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Adultery बीती यादें

Coquine_Guy

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ये कहानी मेरी नहीं है .. लेकिन मुझे अच्छी लगी .. इसीलिए इसको यहां पोस्ट कर रहा हूँ ताकि आप लोग भी पढ़े और मज़ा उठाएं
 

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अक्सर बीते दिनों की यादें हमारे मन को घेर लेती हैं. हम लाख कोशिश करें ख़ुद को उनसे दूर करने की मगर वो हमारा पीछा नहीं छोड़ती. ऐसा ही कुछ हो रहा है मेरे साथ इस वक़्त. रात के बारह बज रहे हैं और सोने की बजाए मैं अपने बिस्तर पर पड़ी करवटें बदल रही हूँ. बार बार मेरा मन उस दिन की यादों में उलझ रहा है जिसे मैं भूल कर भी याद नहीं करना चाहती. बड़ा ही अजीब दिन था ये मेरे जीवन का. इतना अजीब कि अगर मेरे बस में हो तो मैं इसे अपने जीवन से निकाल फेंकू. पर ऐसा करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है.

आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हुआ था मेरे साथ इस दिन. सब बताऊँगी. और पूरे विस्तार से बताऊँगी. पहले अपने बारे में आपको थोड़ी जानकारी दे देती हूँ. मेरा नाम कविता अरोड़ा है और मैं पटियाला में रहती हूँ. मेरी उमर तीस साल है. शादीशुदा हूँ मैं. मेरे पति महेश एक निजी कम्पनी में मैनेजर हैं. हमारी शादी सात साल पहले हुई थी. हमारा चार साल का एक बेटा भी है—रोहन. हँसता खेलता परिवार है हमारा. किसी भी तरह की कोई चिंता परेशानी नहीं है. हाँ महेश कई बार बहुत बिज़ी हो जाता है काम में और मुझे ठीक से टाइम नहीं दे पाता. मगर ये तो हर किसी के साथ होता है. काम में अक्सर पति लोग इतने व्यस्त हो जाते हैं की बीवी को भूल ही जाते हैं. मगर मैं बुरा नहीं मानती इन बातों का. मैं समझती हूँ. और समझूँ क्यों ना? मैं ख़ुद भी तो काम करती हूँ. एक एनजीओ से जुड़ी हुई हूँ मैं. समाज सेवा के साथ-साथ थोड़ी पॉकेट मनी भी बन जाती है. कभी कभी मैं भी बिज़ी हो जाती हूँ इस काम में. हाँ पर महेश की तरह नहीं.

जिस दिन की मैंने बात की अभी ऊपर वो दिन थोड़ा बिज़ी था मेरा. पांच अप्रैल का दिन था ये. मैं अंबाला के पास एक गाँव है देहर वहाँ गई हुई थी अपनी एनजीओ के काम से. मेरे साथ मेरी सहकर्मी अंजलि भी थी. वो भी इस एनजीओ से काफ़ी समय से जुड़ी हुई थी. एक बजे से पाँच बजे तक लगभग चार घंटे का कार्यक्रम था हमारा. हमने गाँव के सरपंच के घर के पास एक टैंट लगाया हुआ था. वहाँ हम गाँव की औरतों को शिक्षा के प्रति जागरूक करने की कोशिश कर रहे थे. हमारा नारा था कि जब घर की औरतें शिक्षा का महत्व समझेंगी तभी तो वो अपने बच्चों को शिक्षा पर ध्यान देने को प्रेरित करेंगी. कोई नया काम नहीं था ये. भारत में बहुत सारी एनजीओ इस काम में लगी हुई हैं. बस हमारी एनजीओ भी इसमें थोड़ा योगदान देना चाहती थी.

अंजलि ने गाँव के सरपंच से बात करके एक व्यक्ति को हमारी मदद के लिए लगाया हुआ था. पवन नाम था उसका. तक़रीबन तीस साल का था वो. मगर ज्यादा मदद नहीं मिल रही थी हमें उस से. मोटा दिमाग था उसका. एक बात को कईं बार समझाना पड़ता था. फिर भी वो काम ठीक से नहीं कर पाता था. गुस्से में कईं बार डांट चुकी थी मैं उसे. एक बार झल्लाहट में उसे गधा भी बोल बैठी थी. लेकिन मज़बूरी थी. उसके अलावा कोई और नहीं था वहाँ हमारी मदद करने के लिए. इसलिए उसी से काम चलाना पड़ रहा था.
 
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Coquine_Guy

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एक से तीन बजे तक कम महिलाएँ आयीं हमारे टैंट में. लेकिन फिर भी हम बहुत व्यस्त रहे. मगर तीन से पाँच के बीच तो मेरी और अंजलि की हालत खराब हो गई. हमारा टैंट खचाखच भरा रहा इस वक़्त. शायद ये उन तोहफ़ों के कारण था जो हम महिलाओं को दे रहे थे. वैसे कोई अहसान नहीं कर रहे थे हम महिलाओं पर ये तोहफ़े देकर. ये तो उनका अधिकार था. उनके लिए ही तो हमारी एनजीओ को डोनेशन मिलती थी.

ख़ैर जब पाँच बजे हम फ़्री हुए तो मैंने और अंजलि ने राहत की साँस ली और हम अपनी-अपनी मंज़िल की तरफ़ जाने की तैयारी करने लगे. अंजलि आयी तो मेरे साथ थी मेरी कार में पटियाला से मगर वो वापिस पटियाला नहीं जा रही थी मेरे साथ. नज़दीक ही एक गाँव में उसकी मौसी रहती थी. वो सीधा अब सरपंच के साथ वहीं जा रही थी.
“तुम चली जाओगी ना? कोई दिक़्क़त तो नहीं होगी तुम्हें?” अंजलि ने पूछा.

