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Hum hai rahi pyar ke
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Funtastic updateअध्याय - 39
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अब तक....
बाहर आ कर मैं बुलेट में बैठ गया और रूपचंद्र से पूछा कि मेरे साथ घर चलेगा या उसका कहीं और जाने का इरादा है? मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुस्कुराते हुए बोला दोस्त अब तो घर ही जाऊंगा। उसके बाद मैं और रूपचन्द्र बुलेट से चल पड़े। थोड़ी ही दूरी पर उसका घर था इस लिए वो उतर गया और बाद में मिलने का बोल कर ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मैं रास्ते में सोच रहा था कि अब रूपचंद्र मुझसे खुल गया है तो यकीनन अब वो ज़्यादातर मेरे साथ ही रहना पसंद करेगा। अगर ऐसा हुआ तो एक तरह से वो मेरी निगरानी में ही रहेगा। धीरे धीरे मैं इन सभी भाइयों से इसी तरह घुल मिल जाना चाहता था ताकि इनके मन से मेरे प्रति हर तरह का ख़याल निकल जाए। ये सब करने के बाद मैं अपने उस कार्य को आगे बढ़ाना चाहता था जिसके बारे में मैंने काफी पहले सोच लिया था।
अब आगे....
हवेली पहुंचा तो बैठक में अपनी ऊँची कुर्सी पर बैठे पिता जी मुझे नज़र आए। उनके अलावा बैठक में जगताप चाचा और मुंशी चंद्रकांत भी बैठे थे। मुझ पर नज़र पड़ते ही पिता जी ने मुझे अपने पास आने का इशारा किया। मैं उनके पास जा कर पहले उनके पाँव छुए और फिर जगताप चाचा के। दोनों ने खुश हो कर मुझे आशीर्वाद दिया।
"अब आप जाइए मुंशी जी।" पिता जी ने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"कल पंचायत के लिए हम सुबह ही निकलेंगे। हमने फैसला किया है कि कल सुबह वैभव हमारे साथ जाएगा और आप जगताप के साथ जा कर उस मसले को सुलझाएं।"
"जैसी हुकुम की इच्छा।" मुंशी ने अदब से सिर झुकाते हुए कहा और फिर उठ कर बैठक से बाहर निकल गया।
"तो कैसा रहा साहूकारों के घर में हमारे प्यारे भतीजे का स्वागत सत्कार?" जगताप चाचा ने मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा____"वैसे सुना है बहुत वाह वाही कर रहे थे वो लोग तुम्हारी।"
"इस बारे में जानने के लिए हम भी बड़े उत्सुक हैं जागताप।" पिता जी ने कहा____"तुमने जिस तरह हमें इसकी वाह वाही वाली बातें बताई थी उससे हमें हैरानी हुई थी। वैसे तो हमने इसे ख़ास तौर पर समझा बुझा कर वहां भेजा था लेकिन अंदर ही अंदर हम इसके उग्र स्वभाव के चलते चिंतित भी थे कि ये कहीं वहां पर कोई बवाल न कर बैठे।"
"आप बेवजह ही चिंता कर रहे थे बड़े भइया।" जगताप चाचा ने मुस्कुराते हुए कहा____"आप अभी भी मेरे भतीजे को नासमझ और गैरजिम्मेदार समझ रहे हैं जबकि मुझे इस पर पूरा यकीन था कि ये वहां पर ऐसा कुछ भी नहीं करेगा जिससे किसी तरह का बवाल हो सके। ख़ैर उड़ती हुई ख़बर तो यही थी कि हमारे वैभव ने उन सभी साहूकारों का दिल जीत लिया है लेकिन हम अपने भतीजे के मुख से सुनना चाहते हैं कि इसने वहां क्या क्या किया अथवा इसके साथ वहां पर क्या क्या हुआ?"
मैंने देखा पिता जी के चेहरे पर एक अलग ही चमक थी और ये मैंने पहली बार ही देखी थी। वो मेरी तरफ ही देख रहे थे। चेहरे पर ख़ुशी के भाव थे। मैंने देर न करते हुए वहां का सारा किस्सा उन्हें संक्षेप में बता दिया जिसे सुन कर पिता जी और जगताप चाचा हैरानी से मेरी तरफ देखने लगे थे। मैं समझ सकता था कि साहूकारों की तरह उन्हें भी मेरे बदले हुए चरित्र को हजम करना इतना आसान नहीं था।
"अगर तुम्हारी बातें सच है।" पिता जी ने कहा____"और तुमने वाकई में वहां धैर्य और नम्र स्वभाव का परिचय दिया है तो ये यकीनन अच्छी बात है। हम आगे भी तुमसे यही उम्मीद करते हैं।"
"आज मैं बहुत खुश हूं बड़े भइया।" जगताप चाचा ने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"आज मेरा सबसे प्यारा और सबसे बहादुर भतीजा उसी रूप में अपना कार्य कर के लौटा है जिस रूप में और जैसे कार्य की मैं हमेशा इससे उम्मीद करता था।"
"अब तक मैंने जो कुछ भी किया है।" मैंने नम्र भाव से कहा____"उसके लिए मैं आप दोनों से माफ़ी मांगता हूं और यकीन दिलाता हूं कि आगे भी मैं वैसा ही कार्य करुगा जैसे ही आप दोनों मुझसे उम्मीद करते हैं।"
दोनों मेरी बात सुन कर ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। हालांकि पिता जी अपनी ख़ुशी को छुपाने की पूरी कोशिश कर रहे थे लेकिन वो उनके छुपाए न छुप रही थी। ख़ैर पिता जी ने मुझे कल सुबह जल्दी तैयार हो कर चलने की बात कही तो मैंने हाँ में सर हिलाया अंदर चला गया।
अंदर माँ और मेनका चाची से मुलाक़ात हुई। थोड़ी देर उन दोनों से बातें करने के बाद मैं सीढ़ियों से ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ चला। सीढ़ियों से जैसे ही मैं ऊपर पहुंचा तो मुझे बड़े भैया आते हुए दिखे। उन्हें देखते ही मुझे उस दिन का किस्सा याद आ गया जब उन्होंने मुझे थप्पड़ मारा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर ऐसा कैसे किया होगा उन्होंने?
"अरे! वैभव आ गया तू?" बड़े भैया मेरे क़रीब पहुंचते ही बोले____"मैंने सुना कि तू साहूकारों के घर गया था? कैसा रहा वहां सब?"
"प्रणाम बड़े भइया!" मैं उनके बदले हुए ब्योहार और प्रसन्न चेहरे को देख कर मन ही मन हैरान हुआ था लेकिन ज़ाहिर नहीं होने दिया।
"हमेशा खुश रह।" उन्होंने मेरे बाएं कंधे को अपने हाथ द्वारा हल्के से थपकाते हुए कहा____"अभी तेरी भाभी से पता चला कि तुझे मणि शंकर काका अपने घर ले गए थे तेरा स्वागत सत्कार करने के लिए। कसम से वैभव इस बात से मैं बेहद खुश हूं लेकिन अब ये जानने को उत्सुक भी हूं कि वहां पर सब कैसा रहा?"
मैं बड़े भैया के चेहरे पर छाई ख़ुशी को देख कर हैरान था। समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या चक्कर है? कभी तो वो मुझसे इतना गुस्सा होते थे कि मुझे थप्पड़ तक मार देते थे और कभी वो मुझ पर इतना खुश होते थे कि लगता ही नहीं था कि उन्होंने कभी मुझ पर गुस्सा किया होगा।
"क्या हुआ?" मुझे सोच में डूबा देख वो बोल पड़े_____"क्या सोचने लगा तू? वहां सब ठीक तो था न मेरे भाई?"
