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Romance मेरी प्यारी जिन्नी (Completed)

Manisha48

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ये कहानी मेरी नहीं है और इसका क्रेडिट मुझे नहीं जाता मगर मेंने इस कहानी को थोड़ा सा अलग किया और अपनी तरफ से इसमें एडिटिंग की है अगर कहानी अच्छी लगे तो कमेंट जरुर करना और बताना के आपको कहानी कैसी लगी




 
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Manisha48

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भाग

हिंदोस्तान का एक बादशाह बड़ा प्रतापी और ऐश्वर्यवान था। उसके तीन बेटे थे। बड़े का नाम हुसैन, मँझले का अली और छोटे का अहमद था। बादशाह का एक भाई जब मरा तो उसने उसकी पुत्री को अपने महल में रख कर उसका पालन-पोषण किया। उसने उसकी शिक्षा-दीक्षा के लिए कई गुणवान और विद्वान नियुक्त किए। वह बचपन में अपने चचेरे भाइयों के साथ खेल कूद कर बड़ी हुई थी। पहले बादशाह का विचार था कि अपनी भतीजी का विवाह किसी अन्य शहजादे से करे। लेकिन उसे मालूम हुआ कि तीनों शहजादे अपनी चचेरी बहन पर मुग्ध हैं, उनमें से हर एक की इच्छा है कि उसका विवाह शहजादी के साथ हो जाए।


बादशाह को बड़ी चिंता हुई कि इस समस्या का समाधान कैसे किया जाए। यह तो स्पष्ट ही हो गया था कि अगर उसका विवाह किसी बाहरी राजकुमार से किया जाएगा तो उसके तीनों ही पुत्र दुखी होंगे। संभव है कि शहजादी के हमेशा निगाहों से दूर होने के कारण उनमें से कोई आत्महत्या कर ले। यह भी संभव है कि उनमें से कोई क्रोध के वशीभूत हो कर अपने पिता ही से विद्रोह कर बैठे। अगर उनमें से किसी एक के साथ शहजादी का विवाह किया जाता है तो बाकी दो दुखी होंगे और सोचेंगे कि हमारे साथ अन्याय किया गया है। इस निराशा की स्थिति में भी वे न जाने क्या करें। बादशाह अजीब उलझन में पड़ा था। उसकी समझ में इस जटिल समस्या का कोई समाधान नहीं आ रहा था।

बादशाह कई दिनों तक इस पर विचार करता रहा कि तीनों पुत्रों में से वह अपनी भतीजी नूरुन्निहार के लिए किसी का चुनाव किस आधार पर करे। फिर एक दिन उसने तीनों को अपने पास बुलाया और कहा, बेटो, तुम तीनों ही नूरुन्निहार के साथ विवाह करना चाहते हो। नूरुन्निहार सभी से ब्याही नहीं जा सकती, किसी एक ही से ब्याही जाएगी। मेरी नजर में तुम तीनों बराबर हो। मैं किसी एक को नूरुन्निहार के लायक समझ कर बाकी दो के दिलों में यह विचार पैदा नहीं करना चाहता कि मैं उन्हें घटिया समझता हूँ।


इसलिए मैंने एक तरकीब सोची है। यह तो स्पष्ट ही है कि तुममें से दो को नूरुन्निहार से हाथ धोना है और इस कारण इन दो को दुख भी होगा। किंतु उन्हें यह महसूस नहीं होगा कि उनके साथ अन्याय किया गया है। इसलिए तुम तीनों के आपसी प्रेम-भाव में कोई कमी नहीं आएगी और कोई एक किसी दूसरे को हानि पहुँचाने की स्थिति में नहीं रहेगा। मैंने यह उपाय सोचा है कि तुम तीनों अलग-अलग देशों की यात्रा करो और मेरे लिए सुंदर और दुर्लभ वस्तुएँ लाओ। एक शहजादे का एक भेंट लाना ही यथेष्ट है। जिस शहजादे की भेंट मेरी निगाह में सबसे विचित्र होगी उसी के साथ शहजादी नूरुन्निहार का विवाह होगा। इस प्रकार इस विवाह का फैसला मेरे हाथ नहीं बल्कि तुम लोगों के भाग्य और पुरुषार्थ के हाथ होगा। तुम लोगों को अपनी यात्राओं के लिए पर्याप्त और बराबर मात्रा में धन मिलेगा। मुझे आशा है कि तुम तीनों ही इस परीक्षा के लिए तैयार हो जाओगे और इसका जो भी फल होगा उसकी तुम्हें कोई और किसी से शिकायत नहीं रहेगी। तीनों राजकुमारों ने पिता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
 