“दिक़्क़त क्यों होगी? जिस रास्ते से तुम लायी थी उसी रास्ते से चली जाऊँगी,” मैंने हंसते हुए कहा. अंजलि दो बार पहले भी आ चुकी थी एनजीओ के काम से इस गाँव में. उसे यहाँ के रास्ते अच्छे से पता थे. आते वक़्त वही बता रही थी मुझे रास्ता. मुझे यक़ीन था कि मैं बिना किसी दिक़्क़त के उसी रास्ते से वापिस चली जाऊँगी. वैसे भी सिर्फ हाइवे तक की ही दिक़्क़त थी मुझे. उसके बाद तो रास्ता सीधा ही था.

“कविता भूल मत जाना मेरी बात. ऐसी ही सलवार क़मीज़ मेरे लिए भी लेनी है तुझे?”
“हाँ-हाँ बिलकुल,” मैंने हंसते हुए कहा. मैं संतरी क़मीज़ और बादामी सलवार पहने हुए थी. साथ में मेल खाता दुपट्टा भी था. ये सूट मैंने गाँव के कार्यक्रम के लिए ही ख़रीदा था. अंजलि ने बताया था मुझे की गाँव में औरतें ज़्यादातर सलवार-क़मीज़ ही पहनती हैं. इसलिए मैंने भी वही पहनना मुनासिब समझा ताकि गाँव की औरतें मेरे साथ सहज महसूस करें.
“सोमवार को मिलते हैं,” अंजलि मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोली.
“तुम वीकेंड पर गाँव में ही रुकोगी?” मैंने पूछा.

“अभी पक्का नहीं है कुछ भी. अगर मन लगा तो रुक जाऊँगी वरना कल सुबह पटियाला के लिए बस पकड़ लूँगी. चल अब चलती हूँ. मौसी मेरी राह देख रही होंगी. खेत खलियान देखने रास्ते में मत रुकना. सीधा चलती जाना. दिन रहते गाँव से निकल जाओगी तो ठीक रहेगा.”
मैं हँस पड़ी उसकी बात पर. आते वक़्त कार रोकी थी मैंने एक बार हरी भरी फसलों को ध्यान से देखने के लिए. शहर में कहाँ देखने को मिलती हैं ऐसी हरियाली. क़िस्मत ने जब ऐसा मौक़ा दिया था तो सोचा क्यों ना उसका फ़ायदा उठाया जाए. उसी का ताना मार रही थी अंजलि इस वक़्त.
“तू मेरी चिंता मत कर. पागल नहीं हूँ मैं कि अकेली रुक कर फसलों को निहारूँगी. वो तो तुम साथ थी इसलिए रुक गई थी आते वक्त. बाय...”
अंजलि मुस्कुरा दी मेरी बात पर और मुझे अलविदा कह कर सरपंच की कार मैं बैठ गई. मैंने भी तुरंत अपनी कार का दरवाजा खोला और चालक सीट पर बैठ कर इंजन शुरू कर दिया.
तभी पवन आया भागा-भागा और मेरी कार का शीशा थपथपाने लगा. मैंने शीशा नीचे किया और बोली, “क्या बात है पवन?”
“अंजलि मैडम कहाँ हैं?”
“वो चली गई... क्यों?”
“उन्होंने मुझे हज़ार रुपये कम दिए हैं. तीन हज़ार में बात हुई थी. मुझे बस दो हज़ार दिए उन्होंने.”

उस जैसे मुर्ख के लिए दो हज़ार भी ज्यादा थे. ऐसी कोई खास मदद नहीं मिली थी हमें उस से. मगर मैंने उसे ऐसा बोलना सही नहीं समझा गाँव से जाते वक्त. “देखो उस से फ़ोन पर बात कर लेना. मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती.”
“क्या बात कर रही हैं आप मैडम? मैं उनसे कहाँ बात करने जाऊँगा. आप दे दीजिये ना बाकी की पेमेंट,” वो गिडगिडाया.
मैंने फ़ोन निकला पर्स से अंजलि से बात करने के लिए. मगर फ़ोन में सिग्नल ही नहीं था. “देखो मुझे नहीं पता की क्या बात हुई थी तुम्हरी अंजलि से. तुम प्लीज उसी से बात करना.”
“ये तो ठगी है मैडम जी.”
“देखो मैं कुछ नहीं कर सकती. अंजलि से बात करना,” मैंने शीशा बंद करते हुए कहा. वो मेरी बात समझ ही नहीं रहा था. मैं और क्या करती?