"हां भइया।" मैंने सम्हल कर और नम्र भाव से उन्हें जवाब दिया____"आपके आशीर्वाद से वहां सब कुछ बढ़िया ही रहा और अब उन सबके मन में मेरे लिए कोई भी बैर भाव नहीं है। साहूकारों के सभी लड़के भी अब मुझसे अच्छी तरह घुल मिल गए हैं और मुझे अपना भाई और दोस्त समझने लगे हैं।"
"क्या सच में?" बड़े भैया ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा____"अगर ऐसा है तो ये बहुत ही ज़्यादा ख़ुशी की बात है वैभव। मेरे लिए तो सबसे बड़ी ख़ुशी की बात ये है कि मेरा भाई अब बदल गया है और अब अच्छे काम करने लगा है। आ मेरे गले लग जा।"
कहने के साथ ही उन्होंने मुझे खींच कर अपने गले से लगा लिया। मैं उनके इस बर्ताव से जहां एक तरफ बुरी तरह हैरान था वहीं खुश भी हुआ कि उन्होंने मुझे ख़ुशी से अपने गले लगाया। मन ही मन मैंने भगवान से यही दुआ की कि हम दोनों भाइयो के बीच हमेशा ऐसा ही प्रेम बनाए रखे और ये भी कि मेरे भैया के बारे में कुल गुरु ने जो भविष्यवाणी की है वो ग़लत हो जाए।
"मुझे जब तेरी भाभी ने इस बारे में बताया।" बड़े भैया ने मुझे खुद से अलग कर के कहा____"तो मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था लेकिन फिर मुझे होली वाला दिन आया कि कैसे तू अपने से बड़ों का आशीर्वाद ले रहा था और कैसे मेरे साथ ख़ुशी ख़ुशी भांग वाला शरबत पी रहा था। मैं जानता हूं मेरे भाई कि मैंने शायद कभी भी तुझे वैसा प्यार और स्नेह नहीं दिया जैसा एक बड़े भाई को देना चाहिए लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा। अब से मैं तुझे दुखी नहीं होने दूंगा। जितने समय का मेरा जीवन बचा है उतने दिन मैं तेरे साथ हंसी ख़ुशी रहना चाहता हूं। तेरे साथ वो सब कुछ करना चाहता हूं जो बड़े भाई के रूप में मैंने अब तक नहीं किया था।"
"मुझे भाभी ने आपके बारे में सब कुछ बता दिया है भइया।" मैंने थोड़ा दुखी भाव से कहा____"और मुझे इस बात से बहुत तकलीफ़ हो रही है कि मेरे जान से भी ज़्यादा प्यारे बड़े भैया के बारे में कुल गुरु ने ऐसी घटिया भविष्यवाणी की। आप उस गुरु की बातों पर विश्वास मत कीजिए भैया। उस धूर्त की भविष्यवाणी झूठी है। आपको कुछ नहीं होगा, आप हमेशा हमारे साथ ही रहेंगे। मुझे अपने बड़े भैया का हमेशा साथ चाहिए। मैं अपनी भाभी की खुशियां उजड़ने नहीं दूंगा।"
"नियति के लेख को कोई नहीं मिटा सकता छोटे।" बड़े भैया ने मेरे चेहरे को प्यार से सहला कर और साथ ही फीकी सी मुस्कान में कहा____"हम सारी दुनिया से लड़ सकते हैं लेकिन अपने नसीब और अपने प्रारब्ध से नहीं लड़ सकते। सच तो यही है कि बहुत जल्द मुझे तुम सबको छोड़ कर इस दुनिया से रुखसत होना पड़ेगा।"
"नहीं नहीं।" मेरी आँखें छलक पड़ीं। भावावेश में आ कर मैंने एक झटके में बड़े भैया को सीने से लगा लिया, बोला_____"ऐसा मत कहिए भैया। भगवान के लिए आप हमें छोड़ कर जाने की बात मत कीजिए। मैं आपको कहीं जाने भी नहीं दूंगा। अगर किसी ने आपको मुझसे छीनने की कोशिश की तो मैं सारी दुनिया को आग लगा दूंगा।"
"पगलपन की बातें मत कर छोटे।" बड़े भैया ने लरज़ते स्वर में मेरी पीठ को सहलाते हुए कहा____"मुझे ख़ुशी है कि तू मुझे इतना प्यार करता है लेकिन ये भी सच ही है कि तेरा ये प्यार ज़्यादा दिनों तक नसीब नहीं है मुझे। तुझसे एक बात कहना चाहता हूं, तू मेरी बात को समझने की कोशिश करना मेरे भाई। अपनी भाभी का हमेशा ख़याल रखना। उसके चेहरे पर कभी दुःख के बादलों को मंडराने न देना। वो किसी को अपने दुःख दर्द नहीं दिखाती बल्कि अंदर ही अंदर उस दुःख दर्द में जलती रहती है। ये मेरी बदकिस्मती है कि मैं उसे इस हाल में छोड़ कर चला जाऊंगा वरना जी तो यही चाहता है कि उसे संसार की हर वो खुशियां दूं जिससे कि उसके चेहरे का नूर कभी फीका न पड़ सके। तुझसे मेरी बस यही विनती है मेरे भाई कि तू अपनी भाभी का हमेशा ख़याल रखना।"
"ऐसा मत कहिए भइया।" मैं और भी ज़ोरों से फफक कर रो पड़ा____"भाभी का ख़याल आप ही रखेंगे और हमेशा रखेंगे। मैंने कहा न कि आपको कुछ नहीं होगा। आप हमेशा हमारे साथ ही रहेंगे।"
"भावनाओ में मत बह मेरे भाई।" बड़े भैया ने मुझसे अलग हो कर मेरी आँखों के आंसू पोंछते हुए कहा____"सच को किसी भी तरह से नाकारा नहीं जा सकता। तू मुझे वचन दे कि तू मेरे बाद अपनी भाभी का ख़याल रखेगा और उसे कभी भी दुखी नहीं होने देगा। मुझे वचन दे मेरे भाई।"
भैया ने अपनी हथेली मेरे आगे कर दी थी और मैं बेबस व लाचार सा दुखी भाव से उनकी उस हथेली को देखे जा रहा था। दिलो दिमाग़ में एकदम से बवंडर सा चल पड़ा था जो मुझे बुरी तरह हिलाए जा रहा था। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे वक़्त में क्या करूं और क्या कहूं?
