग की हल्की महक बाकी। रमा ने चाय बनाई, चेहरे पर होली की चमक—रात के दोनों लंड चूसने की यादें मन को गुदगुदा रही थीं। हरि कमरे से निकला, थका लेकिन संतुष्ट, रवि अभी सो रहा था। उमेश और खुशबू नाश्ते पर थे, हरि ने चाय का कप लिया, गंभीर हो गया। 'दीदी... उमेश भैया... मैं कल गाँव लौट रहा हूँ। नौकरी का काम है, लेकिन... इच्छा है, तुम्हें और रवि को साथ ले जाऊँ। गाँव में कुछ दिन रुकना, पुरानी यादें ताजा करें। रवि को भी घुमाऊँगा, खेत-खलिहान दिखाऊँगा।' आवाज में लालच—रमा को साथ ले जाने का, रात की गुलामी और चुदाई का। रमा का दिल धड़का, लेकिन मुस्कुराई—'हरि... अचानक? लेकिन हाँ, अच्छा रहेगा। उमेश... क्या कहते हो?' उमेश ने सिर हिलाया, मन में राहत—हरि की मौजूदगी से खुशबू पर नजर कम रहेगी। 'हाँ भाई... जाओ। रमा को आराम मिलेगा, रवि को नया अनुभव।' लेकिन अंदर हवस की चिंगारी—हरि के जाने से खुशबू ज्यादा समय मिलेगा।
खुशबू ने चाय पीते हुए आँखें चमकाईं—'मामू... मम्मी-भाई के साथ जाओ। पापा और मैं घर संभाल लेंगे।' मन में खुशी— उमेश ने उसके पैर के नीचे पैर रगड़ा टेबल के नीचे, फुसफुसाया, 'बेटा... खुश हो न? अब रातें हमारी।' खुशबू सिहर उठी, 'हाँ पापा... फैंटसी पूरी करेंगे।' सब सहमत हो गए, लेकिन हवा में वो तनाव—हरि की नजर रमा पर ठहरी, रवि की नींद टूटने को। दिन बीता पैकिंग में, शाम को बस स्टैंड पर पहुँचे—उमेश ने विदाई दी, 'सावधान रहना।' लेकिन आँखों में चमक—घर अकेला।
शाम की AC बस गाँव की ओर रवाना हुई, सीट्स आरामदायक, लेकिन भीड़ कम—रमा बीच वाली सीट पर, हरि बगल में, रवि दूसरी तरफ। खिड़की से हवा आ रही, लेकिन कमरे की गर्माहट बस में फैल गई। बस चली, लाइट्स धीमी—हरि ने पहले हाथ बढ़ाया, रमा की जांघ पर। 'दीदी... होली की याद... तेरी चूत में रवि का लंड, और मैं देखता रहा। जल गया।' फुसफुसाहट, गंदी। रमा का चेहरा लाल, लेकिन नशा बाकी—'हरि... चुप। बेटा सुन लेगा।' लेकिन रवि ने सुना, हाथ दूसरी तरफ से कमर पर रखा। 'मम्मी... मैं भी... होली में चोदा था न? अब बस में... दूध दबाऊँ?' दोनों तरफ से हाथ—हरि और रवि ने एक साथ साड़ी के ऊपर से चूचियाँ दबाईं। नरम, भरी हुई—रमा सिसकी ली, 'आह... दोनों... एक साथ? साली रंडी बना दिया मुझे।' हरि: 'दीदी... तेरी चूचियाँ... भाई और बेटे के हाथों में। दबाओ रवि... निप्पल मरोड़ो।' रवि ने दबाया, 'मम्मी... कितनी मोटी... चूसूँ? बस में?' रमा ने सिर हिलाया, पल्लू सरकाया—ब्लाउज ऊपर, चूचियाँ आधी नंगी। दोनों झुके, बारी-बारी चूसे—हरि पहले, जीभ घुमाई। 'मम्म... दीदी, तेरा निप्पल... कड़वा होली का रंग। चूसूँ पूरा।' रवि ने दूसरा लिया, 'मम्मी... आपका दूध... मीठा। मामू... देखो, मम्मी की चूची कस रही।' रमा के हाथ दोनों के लंड पर—पैंट में दबाए। 'उफ्फ... दोनों के लंड... मोटे। होली में चूसे थे,