कार का इंजन पहले से ही चालू था. मैंने हलकी से रेस दी और अगले ही पल मेरी स्विफ्ट डिजायर गाँव की उबड़ खाबड़ सड़क पर हिचकोले खाती हुई आगे बढ़ने लगी. महेश ने दो साल पहले मुझे जन्मदिन पर दी थी ये कार. खुश होकर मैंने भी अपने पैसों से उसे नई कार दिलवा दी थी. वो भी खुश और मैं भी खुश.
कोई पांच मिनट बाद मैं दोराहे पर असमंजस में पड गई. समझ में नहीं आया की किस तरफ जाऊँ. मैंने तुरंत फ़ोन निकाला अपने पर्स से अंजलि से बात करने के लिए. मगर फ़ोन में सिग्नल ही नहीं था. जब से गाँव में आए थे हम एक बार भी सिग्नल नहीं आया था फ़ोन में. पता नहीं क्या दिक्कत थी.
फोन को बाजू की सीट पर रख कर मैंने चारो तरफ नज़र दौड़ाई किसी से रास्ता पूछने के लिए मगर बच्चों के अलावा कोई नज़र नहीं आया. अब क्या किया जाए? मैं उधेड़बुन में फँस गई. इसी उधेड़बुन में मैंने कार बायें तरफ जा रहे रास्ते पर घुमा ली. मेरा दिल कह रहा था कि यही सही रास्ता था. दिल की आवाज के सहारे मैं आगे बढती गई.
कोई दस मिनट बाद मैंने गौर किया कि मैं एक सुनसान सड़क पर आगे बढे जा रही थी. सड़क के दोनों तरफ हरे भरे खेत थे मगर वैसे नहीं जैसे मैंने आते हुए देखे थे. आते वक्त मैंने एक भी सूरजमुखी की फसल नहीं देखी थी. मगर इस सड़क पर उनकी भरमार थी. और रास्ता भी सुनसान सा था. जिस रास्ते से अंजलि मुझे लाई थी उस पर तो चहल पहल थी.
हे भगवान गलत रास्ता पकड़ लिया था मैंने. ये क्या किया मैंने?

मैंने कार रोक दी और उसे वापिस मोड़ने की कोशिश करने लगी. खुद को सुनसान सड़क पर अकेला पाकर मैं इतना डरी हुई थी कि मैं कार का स्टीयरिंग ठीक से नहीं घुमा पा रही थी. और ना ही मेरे पाँव ठीक से एक्सेलरेटर और ब्रेक पर पड रहे थे. आनन-फानन में कार सड़क किनारे लगे एक पेड़ से टकरा गई. टक्कर तेज थी. होती भी क्यों ना? मेरे पाँव गलती से एक्सेलरेटर तेज दबा बैठे थे. मेरा सिर स्टीयरिंग पर टकराते-टकराते बचा.
मैंने तुरंत ब्रेक लगाई और इंजन को बंद किया. मगर तब तक जो होना था वो हो चुका था.
 

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‘हे भगवान... ये क्या कर रही हूँ मैं? क्यों बेवजह इतना डर रही हूँ?’ मैंने मन ही मन गहरी साँस लेते हुए खुद से कहा.
मैंने एक और गहरी साँस ली और इंजन को दुबारा स्टार्ट करने के लिए चाबी घुमाई. इंजन स्टार्ट नहीं हुआ.
मेरी तो साँस ही अटक गई. अब ये क्या नई मुसीबत थी? कार स्टार्ट क्यों नहीं हो रही थी? कहीं टक्कर के कारण कार में कोई खराबी तो नहीं आ गई थी? इस विचार से मैं सिर से पाँव तक काँप गई. ऐसा हुआ होगा तो मुसीबत हो जायेगी.
मैंने कांपते हाथ से चाबी दुबारा घुमाई. फिर वही हुआ. इंजन स्टार्ट नहीं हुआ. मैंने तुरंत बाजू की सीट पर पड़ा फ़ोन उठाया. उसमें अभी भी सिग्नल नहीं था. मैंने झुँझलाहट में फ़ोन वापिस सीट पर पटक दिया और चाबी को फिर से घुमाया.

कार तो शायद ज़िद पकड़ चुकी थी. स्टार्ट होने का नाम ही नहीं ले रही थी. जब मेरे हाथ चाबी घुमा-घुमा कर थक गए तो मैंने कोशिश करना छोड़ दिया और निराशा में स्टीयरिंग पर जोर से मुक्का मार कर अपनी झुँझलाहट कार को दिखाई. पर इस से कार को क्या फ़र्क़ पड़ने वाला था. उल्टा मेरे हाथ में हल्का सा दर्द हो गया.
‘शांत रहो कविता... शांत रहो... झुँझलाहट से कोई फ़ायदा नहीं होने वाला,’ मैंने मन ही मन ख़ुद से कहा.
मैं कुछ देर डरी सहमी कार में बैठी रही. और करती भी क्या? कोई और चारा भी तो नहीं था.

तभी मैंने ग़ौर किया कि दिन ढलने लगा था. थोड़ी ही देर में गाँव की उस सुनसान सड़क पर अंधेरा पसरने वाला था. मैं सिर से पाँव तक काँप गई और मैंने तुरंत चाबी घुमाई कार को स्टार्ट करने के लिए. फिर वही हुआ. इंजन में ज़रा भी हरकत नहीं हुई.
डरी सहमी मैं कार से बाहर निकली और चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई. अंधेरे में डूबती गाँव की वो कच्ची सड़क बहुत भयानक लग रही थी. मैं कांपती हुई कार के बोनट के पास पहुँची और उसे खोला. पता नहीं मैं क्या करना चाह रही थी. मुझे तो कार की मशीनरी के बारे में जरा भी जानकारी नहीं थी. ऐसे कैसे मुझे पता लगेगा की क्या ख़राबी थी कार में? मगर कुछ तो मुझे करना ही था. मैं हाथ पर हाथ रख कर भी तो नहीं बैठ सकती थी. मैंने ज़मीन पर पड़ी एक सूखी लकड़ी उठाई और उस से यहाँ वहाँ चोट की. ऐसा लग रहा था मुझे जैसे कि जादू की छड़ी घुमा रही थी मैं कार में. ये पागलपन करने के बाद मैं तुरंत कार में दाखिल हुई और कार स्टार्ट करने की कोशिश की. बेशर्म कार में ज़रा भी हरकत नहीं हुई.
हे भगवान अब क्या किया जाए? कैसे निकला जाए इस मुसीबत से? अंधेरा घना होता जा रहा था. ना तो मेरी कार स्टार्ट हो रही थी और ना ही मेरे फ़ोन में सिग्नल आ रहा था. अगर फ़ोन में सिग्नल आ जाता तो बात बन जाती. मैं किसी को मदद के लिए बुला लेती.

