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Incest माँ और बेटा: एक उम्मीद

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allelboss

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Main ek novel likh raha hoon jo, mujhe lagta hai, aapko pasand aayegi. Kaafi kuch likh chuka hoon ab tak, lekin abhi tak main kisi se share nahi kar raha tha. Pata nahi, mujhe lagta hai ki har chapter update karke batana sahi nahi hota—main chahata hoon pehle pura likhun, uske baad hi logon ko dikhana.


Yeh story kaafi emotional hai—gaon ke ek maa aur uske bete ki, jo saath milke mushkilon se ladte hain. Har chapter mein unki struggle, sacrifice aur unka rishta aur gehra hota jata hai. Main ab tak kayi chapters likh chuka hoon, aur socha ki ab ek saath share kar deta hoon, taaki aapko poori kahani ka flow samajh aaye.


Toh yeh raha ek glimpse mere likhe huye chapters ka. Agar pasand aaye, toh zaroor batana. Aapke thoughts se mujhe aage likhne ka motivation milega.
 

allelboss

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सूरज की पहली किरणें जब गाँव के ऊपर बिखरीं, तो ऐसा लगा मानो प्रकृति ने सुनहरी चादर ओढ़ ली हो। हिमाचल के इस छोटे से गाँव, सूरजपुर, में सुबह की हवा में ठंडक थी, और खेतों से उठती मिट्टी की सौंधी खुशबू हर सांस के साथ दिल को छू रही थी। गाँव की गलियाँ अभी शांत थीं, बस दूर कहीं भैंसों की घंटियाँ और सुबह की प्रार्थना के लिए मंदिर की घंटी की आवाज़ गूँज रही थी। लेकिन इस शांति के पीछे, एक घर में जिंदगी की जद्दोजहद अपनी कहानी बुन रही थी। ये कहानी है कमला, रवि और उनके परिवार की, जिसे मैं, रवि, अपने शब्दों में बयान कर रहा हूँ। ये मेरी माँ की कहानी है, मेरे गाँव की, और उस प्यार की, जो हमें हर तूफान में एक साथ बाँधे रखता है।

सूरजपुर कोई बड़ा गाँव नहीं था। चारों तरफ हरे-भरे खेत, बीच में एक छोटा सा तालाब, और उस पार बनी माता रानी की मंदिर। गाँव के लोग सादगी से जीते थे। कोई खेती करता, कोई दुकान चलाता, तो कोई पास के शहर में मजदूरी के लिए जाता। हमारे घर की बात करें, तो वो गाँव के आखिरी छोर पर था। मिट्टी का बना वो छोटा सा घर, जिसकी दीवारों पर बारिश के दाग थे और छत पर टीन की चादरें। लेकिन उस घर में जो गर्मजोशी थी, वो किसी महल से कम नहीं। मेरी माँ, कमला, इस घर की जान थी।

माँ, उम्र होगी कोई 45 की, लेकिन चेहरा ऐसा कि लगता था जैसे वक्त ने उनकी मुस्कान को छूने की हिम्मत ही नहीं की। लंबी चोटी, साड़ी का पल्लू कमर में खोंसा हुआ, और आँखों में एक ऐसी चमक जो मुसीबतों को भी चुनौती देती थी। माँ गाँव में दूसरों के खेतों में काम करती थी। दिनभर धूप में हल चलाना, फसल काटना, और फिर घर लौटकर हमारे लिए रोटी बनाना। उनकी उंगलियों में खेतों की मिट्टी बसी थी, और उनके दिल में बस हमारी चिंता।

मैं, रवि, 20 साल का हूँ। गाँव से 30 किलोमीटर दूर शहर के कॉलेज में पढ़ता हूँ। माँ का सपना है कि मैं एक दिन बड़ा आदमी बनूँ, शायद कोई अफसर। लेकिन मैं जानता हूँ, ये सपना माँ का नहीं, उनका बलिदान है। हर दिन बस का किराया, किताबें, और कॉलेज की फीस—ये सब माँ की मेहनत की कमाई से आता है। और फिर है मेरे पिता, मोहन। उनके बारे में बात करना मेरे लिए आसान नहीं। वो गाँव के शराबी के नाम से जाने जाते हैं। कभी खेतों में मजदूरी करते थे, लेकिन अब उनकी जिंदगी बस बोतल के इर्द-गिर्द घूमती है। पिछले हफ्ते ही उन्होंने माँ की मेहनत की आखिरी 500 रुपये की कमाई शराब में उड़ा दी।

सुबह की शुरुआत
उस सुबह, जब मैं उठा, तो माँ पहले ही रसोई में थी। रसोई कहना भी शायद गलत है—बस एक कोने में मिट्टी का चूल्हा और कुछ बर्तन। माँ ने आटे की छोटी सी लोई बनाई थी, और उससे दो रोटियाँ सेंक रही थी। मैंने देखा, माँ ने अपने लिए कुछ नहीं बनाया। "माँ, तुम नहीं खाओगी?" मैंने पूछा। माँ ने मुस्कुराकर कहा, "बेटा, मुझे भूख नहीं। तू खा ले, कॉलेज के लिए ताकत चाहिए।" लेकिन उनकी आँखों में वो सच छिपा था, जो मैं समझ गया। घर में आटा बस दो रोटियों जितना ही बचा था।

मैंने रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा और माँ की तरफ बढ़ाया। "नहीं, रवि, तू खा," माँ ने मेरी कलाई पकड़कर कहा। उनकी आवाज़ में सख्ती थी, लेकिन आँखें नम थीं। मैंने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप रोटी खाई। हर कौर के साथ मेरे गले में कुछ अटक रहा था—शायद भूख से ज्यादा माँ का प्यार।

खाना खाने के बाद, मैं कॉलेज के लिए तैयार होने लगा। मेरा बैग पुराना था, टाँके उधड़ चुके थे, लेकिन माँ ने उसे रात को सिल दिया था। मैंने देखा, माँ ने चुपके से मेरी जेब में एक मुड़ा हुआ 20 रुपये का नोट डाल दिया। "बस का किराया," माँ ने धीरे से कहा। मैंने उनकी आँखों में देखा। वो आँखें, जो भूख से खाली थीं, लेकिन प्यार से भरी हुई। मैंने कुछ कहना चाहा, लेकिन माँ ने मेरी बात काट दी, "जा, रवि। देर मत कर।" मैंने उनका हाथ पकड़ा और धीरे से दबाया। शब्दों की जरूरत नहीं थी; हमारी चुप्पी में सब कुछ कहा जा चुका था।


सूरजपुर के लोग भी इस कहानी का हिस्सा हैं। शर्मा जी, जो गाँव की छोटी सी किराने की दुकान चलाते हैं। उनकी दुकान पर आटा, चावल, और चाय की पत्ती उधार मिलती है, लेकिन माँ को उधार लेना पसंद नहीं। फिर है रमेश चाचा, जो खेतों में माँ के साथ काम करते हैं। उनकी हँसी इतनी जोरदार है कि खेतों में गूँजती है। और हाँ, गीता दीदी, जो मेरे साथ कॉलेज जाती है। वो गाँव की पहली लड़की है, जो ग्रेजुएशन कर रही है। उसका सपना है टीचर बनना, और वो मुझे हमेशा पढ़ाई में मदद करती है।


उस सुबह, जब मैं बस स्टॉप की ओर चल रहा था, तो मन में एक अजीब सी बेचैनी थी। माँ की भूख, पिताजी की शराब, और मेरे कॉलेज का खर्च—सब कुछ एक बोझ की तरह था। लेकिन माँ की वो मुस्कान, वो 20 रुपये का नोट, और उनकी आँखों का विश्वास, मुझे हिम्मत दे रहा था। मैंने ठान लिया था कि एक दिन मैं माँ को इस जिंदगी से निकालूँगा। ये गाँव, ये खेत, ये मुसीबतें—सब कुछ पीछे छूटेगा।

बस में बैठकर मैंने खिड़की से बाहर देखा। सूरज अब पूरी तरह निकल चुका था, और गाँव की सुबह अपने पूरे रंग में थी। लेकिन मेरे लिए, असली रंग माँ की मुस्कान थी, जो मुझे हर कदम पर आगे बढ़ने की ताकत देती थी।


सूरजपुर की उस सुबह के बाद, जब मैं बस में बैठकर कॉलेज के लिए निकला था, मेरे मन में माँ की मुस्कान और वो 20 रुपये का नोट बार-बार घूम रहा था। माँ की भूख, पिताजी की शराबखोरी, और मेरी पढ़ाई का बोझ—सब कुछ एक साथ मेरे कंधों पर था। लेकिन उस दिन कुछ अलग होने वाला था। माँ ने सुबह चुपके से मेरे कान में फुसफुसाया था, "रवि, इस हफ्ते की मजदूरी मिली है। शनिवार को शहर चलेंगे, कुछ सामान लाना है।" उनकी आँखों में चमक थी, और मैंने देखा कि वो चमक सिर्फ सामान की खरीदारी की नहीं थी—वो मेरे साथ वक्त बिताने की खुशी थी।

शनिवार की सुबह गाँव में कुछ खास होती है। सूरजपुर में लोग खेतों में जल्दी नहीं जाते, बल्कि चाय की चुस्कियों और गपशप में समय बिताते हैं। मैं सुबह-सुबह उठा तो देखा माँ पहले से तैयार थी। उनकी साड़ी, जो हमेशा खेतों की मिट्टी से सनी रहती थी, आज साफ थी। नीली साड़ी में लाल किनारा, और उस पर माँ की वो मुस्कान—लग रहा था जैसे वो कोई त्योहार मनाने जा रही हों। "क्या हुआ, माँ? आज तो बिल्कुल रानी लग रही हो!" मैंने हँसते हुए कहा। माँ ने मेरी तरफ देखा और हल्के से मेरे सिर पर चपत लगाई, "चल, बकवास मत कर। बस तैयार हो जा, देर हो रही है।"

माँ ने अपने पुराने थैले में कुछ रुपये गिनकर रखे थे। "कितने हैं, माँ?" मैंने पूछा। "बस, इतने कि तेरा कॉलेज का सामान और घर का राशन आ जाए," माँ ने जवाब दिया, लेकिन उनकी आवाज़ में वो आत्मविश्वास था जो मुझे हमेशा हिम्मत देता था। मैंने अपना बैग उठाया, जिसमें मेरी कॉलेज की किताबें थीं, और हम दोनों बस स्टॉप की ओर चल पड़े। रास्ते में रमेश चाचा मिले, जो अपने बैलगाड़ी को खेत की ओर ले जा रहे थे। "कमला, कहाँ चली?" चाचा ने अपनी जोरदार हँसी के साथ पूछा। "शहर, चाचा! रवि के लिए कुछ सामान लेना है," माँ ने जवाब दिया। "अच्छा, लौटते वक्त मेरे लिए भी एक पाव चाय की पत्ती ले आना!" चाचा ने हँसते हुए कहा, और हम भी हँस पड़े।

बस स्टॉप पर भीड़ थी, लेकिन माँ ने अपनी जगह बना ली। हमारी बस, जो शहर के लिए जाती थी, पुरानी थी। सीटें टूटी हुई, खिड़कियाँ खटखटाती हुई, और ड्राइवर साहब का रेडियो जोर-जोर से पुराने गाने बजा रहा था। "ये गाना तो मेरे जवानी का है!" माँ ने हँसते हुए कहा, और मैंने देखा कि वो गुनगुनाने लगीं। मैंने मजाक में कहा, "माँ, तुम तो अभी भी जवान हो!" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "हाँ, और तू अभी भी बच्चा है!" हम दोनों हँस पड़े, और बस की वो खटारा सवारी भी मजेदार लगने लगी।

रास्ते में खेत, पहाड़, और छोटे-छोटे गाँव दिख रहे थे। माँ ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा, "देख, रवि, ये पहाड़ कितने सुंदर हैं। जब मैं छोटी थी, तो सोचती थी कि इनके पीछे कोई जादुई दुनिया होगी।" मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम अभी भी सपने देखती हो?" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "सपने तो जिंदगी का ईंधन हैं, बेटा। तेरा कॉलेज, तेरा भविष्य—वो मेरा सपना है।" मैं चुप हो गया। माँ की बातें हमेशा मेरे दिल को छू लेती थीं।

शहर पहुँचते ही माँ की आँखें चमक उठीं। सूरजपुर से 30 किलोमीटर दूर ये शहर, धर्मशाला, हमारे लिए किसी दूसरी दुनिया जैसा था। सड़कों पर गाड़ियों की भीड़, दुकानों की चमक, और लोगों का शोर—सब कुछ गाँव से अलग। माँ ने मेरे हाथ को पकड़ा और बोली, "चल, पहले तेरा सामान लेते हैं।" हम एक किताब की दुकान में गए, जहाँ मुझे कॉलेज के लिए नोटबुक और पेन चाहिए थे। दुकानदार, एक मोटे चश्मे वाला आदमी, हमें देखकर मुस्कुराया। "क्या चाहिए, भाई?" उसने पूछा। मैंने अपनी लिस्ट दी, और माँ ने अपने थैले से रुपये निकाले। "ये नोटबुक तो महँगी है," माँ ने धीरे से कहा। मैंने कहा, "माँ, पुरानी वाली से काम चलेगा।" लेकिन माँ ने जिद की, "नहीं, तुझे अच्छी चीज मिलनी चाहिए।"

दुकानदार ने हमें छूट दी, शायद माँ की सादगी देखकर। माँ ने उसे धन्यवाद दिया और मेरे लिए एक नई नोटबुक और दो पेन खरीदे। मैंने देखा कि माँ ने अपने लिए कुछ नहीं लिया। "माँ, तुम्हारे लिए कुछ लें?" मैंने पूछा। माँ ने हँसकर कहा, "मेरे लिए तो तेरा चेहरा ही काफी है, रवि।" मैंने उनकी बात को मजाक में टाल दिया, लेकिन मन में एक ठान ली कि आज माँ को कुछ खुशी जरूर दूँगा।

किताबों के बाद हम राशन की दुकान गए। माँ ने आटा, चावल, और कुछ मसाले खरीदे। दुकानदार ने माँ को एक मुफ्त की चाय की पत्ती का पैकेट दे दिया, और माँ ने हँसकर कहा, "ये रमेश चाचा के लिए ठीक है!" हम दोनों हँस पड़े। फिर माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "चल, आज कुछ खास करते हैं।" मैंने चौंककर पूछा, "क्या, माँ?" वो बोली, "चल, ढाबे पर खाना खाते हैं।"

हम एक छोटे से ढाबे पर गए, जिसका नाम था "पहाड़ी धाम"। वहाँ की खुशबू ने मेरे पेट में चूहे दौड़ा दिए। माँ ने मेनू देखा और बोली, "दाल-रोटी लेंगे, और हाँ, एक प्लेट चाट भी।" मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो चाट की शौकीन निकली!" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "हाँ, और तू नहीं जानता कि मैं जवानी में कितनी मस्ती करती थी!" हम दोनों हँसते-हँसते खाना खाने लगे। दाल की खुशबू, रोटी की गर्माहट, और चाट का तीखापन—सब कुछ ऐसा था जैसे जिंदगी ने एक पल के लिए सारी परेशानियाँ भुला दीं।