"धीरज से काम ले मेरे भाई।" भैया ने मेरी मनोदशा को महसूस करते हुए अधीरता से कहा____"अब सब कुछ तुझे ही सम्हालना होगा। पिता जी के बाद उनकी बागडोर भी तुझे ही सम्हालनी होगी और सच कहूं तो मैं खुद भी हमेशा यही चाहता था कि पिता जी के बाद तू ही उनकी बागडोर सम्हाले क्योंकि दादा ठाकुर बनने के लायक मैं कभी नहीं था। हमेशा मेरी आँखों के सामने तू ही दादा ठाकुर के रूप में नज़र आ जाता था और यकीन मान मैं तुझे उस रूप में देख कर बेहद खुश होता था। दुआ करता था कि कितना जल्दी वो दिन आए जब तू दादा ठाकुर बने और तेरे दादा ठाकुर बन जाने के बाद भी तेरा बड़ा भाई होने नाते मैं तुझ पर अपना रौब जमाऊं। तू जब खिसिया जाता तो मुझे बहुत मज़ा आता।"
"बस कीजिए भइया।" मैं बुरी तरह तड़प कर रो पड़ा____"मैं ये अब और नहीं सुन सकता।"
"चल ठीक है।" बड़े भैया ने फिर से मेरे चेहरे को प्यार से सहलाया और कहा____"अब मुझे वचन दे कि अपनी भाभी का ख़याल हमेशा रखेगा तू।"
माहौल बहुत ही ग़मगीन था। मुझे भैया के लिए बहुत दुःख हो रहा था। मेरा बस नहीं चल रहा था वरना मैं एक पल में सब कुछ ठीक कर देता। फिर भी मैंने मन ही मन फैसला किया कि कुछ तो करना ही होगा मुझे। मैंने बड़े भैया की हथेली पर अपनी हथेली रखी और उन्हें वचन दिया कि मैं भाभी का हमेशा ख़याल रखूंगा। भैया अपनी नम आँखों को पोंछते हुए चले गए और मैं दुखी मन से अपने कमरे की तरफ चला ही था कि बगल में जो राहदारी थी वहां दीवार से चिपकी खड़ी भाभी नज़र आईं मुझे। शायद वो छुप कर हमारी बातें सुन रहीं थी। उनका चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। उनकी ये हालत देख कर मैं एकदम से तड़प उठा। उधर वो मुझे देखते ही हड़बड़ाईं और जल्दी से अपनी साड़ी के छोर से अपने आंसुओं को पोंछने लगीं। मैं अभी उनसे कुछ कहने ही वाला था कि वो पलट कर वापस अपने कमरे में चली गईं।
भाभी को ऐसे जाते देख पहले तो मेरा मन किया कि मैं उनके पास जाऊं और उन्हें सांत्वना दूं लेकिन फिर ये सोच कर नहीं गया कि उन्हें इस वक़्त अकेले रहने देना ही उचित होगा। मैं भारी मन से चलते हुए अपने कमरे में दाखिल हुआ। नज़र बेड पर सोई पड़ी कुसुम और चंद्रभान की छोटी सी बच्ची पर पड़ी। वो बच्ची कुसुम से छुपकी सो रही थी और कुसुम भी गहरी नींद में थी। मैं सोचने लगा कि वो बच्ची उतने समय से मेरे यहाँ थी और अभी तक उसके घर वालों ने उसकी ख़बर तक नहीं ली या फिर ये कहें कि उस बच्ची को अपने लोगों की याद ही नहीं आई। दोनों को गहरी नींद में सोता देख मैंने उन्हें जगाना सही नहीं समझा इस लिए पलट कर बाहर आया और दरवाज़ा बंद कर के वापस चल दिया।
भाभी के कमरे के पास वाली राहदारी के पास पहुंच कर मैं रुका। ज़हन में ख़याल उभरा कि क्या भाभी के पास जाऊं या फिर नीचे चला जाऊं? मैं सोच ही रहा था कि सहसा मेरे ज़हन में एक ख़याल उभरा। मैं सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे पहुंचा। माँ से पिता जी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वो अपने कमरे में आराम कर रहे हैं। मैं जानता था कि ये समय पिता जी के आराम का ही होता था इस लिए मैंने उनके आराम पर ख़लल डालना सही नहीं समझा। मुझे याद आया कि कल सुबह मुझे उनके साथ पंचायत पर जाना है। मैं उनके पास जिस मकसद से आया था उसके लिए मुझे कल का ही समय सही लगा। ये सोच कर मैं वापस माँ के ही पास बैठ गया।
मां और मेनका चाची कुर्सियों पर बैठी थीं और कुछ नौकरानियाँ उनके निर्देश पर कपड़े में कुछ आकृतियां बना रहीं थी। मैं जब कुर्सी पर बैठ गया तो माँ ने उन नौकरानियों को कहा कि वो यहाँ से दूसरी जगह जा कर अपना काम करें। माँ के कहने पर सब उठीं और अपना अपना सामान समेट कर चली गईं। मैं समझ गया कि माँ ने मेरी वजह से उनसे ऐसा कहा था।
"क्या बात है।" मेनका चाची ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा____"आज कल तो हमारे बेटे की बड़ी तारीफें होने लगी हैं। गांव के साहूकार हमारे बेटे को इज़्ज़त सम्मान देने के लिए खुद लेने आते हैं।"
"आपके बेटे में कोई तो ख़ास बात होगी ही चाची जिसके लिए वो लोग ऐसा कर रहे हैं।" मैंने भी मुस्कुरा कर चाची से कहा____"पर लगता है हमारी प्यारी चाची को उनके द्वारा अपने बेटे को यूं इज्ज़त सम्मान देना पसंद नहीं आया।"
"अरे! ये क्या कह रहे हो तुम?" मेनका चाची ने हैरानी से मेरी तरफ देखा____"भला मुझे अपने बेटे के लिए ये सब करना पसंद क्यों नहीं आएगा? तुम क्या जानो वैभव कि इस सबसे हमें कितनी ख़ुशी हुई है। तुम्हारे चाचा तो इतने खुश थे कि दीदी से कहने लगे कि इस ख़ुशी में हम एक बहुत बड़ा उत्सव करेंगे और आस पास के सभी गांव वालों को भोजन कराएंगे।"
"मेनका सही कह रही है बेटा।" माँ ने कहा_____"अभी कुछ ही देर पहले जगताप हमारे पास आए थे। जब उन्होंने तुम्हारे मुख से वहां का सारा किस्सा सुना तो वो सीधा हमारे पास आए और ख़ुशी ख़ुशी कहने लगे कि मेरे भतीजे ने बहुत बड़ा काम किया है और इस ख़ुशी में हम बहुत बड़ा उत्सव करेंगे।"
मैं माँ की बात सुन कर सोचने लगा कि जगताप चाचा सच में मुझे कितना प्यार करते हैं। वैसे ये सच ही था कि वो मुझे बचपन से ही बहुत मानते थे। माँ से उनके बारे में ऐसी बात सुन कर मुझे भी अंदर ही अंदर बेहद ख़ुशी महसूस हुई। मन में ख़याल उभरा अभी तक कौन सी दुनिया में खोया था मैं और क्यों खोया था मैं?
"हम सब अभी से उस बड़े उत्सव की तैयारी शुरू करने वाले हैं।" मेनका चाची ने ख़ुशी से चहकते हुए कहा____"कल जब दादा ठाकुर पंचायत से लौट कर हवेली आएंगे तो उनसे इसके बारे में बात करेंगे।"
"नहीं चाची।" मैंने एकदम से संजीदा हो कर कहा____"हवेली में ऐसा कोई उत्सव नहीं होगा और ना ही आप में से कोई पिता जी से इस बारे में बात करेगा।"
"अरे! ये क्या कह रहा है तू?" माँ ने बुरी तरह चौंकते हुए कहा____"क्यों नहीं होगा उत्सव भला? तू नहीं जानता बेटा कि इस सबसे हमें कितनी ख़ुशी मिली है। गांव के साहूकारों से हमारे सम्बन्ध अच्छे हो गए हैं। हम चाहते हैं कि उस उत्सव में वो लोग भी हमारे साथ मिल कर इस ख़ुशी का आनंद लें।"
"मेरी नज़र में मैंने अभी ऐसा कोई भी बड़ा काम नहीं किया है मां।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"जिसके लिए इतने बड़े उत्सव का आयोजन किया जाए। हो सकता है कि ये सब आप लोगों के लिए ख़ुशी की बात हो लेकिन मेरे लिए नहीं है।"
"व...वैभव आख़िर बात क्या है" मेनका चाची ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"अचानक से तुम इतने गंभीर क्यों हो गए? अगर कोई बात है तो साफ़ साफ़ बताओ हमें।"
"ऐसी कोई बात नहीं है चाची।" मैं भला उन्हें कैसे बताता कि मैं अपने बड़े भैया की वजह से ऐसा कोई उत्सव नहीं होने देना चाहता था? मैं भला कैसे ऐसे उत्सव से खुश होता जबकि मेरे भैया और भाभी के जीवन में इतने बड़े दुःख के बादल छाए हुए थे।
"कुछ तो बात ज़रूर है बेटा।" माँ ने सहसा चिंतित भाव से कहा____"मुझे बता, आख़िर क्या छुपा रहा है हमसे?"