शुक्र है बड़ा चाँद निकल आया था आसमान में. उसके कारण हल्की रोशनी थी सड़क पर वरना बहुत ख़तरनाक माहौल बन जाता उस रास्ते पर.
मैंने गहरी साँस ली और मन ही मन सोचा कि क्या मुझे गाँव की तरफ़ जाना चाहिए? वहाँ ज़रूर कोई ना कोई मदद मिल जाएगी. मगर एक दिक़्क़त थी इस में. मैं गाँव से चार या पाँच किलोमीटर दूर थी उस वक़्त. सुनसान सड़क पर पैदल चलकर गाँव की तरफ वापिस जाना सुरक्षित नहीं था.
तभी मेरी नज़र सड़क पर मेरी और आते एक साए पर पड़ी. क्योंकि सड़क अब लगभग पूरी तरह अंधेरे में डूब चुकी थी इसलिए मैं ठीक से नहीं देख पा रही थी कि ये कोई जानवर था या इंसान.
 

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अगर जानवर हुआ तो कोई चिंता की बात नहीं मगर ये इंसान हुआ तो मैं किसी नई मुसीबत में फँस सकती थी. मेरा मन हुआ कि मैं कार से निकल कर खेतों में छुप जाऊँ. मगर अगले ही पल मुझे ध्यान आया की खेतों में सांप हो सकते हैं तो मैंने ये ख़्याल त्याग दिया.
साया थोड़ा नज़दीक आया तो साफ़ हो गया कि ये इंसान ही था. और वो पैदल नहीं बल्कि एक साइकिल पर सवार था और धीरे-धीरे मेरी तरफ़ बढ़ा आ रहा था. उसकी साइकिल के पीछे एक बोरी रखी हुई थी. मैंने कार के दरवाज़े लॉक कर दिए और अपने पर्स से डिओडरंट निकाल कर हाथ में पकड़ लिया कस कर. अगर इस आदमी ने मुझसे ज़ोर ज़बरदस्ती करने की कोशिश की तो मैं उसकी आँखों में ये डिओडरंट स्प्रे कर दूँगी. मगर शायद इस सब की नौबत ना आए. हो सकता है ये आदमी सीधा निकल जाए. अगर नौबत आयी तो मैं उसके लिए तैयार थी. मगर सिर्फ़ ऊपरी तौर पर. डर के मारे मेरा बुरा हाल था. हाथ पाँव थर थर कांप रहे थे मेरे. और ये वाजिब भी था. मैं अकेली थी सुनसान सड़क पर. कोई भी मेरे साथ कुछ भी कर सकता था उस वक्त.

जैसी मैं उम्मीद कर रही थी वैसा नहीं हुआ. साइकिल सवार मेरी कार के पास आकर रुक गया. शायद उसे दूर से ही भनक लग गई थी कि कार में एक अकेली महिला बैठी है. तभी तो वो बिना किसी झिझक के कार के पास रुक गया.
हे भगवान... अब क्या होगा?
मैंने उसे ग़ौर से देखा. मैं उसके चेहरे से उसके चरित्र का अंदाज़ा लगाना चाहती थी. वह कोई आदमी नहीं बल्कि लड़का था. यही कोई बीस या इक्कीस साल का. एक मैली सी क़मीज़ और पैंट पहने हुआ था वो. पूरा देहाती दिख रहा था, जो कि स्वाभाविक था. वो था ही गाँव वाला. मगर एक बात थी. लड़का बहुत स्मार्ट था. अगर सूट-बूट पहन कर सामने आए तो आँखें फटी रह जाएं लोगो की. एक पल को तो मैं भी उसके सुन्दर रूप में खो गई थी. मगर मैंने तुरंत ही खुद को संभाल लिया और उसके व्यक्तित्व का अंदाजा लगाने में लग गई. उसकी शक्ल और सूरत से ऐसा नहीं लग रहा था कि किसी तरह का ख़तरा होगा मुझे उस से. मगर आदमी जात का कोई भरोसा नहीं. उमर में बेशक वो बीस या इक्कीस का था मगर था तो वो आदमी ही. इसलिए मैं चुपचाप डिओडरंट हाथ में लिए कार में ही बैठी रही. मन तो हो रहा था मेरा कि दरवाज़ा खोल कर उस से मदद मांगू मगर जिस तरह वो कार के पास खड़ा मुझे घूर रहा था उस से मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी ऐसा करने की. ऐसा लग रहा था जैसे कि वो मन ही मन कोई साजिश रच रहा हो मेरे ख़िलाफ़.
मैंने फिर से उसकी तरफ़ नज़र घुमाई. वो वाक़ई किसी सोच विचार में डूबा हुआ था. एक पल को ऐसा लगा मुझे जैसे कि वो मुझे कार से बाहर निकालने की तरकीब सोच रहा हो ताकी वो अपनी मनमर्ज़ी कर सके.