किस शुरू.. हरि ने पहले होंठ दबाए, जीभ अंदर—लार भरा, गंदा। 'दीदी... तेरी लार... रंडी वाली। थूक दे... भाई के मुंह में।' रमा ने थूक दिया, चूसा। रवि ने बारी ली, 'मम्मी... आपकी जीभ... मेरी तरह नरम। चूसूँ गला तक?' किस लंबा, लार टपकती—रमा के गाल पर, हरि ने चाटा। 'साली... तेरी चूत... गीली हो गई न? रवि... छू ले।' रवि का हाथ साड़ी में घुसा, पेटीकोट ऊपर—पैंटी पर दबाया। 'मम्मी... हाँ, गीली... रस टपक रहा। चाटूँ?' रमा ने पैर फैलाए हल्के, 'हाँ बेटा... चाट... लेकिन चुपके से।' रवि झुका, साड़ी के नीचे मुंह—पैंटी सरकाई, जीभ चूत पर। नमकीन रस, बालों वाली। 'उफ्फ मम्मी... तेरा चूत का पानी... स्वादिष्ट। होली का रंग जैसा। चूसूँ होंठ?' चाटने लगा—धीरे, जीभ अंदर। रमा सिसकारी दबाई, 'आह... रवि... तेरी जीभ... गहरा। हरि... तू भी देख। तेरी बहन... बेटे से चटवा रही।' हरि हँसा, लंड सहलाया—'दीदी... रंडी है तू। रवि... चूस जोर से, मम्मी का रस पी।' चुदाई का स्वाद—रवि चाटता रहा, रस गटकता। 'मम्मी... और रस... आ रहा।' रमा काँप उठी, चरम पर—'हाँ... ले ले बेटा!' रस बहा, रवि ने चाट लिया।
बस बीच में रुकी—एक ढाबे पर, रात गहरा चुकी। हरि ने रमा को खींचा, 'दीदी... पेशाब लगी? चल... पीछे।' रमा ने सिर हिलाया, नशा और भूख। ढाबे के पीछे, झाड़ियों में—हरि ने साड़ी ऊपर की, पेटीकोट नीचे। 'हरि... पेशाब... लेकिन तू...' हरि घुटनों पर, 'दीदी... गंदा बोल। तेरी चूत से पेशाब पीऊँगा। रंडी बहन... छोड़ दे।' रमा ने पैर फैलाए, धार शुरू—पेशाब की सुनहरी धार। हरि ने मुंह सटा लिया, पीने लगा—गर्म, नमकीन। 'उफ्फ... दीदी, तेरा पेशाब... मीठा। पीऊँ पूरा?' रमा सिसकी, 'हाँ भाई... पी... तेरी बहन का पेशाब... गुलाम बना दिया।' धार तेज, हरि गटकता—कुछ टपका ठुड्डी पर। पीने के बाद, हरि ने मुंह नहीं हटाया—गांड पर हाथ, दरार खोली। 'अब... तेरी गांड चाटूँ। होली की तरह... गंदी।' जीभ निकाली, दरार पर रगड़ी—नमकीन, पेशाब की बूंदें। 