मुझे अत्यंत हर्ष हुआ!
"कहाँ रहता है?" मैंने पूछा,
"बाबा दम्मो के ठिकाने पर" उन्होंने कहा,
"दम्मो? वही जिसे नौ-लाहिता प्राप्त हैं?" मुझे अचम्भा हुआ सो मैंने पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब काम और हुआ मुश्किल!
"उसका ही शिष्य है ये?" मैंने पूछा,
"हाँ! सबे जवान" वे बोले,
"अर्थात?" मैंने पूछा,
"बाइस वर्ष आयु है उसकी केवल" वे बोले,
"बाइस वर्ष? केवल?" मैंने हैरान हो कर पूछा,
"हाँ" वे बोले,
अब मैं चुप!
"क्या काम है उस से?'' बाबा ने पूछा,
"कुछ खरीद का काम है" मैंने कूटभाषा का प्रयोग किया,
"अच्छा" वे बोले,
"स्वभाव कैसा है?" मैंने पूछा,
"बदतमीज़ है" उन्होंने बता दिया,
"ओह" मेरे मुंह से निकला,
कुछ पल शान्ति!
"संभल के रहना" वे बोले,
"किस से?" मैंने पूछा,
वो चुप!
"किस से बाबा?" मैंने ज़ोर देकर पूछा,
"दम्मो से" वे बोले,
उन्होंने छोटे से अलफ़ाज़ से सबकुछ समझा दिया था!
"ज़रूर" मैंने कहा,
शान्ति, कुछ पल!
"और रिपुष?" मैंने फिर पूछा,
"उसके ऊपर दम्मो का हाथ है" वे बोले,
"समझ गया!" वे बोले,
मैं भी खोया और बाबा भी!
"चले जाओ" वे बोले,
कुछ सोच कर!
"नहीं बाबा" मैंने कहा.
"समझ लो" वे बोले,
"समझ गया!" मैंने कहा,
अब हम उठे वहाँ से, बाबा डबरा ने बहुत कुछ बता दिया था, अब मुझे एक घाड़ की आवश्यकता थी, कुछ अत्यंत तीक्ष्ण मंत्र जागृत करने थे! अंशुल-भोग देना था! ये बात मैंने अपने एक जानकार बुल्ला फ़कीर से कही उसने उसी रात को मुझे अपने डेरे पर बुला लिया, मैं जिस समय वहाँ पहुंचा तब रात के सवा नौ बजे थे! बुल्ले फफकीर के पास एक घाड़ था कोई उन्नीस-बीस बरस का, और बारह और औघड़ थे वहाँ, किसी को शीर्षपूजन करना था, किसी को वक्ष और किसी को लिंग पूजन, मुझे उदर पूजन करना था, शक्ति का स्तम्भन करना था, प्राण-रक्षण करना था!
पूजन का समय सवा बार बजे का था, अतः मैं स्नान करने गया, और उसके बाद तांत्रिक-श्रृंगार किया, भस्म-स्नान किया! लिंग-स्थानोपत्ति पूजन किया फिर हगाड़ पूजन आरम्भ हुआ!
मेरा क्रमांक वहाँ ग्यारहवां था अतः मैंने बेसब्री से इंतज़ार किया, षष्ट-मुद्रा में घाड़ जागृत हो गया, और उठकर बैठ गया था!
नशे में चूर!
झूमते हुए, गर्दन हिलाते हुए, आँखें चढ़ी गईं!
और फिर आया मेरा वार!
मैंने घाड़ के उदर का पूजन किया! उसने अपने हाथों से अपने अंडकोष पकडे थे, मैं समझ सकता था कि क्यों!
अब मैंने प्रश्न किये उस से!
"रिपुष का दमन होगा?"
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"दम्मो आएगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोला,
ओह!
"क्षति होगी?" मैंने पूछा,
"डबरा वाला जीतेगा" वो बोला!
ओह!
"कुशाल कौन चढ़ेगा?" मैंने पूछा,
"दम्मो" वो बोला,
"मरेगा?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"नव-लौहिताएँ?" मैंने पूछा,
"आएँगी" वो बोला,
और फिर धाड़ से उसने अपने गले में रुंधती हुई आवाज़ बाहर निकाली, जैसे कोई कपडा फाड़ा हो!
