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Romance श्राप [Completed]

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28, Update #29, Update #30, Update #31, Update #32, Update #33, Update #34, Update #35, Update #36, Update #37, Update #38, Update #39, Update #40, Update #41, Update #42, Update #43, Update #44, Update #45, Update #46, Update #47, Update #48, Update #49, Update #50, Update #51, Update #52.

Beautiful-Eyes
* इस चित्र का इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है! एक AI सॉफ्टवेयर की मदद से यह चित्र बनाया है। सुन्दर लगा, इसलिए यहाँ लगा दिया!
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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लेकिन पाठक भी कहानी का ही हिस्सा है, तो उसको भी कुछ न कुछ कहने का हक है।

बिल्कुल है! सौ फ़ीसदी है।
इसीलिए तो कह रहा हूँ - आप दोनों की बात मानता हूँ।
मीना के किरदार में कमियाँ तो हैं ही। अब उसका थॉट प्रॉसेस क्या है, वो तो या वो जाने या मैं।
लेकिन संकेतों में वो बताया भी है। उसके साथ जो होना है, वो हो कर ही रहेगा!
इसीलिए यह परिस्थितियाँ अनिवार्य थीं। मुझे इसके अलावा और कोई चारा नहीं दिख रहा था :)

पर अच्छा लेखक वही जो अपने प्लॉट पर यकीन रखे।

अभी तक की कहानियों से अगर आप संतुष्ट हैं, तो फिर भरोसा रखें!
यह कहानी भी बढ़िया बन पड़ेगी :)

blinkit भाई की कहानी में भी हमने अपना पक्ष रखा था, शायद बहुत लोग वैसा ऐंड नही चाहते थे, लेकिन जिस तरह का अंत किया उन्होंने, वो बहुत ही उम्दा था, और वैसा अंत दुखद होते हुए भी संतुष्ट करने वाला था।

इनकी कहानी नहीं पढ़ी। बहुत कम पढ़ पाता हूँ।
अधिकतर लोग रोमन में हिंदी लिखते हैं और वो मेरे पल्ले नहीं पड़ती।
उदाहरण के लिए, padti को कैसे पढ़ें? पढ़ती? पड़ती? पडती? पद्ति? पादती? 😂
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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अभी तक की कहानियों से अगर आप संतुष्ट हैं, तो फिर भरोसा रखें!
यह कहानी भी बढ़िया बन पड़ेगी :)
भरोसा है तभी पढ़ भी रहे हैं, और अपने विचार भी रख रहे हैं, वरना यहां तो कई लेखक ऐसे है जो सीधे बोलते है कि पढ़ना है पढ़ो, वरना निकल लो।
इनकी कहानी नहीं पढ़ी। बहुत कम पढ़ पाता हूँ।
अधिकतर लोग रोमन में हिंदी लिखते हैं और वो मेरे पल्ले नहीं पड़ती।
उदाहरण के लिए, padti को कैसे पढ़ें? पढ़ती? पड़ती? पडती? पद्ति? पादती? 😂
ये बात भी है, लेकिन वो कहानी बढ़िया है, पढ़िए एक बार।
 
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park

Well-Known Member
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Update #29


उसकी स्कर्ट उतारते समय वो मीना को चूम तो रहा था, लेकिन वो अच्छी तरह समझ रही थी कि वो क्या चाहता है! वो भी तो यही चाहती थी कि जय अपने मन का कर सके... मीना ने अपने नितम्ब ऊपर उठा कर, स्कर्ट उतारने में जय की मदद करने लगी। अब शंका का कोई स्थान नहीं रह गया था - जय समझ गया कि उसको मीना का पूर्ण समर्थन प्राप्त है! बस, फिर क्या! उसने हाथ के एक तीव्र गति से उसकी स्कर्ट को उतार फेंका! स्कर्ट फ़र्श पर कहीं दूर जा कर गिरी।

दोनों का चुम्बन अचानक से ही तेज और भावनात्मक आवेश युक्त हो गया! अचानक से उसमें एक तत्परता सी आ गई। वो कोमल प्रेम वाला भाव अचानक ही लुप्त हो गया - प्रकृति अचानक ही प्रेम-वृत्ति पर भारी पड़ने लगी! जय ने किसी भी लड़की को इस तरह से नग्न पहले कभी नहीं देखा था! मीना की पैंटी उसकी ब्रा मैचिंग सेट की थी। केवल बेबी पिंक रंग की, लेस वाली चड्ढी पहने हुए वो इतनी शानदार लग रही थी कि कुछ पलों के लिए जय की बोलती ही बंद हो गई। कोई और समय होता, तो संभव है जय उसको उतारता नहीं - लेकिन बिना उसे उतारे वो मीना का अति-दिव्य दर्शन कैसे करता?

उसका हाथ मीना के पेट पर फिसलते हुए उसकी पैंटी पर आ गया। वो उसको उतारने को हुआ, लेकिन फिर कुछ सोच कर लेस के ऊपर से ही मीना की योनि की फाँकों को सहलाने लगा। स्त्री-पुरुष का अंतर उसको मालूम था, लेकिन उस अंतर को जीवन में पहली बार, इतनी निकटता से देखना - अलग ही अनुभव था। उसकी श्रोणि पर कड़े बाल थे लेकिन मीना की श्रोणि चिकनी थी... लिंग कितना कठोर होता है, लेकिन योनि कितनी... कोमल! मीना की योनि की फाँकों को सहलाते सहलाते वो उसके भगशेफ की कली को महसूस कर रहा था! कोमल अंग के ऊपर उसकी कोमल कठोरता बड़ी अनोखी महसूस हो रही थी। उसके मन में यह चल रहा था मीना की योनि कैसी होगी! बस कुछ ही क्षणों में उसको यह राज़ भी पता होने वाला था! इस कामुक विचार से जय की उत्तेजना और भी अधिक बढ़ गई।

“मीना...” वो फुसफुसाते हुए कहने को हुआ, लेकिन मीना ने उसके होंठों पर उंगली रख के चुप रहने का इशारा किया।

स्वयं पर और नियंत्रण कर पाना जय के लिए अब लगभग असंभव हो गया था। उसने पैंटी के अंदर अपना हाथ डाला और कमर से इलास्टिक को हटा कर झरोखे के अंदर झाँका।

अंदर का नज़ारा अनोखा था!

‘तो ऐसी होती है योनि...’ मीना की योनि का आंशिक दर्शन कर के भी वो खुद को धन्य महसूस कर रहा था।

इट्स ब्यूटीफुल...” उसके मुँह से निकल ही गया।

“हु...कु...म...” इतनी देर में मीना ने पहली बार कुछ कहा, “प्लीज़ डोंट टीज़ मी...”

मीना की योनि के आंशिक दर्शन से जय की उत्तेजना बिना किसी लगाम के भागने लगी। अब तो अपने गंतव्य पर पहुँच कर ही उसकी कामाग्नि ठंडी होने वाली थी। मीना ने भी इस तथ्य को स्वीकार कर लिया था कि आज रात उन दोनों का ‘एक होना’ तय है! अनुभवी होने के बावज़ूद उसके दिल में डर सा बैठा हुआ था... शायद इसलिए कि वो चाहती थी कि दोनों का मिलन जय के लिए सुखकारी हो! उसको आनंद मिले। और उसको इस बात से संतुष्टि मिल रही थी कि वो कुछ ही देर में अपने जय की होने वाली थी! पूरी तरह से! इस तथ्य को आत्मसात करना बहुत मुश्किल था।

जय ने उसकी योनि को हल्के से छुआ! मीना उत्तेजनावश कराह उठी! वो कब से सम्भोग के लिए तैयार बैठी थी, लेकिन जय उस तथ्य से अपरिचित था। उसने उसकी पैंटी को थोड़ा नीचे सरकाया। बड़ी कोमलता से! मीना ने फिर से अपने नितम्ब उठा कर पैंटी उतरवाने में जय की मदद करी।

अंततः!

जय ने जब अपनी सुन्दर और सेक्सी प्रेमिका का पूर्ण नग्न शरीर पहली बार देखा तो कुछ समय के लिए सन्न रह गया। रूप की देवी थी मीना! चेहरा तो सुन्दर था ही; स्तनों का हाल बयान कर ही चुके; अब बाकी की बातें बता देते हैं। मीना की जाँघें सुगढ़, दृढ़, और चिकनी थीं; उन दोनों जाँघों के बीच उसकी योनि के दोनों होंठ उत्तेजनावश सूजे हुए थे, और उन होंठों के बीच में कामातुर योनि-मुख! उसका आकार ट्यूलिप की कली के समान था। जय को उसका आकार और प्रकार दोनों ही पसंद आया।

“मीना... यार...” जय से रहा नहीं गया, “ये तो... बहुत सुन्दर है! ट्यूलिप की कली जैसा... जैसी...”

“आपको पसंद आई?”

“बहुत! बहुत! थैंक यू!”

मीना का शरीर सुडौल था ही, लेकिन अपने नग्न रूप में वो और भी सुगठित लग रही थी।

जय बेहद उत्तेजित था - उसके अंदर सम्भोग करने की इच्छा इतनी बलवती हो गई थी कि उसको अब कुछ और सूझ नहीं रहा था। लेकिन न जाने कैसे, अचानक ही उसका प्रेम-भाव वापस आ गया - जय को लगा कि उसकी मीना चाहती है कि वो उसको अपने आलिंगन में भर ले! शायद स्वयं जय को मीना के आलिंगन में आने की इच्छा हो आई हो!

जय ने तुरंत ही मीना को अपनी बाहों में भर लिया, और जितना अधिक संभव था, उसको अपने में भींच लिया। उस जोशीले आलिंगन में आते ही दोनों के होंठ आपस में मिल गए! यह चुम्बन बड़ा ही भावुक करने वाला था। जय को उस क्षण एक अभूतपूर्व और अलौकिक सा एहसास हुआ... एहसास कि उसका और मीना का साथ हमेशा का है... कि दोनों के अस्तित्व एक दूसरे के कारण हैं... कि उनका बंधन अटूट है, चाहे कुछ भी हो जाय। इस एहसास के कारण जय के मन में मीना के लिए और भी प्यार उमड़ आया।

‘हाँ, बस मीना ही चाहिए उसको! और कुछ भी नहीं!’

दोनों बिना कुछ बोले चुम्बन का आनंद उठाते रहे। फिर अचानक ही मीना ने कुछ अनोखा किया : चुम्बन लेते लेते, उसने जय है हाथ अपने स्तन पर रख दिया। जय ने उसके स्तनों को बारी बारी सहलाया... कुछ ही देर में होंठों का चुम्बन, चूचकों का चुम्बन बन गया - दोनों को समझ नहीं आया! मीना इस अनुभव का आनंद लेते हुए किलकारियाँ भर रही थी! जय के साथ कुछ ही पलों के साथ ने उसको गज़ब का सुख दिया था।

“आई लव यू...” जय बोला।

उसकी बोली में इतनी सच्चाई और ईमानदारी थी, जो मीना को साफ़ साफ़ सुनाई दी।

“आई नो!”