मैं सिहर उठी.
अगले ही पल वो साइकिल से उतरा और उसे खड़ा करके मेरी कार की तरफ़ बढ़ने लगा. मेरी साँसें तेज हो गई. दिल भी ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा.
हे भगवान ये लड़का क्यों आ रहा था इस तरह मेरी तरफ़?


क्यों?
 
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मैं हाथ में डिओडरंट इस तरह पकड़े बैठी थी कार में जैसे कि वो हर ख़तरे में मेरी मदद करेगा. लेकिन मैं जानती थी कि अगर बात बिगड़ी तो ये छोटा सा हथियार किसी काम नहीं आएगा. अगर स्प्रे पहली बार में इस लड़के की आँखों में नहीं डला तो वो चौकन्ना हो जाएगा और मुझे दुबारा मौक़ा नहीं देगा.
लड़का कार के पास आकर रुक गया और शीशा थपथपा कर बोला, “क्या हुआ मैडम?”
हालाँकि कार का शीशा बंद था मगर फिर भी उसकी आवाज़ साफ़ सुनाई दी मुझे. ये उस सन्नाटे के कारण था जो कि उस सड़क पर पसरा हुआ था.


“कुछ नहीं हुआ... तुम जाओ यहाँ से,” मैं ज़ोर से चिल्लायी.
“जा रहा हूँ... जा रहा हूँ... चिल्ला क्यों रही हो,” लड़का पीछे हटते हुए बोला.
उसे वापिस जाता देख मैंने राहत की साँस ली. जब वो साइकिल पर चढ़ गया तो मुझे लगा की शायद मैं मदद मिलने का एक मौक़ा गँवा रही हूँ. उस सुनसान सड़क पर मैं ऐसे कार में कब तक बैठी रहूँगी? घर पर महेश मेरी चिंता कर रहा होगा. ये पहला इंसान मिला था मुझे उस सड़क पर. उसे भी मैंने जाने दिया तो पता नहीं कोई और आएगा या नहीं.
जब लड़का साइकिल में पैडल मार कर आगे बढ़ने लगा तो मैंने तुरंत कार का दरवाज़ा खोला और बोली, “सुनो मेरी कार ख़राब हो गई है. क्या तुम किसी मैकेनिक को भेज सकते हो देखने के लिए?”
लड़का तुरंत रुक गया और बोला, “क्या हुआ है तेरी कार में? किसी ने टक्कर वक्कर मार दी है क्या?”
“ये पेड़ से टकरा गई थी... उसके बाद स्टार्ट नहीं हो रही.”
“आती नहीं क्या कार चलानी तुझे?”
“वो सब छोड़ो... तुम प्लीज़ किसी मैकेनिक को भेज दो.”
लड़का कुछ देर चुपचाप साइकिल पर सवार हुए कुछ सोच विचार करता रहा. फिर वो बोला, “मैं किसी काम से जा रहा हूँ. अभी वक़्त नहीं है मैकेनिक के पास जाने का.”
मैंने गहरी साँस ली और बोली, “यहाँ फ़ोन काम नहीं करता क्या?”

“हाँ फ़ोन की दिक़्क़त चल रही है एक महीने से. वरना तो फ़ोन करके मैकेनिक को बुला लेता.”
“प्लीज़ मेरी मदद करो. मुझे हर हाल में पटियाला पहुँचना है.”
“पटियाला से है क्या तू?”
वो ऐसे तू तड़ाक कर रहा था मुझसे जैसे कि वर्षों से जानता हो मुझे. इस लड़के का शायद यही अन्दाज़ था. आज गाँव में मैंने किसी को ऐसे बात करते नहीं देखा था. गाँव का सरपंच भी बड़े सलीके से बात कर रहा था मुझसे. पर मैं मजबूर थी ऐसा बर्ताव सहने के लिए. ये लड़का ही तो उस वक़्त मेरी एक मात्र उम्मीद थी.
“हाँ मैं पटियाला से हूँ...” मैंने कहा.
 
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“मदद तो मैं तुम्हारी कर दूँगा. पर बदले में मुझे क्या मिलेगा?”
“अगर तुम किसी मैकेनिक को ले आए तो मैं तुम्हें पाँच सो रुपए दूँगी...”
“पैसे नहीं चाहिए मुझे... कुछ और दे सकती है तो बात कर.”
“कुछ और क्या चाहिए तुम्हें?” मैंने पूछा. दरअसल मैं समझ नहीं पाई थी उसकी बात. लेकिन अगले ही पल मैं समझ गई और मेरा चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया. “शर्म नहीं आती तुम्हें ऐसी बात करते हुए. मैं तुमसे मदद माँग रही हूँ और तुम ऐसी औछी बात कर रहे हो.”
“क्या बुरा है इसमें... तू मुझसे कुछ माँग रही है. सब काम छोड़ कर मुझे तेरे काम में लगना पड़ेगा. बदले में मुझे भी तो कुछ चाहिए.”
“ज़रूरत में किसी की मदद करना पुण्य का काम होता है.”
“मेरे बदन की आग बुझा कर जो तू मेरी मदद करेगी वो भी तो पुण्य का काम ही होगा.”