'आह... दीदी, तेरी गांड का छेद... कितना कसा। चाटूँ अंदर?' जीभ धकेली, चाटने लगा—गहरा, सर्कुलर। रमा काँप उठी, 'हरि... तेरी जीभ... गांड में... उफ्फ, गंदा लेकिन मजा। चूस... बहन की गांड का रस। हरि: 'साली... तेरी गांड... पेशाब की महक। उंगली डालूँ? फाड़ दूँ?' रमा: 'हाँ... डाल... लेकिन धीरे। रवि को बता दूँगी, तू बहन की गांड चाट रहा।' हरि ने उंगली डाली, चाटता रहा—पसीना, पेशाब का मिश्रण। 'दीदी... तू रंडी है... गाँव पहुँचकर चोदूँगा।' रमा चरम पर फिर, 'आह... ले... गांड का रस!' हरि चाटता रहा। वापस बस में लौटे, चेहरे गीले
घर में सन्नाटा पसर गया था रमा, रवि और हरि के गाँव चले जाने के बाद, लेकिन उमेश के चेहरे पर एक अजीब सी चमक थी—खुशी की, जैसे कोई लंबे इंतजार का फल मिल गया हो। स्कूल से लौटते हुए वो बाजार घूमा, मन में फैंटसी घूम रही—खुशबू के साथ अकेले दिन, रातें बिना किसी डर के। 'अब तो बेटी पूरी तरह मेरी... कोई हरि नहीं, कोई रवि नहीं।' वो मुस्कुराया, घर पहुँचकर झोला नीचे रखा। खुशबू अभी नहा रही थी, बाथरूम से पानी की आवाज आ रही—उसकी कल्पना में वो नंगी बॉडी, फ्रॉक में लहराती कमर। उमेश ने चाय बनाई, लेकिन मन इधर-उधर। 'पापा... आप आए?' खुशबू बाहर आई, तौलिए से बाल पोंछते हुए, साड़ी लिपटी लेकिन गीली, चूचियाँ ब्लाउज में उभरीं। उमेश ने उसे गले लगा लिया, गाल पर किस किया—'हाँ बेटा... पापा बहुत खुश है। तेरी मम्मी-भाई गए, अब घर हमारा। चल... देख क्या लाया।' झोला खोला, पहले दारू की बोतल निकाली—देशी, मोटी, काली लेबल वाली। फिर फ्रॉक—एक छोटी सी, लाल सिल्की, नेक इतना डीप कि चूचियाँ झलकें, लेंथ जांघों तक, टाइट, जैसे कोई सड़क किनारे रंडी पहनती हो।
खुशबू की आँखें फटीं, बोतल देखकर हाथ काँप गया। 'पापा... ये दारू? हम ब्राह्मण परिवार... मंदिर जाते हैं, व्रत रखते हैं। मम्मी को पता चला तो...' शॉक से चेहरा सफेद, सांसें तेज—गाँव की परंपराएँ, पूजा-अर्चना की यादें उमड़ आईं। लेकिन उमेश हँसा, बोतल खोलकर गंध फैलाई। 'अरे साली... ब्राह्मण होकर क्या? तेरी चूत तो पापा ने चाट ली, प्रोफेसर का लंड मुंह में लिया। दारू से डर? आज नशा करेंगे, तेरी फैंटसी पूरी।' खुशबू ने सिर झुकाया, लेकिन आँखों में हल्की चमक—शॉक मिश्रित उत्तेजना, जैसे कोई नई दुनिया खुल रही हो। 'पापा... लेकिन...' उमेश ने चुप कराया, फ्रॉक थमा दी। 'पहले ये पहन। शाम को पार्टी।' फिर रसोई में घुसा, मटन का पैकेट निकाला—ताजा, लाल। 'और ये... दारू के साथ मटन बनाऊँगा।' खुशबू चौंकी, 'मटन? पापा... हम शाकाहारी... ब्राह्मण... कभी मांस नहीं खाया। ये... अप्रत्याशित!' अपेक्षा से परे, मन में उथल-पुथल—परिवार की पवित्रता टूट रही, लेकिन कहीं गहरे में रोमांच। उमेश ने कढ़ाई चढ़ाई, मटन काटा—मसाले डाले, दारू की कुछ बूंदें मिलाई। 'हाँ बेटा... आज सब तोड़ेंगे। तेरी चूत का रस तो पापा पी चुका, मटन से क्या फर्क? खा, नशा चढ़ेगा तो तू मेरी रंडी बनेगी।'