"कुछ नहीं मां।" मैं सहसा ये सोच कर अंदर ही अंदर घबरा गया कि मैंने ये कैसा माहौल बना दिया है, सम्हल कर बोला____"मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि अभी मैंने इतना बड़ा कोई भी काम नहीं है। अभी तो मुझे बहुत कुछ समझना है और बहुत कुछ करना है। जिस दिन वाकई में कोई बड़ा काम करुंगा उस दिन ख़ुशी ख़ुशी उत्सव मना लेना लेकिन अभी नहीं। "
मैं जानता था कि अब अगर और मैं उनके पास रुका तो वो दोनों मुझसे पूछती ही रहेंगी इस लिए मैं उठा और वापस अपने कमरे की तरफ बढ़ चला। मैं अंदर से एकदम दुखी सा हो गया था। आज बड़े भैया ने जिस तरह से मुझसे बातें की थी उसने मुझे हिला कर रख दिया था। मैं ये सहन नहीं कर सकता था कि मेरे बड़े भैया हम सबको इस तरह छोड़ कर चले जाएंगे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं? आख़िर कैसे मैं उनके जीवन को बचाऊं? एक तरफ भाभी थीं जो अंदर ही अंदर अपने पति के बारे में ये सब सोच सोच कर दुखी थीं और उनकी बिवसता ये थी कि वो अपना दुःख किसी को दिखा नहीं सकती थीं। मेरे सामने इतना कुछ मौजूद था जिसे मैं समेटने में सफल नहीं हो पा रहा था।
अपने कमरे में पहुंचा तो देखा कुसुम जग गई थी और किसी सोच में डूबी हुई नज़र आ रही थी। उसके कानों में दरवाज़ा खुलने की आवाज़ तक न पड़ी थी। ज़ाहिर है वो किसी गहरे ख़यालो में गुम थी। उसके मासूम से चेहरे पर कई तरह के भाव उभरते हुए दिख रहे थे। मुझे याद आया कि वो भी अपने सीने में कोई ऐसी बात छुपाए हुए थी जो उसे अंदर ही अंदर दुखी किए हुए थी। अपनी लाड़ली बहन के उदास चेहरे को देख कर मेरे दिल में एक टीस सी उभरी। मैं सोचने लगा कि कैसा भाई हूं मैं जो अपनी मासूम बहन का दुःख भी दूर नहीं कर पा रहा? बड़ी मुश्किल से मैंने खुद को सम्हाला और आगे बढ़ा।
"अब अगर मैं तेरा नाम सोचन देवी रख दूं तो कैसा रहेगा?" उसके सिरहाने पास बैठ कर मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा तो वो एकदम से चौंकी और फिर हड़बड़ा कर उठ बैठी।
"भ...भइया???" फिर वो खुद को सम्हालते हुए बोली_____"आप कब आए?"
"मुझे आए हुए तो ज़माना गुज़र गया।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन मैं ये समझने की कोशिश कर रहा था कि अपनी इस बहन का नया नाम सोचन देवी रखूं कि नहीं?"
"क्..क्या कहा आपने?" कुसुम ने आँखें फैलाते हुए कहा____"आप मेरा इतना गन्दा नाम कैसे रख सकते हैं? जाइए मुझे आपसे कोई बात नहीं करना।"
"यानि कि मुझे तेरा ये नया नाम नहीं रखना चाहिए।" उसके रूठ जाने पर मैंने उसे उसके कन्धों से पकड़ कर अपनी तरफ घुमाया और फिर प्यार से बोला____"पर भला ये कहां का इन्साफ़ हुआ कि मेरी प्यारी बहन ने अपने इस भाई का एक नाम सोचन देव रख दिया है?"
"वो तो आप पर जंचता है इस लिए रख दिया है मैंने।" कुसुम ने शरारत से मुस्कुराते हुए कहा____"आप जब देखो तब कहीं न कहीं खोए ही रहते थे इस लिए मैंने आपका वो नाम रख दिया था। वैसे भैया क्या आप मुझे नहीं बताएँगे कि इतना क्या सोचते रहते थे आप कि मुझे मजबूर हो कर आपका नाम सोचन देव रखना पड़ा?"
"सच बताऊं या झूठ?" मैंने उसकी मासूमियत से भरी आँखों में देखते हुए पूछा तो उसने मासूमियत से ही जवाब दिया____"झूठ क्यों बताएँगे? एकदम सच्चा वाला सच बताइए मुझे।"
"ठीक है फिर।" मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"असल में मैं हमेशा ये सोचता रहता हूं कि ऐसी क्या बात हो सकती है जिसने मेरी मासूम सी बहन को इतना गंभीर बना दिया है और तो और उसे इतना बेबस भी कर दिया है कि वो अपने दिल की बात अपने इस भाई से बता भी नहीं सकती?"
मेरी बात सुन कर एकदम से कुसुम के चेहरे पर घबराहट के भाव उभर आए। उसका खिला हुआ चेहरा एकदम से बुझ सा गया। वो मुझसे नज़रें चुराने लगी। मैं उसी को देख रहा था। उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ थरथराए जा रहे थे।
"क्या हुआ?" मैंने उसे उसके कन्धों से पकड़ कर प्यार से ही पूछा____"मेरी बात सुन कर तेरा खिला हुआ चेहरा क्यों उतर गया? आख़िर ऐसी क्या बात है जो तुझे इतना परेशान कर देती है? तू जानती है न कि तेरा ये भाई तुझे किसी भी कीमत पर उदास नहीं देख सकता। तू जब शरारत से मुस्कुराती है तो लगता है जैसे हर तरफ खुशियों की बहार आ गई है और जब तू ऐसे उदास हो जाती है तो लगता है जैसे इस दुनिया में अब कुछ भी नहीं रहा।"
"भ...भइया।" कुसुम बुरी तरह फफक कर रोते हुए मुझसे लिपट गई। मैंने भी उसे अपने सीने से छुपका लिया और उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगा। उसे यूं रोता देख मेरी आँखें भी भर आईं। दिल में एक हूक सी उठी जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से दबाया।
"क्या तुझे अपने इस भाई पर ज़रा भी भरोसा नहीं है?" मैंने उसे खुद से छुपकाए हुए ही कहा____"क्या तुझे लगता है कि तेरा ये भाई तेरा दुःख दूर करने में असमर्थ है? तू जानती है न कि मैं तेरे एक इशारे पर सारी दुनिया को आग लगा सकता हूं।"
"मुझे माफ़ कर दीजिए भइया।" मेरी बातें सुन कर कुसुम और भी ज़्यादा सिसक उठी____"मैं आपको तकलीफ़ नहीं देना चाहती। मैं जानती हूं कि आप मेरे लिए दुनिया का कोई भी काम कर सकते हैं लेकिन मैं क्या करूं भैया? मैं आपको कुछ भी नहीं बता सकती। मुझे माफ़ कर दीजिए।"
"अच्छा चल ठीक है।" मैंने उसे खुद से अलग किया और उसके आंसुओं को पोंछते हुए कहा____"तू रो मत। तू जानती है न कि मैं तेरी आँखों में आंसू नहीं देख सकता। चल अब शांत हो जा।"
"मुझे माफ़ कर दीजिए भइया।" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए दुखी भाव से कहा। उसकी आँखें फिर से छलक पड़ीं थी जिन्हें मैंने अपने हाथों से पोंछा और फिर कहा_____"तुझे किसी बात के लिए मुझसे माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है और हाँ मैं वादा करता हूं कि अब तुझसे इस बारे में कुछ भी नहीं पूछूंगा। मैं बस ये चाहता हूं कि तू हमेशा खुश रहे और अपनी शरारतों से अपने इस भाई को परेशान करती रहे।"
कुसुम की आँखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे समझा बुझा कर शांत किया। सहसा मेरी नज़र दरवाज़े पर खड़ी मेनका चाची पर पड़ी। जब उन्होंने देखा कि मैं उन्हें देखने लगा हूं तो उन्होंने जल्दी से अपनी आँखों के आंसू पोंछे और फिर मुस्कुराती हुई कमरे के अंदर हमारे पास आ गईं।
"मैं नहीं जानती कि ऐसी कौन सी बात है जिसे तुम कुसुम से पूछ रहे थे।" फिर उन्होंने उसी मुस्कान में कहा____"और ये तुम्हें बताने की जगह इस तरह रोने लगी थी लेकिन ये देख कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि तुम इसे आज भी उतना ही मानते हो जितना पांच महीने पहले मानते थे।"
"सारी दुनिया से नफ़रत कर सकता हूं चाची।" मैंने कुसुम के चेहरे को प्यार से सहला कर कहा____"लेकिन अपनी इस बहना से कभी नाराज़ नहीं हो सकता और ना ही इसे कभी दुखी देख सकता हूं। ये मेरी जान है, मेरा गुरूर है, मेरी शान है।"
कुसुम मेरी बात सुन कर फिर से मुझसे छुपक गई। उसकी आँखें फिर से भर आईं थी। मेनका चाची ने मेरे चेहरे को प्यार से सहलाया और कहा____"इस हवेली में एक तुम ही हो जो इसे इतना मानते हो। इसके बाकी भाई तो हमेशा इसे डांटते ही रहते हैं।"
"कोई मेरे सामने इसे डांट के दिखाए भला।" मैंने कहा____"मैं डाटने वाले का मुँह तोड़ दूंगा।"
"जिस तरह तुम इसे स्नेह करते हो।" मेनका चाची ने कहा____"मैं सोचती हूं कि जिस दिन ये ब्याह कर अपने ससुराल जाएगी तब क्या करोगे तुम?"