वो मुस्कुराया, और मीना के हर अंग को चूमने लगा। देर तक चूमने के कारण मीना का निचला होंठ थोड़ा सूज गया था और एक दो जगह से थोड़ा फट गया था। जय के साथ मीना एक छोटी लड़की के समान हो गई थी - उसकी भाव-भंगिमा थोड़ी नटखट सी, थोड़ी चुलबुली सी हो गई थी। जय को पता नहीं था कि इतनी देर के प्रेम-मई चुम्बन, चूषण इत्यादि से मीना को कुछ समय पहले ओर्गास्म हो आया था। उसकी योनि से भारी मात्रा में काम-रस निकल रहा था, जो बाहर से भी दिख रहा था। बिस्तर पर वो जहाँ जहाँ बैठ रही थी, वहाँ वहाँ गीलेपन के चिन्ह साफ़ दिखाई दे रहे थे।

जब जय एक बार फिर से उसके एक चूचक से जा लगा, तब मीना खिलखिला कर हँसने लगी।

“मेरे जय... तुमको ये इतने पसंद आए?”

“बहुत!”

डोंट फ़िनिश देम... नहीं तो तुम्हारे चारों बच्चे गाय का दूध पियेंगे!”

मीना ने कुछ ऐसे चुलबुले अंदाज़ में कहा कि जय भी हँसने लगा। उसकी सँगत का बड़ा ही सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा था मीना पर! और इस बात को देख कर उसको स्वयं पर बड़ा ही गर्व महसूस हो रहा था।

“जो हुकुम...” वो बोला, “... हुकुम!”

मीना मुस्कुराई... एक चौड़ी, चमकती हुई मुस्कान! अब उसको भी पहल करने का समय आ गया था। उसने एक एक कर के जय की शर्ट के बटन खोले और फिर उसको उतारने लगे। पहली बार उसको भी जय का शरीर देखने को मिला। उसको जैसी उम्मीद थी, जय का शरीर वैसा ही था - माँसल, मज़बूत, और युवा शक्ति से लबरेज़!

लाइक्ड व्हाट यू सी?” उसने मीना से पूछा।

वैरी मच! ... एग्ज़क्टली ऍस हाऊ आई होप्ड...”

फिर उसने उसकी पैंट की बेल्ट उतारी और थोड़ी जल्दबाज़ी से उसकी पैंट की ज़िप खोल कर उसको उतार दिया। जय के अंडरवियर से उसका उत्तेजित लिंग बुरी तरह से उभरा हुआ था। मीना उसको देख कर प्रभावित हुए बिना न रह सकी। जय भी चाहता था कि अब वो वस्त्रों के इस अनावश्यक दबाव से मुक्त हो जाय। उसको थोड़ी शर्म ज़रूर आ रही थी, लेकिन मन में यह बात भी आ रही थी कि मीना के सामने नग्न होना बड़ी प्राकृतिक सी बात है। वो भी चाहता था कि मीना उसको देख कर प्रभावित हो। उसकी चड्ढी उतारने से पहले मीना उसकी तरफ देख कर मुस्कुराई। जय भी मुस्कुराया।

अगले ही पल जय का उत्तेजित लिंग मुक्त हो कर हवा में तन गया। अन्य दिनों की अपेक्षा आज उसके लिंग का आकार थोड़ा अधिक ही बढ़ गया था, और इस कारण से वो जय को भी अजनबी सा लग रहा था! लेकिन यह अच्छी बात थी - अगर जय स्वयं अपने ही अंग से प्रभावित हो सकता है, तो मीना भी अवश्य होगी। लेकिन मीना को उसके लिंग से प्रभावित होने की आवश्यकता नहीं थी - अगर जय उसका है, तो किसी भी अन्य बात का कोई महत्त्व नहीं! मीना ने हाथ बढ़ा कर उसके स्तंभित लिंग पर रख दिया। उसके लिंग पर हाथ लगाते ही मीना की सिसकी सी निकल गई और वो हाथ हटा कर उसको देखने लगी।

“क्या इरादे हैं हुकुम?” उसने जय से पूछा।

लेट्स मेक अ बेबी?”

जय की बात सुन कर मीना हँसने लगी!

“हुकुम आज ही पापा बनना चाहते हैं?”

“अगर हमारी राजकुमारी की भी यही इच्छा है, तो!”

मीना ने जय को बहुत प्रभावित हो कर देखा। कैसा सीधा सा और सच्चा सा है उसका जय! उसका दिल घमंड से भर गया! हाँ, वो अपने जय को संतान देगी। एक नहीं, चार! जैसा वो चाहता है। उन दोनों का जीवन अब बस जुड़ने ही वाला है, और वो ग़ुरूर से भरी जा रही थी। कैसी किस्मत होनी चाहिए जय जैसा सुन्दर, सरल, सच्चा साथी पाने के लिए!

आई विल बी हैप्पी एंड प्राउड टू हैव योर बेबी, माय लव! ... नथिंग एल्स विल मेक माय लाइफ वर्थ मोर!”

“ओह मीना! मीना...”

कह कर जय ने मीना को बिस्तर पर लिटा दिया, और उसको अपनी तरफ़ सरका कर व्यवस्थित किया। उसका उत्तेजित लिंग मीना के पेट को छूने लगा। उन दोनों के होंठ फिर से मल्लयुद्ध में रत हो गए। एक कामुक चुम्बन! अंततः, अब समय आ ही गया था!

मीना ने अपने पाँव उठा कर जय के साइड में ला कर, उसकी पीठ पर टिका दिए। उधर जय का हाथ उसकी योनि पर चला गया। जब उसकी उँगलियों ने मीना के योनिमुख को छुआ, तो मीना के मुँह से एक कामुक कराह छूट गई। जय ने अपने लिंग को उसकी योनि पर फिराया - मीना की योनि पूरी तरह से नम थी और उसके लिंग का स्वागत करने को तत्पर भी थी।

आई लव यू सो मच, मीना!” वो फुुसफुसाया।

आई लव यू मोर...” वो भी फुसफुसाई।

जय ने फिर से उसकी योनि को अपने लिंग को फिराया।

“बहुत पेन होगा?”

मीना ने ‘न’ में सर हिलाया, “डोंट वरि अबाउट दैट! ... हमको मम्मी पापा बनना है न? ... तो हुकुम, बस आप वही सोचिए... और कुछ भी नहीं!”

जय ने ‘हाँ’ में एक दो बार हिलाया, फिर अपने लिंग को पकड़ कर उसके सिरे को मीना की योनि के अंदर धक्का दिया। जय नौसिखिया था - उसको सेक्स करने का कोई व्यवहारिक ज्ञान नहीं था। इसलिए पहला धक्का ही बलपूर्वक लग गया। अच्छी बात यह थी कि मीना की योनि अच्छी तरह से चिकनी हो रखी थी - इसलिए उसका लिंग मीना की योनि में फिसल कर काफी अंदर तक घुस गया।

अद्भुत एहसास!

कितना लम्बा अर्सा हो गया था!

मीना ने गहरी आह भरते हुए कहा, “ओह हनी!”

जय को लगा कि उसने जो किया, वो अच्छा किया। लिहाज़ा उसने फिर से एक और बलवान धक्का लगाया। पिछली बार उसके लिंग का जो भी हिस्सा बचा था, वो इस बार पूरा मीना की योनि में समाहित हो गया। मीना की कराह की आवाज़ ही बदल गई इस बार! लेकिन फिर भी मीना ने कोई शिकायत नहीं करी। लिहाज़ा, जय को अभी भी नहीं समझ आया कि उसके हर धक्के से मीना को चोट लग रही है। कुछ ब्लू फिल्मों से, जो उसने देखी हुई थीं, प्रेरित हो कर जय ने लगातार धक्के लगाने का सोचा और अगले ही पल उसका क्रियान्वयन भी कर दिया।

इस बार मीन स्वयं को रोक न सकी, “आह आह आआह्ह्ह!!” और उसकी चीख निकल गई।

जब जय ने उसकी आँखों में आँसू बनते देखे, तब उसको समझ आया कि उसकी हरकतों से मीना को चोट लग गई है। ग्लानि से भर के जय ने मीना को अपने आलिंगन में भर लिया - उसका शरीर काँप रहा था।

वो बड़बड़ाया, “आई ऍम सॉरी, हनी! ... आई हर्ट यू... डिडन्ट आई? ... आर यू ओके?”

दर्द और कराह के बीच, मीना मुस्कुराई और बड़ी कोमलता से बोली, “माय लव... डोंट वरि! यस, आई ऍम अ बिट हर्ट... बट डोंट वरि...! आई लव यू द मोस्ट! ... एंड आई वांटेड इट टू हैपन! ... डोंट स्टॉप नाउ! ... अच्छे से सेक्स करो मेरे साथ!”

फिर वो आह लेते हुए बोली, “आई फ़ील सो फुल इनसाइड! ... फुल... एंड ग्रेट! ... डोंट स्टॉप हनी... जी भर के प्यार करो मेरे साथ...”

जय ने प्रोत्साहन पा कर लिंग को थोड़ा बाहर निकाला, और वापस बलशाली धक्का लगाया। मीना की फिर से गहरी आह निकल गई। उसकी योनि अपने खुद के तरीके से चल रही थी इस समय - योनि की दीवारों में स्वतः ही संकुचन हो रहा था।

“हुकुम... कैसा लग रहा है?” जब जय वापस लयबद्ध धक्के लगाने लगा, तो मीना ने पूछा।

“ओह मीना... माय लव... आई कांट डिस्क्राइब द फ़ीलिंग...”

“गुड! एन्जॉय देन...”

“क्या अभी भी दर्द हो रहा है?”

“नहीं... उतना नहीं।”

“गुड...,” जय शरारत से मुस्कुराते हुए बोला, “क्योंकि मैं ये रोज़ करूँगा तुम्हारे साथ!”

“हा हा...” दर्द में भी मीना हँसने लगी।

हर खिलखिलाहट पर उसकी योनि और कस जाती, और जय के लिंग को अद्भुत ढंग से दबा देती!

जय ओर्गास्म को सन्निकट महसूस कर रहा था, इसलिए उसने धक्के लगाना तेज़ कर दिया। उधर मीना की योनि फिर से और भी गीली हो रही थी - उसका ओर्गास्म भी सन्निकट था।

संयोग से जब जय के वीर्य की पहली धार उसकी कोख में गिरी, उसी समय मीना भी अपने ओर्गास्म के शिखर पर पहुँच गई। अपने शरीर में वो मीठी, कामुक लहर बनती हुई महसूस कर के दोनों प्रेमी आनंद के सातवें आसमान पर उड़ने लगे। दोनों का शरीर एक पल को सख्त हो गया, और फिर अगले ही पल शांत हो कर शिथिल पड़ गया। जैसे-जैसे उनके कामुक उन्माद में कमी आई, दोनों एक दूसरे के कोमल आलिंगन में समां गए। दोनों ही थक गए थे।

इट वास अनबिलिवेबल!” अंततः जय ने चुप्पी तोड़ी, “बेबीज़ बनाना इतना मज़ेदार होता है, यह मालूम होता तो अब तक न जाने कितने बेबीज़ बना चुका होता!”

“हा हा... बदमाश...” मीना ने उसके गालों को प्यार से सहलाते हुए कहा।

“मीना?”

“हम्म्म?”

“इंडिया चलो मेरे साथ... माँ से मिलो! ... फिर हम शादी कर लेंगे!”

“हाँ!”

“पक्की बात?”

“पक्की बात!”

आई लव यू!”

आई लव यू मोर...”

*
Nice and superb update.....
 

avsji

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भरोसा है तभी पढ़ भी रहे हैं, और अपने विचार भी रख रहे हैं, वरना यहां तो कई लेखक ऐसे है जो सीधे बोलते है कि पढ़ना है पढ़ो, वरना निकल लो।

😂 😂 😂 😂 👌

ये बात भी है, लेकिन वो कहानी बढ़िया है, पढ़िए एक बार।

अवश्य! :)
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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अपडेट #30


“कुमार,” सुहासिनी ने भावनाओं से आर्द्र हो चले सुर में कहा, “... आप जा रहे हैं!”