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Raj Yadav

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पाठ १

हिंदोस्तान का एक बादशाह बड़ा प्रतापी और ऐश्वर्यवान था। उसके तीन बेटे थे। बड़े का नाम हुसैन, मँझले का अली और छोटे का अहमद था। बादशाह का एक भाई जब मरा तो उसने उसकी पुत्री को अपने महल में रख कर उसका पालन-पोषण किया। उसने उसकी शिक्षा-दीक्षा के लिए कई गुणवान और विद्वान नियुक्त किए। वह बचपन में अपने चचेरे भाइयों के साथ खेल कूद कर बड़ी हुई थी। पहले बादशाह का विचार था कि अपनी भतीजी का विवाह किसी अन्य शहजादे से करे। लेकिन उसे मालूम हुआ कि तीनों शहजादे अपनी चचेरी बहन पर मुग्ध हैं, उनमें से हर एक की इच्छा है कि उसका विवाह शहजादी के साथ हो जाए।


बादशाह को बड़ी चिंता हुई कि इस समस्या का समाधान कैसे किया जाए। यह तो स्पष्ट ही हो गया था कि अगर उसका विवाह किसी बाहरी राजकुमार से किया जाएगा तो उसके तीनों ही पुत्र दुखी होंगे। संभव है कि शहजादी के हमेशा निगाहों से दूर होने के कारण उनमें से कोई आत्महत्या कर ले। यह भी संभव है कि उनमें से कोई क्रोध के वशीभूत हो कर अपने पिता ही से विद्रोह कर बैठे। अगर उनमें से किसी एक के साथ शहजादी का विवाह किया जाता है तो बाकी दो दुखी होंगे और सोचेंगे कि हमारे साथ अन्याय किया गया है। इस निराशा की स्थिति में भी वे न जाने क्या करें। बादशाह अजीब उलझन में पड़ा था। उसकी समझ में इस जटिल समस्या का कोई समाधान नहीं आ रहा था।

बादशाह कई दिनों तक इस पर विचार करता रहा कि तीनों पुत्रों में से वह अपनी भतीजी नूरुन्निहार के लिए किसी का चुनाव किस आधार पर करे। फिर एक दिन उसने तीनों को अपने पास बुलाया और कहा, बेटो, तुम तीनों ही नूरुन्निहार के साथ विवाह करना चाहते हो। नूरुन्निहार सभी से ब्याही नहीं जा सकती, किसी एक ही से ब्याही जाएगी। मेरी नजर में तुम तीनों बराबर हो। मैं किसी एक को नूरुन्निहार के लायक समझ कर बाकी दो के दिलों में यह विचार पैदा नहीं करना चाहता कि मैं उन्हें घटिया समझता हूँ।