खाना खाने के बाद माँ ने कहा, "चल, थोड़ा घूमते हैं।" हम धर्मशाला के बाजार में निकल पड़े। वहाँ रंग-बिरंगे स्टॉल थे, जहाँ तिब्बती मोमोज से लेकर गर्म शॉल तक बिक रहे थे। माँ एक स्टॉल पर रुक गई, जहाँ एक लाल रंग की शॉल थी। "ये कितने की है?" माँ ने पूछा। दुकानदार ने कहा, "200 रुपये।" माँ ने शॉल को छुआ, लेकिन फिर बोली, "छोड़ो, जरूरत नहीं।" मैंने देखा कि माँ को वो शॉल पसंद थी। मैंने चुपके से अपने जेब में बचे 50 रुपये गिने और सोचा कि माँ के लिए कुछ करना है।

मैंने माँ को एक मोमोज के स्टॉल पर बैठाया और कहा, "माँ, तुम यहीं रुको, मैं अभी आया।" माँ ने हँसकर कहा, "क्या शरारत कर रहा है, रवि?" मैंने पलटकर कहा, "बस, तुम्हारा बेटा कुछ जादू दिखाने जा रहा है!" मैं उस शॉल वाले स्टॉल पर गया और दुकानदार से गिड़गिड़ाया। "भैया, मेरी माँ को ये शॉल बहुत पसंद है, लेकिन मेरे पास बस 50 रुपये हैं।" दुकानदार ने मेरी तरफ देखा और हँसकर कहा, "ठीक है, बेटा। अपनी माँ को दे दे।" मैंने वो शॉल लिया और माँ के पास दौड़ा।

जब मैंने माँ को वो शॉल दी, तो उनकी आँखें भर आईं। "रवि, तूने ये कैसे..." माँ ने पूछा, लेकिन मैंने उनकी बात काट दी, "माँ, बस एक बार पहनकर देखो।" माँ ने शॉल ओढ़ा और हँसते हुए कहा, "देख, अब मैं सचमुच रानी लग रही हूँ!" हम दोनों हँसते-हँसते बाजार में और घूमे। माँ ने मुझे एक छोटा सा तिब्बती लॉकेट खरीदकर दिया, और बोली, "ये तुझे हमेशा मेरी याद दिलाएगा।"

शाम ढलने लगी थी, और हमें वापस गाँव लौटना था। बस में बैठकर माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा और बोली, "रवि, आज बहुत सालों बाद ऐसा लगा कि मैंने जिंदगी जी।" मैंने उनकी तरफ देखा और कहा, "माँ, ये तो बस शुरुआत है। एक दिन मैं तुम्हें इससे भी बड़ी खुशियाँ दूँगा।" माँ ने मेरी तरफ देखा और उनकी आँखों में वो विश्वास था, जो मुझे हमेशा आगे बढ़ने की ताकत देता था।

बस सूरजपुर की ओर बढ़ रही थी, और मेरे मन में माँ की वो मुस्कान, वो शॉल, और वो चाट की तीखी चटनी घूम रही थी। शहर की सैर ने हमें सिर्फ सामान नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ बिताए वो कीमती पल दिए थे, जो जिंदगी भर याद रहेंगे।



सूरजपुर की उस सुबह की गर्माहट और धर्मशाला की रंगीन सैर के बाद, मेरा मन हल्का था। माँ की लाल शॉल, वो तिब्बती लॉकेट, और ढाबे की चाट की तीखी यादें मेरे साथ थीं। लेकिन जिंदगी हमेशा इतनी सादी नहीं रहती। शहर की चमक के पीछे कुछ साये थे, जो धीरे-धीरे हमारी जिंदगी में दस्तक देने वाले थे। माँ और मेरे बीच का रिश्ता उस दिन और गहरा हो गया था, लेकिन एक नया तूफान हमारा इंतजार कर रहा था। ये कहानी है उस दिन की, जब हमारी छोटी सी दुनिया में हँसी, प्यार, और एक अनजान खतरा एक साथ टकराए।

धर्मशाला से लौटने के बाद, माँ की मुस्कान में एक नई चमक थी। वो लाल शॉल, जो मैंने उनके लिए खरीदी थी, अब उनके कंधों पर हमेशा रहती थी। रविवार की सुबह गाँव में शांत थी। मैं माँ के साथ रसोई में बैठा, चूल्हे की गर्मी के बीच चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। माँ ने हँसते हुए कहा, "रवि, तूने वो शॉल कैसे खरीदी? सच बता, कोई जादू सीख लिया है?" मैंने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, माँ, जादू का नाम है तुम्हारा बेटा!" माँ ने मेरे सिर पर प्यार से चपत लगाई और बोली, "चल, ज्यादा बकवास मत कर। आज गीता को बुला, कुछ पढ़ाई कर ले।"

गीता दीदी, मेरी कॉलेज की दोस्त, गाँव की पहली लड़की थी जो ग्रेजुएशन कर रही थी। उसकी हँसी और बेफिक्र अंदाज मुझे हमेशा अच्छा लगता था। उसने मुझसे कहा था कि वो आज हमारे घर आएगी, कुछ नोट्स शेयर करने। माँ को गीता बहुत पसंद थी। "वो लड़की में हिम्मत है," माँ ने एक बार कहा था। "उसके जैसे लोग गाँव का नाम रोशन करेंगे।" मैंने माँ की बात पर हामी भरी, लेकिन मन में सोच रहा था कि माँ खुद कितनी हिम्मतवाली हैं।

उस दोपहर, जब मैं और गीता नोट्स पर चर्चा कर रहे थे, गाँव में एक हलचल मची। रमेश चाचा दौड़ते हुए आए और बोले, "कमला, ठाकुर रंजीत सिंह गाँव में आए हैं। खेतों की बात करने वाले हैं।" माँ का चेहरा थोड़ा सख्त हो गया। ठाकुर रंजीत सिंह, शहर का एक बड़ा कारोबारी, जिसके पास गाँव के आसपास के कई खेतों की जमीन थी। लोग कहते थे कि वो शातिर है, और उसका मुस्कुराता चेहरा एक मुखौटा है। उसने कई गाँववालों को कर्ज देकर उनकी जमीनें हड़प ली थीं। माँ ने रमेश चाचा से पूछा, "क्या चाहता है वो?" चाचा ने जवाब दिया, "पता नहीं, लेकिन मंदिर के पास सभा बुलाई है।"

मैं और माँ मंदिर की ओर गए। वहाँ गाँववाले जमा थे। ठाकुर रंजीत सिंह एक चमचमाती गाड़ी से उतरा। उसकी उम्र होगी कोई 50 की, लेकिन उसका रौब ऐसा कि हर कोई चुप हो जाए। उसने सफेद कुर्ता-पायजामा पहना था, और आँखों पर काले चश्मे। "सूरजपुर के भाइयों-बहनों," उसने अपनी भारी आवाज में कहा, "मैं यहाँ आपके लिए एक नया प्रस्ताव लाया हूँ। मेरी कंपनी गाँव में एक नया प्रोजेक्ट शुरू करना चाहती है। आपके खेतों की जरूरत है, और बदले में मैं आपको अच्छा पैसा दूँगा।"

माँ ने मेरे कान में फुसफुसाया, "ये आदमी कुछ गड़बड़ करेगा, रवि।" मैंने माँ की तरफ देखा और उनकी आँखों में वो चिंता देखी, जो मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। गाँववाले ठाकुर की बात सुन रहे थे, लेकिन कुछ लोग बेचैन थे। शर्मा जी ने हिम्मत करके पूछा, "ठाकुर साहब, अगर हम जमीन न दें तो?" ठाकुर ने हँसकर कहा, "शर्मा जी, जमीन देना आपके हित में है। शहर का विकास गाँव तक आएगा।" लेकिन उसकी हँसी में कुछ ऐसा था, जो मुझे ठंडा लगा।

उस रात, माँ और मैं देर तक बात करते रहे। माँ ने कहा, "रवि, हमें सावधान रहना होगा। ठाकुर जैसे लोग मीठा बोलकर सब छीन लेते हैं।" मैंने माँ का हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगा।" माँ ने मेरी तरफ देखा और उनकी आँखें नम थीं। "बेटा, तू मेरी ताकत है," उन्होंने कहा। उस पल में, मैंने महसूस किया कि हमारा रिश्ता सिर्फ माँ-बेटे का नहीं, बल्कि दो दोस्तों का भी है, जो एक-दूसरे के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

माँ ने हल्के से हँसकर माहौल को हल्का किया। "चल, अब सो जा। कल फिर शहर जाना है। तेरे कॉलेज की फीस जमा करनी है।" मैंने चौंककर पूछा, "माँ, इतने पैसे कहाँ से आए?" माँ ने हँसकर कहा, "तेरी माँ के पास कुछ जादू भी है, बेटा!" मैंने हँसकर उनकी बात को टाल दिया, लेकिन मन में ठान लिया कि मैं माँ की मेहनत को बेकार नहीं जाने दूँगा।


अगले दिन, हम फिर धर्मशाला गए। इस बार मकसद था कॉलेज की फीस जमा करना और कुछ जरूरी सामान लेना। बस का सफर फिर से मजेदार था। माँ ने रास्ते में मुझे अपने बचपन की कहानियाँ सुनाईं—कैसे वो अपने भाई के साथ पहाड़ों पर चढ़कर जंगली बेर तोड़ने जाती थी। मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो आज भी बेर तोड़ सकती हो!" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "हाँ, और तू अभी भी मेरे पीछे-पीछे भागेगा!" हम दोनों हँस पड़े।

शहर में, हम पहले कॉलेज गए। फीस जमा करने के बाद, माँ ने कहा, "चल, आज फिर ढाबे चलते हैं।" मैंने मजाक में कहा, "माँ, तुम तो ढाबे की चाट की दीवानी हो गई हो!" माँ ने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, और तू भी तो चटपटे मोमोज खा रहा था!" हम "पहाड़ी धाम" ढाबे पर गए, जहाँ इस बार हमने राजमा-चावल और मसाला चाय ऑर्डर की। ढाबे का मालिक, एक मोटा-ताजा सिख अंकल, हमें देखकर मुस्कुराया। "कमला जी, फिर आ गए? ये बेटा तो बड़ा होनहार लगता है!" उसने कहा। माँ ने गर्व से मेरी तरफ देखा और बोली, "हाँ, मेरा रवि एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।"


खाना खाने के बाद, हम बाजार में घूम रहे थे। तभी मेरी नजर एक चमचमाती गाड़ी पर पड़ी। वो ठाकुर रंजीत सिंह था। वो एक दुकान के बाहर खड़ा था, कुछ लोगों से बात कर रहा था। उसने हमें देखा और मुस्कुराकर हाथ हिलाया। माँ ने मेरे हाथ को कसकर पकड़ा और बोली, "रवि, उससे दूर रह।" लेकिन ठाकुर हमारे पास आ गया। "कमला जी, आप यहाँ? और ये रवि है ना? कॉलेज में पढ़ता है?" उसने पूछा। माँ ने सख्ती से जवाब दिया, "हाँ, पढ़ता है। हमें जल्दी है, ठाकुर साहब।" लेकिन ठाकुर ने रुककर कहा, "रवि, तुम पढ़े-लिखे हो। मेरे प्रोजेक्ट में मेरी मदद कर सकते हो। अच्छी कमाई होगी।"

मैंने माँ की तरफ देखा। उनकी आँखों में चिंता थी। मैंने ठाकुर से कहा, "मैं सोचकर बताऊँगा।" ठाकुर ने हँसकर कहा, "ठीक है, बेटा। लेकिन ज्यादा देर मत करना।" उसकी बातों में कुछ ऐसा था, जो मुझे परेशान कर रहा था। माँ ने मेरे कान में फुसफुसाया, "ये आदमी भरोसे के लायक नहीं।"

वापसी की बस में, माँ और मैं चुप थे। ठाकुर की बातें मेरे दिमाग में घूम रही थीं। माँ ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा, "रवि, तू बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे। बाकी सब मैं देख लूँगी।" मैंने माँ की तरफ देखा और कहा, "माँ, हम मिलकर सब ठीक करेंगे।" उस पल में, हमारा रिश्ता और मजबूत हो गया। माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा, और मैंने महसूस किया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, हम एक-दूसरे के साथ हैं।

गाँव लौटने पर, गीता दीदी ने बताया कि ठाकुर ने कई गाँववालों को अपने प्रोजेक्ट में शामिल होने के लिए मनाने की कोशिश की। कुछ लोग लालच में आ रहे थे, लेकिन रमेश चाचा और शर्मा जी जैसे लोग सावधान थे। माँ ने गाँववालों को इकट्ठा करके कहा, "हमें अपनी जमीन बचानी होगी। ये ठाकुर हमारी मेहनत छीन लेगा।" मैंने माँ की हिम्मत देखकर गर्व महसूस किया।

धर्मशाला की उस दूसरी सैर और ठाकुर रंजीत सिंह के साये ने हमारे छोटे से गाँव, सूरजपुर, में एक अजीब सी हलचल पैदा कर दी थी। माँ की वो लाल शॉल, ढाबे की मसाला चाय, और मेरे गले में पड़ा तिब्बती लॉकेट—ये सब छोटी-छोटी खुशियाँ थीं, जो हमें उस तूफान से पहले की शांति दे रही थीं। लेकिन उस दिन के बाद, माँ और मेरे बीच कुछ बदल गया। हम सिर्फ माँ-बेटे नहीं रहे, बल्कि दो दोस्त बन गए, जो एक-दूसरे से अपने दिल के राज़ बाँटते थे। माँ ने मुझ पर भरोसा करना शुरू किया, और मैंने जाना कि उनकी जिंदगी के कुछ पन्ने अभी भी मेरे लिए अनजान थे। ये कहानी है उन पलों की, जब हमने एक-दूसरे को और करीब से जाना, और ठाकुर के साये ने हमारी जिंदगी में नई चुनौतियाँ लाईं।


सूरजपुर की सुबहें हमेशा खास होती थीं। सूरज की किरणें खेतों पर पड़तीं, और माता रानी के मंदिर की घंटियाँ हवा में गूँजतीं। उस सुबह, मैं जल्दी उठ गया। माँ रसोई में थी, चूल्हे पर चाय की केतली चढ़ाए हुए। उनकी लाल शॉल कंधे पर लटक रही थी, और चेहरा ऐसा कि जैसे वो कोई गीत गुनगुना रही हों। "माँ, आज फिर चाट खाने का मन है क्या?" मैंने मजाक में कहा। माँ ने हँसकर मेरी तरफ देखा और बोली, "चल, बकवास मत कर। आज तुझे गीता के साथ कॉलेज जाना है, और हाँ, रास्ते में रमेश चाचा को चाय की पत्ती दे देना।" मैंने हँसकर हामी भरी और सोचा कि माँ की ये हल्की-फुल्की बातें ही मेरे दिन को रोशन करती हैं।

माँ ने चाय का प्याला मेरे हाथ में थमाया और कहा, "रवि, आज शाम को मंदिर की सभा में चलना। ठाकुर फिर आने वाला है।" उनकी आवाज़ में थोड़ी चिंता थी। मैंने माँ का हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, तुम चिंता मत करो। हम सब मिलकर उसका सामना करेंगे।" माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी आँखों में वो भरोसा था, जो मुझे हमेशा ताकत देता था। "तू बड़ा हो गया है, रवि," माँ ने धीरे से कहा। मैंने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, माँ, लेकिन तुम्हारी चपत से अभी भी डर लगता है!" माँ हँस पड़ी, और उस हँसी में हमारा रिश्ता और गहरा हो गया।