जब दो प्रेमी एक दूसरे की संगत के आदी हो जाते हैं, तो उनसे एक क्षण का बिछोह भी सहन नहीं होता। और यहाँ तो कुमार हर्ष, सुहासिनी को कई दिनों के लिए जाने की सूचना दे रहा था।

“आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे हम सदा के लिए जा रहे हैं...” उसने सुहासिनी को अपने आलिंगन में भरते हुए कहा, “बस, कुछ दिनों की ही तो बात है!”

“हाँ, किन्तु आपका जाना आवश्यक ही क्यों है? ... और वो भी इतनी दूर!”

“इतनी दूर कहाँ? ... बस दिल्ली ही तो जा रहे हैं! ... हम तो वैसे भी अक्सर ही आते जाते रहते हैं।” हर्ष ने मुस्कुराते हुए सुहासिनी के आंसुओं को पोंछा, और समझाते हुए बोला, “... पिताजी महाराज और माँ बड़े ही आवश्यक कार्य के लिए प्रधानमंत्री जी से मिलने वाले हैं। ... पड़ोसी मुल्क़ चीन के इरादे सही नहीं लग रहे हैं, इसलिए देश को हमारी आवश्यकता है न...”

“आप युद्ध करने जा रहे हैं?”

“नहीं पगली! हम नहीं कर रहे हैं युद्ध... किन्तु युद्ध को सफल बनाने के लिए सहायता तो दे सकते हैं न सरकार को? ... तो बस, वही करने जाना है!”

“किन्तु...”

“फिर से किन्तु! ... राजकुमारी जी, हमको भी तो पिताजी और माँ के सामने अपनी दक्षता का प्रदर्शन करना है न! ... अन्यथा वो सोचेंगे कि कैसा नालायक है उनका छोटा बेटा! ... आप समझ रही हैं न?”

सुहासिनी ने समझते हुए सर हिलाया।

“पिताजी के पीछे बड़े भैया इस्टेट को सम्हालेंगे, और राज्य के अन्य राजनीतिक दलों को साथ लाने का प्रयास करेंगे! ... वो कोई कम काम है? अब ऐसे में हमको भी तो कुछ करना चाहिए न! ... तो हम उनके साथ देश की राजधानी में जा कर बड़े बड़े लोगों को साथ लाने का प्रयास करेंगे!”

हर्ष ने एक बड़ी डींग हाँकी, जिसको सुन कर सुहासिनी बड़ी प्रभावित भी हुई। सही है - युद्ध का संकट जब निकट हो, तो हर व्यक्ति - क्या राजा, क्या प्रजा - का कर्तव्य है कि यथासंभव वो उस संकट को परास्त करने का प्रयास करे। अपने प्रियतम पर उसको अभिमान हो आया। लेकिन फिर भी, उसको बिछड़ने की घबराहट हो रही थी।

“किन्तु फिर भी... आपके जाने का सोच कर ही हमारा दिल घबरा रहा है!”

“अरे, कैसी क्षत्राणी हैं आप, राजकुमारी जी? ... इतना बड़ा संकट आन पड़ा है देश पर... और आप हमसे कुछ दिनों का बिछोह भी नहीं बर्दाश्त कर पा रही हैं!”

“हम क्षत्राणी कहाँ...”

“अच्छा... आप क्षत्राणी नहीं हैं?” हर्ष ने सुहासिनी से ठिठोली करते हुए कहा।

उसने ‘न’ में सर हिलाया।

“तो हमारा जो ‘अंश’ आपने लिया है... उसके बाद भी नहीं?”

हर्ष की बात सुन कर सुहासिनी के गाल लज्जा से लाल हो गए। पिछले कुछ दिनों से वो दोनों अभूतपूर्व तरीके से अंतरंग हो गए थे। ठीक वैसे ही, जैसे पति-पत्नी होते हैं! उनका निकुञ्ज ही उनका राजमहल, उनका शयन-कक्ष था। और प्रकृति ही उनके प्रेम की साक्षी! सूर्य के ताप ने उनके प्रेम की ऊष्मा को बढ़ाया था, चिड़ियों के कूजन ने उनकी केलि-क्रीड़ा में संगीत घोल दिया था। जब रोज़ इतनी निकटता मिले लगे, तो संभव है न कि इसी कारण से वो अपने प्रियतम से दूर होने का सोच कर ही हलकान हुई जा रही थी। वो हर्ष के सीने में सिमट गई।

“आप बहुत गंदे हैं!”

“बिल्कुल भी नहीं... आज तो हमने स्नान भी किया है!” हर्ष की ठिठोली जारी थी।

लेकिन सुहासिनी ने उसको अनसुना कर दिया, “आपने सोचा भी है, आपके पीछे हमारा क्या हाल होगा?”

“हाँ, सोचा है!” हर्ष ने मुस्कुराते हुए कहा।

“क्या सोचा है आपने?”

“... हमने भाभी माँ से बात करी है!”

“क्या!?”

“हाँ... हमने उनसे निवेदन किया है कि हमारे पीछे वो आपका ध्यान रखें! ... आप हमारी ही नहीं, हमारे परिवार की भी अमानत हैं!”

“... फ़िर?”

“भाभी माँ ने कहा कि ‘बेटा... तुम चिंता न करो... तुम हमारे पुत्र हो और सुहास हमारी पुत्री...’! ... समझ रही हैं न आप राजकुमारी जी?”

हर्ष की बात कुछ ऐसी अनोखी थी कि सुहासिनी के गाल पुनः लज्जा से लाल हो गए। लेकिन युवरानी जी द्वारा अपने लिए ‘पुत्री’ सम्बोधन जान कर उसके दिल अपार आनंद से भर गया। अगर युवरानी जी - ओह क्षमा करें - ‘भाभी माँ’ उसके साथ खड़ी हैं, तो फिर किस बात की चिंता! उसके मन की उद्विग्नता कम हुई।

“राजकुमार जी,” उसने कुछ देर के बाद बड़े शांत स्वर में कहा, “आप अपना ठीक से ध्यान रखिएगा...”

हर्ष ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“याद रखिएगा, कि कोई है जो आपके पीछे आपकी प्रतीक्षा कर रही है!”

“आप चिंता न करिए राजकुमारी जी... शत्रु देश शीघ्र ही पराजित होगा... हमको अपने देश के सैन्य बल पर पूरा भरोसा है... और फिर उसके बाद, हम विजयोत्सव मानते हुए आपके संग विवाह करेंगे!”

उस दृश्य की कल्पना कर के सुहासिनी के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

हाँ, राजपरिवारों में ऐसा ही होता था। शत्रु राज्य को परास्त करने के बाद, अक्सर ही विजेता राज्य में विवाह समारोह होते थे। लेकिन वो एक राजनीतिक व्यवस्था थी। विजई राज्य के राजा या किसी राजकुमार के साथ, परास्त राज्य की किसी कन्या - राजकुमारी - का विवाह होता था। लेकिन यहाँ तो बात अलग है! उन दोनों का विवाह प्रेम-जन्य है!

कैसा सुन्दर समां बनेगा! वो हर्ष के साथ विवाह की कल्पना मात्र से रोमांचित हो गई।

“... आप,” वो थोड़ा झिझकते हुए बोली, “आज संध्या को हमारे साथ... भगवान एकलिंग के दर्शन करने चलेंगे?”

“राजकुमारी जी... आप पुनः भूल गईं... हम बस दो ही घण्टे में निकलने वाले हैं राजधानी की ओर...”

“ओह... क्षमा करिए कुमार...” सुहासिनी ने अपने अचानक से ही उमड़ आये आँसुओं को छुपाने की गरज़ से, फिर से स्वयं को हर्ष के सीने में छुपा लिया।



*


“युवरानीईई...”

बेला के चीखने की आवाज़ सुन कर प्रियम्बदा चौंकी - ऐसा आचरण तो उसने कभी भी बेला धाय को करते देखा नहीं, सुना नहीं। क्या हो गया ऐसा? वो अपने कक्ष में सोफ़े पर बैठी हुई आज का अखबार पढ़ रही थी, लेकिन बेला की चीख सुन कर वो उठने लगी।

“प्रियम्बदा बेटीईईई...” एक बार और बेला के चिल्लाने की आवाज़ आई।

इस बार उसकी आवाज़ में दर्द साफ़ झलक रहा था।

प्रियम्बदा तेज से चलती हुई महल के सेहन (आँगन) तक आई - बेला वहीं थी।

बेला हाथ में टेलीफोन थामे साफ़ तौर पर काँप रही थी। उसके चेहरे के भाव देख कर कोई भी कह सकता था कि उसको बहुत गहरा घक्का लगा था। कोई बहुत ही बुरी खबर सुन ली थी बेला ने। प्रियम्बदा को समझ आ गया कि कोई बहुत ही बुरी खबर है। बेला धाय ऐसी स्त्री नहीं हैं कि अपने ऊपर से नियंत्रण खो दें।

“धाय अम्मा, क्या हो गया?” प्रियम्बदा ने चिंतित होते हुए पूछा।

“... अनर्थ हो गया बेटी...” कहते कहते बेला की आँखों से आँसू निकलने लगे, “महा अनर्थ...”

“क्या हो गया अम्मा...”

“अनर्थ हो गया बेटी... महाराजाधिराज नहीं रहे...”

“क्या...!!??”

“महारानी भी...” बेला ने काँपते हुए कहना जारी रखा - अब तक उसकी साँसों में हिचकियाँ बँध गई थीं।

“अम्मा... क्या कह रही हैं आप...”

“महा अनर्थ बिटिया... महा अनर्थ...” बेला कहते कहते पछाड़ खा कर ज़मीन पर गिर गई, “... राजकुमार भी...”

वो अपना वाक्य पूरा न कर सकी और फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगी।



*


दुर्घटना का कोई भी उपलब्ध विवरण अपूर्ण था। हाँलाकि पुलिस ने अपनी तरफ़ से तफ़्तीश कर ली थी, लेकिन फिर भी संतोषजनक कोई भी विवरण नहीं मिल पाया था। महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु कोई दुर्घटना थी या फिर किसी शत्रु की साजिश, कह पाना कठिन हो रहा था। और तो और, उनका ड्राईवर भी चल बसा था। हाँ यह अवश्य पता था कि किसी ट्रक वाले ने उनको टक्कर मार दी थी। ट्रक वाला और उसका क्लीनर भी इस घटना में मारे गए! एक दुर्घटना - और इतने सारे शिकार!