इसलिए मैंने एक तरकीब सोची है। यह तो स्पष्ट ही है कि तुममें से दो को नूरुन्निहार से हाथ धोना है और इस कारण इन दो को दुख भी होगा। किंतु उन्हें यह महसूस नहीं होगा कि उनके साथ अन्याय किया गया है। इसलिए तुम तीनों के आपसी प्रेम-भाव में कोई कमी नहीं आएगी और कोई एक किसी दूसरे को हानि पहुँचाने की स्थिति में नहीं रहेगा। मैंने यह उपाय सोचा है कि तुम तीनों अलग-अलग देशों की यात्रा करो और मेरे लिए सुंदर और दुर्लभ वस्तुएँ लाओ। एक शहजादे का एक भेंट लाना ही यथेष्ट है। जिस शहजादे की भेंट मेरी निगाह में सबसे विचित्र होगी उसी के साथ शहजादी नूरुन्निहार का विवाह होगा। इस प्रकार इस विवाह का फैसला मेरे हाथ नहीं बल्कि तुम लोगों के भाग्य और पुरुषार्थ के हाथ होगा। तुम लोगों को अपनी यात्राओं के लिए पर्याप्त और बराबर मात्रा में धन मिलेगा। मुझे आशा है कि तुम तीनों ही इस परीक्षा के लिए तैयार हो जाओगे और इसका जो भी फल होगा उसकी तुम्हें कोई और किसी से शिकायत नहीं रहेगी। तीनों राजकुमारों ने पिता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया



Superb
 

Manisha48

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भाग २

उन तीनों को अपनी बुद्धि और पराक्रम पर पूरा विश्वास था और हर एक सोचता था कि मैं ही सबसे अच्छी चीज लाऊँगा और नूरुन्निहार का हाथ मेरे हाथ में दिया जाएगा। बादशाह ने हर एक को यथेष्ट धन दे कर विदा कर दिया। उन में से हर एक ने कुछ सेवक अपने साथ लिए और व्यापारियों के वेश में राजधानी से निकल पड़े। कई मंजिलों तक वे इकट्ठे गए। फिर एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ से विभिन्न देशों को रास्ते जाते थे। दो-चार दिन वहाँ रह कर वे अपनी-अपनी राहों पर चल पड़े। इसकी पहली शाम को उन्होंने एक साथ मिल कर भोजन किया और कुछ समझौते किए। पहली बात तो यह थी, कोई एक वर्ष से अधिक की यात्रा न करे, जो कुछ लाना हो वह एक वर्ष के अंदर ही प्राप्त कर ले क्योंकि परीक्षा किसी अवधि के अंदर ही होनी चाहिए। दूसरी बात यह तय की गई कि बादशाह के पास तीनों शहजादे एक साथ ही पहुँचें ताकि किसी को शक न हो कि किसी ने अनुचित रूप से बादशाह की कृपा प्राप्त कर ली है। उन्होंने यह भी तय किया कि अगर किसी की यात्रा जल्द पूरी हो जाए तो वह इसी सराय में आ कर ठहरे रहे और बाकी दोनों भाइयों की प्रतीक्षा करे और इस तरह जब तीनों मिल जाएँ तो एक साथ बादशाह के सामने चलें। फिर वे एक दूसरे के गले मिले और अगली सुबह चल पड़े।


बड़े शहजादे हुसैन ने विष्णुगढ़ नामक इलाके की बहुत प्रशंसा सुन रखी थी और बहुत दिनों से उस राज्य को देखना भी चाहता था। विष्णुगढ़ को समुद्री मार्ग ही से जाया जा सकता था इसलिए वह कुछ दिनों की राह तय करके बंदरगाह पहुँचा और व्यापारियों के एक दल में शामिल हो कर उधर को चल पड़ा। तीन महीने तक समुद्र और स्थल की यात्रा करने के बाद शहजादा हुसैन विष्णुगढ़ पहुँचा। विष्णुगढ़ में वह एक बड़ी सराय में ठहरा जहाँ पर बड़े-बड़े व्यापारी ठहरा करते थे। सराय में उसे विष्णुगढ़ के निवासियों ने बताया कि यहाँ का बड़ा बाजार कुछ ही दूर पर है और उसमें दुनिया की समस्त व्यापार वस्तुएँ मिलती हैं।