गीता दीदी सुबह-सुबह हमारे घर आई। उसने अपनी साइकिल खड़ी की और हँसते हुए बोली, "रवि, तैयार है? या फिर माँ की चाय में डूबा हुआ है?" माँ ने गीता को देखकर कहा, "आ गीता, बैठ। एक प्याली चाय तो पी ले।" गीता ने हँसकर जवाब दिया, "कमला आंटी, आपकी चाय तो शहर के ढाबे से भी बेहतर है!" माँ की मुस्कान और चौड़ी हो गई। हम तीनों ने चाय पीते हुए गपशप की। गीता ने बताया कि कॉलेज में एक नया प्रोफेसर आया है, जो गाँवों के विकास पर लेक्चर देता है। "रवि, तुम्हें उससे मिलना चाहिए," गीता ने कहा। "शायद वो ठाकुर के प्रोजेक्ट के बारे में कुछ बता सके।"

कॉलेज का रास्ता हमेशा की तरह हँसी-मजाक से भरा था। गीता ने रास्ते में एक पुराना गाना गाया, और मैंने उसे चिढ़ाया, "दीदी, तुम तो माँ की तरह गाना गाती हो!" गीता ने हँसकर मेरी साइकिल की चेन को धक्का दे दिया, और हम दोनों हँसते-हँसते कॉलेज पहुँच गए। लेकिन मेरे दिमाग में ठाकुर की बातें घूम रही थीं। गीता ने मेरी चुप्पी देखी और बोली, "रवि, कुछ सोच रहा है? माँ के लिए चिंता हो रही है?" मैंने हल्के से सिर हिलाया और कहा, "हाँ, दीदी। ठाकुर कुछ गड़बड़ करने वाला है।" गीता ने मेरा कंधा थपथपाया और बोली, "हम मिलकर कुछ करेंगे। तू अकेला नहीं है।"


शाम को, मंदिर की सभा से पहले, माँ और मैं घर के आँगन में बैठे थे। सूरज डूब रहा था, और गाँव की हवा में ठंडक थी। माँ ने अपनी लाल शॉल को कंधे पर ठीक किया और धीरे से कहा, "रवि, तुझे एक बात बतानी है।" उनकी आवाज़ में कुछ गंभीरता थी। मैंने चौंककर पूछा, "क्या, माँ?" माँ ने एक गहरी साँस ली और बोली, "जब मैं छोटी थी, तब मेरे पिताजी ने भी एक ठाकुर जैसे आदमी को जमीन दी थी। वो आदमी वादा करके गया, लेकिन बाद में सब छीन लिया। हमारा परिवार बिखर गया। मैं नहीं चाहती कि तेरा भविष्य भी ऐसा हो।"

मैंने माँ की आँखों में देखा। वो नम थीं। मैंने उनका हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, तुमने पहले क्यों नहीं बताया?" माँ ने हल्के से मुस्कुराकर कहा, "क्योंकि मैं तुझे बोझ नहीं देना चाहती थी। लेकिन अब तू बड़ा हो गया है। मुझ पर भरोसा कर, और मैं तुझ पर।" उस पल में, मैंने महसूस किया कि माँ ने मुझे अपना सबसे गहरा राज़ बताया था। मैंने माँ को गले लगाया और कहा, "माँ, अब हम एक-दूसरे से कुछ नहीं छिपाएँगे।"


मंदिर की सभा में गाँववाले जमा थे। ठाकुर रंजीत सिंह फिर से अपनी चमचमाती गाड़ी के साथ आया। इस बार उसने एक नया प्रस्ताव रखा। "मैं गाँव में एक फैक्ट्री खोलना चाहता हूँ," उसने कहा। "इससे नौकरियाँ मिलेंगी, और गाँव का विकास होगा।" लेकिन उसकी बातों में वही शातिरपन था। रमेश चाचा ने हिम्मत करके पूछा, "ठाकुर साहब, जमीन का क्या होगा?" ठाकुर ने हँसकर जवाब दिया, "जमीन का मालिकाना हक मेरे पास रहेगा, लेकिन आप सबको किराया मिलेगा।"

माँ ने मेरे कान में फुसफुसाया, "ये वही पुरानी चाल है।" मैंने माँ की तरफ देखा और कहा, "माँ, हमें कुछ करना होगा।" सभा के बाद, माँ ने गाँववालों को इकट्ठा किया। "हमें अपनी जमीन बचानी है," माँ ने जोश के साथ कहा। "ये गाँव हमारा है, और इसे कोई नहीं छीन सकता।" शर्मा जी और रमेश चाचा ने माँ का साथ दिया। मैंने माँ की हिम्मत देखकर गर्व महसूस किया।


उस रात, माँ और मैं देर तक आँगन में बैठे रहे। माँ ने मुझे अपने बचपन की और कहानियाँ सुनाईं—कैसे वो अपने भाई के साथ तालाब में मछली पकड़ने जाती थी, और कैसे उनकी माँ उन्हें डाँटती थी। मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो मेरे जैसे शरारती थीं!" माँ ने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, और तू मेरे जैसा जिद्दी है!" हम दोनों हँसते-हँसते रात के सितारों को देखने लगे।

माँ ने फिर एक और राज़ बताया। "रवि, जब तेरा बाप और मैं मिले थे, वो बहुत अच्छा था। लेकिन शराब ने उसे बदल दिया। मैंने हमेशा तुझे उससे बचाने की कोशिश की।" मैंने माँ का हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, तुमने मुझे सब कुछ दिया। अब मेरी बारी है।" माँ ने मेरी तरफ देखा और उनकी आँखें फिर नम थीं। "तू मेरा दोस्त है, रवि," माँ ने कहा। मैंने हँसकर जवाब दिया, "और तुम मेरी सबसे अच्छी दोस्त हो, माँ।"

अगले हफ्ते, माँ ने फिर से शहर चलने का प्लान बनाया। "रवि, इस बार कुछ खास करेंगे," माँ ने हँसकर कहा। हम फिर "पहाड़ी धाम" ढाबे गए, जहाँ सिख अंकल ने हमें देखकर जोरदार स्वागत किया। "कमला जी, आज क्या खाएँगे?" उसने पूछा। माँ ने हँसकर कहा, "जो तू बनाए, वो खाएँगे!" हमने कढ़ी-चावल और मसाला डोसा ऑर्डर किया। माँ ने मेरे साथ डोसे की प्लेट बाँटी और बोली, "ये तो गाँव की रोटी से बिल्कुल अलग है!" मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो अब शहर की हो गई हो!" माँ ने मेरी तरफ देखा और हल्के से मेरे सिर पर चपत लगाई।

बाजार में, माँ ने मेरे लिए एक नया कुरता खरीदा। "ये कॉलेज में पहनना," माँ ने कहा। मैंने माँ के लिए एक छोटी सी चाँदी की बाली खरीदी। माँ ने हँसकर कहा, "रवि, तू तो मेरे लिए ज्वेलर बन गया!" हम दोनों बाजार में घूमते रहे, और हर छोटी बात पर हँसते रहे। माँ ने मुझे एक पुराने मंदिर के पास ले जाकर कहा, "यहाँ मैं तेरे पिताजी के साथ आई थी, जब हमारी शादी हुई थी।" मैंने माँ की आँखों में देखा और कहा, "माँ, अब मैं तुम्हारे साथ हूँ।" माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा, और उस पल में हमारी नजदीकी और गहरी हो गई।


शहर से लौटने के बाद, गीता दीदी ने बताया कि ठाकुर ने कुछ गाँववालों को कर्ज देने का वादा किया है। "वो लोगों को लालच दे रहा है," गीता ने कहा। मैंने माँ से बात की, और हमने फैसला किया कि हमें ठाकुर के खिलाफ सबूत जुटाने होंगे। माँ ने कहा, "रवि, तू कॉलेज में उस प्रोफेसर से बात कर। शायद वो कुछ मदद कर सके।" मैंने माँ की बात मान ली और ठान लिया कि मैं गाँव को बचाने के लिए कुछ करूँगा।


उस रात, माँ और मैं फिर आँगन में बैठे। माँ ने अपनी लाल शॉल मेरे कंधे पर डाली और बोली, "रवि, ये शॉल मेरे लिए तेरा प्यार है। इसे कभी मत भूलना।" मैंने माँ को गले लगाया और कहा, "माँ, तुम मेरी दुनिया हो।" हमने एक-दूसरे से वादा किया कि चाहे कुछ भी हो, हम एक-दूसरे का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे।


सूरजपुर की वो सितारों भरी रात, जब माँ ने अपने दिल के राज़ मेरे सामने खोले थे, मेरे लिए एक नया मोड़ थी। माँ, कमला, मेरी सिर्फ माँ नहीं थीं—वो मेरी दोस्त, मेरी ताकत, और मेरी दुनिया बन चुकी थीं। उनकी वो लाल शॉल, जो मैंने धर्मशाला के बाजार से उनके लिए खरीदी थी, अब हमारे रिश्ते का प्रतीक थी। लेकिन ठाकुर रंजीत सिंह का साया गाँव पर गहराता जा रहा था, और उसकी साजिशें हमारे छोटे से परिवार को नई चुनौतियों की ओर ले जा रही थीं। ये कहानी है उन पलों की, जब माँ और मैं एक-दूसरे के और करीब आए, अपने डर, सपने, और राज़ बाँटे, और एक-दूसरे पर ऐसा भरोसा किया कि कोई तूफान हमें अलग न कर सके।

सूरजपुर की सुबहें अब पहले जैसी शांत नहीं थीं। ठाकुर रंजीत सिंह की फैक्ट्री की बात ने गाँववालों को दो हिस्सों में बाँट दिया था। कुछ लोग, जैसे शर्मा जी और रमेश चाचा, माँ के साथ थे, जो अपनी जमीन बचाने की जिद पर अड़े थे। लेकिन कुछ लोग, जैसे पड़ोस के लाला राम, ठाकुर के पैसे के लालच में आ रहे थे। उस सुबह, मैं माँ के साथ आँगन में बैठा था। माँ ने अपनी लाल शॉल कंधे पर डाली और चाय की केतली चूल्हे पर चढ़ाई। "रवि, आज मंदिर में फिर सभा है," माँ ने कहा। उनकी आवाज़ में वही हिम्मत थी, जो मुझे हमेशा प्रेरित करती थी।

"माँ, तुम इतनी हिम्मत कहाँ से लाती हो?" मैंने पूछा, चाय का प्याला थामते हुए। माँ ने हँसकर जवाब दिया, "बेटा, जब तेरा चेहरा सामने होता है, तो हिम्मत अपने आप आ जाती है।" मैंने माँ की तरफ देखा और उनकी आँखों में वो प्यार देखा, जो शब्दों से परे था। "माँ, तुम मेरी सुपरहीरो हो," मैंने हँसकर कहा। माँ ने मेरे सिर पर चपत लगाई और बोली, "चल, सुपरहीरो के साथ मंदिर चल। आज ठाकुर को जवाब देना है।"

मंदिर की सभा में गाँववाले जमा थे। ठाकुर अपनी चमचमाती गाड़ी के साथ फिर आया। इस बार उसने अपने साथ एक नया आदमी लाया था—विक्रम, उसका मैनेजर। विक्रम की उम्र होगी कोई 35 साल, लंबा-चौड़ा, और चेहरे पर एक ऐसी मुस्कान जो विश्वास नहीं जगाती थी। ठाकुर ने कहा, "सूरजपुर के लोग, मेरी फैक्ट्री आपके बच्चों को नौकरी देगी। विक्रम यहाँ मेरी तरफ से बात करेगा।" विक्रम ने गाँववालों को कागज बाँटे, जिनमें कर्ज और नौकरी के वादे थे। माँ ने मेरे कान में फुसफुसाया, "ये नया आदमी भी उसी की तरह शातिर है।"

सभा के बाद, माँ और मैं घर लौटे। रात हो चुकी थी, और आँगन में सितारे चमक रहे थे। माँ ने अपनी लाल शॉल मेरे कंधे पर डाली और बोली, "रवि, एक और बात बतानी है।" मैंने चौंककर पूछा, "क्या, माँ?" माँ ने एक गहरी साँस ली और बोली, "जब मैं तेरे पिताजी से मिली थी, तब मेरे मन में बहुत सपने थे। मैं नाचना चाहती थी, गाँव के मेले में नाटक करना चाहती थी। लेकिन शादी के बाद सब छूट गया।" उनकी आँखें नम थीं, लेकिन मुस्कान बरकरार थी। "मैंने कभी तुझे नहीं बताया, क्योंकि मुझे लगा कि तू मुझे कमजोर समझेगा।"

मैंने माँ का हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, तुम कमजोर नहीं, तुम सबसे मजबूत हो। और तुम्हारे सपने अभी खत्म नहीं हुए।" माँ ने मेरी तरफ देखा और हँसकर बोली, "तू तो मेरा सपना है, रवि। लेकिन हाँ, अगर तुझे मौका मिले, तो मेरे लिए एक मेला ढूँढना, जहाँ मैं फिर से नाच सकूँ!" मैंने हँसकर वादा किया, "माँ, मैं तुम्हें मंच पर नचाऊँगा!" उस रात, हमने देर तक बातें कीं। माँ ने मुझे अपने बचपन की शरारतें, अपने भाई के साथ मछली पकड़ने की कहानियाँ, और अपनी जवानी के सपनों के बारे में बताया। मैंने भी माँ से अपने कॉलेज के दोस्तों, गीता दीदी की मस्ती, और अपनी पढ़ाई की चिंताएँ बाँटीं।

अगले दिन, माँ ने कहा, "रवि, चल, आज फिर शहर चलते हैं। तेरा प्रोफेसर से मिलना जरूरी है।" हम फिर धर्मशाला गए। बस का सफर फिर से हँसी-मजाक से भरा था। माँ ने रास्ते में एक पुराना गाना गुनगुनाया, और मैंने उसे चिढ़ाया, "माँ, तुम तो अभी भी मेला क्वीन हो!" माँ ने हँसकर मेरे सिर पर चपत लगाई और बोली, "चल, तू भी तो मेला किंग बनेगा!" हम दोनों हँसते-हँसते कॉलेज पहुँचे।

कॉलेज में प्रोफेसर शर्मा, जो गाँवों के विकास पर लेक्चर देते थे, से मिलना आसान नहीं था। लेकिन गीता दीदी ने पहले से बात कर रखी थी। प्रोफेसर ने हमें अपने ऑफिस में बुलाया। "रवि, तुम ठाकुर रंजीत सिंह के बारे में जानना चाहते हो?" उन्होंने पूछा। मैंने हाँ में सिर हिलाया और माँ की चिंता बताई। प्रोफेसर ने बताया कि ठाकुर की कंपनी पहले भी कई गाँवों की जमीनें हड़प चुकी है। "उसके पास कागजात होते हैं, जो कानूनी लगते हैं, लेकिन असल में धोखा हैं," उन्होंने कहा। माँ ने गंभीरता से सुना और बोली, "रवि, हमें गाँववालों को ये बात बतानी होगी।"