"समाज के बनाए नियमों का किसी तरह पालन तो करना ही पड़ेगा चाची।" मैंने गंभीरता से कहा____"पर इतना ज़रूर समझ लीजिए कि जिस दिन ये अपने भाई को छोड़ कर अपने ससुराल जाएगी उस दिन मेरा दिल टुकड़ों में बिखर जाएगा। इस हवेली में गूंजने वाली इसकी हंसी और इसकी शरारतें कहीं खो जाएंगी।"
कहते कहते सहसा मेरी आवाज़ भर्रा गई और मुझसे आगे कुछ बोला न गया। आँखों ने बगावत कर दी थी। मेरी बातें सुन कर जहां कुसुम रोते हुए मुझसे फिर से लिपट गई थी वहीं चाची ने मुझे खुद से छुपका लिया था। माहौल एकदम से ग़मगीन सा हो गया था।
"ताता बुआ त्यों लो लही है?" अचानक हम तीनों ही उस बच्ची की इस बात से चौंके। वो जग गई थी और अब बेड पर उठ कर बैठ गई थी। उसने कुसुम को रोते देखा तो मुझसे पूछ लिया था।
"अरे! मेरी प्यारी गुड़िया जग गई क्या?" कुसुम मुझसे अलग हुई तो मैंने उस बच्ची को उठा कर अपनी गोद में बैठाते हुए उससे पूछा तो वो बड़ी मासूमियत से मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा उठी।
"आप तहां तले दए थे ताता?" उसने मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"मैंने बुआ थे पूथा आपके बाले में तो बुआ ने तहा आप मेले लिए लद्दू लेने दए हैं।"
"तो क्या अभी तक तुमने लड्डू नहीं खाया गुड़िया?" मैंने हैरानी से उसकी तरफ देखते हुए पूछा जिसका जवाब उसने मुस्कुराते हुए दिया____"मैंने तो बूत थाले लद्दू थाए ताता औल आपतो पता है बुआ ने मुधे मिथाई भी थिलाइ।"
"अरे वाह!" मैंने उसके गालों को सहलाते हुए कहा____"फिर तो हमारी गुड़िया का पेट भर गया होगा।"
"हां ताता।" उसने मासूमियत से कहा____"पल मुधे औल लद्दू थाने हैं।"
मेनका चाची और कुसुम उस बच्ची की बातों से मुस्कुरा रहीं थी। उस बच्ची की वजह से माहौल सामान्य और खुशनुमा सा हो गया था। मैंने कुसुम से कहा कि वो गुड़िया के लिए लड्डू ले आए। थोड़ी ही देर में कुसुम लड्डू और मिठाई ले कर आ गई और उसे दे दिया। बच्ची लड्डू और मिठाई देख कर बेहद खुश हुई और एक लड्डू उठा कर खाने लगी।
मेनका चाची और कुसुम कुछ देर बाद चली गईं। वो बच्ची लड्डू खाने में ब्यस्त थी और मैं ये सोचने में कि विभोर और अजीत के पास कुसुम की आख़िर ऐसी कौन सी कमज़ोरी है जिसके बल पर वो लोग कुसुम को मेरे खिलाफ़ मोहरा बनाए हुए हैं? आख़िर ऐसी क्या बात हो सकती है जिसके चलते कुसुम उनकी बात मानने के लिए इस हद तक मजबूर है कि वो अपने उस भाई को भी कुछ नहीं बता रही जो उसे दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार और स्नेह देता है? मैंने फैसला किया कि सबसे पहला काम मुझे इसी सच का पता लगाना होगा।
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रूपचंद लगता है फिर से पिटेगा साला ये रजनी तो बहुत ही पहुंची हुई लगती हैं वैभव को धोका दे रही है रजनी और रूपचंद की बातचीत से ऐसा तो नहीं लग रहा है की ये उनका पहली बार संसर्ग हो,और अगर पहले भी उनका ये कांड चल रहा था तो किसको रूपचंद के बारे पता न कैसे चला मुरारी काका के बीवी के साथ वो किया था और अगर रूपचंद रजनी और वैभव के मुंशी के घर बताने का धमकी दिया होता तब रजनी उसके साथ मजे से न चुद रही होती कहीं ना कहीं ऐसा लग रहा है मुंशी का परिवार में कुछ गोलमाल चल रहा है,और होलिका दहन के दिन जब वैभव मुंशी के घर जा रहा था तो मुंशी और उसका बेटा कुछ बातचीत कर रहे थे रजनी और उसके सास के साथ और फिर बगीचे में वैभव के साथ वो हमला कहीं कोई लिंक तो नही,क्यूं की वैभव एक मस्त मौला इंसान है और किसी समय वो क्या करता है उसको खुद को नहीं पता तो फिर वैभव का उसी समय बगीचे में होना उन हमलावर को कैसे पता चला फिर बगीचे में जिस जगह विश्राम के लिए घर था उससे विपरीत दिशा में वैभव रजनी को चोद रहा था और वैभव इस कांड के बारे में सिर्फ रजनी को मालूम थी,और वैभव का कोई पीछा करने का कोई भी ऐसी बात अब तक सामने नहीं आई है फिर हमला कैसे हो सकता हैं जब वैभव के पता कोई नहीं जानता हो फिर हमलावर रजनी के जाने के कुछ समय बाद ही वहां पहुंचे शायद जाते वक्त रजनी उनको इशारा करके गई हो जो कुछ दूरी में हो देखते हैं आगे क्या होयता है☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 24
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अब तक,,,,,
मैंने नज़र घुमा कर शाहूकार के लड़के गौरव की तरफ देखा तो उसने जल्दी से सहम कर अपनी नज़रें नीची कर ली। उसे इस तरह नज़रें नीची करते देख बड़े भैया हंसते हुए मुझसे बोले_____"इनके अंदर तेरी इतनी दहशत भरी हुई है कि ये बेचारे तुझसे नज़रें भी नहीं मिला सकते।" कहने के साथ ही बड़े भैया ने गौरव से कहा____"इधर आ। अब से तुझे मेरे इस छोटे भाई से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। अब से ये तुम लोगों को कुछ नहीं कहेगा लेकिन ये भी याद रखना कि अगर तुम लोगों ने आगे से इसे कुछ कहा तो फिर उसके जिम्मेदार तुम लोग ख़ुद ही होगे।"
बड़े भैया की बात सुन कर गौरव ने हां में सिर हिलाया और फिर वो हमारे पास आ गया। थोड़ी ही देर में गौरव मेरे सामने सहज महसूस करने लगा। मैं नज़र घुमा घुमा कर उसके भाई रूपचंद्र को खोज रहा था लेकिन वो मुझे कहीं नज़र नहीं आ रहा था। जब मैं जगताप चाचा जी के साथ यहाँ आया था तब मैंने उसे यहीं पर देखा था किन्तु इस वक़्त वो कहीं दिख नहीं रहा था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि कहीं वो किसी फ़िराक में तो नहीं है?"
अब आगे,,,,,
"क्या हुआ वैभव?" मैं इधर उधर देख ही रहा था कि तभी मेरे कानों में बड़े भैया की आवाज़ पड़ी तो मैंने उनकी तरफ देखा, जबकि उन्होंने आगे कहा____"तेरा ध्यान किधर है? किसी को खोज रहा है क्या?"