अपने प्रिय राजपरिवार के इतने सदस्यों के यूँ अचानक चले जाने से महाराजपुर की जनता ही नहीं, बल्कि आस पास के लोग भी शोकाकुल हो गए थे। महाराज और राजकुमार का यूँ जाना - मतलब राज-तंत्र का एक तरह से अंत! हाँ - भारत के गणराज्य बनने से वैसे भी राज-तंत्र नहीं बचा हुआ था, लेकिन फिर भी, पुराने राजपरिवारों का अपना रसूख़ होता है। वो अवश्य ही राजा न हों, लेकिन प्रजा के मन में राजा अवश्य होते हैं।

ख़ास कर महाराज घनश्याम सिंह जैसे प्रजावत्सल राजा! रानी साहिबा भी बड़ी प्रिय थीं। और सबसे प्रिय था राजकुमार हर्षवर्द्धन! सभी जानते थे कि कैसे वो बिना किसी ढोंग के एक सामान्यजन जैसा रहता था। युवराज हरिश्चंद्र, युवराज अवश्य था, लेकिन सभी जानते थे कि वो राजनीति में कोई रूचि नहीं लेते थे। उनका दृष्टिकोण व्यापारिक हो गया था! एक तरह से वो अपने समय से बहुत आगे चल रहे थे - लेकिन उस समय कोई भी राजवाड़ा, व्यापार करने की नहीं सोचता था। मतलब, अब राजपरिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में नहीं रहेगा। इस बात से भी महाराजपुर के लोग उदास थे, और व्यथित थे। अगर ये लोग जीवित होते, तो महाराजपुर का विकास तेजी से हो सकता था। बिना किसी रसूख़ वाले परिवार के, महाराजपुर अपनी अहमियत खो देता।

महाराजपुर में प्रजा ने स्वयं ही पूरे पंद्रह दिवसों का शोक घोषित कर लिया। हाँलाकि राजस्थान राज्य में महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु पर दो दिनों का राजकीय शोक घोषित किया गया था! ऐसा लग रहा था कि पूरा राज्य श्मशानघाट बन गया हो। इतनी भीड़ के मद्देनज़र, परम्परा के विपरीत, अंतिम संस्कार का आयोजन श्मशानघाट में न कर के राज्य के सबसे बड़े खुले मैदान में किया गया। वहाँ इतनी भारी भीड़ उपस्थित थी, लेकिन बच्चों के क्षणिक रुदन के अतिरिक्त घोर चुप्पी फैली हुई थी। केवल राजपुरोहित जी के मंत्रोच्चारण की ही आवाज़ आ रही थी।

जब युवराज ने बारी बारी से तीनों चिताओं को अग्नि दी, तब वहाँ शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति बचा हो, जिसके आँखों में आँसू न हों!

*
 

kas1709

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“कुमार,” सुहासिनी ने भावनाओं से आर्द्र हो चले सुर में कहा, “... आप जा रहे हैं!”

जब दो प्रेमी एक दूसरे की संगत के आदी हो जाते हैं, तो उनसे एक क्षण का बिछोह भी सहन नहीं होता। और यहाँ तो कुमार हर्ष, सुहासिनी को कई दिनों के लिए जाने की सूचना दे रहा था।

“आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे हम सदा के लिए जा रहे हैं...” उसने सुहासिनी को अपने आलिंगन में भरते हुए कहा, “बस, कुछ दिनों की ही तो बात है!”

“हाँ, किन्तु आपका जाना आवश्यक ही क्यों है? ... और वो भी इतनी दूर!”

“इतनी दूर कहाँ? ... बस दिल्ली ही तो जा रहे हैं! ... हम तो वैसे भी अक्सर ही आते जाते रहते हैं।” हर्ष ने मुस्कुराते हुए सुहासिनी के आंसुओं को पोंछा, और समझाते हुए बोला, “... पिताजी महाराज और माँ बड़े ही आवश्यक कार्य के लिए प्रधानमंत्री जी से मिलने वाले हैं। ... पड़ोसी मुल्क़ चीन के इरादे सही नहीं लग रहे हैं, इसलिए देश को हमारी आवश्यकता है न...”

“आप युद्ध करने जा रहे हैं?”

“नहीं पगली! हम नहीं कर रहे हैं युद्ध... किन्तु युद्ध को सफल बनाने के लिए सहायता तो दे सकते हैं न सरकार को? ... तो बस, वही करने जाना है!”

“किन्तु...”

“फिर से किन्तु! ... राजकुमारी जी, हमको भी तो पिताजी और माँ के सामने अपनी दक्षता का प्रदर्शन करना है न! ... अन्यथा वो सोचेंगे कि कैसा नालायक है उनका छोटा बेटा! ... आप समझ रही हैं न?”

सुहासिनी ने समझते हुए सर हिलाया।

“पिताजी के पीछे बड़े भैया इस्टेट को सम्हालेंगे, और राज्य के अन्य राजनीतिक दलों को साथ लाने का प्रयास करेंगे! ... वो कोई कम काम है? अब ऐसे में हमको भी तो कुछ करना चाहिए न! ... तो हम उनके साथ देश की राजधानी में जा कर बड़े बड़े लोगों को साथ लाने का प्रयास करेंगे!”

हर्ष ने एक बड़ी डींग हाँकी, जिसको सुन कर सुहासिनी बड़ी प्रभावित भी हुई। सही है - युद्ध का संकट जब निकट हो, तो हर व्यक्ति - क्या राजा, क्या प्रजा - का कर्तव्य है कि यथासंभव वो उस संकट को परास्त करने का प्रयास करे। अपने प्रियतम पर उसको अभिमान हो आया। लेकिन फिर भी, उसको बिछड़ने की घबराहट हो रही थी।

“किन्तु फिर भी... आपके जाने का सोच कर ही हमारा दिल घबरा रहा है!”

“अरे, कैसी क्षत्राणी हैं आप, राजकुमारी जी? ... इतना बड़ा संकट आन पड़ा है देश पर... और आप हमसे कुछ दिनों का बिछोह भी नहीं बर्दाश्त कर पा रही हैं!”

“हम क्षत्राणी कहाँ...”

“अच्छा... आप क्षत्राणी नहीं हैं?” हर्ष ने सुहासिनी से ठिठोली करते हुए कहा।

उसने ‘न’ में सर हिलाया।

“तो हमारा जो ‘अंश’ आपने लिया है... उसके बाद भी नहीं?”

हर्ष की बात सुन कर सुहासिनी के गाल लज्जा से लाल हो गए। पिछले कुछ दिनों से वो दोनों अभूतपूर्व तरीके से अंतरंग हो गए थे। ठीक वैसे ही, जैसे पति-पत्नी होते हैं! उनका निकुञ्ज ही उनका राजमहल, उनका शयन-कक्ष था। और प्रकृति ही उनके प्रेम की साक्षी! सूर्य के ताप ने उनके प्रेम की ऊष्मा को बढ़ाया था, चिड़ियों के कूजन ने उनकी केलि-क्रीड़ा में संगीत घोल दिया था। जब रोज़ इतनी निकटता मिले लगे, तो संभव है न कि इसी कारण से वो अपने प्रियतम से दूर होने का सोच कर ही हलकान हुई जा रही थी। वो हर्ष के सीने में सिमट गई।

“आप बहुत गंदे हैं!”

“बिल्कुल भी नहीं... आज तो हमने स्नान भी किया है!” हर्ष की ठिठोली जारी थी।

लेकिन सुहासिनी ने उसको अनसुना कर दिया, “आपने सोचा भी है, आपके पीछे हमारा क्या हाल होगा?”

“हाँ, सोचा है!” हर्ष ने मुस्कुराते हुए कहा।

“क्या सोचा है आपने?”

“... हमने भाभी माँ से बात करी है!”

“क्या!?”

“हाँ... हमने उनसे निवेदन किया है कि हमारे पीछे वो आपका ध्यान रखें! ... आप हमारी ही नहीं, हमारे परिवार की भी अमानत हैं!”

“... फ़िर?”

“भाभी माँ ने कहा कि ‘बेटा... तुम चिंता न करो... तुम हमारे पुत्र हो और सुहास हमारी पुत्री...’! ... समझ रही हैं न आप राजकुमारी जी?”

हर्ष की बात कुछ ऐसी अनोखी थी कि सुहासिनी के गाल पुनः लज्जा से लाल हो गए। लेकिन युवरानी जी द्वारा अपने लिए ‘पुत्री’ सम्बोधन जान कर उसके दिल अपार आनंद से भर गया। अगर युवरानी जी - ओह क्षमा करें - ‘भाभी माँ’ उसके साथ खड़ी हैं, तो फिर किस बात की चिंता! उसके मन की उद्विग्नता कम हुई।

“राजकुमार जी,” उसने कुछ देर के बाद बड़े शांत स्वर में कहा, “आप अपना ठीक से ध्यान रखिएगा...”

हर्ष ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“याद रखिएगा, कि कोई है जो आपके पीछे आपकी प्रतीक्षा कर रही है!”

“आप चिंता न करिए राजकुमारी जी... शत्रु देश शीघ्र ही पराजित होगा... हमको अपने देश के सैन्य बल पर पूरा भरोसा है... और फिर उसके बाद, हम विजयोत्सव मानते हुए आपके संग विवाह करेंगे!”

उस दृश्य की कल्पना कर के सुहासिनी के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

हाँ, राजपरिवारों में ऐसा ही होता था। शत्रु राज्य को परास्त करने के बाद, अक्सर ही विजेता राज्य में विवाह समारोह होते थे। लेकिन वो एक राजनीतिक व्यवस्था थी। विजई राज्य के राजा या किसी राजकुमार के साथ, परास्त राज्य की किसी कन्या - राजकुमारी - का विवाह होता था। लेकिन यहाँ तो बात अलग है! उन दोनों का विवाह प्रेम-जन्य है!

कैसा सुन्दर समां बनेगा! वो हर्ष के साथ विवाह की कल्पना मात्र से रोमांचित हो गई।

“... आप,” वो थोड़ा झिझकते हुए बोली, “आज संध्या को हमारे साथ... भगवान एकलिंग के दर्शन करने चलेंगे?”

“राजकुमारी जी... आप पुनः भूल गईं... हम बस दो ही घण्टे में निकलने वाले हैं राजधानी की ओर...”

“ओह... क्षमा करिए कुमार...” सुहासिनी ने अपने अचानक से ही उमड़ आये आँसुओं को छुपाने की गरज़ से, फिर से स्वयं को हर्ष के सीने में छुपा लिया।



*


“युवरानीईई...”

बेला के चीखने की आवाज़ सुन कर प्रियम्बदा चौंकी - ऐसा आचरण तो उसने कभी भी बेला धाय को करते देखा नहीं, सुना नहीं। क्या हो गया ऐसा? वो अपने कक्ष में सोफ़े पर बैठी हुई आज का अखबार पढ़ रही थी, लेकिन बेला की चीख सुन कर वो उठने लगी।

“प्रियम्बदा बेटीईईई...” एक बार और बेला के चिल्लाने की आवाज़ आई।

इस बार उसकी आवाज़ में दर्द साफ़ झलक रहा था।

प्रियम्बदा तेज से चलती हुई महल के सेहन (आँगन) तक आई - बेला वहीं थी।

बेला हाथ में टेलीफोन थामे साफ़ तौर पर काँप रही थी। उसके चेहरे के भाव देख कर कोई भी कह सकता था कि उसको बहुत गहरा घक्का लगा था। कोई बहुत ही बुरी खबर सुन ली थी बेला ने। प्रियम्बदा को समझ आ गया कि कोई बहुत ही बुरी खबर है। बेला धाय ऐसी स्त्री नहीं हैं कि अपने ऊपर से नियंत्रण खो दें।

“धाय अम्मा, क्या हो गया?” प्रियम्बदा ने चिंतित होते हुए पूछा।

“... अनर्थ हो गया बेटी...” कहते कहते बेला की आँखों से आँसू निकलने लगे, “महा अनर्थ...”

“क्या हो गया अम्मा...”

“अनर्थ हो गया बेटी... महाराजाधिराज नहीं रहे...”

“क्या...!!??”

“महारानी भी...” बेला ने काँपते हुए कहना जारी रखा - अब तक उसकी साँसों में हिचकियाँ बँध गई थीं।

“अम्मा... क्या कह रही हैं आप...”