"भोग लेगा?" मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
मैंने शराब की बोतल दी उसको!
एक बार में ही बोतल ख़तम!
मैंने अपना चाक़ू निकाला और अपना हाथ काट कर उसको चटा दिया! उसने कूटे की तरह से रक्त पी लिया और तीन बार छींका!
मेरा वार समाप्त!
जानकारी पूर्ण हुई!
मैं अब श्रृंगार मुक्त होने चला गया!
मुक्त हुआ!
स्नान किया!
और वापिस शर्मा जी के पास!
"हो गया पूजन?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"अब चलें" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब हम उठे और एक कक्ष में आ गए!
"कल चलना है दम्मो के पास?'' उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले और लेट गए!
मैं भी लेट गया!
दारु के भभके आ रहे थे!
सर घूम रहा था! अन नींद का समय था!
हम सो गए!
सुबह उठे!
आठ बजे का वक़्त था!"उठो?" मैंने शर्मा जी की चादर खींच कर कहा,
अलसाते हुए वे भी उठ गए!
और फिर अगला दिन!
उस दिन सुबह सुबह चाय-नाश्ता करने के बाद हम बाबा डबरा के पास गए, बताने को कि हम दम्मो बाबा के पास जा रहे हैं सुलह करने, हो सकता है मान ही जाए, तकरार या झगड़ा न हो तो ही बढ़िया!
"अच्छा बाबा, हम चलते हैं" मैंने कहा,
"ठीक है, सावधान रहना" वे बोले,
आशीर्वाद दिया और हम चेल अब बाबा दम्मो और उस जवान औघड़ रिपुष के पास!
करीं दो घंटे में पहुंचे हम बाबा दम्मो के स्थान पर, पहाड़ी पर था, काले ध्वज लगे हुए थे, बीच में किनाठे पर एक मंदिर बना था, शक्ति मंदिर! सफ़ेद, शफ्फाफ़ मंदिर! हमने द्वारपाल से बाबा के बारे में पूछा, उसने एक दिशा के बारे में बता दिया, हम वही चल पड़े, बड़ा था ये डेरा, करीब पांच सौ स्त्री-पुरुष तो रहे होंगे! हम आगे बढे, ये रिहाइश का क्षेत्र था, हमने एक सहायक से पूछा, उसने एक कक्ष की तरफ इशारा कर दिया, हम वहीँ चल पड़े,
कक्ष के कपाट खुले थे, अंदर एक मस्त-मलंग सा औघड़ बैठा था, लुंगी और बनियान पहने, लम्बी जटाएँ और लम्बी दाढ़ी मूंछें! आयु कोई सत्तर बरस रही होगी! हम अंदर गए, वहाँ तीन लोग और थे, हाँ, रिपुष नहीं था वहाँ!
"नमस्कार" मैंने कहा,
"हूँ" उसने कहा,
हमको बिठाया उसने, वे तीन अब चुप!
"कहिए?" उसने पूछा,
"आप ही दम्मो बाबा हैं?" मैंने पूछा,
"हाँ, कहिये?" वो बोला,
"आपसे कुछ बात करनी है" मैंने कहा,
वो समझ गया, उसने उन तीनों को हटा दिया वहाँ से!
"बोलिये, कहाँ से आये हो?" उसने पूछा,
"दिल्ली से" मैंने कहा,
"ओह, हाँ, कहिये?" उसने कहा,
"रिपुष आपका ही शिष्य है?" मैंने पूछा,
"हाँ, तो?" उसने त्यौरियां चढ़ा के पूछा,
"रिपुष के पास एक रहन है हमारी" मैंने कहा,
"कैसी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा जोगन" मैंने कहा,
अब वो चौंका!
"हाँ, तो?" उसने पलटा मारा!
"वही चाहिए" मैंने कहा,
"क्यों?" उसने पूछा,
"है कुछ बात" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"उसको मुक्त करना है" मैंने कहा,
"किसलिए?" उसने पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
"तो?" उसने कहा,
"छोड़ दीजिये उसको" मैंने कहा,
"नहीं तो?" सीधे ही काम की बात पर आया,
"आप बुज़ुर्ग हैं सब समझते हैं" मैंने कहा,
और तभी रिपुष आ गया! बाइस वर्ष में क्या खूब शरीर निकाला था उसने हृष्ट-पुष्ट, काली दाढ़ी मूंछें! और अमाल-झमाल के तंत्राभूषण धारण किये हुए!