कॉलेज के बाद, हम फिर "पहाड़ी धाम" ढाबे गए। सिख अंकल ने हमें देखकर जोरदार स्वागत किया। "कमला जी, आज क्या खाएँगे?" उसने पूछा। माँ ने हँसकर कहा, "तेरा स्पेशल थाली!" हमने पनीर मसाला, नान, और मसाला चाय ऑर्डर की। माँ ने मेरे साथ नान का टुकड़ा बाँटा और बोली, "रवि, ये शहर की हवा मुझे जवान कर देती है!" मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो पहले से ही जवान हो!" माँ ने मेरी तरफ देखा और हल्के से मेरे गाल पर चपत लगाई। ढाबे का माहौल, माँ की हँसी, और हमारी बातें—सब कुछ ऐसा था जैसे जिंदगी के सारे दुख एक पल के लिए गायब हो गए।

बाजार में, हमने कुछ और सामान खरीदा। माँ ने मेरे लिए एक नई कॉपी और पेन लिया, और मैंने माँ के लिए एक छोटा सा दर्पण खरीदा। "ये तुम्हें हमेशा अपनी खूबसूरती याद दिलाएगा," मैंने हँसकर कहा। माँ ने दर्पण में खुद को देखा और बोली, "रवि, तू तो मुझे शरमिंदा कर देगा!" हम दोनों हँसते-हँसते बाजार में घूमने लगे। तभी, मेरी नजर विक्रम पर पड़ी। वो एक चाय की दुकान पर खड़ा था, कुछ लोगों से बात कर रहा था। उसने हमें देखा और पास आ गया।

"कमला जी, रवि, नमस्ते!" विक्रम ने अपनी चिकनी-चुपड़ी मुस्कान के साथ कहा। माँ ने सख्ती से जवाब दिया, "हमें जल्दी है।" लेकिन विक्रम ने रुककर कहा, "रवि, तुम पढ़े-लिखे हो। मेरे साथ काम करो। ठाकुर साहब तुम्हें अच्छी सैलरी देंगे।" मैंने माँ की तरफ देखा। उनकी आँखों में वही चिंता थी। मैंने विक्रम से कहा, "मैं सोचकर बताऊँगा।" माँ ने मेरे हाथ को कसकर पकड़ा और हम वहाँ से चले गए।

वापसी की बस में, माँ और मैं चुप थे। माँ ने मेरा हाथ पकड़ा और बोली, "रवि, तूने देखा ना, वो लोग कितने शातिर हैं? लेकिन मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है।" मैंने माँ की आँखों में देखा और कहा, "माँ, मैं तुम्हें कभी निराश नहीं करूँगा।" माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा और बोली, "तू मेरा बेटा ही नहीं, मेरा दोस्त है।" मैंने हँसकर कहा, "और तुम मेरी बेस्ट फ्रेंड हो, माँ!"

उस रात, गाँव लौटने के बाद, हम फिर आँगन में बैठे। माँ ने मुझे अपने और पिताजी के शुरुआती दिनों की बात बताई। "तेरे पिताजी पहले बहुत हँसते थे," माँ ने कहा। "लेकिन शराब ने सब छीन लिया। मैंने तुझे उससे बचाने के लिए बहुत कुछ सहा।" मैंने माँ को गले लगाया और कहा, "माँ, अब मैं तुम्हें सब कुछ दूँगा—खुशी, सम्मान, और वो मेला जहाँ तुम नाच सको!" माँ ने हँसकर मेरे सिर पर हाथ फेरा और बोली, "बस, तू मेरे साथ रह, वो ही काफी है।"

अगले दिन, माँ ने गाँववालों को फिर इकट्ठा किया। "हमें ठाकुर और विक्रम की साजिश को रोकना होगा," माँ ने कहा। रमेश चाचा और शर्मा जी ने माँ का साथ दिया। गीता दीदी ने बताया कि प्रोफेसर शर्मा कुछ कागजात दे सकते हैं, जो ठाकुर के पुराने धोखों को उजागर करें। मैंने माँ से कहा, "माँ, मैं प्रोफेसर से मिलूँगा। हम मिलकर गाँव को बचाएँगे।" माँ ने मेरी तरफ देखा और उनकी आँखों में गर्व था। "मेरा रवि," उन्होंने धीरे से कहा।

उस रात, माँ और मैं देर तक बात करते रहे। माँ ने मुझे अपने एक और सपने के बारे में बताया—एक छोटा सा स्कूल खोलने का, जहाँ गाँव के बच्चे पढ़ सकें। मैंने माँ से वादा किया कि मैं उनकी हर इच्छा पूरी करूँगा। हमने सितारों के नीचे हँसी-मजाक किया, पुरानी यादें ताजा कीं, और एक-दूसरे के साथ वो पल बिताए जो जिंदगी को और खूबसूरत बनाते हैं। माँ ने मेरे गले में वो तिब्बती लॉकेट ठीक किया और बोली, "ये हमेशा मेरे प्यार को याद दिलाएगा।" मैंने माँ को गले लगाया और कहा, "माँ, तुम मेरे लिए सब कुछ हो।"



सूरजपुर की वो सितारों भरी रातें, जब माँ और मैंने अपने दिल के राज़ बाँटे थे, मेरे लिए एक नई दुनिया खोल रही थीं। माँ, कमला, मेरी सिर्फ माँ नहीं थीं—वो मेरी दोस्त, मेरी ताकत, और मेरी सबसे गहरी चाहत बन चुकी थीं। उनकी लाल शॉल, वो तिब्बती लॉकेट, और हमारी देर रात की बातें—ये सब हमारे बीच एक ऐसी नजदीकी ला रहे थे, जो शब्दों से परे थी। लेकिन ठाकुर रंजीत सिंह और उसके मैनेजर विक्रम का साया गाँव पर गहराता जा रहा था। गाँव की जमीनें, हमारा घर, और हमारी जिंदगी—सब कुछ खतरे में था। फिर भी, उन तनावों के बीच, माँ और मेरे बीच एक नया, जटिल, और गहरा रिश्ता पनप रहा था, जो समाज की नजरों में निषिद्ध था, लेकिन हमारे दिलों में एक अनजानी आग जला रहा था।

उस रात, जब हम आँगन में सितारों के नीचे बैठे थे, माँ की लाल शॉल मेरे कंधे पर थी। हवा में ठंडक थी, और मंदिर की घंटियों की हल्की आवाज़ गाँव की शांति को और गहरी कर रही थी। माँ ने मेरे गले में वो तिब्बती लॉकेट ठीक किया और बोली, "रवि, ये लॉकेट मेरे प्यार का प्रतीक है। इसे कभी मत उतारना।" उनकी आवाज़ में एक ऐसी गर्माहट थी, जो मेरे दिल को छू गई। मैंने माँ की आँखों में देखा—वो आँखें, जो हमेशा मेरे लिए बलिदान देती थीं, आज कुछ और कह रही थीं।

"माँ, तुम मेरे लिए सब कुछ हो," मैंने धीरे से कहा। मेरी आवाज़ में एक अजीब सी कशिश थी, जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी। माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी मुस्कान में एक हल्की सी शरम थी। "रवि, तू मेरा बेटा है, लेकिन... तू मेरा दोस्त भी है," उन्होंने कहा। उनकी आवाज़ में एक हल्का सा कंपन था, जैसे वो कुछ छिपा रही हों। मैंने उनका हाथ पकड़ा—उनकी उंगलियाँ ठंडी थीं, लेकिन मेरे स्पर्श से वो गर्म हो गईं। उस पल में, कुछ ऐसा हुआ, जो हमारे रिश्ते को एक नई दिशा दे गया।

मैंने माँ के चेहरे को देखा। उनकी आँखें, जो हमेशा मेरे लिए हिम्मत का स्रोत थीं, आज एक अनजानी चाहत से भरी थीं। मेरे मन में एक तूफान उठ रहा था—प्यार, अपराधबोध, और एक ऐसी इच्छा जो मैं समझ नहीं पा रहा था। "माँ, क्या मैं तुम्हें कुछ कह सकता हूँ?" मैंने हिचकते हुए पूछा। माँ ने सिर हिलाया, और उनकी आँखों में एक गहरी जिज्ञासा थी। "बोल, रवि," उन्होंने धीरे से कहा। मैंने एक गहरी साँस ली और कहा, "माँ, तुम मेरे लिए सिर्फ माँ नहीं हो। तुम... मेरी जिंदगी हो।" मेरे शब्दों में एक ऐसी तीव्रता थी, जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी।

माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी आँखें नम हो गईं। "रवि, तू जानता है, मैंने तेरे लिए सब कुछ छोड़ दिया। लेकिन... कुछ चीजें ऐसी हैं, जो दिल को समझाना मुश्किल है।" उनकी आवाज़ में एक दर्द था, लेकिन साथ ही एक ऐसी गहराई जो मुझे उनके और करीब खींच रही थी। मैंने उनका हाथ और कसकर पकड़ा, और हम दोनों चुप हो गए। सितारों की रोशनी में, हमारा मौन एक नई भाषा बोल रहा था—प्यार, चाहत, और अपराधबोध की भाषा।

उस रात, जब गाँव सो चुका था, माँ और मैं घर के अंदर गए। चूल्हे की मद्धम आग अभी भी जल रही थी, और कमरे में एक हल्की सी गर्माहट थी। माँ ने अपनी लाल शॉल उतारी और उसे मेरे कंधे पर डाल दिया। "ये तुझे गर्म रखेगी," उन्होंने हँसकर कहा। मैंने माँ की तरफ देखा और बिना सोचे उनके करीब चला गया। मेरे दिल की धड़कन तेज थी, और मेरे मन में एक अजीब सी उलझन थी। मैं जानता था कि ये गलत है, लेकिन माँ की वो मुस्कान, वो गर्माहट, और वो प्यार मुझे रोक नहीं पा रहा था।

"माँ, क्या मैं तुम्हें गले लगा सकता हूँ?" मैंने धीरे से पूछा। माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी आँखों में एक पल के लिए हिचक थी। फिर उन्होंने हल्के से सिर हिलाया। मैंने उन्हें गले लगाया, और उस पल में समय जैसे ठहर गया। माँ की साँसें मेरे कंधे पर महसूस हो रही थीं, और उनकी गर्माहट मेरे शरीर में एक अजीब सी आग जला रही थी। मैंने उनके बालों को छुआ, और उनकी चोटी की वो सौंधी खुशबू मेरे होश उड़ा रही थी।

"रवि, ये... ये ठीक नहीं है," माँ ने धीरे से कहा, लेकिन उनकी आवाज़ में वो सख्ती नहीं थी। मैंने उनकी आँखों में देखा और कहा, "माँ, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ।" मेरे शब्दों में एक ऐसी तीव्रता थी, जो मुझे खुद डरा रही थी। माँ ने मेरे चेहरे को अपने हाथों में लिया और बोली, "रवि, तू मेरा बेटा है। लेकिन... मैं भी इंसान हूँ।" उनकी आँखों में अपराधबोध था, लेकिन साथ ही एक ऐसी चाहत जो मेरे दिल को और तेज धड़का रही थी।

हम दोनों एक-दूसरे के करीब आए। माँ की साँसें तेज थीं, और मेरे हाथ उनके कंधों पर काँप रहे थे। मैंने उनके गाल को छुआ, और उनकी त्वचा की वो नरमी मुझे एक अजीब सी दुनिया में ले जा रही थी। "माँ, मैं तुम्हें कभी दुख नहीं दूँगा," मैंने फुसफुसाया। माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी आँखें आंसुओं से भरी थीं। "रवि, ये गलत है... लेकिन मैं तुझसे दूर नहीं रह सकती," उन्होंने कहा।

उस पल में, हमारी नजदीकी एक निषिद्ध रेखा पार कर गई। माँ ने मेरे होंठों को छुआ, और वो स्पर्श ऐसा था जैसे बिजली का झटका। मैंने उन्हें और कसकर गले लगाया, और हमारी साँसें एक-दूसरे में मिल गईं। कमरे की मद्धम रोशनी, चूल्हे की गर्माहट, और हमारी धड़कनों का संगीत—सब कुछ एक ऐसी दुनिया बना रहा था, जहाँ सिर्फ हम दोनों थे। लेकिन मेरे मन में अपराधबोध की एक लहर भी उठ रही थी। मैं जानता था कि ये गलत है, लेकिन माँ की वो गर्माहट, वो प्यार, और वो चाहत मुझे रोक नहीं पा रही थी।

अपराधबोध और जुनून
जैसे ही हमारा स्पर्श गहरा हुआ, माँ ने एक पल के लिए पीछे हटकर कहा, "रवि, हमें रुकना चाहिए।" उनकी आवाज़ में दर्द था, लेकिन उनकी आँखें मेरे चेहरे पर टिकी थीं। मैंने उनका हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता।" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "तू मुझे कभी नहीं खोएगा। लेकिन ये रास्ता... ये हमें बर्बाद कर सकता है।" मैंने उनकी बात सुनी, लेकिन मेरे दिल में एक जुनून था, जो मुझे रोक नहीं पा रहा था।

हमने उस रात एक-दूसरे को गले लगाए रखा। माँ की साँसें मेरे कंधे पर थीं, और मेरे हाथ उनकी कमर पर। हमारी नजदीकी में एक अजीब सा जुनून था, लेकिन साथ ही एक गहरा अपराधबोध। मैं जानता था कि समाज हमें कभी माफ नहीं करेगा, लेकिन उस पल में, माँ की वो गर्माहट मेरी दुनिया थी। हमने कोई सीमा पार नहीं की, लेकिन हमारा स्पर्श, हमारी साँसें, और हमारी नजदीकी एक ऐसी कहानी लिख रही थी, जो निषिद्ध थी, फिर भी हमारे लिए सबसे कीमती थी।

अगली सुबह, गाँव में हलचल थी। ठाकुर और विक्रम ने कुछ गाँववालों को कर्ज देने शुरू कर दिए थे। रमेश चाचा ने बताया कि लाला राम ने ठाकुर से पैसे ले लिए हैं। माँ ने गाँववालों को फिर इकट्ठा किया और कहा, "हमें एकजुट रहना होगा। ठाकुर हमारी जमीनें छीन लेगा।" मैंने माँ की हिम्मत देखकर गर्व महसूस किया। गीता दीदी ने मुझे प्रोफेसर शर्मा से मिलने की याद दिलाई। "रवि, वो कागजात जरूरी हैं," उसने कहा।

माँ और मैंने फैसला किया कि हम अगले दिन फिर धर्मशाला जाएँगे। "रवि, तू प्रोफेसर से मिल, और मैं गाँववालों को समझाऊँगी," माँ ने कहा। मैंने माँ की आँखों में देखा और कहा, "माँ, हम मिलकर सब ठीक करेंगे।" माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा और बोली, "मेरा रवि, तू मेरी ताकत है।"


धर्मशाला की सैर इस बार अलग थी। हमने "पहाड़ी धाम" ढाबे पर फिर खाना खाया। सिख अंकल ने हमें देखकर हँसकर कहा, "कमला जी, आप तो हमारे ढाबे की शान हो!" माँ ने हँसकर जवाब दिया, "और तेरा खाना मेरी जिंदगी की शान है!" हमने दाल-तड़का और तंदूरी रोटी खाई, और माँ ने मेरे साथ हँसी-मजाक किया। लेकिन मेरे मन में रात की वो नजदीकी घूम रही थी। माँ ने मेरी चुप्पी देखी और बोली, "रवि, कुछ सोच रहा है?" मैंने हल्के से सिर हिलाया और कहा, "माँ, मैं तुम्हें कभी दुख नहीं दूँगा।" माँ ने मेरे हाथ पर हाथ रखा और बोली, "तू मेरा सुख है, रवि।"
 