“छी... शर्म करो... कैसी बातें करते हो. दफ़ा हो जाओ यहाँ से.”
“सोच ले. मैं शरीफ़ लड़का हूँ. कोई बदमाश आ गया यहाँ तो तेरी ऐसी तैसी कर देगा.”
“चल भाग यहाँ से. बेवक़ूफ़ कहीं का...” मैंने चिल्ला कर दरवाज़ा बंद कर लिया. मगर उसकी ये बात कि कोई बदमाश आ गया यहाँ तो मेरी ऐसी तैसी कर देगा... मेरे मन में घूमती रही. जो वो कह रहा था वैसा होना कोई असंभव नहीं था. अकेली महिला को देखकर कोई भी इंसान से शैतान बन सकता था.
मैंने डरी सहमी आँखों से सड़क के दोनो तरफ़ नज़र दौड़ायी. अभी तो कोई नज़र नहीं आ रहा था. तभी मैंने ग़ौर किया कि वो बदतमीज़ लड़का अभी गया नहीं था. वो अपनी साइकिल को सड़क किनारे खड़ी करके एक पेड़ के सहारे खड़ा मेरी कार की तरफ़ देख रहा था. बड़ा अजीब लड़का था वो. अभी तो कह रहा था कि उसे कोई काम था और अब वहां खड़ा वक़्त बरबाद कर रहा था. खड़ा रहने दो...मुझे क्या... मैं उसकी बात मानने वाली नहीं थी.
वक़्त बितता गया. मैं कार में बैठी रही और वो लड़का भी पेड़ से सटे खड़ा रहा. कोई तीस मिनट बाद उसने अंगड़ाई ली और अपनी साइकिल की तरफ़ बढ़ा. शायद वो अब जाने की तैयारी कर रहा था.

जैसे ही वो साइकिल पर चढ़ा मैं सिहर उठी और मुझे अहसास हुआ की उसके वहाँ होने से मैं थोड़ा कम भयभीत थी. वो चला गया तो उस अंधेरी सुनसान सड़क पर एक पल भी बिताना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन मैं कर क्या सकती थी? मैं उसे रुकने को तो बोल नहीं सकती थी.
जब वो पैडल मार कर आगे बढ़ने लगा तो मुझे ख़्याल आया कि क्यों ना मैं उसकी बात मानने के लिए राज़ी हो जाऊँ. सच में नहीं. झूट मूठ में. मैं उसे बोलूँगी कि पहले कार ठीक करवाओ और फिर जो उसका मन है वो हो जाएगा. एक बार कार ठीक हो गई तो मैं अपने रास्ते और वो अपने रास्ते.
मुसीबत से निकलने का ये ख़्याल सही तो मालूम हो रहा था मगर क्या ऐसा करना ठीक होगा? बात उल्टी पड़ गई तो?
पर ये सब सोचने का वक़्त नहीं था. लड़का दूर जाता जा रहा था. मुमकिन था कि कोई और उस रास्ते पर ना आए
उस रास्ते पर ना आए और आए भी तो वो वैसा बदमाश हो जैसा ये लड़का कह रहा था.

मैं सिहर उठी और दरवाज़ा खोल कर कार से बाहर निकली तुरंत. “हे रुको,” मैं ज़ोर से चिल्लायी. सुनसान सड़क पर मेरी आवाज़ हर तरफ़ गूंज गई.
वो रुक गया. “क्या है?” वो चिल्लाया.
“मुझे तुम्हारी बात मंज़ूर है,” मैं बोली.
“सच?” वो झूमती आवाज़ में बोला और साइकिल घुमा कर वापिस आने लगा. मैं कार में घूस गई और दरवाज़ा थोड़ा खुला रखा ताकि जब वो पास आए तो मैं उस से ठीक से बात कर सकूँ.
जब वो मेरी कार से लगभग पंद्रह कदम की दूरी पर आ गया तो मैं बोली, “वहीं रुक जाओ.”
वो रुक गया और साइकिल को खड़ी करके बोला, “जब तुझे मेरी बात मंज़ूर है तो दूर क्यों रख रही है तू मुझे?”
“पहले तुम मेरी कार ठीक करवाओगे उसके बाद जो तुम चाहोगे वो होगा,” मैंने कहा.
“तू जानती है ना कि मैं क्या चाहता हूँ?”
“हाँ-हाँ जानती हूँ,” मैंने बात को टालते हुए कहा.

मगर वो इसे टालने के मूड में नहीं था. उसने बाएँ हाथ के अंगूठे और तर्जनी उँगली को जोड़ कर एक बड़ा गोल छेद बनाया और उसमें दूसरे हाथ की तर्जनी उँगली अंदर बाहर करने लगा. “मैं ये चाहता हूँ,” वो हंसते हुए बोला.
मेरे गाल शरम से लाल हो गए. “शरम करो... ये क्या कर रहे हो?”
“वही जो मैंने तेरे साथ करना है,” वो हंसते हुए बोला. बड़ी गंदी सी हंसी थी उसकी. और इस से भी ज़्यादा गंदी उसकी ये हरकत थी जो वो लगातार किए जा रहा था. बार बार अपने दाएँ हाथ की तर्जनी उँगली को उस गोल छेद में अंदर बाहर कर रहा था जो कि उसने बाएँ हाथ से बना रखा था.
“ये सब बंद करो और किसी मैकेनिक को ले आओ जल्दी से,” मैं बोली. उसकी गंदी हरकत मुझे असहज कर रही थी.
“तू भी चल मेरे साथ,” वो बोला.
“नहीं तुम जाओ मैं यहीं कार में ही इंतजार करूँगी.”
“यहाँ अकेले रुकना ठीक नहीं तेरा. चल मेरे साथ. मैकेनिक से मोल भाव भी कर लेना.”
“वो जो माँगेगा दे दूँगी... उसकी चिंता नहीं है.”
“लगता है बहुत पैसे वाली है तू.”
“फ़ालतू की बातें मत करो और जल्दी लेकर आओ किसी मैकेनिक को.”
“मेरी बात मान...” वो आगे बढ़ता हुआ बोला.
“वहीं रुको... आगे मत आओ...”
“डर क्यों रही है. पास आकर खा नहीं जाऊँगा तुझे...”
 