शहजादा हुसैन दूसरे दिन विष्णुगढ़ के मुख्य बाजार में पहुँचा। वह उसकी लंबाई-चौड़ाई और शान-शौकत को देख कर हैरान रह गया। बाजार में हजारों दुकानें थीं जो खूब बड़ी-बड़ी और बहुत साफ-सुथरी थीं। उनमें धूप और गर्मी का असर न हो इसके लिए उनके सामने बड़े-बड़े सायबान लगे थे। लेकिन इन सायबानों को इस प्रकार कलापूर्वक लगाया गया था कि दुकानों में अँधेरा बिल्कुल नहीं होता था और हर चीज साफ-साफ दिखाई देती थी। हर चीज के लिए वहाँ अलग दुकान थी। कपड़ों की दुकानों पर मूल्य और गुण के हिसाब से भाँति-भाँति के वस्त्र क्रम से लगे थे। कुछ कपड़ों पर बेलबूटे बने थे और कुछ पर पेड़ों, फलों और फूलों के चित्र इतनी कुशलता से बनाए गए थे कि यह चीजें बिल्कुल वास्तविक लगती थीं।


बाजार में कहीं कीमती कपड़ों जैसे कमख्वाब, चिकन, साटन, अतलस आदि के थानों के ढेर थे, कहीं चीनी और शीशे के बहुत खूबसूरत और नाजुक काम के बरतन थे। कहीं अत्यंत सुंदर रंग-रूप के कालीन और गलीचे रखे थे। इन सारी दुकानों को देखने के बाद हुसैन उन दुकानों पर आया जहाँ पर सोने-चाँदी के बरतन, गहने और जवाहिरात बिक रहे थे। हुसैन को यह सब देख कर आश्चर्य हुआ और उसने सोचा कि एक ही बाजार में इतना सामान है तो नगर के सारे बाजारों में मिला कर न जाने कितना होगा।


शहजादा हुसैन को वहाँ की समृद्धि देख कर भी आश्चर्य हुआ। वह ब्राह्मणों का राज्य था और ब्राह्मण लोग रत्न-जटित आभूषणों और रेशमी परिधानों में सुसज्जित हो कर घूम रहे थे और काम-काज में लगे थे। उनके दास तक सोने के कड़े और कुंडल पहने हुए थे। हुसैन और बाजारों में भी घूमा। उसने यह भी देखा कि विष्णुगढ़ में फूल बहुत अधिक बिकते हैं। जिसे देखो वह सुगंधित फूलों के हार पहने घूमता है और सारे दुकानदार अपनी दुकानों को गुलदस्तों से सजाए रखते हैं जिसके कारण सारा बाजार महकता रहता है।


हुसैन बहुत देर तक इन बाजारों में घूमता और उनकी शोभा देखता रहा। अंत में वह थक गया और इच्छा करने लगा कि कहीं बैठ कर सुस्ता ले। एक दुकानदार ने उसके थके हुए चेहरे को देखा और वह सौहार्दपूर्वक उसे दुकान के अंदर ला कर बिठाया। हुसैन दुकान की चीजें देखता रहा और एक-आध चीज उसने खरीदी भी। कुछ देर बाद एक दलाल उधर से आवाज लगाता हुआ निकला, एक गलीचा तीस हजार अशर्फियाँ का है। है कोई इसको लेनेवाला? हुसैन को आश्चर्य हुआ कि गलीचे का इतना मूल्य भी हो सकता है। उसने दलाल को बुलाया और पूछा, भाई, गलीचे का दाम मैंने कभी इतना नहीं सुना, यह कैसा गलीचा है? दलाल ने समझा कि हुसैन कोई मामूली व्यापारी है। उसने कहा, भाई, तुम न समझ सकोगे कि इसमें क्या खास बात है। वास्तव में मैं तीस हजार अशर्फी गलत बोल गया, इसका मालिक चालीस हजार अशर्फी से एक कौड़ी कम नहीं लेगा।