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सूरज की पहली किरणें जब गाँव के ऊपर बिखरीं, तो ऐसा लगा मानो प्रकृति ने सुनहरी चादर ओढ़ ली हो। हिमाचल के इस छोटे से गाँव, सूरजपुर, में सुबह की हवा में ठंडक थी, और खेतों से उठती मिट्टी की सौंधी खुशबू हर सांस के साथ दिल को छू रही थी। गाँव की गलियाँ अभी शांत थीं, बस दूर कहीं भैंसों की घंटियाँ और सुबह की प्रार्थना के लिए मंदिर की घंटी की आवाज़ गूँज रही थी। लेकिन इस शांति के पीछे, एक घर में जिंदगी की जद्दोजहद अपनी कहानी बुन रही थी। ये कहानी है कमला, रवि और उनके परिवार की, जिसे मैं, रवि, अपने शब्दों में बयान कर रहा हूँ। ये मेरी माँ की कहानी है, मेरे गाँव की, और उस प्यार की, जो हमें हर तूफान में एक साथ बाँधे रखता है।

सूरजपुर कोई बड़ा गाँव नहीं था। चारों तरफ हरे-भरे खेत, बीच में एक छोटा सा तालाब, और उस पार बनी माता रानी की मंदिर। गाँव के लोग सादगी से जीते थे। कोई खेती करता, कोई दुकान चलाता, तो कोई पास के शहर में मजदूरी के लिए जाता। हमारे घर की बात करें, तो वो गाँव के आखिरी छोर पर था। मिट्टी का बना वो छोटा सा घर, जिसकी दीवारों पर बारिश के दाग थे और छत पर टीन की चादरें। लेकिन उस घर में जो गर्मजोशी थी, वो किसी महल से कम नहीं। मेरी माँ, कमला, इस घर की जान थी।

माँ, उम्र होगी कोई 45 की, लेकिन चेहरा ऐसा कि लगता था जैसे वक्त ने उनकी मुस्कान को छूने की हिम्मत ही नहीं की। लंबी चोटी, साड़ी का पल्लू कमर में खोंसा हुआ, और आँखों में एक ऐसी चमक जो मुसीबतों को भी चुनौती देती थी। माँ गाँव में दूसरों के खेतों में काम करती थी। दिनभर धूप में हल चलाना, फसल काटना, और फिर घर लौटकर हमारे लिए रोटी बनाना। उनकी उंगलियों में खेतों की मिट्टी बसी थी, और उनके दिल में बस हमारी चिंता।

मैं, रवि, 20 साल का हूँ। गाँव से 30 किलोमीटर दूर शहर के कॉलेज में पढ़ता हूँ। माँ का सपना है कि मैं एक दिन बड़ा आदमी बनूँ, शायद कोई अफसर। लेकिन मैं जानता हूँ, ये सपना माँ का नहीं, उनका बलिदान है। हर दिन बस का किराया, किताबें, और कॉलेज की फीस—ये सब माँ की मेहनत की कमाई से आता है। और फिर है मेरे पिता, मोहन। उनके बारे में बात करना मेरे लिए आसान नहीं। वो गाँव के शराबी के नाम से जाने जाते हैं। कभी खेतों में मजदूरी करते थे, लेकिन अब उनकी जिंदगी बस बोतल के इर्द-गिर्द घूमती है। पिछले हफ्ते ही उन्होंने माँ की मेहनत की आखिरी 500 रुपये की कमाई शराब में उड़ा दी।

सुबह की शुरुआत
उस सुबह, जब मैं उठा, तो माँ पहले ही रसोई में थी। रसोई कहना भी शायद गलत है—बस एक कोने में मिट्टी का चूल्हा और कुछ बर्तन। माँ ने आटे की छोटी सी लोई बनाई थी, और उससे दो रोटियाँ सेंक रही थी। मैंने देखा, माँ ने अपने लिए कुछ नहीं बनाया। "माँ, तुम नहीं खाओगी?" मैंने पूछा। माँ ने मुस्कुराकर कहा, "बेटा, मुझे भूख नहीं। तू खा ले, कॉलेज के लिए ताकत चाहिए।" लेकिन उनकी आँखों में वो सच छिपा था, जो मैं समझ गया। घर में आटा बस दो रोटियों जितना ही बचा था।

मैंने रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा और माँ की तरफ बढ़ाया। "नहीं, रवि, तू खा," माँ ने मेरी कलाई पकड़कर कहा। उनकी आवाज़ में सख्ती थी, लेकिन आँखें नम थीं। मैंने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप रोटी खाई। हर कौर के साथ मेरे गले में कुछ अटक रहा था—शायद भूख से ज्यादा माँ का प्यार।

खाना खाने के बाद, मैं कॉलेज के लिए तैयार होने लगा। मेरा बैग पुराना था, टाँके उधड़ चुके थे, लेकिन माँ ने उसे रात को सिल दिया था। मैंने देखा, माँ ने चुपके से मेरी जेब में एक मुड़ा हुआ 20 रुपये का नोट डाल दिया। "बस का किराया," माँ ने धीरे से कहा। मैंने उनकी आँखों में देखा। वो आँखें, जो भूख से खाली थीं, लेकिन प्यार से भरी हुई। मैंने कुछ कहना चाहा, लेकिन माँ ने मेरी बात काट दी, "जा, रवि। देर मत कर।" मैंने उनका हाथ पकड़ा और धीरे से दबाया। शब्दों की जरूरत नहीं थी; हमारी चुप्पी में सब कुछ कहा जा चुका था।


सूरजपुर के लोग भी इस कहानी का हिस्सा हैं। शर्मा जी, जो गाँव की छोटी सी किराने की दुकान चलाते हैं। उनकी दुकान पर आटा, चावल, और चाय की पत्ती उधार मिलती है, लेकिन माँ को उधार लेना पसंद नहीं। फिर है रमेश चाचा, जो खेतों में माँ के साथ काम करते हैं। उनकी हँसी इतनी जोरदार है कि खेतों में गूँजती है। और हाँ, गीता दीदी, जो मेरे साथ कॉलेज जाती है। वो गाँव की पहली लड़की है, जो ग्रेजुएशन कर रही है। उसका सपना है टीचर बनना, और वो मुझे हमेशा पढ़ाई में मदद करती है।


उस सुबह, जब मैं बस स्टॉप की ओर चल रहा था, तो मन में एक अजीब सी बेचैनी थी। माँ की भूख, पिताजी की शराब, और मेरे कॉलेज का खर्च—सब कुछ एक बोझ की तरह था। लेकिन माँ की वो मुस्कान, वो 20 रुपये का नोट, और उनकी आँखों का विश्वास, मुझे हिम्मत दे रहा था। मैंने ठान लिया था कि एक दिन मैं माँ को इस जिंदगी से निकालूँगा। ये गाँव, ये खेत, ये मुसीबतें—सब कुछ पीछे छूटेगा।

बस में बैठकर मैंने खिड़की से बाहर देखा। सूरज अब पूरी तरह निकल चुका था, और गाँव की सुबह अपने पूरे रंग में थी। लेकिन मेरे लिए, असली रंग माँ की मुस्कान थी, जो मुझे हर कदम पर आगे बढ़ने की ताकत देती थी।


सूरजपुर की उस सुबह के बाद, जब मैं बस में बैठकर कॉलेज के लिए निकला था, मेरे मन में माँ की मुस्कान और वो 20 रुपये का नोट बार-बार घूम रहा था। माँ की भूख, पिताजी की शराबखोरी, और मेरी पढ़ाई का बोझ—सब कुछ एक साथ मेरे कंधों पर था। लेकिन उस दिन कुछ अलग होने वाला था। माँ ने सुबह चुपके से मेरे कान में फुसफुसाया था, "रवि, इस हफ्ते की मजदूरी मिली है। शनिवार को शहर चलेंगे, कुछ सामान लाना है।" उनकी आँखों में चमक थी, और मैंने देखा कि वो चमक सिर्फ सामान की खरीदारी की नहीं थी—वो मेरे साथ वक्त बिताने की खुशी थी।

शनिवार की सुबह गाँव में कुछ खास होती है। सूरजपुर में लोग खेतों में जल्दी नहीं जाते, बल्कि चाय की चुस्कियों और गपशप में समय बिताते हैं। मैं सुबह-सुबह उठा तो देखा माँ पहले से तैयार थी। उनकी साड़ी, जो हमेशा खेतों की मिट्टी से सनी रहती थी, आज साफ थी। नीली साड़ी में लाल किनारा, और उस पर माँ की वो मुस्कान—लग रहा था जैसे वो कोई त्योहार मनाने जा रही हों। "क्या हुआ, माँ? आज तो बिल्कुल रानी लग रही हो!" मैंने हँसते हुए कहा। माँ ने मेरी तरफ देखा और हल्के से मेरे सिर पर चपत लगाई, "चल, बकवास मत कर। बस तैयार हो जा, देर हो रही है।"

माँ ने अपने पुराने थैले में कुछ रुपये गिनकर रखे थे। "कितने हैं, माँ?" मैंने पूछा। "बस, इतने कि तेरा कॉलेज का सामान और घर का राशन आ जाए," माँ ने जवाब दिया, लेकिन उनकी आवाज़ में वो आत्मविश्वास था जो मुझे हमेशा हिम्मत देता था। मैंने अपना बैग उठाया, जिसमें मेरी कॉलेज की किताबें थीं, और हम दोनों बस स्टॉप की ओर चल पड़े। रास्ते में रमेश चाचा मिले, जो अपने बैलगाड़ी को खेत की ओर ले जा रहे थे। "कमला, कहाँ चली?" चाचा ने अपनी जोरदार हँसी के साथ पूछा। "शहर, चाचा! रवि के लिए कुछ सामान लेना है," माँ ने जवाब दिया। "अच्छा, लौटते वक्त मेरे लिए भी एक पाव चाय की पत्ती ले आना!" चाचा ने हँसते हुए कहा, और हम भी हँस पड़े।

बस स्टॉप पर भीड़ थी, लेकिन माँ ने अपनी जगह बना ली। हमारी बस, जो शहर के लिए जाती थी, पुरानी थी। सीटें टूटी हुई, खिड़कियाँ खटखटाती हुई, और ड्राइवर साहब का रेडियो जोर-जोर से पुराने गाने बजा रहा था। "ये गाना तो मेरे जवानी का है!" माँ ने हँसते हुए कहा, और मैंने देखा कि वो गुनगुनाने लगीं। मैंने मजाक में कहा, "माँ, तुम तो अभी भी जवान हो!" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "हाँ, और तू अभी भी बच्चा है!" हम दोनों हँस पड़े, और बस की वो खटारा सवारी भी मजेदार लगने लगी।

रास्ते में खेत, पहाड़, और छोटे-छोटे गाँव दिख रहे थे। माँ ने खिड़की से बाहर देखते हुए कहा, "देख, रवि, ये पहाड़ कितने सुंदर हैं। जब मैं छोटी थी, तो सोचती थी कि इनके पीछे कोई जादुई दुनिया होगी।" मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम अभी भी सपने देखती हो?" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "सपने तो जिंदगी का ईंधन हैं, बेटा। तेरा कॉलेज, तेरा भविष्य—वो मेरा सपना है।" मैं चुप हो गया। माँ की बातें हमेशा मेरे दिल को छू लेती थीं।

शहर पहुँचते ही माँ की आँखें चमक उठीं। सूरजपुर से 30 किलोमीटर दूर ये शहर, धर्मशाला, हमारे लिए किसी दूसरी दुनिया जैसा था। सड़कों पर गाड़ियों की भीड़, दुकानों की चमक, और लोगों का शोर—सब कुछ गाँव से अलग। माँ ने मेरे हाथ को पकड़ा और बोली, "चल, पहले तेरा सामान लेते हैं।" हम एक किताब की दुकान में गए, जहाँ मुझे कॉलेज के लिए नोटबुक और पेन चाहिए थे। दुकानदार, एक मोटे चश्मे वाला आदमी, हमें देखकर मुस्कुराया। "क्या चाहिए, भाई?" उसने पूछा। मैंने अपनी लिस्ट दी, और माँ ने अपने थैले से रुपये निकाले। "ये नोटबुक तो महँगी है," माँ ने धीरे से कहा। मैंने कहा, "माँ, पुरानी वाली से काम चलेगा।" लेकिन माँ ने जिद की, "नहीं, तुझे अच्छी चीज मिलनी चाहिए।"

दुकानदार ने हमें छूट दी, शायद माँ की सादगी देखकर। माँ ने उसे धन्यवाद दिया और मेरे लिए एक नई नोटबुक और दो पेन खरीदे। मैंने देखा कि माँ ने अपने लिए कुछ नहीं लिया। "माँ, तुम्हारे लिए कुछ लें?" मैंने पूछा। माँ ने हँसकर कहा, "मेरे लिए तो तेरा चेहरा ही काफी है, रवि।" मैंने उनकी बात को मजाक में टाल दिया, लेकिन मन में एक ठान ली कि आज माँ को कुछ खुशी जरूर दूँगा।

किताबों के बाद हम राशन की दुकान गए। माँ ने आटा, चावल, और कुछ मसाले खरीदे। दुकानदार ने माँ को एक मुफ्त की चाय की पत्ती का पैकेट दे दिया, और माँ ने हँसकर कहा, "ये रमेश चाचा के लिए ठीक है!" हम दोनों हँस पड़े। फिर माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "चल, आज कुछ खास करते हैं।" मैंने चौंककर पूछा, "क्या, माँ?" वो बोली, "चल, ढाबे पर खाना खाते हैं।"

हम एक छोटे से ढाबे पर गए, जिसका नाम था "पहाड़ी धाम"। वहाँ की खुशबू ने मेरे पेट में चूहे दौड़ा दिए। माँ ने मेनू देखा और बोली, "दाल-रोटी लेंगे, और हाँ, एक प्लेट चाट भी।" मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो चाट की शौकीन निकली!" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "हाँ, और तू नहीं जानता कि मैं जवानी में कितनी मस्ती करती थी!" हम दोनों हँसते-हँसते खाना खाने लगे। दाल की खुशबू, रोटी की गर्माहट, और चाट का तीखापन—सब कुछ ऐसा था जैसे जिंदगी ने एक पल के लिए सारी परेशानियाँ भुला दीं।

खाना खाने के बाद माँ ने कहा, "चल, थोड़ा घूमते हैं।" हम धर्मशाला के बाजार में निकल पड़े। वहाँ रंग-बिरंगे स्टॉल थे, जहाँ तिब्बती मोमोज से लेकर गर्म शॉल तक बिक रहे थे। माँ एक स्टॉल पर रुक गई, जहाँ एक लाल रंग की शॉल थी। "ये कितने की है?" माँ ने पूछा। दुकानदार ने कहा, "200 रुपये।" माँ ने शॉल को छुआ, लेकिन फिर बोली, "छोड़ो, जरूरत नहीं।" मैंने देखा कि माँ को वो शॉल पसंद थी। मैंने चुपके से अपने जेब में बचे 50 रुपये गिने और सोचा कि माँ के लिए कुछ करना है।