उसको बिठाया अपने पास दम्मो ने!
"अपनी रहन मांग रहे हैं ये साहब" उसने उपहास सा उड़ाते हुए कही ये बात!
"कौन सी रहन?" उसने पूछा,
"पद्मा" दम्मो ने कहा,
"क्यों?" उसने मुझ से पूछा,
"मेरी बड़ी बहन समान है वो" मैंने कहा,
वो हंसा!
जी तो किया कि हरामज़ादे के हलक में हाथ डाल के आंतें बाहर खींच दूँ!
"अब काहे की बहा?" उसने मजाक उड़ाया,
'आप छोड़ेंगे या नहीं?" मैंने स्पष्ट सा प्रश्न किया,
"नहीं" उसने हंसी में कहा ऐसा!
"क्यों?" मैंने पूछा,
"सिक्का! सिक्का नहीं मालूम तुझे?" उसने अब अपमान करते हुए कहा,
"सिक्के की एक औघड़ को क्या ज़रुरत?" मैंने कहा,
"हूँ!" उसने थूकते हुए कहा वहीँ!
अब विवाद गर्माया!
"इतना अभिमान अच्छा नहीं" मैंने चेताया,
"कैसा भी मान? मैंने पकड़ा है तो मेरा हुआ" उसने कहा,
दम्मो ने उसकी पीठ पर हाथ मारते हुए समर्थन किया!
"तो आप नहीं छोड़ेंगे" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोला,
"सोच लो" मैंने कहा,
"अबे ओ! मेरे स्थान पर मुझे धमकाता है?" उसने गुस्से से कहा,
"मैंने कब धमकाया, मैंने तो समझाया" मैंने कहा,
"नहीं समझना, कहीं तुझे समझाऊं" उसने दम्भ से कहा,
मैं कुछ पल शांत रहा!
"मैं धन्ना शांडिल्य का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब कांपा थोडा सा दम्मो! रिपुष तो बालक था, उसे ज्ञात नहीं!
"कौन धन्ना?" रिपुष ने पूछा,मै बताता हूँ" बोला दम्मो!
"अलाहबाद का औघड़! कहते हैं, सुना है उसने शक्ति को साक्षात प्रकट किया था और उसने अपने हाथों से खाना बना कर परोसा था, धन्ना की रसोई में!" बोल पड़ा दम्मो!
"ओहो!" रिपुष बोला,
"हाँ" मैंने कहा,
"मैं उसी धन्ना का पोता हूँ" मैंने कहा,
अब सांप सूंघा उनको!
"देखो, मैं आपकी इस रहन को एक वर्ष के बाद छोड़ दूंगा" रिपुष ने कहा,
"नहीं, आज ही" मैंने कहा,
'सम्भव नहीं" उसने कहा,
"सब सम्भव है" मैंने कहा,
"हरगिज़ नहीं" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
अब चुप्पी!
"अब जा यहाँ से" चुटकी मारते हुए बोला रिपुष! मैंने दम्मो को देखा, चेहरे पर संतोष के भाव और होठों पर हंसी!
"जाता हूँ, लेकिन आगाह करना मेरा फ़र्ज़ है" मैंने कहा,
"आगाह?" खड़ा हुआ वो, हम भी खड़े हुए!
"हाँ!" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"आज हुई अष्टमी, इस तेरस को द्वन्द होगा! तेरा और मेरा!" मैंने कहा,
"अवश्य!" वो नाच के बोला!
"खुश मत हो!" मैंने कहा,
"अरे तेरे जैसे बहुत देखे मैंने, धुल चटा चुका हूँ मैं" उसने कहा,
"देखे होंगे अवश्य ही, लेकिन मैं अब आया हूँ" मैंने कहाचल ओये?" उसने कहा,
अब हम निकले वहाँ से!
"बड़ा ही बद्तमीज़ लड़का है कुत्ता" शर्मा जी बोले,
"कोई बात नहीं, हाड़ पक गए इसके अब!" मैंने कहा,
"दो साले को सबक" गुस्से से बोले वो,
"ज़रूर" मैंने कहा,
मैंने पीछे देखा, वे देख रहे थे हमको जाते हुए!
बारूद तैयार था! चिंगारी लगाना शेष था!