हुसैन के जोर देने पर दलाल ने उसे गलीचा दिखाया। वह खूबसूरत और नरम था और लंबाई-चौड़ाई में चार-चार गज था। फिर भी उसमें कोई खास बात न थी। हुसैन ने कहा, यह तो एक अशर्फी से अधिक का नहीं मालूम होता। दलाल ने कहा, देखने में यह ऐसा ही लगता है लेकिन इसकी विशेषता यह है कि इस पर बैठ कर जहाँ जाने की इच्छा करो, यह वहीं पहुँचा देता है। हुसैन ने कहा, अगर बात ठीक है तो मैं इसके लिए चालीस हजार अशर्फियाँ दे सकता हूँ। किंतु यह मालूम कैसे पड़े कि इसका यह गुण है। दलाल ने पूछा कि आप कहाँ ठहरे हैं। हुसैन ने उस सराय का नाम लिया जहाँ वह ठहरा था। दलाल ने कहा, इसकी परीक्षा इस तरह हो सकती है कि मैं इसे यहाँ बिछा दूँ, हम दोनों इस पर बैठें और उस सराय में जाने की इच्छा करें। अगर यह हम लोगों को वहाँ पहुँचा दे तो आपको विश्वास हो जाएगा और तभी मैं आपसे इसका दाम चालीस हजार अशर्फी लूँगा। यह कह कर उसने दुकान में गलीचा बिछा दिया। हुसैन उसके साथ गलीचे पर बैठा और दोनों ने सराय के कमरे में जाने की इच्छा की। गलीचा हवा में उड़ा और उसने पलक मारते ही दोनों को सराय में हुसैन के कमरे में पहुँचा दिया।


हुसैन इससे बड़ा खुश हुआ। उसे विश्वास था कि उसके भाइयों को इससे अधिक विचित्र वस्तु नहीं मिल सकती और अब नूरुन्निहार उसी की होगी। उसने दलाल को तुरंत ही चालीस हजार अशर्फियाँ गिन दीं। उसका काम पूरा हो चुका था और वह वापस जा सकता था किंतु उसने सोचा कि अगर मैं अभी उस सराय में पहुँच गया तो मुझे महीनों तक सराय में रुक कर वर्ष के अंत तक अपने भाइयों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और मैं बहुत ऊबूँगा। इसलिए उसने तय किया कि तब तक इस सुंदर देश की सैर करे और यहाँ की चित्र-विचित्र वस्तुओं को देखे। इसलिए उसने कई महीने नगर और उसके आसपास के क्षेत्रों में बिताए।


विष्णुगढ़ के राजा का नियम था कि वह सप्ताह में एक बार विदेशी व्यापारियों को अपने दरबार में बुलाता था और उनके सुझाव और शिकायतें सुनता था और निर्णय लेता था। हुसैन भी वहाँ जाता और बातचीत में हिस्सा लेता था। हुसैन ने राजा को अपना असली परिचय नहीं दिया था फिर भी राजा उसकी चाल-ढाल और तौर-तरीकों से प्रभावित था और उसके साथ बड़ा कृपापूर्ण व्यवहार करता था। राजा उससे हिंदोस्तान के हाल-चाल और व्यवस्था के बारे में पूछा करता।