शाम ढली, रसोई में मटन पक गया—गर्म, मसालेदार, दारू की तेज महक। दोनों ने थाली में परोसा, छोटी मेज पर बैठे—फ्रॉक में खुशबू, चूचियाँ ऊपर उभरीं, जांघें नंगी। उमेश ने गिलास भरे—पहला घूँट लिया, खुशबू को दिया। 'पी रंडी... नशा चढ़े तो तेरी चूत गीली हो जाएगी।' खुशबू ने हिचकिचाते हुए पिया—जलन गले में, कड़वाहट जीभ पर, लेकिन शरीर में गर्माहट फैली, 'पापा... ये दारू... आपकी साँस जैसी कड़वी। कल्पना करो, मैं नंगी लेटी, आप दारू डालकर मेरी चूत चाटते, लंड डालते।' उमेश का चेहरा लाल, लंड पैंट में सख्त—दूसरा घूँट, हाथ जांघ पर। 'उफ्फ बेटा... साली, तू तो कवयित्री हो गई। पापा की डार्क फैंटसी... तुझे दोस्तों के साथ चोदना। स्कूल के चार-पाँच दोस्त बुलाऊँ, तुझे नंगा कर दूँ। एक लंड तेरे मुंह में ठोंसे, "चूस रंडी, उमेश की औलाद!" दूसरा चूत फाड़े, तीसरा गांड में। मैं देखूँगा, दारू पीते हुए, बोलूँगा, "जोर से चोदो मेरी बेटी को, वो वेश्या है।" तू चिल्लाएगी, "पापा... और लंड... भर दो मेरी चूत!" दोस्त हँसेंगे, "उमेश, तेरी बेटी मार्केट में बेच दे, 500 में चूत।"' दारू का तीसरा घूँट, खुशबू की सांसें तेज, फ्रॉक के नीचे हाथ सरका लिया। 'हाँ पापा... लेकिन प्रोफेसर को भी बुलाओ। वो लंड चूसूँगी, आप गांड फाड़ोगे। दारू पीते हुए थूक दोगे मेरी चूचियों पर, चूसोगे। मटन खाते हुए कहोगे, "बेटी, तेरी चूत मटन जैसी रसीली।"' उमेश ने मटन का टुकड़ा खिलाया, उंगली चाटवाई। 'रंडी... तेरी गांड... आज फाड़ूँगा। दारू से गीला करके, धीरे-धीरे अंदर। तू रोएगी, "पापा... दर्द... लेकिन जोर से!" दोस्त देखेंगे, "उमेश, तेरी बेटी की गांड कस है, हम भी लेंगे।"' दोनों के चेहरे पसीने से चिपचिपे, मटन की महक हवा में। 'पापा... नशा चढ़ गया... चोदो ना मुझे।' लेकिन उमेश ने रोका, 'पहले नाच।'
उमेश ने मोबाइल निकाला, भोजपुरी गाना लगाया—'कइसे भुलावलू के...' तेज बीट्स। 'नाच बेटा... कामुक नाच। फ्रॉक में लहरा।' खुशबू उठी, नशे में चक्कर आई, लेकिन कमर लहराई—फ्रॉक ऊपर सरकी, जांघें चमकीं। हाथ चूचियों पर फेरा, गांड हिलाई, आँखें उमेश पर टिकीं। 