"चलिए" मैंने कहा,
हम टमटम में बैठे और चले अपने डेरे!
हम आये, पिटे हुए शिकारी से! जैसे चारा भी गँवा के आये हों! बाबा डबरा पानी दे रहे थे पौधों में, खूब फूल खिले थे!
"आ गए? खाली हाथ?" बाबा ने बिना देखे पूछा,
"हाँ बाबा" मैंने कहा,
"कौन सी तिथि निर्धारित की, तेरस?" बोले बाबा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक किया, तेरस शुभ है" वे बोले,
"धन्यवाद" मैंने कहा,
मुझे जैसे बाबा का आशीर्वाद मिला,
"हाथ-मुंह धो लो, खाना लगा हुआ होगा, मैं आ रहा हूँ बस,
"हम हाथ मुंह धोने चले गए, वहाँ से वापिस आये, खाना लगा हुआ था!
कुछ देर बाद बाबा भी आ गए!
बैठे,
"बताया तुमने धन्ना बाबा के बारे में?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"नहीं माना?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, नहीं माना" मैंने कहा,
"मुझे पता था" वे बोले,
मैं चुप!
"लो, शुरू करो" बाबा ने खाना शुरू करने को कहा,
आलू-बैंगन की सब्जी, थोड़ी सी सेम की फली की सब्जी, दही और सलाद था! रोटी मोटी मोटी थीं, चूल्हे की थीं शायद!
खाना खाया,
लज़ीज़ खाना! दही तो लाजवाब!
"बाबा?" मैंने पूछा,
"हाँ?" वे बोले,
"मुझे एक साध्वी चाहिए" मैंने कहा,
"मिल जायेगी, कल आ जायेगी, जांच लेना" वे बोले,
उनके जबड़े की हड्डी ऐसी चल रही थी खाना खाते खाते जैसे भाप के इंजन का रिंच, बड़ी कैंची!
"ठीक है" मैंने कहा,
मेरी दही ख़तम हो गयी तो बाबा ने और मंगवा ली, मेरे मजे हो गए! मैं फिर से टूट पड़ा दही पर! और तभी पेट से सिग्नल आया कि बस! डकार आ गयी!
शर्मा जी ने भी खा लिया और बाबा ने भी! हम उठे अब!
"मैं कक्ष में जा रहा हूँ बाबा" मैंने कहा,
उन्होंने हाथ उठाके इशारे से कह दिया कि जाओ!
हम निकल आये बाहर और अपने कक्ष की ओर चले गए, कक्ष में आये और लेट गए!
तभी शर्मा जी का उनके घर से फ़ोन आ गया! उन्होंने बात की और फिर मुझसे प्रश्न!
"द्वन्द विकराल होगा?"
"हाँ" मैंने कहा,
"रिपुष के बसकी नहीं, हाँ दम्मो ज़रूर कूदेगा बीच में" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,तो आपके दो शत्रु हुए" वे बोले,
"स्पष्ट है" मैंने कहा,
"वो आया तो लौहिताएँ" वे बोले,
"बेशक" मैंने कहा,
अब सिगरेट जलाई उन्होंने,
"हाँ, पता है मुझे भी" उन्होंने नाक से धुआं छोड़ते हुए कहा,
"और कमीन आदमी के हाथ में तलवार हो तो वो अँधा हो कर तलवार चलाता है" मैंने कहा,
"क़तई ठीक" वे बोले,
"तो यक़ीनन दम्मो ही लड़ेगा" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"कल साध्वी आ जायेगी, देखता हूँ" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले,
"द्वन्द भयानक होने वाला है" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"काट दो सालों को" वे गुस्से से बोले,
मुझे हंसी आयी!
"मन तो कर रहा था सालों के मुंह पर वहीँ लात मारूं!" वे बोले,
"लात तो पड़ेगी ही" मैंने कहा,
अब मैंने करवट बदली!
हम कुछ और बातें करते रहे और आँख लग गयी!