“महा अनर्थ बिटिया... महा अनर्थ...” बेला कहते कहते पछाड़ खा कर ज़मीन पर गिर गई, “... राजकुमार भी...”

वो अपना वाक्य पूरा न कर सकी और फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगी।



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दुर्घटना का कोई भी उपलब्ध विवरण अपूर्ण था। हाँलाकि पुलिस ने अपनी तरफ़ से तफ़्तीश कर ली थी, लेकिन फिर भी संतोषजनक कोई भी विवरण नहीं मिल पाया था। महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु कोई दुर्घटना थी या फिर किसी शत्रु की साजिश, कह पाना कठिन हो रहा था। और तो और, उनका ड्राईवर भी चल बसा था। हाँ यह अवश्य पता था कि किसी ट्रक वाले ने उनको टक्कर मार दी थी। ट्रक वाला और उसका क्लीनर भी इस घटना में मारे गए! एक दुर्घटना - और इतने सारे शिकार!

अपने प्रिय राजपरिवार के इतने सदस्यों के यूँ अचानक चले जाने से महाराजपुर की जनता ही नहीं, बल्कि आस पास के लोग भी शोकाकुल हो गए थे। महाराज और राजकुमार का यूँ जाना - मतलब राज-तंत्र का एक तरह से अंत! हाँ - भारत के गणराज्य बनने से वैसे भी राज-तंत्र नहीं बचा हुआ था, लेकिन फिर भी, पुराने राजपरिवारों का अपना रसूख़ होता है। वो अवश्य ही राजा न हों, लेकिन प्रजा के मन में राजा अवश्य होते हैं।

ख़ास कर महाराज घनश्याम सिंह जैसे प्रजावत्सल राजा! रानी साहिबा भी बड़ी प्रिय थीं। और सबसे प्रिय था राजकुमार हर्षवर्द्धन! सभी जानते थे कि कैसे वो बिना किसी ढोंग के एक सामान्यजन जैसा रहता था। युवराज हरिश्चंद्र, युवराज अवश्य था, लेकिन सभी जानते थे कि वो राजनीति में कोई रूचि नहीं लेते थे। उनका दृष्टिकोण व्यापारिक हो गया था! एक तरह से वो अपने समय से बहुत आगे चल रहे थे - लेकिन उस समय कोई भी राजवाड़ा, व्यापार करने की नहीं सोचता था। मतलब, अब राजपरिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में नहीं रहेगा। इस बात से भी महाराजपुर के लोग उदास थे, और व्यथित थे। अगर ये लोग जीवित होते, तो महाराजपुर का विकास तेजी से हो सकता था। बिना किसी रसूख़ वाले परिवार के, महाराजपुर अपनी अहमियत खो देता।

महाराजपुर में प्रजा ने स्वयं ही पूरे पंद्रह दिवसों का शोक घोषित कर लिया। हाँलाकि राजस्थान राज्य में महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु पर दो दिनों का राजकीय शोक घोषित किया गया था! ऐसा लग रहा था कि पूरा राज्य श्मशानघाट बन गया हो। इतनी भीड़ के मद्देनज़र, परम्परा के विपरीत, अंतिम संस्कार का आयोजन श्मशानघाट में न कर के राज्य के सबसे बड़े खुले मैदान में किया गया। वहाँ इतनी भारी भीड़ उपस्थित थी, लेकिन बच्चों के क्षणिक रुदन के अतिरिक्त घोर चुप्पी फैली हुई थी। केवल राजपुरोहित जी के मंत्रोच्चारण की ही आवाज़ आ रही थी।

जब युवराज ने बारी बारी से तीनों चिताओं को अग्नि दी, तब वहाँ शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति बचा हो, जिसके आँखों में आँसू न हों!

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dhparikh

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“कुमार,” सुहासिनी ने भावनाओं से आर्द्र हो चले सुर में कहा, “... आप जा रहे हैं!”

जब दो प्रेमी एक दूसरे की संगत के आदी हो जाते हैं, तो उनसे एक क्षण का बिछोह भी सहन नहीं होता। और यहाँ तो कुमार हर्ष, सुहासिनी को कई दिनों के लिए जाने की सूचना दे रहा था।

“आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे हम सदा के लिए जा रहे हैं...” उसने सुहासिनी को अपने आलिंगन में भरते हुए कहा, “बस, कुछ दिनों की ही तो बात है!”

“हाँ, किन्तु आपका जाना आवश्यक ही क्यों है? ... और वो भी इतनी दूर!”

“इतनी दूर कहाँ? ... बस दिल्ली ही तो जा रहे हैं! ... हम तो वैसे भी अक्सर ही आते जाते रहते हैं।” हर्ष ने मुस्कुराते हुए सुहासिनी के आंसुओं को पोंछा, और समझाते हुए बोला, “... पिताजी महाराज और माँ बड़े ही आवश्यक कार्य के लिए प्रधानमंत्री जी से मिलने वाले हैं। ... पड़ोसी मुल्क़ चीन के इरादे सही नहीं लग रहे हैं, इसलिए देश को हमारी आवश्यकता है न...”

“आप युद्ध करने जा रहे हैं?”

“नहीं पगली! हम नहीं कर रहे हैं युद्ध... किन्तु युद्ध को सफल बनाने के लिए सहायता तो दे सकते हैं न सरकार को? ... तो बस, वही करने जाना है!”

“किन्तु...”

“फिर से किन्तु! ... राजकुमारी जी, हमको भी तो पिताजी और माँ के सामने अपनी दक्षता का प्रदर्शन करना है न! ... अन्यथा वो सोचेंगे कि कैसा नालायक है उनका छोटा बेटा! ... आप समझ रही हैं न?”

सुहासिनी ने समझते हुए सर हिलाया।

“पिताजी के पीछे बड़े भैया इस्टेट को सम्हालेंगे, और राज्य के अन्य राजनीतिक दलों को साथ लाने का प्रयास करेंगे! ... वो कोई कम काम है? अब ऐसे में हमको भी तो कुछ करना चाहिए न! ... तो हम उनके साथ देश की राजधानी में जा कर बड़े बड़े लोगों को साथ लाने का प्रयास करेंगे!”

हर्ष ने एक बड़ी डींग हाँकी, जिसको सुन कर सुहासिनी बड़ी प्रभावित भी हुई। सही है - युद्ध का संकट जब निकट हो, तो हर व्यक्ति - क्या राजा, क्या प्रजा - का कर्तव्य है कि यथासंभव वो उस संकट को परास्त करने का प्रयास करे। अपने प्रियतम पर उसको अभिमान हो आया। लेकिन फिर भी, उसको बिछड़ने की घबराहट हो रही थी।

“किन्तु फिर भी... आपके जाने का सोच कर ही हमारा दिल घबरा रहा है!”

“अरे, कैसी क्षत्राणी हैं आप, राजकुमारी जी? ... इतना बड़ा संकट आन पड़ा है देश पर... और आप हमसे कुछ दिनों का बिछोह भी नहीं बर्दाश्त कर पा रही हैं!”

“हम क्षत्राणी कहाँ...”

“अच्छा... आप क्षत्राणी नहीं हैं?” हर्ष ने सुहासिनी से ठिठोली करते हुए कहा।

उसने ‘न’ में सर हिलाया।

“तो हमारा जो ‘अंश’ आपने लिया है... उसके बाद भी नहीं?”

हर्ष की बात सुन कर सुहासिनी के गाल लज्जा से लाल हो गए। पिछले कुछ दिनों से वो दोनों अभूतपूर्व तरीके से अंतरंग हो गए थे। ठीक वैसे ही, जैसे पति-पत्नी होते हैं! उनका निकुञ्ज ही उनका राजमहल, उनका शयन-कक्ष था। और प्रकृति ही उनके प्रेम की साक्षी! सूर्य के ताप ने उनके प्रेम की ऊष्मा को बढ़ाया था, चिड़ियों के कूजन ने उनकी केलि-क्रीड़ा में संगीत घोल दिया था। जब रोज़ इतनी निकटता मिले लगे, तो संभव है न कि इसी कारण से वो अपने प्रियतम से दूर होने का सोच कर ही हलकान हुई जा रही थी। वो हर्ष के सीने में सिमट गई।

“आप बहुत गंदे हैं!”

“बिल्कुल भी नहीं... आज तो हमने स्नान भी किया है!” हर्ष की ठिठोली जारी थी।

लेकिन सुहासिनी ने उसको अनसुना कर दिया, “आपने सोचा भी है, आपके पीछे हमारा क्या हाल होगा?”

“हाँ, सोचा है!” हर्ष ने मुस्कुराते हुए कहा।

“क्या सोचा है आपने?”

“... हमने भाभी माँ से बात करी है!”

“क्या!?”

“हाँ... हमने उनसे निवेदन किया है कि हमारे पीछे वो आपका ध्यान रखें! ... आप हमारी ही नहीं, हमारे परिवार की भी अमानत हैं!”

“... फ़िर?”

“भाभी माँ ने कहा कि ‘बेटा... तुम चिंता न करो... तुम हमारे पुत्र हो और सुहास हमारी पुत्री...’! ... समझ रही हैं न आप राजकुमारी जी?”

हर्ष की बात कुछ ऐसी अनोखी थी कि सुहासिनी के गाल पुनः लज्जा से लाल हो गए। लेकिन युवरानी जी द्वारा अपने लिए ‘पुत्री’ सम्बोधन जान कर उसके दिल अपार आनंद से भर गया। अगर युवरानी जी - ओह क्षमा करें - ‘भाभी माँ’ उसके साथ खड़ी हैं, तो फिर किस बात की चिंता! उसके मन की उद्विग्नता कम हुई।

“राजकुमार जी,” उसने कुछ देर के बाद बड़े शांत स्वर में कहा, “आप अपना ठीक से ध्यान रखिएगा...”

हर्ष ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“याद रखिएगा, कि कोई है जो आपके पीछे आपकी प्रतीक्षा कर रही है!”

“आप चिंता न करिए राजकुमारी जी... शत्रु देश शीघ्र ही पराजित होगा... हमको अपने देश के सैन्य बल पर पूरा भरोसा है... और फिर उसके बाद, हम विजयोत्सव मानते हुए आपके संग विवाह करेंगे!”

उस दृश्य की कल्पना कर के सुहासिनी के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

हाँ, राजपरिवारों में ऐसा ही होता था। शत्रु राज्य को परास्त करने के बाद, अक्सर ही विजेता राज्य में विवाह समारोह होते थे। लेकिन वो एक राजनीतिक व्यवस्था थी। विजई राज्य के राजा या किसी राजकुमार के साथ, परास्त राज्य की किसी कन्या - राजकुमारी - का विवाह होता था। लेकिन यहाँ तो बात अलग है! उन दोनों का विवाह प्रेम-जन्य है!

कैसा सुन्दर समां बनेगा! वो हर्ष के साथ विवाह की कल्पना मात्र से रोमांचित हो गई।

“... आप,” वो थोड़ा झिझकते हुए बोली, “आज संध्या को हमारे साथ... भगवान एकलिंग के दर्शन करने चलेंगे?”

“राजकुमारी जी... आप पुनः भूल गईं... हम बस दो ही घण्टे में निकलने वाले हैं राजधानी की ओर...”

“ओह... क्षमा करिए कुमार...” सुहासिनी ने अपने अचानक से ही उमड़ आये आँसुओं को छुपाने की गरज़ से, फिर से स्वयं को हर्ष के सीने में छुपा लिया।



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“युवरानीईई...”

