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विक्रमसिंह विजयनगर का मुखिया कही सालो से बना हुआ था उसके आगे जाके की किसी के हिम्मत नही थी... विक्रमसिंह किसी पहलवाल से कम नहीं था.. देखने में वे एकदम कोयले जैसे काले थे.. उनसे एक दम विपरीत उनकी पत्नी मुखियांन (सुमित्रादेवी) गोरे वर्ण की नाजुक औरत थी.. में उनका छोटा बेटा (वीर) था...मेरी एक बड़ी बहन (पायल) थी जो मुझ से आयु में बस एक साल बड़ी होगी....
मेरे पापा एक पुराने जमाने के आदमी थे.. उनके लिए उनके रीती रिवाज और मान मर्यादा से बड़ के कुछ न था... वो सिर्फ बोलते ही नही अपने आचरण में भी वैसे ही थे... बाहरी भोग विलास आदि से वो दूरी बना के ही रखते... उनका ये भी मानना था कि समाज में जो औरतों को अपनी मर्यादा में ही रहना चाइए... यही वजह थी कि अकसर हवेली की चार दीवार में कैद रहती थी...मां भी खुद को खुसनसिब मानती थी की उसका पति इतना ज्यादा उसे संभाल के रखता है...मां एक ऐसी औरत थी की उसे मर्द के आगे नतमस्तक होकर खुद को पूरी तरह उसके हवाले करने में ही खुद की खुशी मानती थी... मां का ये दृढ़ निश्चय था की उसे अपने पति के आगे नतमस्तक होकर रहना हे...आप लेकिन ऐसा भी नहीं था कि मां पापा की हर बात में हा एक नौकरानी जैसे मिला देती थी... वो भी पूरे हक से मना करती थी.. और नखरे भी बहोत करती... लेकिन जीवन के बहुत से फैसले मां ने पापा के उपर छोड़ रखे थे...जैसे की मां के कपड़े आदि... मां का बाहर जाना वो सब....
मां की सारी कुछ ऐसी होती की उनका जरा भी कोमल गुलाबी बदन किसी पराई मर्द को दिखे नही...उनका ब्लाउज आगे से उनके गले तक होता पीछे से भी गर्दन तक और उनके नाजुक हाथ भी न दिखे वहा तक आता... सारी भी इसी होती की गलती से भी उनकी कमर या पीछे से कुछ दिख पाई... उनके दीवाने कम न थे लेकिन हर कोई बस उनके खजाने की बस कल्पना ही कर पाया था...
मां को कही जाने की कोई जरूरत नहीं थी हर काम के लिए हम सबको घर ही बुला लेते थे... मां को भी इसी कैद में रहने की आदत या सही में तो मां को ये कैद रास आ गई थी... क्यू की उनको भी अपने पति के अलावा किसी और के आगे नहीं जाना था... वो खुद को अपने पति के लिए बच्चा के रखना ही पत्नी धर्म मानती...
लेकिन मां जब भी अपने मायके जाती वो बिलकुल बेखायल हो जाती..उनका मानना था कि अपने घर तो सब उनके पापा कैसे या भाई हे... हां मां की यही बड़ी कमजोरी या बुरी बात थी की वो सब को अपने जैसा अच्छा और सच्चा समझ लेती... उनके लिए तो रिश्तेदार यानी अपने घर के लोग...और घर के लोग से उनको बड़ा लगाव था...
इसे ही एक थे मेरे मौसाजी (वीरेंद्र सिंह) यानी मेरी मासी के पति...उम्र में मां जीतने ही बड़े थे... वो इतने अमीर नही थे न ही गरीब थे..बस गांव में घर ठीक ठीक चल जाता था... ये देखने में बेहत अच्छे थे... गोरे रंग के थे लेकिन मां से कम.. कद में पापा से थोड़े ऊंचे और मां तो उनके बस दिल तक आती थी... मां जब उनसे बात करती उनकी आखें उपर होती और जो नजारा मां के पुराने जमाने वाले ब्लाउस में कोई नही देख पता वो भी इतनी उपर से मौसाजी देख पाते होंगे ऐसा मेरा अनुमान था...
मासी मां से बहोत जलती थी... लेकिन मां के लिए कोई ऐसा बुरा खयाल भी नही रखती थी... मासी अकसर मां की सारी या कही बार तो गहने भी मांग के ले लिया करती और मां भी खुशी खुशी देती... अब इतने सालो बाद कुछ ऐसा मंजर था की मासी के पास मां के ही पुराने नई कपड़े होते.. मुझे मासी को ना के कपड़ो देख के मां खयाल आ जाता...और ये भी सोचने पर अकसर मजबूर होता की क्या मोसाजी मासी को मां वाली सारी में ही यौन सुख देते होंगे..क्या मौसाजी के मन में मां की सारी को देख मेरी मां की तस्वीर बन जाती होगी... ओर हा तो वो मां को कितने कपड़ो में सोचते होंगे...
हमारी कहानी के मुख्य किरदार मां पापा मौसाजी और में होंगे.... आगे जरूरत पड़ने पर और किरदार आएंगे....