दोपहर बीती, रात बीती बेचैनी से और फिर सुबह हुई! दैनिक-कर्मों से फारिग हुए और फिर चाय नाश्ता! करीब दस बजे दो साध्वियां आयीं, मैंने कक्ष में बुलाया दोनों को, एक को मैंने वापिस भेज दिया वो अवयस्क सी लगी मुझे, शर्मा जी बाहर चले गए तभी, दूसरी को वहीँ बिठा लिया, साध्वी अच्छी थी, मजबूत और बलिष्ठ देह थी उसकी, मेरा वजन सम्भाल सकती थी, उसकी हँसलियां भी समतल थी, वक्ष-स्थल पूर्ण रूप से उन्नत था और स्त्री सौंदर्य के मादक रस से भी भीगी हुई थी!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"ऋतुला" उसने बताया,
"कितने बरस की हो?" मैंने पूछा,
"बीस वर्ष" उसने कहा,
"माँ-बाप कहाँ है?" मैंने पूछा,
"यहीं हैं" उसने कहा,
धन के लिए आयी हो?'' मैंने पूछा,
"हाँ" उसने कहा,
ये ठीक था! धन दिया और कहानी समाप्त! कोई रिश्ता-नाता या भावनात्मक सम्बन्ध नहीं!
"कितनी क्रियायों में बैठी हो?" मैंने पूछा,
"दो" उस ने बताया,
"उदभागा में बैठी हो कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
"हम्म" मैंने कहा,"सम्भोग किया है कभी?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"ठीक है" मैंने कहा,
मैंने अब अपना कक्ष बंद किया और कहा उस से, "कपडे खोलो अपने"
उसने एक एक करके लरजते हुए कपड़े खोल दिया,
देह पुष्ट थी उसकी, नितम्ब भी भारी थे, जंघाएँ मांसल एवं भार सहने लायक थी, फिर मैं योनि की जांच की, इसमें भी कुछ देखा जाता है, वो भी सही था,
"ठीक है, पहन लो कपड़े" मैंने कहा,
उसने कपड़े पहन लिए,
"ऋतुला, तुम तेरस को स्नान कर मेरे पास आठ बजे तक पहुँच जाना" मैंने कहा,
"ठीक है" वो बोली,
अब मैंने उसको कुछ धन दे दिया,
और अब वो गर्दन हाँ में हिला कर चली गयी,
चलिए, साध्वी का भी प्रबंध हो गया अब मुझे कुछ शक्ति-संचरण करना था, मंत्र जागृत करने
थे और कुछ विशेष क्रियाएँ भी करनी थीं, जो प्राण बचाने हेतु आवश्यक थीं!
तो मित्रगण! इन दिनों और रातों को मैंने सभी क्रियाएँ निपटा लीं! डबरा बाबा का शमशान था, इसकी भी फ़िक़र नहीं थी!
द्वादशी को, रात को मैं और शर्मा जी मदिरा पान कर रहे थे, तभी शर्मा जी ने पूछा," कब तक समाप्त हो जाएगा द्वन्द?"
"पता नहीं" मैंने कहा,
अच्छा" वे बोले,
"आप सो जाना" मैंने कहा,
"नहीं"
उन्होंने कहा,
"कोई बात होगी तो मैं सूचित कर दूंगा" मैंने कहा,
"मैं जागता रहूँगा" वे बोले,
"आपकी इच्छा" मैंने कहा,
"एक बात कहूं?" उन्होंने कहा,
"हां? बोलिये?" मैंने कहा,
"ऐसा हाल करना सालों का कि ज़िंदगी भर इस लपेट-झपेट से तौबा करते रहें!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा और मैं खिलखिला कर हंसा!
अब शर्मा जी ने गिलास बदल लिया और मुझे अपना और अपना मुझे दे दिया! इसका मतलब हुआ कि ख़ुशी आपकी और ग़म मेरा!
"इसीलिए मेरे साथ हो आप" मैंने कहा,
"धन्य हुआ मैं" वे बोले,
भावुक हो गए!
"चलिए कोई बात नहीं, आप जाग लेना!" मैंने कहा और बात का रुख बदला!
उन्होंने गर्दन हिलायी!
तभी बाबा आ गए!
"और?" वे बोले,
"सब बढ़िया" मैंने कहा,
"रुको, मैं और लगवाता हूँ" वे बोले और बाहर चले गए!
और फिर आयी तेरस!
उस दिन मैंने चार घटियों का मौन-व्रत धारण किया, ये इसलिए कि कुछ और मेरी जिव्हा से न टकराए और जिस से जिव्हा झूठी हो मेरी! मेरा मौन-व्रत दोपहर को टूटा!