एक दिन शहजादा नगर के एक प्रसिद्ध मंदिर को देखने गया। यह मंदिर ऊपर से नीचे तक पीतल से मढ़ा हुआ था। उसका देवस्थान दस गज लंबा और इतना ही चौड़ा था। उसमें की मुख्य देवमूर्ति मानवाकार थी और ऐसे कलापूर्ण ढंग से स्थापित की गई थी कि भक्तगण चाहे जिस ओर जाएँ देवता उन्हें अपनी ही ओर देखता हुआ लगता था। देवता की आँखें रत्नों की बनी हुई थीं। इसके बाद वह एक प्रसिद्ध ग्रामीण देवालय को देखने गया जिसे नगर के मंदिर से भी अधिक सुंदर बताया गया था। यह देवालय एक विशाल उद्यान के अंदर बना था। यह उद्यान कई बीघे का था। इसमें तरह-तरह के सुंदर फल-फूलों आदि के वृक्ष थे और उसके चारों ओर तीन गज ऊँची दीवार खिंची थी जिससे वहाँ आवारा या जंगली जानवर न घुस सकें। उद्यान के मध्य में एक चबूतरा था जिसकी ऊँचाई मनुष्य की ऊँचाई जैसी थी। उसके पत्थरों को ऐसे कौशल से जोड़ा गया था कि सारा चबूतरा एक ही पत्थर का बना हुआ लगता था। चबूतरा तीस गज लंबा और बीस गज चौड़ा था। वह संगमरमर का बना हुआ था और वह पत्थर ऐसा साफ और चिकना था कि उसमें आदमी अपना चेहरा देख सकता था।


इस देवालय का मंडप दर्शनीय था। उसमें देवी देवताओं की सैकड़ों मूर्तियाँ रखी हुई थीं। वहाँ सुबह और शाम को सैकड़ों मूर्तिपूजक ब्राह्मण और उनकी स्त्रियाँ और बच्चे पूजा-अर्चना के लिए आते थे। वे अपने पूजन में ऐसे मग्न हो जाते थे कि देखते बनता था। उनमें से बहुत से लोग ध्यान लगाए बैठे रहते। कुछ लोग पूजा की मस्ती में सराबोर हो कर घंटों नाचते रहते थे। कुछ भक्तजन सुंदर सुरीले वाद्यवृंदों के साथ भक्ति के गीत गाते और कीर्तन करते रहते थे।


मंदिर के आसपास भी मेला लगा रहता और तरह-तरह के खेल-तमाशे हुआ करते थे। दूर-दूर से लाखों लोग विशेष अवसरों पर आते और देवताओं को भेंट करने के लिए सुंदर वस्तुएँ और असंख्य द्रव्य लाते। इन विशेष अवसरों पर देश के प्रधान लोग तथा अन्य धनी लोग आ कर पूजा-अर्चना और परिक्रमा करते। षटशास्त्री विद्वान आ कर भाँति-भाँति के प्रवचन और शास्त्रार्थ करते। इनकी संख्या देख कर शहजादा हुसैन को बड़ा आश्चर्य हुआ। उद्यान के एक ओर एक विशाल नौमंजिली इमारत चालीस खंभों पर स्थापित थी। उसकी अंदरूनी सजावट दर्शनीय थी।


विशेष पर्वों पर जब राजा और प्रमुख सामंत देवदर्शन के लिए आते तो इसी इमारत में ठहरते और व्यापारियों तथा अन्य प्रजाजनों का फैसला भी राजा यहीं करता था। इस भवन की दीवारों पर भिन्न-भिन्न पशु-पक्षियों के चित्र बड़ी कुशलता से बनाए गए थे। वन हिस्र पशुओं की आकृतियाँ इतनी सजीव थीं कि बाहर के, विशेषतः ग्रामीण क्षेत्र के लोग उन्हें जीवित समझ कर भयभीत हो जाते थे।


इसके अतरिक्त इसी उद्यान में तीन और लकड़ी के मकान बने हुए थे। इनकी विशेषता यह थी कि उनमें काफी मनुष्यों के होने पर भी उन्हें अपनी कीली पर चारों और घुमाया जाता था। लोग तमाशा देखने के लिए उनमें जाते और जब मकानों को घुमाया जाता तब उनमें के लोग एक जगह खड़े रह कर भी चारों ओर के दृश्यों को देख सकते थे। इसके अलावा जगह-जगह पर मेलों के दिनों में तरह-तरह के खेल-तमाशे हुआ करते थे। लगभग एक हजार विशालकाय हाथी जो सुनहरे झूलों और चाँदी के हौदों से सुसज्जित थे, राजा और सामंतों की सवारियों के रूप में आते। कुछ हाथियों पर भाँड़ तमाशा दिखाते और गवैए गाते-बजाते थे। कुछ हाथी के बच्चे खुद तमाशा करते थे।