'पापा... देखो, तेरी रंडी नाच रही। गाना भोजपुरी... लेकिन मेरी चूत तेरे लिए धड़क रही।' उमेश ताली बजाई, दारू पीता—'उफ्फ साली... तेरी कमर... प्रोफेसर को दिखाऊँ तो लंड फूट जाए। घूम... चूचियाँ हिला।' खुशबू घूमी, झुकी—गांड की गोलाई, फ्रॉक सरक गई, पैंटी झलकी। नाच और कामुक—जीभ बाहर, होंठ काटे, उमेश के पास आकर लंड पर रगड़ा। गाना बदला—'लॉलीपॉप लगावलू...' खुशबू ने उमेश की गोद में बैठकर नाच, कमर घुमाई। 'पापा... नाचते हुए चूसूँ आपका लंड?' उमेश ने सिर हिलाया,
दारू की बोतल खत्म, नशा सिर चढ़ा—दोनों के पैर लड़खड़ा रहे। उमेश ने पैंट खोली, लंड बाहर—मोटा, नसें फूलीं, सुपारा चमकता। 'चूस बेटा... गंदे तरीके से। घुटनों पर आ।' खुशबू घुटनी टेक दी, नशे में हँसती—मुंह में लिया, चूसाई शुरू, जीभ सर्कुलर घुमाई। 'मम्म... पापा... आपका लंड... दारू जैसा कड़वा। गला तक लूँ?' उमेश बाल पकड़े, धकेला—'हाँ साली... गंदा चूस। पापा की डार्क फैंटसी सुन... दोस्तों के साथ तुझे चोदना। कल बुलाऊँगा चार दोस्त, तुझे रंडी बना दूँगा। एक मुंह चोदेगा, "चूस उमेश की बेटी, तेरी जीभ कमाल!" दूसरा चूत फाड़ेगा, तीसरा गांड। मैं दारू पीकर देखूँगा, बोलूँगा, "जोर से रंडी को चोदो, उसकी चूत मटन जैसी!" तू गिड़गिड़ाएगी, "पापा... और लंड... दोस्तों का रस दो!" दोस्त हँसेंगे, "उमेश, तेरी बेटी वेश्या है, हम बेच देंगे सड़क पर।"' खुशबू चूसते हुए सिसकी, लार टपकती—'आह पापा... गंदी फैंटसी... लेकिन चूसूँ और। थूक दो मुंह में, गला ठोक दो।' उमेश ने थूक गिराया, 'हाँ रंडी... कल दोस्त आएंगे, तुझे घेर लेंगे। एक-एक करके चोदेंगे, तू चिल्लाएगी।' नशे में उमेश ने फोन निकाला, प्रिंसिपल का नंबर डायल—स्कूल का बॉस, 60 का, लेकिन हवस भरा। 'हैलो सर... उमेश। होली की बधाई।' प्रिंसिपल: 'उमेश... क्या हाल?' उमेश नशे में हँसा, खुशबू को इशारा—चूसाई जारी। 'सर... एक लड़की है, कॉल गर्ल। नाम खुशबू। प्रोफेसर शर्मा को चोदती है, लेकिन आप... आज शाम आ जाओ। फ्री है। 500 में चूत, 1000 में गांड। मैं दूंगा एंट्री, लेकिन रिश्ता मत पूछना।' प्रिंसिपल चौंका, लेकिन लार टपकने लगी आवाज में—'अरे... ऐसी लड़की? ठीक, आता हूँ। कहाँ?' उमेश ने पता बताया, फोन काटा—बिना बताए कि बाप-बेटी। 'पापा... सर को बुलाया? गंदा!' खुशबू मुंह से निकालकर बोली, लेकिन उमेश ने दबाया, 'हाँ साली... थ्रीसम। तू चूस, वो आएगा।'