बाबा आ गए थे वहाँ,
"आओ बाबा जी" मैंने कहा,
बैठ गए वहाँ,
"आज विजय-दिवस है तुम्हारा" वे बोले,
"आपका धन्यवाद!" मैंने कहा,
"एक काम करना, मेरे पास नौखंड माल है, वो मैं दे दूंगा, उन्नीस की काट करती है वो" वो बोले,
''अवश्य" मैंने कहा,
उन्नीस की काट अर्थात उन्नीस दर्जे की काट!
"साध्वी कितने बजे आएगी?" उन्होंने पूछा,
"आठ बजे" मैंने कहा,
ठीक है" वे बोले,
वे उठे और चले गए,
"बाबा बहुत भले आदमी है" शर्मा जी ने कहा,
"हाँ" मैंने उनको जाते हुए देखते हुए कहा,
"लम्बी आयु प्रदान करे इनको ऊपरवाला" वे बोले,
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"पापी ही लम्बी आयु भोगते हैं ऊपरवाले के यहाँ पापिओं की आवश्यकता नहीं होती, उसको भले लोग ही चाहिए होते हैं, मैंने इसीलिए कहा" वे बोले,
मैं समझ गया था!
अब हम भी उठे वहाँ से, बाबा ने सारा सामानवहाँ,
दोनों अवाक!
बरसों की सिद्धि का एक फल टूट गया था!
मुझे हलकी सी हंसी आयी! आज दादा श्री का समरण हुआ और उनके वे शब्द, 'काल कवलित सभी को होना है तो कारण लघु क्यों? रोग क्यों? किसी शक्ति का आलिंगन करते हुए प्राण सौंपने चाहियें!" अचूक अर्थ!
दम्भियों के दम्भ-कोट का एक परकोटा ढह गया था! दोनों हैरान और परेशान! अब बाबा दम्मो उठा, घुँघरू बंधा चिंता उठाया उसने और खड़खड़ाया! फिर अपनी एक साध्वी को पेट के बल लिटा, एक पांव उस पर रख और दूसरा हवा में उठा, जाप करने लगा! मेरे कानों में उत्तर आ गया! ये महिषिकिा का आह्वान था! सांड समान बल वाली, दीर्घ देहधारी, भस्मीकृत देह वाली, तांत्रिकों की रक्षक और किसी भी नष्ट को दूर करने वाली! इसका एक वार और प्राण लोक के पार! मेरे कान में शब्द पड़ा!
धान्या-त्रिजा!
अब आपको बता हूँ इनके बारे में, महिषिका भी एक सहोदरी है, एक अद्वित्य महा-शक्ति की! उस महा शक्ति की ये चौंसठवीं कला अर्थात शक्ति है! ये भयानक, और लक्ष्य-केंद्रित कार्य काने में निपुण है! इसी कारण से दम्मो बाबा ने इसका आह्वान किया था!
और अब धान्या-त्रिजा, अक्सर त्रिजा नाम से ही विख्यात है! ये भी एक सहोदरी है, एक महाभीषण महाशक्ति की, क्रम में तेरहवीं है, रिजा का वस् पाताल मन जाता है, अक्सर कंदराओं में ही ये सिद्ध की जाती है! आयु में नवयौवना है, रूप में अनुपम सुंदरी और तीक्ष्ण में महारौद्रिक! दोनों के ही सम्पुष्ट आह्वान ज़ारी थी!
तभी रिपुष ने त्रिशूल उखाड़ा और भूमि पर पुनः वेग के साथ गाड़ दिया! और डमरू बजा दिया तीन बार! अर्थात मैं शरणागत हो जॉन उनके यहाँ! मैंने भी त्रिशूल लिया, वक्राकार रूप से घुमाया और पुनः गाड़ दिया भूमि में और पांच बार डमरू बजाय, अर्थात मैं नहीं, वो चाहें तो कोई हर्ज़ा नहीं, सब माफ़!
पाँव पटके रिपुष ने और तभी एक झटका खा कर रिपुष और दम्मो भूमि पर गिर गए! महिषिका का आगमन होने ही वाला था! साधक को गिरां, पटखने ही उसका आने का चिन्ह है!