शहजादा हुसैन को इन हाथियों के तमाशे देख कर घोर आश्चर्य हुआ। एक बड़ा हाथी चार अलग-अलग पहिएदार तिपाइयों पर पाँव रखे अपनी सूँड़ से बाँसुरी जैसा एक वाद्य बजा रहा था। लोग तिपाइयों में रस्से लगा कर उससे हाथी को इधर-उधर भी ले जाते। एक जगह एक चौड़ा तख्ता एक तिपाई पर रखा था। उसके एक ओर एक हाथी का बच्चा खड़ा था और दूसरी ओर हाथी के वजन से कुछ अधिक वजन का लोहा रखा था। कभी वह हाथी जोर लगा कर नीचे आ जाता और लोहा ऊपर उठ जाता, कभी लोहा नीचा हो जाता और हाथी ऊपर टँग जाता और ऐसी हालत में तख्ते पर नाच दिखाता और सूँड़ से सुर-ताल के साथ गाने की आवाज निकालता। जमीन पर खड़े कई हाथी भी उसके साथ इसी तरह गाते। यह सब तमाशे राजा के सम्मुख होते थे। हुसैन को इन सब चीजों को देख कर बड़ा आनंद आया और वह एक वर्ष की मुद्दत के कुछ पहले तक यह तमाशे देखता रहा और अवधि की समाप्ति के कुछ दिन पहले अपने सेवकों के साथ गलीचे पर बैठ कर उस सराय में जाने की इच्छा की जहाँ उसे अपने भाइयों से मिलना था। गलीचे ने क्षण मात्र में उन लोगों को वहाँ पहुँचा दिया
 
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Manisha48

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भाग ३

मँझला शहजादा अली व्यापारियों के एक दल के साथ फारस देश को रवाना हुआ। चार महीने की यात्रा के बाद शीराज में, जो फारस की राजधानी थी, पहुँचा। वह जौहरियों के वेश में था। उसने साथ के व्यापारियों से अच्छी दोस्ती कर ली। वे सब शीराज की एक सराय में उतरे। व्यापारी लोग व्यापार करने बाजार गए तो शहजादा अली भी बाजार पहुँचा और वहाँ की सैर करने लगा। शीराज के बाजार की सारी दुकानें पक्की थीं और गोल खंभों पर मंडपों की तरह बनी हुई थीं। अली जैसे-जैसे बाजार को देखता शीराज की समृद्धि पर आश्चर्य करता। वह सोच रहा था कि एक ही बाजार में करोड़ों का माल रखा हुआ है तो सारे बाजारों में कुल मिला कर कितना माल होगा और शीराज में कितना व्यापार होता होगा।


बाजार में कई दलाल भी घूम रहे थे जो ग्राहकों को भाँति-भाँति की वस्तुएँ दिखाते थे। उसने एक दलाल को देखा जिसके हाथ में पौन गज लंबी और एक बालिश्त चौड़ी एक दूरबीन थी और वह उसका मूल्य तीस हजार अशर्फियाँ बता रहा था। अली को यह सुन कर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने एक दुकानदार से पूछा कि वह दलाल पागल तो नहीं है जो ऐसी मामूली दूरबीन के इतने दाम माँग रहा है। दुकानदार बोला, यह यहाँ का सबसे चतुर दलाल है और रोज हजारों का व्यापार करता है। कल तक तो यह भला-चंगा था, आज अगर पागल हो गया हो तो कह नहीं सकते। वैसे अगर वह इस दूरबीन को तीस हजार अशर्फियों में बेच रहा है तो कोई खास बात होगी। आप मेरी दुकान पर ठहरिए। वह इधर ही आ रहा है। जब आएगा तो हम लोग देखेंगे कि उसका माल कैसा है।