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“तुम मेरे पास नहीं आओगे...”
“अरे अगर तू पास नहीं आने देगी तो वो सब कैसे होगा जो मैं चाहता हूँ.”
“तुम्हें समझ नहीं आयी मेरी बात शायद. पहले कार ठीक करवाओ मेरी. उसके बाद बाक़ी की बातें होंगी.”
“हाँ वो सब ठीक है मगर जिस तरह तू मुझे दूर रख रही है मुझे शक हो रहा है कि तू वो सब करने देगी भी या नहीं.”
दिमाग़ तो उसका सही दिशा में घुम रहा था. चालाक था लड़का.
“नहीं-नहीं ऐसा कुछ नहीं है. जैसा तुम कहोगे वैसा होगा... एक बार कार तो ठीक करवाओ,” मैं मुस्कुराते हुए बोली.
“पक्का?”
“हाँ-हाँ पक्का...”

“चल फिर कार से निकल कर हाथ मिला मुझसे तभी सौदा पक्का समझूँगा,” वो हाथ आगे बढ़ाते हुए बोला.
“अरे उसकी कोई ज़रूरत नहीं है. मैं बोल रही हूँ ना कि जो तुम चाहोगे वो होगा... फिर हाथ मिलाने की क्या ज़रूरत है?”
“ज़रूरत है मैडम... बाहर आकर हाथ मिलाओ मुझसे वरना मैं कोई मदद वदत नहीं करने वाला.”
“देखो मैं थोड़ा थकी हुई हूँ... इसलिए कार में बैठी हूँ.”
“मैं आ जाता हूँ तेरे पास हाथ मिलाने... इसमें क्या दिक़्क़त है.”
“नहीं तुम वहीं रुको,” मैं चिल्लायी.
“तू पक्का मुझे धोखा देगी. जब तू मेरे पे विश्वास नहीं कर रही तो मैं क्यों तेरे पे विश्वास करूँ?”
“ऐसा नहीं है. मुझे तुम पे विश्वास है.”
“हाथ मिलाने से क्यों डर रही है तू फिर? चल बाहर आ और हाथ मिला कर सौदा पक्का कर.”
मैं असमंजस में पड़ गई. क्या करूँ अब? वो तो मेरी बात मान ही नहीं रहा था. हाथ मिलाने पर अड़ा हुआ था. अगर मैं बाहर निकली कार से और उसने मुझे दबोच लिया तो मैं क्या करूँगी? कोई नहीं था मुझे वहाँ बचाने वाला.
लेकिन मेरे पास कोई ज़्यादा विकल्प नहीं थे. मुझे उसकी मदद चाहिए थी. और उसके लिए मुझे उसे विश्वास दिलाने की ज़रूरत थी कि जो वो चाहेगा वो होगा बस एक बार वो मेरी मदद तो करे.


मैंने गहरी साँस ली और बोली, “ठीक है मैं आ रही हूँ बाहर तुमसे हाथ मिलाने.”
“ये हुई ना बात... जल्दी आ,” वो मुस्कुराते हुए बोला.
मैंने डिओडरंट को दाएँ हाथ में कस कर पकड़ा, हाथ पीठ के पीछे ले गई और दरवाज़ा खोल कर बाहर निकली. डर तो बहुत लग रहा था मुझे मगर मैं लाचार थी.
“रुक क्यों गई... आ ना मेरे पास,” वो बोला.
“तुम आओ ना इधर,” मैंने जवाब दिया.
“चल ठीक है... मैं आता हूँ,” वो मेरी तरफ़ बढ़ते हुए बोला.
 
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मेरी साँसें थम गई. दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा. ये जानते हुए भी कि मैं डरी हुई हूँ उस से वो एक मदमस्त हाथी की तरह मेरी तरफ़ बढ़ा आ रहा था. ऐसा लग रहा था मुझे कि वो मेरे क़रीब आकर मुझे दबोच लेगा और फिर अपनी मनमर्ज़ी करेगा. चालाक था लड़का. ऐसा बिलकुल कर सकता था. इस से उसका वक़्त भी बचेगा और उसका काम भी हो जाएगा.
मैं थर-थर काँपने लगी. मेरा मन हो रहा था कि वापिस कार में घुस जाऊँ. मगर मैं खड़ी रही.
मुझसे लगभग दो कदम की दूरी पर वो रुक गया. उसकी नज़रें मेरे चेहरे पर टिकी हुई थी. चाँद की रोशनी में उसकी हल्की सी मुस्कान साफ़ दिखाई दे रही थी. वो भी चाँद की रोशनी में मुझे अच्छे से देख पा रहा था.