"रूपचंद्र कहीं नज़र नहीं आ रहा भइया।" मैंने फिर से दूर दूर तक नज़र घुमाते हुए कहा____"जब मैं जगताप चाचा जी के साथ बाहर से हवेली आया था तब मैंने उसे आपके साथ ही देखा था किन्तु इस वक़्त वो यहाँ कहीं नज़र नहीं आ रहा।"
"हां कुछ देर पहले तक तो वो यहीं था वैभव।" बड़े भैया ने भी इधर उधर नज़र घूमाते हुए कहा____"पता नहीं अचानक से कहां गायब हो गया है वो? मैंने भी उस पर ध्यान नहीं दिया था। पता नहीं कब वो यहाँ से चला गया या फिर ये हो सकता है कि वो यहीं कहीं हो और हमें नज़र न आ रहा हो।"
"नहीं भइया।" मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा____"वो यहाँ कहीं भी नहीं है। मुझे पूरा यकीन है कि वो यहाँ से जा चुका है।"
"हमारी महफ़िल को छोड़ कर कहां गया होगा वो?" भैया ने जैसे सोचने वाले भाव से कहा____"ख़ैर छोड़ उसे। इतना क्यों सोच रहा है उसके बारे में? चल आ जा एक गिलास और ये शरबत पी ले। तू पिएगा तो एक गिलास मैं भी पी लूंगा।"
"आप पहले ही बहुत पी चुके हैं भइया।" मैंने कहा____"अब आप इसे नहीं पिएँगे। आप जानते हैं न कि इसका नशा कितना ख़तरनाक होता है?"
"अरे इसमें भांग की मात्रा बहुत ही कम मिली हुई है वैभव।" भैया ने भांग के हल्के शुरूर में कहा____"इस लिए तू फ़िक्र मत कर। चल एक एक गिलास और पीते हैं इसे।" कहने के साथ ही बड़े भैया उस आदमी की तरफ पलटे जो मटके के पास खड़ा था____"पूरन, एक एक गिलास और दे हम दोनों को। आज बहुत ही ज़्यादा ख़ुशी का दिन है।"
बड़े भैया की बात सुन कर पूरन ने मटके से एक एक गिलास भांग का शरबत निकाला और बड़े भैया को पकड़ाया तो भैया मुस्कुराते हुए मेरी तरफ पलटे और मेरी तरफ एक गिलास बढ़ाते हुए बोले____"मेरी ख़ुशी के लिए एक गिलास और पी ले मेरे भाई।"
भैया की बात सुन कर मैंने उनकी ख़ुशी के लिए उनसे गिलास ले लिया और फिर उनकी तरफ देखते हुए उस भांग मिले शरबत को पीने लगा। मुझे पीता देख बड़े भैया मुस्कुराए और फिर उन्होंने भी अपना गिलास अपने होठों से लगा लिया। भांग का नशा देरी से चढ़ता है लेकिन जब चढ़ता है तो इंसान की हालत ख़राब कर देता है और ये बात मैं अच्छी तरह जानता था। ख़ैर मैंने अपना गिलास खाली किया और खाली गिलास को मटके के पास टेबल पर रख दिया। अभी तो नशे का मुझे कोई आभास नहीं हो रहा था किन्तु भैया ज़रूर शुरूर में थे। ऐसा इस लिए क्योंकि वो पहले से ही भांग का शरबत पी रहे थे।
मैं बड़े भैया के पास ज़रूर खड़ा था किन्तु मेरा ध्यान रूपचन्द्र की ही तरफ था। हलांकि ये बात इतनी अहम् नहीं थी किन्तु मेरी नज़र में इस लिए अहम् थी क्योंकि एक तो अनुराधा के यहाँ मैंने उसे पेला था और दूसरे यहाँ पर जब मैं आया था तब वो बड़े भैया के पास ही था किन्तु अभी वो गायब हो चुका था। मेरे ज़हन में यही सवाल ताण्डव कर रहा था कि जब सब लोग यहाँ पर हैं तो वो यहाँ से इस तरह क्यों चला गया है? मेरा दिल कह रहा था कि उसके यहाँ से इस तरह चले जाने का कोई न कोई कारण ज़रूर है।
मैंने बड़े भैया को यहीं रुकने को कहा और रूपचन्द्र की तलाश में निकल पड़ा। सबसे पहले मैंने उसे हवेली के इस मैदान में ही हर जगह ढूंढ़ा उसके बाद हवेली के अंदर चला गया। हलांकि मुझे यकीन था कि रूपचन्द्र हवेली के अंदर अकेले जाने का साहस नहीं कर सकता किन्तु फिर भी मैं हवेली के अंदर उसे खोजने के लिए गया। काफी देर तक मैं उसे हवेली में हर जगह खोजता रहा लेकिन रूपचन्द्र मुझे कहीं नज़र न आया। इस बीच कुसुम ज़रूर मुझे अपनी सहेलियों के साथ रंग खेलती हुई नज़र आई थी। ख़ैर हवेली से निकल कर मैं बाहर आया और भीड़ में इधर उधर नज़र घुमाते हुए मैं हवेली के हाथी दरवाज़े से बाहर आ गया। अभी मैं दरवाज़े पर आया ही था कि मुझे एकदम से अनुराधा का ख़याल आया। अनुराधा का ख़याल आते ही मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या रूपचन्द्र अनुराधा के पास गया होगा? रूपचंद्र कुत्ते की दुम की तरह था, इस लिए वो यकीनन मुरारी काका के घर जा सकता था, भले ही मैंने उसे वहां जाने से मना किया था। उसने सोचा होगा कि इस वक़्त मैं हवेली में हूं और सबसे मिल जुल रहा हूं तो उसने इसे सुनहरा अवसर समझा होगा।
मैं वापस पलटा और तेज़ी से उस तरफ बढ़ चला जहां पर मेरी मोटर साइकिल खड़ी थी। मोटर साइकिल को चालू कर के मैं तेज़ी से हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ा। बुलेट की तेज़ आवाज़ वातावरण में गूंज उठी थी जिससे काफी लोगों का ध्यान मेरी तरफ आकर्षित हुआ था किन्तु मैं बिना किसी की तरफ देखे निकल गया।
कच्ची सड़क पर मेरी बुलेट दौड़ती चली जा रही थी। साहूकारों के घर से निकल कर मैं कुछ ही देर में मुंशी के घर के सामने से गुज़र गया। मेरे ज़हन में रूपचन्द्र और अनुराधा ही थे जिनके बारे में मैं तरह तरह की बातें सोचते हुए तेज़ी से बढ़ा चला जा रहा था।
मुरारी काका के घर पंहुचा तो देखा वहां पर रूपचन्द्र नहीं था। सरोज काकी अपनी बेटी अनुराधा और बेटे अनूप के साथ बैठी हुईं थी। उनके चेहरे से भी ऐसा ज़ाहिर नहीं हुआ कि रूपचन्द्र यहाँ आया होगा। मुझे आया देख सरोज काकी और अनुराधा थोड़ा हैरान हुए और फिर सामान्य भाव से काकी ने मुझे बैठने को कहा तो मैंने कहा कि नहीं मैं बैठूंगा नहीं बल्कि मैं यहाँ ये बताने आया था कि कल सुबह दो आदमी उसके खेतों की कटाई के लिए आ जाएंगे।
थोड़ी देर काकी से बात करने के बाद मैं वापस घर से बाहर आया और अपनी मोटर साइकिल में बैठ कर फिर से वापस अपने गांव की तरफ चल पड़ा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि रूपचन्द्र अगर यहाँ नहीं आया तो फिर गया कहां? ऐसा लगता था जैसे वो गधे के सींग की तरह गायब हो गया था।