शाम के 8 बज गए, प्रिंसिपल पहुँचा—कुर्ता-पायजामा में, चेहरा लाल, दारू की बोतल हाथ। घर में घुसा, खुशबू को देखा—फ्रॉक में, चूचियाँ झलकतीं, चेहरा नशे से चमकता। 'उमेश... ये लड़की... उफ्फ, कितनी हसीन! कॉल गर्ल जैसी, लेकिन मासूम चेहरा। लार टपक रही सर... चूसूँ तुझे।' प्रिंसिपल की आँखें लाल, लंड पैंट में उभरा—ऐसी लड़की देखकर भूख जागी। उमेश ने गिलास भरा, 'सर... बैठो। वो तैयार है।' प्रिंसिपल करीब आया, खुशबू को खींचा— 'बेबी... तेरी चूचियाँ... फ्रॉक से बाहर आने को बेताब।' हाथ डाला, दबाया—निप्पल मरोड़ा। खुशबू सिहरी, 'सर... धीरे... लेकिन जोर से।' प्रिंसिपल झुका, किस किया—थूक वाला, जीभ गले तक। 'उम्म... तेरी लार... मीठी रंडी। थूक दे... सर के मुंह में।' खुशबू ने थूक दिया, चूसा—लार टपकती गालों पर। 'सर... आपकी जीभ... बूढ़ी लेकिन गर्म। चूसो मेरी चूचियाँ।' प्रिंसिपल ने फ्रॉक नीचे की, चूचियाँ नंगी—मुंह में लिया, चूसा जोर से। 'आह... बेबी, तेरी चूचियाँ... दूध वाली। काटूँ निप्पल?' दाँत लगाए, थूक गिराया—गीला, चिपचिपा। 'तेरी चूत... गीली? सर का लंड लेगी?' खुशबू ने सिर हिलाया, 'हाँ सर... लेकिन पहले... डीपथ्रोट।' प्रिंसिपल ने पैंट खोली, लंड बाहर—बूढ़ा लेकिन मोटा, सुपारा काला। 'ले रंडी... मुंह खोल।' खुशबू घुटनों पर, मुंह में लिया—धीरे से, लेकिन प्रिंसिपल ने बाल पकड़े, गला तक ठोंसा। 'गैग... ले साली, तेरी जीभ... लंड चूस रही। थूक... गीला कर।' खुशबू गैग कर रही, आँसू आए, लेकिन चूसती—लार टपकती, गला फड़कता। 'मम्म... सर... आपका लंड... गला फाड़ रहा। लेकिन... जोर से!' प्रिंसिपल जोश में, धक्के मारे—'आह... कॉल गर्ल... तेरी चूसाई... कमाल। उमेश, ये कहाँ से लाया?' उमेश हँसा, 'सर... मार्केट से।'
उमेश ने प्रिंसिपल को इशारा किया, 'सर... चूत लो।' खुशबू ने जीभ बाहर की, 'सर... चोदो।' उमेश ने खुशबू को बेड पर लिटाया, प्रिंसिपल चूत में लंड डाला—धक्के मारे, बूढ़ी कमर हिलाई। 'आह... खुशबू... तेरी चूत... कस, गर्म! कॉल गर्ल... फाड़ दूँगा।' उमेश गांड में उंगली डालता, मुंह में लंड ठोंसता—'साली... दो लंड ले। सर... जोर से चोदो मेरी... रंडी को।' इशारे से—उमेश ने प्रिंसिपल को आँख मारी, 'गांड लो सर।' प्रिंसिपल ने गांड में डाला, उमेश चूत में—डबल पेनेट्रेशन। 'उफ्फ... बेटी... दो लंड... तेरी फैंटसी!' खुशबू चीखी, नशे में, 'पापा... सर... फाड़ दो! थ्रीसम... आह... रस दो दोनों!' धक्के तेज—प्रिंसिपल: 'रंडी... तेरी गांड... कस रही। उमेश, ये लड़की... कमाल!' उमेश: 'सर... जोर से... भर दो।' खुशबू ने उंगली से इशारा, 'और गहरा।' दोनों फूटे—वीर्य चूत और गांड में, गर्म, चिपचिपा। प्रिंसिपल हाँफा, 'कल फिर... 1000 में।'