"ओ मेरी पातालवासिनी, दर्शन दे!" मैंने कहा,
और अगले ही पाक श्वेत रौशनी मुझ पर पड़ी और मैं नहा गया उसमे, मेरे पास रखे सभी सामान एवं स्व्यं की परछाईं देख ली मैंने!
मैं उठ खड़ा हुआ! नमन किया!
वहाँ महिषिका से मौन-वार्तालाप हुआ और वो वहाँ से दौड़ी लक्ष्य की और, और यहाँ मैं घुटनों पर गिरा त्रिजा के समक्ष बैठा था!
अनुनय करता हुआ!
महिषिका आ धमकी! उसके साथ दो और उप-सहोदरियां, खडग लिए!
समय ठहर गया जैसे!
महिषिका आ धमकी! साथ में दो उप-सहोदरि अपने अपने अस्त्र लिए! यहाँ त्रिजा भी प्रककट हो गयी थी! आमना-सामना हुआ उनका और फिर त्रिजा के समक्ष नतमस्तक हुई महिषिका और भन्न! दोनों ही लोप!
बावरे हुए वे दोनों! महिषिका नतमस्तक हुई! ये कैसे हुआ! कैसे! कैसे????
मैंने अट्ठहास किया!
दो कांटे मैं काट चुका था!
अब मैं अपने आसान पैर बैठा और अधंग-जाप किया! ये जाप क्रोध का वेग हटा देता है! मेरी देख फिर आरम्भ हुई!
वहाँ अब जैसे मरघट की शान्ति छाई थी!
"भोड़िया!"
हाँ! भौड़िया!
यही शब्द आया मेरे कानों में!
अर्थात, नरसिंहि की भंजन-शक्ति!
नरसिंहि! इसके बारे में आप जानकारी जुटा सकते हैं! हाँ, ये अष्ट-मात्रिकाओं में से एक हैं!अब अष्ट-मात्रिकाओं के बारे में भी आप जानिये, बताता हूँ, जब अन्धकासुर का वध करने हेतु, महा-औघड़ और शक्ति ने प्रयास किया तब महा-औघड़ ने शक्ति से कह कर अष्ट-मातृकाएँ प्रकट कीं, ये वैसे चौरासी हैं, अन्धकासुर को वरदान और अभयदान मिला, और ये अष्ट-मात्रिकाएं फिर देवताओं का ही भक्षण करने लगीं! तब इनको सुप्तप्रायः कर इनको विद्यायों में परिवर्तित कर दिया गया, इन्ही चौरासी मात्रिकाओं में से ही नव-मात्रिकाएं अथवा लौहिताएँ बाबा दम्मो ने प्रसन्न कर ली थीं!
"बोल?" रिपुष ने चुनौती दी!
"कहा!" मैं अडिग रहा!
"पीड़ित?" उसने कहा,
"भक्षण" मैंने चेताया,
उसने त्रिशूल लहराया!
मैंने भी लहराया!
उसने चिमटा खड़खड़ाया!
मैंने भी बजा कर उत्तर दिया!
अब बाबा दम्मो ने त्रिशूल से हवा में एक त्रिकोण बनाया! उसका अर्थ था भौड़िया का आह्वान! साक्षात यमबाला! प्राण लेने को आतुर!
"क्वांग-सुंदरी!" मेरे कानों में उत्तर आया! गांधर्व कन्या!
अब मैंने उसका आह्वान किया!
वहाँ भीषण आह्वान आरम्भ हुआ और यहाँ भी!
करीब दस मिनट हुए!
क्वांग-सुंदरी प्रकट हुई!
मैंने भोग अर्पित किया!
नमन किया!
और वहाँ प्रकट हुई यमबाला भौडिआ!
भौड़िया!
इक्यासी नवयौवनाओं से सेवित!
प्रौढ़ आयु!
श्याम वर्ण!
हाथों में रक्त-रंजित खडग!
मुंह भक्षण को तैयार!
केश रुक्ष!
गले में मुंड-माल, बाल!
नग्न वेश!
नृत्य-मुद्रा!
प्रकट हो गयी वहाँ!
उद्देश्य जान उड़ चली वायु की गति से! प्रकट हुई और क्वांग-सुंदरी समख लोप हुई! जैसे सागर ने कोई पोखर लील लिया हुआ तत्क्षण! शीघ्र ही अगले ही पल क्वांग-सुंदरी भी लोप!
ये देख वे दोनों औघड़ बौराये!