“मिलाने वाला हाथ तो तूने पीछे छिपा रखा है,” वो बोला.
“मैं लेफ़्टी हूँ,” मैंने बायाँ हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा.
उसने अपने बाएँ हाथ में मेरा हाथ जकड़ लिया. मैं सर से पाँव तक कांप गई. जिस तरह से उसने मेरे हाथ पर पकड़ बनाई थी उस से ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कि मेरा हाथ उसकी पकड़ से कभी नहीं निकलेगा.
“बहुत मुलायम हाथ है तेरा. लगता है ज़्यादा काम वाम नहीं करती तू.”
“मैं-मैं काम करती हूँ,” मैं हकलाते हुए बोली.
“घर के काम करती है तू?”
“नहीं घर के काम कामवाली करती है.”
“तभी तो इतने मुलायम हाथ हैं तेरे.”
“तुम जाओ ना अब. जल्दी से मैकेनिक को ले आओ.”
“मेरी बात मान तू मेरे साथ चल. यहाँ सुनसान सड़क पर तेरा अकेले रहना ठीक नहीं...”
“तुम मेरी चिंता मत करो. मैं कार में बैठी रहूँगी...”


“जैसी तेरी मरजी... समझाना मेरा फ़र्ज़ था. एक से डेढ़ घंटा लगेगा मुझे. अगर तुझे कोई दिक़्क़त नहीं है तो ठीक है.”
“म-मुझे कोई दिक़्क़त नहीं होगी तुम जाओ.”
“तो सौदा पक्का अपना,” उसने मेरा हाथ दबाते हुए कहा.
“हाँ-हाँ पक्का है. तुम एक बार ये काम करो. उसके बाद जो तुम चाहोगे वो होगा.”
“जो मैं चाहता हूँ वो तो तू जानती ही है,” वो गंदे तरीक़े से मुस्कुराते हुए बोला.
“जानती हूँ... तुम जाओ अब.”
“एक बार फिर सोच ले. तुम्हारा यहाँ अकेले रहना ठीक नहीं.”
“तुम मेरी चिंता मत करो और जाओ जल्दी.”
उसने मेरा हाथ ज़ोर से दबाया. एक पल को मुझे लगा कि वो मुझे ज़ोर से अपनी तरफ़ खींचेगा और मुझे अपनी बाहों में जकड़ लेगा. मैं सिहर उठी और डिओडरंट पर उँगलियाँ कस दी. मैं तैयार थी उसकी आँखों में उसे स्प्रे करने के लिए.
मगर अगले ही पल वो मेरा हाथ छोड़ कर पीछे हट गया.
 
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मैंने राहत की साँस ली. एक पल को मुझे यक़ीन नहीं हुआ कि वो मुझसे पीछे हट रहा था.
“मैं आता हूँ मैकेनिक को लेकर जल्दी. फिर हम दोनो ख़ूब मज़े करेंगे.”
“बिलकुल... जल्दी आना तुम वापिस ठीक है.”
“सौदा पक्का है अपना...?” वो साइकिल पर चढ़ते हुए बोला.
“बिलकुल पक्का है. जाओ अब...”
वो पैडल मार कर आगे बढ़ गया. जब वो थोड़ी दूर निकल गया तो मुझे डर सताने लगा. अंधेरी सड़क पर पसरा सन्नाटा मेरे दिल की धड़कन बढ़ाने लगा. मैं दरवाज़ा खोल कर कार में घुस गई मगर डर से राहत नहीं मिली. वो लड़का ठीक कह रहा था शायद. मुझे उसके साथ निकल जाना चाहिए था. बुरा लड़का नहीं था वो. उसके पास मौक़ा था मेरे साथ कुछ भी करने का जब मैं उसके साथ खड़ी थी. मगर वो चुपचाप मैकेनिक को बुलाने चला गया. जब उसने यहाँ कुछ ग़लत नहीं किया तो वो रास्ते में भी ग़लत नहीं करेगा.
मैंने पर्स उठाया, डिओडरंट उसमें डाला और तुरंत दरवाज़ा खोल कर कार से बाहर निकली. सुनसान सड़क पर दूर जाता हुआ हल्का सा साया दिखाई दे रहा था. वो लड़का बहुत दूर निकल गया था.
“हे रुको,” मैं ज़ोर से चिल्लायी और दौड़ पड़ी. “मैं भी आ रही हूँ.”
शायद मेरी आवाज़ उस तक पहुँच गई. वो रुक गया और मुड़ कर मेरी तरफ़ आने लगा. मैंने अपनी रफ़्तार घटा दी और तेज कदमों से आगे बढ़ती रही. ज़्यादा नहीं दौड़ी थी मैं मगर फिर भी मेरी साँसें उखड़ी हुई थी.
कोई दो मिनट बाद वो मेरे क़रीब पहुँच गया.
“मेरे साथ चलेगी?”
“हाँ... मैंने सोचा यहाँ अकेले क्या करूँगी मैं. तुम्हारी बात ठीक लगी मुझे. मैं साथ रहूँगी तुम्हारे तो मैकेनिक से मोल भाव भी कर लूँगी.”
“वही तो मैं कह रहा था. अच्छा हुआ कि तूने मेरी बात मान ली. वैसे भी तेरा यहाँ रुकना ठीक नहीं था. चल बैठ आगे,” वो साइकिल के बाएँ हैंडल से हाथ हटाते हुए बोला.
“आगे?”
“और नहीं तो क्या. देख नहीं रही पीछे बोरी रखी है. तुझे आगे ही बैठना पड़ेगा.”
“बोरी आगे रख लो ना,” मैंने सुझाव दिया.
“अरे बोरी आगे कैसे टिकेगी पाइप पे. चल जल्दी से बैठ. ज़्यादा देर मत कर. तेरी मदद के अलावा भी मुझे बहुत काम हैं. तेरे चक्कर में ही लगा रहूँगा तो बाक़ी के कामों का क्या होगा?”
 
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