बेला के चीखने की आवाज़ सुन कर प्रियम्बदा चौंकी - ऐसा आचरण तो उसने कभी भी बेला धाय को करते देखा नहीं, सुना नहीं। क्या हो गया ऐसा? वो अपने कक्ष में सोफ़े पर बैठी हुई आज का अखबार पढ़ रही थी, लेकिन बेला की चीख सुन कर वो उठने लगी।

“प्रियम्बदा बेटीईईई...” एक बार और बेला के चिल्लाने की आवाज़ आई।

इस बार उसकी आवाज़ में दर्द साफ़ झलक रहा था।

प्रियम्बदा तेज से चलती हुई महल के सेहन (आँगन) तक आई - बेला वहीं थी।

बेला हाथ में टेलीफोन थामे साफ़ तौर पर काँप रही थी। उसके चेहरे के भाव देख कर कोई भी कह सकता था कि उसको बहुत गहरा घक्का लगा था। कोई बहुत ही बुरी खबर सुन ली थी बेला ने। प्रियम्बदा को समझ आ गया कि कोई बहुत ही बुरी खबर है। बेला धाय ऐसी स्त्री नहीं हैं कि अपने ऊपर से नियंत्रण खो दें।

“धाय अम्मा, क्या हो गया?” प्रियम्बदा ने चिंतित होते हुए पूछा।

“... अनर्थ हो गया बेटी...” कहते कहते बेला की आँखों से आँसू निकलने लगे, “महा अनर्थ...”

“क्या हो गया अम्मा...”

“अनर्थ हो गया बेटी... महाराजाधिराज नहीं रहे...”

“क्या...!!??”

“महारानी भी...” बेला ने काँपते हुए कहना जारी रखा - अब तक उसकी साँसों में हिचकियाँ बँध गई थीं।

“अम्मा... क्या कह रही हैं आप...”

“महा अनर्थ बिटिया... महा अनर्थ...” बेला कहते कहते पछाड़ खा कर ज़मीन पर गिर गई, “... राजकुमार भी...”

वो अपना वाक्य पूरा न कर सकी और फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगी।



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दुर्घटना का कोई भी उपलब्ध विवरण अपूर्ण था। हाँलाकि पुलिस ने अपनी तरफ़ से तफ़्तीश कर ली थी, लेकिन फिर भी संतोषजनक कोई भी विवरण नहीं मिल पाया था। महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु कोई दुर्घटना थी या फिर किसी शत्रु की साजिश, कह पाना कठिन हो रहा था। और तो और, उनका ड्राईवर भी चल बसा था। हाँ यह अवश्य पता था कि किसी ट्रक वाले ने उनको टक्कर मार दी थी। ट्रक वाला और उसका क्लीनर भी इस घटना में मारे गए! एक दुर्घटना - और इतने सारे शिकार!

अपने प्रिय राजपरिवार के इतने सदस्यों के यूँ अचानक चले जाने से महाराजपुर की जनता ही नहीं, बल्कि आस पास के लोग भी शोकाकुल हो गए थे। महाराज और राजकुमार का यूँ जाना - मतलब राज-तंत्र का एक तरह से अंत! हाँ - भारत के गणराज्य बनने से वैसे भी राज-तंत्र नहीं बचा हुआ था, लेकिन फिर भी, पुराने राजपरिवारों का अपना रसूख़ होता है। वो अवश्य ही राजा न हों, लेकिन प्रजा के मन में राजा अवश्य होते हैं।

ख़ास कर महाराज घनश्याम सिंह जैसे प्रजावत्सल राजा! रानी साहिबा भी बड़ी प्रिय थीं। और सबसे प्रिय था राजकुमार हर्षवर्द्धन! सभी जानते थे कि कैसे वो बिना किसी ढोंग के एक सामान्यजन जैसा रहता था। युवराज हरिश्चंद्र, युवराज अवश्य था, लेकिन सभी जानते थे कि वो राजनीति में कोई रूचि नहीं लेते थे। उनका दृष्टिकोण व्यापारिक हो गया था! एक तरह से वो अपने समय से बहुत आगे चल रहे थे - लेकिन उस समय कोई भी राजवाड़ा, व्यापार करने की नहीं सोचता था। मतलब, अब राजपरिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में नहीं रहेगा। इस बात से भी महाराजपुर के लोग उदास थे, और व्यथित थे। अगर ये लोग जीवित होते, तो महाराजपुर का विकास तेजी से हो सकता था। बिना किसी रसूख़ वाले परिवार के, महाराजपुर अपनी अहमियत खो देता।

महाराजपुर में प्रजा ने स्वयं ही पूरे पंद्रह दिवसों का शोक घोषित कर लिया। हाँलाकि राजस्थान राज्य में महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु पर दो दिनों का राजकीय शोक घोषित किया गया था! ऐसा लग रहा था कि पूरा राज्य श्मशानघाट बन गया हो। इतनी भीड़ के मद्देनज़र, परम्परा के विपरीत, अंतिम संस्कार का आयोजन श्मशानघाट में न कर के राज्य के सबसे बड़े खुले मैदान में किया गया। वहाँ इतनी भारी भीड़ उपस्थित थी, लेकिन बच्चों के क्षणिक रुदन के अतिरिक्त घोर चुप्पी फैली हुई थी। केवल राजपुरोहित जी के मंत्रोच्चारण की ही आवाज़ आ रही थी।

जब युवराज ने बारी बारी से तीनों चिताओं को अग्नि दी, तब वहाँ शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति बचा हो, जिसके आँखों में आँसू न हों!

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Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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“कुमार,” सुहासिनी ने भावनाओं से आर्द्र हो चले सुर में कहा, “... आप जा रहे हैं!”

जब दो प्रेमी एक दूसरे की संगत के आदी हो जाते हैं, तो उनसे एक क्षण का बिछोह भी सहन नहीं होता। और यहाँ तो कुमार हर्ष, सुहासिनी को कई दिनों के लिए जाने की सूचना दे रहा था।

“आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे हम सदा के लिए जा रहे हैं...” उसने सुहासिनी को अपने आलिंगन में भरते हुए कहा, “बस, कुछ दिनों की ही तो बात है!”

“हाँ, किन्तु आपका जाना आवश्यक ही क्यों है? ... और वो भी इतनी दूर!”

“इतनी दूर कहाँ? ... बस दिल्ली ही तो जा रहे हैं! ... हम तो वैसे भी अक्सर ही आते जाते रहते हैं।” हर्ष ने मुस्कुराते हुए सुहासिनी के आंसुओं को पोंछा, और समझाते हुए बोला, “... पिताजी महाराज और माँ बड़े ही आवश्यक कार्य के लिए प्रधानमंत्री जी से मिलने वाले हैं। ... पड़ोसी मुल्क़ चीन के इरादे सही नहीं लग रहे हैं, इसलिए देश को हमारी आवश्यकता है न...”

“आप युद्ध करने जा रहे हैं?”

“नहीं पगली! हम नहीं कर रहे हैं युद्ध... किन्तु युद्ध को सफल बनाने के लिए सहायता तो दे सकते हैं न सरकार को? ... तो बस, वही करने जाना है!”

“किन्तु...”

“फिर से किन्तु! ... राजकुमारी जी, हमको भी तो पिताजी और माँ के सामने अपनी दक्षता का प्रदर्शन करना है न! ... अन्यथा वो सोचेंगे कि कैसा नालायक है उनका छोटा बेटा! ... आप समझ रही हैं न?”

सुहासिनी ने समझते हुए सर हिलाया।

“पिताजी के पीछे बड़े भैया इस्टेट को सम्हालेंगे, और राज्य के अन्य राजनीतिक दलों को साथ लाने का प्रयास करेंगे! ... वो कोई कम काम है? अब ऐसे में हमको भी तो कुछ करना चाहिए न! ... तो हम उनके साथ देश की राजधानी में जा कर बड़े बड़े लोगों को साथ लाने का प्रयास करेंगे!”

हर्ष ने एक बड़ी डींग हाँकी, जिसको सुन कर सुहासिनी बड़ी प्रभावित भी हुई। सही है - युद्ध का संकट जब निकट हो, तो हर व्यक्ति - क्या राजा, क्या प्रजा - का कर्तव्य है कि यथासंभव वो उस संकट को परास्त करने का प्रयास करे। अपने प्रियतम पर उसको अभिमान हो आया। लेकिन फिर भी, उसको बिछड़ने की घबराहट हो रही थी।

“किन्तु फिर भी... आपके जाने का सोच कर ही हमारा दिल घबरा रहा है!”

“अरे, कैसी क्षत्राणी हैं आप, राजकुमारी जी? ... इतना बड़ा संकट आन पड़ा है देश पर... और आप हमसे कुछ दिनों का बिछोह भी नहीं बर्दाश्त कर पा रही हैं!”

“हम क्षत्राणी कहाँ...”

“अच्छा... आप क्षत्राणी नहीं हैं?” हर्ष ने सुहासिनी से ठिठोली करते हुए कहा।

उसने ‘न’ में सर हिलाया।

“तो हमारा जो ‘अंश’ आपने लिया है... उसके बाद भी नहीं?”

हर्ष की बात सुन कर सुहासिनी के गाल लज्जा से लाल हो गए। पिछले कुछ दिनों से वो दोनों अभूतपूर्व तरीके से अंतरंग हो गए थे। ठीक वैसे ही, जैसे पति-पत्नी होते हैं! उनका निकुञ्ज ही उनका राजमहल, उनका शयन-कक्ष था। और प्रकृति ही उनके प्रेम की साक्षी! सूर्य के ताप ने उनके प्रेम की ऊष्मा को बढ़ाया था, चिड़ियों के कूजन ने उनकी केलि-क्रीड़ा में संगीत घोल दिया था। जब रोज़ इतनी निकटता मिले लगे, तो संभव है न कि इसी कारण से वो अपने प्रियतम से दूर होने का सोच कर ही हलकान हुई जा रही थी। वो हर्ष के सीने में सिमट गई।

“आप बहुत गंदे हैं!”

“बिल्कुल भी नहीं... आज तो हमने स्नान भी किया है!” हर्ष की ठिठोली जारी थी।

लेकिन सुहासिनी ने उसको अनसुना कर दिया, “आपने सोचा भी है, आपके पीछे हमारा क्या हाल होगा?”

“हाँ, सोचा है!” हर्ष ने मुस्कुराते हुए कहा।

“क्या सोचा है आपने?”

“... हमने भाभी माँ से बात करी है!”

“क्या!?”

“हाँ... हमने उनसे निवेदन किया है कि हमारे पीछे वो आपका ध्यान रखें! ... आप हमारी ही नहीं, हमारे परिवार की भी अमानत हैं!”

“... फ़िर?”

“भाभी माँ ने कहा कि ‘बेटा... तुम चिंता न करो... तुम हमारे पुत्र हो और सुहास हमारी पुत्री...’! ... समझ रही हैं न आप राजकुमारी जी?”

हर्ष की बात कुछ ऐसी अनोखी थी कि सुहासिनी के गाल पुनः लज्जा से लाल हो गए। लेकिन युवरानी जी द्वारा अपने लिए ‘पुत्री’ सम्बोधन जान कर उसके दिल अपार आनंद से भर गया। अगर युवरानी जी - ओह क्षमा करें - ‘भाभी माँ’ उसके साथ खड़ी हैं, तो फिर किस बात की चिंता! उसके मन की उद्विग्नता कम हुई।

“राजकुमार जी,” उसने कुछ देर के बाद बड़े शांत स्वर में कहा, “आप अपना ठीक से ध्यान रखिएगा...”