अपने गांव में दाखिल हुआ तो मेरे ज़हन में एक बार बगीचे वाले मकान में भी देख लेने का विचार आया तो मैंने मोटर साइकिल को उस तरफ मोड़ दिया। कुछ ही देर में मैं बगीचे वाले मकान के सामने पहुंच गया। मैंने चारो तरफ घूम घूम कर रूपचन्द्र को खोजा मगर वो कहीं नज़र न आया। मतलब साफ़ था कि वो यहाँ आया ही नहीं था, या फिर अगर आया भी होगा तो वो मेरे यहाँ आने से पहले ही चला गया होगा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं उसे अब कहां खोजूं? रूपचंद्र एकदम से मेरे लिए जैसे चिंता का विषय बन गया था।
बगीचे से वापस मैं गांव की तरफ चल पड़ा। मुंशी के घर के पास आया तो देखा मुंशी के घर का दरवाज़ा बंद था। मेरे मन में विचार आया कि क्यों न रजनी को एक बार पेल लिया जाए, किन्तु अगले ही पल मैंने अपने इस विचार को ज़हन से झटक दिया। इस वक़्त मेरे ज़हन में सिर्फ रूपचन्द्र ही होना चाहिए था और उसे खोजना मेरा लक्ष्य होना चाहिए था। ये सोच कर मैं मोटर साइकिल को आगे बढ़ने ही वाला था कि तभी मेरे मन में फिर से रजनी को पेलने का विचार आ गया और इस बार तो मैंने ही सोच लिया कि____'मां चुदाए रूपचन्द्र। अब तो रजनी को एक बार पेल के ही उसे खोजने जाऊंगा।'
मैंने मोटर साइकिल को खड़ी किया और दरवाज़े की तरफ बढ़ चला। मुझे पता था कि इस वक़्त मुंशी अपनी बीवी और अपने बेटे के साथ हवेली में है और रजनी यहाँ अकेली ही है। ख़ैर दरवाज़े के पास पहुंच कर मैंने दरवाज़े की कुण्डी पकड़ी और उसे दरवाज़े पर बजाने ही वाला था कि तभी दरवाज़ा अंदर की तरफ हिलते हुए खिसका तो मैंने कुण्डी को छोड़ कर दरवाज़े को अंदर की तरफ हाथ से धकेला तो वो खुल गया। मतलब दरवाज़ा अंदर से कुण्डी लगा कर बंद नहीं किया गया था। मेरे लिए ये थोड़ी हैरानी की बात थी किन्तु फिर मैंने इस बात को झटका और मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोल कर चुपके से अंदर दाखिल हो गया।
मैं मन ही मन सोच रहा था कि रजनी के सामने जा कर मैं उसे हैरान कर दूंगा, इस लिए बिना कोई आवाज़ किए मैं अंदर गलियारे से चलते हुए आँगन की दहलीज़ पर आया ही था कि तभी कुछ आवाज़ें मेरे कानों में पड़ीं तो मैं एकदम से रुक गया। मैं आँगन में दाखिल नहीं हुआ था बल्कि दरवाज़े से थोड़ा पीछे ही था इस लिए मैंने सिर्फ आवाज़ें ही सुनी थी और ऐसी आवाज़ें सुनी थी कि मैं एकदम से अपनी जगह पर रुक गया था। मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं थी। तभी फिर से मेरे कानों में आवाज़ पड़ी। अंदर आँगन में रजनी थी और उसके साथ कोई और भी था। दोनों की आवाज़ों से साफ़ पता चल रहा था कि वो दोनों आंगन में चुदाई कर रहे है। रजनी चुदवाते हुए मज़े से आहें भर रही थी और उसे चोदने वाला हुंकार भर रहा था। मुझे ये आवाज़ें सुन कर बड़ी हैरानी हुई और फिर मैं ये भी सोचने लगा कि साला मेरे माल पर कौन अपना हाथ साफ़ कर रहा है?
मैंने सिर को थोड़ा सा निकाल कर आँगन की तरफ देखा तो मैं चौंक गया। रजनी ज़मीन पर नंगी लेटी हुई थी और उसकी दोनों टाँगें दोनों तरफ हवा में टंगी हुईं थी। उसके ऊपर एक आदमी था जो उसी के जैसे पूरा नंगा था और यहाँ से मैं साफ़ देख रहा था कि वो ज़ोर ज़ोर से रजनी की चूत में अपनी कमर को हुमच रहा था। आदमी की पीठ मेरी तरफ थी इस लिए मैं उसे पहचान नहीं पाया। रजनी बड़े मज़े से आहें भर रही थी।
"और ज़ोर से चोदो मुझे।" तभी रजनी की सिसियाती हुई आवाज़ मेरे कानों में पड़ी____"मुझे दिखाओ कि तुम उससे अच्छा चोदते हो कि नहीं। आअह्ह्ह मेरी चूत के अंदर तक अपना लंड डालो जैसे वो डालता है।"
"साली रंडी।" उस आदमी की ये आवाज़ सुन कर मैं बुरी तरह चौंका। मन ही मन गाली देते हुए कहा अबे ये तो मादरचोद रूपचन्द्र की आवाज़ है। रुपचंद्र की आवाज़ सुन कर मैं एकदम से भौचक्का सा रह गया था। बड़ी तेज़ी से मेरे दिलो दिमाग़ में ये सवाल उभरा कि ये मादरचोद रजनी के साथ कैसे और खुद रजनी उसके साथ ऐसे कैसे चुदवा सकती है? ये सोचते ही मेरा दिमाग भन्ना गया और मेरे अंदर गुस्से का ज्वालामुखी धधक उठा। मन ही मन कहा मैंने_____'अब तुझे मेरे क़हर से कौन बचाएगा बे रूप के चन्द्र?'
मैं गुस्से में उबलता हुआ उन दोनों की तरफ बढ़ने ही वाला था कि तभी मेरे ज़हन में बड़ी तेज़ी से ख़याल उभरा कि नहीं नहीं गुस्से में काम बिगड़ जाएगा। मुझे छुप कर ही ये सब देखते हुए ये जानना चाहिए कि ये दोनों इस हालत में कैसे हैं और रजनी ने मुझे इस तरह से धोखा क्यों दिया? अपने ज़हन में आए इस ख़याल के बारे में सोच कर मैंने आगे बढ़ने का इरादा छोड़ दिया और मन ही मन खुद को समझाया कि_____'इन दोनों की गांड तो मैं बाद में भी मार सकता हूं। पहले सच जानना चाहिए।'
"साली रंडी।" उधर रूपचन्द्र रजनी से कह रहा था____"और कितना ज़ोर से चोदूं तुझे? उस हरामज़ादे से चुदवा चुदवा कर तो तूने पहले से ही अपनी बुर का भोसड़ा बना लिया है।"
"मेरी बुर का भोसड़ा भले ही बन गया है रूपचन्द्र।" रजनी ने कहा____"लेकिन इसके बावजूद जब वो मुझे चोदता है तो कसम से मैं मस्त हो जाती हूं। इसी लिए कह रही हूं कि अगर तुम में दम है तो उसके जैसा ही चोदो मुझे।"
"उस हरामखोर की मेरे सामने बड़ाई मत कर बुरचोदी।" रूपचंद्र ने खिसियाते हुए और ज़ोर से उसकी चूत में अपना लंड पेलते हुए कहा____"वरना तेरी गांड में लंड घुसेड़ कर तेरी गांड फाड़ दूंगा।"
"रहने दो रूपचंद्र।" रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे बस का नहीं है मेरी गांड फाड़ना क्योंकि वो पहले से ही फटी हुई है। मेरी गांड को भी उसी ने फाड़ा है। अच्छा होगा कि तुम अपना पानी निकालो और चलते बनो यहाँ से।"
"साली मादरचोद।" रूपचंद्र ने गुस्से में रजनी को थप्पड़ मारते हुए कहा____"मैंने कहा न कि मेरे सामने उस भोसड़ीवाले की बड़ाई न कर। तुझे एक बार में समझ नहीं आता क्या?"
"आहहह उससे इतना क्यों जलते हो तुम?" रजनी ने दर्द से कराह कर कहा____"कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने तुम्हारी भी गांड फाड़ दी है?"