मैंने माँ को एक मोमोज के स्टॉल पर बैठाया और कहा, "माँ, तुम यहीं रुको, मैं अभी आया।" माँ ने हँसकर कहा, "क्या शरारत कर रहा है, रवि?" मैंने पलटकर कहा, "बस, तुम्हारा बेटा कुछ जादू दिखाने जा रहा है!" मैं उस शॉल वाले स्टॉल पर गया और दुकानदार से गिड़गिड़ाया। "भैया, मेरी माँ को ये शॉल बहुत पसंद है, लेकिन मेरे पास बस 50 रुपये हैं।" दुकानदार ने मेरी तरफ देखा और हँसकर कहा, "ठीक है, बेटा। अपनी माँ को दे दे।" मैंने वो शॉल लिया और माँ के पास दौड़ा।

जब मैंने माँ को वो शॉल दी, तो उनकी आँखें भर आईं। "रवि, तूने ये कैसे..." माँ ने पूछा, लेकिन मैंने उनकी बात काट दी, "माँ, बस एक बार पहनकर देखो।" माँ ने शॉल ओढ़ा और हँसते हुए कहा, "देख, अब मैं सचमुच रानी लग रही हूँ!" हम दोनों हँसते-हँसते बाजार में और घूमे। माँ ने मुझे एक छोटा सा तिब्बती लॉकेट खरीदकर दिया, और बोली, "ये तुझे हमेशा मेरी याद दिलाएगा।"

शाम ढलने लगी थी, और हमें वापस गाँव लौटना था। बस में बैठकर माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा और बोली, "रवि, आज बहुत सालों बाद ऐसा लगा कि मैंने जिंदगी जी।" मैंने उनकी तरफ देखा और कहा, "माँ, ये तो बस शुरुआत है। एक दिन मैं तुम्हें इससे भी बड़ी खुशियाँ दूँगा।" माँ ने मेरी तरफ देखा और उनकी आँखों में वो विश्वास था, जो मुझे हमेशा आगे बढ़ने की ताकत देता था।

बस सूरजपुर की ओर बढ़ रही थी, और मेरे मन में माँ की वो मुस्कान, वो शॉल, और वो चाट की तीखी चटनी घूम रही थी। शहर की सैर ने हमें सिर्फ सामान नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ बिताए वो कीमती पल दिए थे, जो जिंदगी भर याद रहेंगे।



सूरजपुर की उस सुबह की गर्माहट और धर्मशाला की रंगीन सैर के बाद, मेरा मन हल्का था। माँ की लाल शॉल, वो तिब्बती लॉकेट, और ढाबे की चाट की तीखी यादें मेरे साथ थीं। लेकिन जिंदगी हमेशा इतनी सादी नहीं रहती। शहर की चमक के पीछे कुछ साये थे, जो धीरे-धीरे हमारी जिंदगी में दस्तक देने वाले थे। माँ और मेरे बीच का रिश्ता उस दिन और गहरा हो गया था, लेकिन एक नया तूफान हमारा इंतजार कर रहा था। ये कहानी है उस दिन की, जब हमारी छोटी सी दुनिया में हँसी, प्यार, और एक अनजान खतरा एक साथ टकराए।

धर्मशाला से लौटने के बाद, माँ की मुस्कान में एक नई चमक थी। वो लाल शॉल, जो मैंने उनके लिए खरीदी थी, अब उनके कंधों पर हमेशा रहती थी। रविवार की सुबह गाँव में शांत थी। मैं माँ के साथ रसोई में बैठा, चूल्हे की गर्मी के बीच चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। माँ ने हँसते हुए कहा, "रवि, तूने वो शॉल कैसे खरीदी? सच बता, कोई जादू सीख लिया है?" मैंने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, माँ, जादू का नाम है तुम्हारा बेटा!" माँ ने मेरे सिर पर प्यार से चपत लगाई और बोली, "चल, ज्यादा बकवास मत कर। आज गीता को बुला, कुछ पढ़ाई कर ले।"

गीता दीदी, मेरी कॉलेज की दोस्त, गाँव की पहली लड़की थी जो ग्रेजुएशन कर रही थी। उसकी हँसी और बेफिक्र अंदाज मुझे हमेशा अच्छा लगता था। उसने मुझसे कहा था कि वो आज हमारे घर आएगी, कुछ नोट्स शेयर करने। माँ को गीता बहुत पसंद थी। "वो लड़की में हिम्मत है," माँ ने एक बार कहा था। "उसके जैसे लोग गाँव का नाम रोशन करेंगे।" मैंने माँ की बात पर हामी भरी, लेकिन मन में सोच रहा था कि माँ खुद कितनी हिम्मतवाली हैं।

उस दोपहर, जब मैं और गीता नोट्स पर चर्चा कर रहे थे, गाँव में एक हलचल मची। रमेश चाचा दौड़ते हुए आए और बोले, "कमला, ठाकुर रंजीत सिंह गाँव में आए हैं। खेतों की बात करने वाले हैं।" माँ का चेहरा थोड़ा सख्त हो गया। ठाकुर रंजीत सिंह, शहर का एक बड़ा कारोबारी, जिसके पास गाँव के आसपास के कई खेतों की जमीन थी। लोग कहते थे कि वो शातिर है, और उसका मुस्कुराता चेहरा एक मुखौटा है। उसने कई गाँववालों को कर्ज देकर उनकी जमीनें हड़प ली थीं। माँ ने रमेश चाचा से पूछा, "क्या चाहता है वो?" चाचा ने जवाब दिया, "पता नहीं, लेकिन मंदिर के पास सभा बुलाई है।"

मैं और माँ मंदिर की ओर गए। वहाँ गाँववाले जमा थे। ठाकुर रंजीत सिंह एक चमचमाती गाड़ी से उतरा। उसकी उम्र होगी कोई 50 की, लेकिन उसका रौब ऐसा कि हर कोई चुप हो जाए। उसने सफेद कुर्ता-पायजामा पहना था, और आँखों पर काले चश्मे। "सूरजपुर के भाइयों-बहनों," उसने अपनी भारी आवाज में कहा, "मैं यहाँ आपके लिए एक नया प्रस्ताव लाया हूँ। मेरी कंपनी गाँव में एक नया प्रोजेक्ट शुरू करना चाहती है। आपके खेतों की जरूरत है, और बदले में मैं आपको अच्छा पैसा दूँगा।"

माँ ने मेरे कान में फुसफुसाया, "ये आदमी कुछ गड़बड़ करेगा, रवि।" मैंने माँ की तरफ देखा और उनकी आँखों में वो चिंता देखी, जो मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। गाँववाले ठाकुर की बात सुन रहे थे, लेकिन कुछ लोग बेचैन थे। शर्मा जी ने हिम्मत करके पूछा, "ठाकुर साहब, अगर हम जमीन न दें तो?" ठाकुर ने हँसकर कहा, "शर्मा जी, जमीन देना आपके हित में है। शहर का विकास गाँव तक आएगा।" लेकिन उसकी हँसी में कुछ ऐसा था, जो मुझे ठंडा लगा।

उस रात, माँ और मैं देर तक बात करते रहे। माँ ने कहा, "रवि, हमें सावधान रहना होगा। ठाकुर जैसे लोग मीठा बोलकर सब छीन लेते हैं।" मैंने माँ का हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगा।" माँ ने मेरी तरफ देखा और उनकी आँखें नम थीं। "बेटा, तू मेरी ताकत है," उन्होंने कहा। उस पल में, मैंने महसूस किया कि हमारा रिश्ता सिर्फ माँ-बेटे का नहीं, बल्कि दो दोस्तों का भी है, जो एक-दूसरे के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

माँ ने हल्के से हँसकर माहौल को हल्का किया। "चल, अब सो जा। कल फिर शहर जाना है। तेरे कॉलेज की फीस जमा करनी है।" मैंने चौंककर पूछा, "माँ, इतने पैसे कहाँ से आए?" माँ ने हँसकर कहा, "तेरी माँ के पास कुछ जादू भी है, बेटा!" मैंने हँसकर उनकी बात को टाल दिया, लेकिन मन में ठान लिया कि मैं माँ की मेहनत को बेकार नहीं जाने दूँगा।


अगले दिन, हम फिर धर्मशाला गए। इस बार मकसद था कॉलेज की फीस जमा करना और कुछ जरूरी सामान लेना। बस का सफर फिर से मजेदार था। माँ ने रास्ते में मुझे अपने बचपन की कहानियाँ सुनाईं—कैसे वो अपने भाई के साथ पहाड़ों पर चढ़कर जंगली बेर तोड़ने जाती थी। मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो आज भी बेर तोड़ सकती हो!" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "हाँ, और तू अभी भी मेरे पीछे-पीछे भागेगा!" हम दोनों हँस पड़े।

शहर में, हम पहले कॉलेज गए। फीस जमा करने के बाद, माँ ने कहा, "चल, आज फिर ढाबे चलते हैं।" मैंने मजाक में कहा, "माँ, तुम तो ढाबे की चाट की दीवानी हो गई हो!" माँ ने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, और तू भी तो चटपटे मोमोज खा रहा था!" हम "पहाड़ी धाम" ढाबे पर गए, जहाँ इस बार हमने राजमा-चावल और मसाला चाय ऑर्डर की। ढाबे का मालिक, एक मोटा-ताजा सिख अंकल, हमें देखकर मुस्कुराया। "कमला जी, फिर आ गए? ये बेटा तो बड़ा होनहार लगता है!" उसने कहा। माँ ने गर्व से मेरी तरफ देखा और बोली, "हाँ, मेरा रवि एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।"


खाना खाने के बाद, हम बाजार में घूम रहे थे। तभी मेरी नजर एक चमचमाती गाड़ी पर पड़ी। वो ठाकुर रंजीत सिंह था। वो एक दुकान के बाहर खड़ा था, कुछ लोगों से बात कर रहा था। उसने हमें देखा और मुस्कुराकर हाथ हिलाया। माँ ने मेरे हाथ को कसकर पकड़ा और बोली, "रवि, उससे दूर रह।" लेकिन ठाकुर हमारे पास आ गया। "कमला जी, आप यहाँ? और ये रवि है ना? कॉलेज में पढ़ता है?" उसने पूछा। माँ ने सख्ती से जवाब दिया, "हाँ, पढ़ता है। हमें जल्दी है, ठाकुर साहब।" लेकिन ठाकुर ने रुककर कहा, "रवि, तुम पढ़े-लिखे हो। मेरे प्रोजेक्ट में मेरी मदद कर सकते हो। अच्छी कमाई होगी।"

मैंने माँ की तरफ देखा। उनकी आँखों में चिंता थी। मैंने ठाकुर से कहा, "मैं सोचकर बताऊँगा।" ठाकुर ने हँसकर कहा, "ठीक है, बेटा। लेकिन ज्यादा देर मत करना।" उसकी बातों में कुछ ऐसा था, जो मुझे परेशान कर रहा था। माँ ने मेरे कान में फुसफुसाया, "ये आदमी भरोसे के लायक नहीं।"

वापसी की बस में, माँ और मैं चुप थे। ठाकुर की बातें मेरे दिमाग में घूम रही थीं। माँ ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा, "रवि, तू बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे। बाकी सब मैं देख लूँगी।" मैंने माँ की तरफ देखा और कहा, "माँ, हम मिलकर सब ठीक करेंगे।" उस पल में, हमारा रिश्ता और मजबूत हो गया। माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा, और मैंने महसूस किया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, हम एक-दूसरे के साथ हैं।

गाँव लौटने पर, गीता दीदी ने बताया कि ठाकुर ने कई गाँववालों को अपने प्रोजेक्ट में शामिल होने के लिए मनाने की कोशिश की। कुछ लोग लालच में आ रहे थे, लेकिन रमेश चाचा और शर्मा जी जैसे लोग सावधान थे। माँ ने गाँववालों को इकट्ठा करके कहा, "हमें अपनी जमीन बचानी होगी। ये ठाकुर हमारी मेहनत छीन लेगा।" मैंने माँ की हिम्मत देखकर गर्व महसूस किया।

धर्मशाला की उस दूसरी सैर और ठाकुर रंजीत सिंह के साये ने हमारे छोटे से गाँव, सूरजपुर, में एक अजीब सी हलचल पैदा कर दी थी। माँ की वो लाल शॉल, ढाबे की मसाला चाय, और मेरे गले में पड़ा तिब्बती लॉकेट—ये सब छोटी-छोटी खुशियाँ थीं, जो हमें उस तूफान से पहले की शांति दे रही थीं। लेकिन उस दिन के बाद, माँ और मेरे बीच कुछ बदल गया। हम सिर्फ माँ-बेटे नहीं रहे, बल्कि दो दोस्त बन गए, जो एक-दूसरे से अपने दिल के राज़ बाँटते थे। माँ ने मुझ पर भरोसा करना शुरू किया, और मैंने जाना कि उनकी जिंदगी के कुछ पन्ने अभी भी मेरे लिए अनजान थे। ये कहानी है उन पलों की, जब हमने एक-दूसरे को और करीब से जाना, और ठाकुर के साये ने हमारी जिंदगी में नई चुनौतियाँ लाईं।


सूरजपुर की सुबहें हमेशा खास होती थीं। सूरज की किरणें खेतों पर पड़तीं, और माता रानी के मंदिर की घंटियाँ हवा में गूँजतीं। उस सुबह, मैं जल्दी उठ गया। माँ रसोई में थी, चूल्हे पर चाय की केतली चढ़ाए हुए। उनकी लाल शॉल कंधे पर लटक रही थी, और चेहरा ऐसा कि जैसे वो कोई गीत गुनगुना रही हों। "माँ, आज फिर चाट खाने का मन है क्या?" मैंने मजाक में कहा। माँ ने हँसकर मेरी तरफ देखा और बोली, "चल, बकवास मत कर। आज तुझे गीता के साथ कॉलेज जाना है, और हाँ, रास्ते में रमेश चाचा को चाय की पत्ती दे देना।" मैंने हँसकर हामी भरी और सोचा कि माँ की ये हल्की-फुल्की बातें ही मेरे दिन को रोशन करती हैं।

माँ ने चाय का प्याला मेरे हाथ में थमाया और कहा, "रवि, आज शाम को मंदिर की सभा में चलना। ठाकुर फिर आने वाला है।" उनकी आवाज़ में थोड़ी चिंता थी। मैंने माँ का हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, तुम चिंता मत करो। हम सब मिलकर उसका सामना करेंगे।" माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी आँखों में वो भरोसा था, जो मुझे हमेशा ताकत देता था। "तू बड़ा हो गया है, रवि," माँ ने धीरे से कहा। मैंने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, माँ, लेकिन तुम्हारी चपत से अभी भी डर लगता है!" माँ हँस पड़ी, और उस हँसी में हमारा रिश्ता और गहरा हो गया।