दलाल के पास आने पर उस दुकानदार ने उसे पास बुला कर पूछा कि तुम्हारी दूरबीन में क्या विशेषता है जो तुम इसका इतना दाम माँगते हो। उसने अली की ओर इशारा करके कहा कि यह तो तुम्हें पागल समझने लगे थे। दलाल ने अली से कहा, आप अभी चाहे मुझे पागल कहें, जब मैं दूरबीन की विशेषता बताऊँगा तो आप इसे जरूर खरीद लेंगे।


उसने दूरबीन को अली के हाथों में दिया और फिर उसे प्रयोग करने का तरीका पूरी तरह बताया। उसने कहा, इसके दोनों सिरों पर दो काँच के जैसे टुकड़े लगे हैं। आप दोनों से हो कर अपनी दृष्टि बाहर डालिए। आप जिस चीज को देखना चाहेंगे वह चाहे हजारों कोस की दूरी पर हो आपको इस तरह दिखाई देगी जैसे कि आपके सामने रखी है। शहजादे ने कहा, भाई, तुम्हारी बात का विश्वास किस प्रकार हो कि यह दूरबीन इतने दूर की चीज भी दिखा सकती है। दलाल ने दूरबीन उसके हाथ में दे दी और उसके प्रयोग की विधि दुबारा बता कर कहा, आप स्वयं परीक्षा कर लीजिए। दोनों शीशों के बीच निगाहें जमा कर आप जिस वस्तु या व्यक्ति का ध्यान करेंगे उसे ऐसा स्पष्ट देखेंगे जैसे वह आपसे दो-चार गज ही पर मौजूद है।


अली ने दूरबीन लगा कर अपने पिता को देखने का विचार किया तो साफ दिखाई दिया कि बादशाह दरबार में सिंहासन पर बैठा हुआ फरियादियों की अर्जियाँ सुन कर उन पर विचार कर रहा है। फिर उसने अपनी प्रेमिका नूरुन्निहार को देखना चाहा तो वह भी अपने कक्ष में दासियों से घिरी अपने पलंग पर आराम करती दिखाई दी। वह बड़ा प्रसन्न हुआ और सोचने लगा कि मेरे भाई लोग दस वर्षों तक संसार का चक्कर लगाएँ तो भी ऐसी अद्भुत वस्तु नहीं प्राप्त कर सकते। उसने दलाल से कहा, मैं तुम्हें तीस हजार अशर्फियाँ देता हूँ। दूरबीन मुझे दे दो। दलाल को इतनी आसानी से पूरा दाम देनेवाला मिला तो उसने और मुँह फैलाया और कहा कि आप से तो मैं चालीस हजार अशर्फियों से कम नहीं लूँगा। अली ने इस बारे में दलाल से झगड़ा न किया और चालीस हजार अशर्फियाँ गिन दीं।


अब वह बहुत प्रसन्न था। उसे विश्वास था कि नूरुन्निहार अब उसी की होगी। उसने सोचा कि अभी से हिंदोस्तान की सराय में जा कर भाइयों की प्रतीक्षा करने की क्या जरूरत है। अतएव उसने दो-चार महीने फारस देश की सैर में लगाए। फिर व्यापारियों के एक दल के साथ उसी पूर्व निश्चित सराय में पहुँचा। शहजादा हुसैन एक-आध दिन पहले ही वहाँ पहुँचा था। दोनों भाई प्रेमपूर्वक एक दूसरे से मिले।
 
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Yash420

👉 कुछ तुम कहो कुछ हम कहें 👈
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बहत हि शानदार कहानी है आप की भाई पढ़ कर मज़ा आ रहा है
 
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