हर्ष ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“याद रखिएगा, कि कोई है जो आपके पीछे आपकी प्रतीक्षा कर रही है!”

“आप चिंता न करिए राजकुमारी जी... शत्रु देश शीघ्र ही पराजित होगा... हमको अपने देश के सैन्य बल पर पूरा भरोसा है... और फिर उसके बाद, हम विजयोत्सव मानते हुए आपके संग विवाह करेंगे!”

उस दृश्य की कल्पना कर के सुहासिनी के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

हाँ, राजपरिवारों में ऐसा ही होता था। शत्रु राज्य को परास्त करने के बाद, अक्सर ही विजेता राज्य में विवाह समारोह होते थे। लेकिन वो एक राजनीतिक व्यवस्था थी। विजई राज्य के राजा या किसी राजकुमार के साथ, परास्त राज्य की किसी कन्या - राजकुमारी - का विवाह होता था। लेकिन यहाँ तो बात अलग है! उन दोनों का विवाह प्रेम-जन्य है!

कैसा सुन्दर समां बनेगा! वो हर्ष के साथ विवाह की कल्पना मात्र से रोमांचित हो गई।

“... आप,” वो थोड़ा झिझकते हुए बोली, “आज संध्या को हमारे साथ... भगवान एकलिंग के दर्शन करने चलेंगे?”

“राजकुमारी जी... आप पुनः भूल गईं... हम बस दो ही घण्टे में निकलने वाले हैं राजधानी की ओर...”

“ओह... क्षमा करिए कुमार...” सुहासिनी ने अपने अचानक से ही उमड़ आये आँसुओं को छुपाने की गरज़ से, फिर से स्वयं को हर्ष के सीने में छुपा लिया।



*


“युवरानीईई...”

बेला के चीखने की आवाज़ सुन कर प्रियम्बदा चौंकी - ऐसा आचरण तो उसने कभी भी बेला धाय को करते देखा नहीं, सुना नहीं। क्या हो गया ऐसा? वो अपने कक्ष में सोफ़े पर बैठी हुई आज का अखबार पढ़ रही थी, लेकिन बेला की चीख सुन कर वो उठने लगी।

“प्रियम्बदा बेटीईईई...” एक बार और बेला के चिल्लाने की आवाज़ आई।

इस बार उसकी आवाज़ में दर्द साफ़ झलक रहा था।

प्रियम्बदा तेज से चलती हुई महल के सेहन (आँगन) तक आई - बेला वहीं थी।

बेला हाथ में टेलीफोन थामे साफ़ तौर पर काँप रही थी। उसके चेहरे के भाव देख कर कोई भी कह सकता था कि उसको बहुत गहरा घक्का लगा था। कोई बहुत ही बुरी खबर सुन ली थी बेला ने। प्रियम्बदा को समझ आ गया कि कोई बहुत ही बुरी खबर है। बेला धाय ऐसी स्त्री नहीं हैं कि अपने ऊपर से नियंत्रण खो दें।

“धाय अम्मा, क्या हो गया?” प्रियम्बदा ने चिंतित होते हुए पूछा।

“... अनर्थ हो गया बेटी...” कहते कहते बेला की आँखों से आँसू निकलने लगे, “महा अनर्थ...”

“क्या हो गया अम्मा...”

“अनर्थ हो गया बेटी... महाराजाधिराज नहीं रहे...”

“क्या...!!??”

“महारानी भी...” बेला ने काँपते हुए कहना जारी रखा - अब तक उसकी साँसों में हिचकियाँ बँध गई थीं।

“अम्मा... क्या कह रही हैं आप...”

“महा अनर्थ बिटिया... महा अनर्थ...” बेला कहते कहते पछाड़ खा कर ज़मीन पर गिर गई, “... राजकुमार भी...”

वो अपना वाक्य पूरा न कर सकी और फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगी।



*


दुर्घटना का कोई भी उपलब्ध विवरण अपूर्ण था। हाँलाकि पुलिस ने अपनी तरफ़ से तफ़्तीश कर ली थी, लेकिन फिर भी संतोषजनक कोई भी विवरण नहीं मिल पाया था। महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु कोई दुर्घटना थी या फिर किसी शत्रु की साजिश, कह पाना कठिन हो रहा था। और तो और, उनका ड्राईवर भी चल बसा था। हाँ यह अवश्य पता था कि किसी ट्रक वाले ने उनको टक्कर मार दी थी। ट्रक वाला और उसका क्लीनर भी इस घटना में मारे गए! एक दुर्घटना - और इतने सारे शिकार!

अपने प्रिय राजपरिवार के इतने सदस्यों के यूँ अचानक चले जाने से महाराजपुर की जनता ही नहीं, बल्कि आस पास के लोग भी शोकाकुल हो गए थे। महाराज और राजकुमार का यूँ जाना - मतलब राज-तंत्र का एक तरह से अंत! हाँ - भारत के गणराज्य बनने से वैसे भी राज-तंत्र नहीं बचा हुआ था, लेकिन फिर भी, पुराने राजपरिवारों का अपना रसूख़ होता है। वो अवश्य ही राजा न हों, लेकिन प्रजा के मन में राजा अवश्य होते हैं।

ख़ास कर महाराज घनश्याम सिंह जैसे प्रजावत्सल राजा! रानी साहिबा भी बड़ी प्रिय थीं। और सबसे प्रिय था राजकुमार हर्षवर्द्धन! सभी जानते थे कि कैसे वो बिना किसी ढोंग के एक सामान्यजन जैसा रहता था। युवराज हरिश्चंद्र, युवराज अवश्य था, लेकिन सभी जानते थे कि वो राजनीति में कोई रूचि नहीं लेते थे। उनका दृष्टिकोण व्यापारिक हो गया था! एक तरह से वो अपने समय से बहुत आगे चल रहे थे - लेकिन उस समय कोई भी राजवाड़ा, व्यापार करने की नहीं सोचता था। मतलब, अब राजपरिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में नहीं रहेगा। इस बात से भी महाराजपुर के लोग उदास थे, और व्यथित थे। अगर ये लोग जीवित होते, तो महाराजपुर का विकास तेजी से हो सकता था। बिना किसी रसूख़ वाले परिवार के, महाराजपुर अपनी अहमियत खो देता।

महाराजपुर में प्रजा ने स्वयं ही पूरे पंद्रह दिवसों का शोक घोषित कर लिया। हाँलाकि राजस्थान राज्य में महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु पर दो दिनों का राजकीय शोक घोषित किया गया था! ऐसा लग रहा था कि पूरा राज्य श्मशानघाट बन गया हो। इतनी भीड़ के मद्देनज़र, परम्परा के विपरीत, अंतिम संस्कार का आयोजन श्मशानघाट में न कर के राज्य के सबसे बड़े खुले मैदान में किया गया। वहाँ इतनी भारी भीड़ उपस्थित थी, लेकिन बच्चों के क्षणिक रुदन के अतिरिक्त घोर चुप्पी फैली हुई थी। केवल राजपुरोहित जी के मंत्रोच्चारण की ही आवाज़ आ रही थी।

जब युवराज ने बारी बारी से तीनों चिताओं को अग्नि दी, तब वहाँ शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति बचा हो, जिसके आँखों में आँसू न हों!

*
क्या अनर्थ हो गया??

सबसे बुरा तो सुहासनि के साथ हुआ, जिसके प्रेम का साक्षी कोई भी नही, और ऐसे में कुदरत भी अजीब संयोग करती है।

देखते हैं avsji भाई ने क्या सोच है उसका।
 

parkas

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अपडेट #30


“कुमार,” सुहासिनी ने भावनाओं से आर्द्र हो चले सुर में कहा, “... आप जा रहे हैं!”

जब दो प्रेमी एक दूसरे की संगत के आदी हो जाते हैं, तो उनसे एक क्षण का बिछोह भी सहन नहीं होता। और यहाँ तो कुमार हर्ष, सुहासिनी को कई दिनों के लिए जाने की सूचना दे रहा था।

“आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे हम सदा के लिए जा रहे हैं...” उसने सुहासिनी को अपने आलिंगन में भरते हुए कहा, “बस, कुछ दिनों की ही तो बात है!”

“हाँ, किन्तु आपका जाना आवश्यक ही क्यों है? ... और वो भी इतनी दूर!”

“इतनी दूर कहाँ? ... बस दिल्ली ही तो जा रहे हैं! ... हम तो वैसे भी अक्सर ही आते जाते रहते हैं।” हर्ष ने मुस्कुराते हुए सुहासिनी के आंसुओं को पोंछा, और समझाते हुए बोला, “... पिताजी महाराज और माँ बड़े ही आवश्यक कार्य के लिए प्रधानमंत्री जी से मिलने वाले हैं। ... पड़ोसी मुल्क़ चीन के इरादे सही नहीं लग रहे हैं, इसलिए देश को हमारी आवश्यकता है न...”

“आप युद्ध करने जा रहे हैं?”

“नहीं पगली! हम नहीं कर रहे हैं युद्ध... किन्तु युद्ध को सफल बनाने के लिए सहायता तो दे सकते हैं न सरकार को? ... तो बस, वही करने जाना है!”

“किन्तु...”

“फिर से किन्तु! ... राजकुमारी जी, हमको भी तो पिताजी और माँ के सामने अपनी दक्षता का प्रदर्शन करना है न! ... अन्यथा वो सोचेंगे कि कैसा नालायक है उनका छोटा बेटा! ... आप समझ रही हैं न?”

सुहासिनी ने समझते हुए सर हिलाया।

“पिताजी के पीछे बड़े भैया इस्टेट को सम्हालेंगे, और राज्य के अन्य राजनीतिक दलों को साथ लाने का प्रयास करेंगे! ... वो कोई कम काम है? अब ऐसे में हमको भी तो कुछ करना चाहिए न! ... तो हम उनके साथ देश की राजधानी में जा कर बड़े बड़े लोगों को साथ लाने का प्रयास करेंगे!”

हर्ष ने एक बड़ी डींग हाँकी, जिसको सुन कर सुहासिनी बड़ी प्रभावित भी हुई। सही है - युद्ध का संकट जब निकट हो, तो हर व्यक्ति - क्या राजा, क्या प्रजा - का कर्तव्य है कि यथासंभव वो उस संकट को परास्त करने का प्रयास करे। अपने प्रियतम पर उसको अभिमान हो आया। लेकिन फिर भी, उसको बिछड़ने की घबराहट हो रही थी।

“किन्तु फिर भी... आपके जाने का सोच कर ही हमारा दिल घबरा रहा है!”

“अरे, कैसी क्षत्राणी हैं आप, राजकुमारी जी? ... इतना बड़ा संकट आन पड़ा है देश पर... और आप हमसे कुछ दिनों का बिछोह भी नहीं बर्दाश्त कर पा रही हैं!”

“हम क्षत्राणी कहाँ...”

“अच्छा... आप क्षत्राणी नहीं हैं?” हर्ष ने सुहासिनी से ठिठोली करते हुए कहा।

उसने ‘न’ में सर हिलाया।

“तो हमारा जो ‘अंश’ आपने लिया है... उसके बाद भी नहीं?”