गीता दीदी सुबह-सुबह हमारे घर आई। उसने अपनी साइकिल खड़ी की और हँसते हुए बोली, "रवि, तैयार है? या फिर माँ की चाय में डूबा हुआ है?" माँ ने गीता को देखकर कहा, "आ गीता, बैठ। एक प्याली चाय तो पी ले।" गीता ने हँसकर जवाब दिया, "कमला आंटी, आपकी चाय तो शहर के ढाबे से भी बेहतर है!" माँ की मुस्कान और चौड़ी हो गई। हम तीनों ने चाय पीते हुए गपशप की। गीता ने बताया कि कॉलेज में एक नया प्रोफेसर आया है, जो गाँवों के विकास पर लेक्चर देता है। "रवि, तुम्हें उससे मिलना चाहिए," गीता ने कहा। "शायद वो ठाकुर के प्रोजेक्ट के बारे में कुछ बता सके।"

कॉलेज का रास्ता हमेशा की तरह हँसी-मजाक से भरा था। गीता ने रास्ते में एक पुराना गाना गाया, और मैंने उसे चिढ़ाया, "दीदी, तुम तो माँ की तरह गाना गाती हो!" गीता ने हँसकर मेरी साइकिल की चेन को धक्का दे दिया, और हम दोनों हँसते-हँसते कॉलेज पहुँच गए। लेकिन मेरे दिमाग में ठाकुर की बातें घूम रही थीं। गीता ने मेरी चुप्पी देखी और बोली, "रवि, कुछ सोच रहा है? माँ के लिए चिंता हो रही है?" मैंने हल्के से सिर हिलाया और कहा, "हाँ, दीदी। ठाकुर कुछ गड़बड़ करने वाला है।" गीता ने मेरा कंधा थपथपाया और बोली, "हम मिलकर कुछ करेंगे। तू अकेला नहीं है।"


शाम को, मंदिर की सभा से पहले, माँ और मैं घर के आँगन में बैठे थे। सूरज डूब रहा था, और गाँव की हवा में ठंडक थी। माँ ने अपनी लाल शॉल को कंधे पर ठीक किया और धीरे से कहा, "रवि, तुझे एक बात बतानी है।" उनकी आवाज़ में कुछ गंभीरता थी। मैंने चौंककर पूछा, "क्या, माँ?" माँ ने एक गहरी साँस ली और बोली, "जब मैं छोटी थी, तब मेरे पिताजी ने भी एक ठाकुर जैसे आदमी को जमीन दी थी। वो आदमी वादा करके गया, लेकिन बाद में सब छीन लिया। हमारा परिवार बिखर गया। मैं नहीं चाहती कि तेरा भविष्य भी ऐसा हो।"

मैंने माँ की आँखों में देखा। वो नम थीं। मैंने उनका हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, तुमने पहले क्यों नहीं बताया?" माँ ने हल्के से मुस्कुराकर कहा, "क्योंकि मैं तुझे बोझ नहीं देना चाहती थी। लेकिन अब तू बड़ा हो गया है। मुझ पर भरोसा कर, और मैं तुझ पर।" उस पल में, मैंने महसूस किया कि माँ ने मुझे अपना सबसे गहरा राज़ बताया था। मैंने माँ को गले लगाया और कहा, "माँ, अब हम एक-दूसरे से कुछ नहीं छिपाएँगे।"


मंदिर की सभा में गाँववाले जमा थे। ठाकुर रंजीत सिंह फिर से अपनी चमचमाती गाड़ी के साथ आया। इस बार उसने एक नया प्रस्ताव रखा। "मैं गाँव में एक फैक्ट्री खोलना चाहता हूँ," उसने कहा। "इससे नौकरियाँ मिलेंगी, और गाँव का विकास होगा।" लेकिन उसकी बातों में वही शातिरपन था। रमेश चाचा ने हिम्मत करके पूछा, "ठाकुर साहब, जमीन का क्या होगा?" ठाकुर ने हँसकर जवाब दिया, "जमीन का मालिकाना हक मेरे पास रहेगा, लेकिन आप सबको किराया मिलेगा।"

माँ ने मेरे कान में फुसफुसाया, "ये वही पुरानी चाल है।" मैंने माँ की तरफ देखा और कहा, "माँ, हमें कुछ करना होगा।" सभा के बाद, माँ ने गाँववालों को इकट्ठा किया। "हमें अपनी जमीन बचानी है," माँ ने जोश के साथ कहा। "ये गाँव हमारा है, और इसे कोई नहीं छीन सकता।" शर्मा जी और रमेश चाचा ने माँ का साथ दिया। मैंने माँ की हिम्मत देखकर गर्व महसूस किया।


उस रात, माँ और मैं देर तक आँगन में बैठे रहे। माँ ने मुझे अपने बचपन की और कहानियाँ सुनाईं—कैसे वो अपने भाई के साथ तालाब में मछली पकड़ने जाती थी, और कैसे उनकी माँ उन्हें डाँटती थी। मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो मेरे जैसे शरारती थीं!" माँ ने हँसकर जवाब दिया, "हाँ, और तू मेरे जैसा जिद्दी है!" हम दोनों हँसते-हँसते रात के सितारों को देखने लगे।

माँ ने फिर एक और राज़ बताया। "रवि, जब तेरा बाप और मैं मिले थे, वो बहुत अच्छा था। लेकिन शराब ने उसे बदल दिया। मैंने हमेशा तुझे उससे बचाने की कोशिश की।" मैंने माँ का हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, तुमने मुझे सब कुछ दिया। अब मेरी बारी है।" माँ ने मेरी तरफ देखा और उनकी आँखें फिर नम थीं। "तू मेरा दोस्त है, रवि," माँ ने कहा। मैंने हँसकर जवाब दिया, "और तुम मेरी सबसे अच्छी दोस्त हो, माँ।"

अगले हफ्ते, माँ ने फिर से शहर चलने का प्लान बनाया। "रवि, इस बार कुछ खास करेंगे," माँ ने हँसकर कहा। हम फिर "पहाड़ी धाम" ढाबे गए, जहाँ सिख अंकल ने हमें देखकर जोरदार स्वागत किया। "कमला जी, आज क्या खाएँगे?" उसने पूछा। माँ ने हँसकर कहा, "जो तू बनाए, वो खाएँगे!" हमने कढ़ी-चावल और मसाला डोसा ऑर्डर किया। माँ ने मेरे साथ डोसे की प्लेट बाँटी और बोली, "ये तो गाँव की रोटी से बिल्कुल अलग है!" मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो अब शहर की हो गई हो!" माँ ने मेरी तरफ देखा और हल्के से मेरे सिर पर चपत लगाई।

बाजार में, माँ ने मेरे लिए एक नया कुरता खरीदा। "ये कॉलेज में पहनना," माँ ने कहा। मैंने माँ के लिए एक छोटी सी चाँदी की बाली खरीदी। माँ ने हँसकर कहा, "रवि, तू तो मेरे लिए ज्वेलर बन गया!" हम दोनों बाजार में घूमते रहे, और हर छोटी बात पर हँसते रहे। माँ ने मुझे एक पुराने मंदिर के पास ले जाकर कहा, "यहाँ मैं तेरे पिताजी के साथ आई थी, जब हमारी शादी हुई थी।" मैंने माँ की आँखों में देखा और कहा, "माँ, अब मैं तुम्हारे साथ हूँ।" माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा, और उस पल में हमारी नजदीकी और गहरी हो गई।


शहर से लौटने के बाद, गीता दीदी ने बताया कि ठाकुर ने कुछ गाँववालों को कर्ज देने का वादा किया है। "वो लोगों को लालच दे रहा है," गीता ने कहा। मैंने माँ से बात की, और हमने फैसला किया कि हमें ठाकुर के खिलाफ सबूत जुटाने होंगे। माँ ने कहा, "रवि, तू कॉलेज में उस प्रोफेसर से बात कर। शायद वो कुछ मदद कर सके।" मैंने माँ की बात मान ली और ठान लिया कि मैं गाँव को बचाने के लिए कुछ करूँगा।


उस रात, माँ और मैं फिर आँगन में बैठे। माँ ने अपनी लाल शॉल मेरे कंधे पर डाली और बोली, "रवि, ये शॉल मेरे लिए तेरा प्यार है। इसे कभी मत भूलना।" मैंने माँ को गले लगाया और कहा, "माँ, तुम मेरी दुनिया हो।" हमने एक-दूसरे से वादा किया कि चाहे कुछ भी हो, हम एक-दूसरे का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे।


सूरजपुर की वो सितारों भरी रात, जब माँ ने अपने दिल के राज़ मेरे सामने खोले थे, मेरे लिए एक नया मोड़ थी। माँ, कमला, मेरी सिर्फ माँ नहीं थीं—वो मेरी दोस्त, मेरी ताकत, और मेरी दुनिया बन चुकी थीं। उनकी वो लाल शॉल, जो मैंने धर्मशाला के बाजार से उनके लिए खरीदी थी, अब हमारे रिश्ते का प्रतीक थी। लेकिन ठाकुर रंजीत सिंह का साया गाँव पर गहराता जा रहा था, और उसकी साजिशें हमारे छोटे से परिवार को नई चुनौतियों की ओर ले जा रही थीं। ये कहानी है उन पलों की, जब माँ और मैं एक-दूसरे के और करीब आए, अपने डर, सपने, और राज़ बाँटे, और एक-दूसरे पर ऐसा भरोसा किया कि कोई तूफान हमें अलग न कर सके।

सूरजपुर की सुबहें अब पहले जैसी शांत नहीं थीं। ठाकुर रंजीत सिंह की फैक्ट्री की बात ने गाँववालों को दो हिस्सों में बाँट दिया था। कुछ लोग, जैसे शर्मा जी और रमेश चाचा, माँ के साथ थे, जो अपनी जमीन बचाने की जिद पर अड़े थे। लेकिन कुछ लोग, जैसे पड़ोस के लाला राम, ठाकुर के पैसे के लालच में आ रहे थे। उस सुबह, मैं माँ के साथ आँगन में बैठा था। माँ ने अपनी लाल शॉल कंधे पर डाली और चाय की केतली चूल्हे पर चढ़ाई। "रवि, आज मंदिर में फिर सभा है," माँ ने कहा। उनकी आवाज़ में वही हिम्मत थी, जो मुझे हमेशा प्रेरित करती थी।

"माँ, तुम इतनी हिम्मत कहाँ से लाती हो?" मैंने पूछा, चाय का प्याला थामते हुए। माँ ने हँसकर जवाब दिया, "बेटा, जब तेरा चेहरा सामने होता है, तो हिम्मत अपने आप आ जाती है।" मैंने माँ की तरफ देखा और उनकी आँखों में वो प्यार देखा, जो शब्दों से परे था। "माँ, तुम मेरी सुपरहीरो हो," मैंने हँसकर कहा। माँ ने मेरे सिर पर चपत लगाई और बोली, "चल, सुपरहीरो के साथ मंदिर चल। आज ठाकुर को जवाब देना है।"

मंदिर की सभा में गाँववाले जमा थे। ठाकुर अपनी चमचमाती गाड़ी के साथ फिर आया। इस बार उसने अपने साथ एक नया आदमी लाया था—विक्रम, उसका मैनेजर। विक्रम की उम्र होगी कोई 35 साल, लंबा-चौड़ा, और चेहरे पर एक ऐसी मुस्कान जो विश्वास नहीं जगाती थी। ठाकुर ने कहा, "सूरजपुर के लोग, मेरी फैक्ट्री आपके बच्चों को नौकरी देगी। विक्रम यहाँ मेरी तरफ से बात करेगा।" विक्रम ने गाँववालों को कागज बाँटे, जिनमें कर्ज और नौकरी के वादे थे। माँ ने मेरे कान में फुसफुसाया, "ये नया आदमी भी उसी की तरह शातिर है।"

सभा के बाद, माँ और मैं घर लौटे। रात हो चुकी थी, और आँगन में सितारे चमक रहे थे। माँ ने अपनी लाल शॉल मेरे कंधे पर डाली और बोली, "रवि, एक और बात बतानी है।" मैंने चौंककर पूछा, "क्या, माँ?" माँ ने एक गहरी साँस ली और बोली, "जब मैं तेरे पिताजी से मिली थी, तब मेरे मन में बहुत सपने थे। मैं नाचना चाहती थी, गाँव के मेले में नाटक करना चाहती थी। लेकिन शादी के बाद सब छूट गया।" उनकी आँखें नम थीं, लेकिन मुस्कान बरकरार थी। "मैंने कभी तुझे नहीं बताया, क्योंकि मुझे लगा कि तू मुझे कमजोर समझेगा।"

मैंने माँ का हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, तुम कमजोर नहीं, तुम सबसे मजबूत हो। और तुम्हारे सपने अभी खत्म नहीं हुए।" माँ ने मेरी तरफ देखा और हँसकर बोली, "तू तो मेरा सपना है, रवि। लेकिन हाँ, अगर तुझे मौका मिले, तो मेरे लिए एक मेला ढूँढना, जहाँ मैं फिर से नाच सकूँ!" मैंने हँसकर वादा किया, "माँ, मैं तुम्हें मंच पर नचाऊँगा!" उस रात, हमने देर तक बातें कीं। माँ ने मुझे अपने बचपन की शरारतें, अपने भाई के साथ मछली पकड़ने की कहानियाँ, और अपनी जवानी के सपनों के बारे में बताया। मैंने भी माँ से अपने कॉलेज के दोस्तों, गीता दीदी की मस्ती, और अपनी पढ़ाई की चिंताएँ बाँटीं।

अगले दिन, माँ ने कहा, "रवि, चल, आज फिर शहर चलते हैं। तेरा प्रोफेसर से मिलना जरूरी है।" हम फिर धर्मशाला गए। बस का सफर फिर से हँसी-मजाक से भरा था। माँ ने रास्ते में एक पुराना गाना गुनगुनाया, और मैंने उसे चिढ़ाया, "माँ, तुम तो अभी भी मेला क्वीन हो!" माँ ने हँसकर मेरे सिर पर चपत लगाई और बोली, "चल, तू भी तो मेला किंग बनेगा!" हम दोनों हँसते-हँसते कॉलेज पहुँचे।

कॉलेज में प्रोफेसर शर्मा, जो गाँवों के विकास पर लेक्चर देते थे, से मिलना आसान नहीं था। लेकिन गीता दीदी ने पहले से बात कर रखी थी। प्रोफेसर ने हमें अपने ऑफिस में बुलाया। "रवि, तुम ठाकुर रंजीत सिंह के बारे में जानना चाहते हो?" उन्होंने पूछा। मैंने हाँ में सिर हिलाया और माँ की चिंता बताई। प्रोफेसर ने बताया कि ठाकुर की कंपनी पहले भी कई गाँवों की जमीनें हड़प चुकी है। "उसके पास कागजात होते हैं, जो कानूनी लगते हैं, लेकिन असल में धोखा हैं," उन्होंने कहा। माँ ने गंभीरता से सुना और बोली, "रवि, हमें गाँववालों को ये बात बतानी होगी।"

कॉलेज के बाद, हम फिर "पहाड़ी धाम" ढाबे गए। सिख अंकल ने हमें देखकर जोरदार स्वागत किया। "कमला जी, आज क्या खाएँगे?" उसने पूछा। माँ ने हँसकर कहा, "तेरा स्पेशल थाली!" हमने पनीर मसाला, नान, और मसाला चाय ऑर्डर की। माँ ने मेरे साथ नान का टुकड़ा बाँटा और बोली, "रवि, ये शहर की हवा मुझे जवान कर देती है!" मैंने हँसकर कहा, "माँ, तुम तो पहले से ही जवान हो!" माँ ने मेरी तरफ देखा और हल्के से मेरे गाल पर चपत लगाई। ढाबे का माहौल, माँ की हँसी, और हमारी बातें—सब कुछ ऐसा था जैसे जिंदगी के सारे दुख एक पल के लिए गायब हो गए।

बाजार में, हमने कुछ और सामान खरीदा। माँ ने मेरे लिए एक नई कॉपी और पेन लिया, और मैंने माँ के लिए एक छोटा सा दर्पण खरीदा। "ये तुम्हें हमेशा अपनी खूबसूरती याद दिलाएगा," मैंने हँसकर कहा। माँ ने दर्पण में खुद को देखा और बोली, "रवि, तू तो मुझे शरमिंदा कर देगा!" हम दोनों हँसते-हँसते बाजार में घूमने लगे। तभी, मेरी नजर विक्रम पर पड़ी। वो एक चाय की दुकान पर खड़ा था, कुछ लोगों से बात कर रहा था। उसने हमें देखा और पास आ गया।

"कमला जी, रवि, नमस्ते!" विक्रम ने अपनी चिकनी-चुपड़ी मुस्कान के साथ कहा। माँ ने सख्ती से जवाब दिया, "हमें जल्दी है।" लेकिन विक्रम ने रुककर कहा, "रवि, तुम पढ़े-लिखे हो। मेरे साथ काम करो। ठाकुर साहब तुम्हें अच्छी सैलरी देंगे।" मैंने माँ की तरफ देखा। उनकी आँखों में वही चिंता थी। मैंने विक्रम से कहा, "मैं सोचकर बताऊँगा।" माँ ने मेरे हाथ को कसकर पकड़ा और हम वहाँ से चले गए।

वापसी की बस में, माँ और मैं चुप थे। माँ ने मेरा हाथ पकड़ा और बोली, "रवि, तूने देखा ना, वो लोग कितने शातिर हैं? लेकिन मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है।" मैंने माँ की आँखों में देखा और कहा, "माँ, मैं तुम्हें कभी निराश नहीं करूँगा।" माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा और बोली, "तू मेरा बेटा ही नहीं, मेरा दोस्त है।" मैंने हँसकर कहा, "और तुम मेरी बेस्ट फ्रेंड हो, माँ!"

उस रात, गाँव लौटने के बाद, हम फिर आँगन में बैठे। माँ ने मुझे अपने और पिताजी के शुरुआती दिनों की बात बताई। "तेरे पिताजी पहले बहुत हँसते थे," माँ ने कहा। "लेकिन शराब ने सब छीन लिया। मैंने तुझे उससे बचाने के लिए बहुत कुछ सहा।" मैंने माँ को गले लगाया और कहा, "माँ, अब मैं तुम्हें सब कुछ दूँगा—खुशी, सम्मान, और वो मेला जहाँ तुम नाच सको!" माँ ने हँसकर मेरे सिर पर हाथ फेरा और बोली, "बस, तू मेरे साथ रह, वो ही काफी है।"

अगले दिन, माँ ने गाँववालों को फिर इकट्ठा किया। "हमें ठाकुर और विक्रम की साजिश को रोकना होगा," माँ ने कहा। रमेश चाचा और शर्मा जी ने माँ का साथ दिया। गीता दीदी ने बताया कि प्रोफेसर शर्मा कुछ कागजात दे सकते हैं, जो ठाकुर के पुराने धोखों को उजागर करें। मैंने माँ से कहा, "माँ, मैं प्रोफेसर से मिलूँगा। हम मिलकर गाँव को बचाएँगे।" माँ ने मेरी तरफ देखा और उनकी आँखों में गर्व था। "मेरा रवि," उन्होंने धीरे से कहा।

उस रात, माँ और मैं देर तक बात करते रहे। माँ ने मुझे अपने एक और सपने के बारे में बताया—एक छोटा सा स्कूल खोलने का, जहाँ गाँव के बच्चे पढ़ सकें। मैंने माँ से वादा किया कि मैं उनकी हर इच्छा पूरी करूँगा। हमने सितारों के नीचे हँसी-मजाक किया, पुरानी यादें ताजा कीं, और एक-दूसरे के साथ वो पल बिताए जो जिंदगी को और खूबसूरत बनाते हैं। माँ ने मेरे गले में वो तिब्बती लॉकेट ठीक किया और बोली, "ये हमेशा मेरे प्यार को याद दिलाएगा।" मैंने माँ को गले लगाया और कहा, "माँ, तुम मेरे लिए सब कुछ हो।"



सूरजपुर की वो सितारों भरी रातें, जब माँ और मैंने अपने दिल के राज़ बाँटे थे, मेरे लिए एक नई दुनिया खोल रही थीं। माँ, कमला, मेरी सिर्फ माँ नहीं थीं—वो मेरी दोस्त, मेरी ताकत, और मेरी सबसे गहरी चाहत बन चुकी थीं। उनकी लाल शॉल, वो तिब्बती लॉकेट, और हमारी देर रात की बातें—ये सब हमारे बीच एक ऐसी नजदीकी ला रहे थे, जो शब्दों से परे थी। लेकिन ठाकुर रंजीत सिंह और उसके मैनेजर विक्रम का साया गाँव पर गहराता जा रहा था। गाँव की जमीनें, हमारा घर, और हमारी जिंदगी—सब कुछ खतरे में था। फिर भी, उन तनावों के बीच, माँ और मेरे बीच एक नया, जटिल, और गहरा रिश्ता पनप रहा था, जो समाज की नजरों में निषिद्ध था, लेकिन हमारे दिलों में एक अनजानी आग जला रहा था।

उस रात, जब हम आँगन में सितारों के नीचे बैठे थे, माँ की लाल शॉल मेरे कंधे पर थी। हवा में ठंडक थी, और मंदिर की घंटियों की हल्की आवाज़ गाँव की शांति को और गहरी कर रही थी। माँ ने मेरे गले में वो तिब्बती लॉकेट ठीक किया और बोली, "रवि, ये लॉकेट मेरे प्यार का प्रतीक है। इसे कभी मत उतारना।" उनकी आवाज़ में एक ऐसी गर्माहट थी, जो मेरे दिल को छू गई। मैंने माँ की आँखों में देखा—वो आँखें, जो हमेशा मेरे लिए बलिदान देती थीं, आज कुछ और कह रही थीं।

"माँ, तुम मेरे लिए सब कुछ हो," मैंने धीरे से कहा। मेरी आवाज़ में एक अजीब सी कशिश थी, जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी। माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी मुस्कान में एक हल्की सी शरम थी। "रवि, तू मेरा बेटा है, लेकिन... तू मेरा दोस्त भी है," उन्होंने कहा। उनकी आवाज़ में एक हल्का सा कंपन था, जैसे वो कुछ छिपा रही हों। मैंने उनका हाथ पकड़ा—उनकी उंगलियाँ ठंडी थीं, लेकिन मेरे स्पर्श से वो गर्म हो गईं। उस पल में, कुछ ऐसा हुआ, जो हमारे रिश्ते को एक नई दिशा दे गया।

मैंने माँ के चेहरे को देखा। उनकी आँखें, जो हमेशा मेरे लिए हिम्मत का स्रोत थीं, आज एक अनजानी चाहत से भरी थीं। मेरे मन में एक तूफान उठ रहा था—प्यार, अपराधबोध, और एक ऐसी इच्छा जो मैं समझ नहीं पा रहा था। "माँ, क्या मैं तुम्हें कुछ कह सकता हूँ?" मैंने हिचकते हुए पूछा। माँ ने सिर हिलाया, और उनकी आँखों में एक गहरी जिज्ञासा थी। "बोल, रवि," उन्होंने धीरे से कहा। मैंने एक गहरी साँस ली और कहा, "माँ, तुम मेरे लिए सिर्फ माँ नहीं हो। तुम... मेरी जिंदगी हो।" मेरे शब्दों में एक ऐसी तीव्रता थी, जो मैंने पहले कभी महसूस नहीं की थी।

माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी आँखें नम हो गईं। "रवि, तू जानता है, मैंने तेरे लिए सब कुछ छोड़ दिया। लेकिन... कुछ चीजें ऐसी हैं, जो दिल को समझाना मुश्किल है।" उनकी आवाज़ में एक दर्द था, लेकिन साथ ही एक ऐसी गहराई जो मुझे उनके और करीब खींच रही थी। मैंने उनका हाथ और कसकर पकड़ा, और हम दोनों चुप हो गए। सितारों की रोशनी में, हमारा मौन एक नई भाषा बोल रहा था—प्यार, चाहत, और अपराधबोध की भाषा।

उस रात, जब गाँव सो चुका था, माँ और मैं घर के अंदर गए। चूल्हे की मद्धम आग अभी भी जल रही थी, और कमरे में एक हल्की सी गर्माहट थी। माँ ने अपनी लाल शॉल उतारी और उसे मेरे कंधे पर डाल दिया। "ये तुझे गर्म रखेगी," उन्होंने हँसकर कहा। मैंने माँ की तरफ देखा और बिना सोचे उनके करीब चला गया। मेरे दिल की धड़कन तेज थी, और मेरे मन में एक अजीब सी उलझन थी। मैं जानता था कि ये गलत है, लेकिन माँ की वो मुस्कान, वो गर्माहट, और वो प्यार मुझे रोक नहीं पा रहा था।

"माँ, क्या मैं तुम्हें गले लगा सकता हूँ?" मैंने धीरे से पूछा। माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी आँखों में एक पल के लिए हिचक थी। फिर उन्होंने हल्के से सिर हिलाया। मैंने उन्हें गले लगाया, और उस पल में समय जैसे ठहर गया। माँ की साँसें मेरे कंधे पर महसूस हो रही थीं, और उनकी गर्माहट मेरे शरीर में एक अजीब सी आग जला रही थी। मैंने उनके बालों को छुआ, और उनकी चोटी की वो सौंधी खुशबू मेरे होश उड़ा रही थी।

"रवि, ये... ये ठीक नहीं है," माँ ने धीरे से कहा, लेकिन उनकी आवाज़ में वो सख्ती नहीं थी। मैंने उनकी आँखों में देखा और कहा, "माँ, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ।" मेरे शब्दों में एक ऐसी तीव्रता थी, जो मुझे खुद डरा रही थी। माँ ने मेरे चेहरे को अपने हाथों में लिया और बोली, "रवि, तू मेरा बेटा है। लेकिन... मैं भी इंसान हूँ।" उनकी आँखों में अपराधबोध था, लेकिन साथ ही एक ऐसी चाहत जो मेरे दिल को और तेज धड़का रही थी।

हम दोनों एक-दूसरे के करीब आए। माँ की साँसें तेज थीं, और मेरे हाथ उनके कंधों पर काँप रहे थे। मैंने उनके गाल को छुआ, और उनकी त्वचा की वो नरमी मुझे एक अजीब सी दुनिया में ले जा रही थी। "माँ, मैं तुम्हें कभी दुख नहीं दूँगा," मैंने फुसफुसाया। माँ ने मेरी तरफ देखा, और उनकी आँखें आंसुओं से भरी थीं। "रवि, ये गलत है... लेकिन मैं तुझसे दूर नहीं रह सकती," उन्होंने कहा।

उस पल में, हमारी नजदीकी एक निषिद्ध रेखा पार कर गई। माँ ने मेरे होंठों को छुआ, और वो स्पर्श ऐसा था जैसे बिजली का झटका। मैंने उन्हें और कसकर गले लगाया, और हमारी साँसें एक-दूसरे में मिल गईं। कमरे की मद्धम रोशनी, चूल्हे की गर्माहट, और हमारी धड़कनों का संगीत—सब कुछ एक ऐसी दुनिया बना रहा था, जहाँ सिर्फ हम दोनों थे। लेकिन मेरे मन में अपराधबोध की एक लहर भी उठ रही थी। मैं जानता था कि ये गलत है, लेकिन माँ की वो गर्माहट, वो प्यार, और वो चाहत मुझे रोक नहीं पा रही थी।

अपराधबोध और जुनून
जैसे ही हमारा स्पर्श गहरा हुआ, माँ ने एक पल के लिए पीछे हटकर कहा, "रवि, हमें रुकना चाहिए।" उनकी आवाज़ में दर्द था, लेकिन उनकी आँखें मेरे चेहरे पर टिकी थीं। मैंने उनका हाथ पकड़ा और कहा, "माँ, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता।" माँ ने मेरी तरफ देखा और बोली, "तू मुझे कभी नहीं खोएगा। लेकिन ये रास्ता... ये हमें बर्बाद कर सकता है।" मैंने उनकी बात सुनी, लेकिन मेरे दिल में एक जुनून था, जो मुझे रोक नहीं पा रहा था।

हमने उस रात एक-दूसरे को गले लगाए रखा। माँ की साँसें मेरे कंधे पर थीं, और मेरे हाथ उनकी कमर पर। हमारी नजदीकी में एक अजीब सा जुनून था, लेकिन साथ ही एक गहरा अपराधबोध। मैं जानता था कि समाज हमें कभी माफ नहीं करेगा, लेकिन उस पल में, माँ की वो गर्माहट मेरी दुनिया थी। हमने कोई सीमा पार नहीं की, लेकिन हमारा स्पर्श, हमारी साँसें, और हमारी नजदीकी एक ऐसी कहानी लिख रही थी, जो निषिद्ध थी, फिर भी हमारे लिए सबसे कीमती थी।

अगली सुबह, गाँव में हलचल थी। ठाकुर और विक्रम ने कुछ गाँववालों को कर्ज देने शुरू कर दिए थे। रमेश चाचा ने बताया कि लाला राम ने ठाकुर से पैसे ले लिए हैं। माँ ने गाँववालों को फिर इकट्ठा किया और कहा, "हमें एकजुट रहना होगा। ठाकुर हमारी जमीनें छीन लेगा।" मैंने माँ की हिम्मत देखकर गर्व महसूस किया। गीता दीदी ने मुझे प्रोफेसर शर्मा से मिलने की याद दिलाई। "रवि, वो कागजात जरूरी हैं," उसने कहा।

माँ और मैंने फैसला किया कि हम अगले दिन फिर धर्मशाला जाएँगे। "रवि, तू प्रोफेसर से मिल, और मैं गाँववालों को समझाऊँगी," माँ ने कहा। मैंने माँ की आँखों में देखा और कहा, "माँ, हम मिलकर सब ठीक करेंगे।" माँ ने मेरे कंधे पर सिर रखा और बोली, "मेरा रवि, तू मेरी ताकत है।"


धर्मशाला की सैर इस बार अलग थी। हमने "पहाड़ी धाम" ढाबे पर फिर खाना खाया। सिख अंकल ने हमें देखकर हँसकर कहा, "कमला जी, आप तो हमारे ढाबे की शान हो!" माँ ने हँसकर जवाब दिया, "और तेरा खाना मेरी जिंदगी की शान है!" हमने दाल-तड़का और तंदूरी रोटी खाई, और माँ ने मेरे साथ हँसी-मजाक किया। लेकिन मेरे मन में रात की वो नजदीकी घूम रही थी। माँ ने मेरी चुप्पी देखी और बोली, "रवि, कुछ सोच रहा है?" मैंने हल्के से सिर हिलाया और कहा, "माँ, मैं तुम्हें कभी दुख नहीं दूँगा।" माँ ने मेरे हाथ पर हाथ रखा और बोली, "तू मेरा सुख है, रवि।"
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