हर्ष की बात सुन कर सुहासिनी के गाल लज्जा से लाल हो गए। पिछले कुछ दिनों से वो दोनों अभूतपूर्व तरीके से अंतरंग हो गए थे। ठीक वैसे ही, जैसे पति-पत्नी होते हैं! उनका निकुञ्ज ही उनका राजमहल, उनका शयन-कक्ष था। और प्रकृति ही उनके प्रेम की साक्षी! सूर्य के ताप ने उनके प्रेम की ऊष्मा को बढ़ाया था, चिड़ियों के कूजन ने उनकी केलि-क्रीड़ा में संगीत घोल दिया था। जब रोज़ इतनी निकटता मिले लगे, तो संभव है न कि इसी कारण से वो अपने प्रियतम से दूर होने का सोच कर ही हलकान हुई जा रही थी। वो हर्ष के सीने में सिमट गई।

“आप बहुत गंदे हैं!”

“बिल्कुल भी नहीं... आज तो हमने स्नान भी किया है!” हर्ष की ठिठोली जारी थी।

लेकिन सुहासिनी ने उसको अनसुना कर दिया, “आपने सोचा भी है, आपके पीछे हमारा क्या हाल होगा?”

“हाँ, सोचा है!” हर्ष ने मुस्कुराते हुए कहा।

“क्या सोचा है आपने?”

“... हमने भाभी माँ से बात करी है!”

“क्या!?”

“हाँ... हमने उनसे निवेदन किया है कि हमारे पीछे वो आपका ध्यान रखें! ... आप हमारी ही नहीं, हमारे परिवार की भी अमानत हैं!”

“... फ़िर?”

“भाभी माँ ने कहा कि ‘बेटा... तुम चिंता न करो... तुम हमारे पुत्र हो और सुहास हमारी पुत्री...’! ... समझ रही हैं न आप राजकुमारी जी?”

हर्ष की बात कुछ ऐसी अनोखी थी कि सुहासिनी के गाल पुनः लज्जा से लाल हो गए। लेकिन युवरानी जी द्वारा अपने लिए ‘पुत्री’ सम्बोधन जान कर उसके दिल अपार आनंद से भर गया। अगर युवरानी जी - ओह क्षमा करें - ‘भाभी माँ’ उसके साथ खड़ी हैं, तो फिर किस बात की चिंता! उसके मन की उद्विग्नता कम हुई।

“राजकुमार जी,” उसने कुछ देर के बाद बड़े शांत स्वर में कहा, “आप अपना ठीक से ध्यान रखिएगा...”

हर्ष ने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“याद रखिएगा, कि कोई है जो आपके पीछे आपकी प्रतीक्षा कर रही है!”

“आप चिंता न करिए राजकुमारी जी... शत्रु देश शीघ्र ही पराजित होगा... हमको अपने देश के सैन्य बल पर पूरा भरोसा है... और फिर उसके बाद, हम विजयोत्सव मानते हुए आपके संग विवाह करेंगे!”

उस दृश्य की कल्पना कर के सुहासिनी के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

हाँ, राजपरिवारों में ऐसा ही होता था। शत्रु राज्य को परास्त करने के बाद, अक्सर ही विजेता राज्य में विवाह समारोह होते थे। लेकिन वो एक राजनीतिक व्यवस्था थी। विजई राज्य के राजा या किसी राजकुमार के साथ, परास्त राज्य की किसी कन्या - राजकुमारी - का विवाह होता था। लेकिन यहाँ तो बात अलग है! उन दोनों का विवाह प्रेम-जन्य है!

कैसा सुन्दर समां बनेगा! वो हर्ष के साथ विवाह की कल्पना मात्र से रोमांचित हो गई।

“... आप,” वो थोड़ा झिझकते हुए बोली, “आज संध्या को हमारे साथ... भगवान एकलिंग के दर्शन करने चलेंगे?”

“राजकुमारी जी... आप पुनः भूल गईं... हम बस दो ही घण्टे में निकलने वाले हैं राजधानी की ओर...”

“ओह... क्षमा करिए कुमार...” सुहासिनी ने अपने अचानक से ही उमड़ आये आँसुओं को छुपाने की गरज़ से, फिर से स्वयं को हर्ष के सीने में छुपा लिया।



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“युवरानीईई...”

बेला के चीखने की आवाज़ सुन कर प्रियम्बदा चौंकी - ऐसा आचरण तो उसने कभी भी बेला धाय को करते देखा नहीं, सुना नहीं। क्या हो गया ऐसा? वो अपने कक्ष में सोफ़े पर बैठी हुई आज का अखबार पढ़ रही थी, लेकिन बेला की चीख सुन कर वो उठने लगी।

“प्रियम्बदा बेटीईईई...” एक बार और बेला के चिल्लाने की आवाज़ आई।

इस बार उसकी आवाज़ में दर्द साफ़ झलक रहा था।

प्रियम्बदा तेज से चलती हुई महल के सेहन (आँगन) तक आई - बेला वहीं थी।

बेला हाथ में टेलीफोन थामे साफ़ तौर पर काँप रही थी। उसके चेहरे के भाव देख कर कोई भी कह सकता था कि उसको बहुत गहरा घक्का लगा था। कोई बहुत ही बुरी खबर सुन ली थी बेला ने। प्रियम्बदा को समझ आ गया कि कोई बहुत ही बुरी खबर है। बेला धाय ऐसी स्त्री नहीं हैं कि अपने ऊपर से नियंत्रण खो दें।

“धाय अम्मा, क्या हो गया?” प्रियम्बदा ने चिंतित होते हुए पूछा।

“... अनर्थ हो गया बेटी...” कहते कहते बेला की आँखों से आँसू निकलने लगे, “महा अनर्थ...”

“क्या हो गया अम्मा...”

“अनर्थ हो गया बेटी... महाराजाधिराज नहीं रहे...”

“क्या...!!??”

“महारानी भी...” बेला ने काँपते हुए कहना जारी रखा - अब तक उसकी साँसों में हिचकियाँ बँध गई थीं।

“अम्मा... क्या कह रही हैं आप...”

“महा अनर्थ बिटिया... महा अनर्थ...” बेला कहते कहते पछाड़ खा कर ज़मीन पर गिर गई, “... राजकुमार भी...”

वो अपना वाक्य पूरा न कर सकी और फ़फ़क फ़फ़क कर रोने लगी।



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दुर्घटना का कोई भी उपलब्ध विवरण अपूर्ण था। हाँलाकि पुलिस ने अपनी तरफ़ से तफ़्तीश कर ली थी, लेकिन फिर भी संतोषजनक कोई भी विवरण नहीं मिल पाया था। महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु कोई दुर्घटना थी या फिर किसी शत्रु की साजिश, कह पाना कठिन हो रहा था। और तो और, उनका ड्राईवर भी चल बसा था। हाँ यह अवश्य पता था कि किसी ट्रक वाले ने उनको टक्कर मार दी थी। ट्रक वाला और उसका क्लीनर भी इस घटना में मारे गए! एक दुर्घटना - और इतने सारे शिकार!

अपने प्रिय राजपरिवार के इतने सदस्यों के यूँ अचानक चले जाने से महाराजपुर की जनता ही नहीं, बल्कि आस पास के लोग भी शोकाकुल हो गए थे। महाराज और राजकुमार का यूँ जाना - मतलब राज-तंत्र का एक तरह से अंत! हाँ - भारत के गणराज्य बनने से वैसे भी राज-तंत्र नहीं बचा हुआ था, लेकिन फिर भी, पुराने राजपरिवारों का अपना रसूख़ होता है। वो अवश्य ही राजा न हों, लेकिन प्रजा के मन में राजा अवश्य होते हैं।

ख़ास कर महाराज घनश्याम सिंह जैसे प्रजावत्सल राजा! रानी साहिबा भी बड़ी प्रिय थीं। और सबसे प्रिय था राजकुमार हर्षवर्द्धन! सभी जानते थे कि कैसे वो बिना किसी ढोंग के एक सामान्यजन जैसा रहता था। युवराज हरिश्चंद्र, युवराज अवश्य था, लेकिन सभी जानते थे कि वो राजनीति में कोई रूचि नहीं लेते थे। उनका दृष्टिकोण व्यापारिक हो गया था! एक तरह से वो अपने समय से बहुत आगे चल रहे थे - लेकिन उस समय कोई भी राजवाड़ा, व्यापार करने की नहीं सोचता था। मतलब, अब राजपरिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में नहीं रहेगा। इस बात से भी महाराजपुर के लोग उदास थे, और व्यथित थे। अगर ये लोग जीवित होते, तो महाराजपुर का विकास तेजी से हो सकता था। बिना किसी रसूख़ वाले परिवार के, महाराजपुर अपनी अहमियत खो देता।

महाराजपुर में प्रजा ने स्वयं ही पूरे पंद्रह दिवसों का शोक घोषित कर लिया। हाँलाकि राजस्थान राज्य में महाराज, महारानी, और राजकुमार की असमय मृत्यु पर दो दिनों का राजकीय शोक घोषित किया गया था! ऐसा लग रहा था कि पूरा राज्य श्मशानघाट बन गया हो। इतनी भीड़ के मद्देनज़र, परम्परा के विपरीत, अंतिम संस्कार का आयोजन श्मशानघाट में न कर के राज्य के सबसे बड़े खुले मैदान में किया गया। वहाँ इतनी भारी भीड़ उपस्थित थी, लेकिन बच्चों के क्षणिक रुदन के अतिरिक्त घोर चुप्पी फैली हुई थी। केवल राजपुरोहित जी के मंत्रोच्चारण की ही आवाज़ आ रही थी।

जब युवराज ने बारी बारी से तीनों चिताओं को अग्नि दी, तब वहाँ शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति बचा हो, जिसके आँखों में आँसू न हों!

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Bahut hi badhiya update diya hai avsji bhai...
Nice and beautiful update....
 
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संजू और रिकी भाई लोग - आप लोगों के विचार सही हैं, और मैं सहमत भी हूँ।
लेकिन कहानी में आगे जो करना चाहता हूँ, बिना इसके संभव नहीं दिख रहा था। शायद अन्य कोई मार्ग हो, लेकिन मुझे यही ठीक लगा।
अगर मैं आप लोगों के तर्क के उत्तर में कुछ लिखूँगा तो उसके विपरीत और भी अन्य तर्क निकल आएँगे।
इसलिए मैं मान लेता हूँ। लेकिन मीना और जय के बीच हुए इस बदलाव से ही कहानी आगे बढ़ने वाली है :)
साथ में बने रहें - दूसरी कहानी में जैसे कुछ लोग मुँह फुला कर भाग लिए, उनके जैसा न करना!
जब तक मै इस फोरम पर एक्टिव रहूंगा या किसी कारणवश मै यहां से बैन न हुआ , तब तक आपके साथ मेरा साथ , मेरा दोस्ताना बना रहेगा।
( ये कई बार आपसे कह चुका हूं। कम से कम यह तो आपको समझना चाहिए था अमर भाई । )
आपके लेखनी पर मैने कभी कोई प्रश्न किया ही नही। लेकिन कहानी पर हो रहे घटनाक्रम पर प्रश्न तो किया ही जा सकता है। किसी किरदार के गुणों का विश्लेषण तो किया ही जा सकता है । यह अलग बात है कि मेरी सोच किरदार के कैरेक्टर पर सही न बैठे।
वैसे आप शायद भुल गए हैं कि मीना के लिए शुरुआत मे मैने क्या कहा था !
( मीना रूपी वृक्ष के जड़ पर मट्ठा डालता रहूंगा । अब यह आपको सिद्ध करना है कि मै ऐसा कुछ न करूं :D )
 
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