"वो क्या मेरी गांड फाड़ेगा?" रूपचंद्र ने गुस्से में कहा____"गांड तो मैं उसकी बहन कुसुम की फाड़ूंगा। उसने मेरी बहन रूपा को अपने नीचे सुलाया है न तो मैं भी उसकी बहन को अपने लंड के नीचे सुलाऊंगा।"
"ऐसा सोचना भी मत।" रजनी ने मानो उसे चेताते हुए कहा____"वरना वो तुम्हारे पूरे खानदान की औरतों की गांड फाड़ देगा। अभी तुम ठीक से जानते नहीं हो उसे।"
"वो कुछ नहीं कर पाएगा समझी।" रूपचंद्र ने कहा____"उसे जो कुछ करना था वो कर चुका है। अब करने की बारी मेरी है। उसने मेरे भाई का हाथ तोड़ा और उसने मेरी खुद की बहन को अपने जाल में फंसाया। इस सबका हिसाब अब मैं सूद समेत लूंगा उससे।"
रजनी उसकी बात सुन कर इस बार कुछ न बोली बल्कि उसके द्वारा दिए जा रहे धक्कों से अपनी आँखे बंद कर के चुदाई का मज़ा लेने लगी थी। इधर रूपचन्द्र की बातें सुन कर मेरा खून खौला जा रहा था लेकिन इस वक़्त मैं अपने गुस्से को काबू करने की कोशिश कर रहा था। हर बार मैं ऐसे मौकों पर कूद पड़ता था और साहूकारों के लड़कों की माँ बहन एक कर देता था लेकिन इस बार मैं पहले जैसा काम नहीं करना चाहता था, बल्कि अब मैं देखना चाहता था कि ये हरामी की औलाद क्या क्या करता है। मैं देखना चाहता था कि उसके मन में इसके अलावा अभी और क्या क्या भरा हुआ है?
मैं उसके मुख से ये जान कर थोड़ा हैरान हुआ था कि उसे अपनी बहन के मेरे साथ बने सम्बन्धों का पहले से पता है लेकिन सवाल है कि कैसे पता चला उसे? मैं तो हर बार पूरी सतर्कता से ही उसके घर उसकी बहन के कमरे में जाता था और फिर अपना काम कर के चुप चाप ही चला आता था। फिर कैसे उसे अपनी बहन के इन सम्बन्धों का पता चला? क्या रूपा को भी ये पता है कि उसके और मेरे सम्बन्धों की बात उसके भाई को पता है? मैं तो पहले की भाँती फिर से उसके घर उसकी बहन से मिलने जाने वाला था और रूपा से ये जानने का प्रयास करने वाला था कि उसके परिवार वाले हम ठाकुरों के बारे में आज कल क्या सोचते हैं और क्या कुछ करने वाले हैं? लेकिन रूपचन्द्र की इस बात से अब मैं रूपा से उस तरह नहीं मिल सकता था क्योंकि ज़ाहिर है कि अब वो अपनी बहन पर नज़र रखता होगा और अगर ऐसे में मैं रूपा से मिलने जाऊंगा तो मैं उसके द्वारा पकड़ा जाऊंगा।
रजनी भी साली मुझे धोखा दे रही थी। मुझसे तो चुदवाती ही थी किन्तु इस शाहूकार के लड़के रूपचन्द्र से भी चुदवा रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि रजनी का सम्बन्ध रूपचन्द्र से कैसे हुआ होगा और ये सब कब से चल रहा होगा? आज ये सब देख कर मैं समझ गया था कि रजनी का चरित्र बहुत ही घटिया था और अब वो भरोसे के लायक नहीं थी। रजनी के प्रति अपने अंदर गुस्सा लिए मैं कुछ देर ये सब सोचता रहा और फिर चुप चाप वहां से चला आया। बाहर आ कर मैं अपनी मोटर साइकिल में बैठा और हवेली की तरफ बढ़ चला। रूपचंद्र को आज रजनी के साथ ऐसी हालत में देख कर मैं ये सोचने पर मजबूर हो गया था कि ये रूपचन्द्र भी साला कम नहीं है। इसने भी ऐसी जगह झंडे गाड़े हैं जिस जगह के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता था। रजनी के ऊपर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था और अब मैंने सोच लिया था कि रजनी के साथ क्या करना है।
सूर्य पश्चिम दिशा की तरफ उतरने वाला था और क़रीब एक घंटे में शाम हो जानी थी। हवेली में आया तो देखा मैदान में अब लोगों की भीड़ नहीं थी। कुछ ही लोग अब वहां पर मौजूद थे। मंच पर दादा ठाकुर के साथ शाहूकार और दूसरे गांव के कुछ ठाकुर लोग बैठे हुए थे। बड़े भैया मुझे नज़र न आए तो मैं सीधा हवेली के अंदर ही चला गया। हवेली के अंदर आया तो मुझे भाभी का ख़याल आया और फिर वो सब भी याद आ गया जो कुछ आज मैंने उनसे कहा था। सब कुछ याद आते ही मेरे अंदर एक बोझ सा पैदा हो गया और मैं सोचने लगा कि जब भाभी से मेरा दुबारा सामना होगा तब वो क्या कहेंगी मुझसे?
"तेरा भी कहीं अता पता भी रहता है कि नहीं?" मैं ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों के पास पंहुचा ही था कि पीछे से माँ की आवाज़ सुन कर रुक गया। पलट कर मैंने उनकी तरफ देखा तो वो बोलीं_____"कब से ढूंढ रही हूं तुझे और तेरा कहीं पता ही नहीं है।"
"होली की हार्दिक शुभकामनायें मां।" मैंने माँ के पास आ कर उनके पैरों को छूने के बाद कहा____"मैं तो यहीं था। अभी कुछ देर पहले ही एक ज़रूरी काम से बाहर गया था। कहिए क्या काम है मुझसे?"
"सदा खुश रह।" माँ ने मेरे चेहरे को सहलाते हुए कहा____"जगताप ने बताया मुझे कि कैसे आज तूने अपने से बड़ों के पैर छू कर उन सबका आशीर्वाद लिया। उसकी बात सुन कर मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था लेकिन जब उसने ज़ोर दे कर कहा कि तूने सच में ऐसा किया है तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई। बस तभी से तुझे ढूंढ रही थी।"
"भाभी जी ने खाना खाया कि नहीं?" मैंने धड़कते दिल से माँ से पूछा तो माँ ने मुस्कुराते हुए कहा____"हां अभी कुछ देर पहले ही खाया है उसने। कुसुम ने बताया मुझे कि तू गया था उसके कमरे में उसे मनाने के लिए?"
"क्या करता माँ?" मैंने कहा____"वो मेरी वजह से नाराज़ थीं तो मैं ये कैसे चाह सकता था कि मेरी वजह से कोई अन्न जल का त्याग कर के कमरे में बंद हो जाए?"
"ये तूने बहुत अच्छा किया।" माँ ने फिर से मेरा चेहरा सहलाया____"मुझे ख़ुशी है कि तुझे अपनी भाभी की फ़िक्र है और मैं यही कहूंगी कि तू ऐसे ही सबके बारे में सोच और अपने फर्ज़ निभा। जब तू ऐसा करेगा तो सब तुझे अच्छा ही कहेंगे बेटा और सब तुझे प्यार भी करेंगे।"
"कोशिश करुंगा मां।" मैंने कहा____"अच्छा कुसुम कहां है? क्या अभी तक उसका रंग खेलना बंद नहीं हुआ?"
"जगताप उसे डांटता नहीं तो वो खेलती ही रहती।" माँ ने मुस्कुराते हुए कहा____"अभी कुछ देर पहले ही गुसलखाने में नहाने गई थी। तुझे उससे कोई काम है क्या?"
"हां उससे कहिएगा कि चाय बना कर मेरे कमरे में ले आए।" मैंने कहा____"सिर भारी भारी सा लग रहा है।"
"वो तो लगेगा ही।" माँ ने कहा____"भाँग वाला शरबत जो पिया है तूने।"
"आपको कैसे पता?" मैंने चौंक कर माँ की तरफ देखा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे सब पता चल गया है। अच्छा अब तू जा और अपने कमरे में आराम कर। मैं कुसुम को बोलती हूं कि वो तेरे लिए चाय बना कर ले जाए।"
मां के ऐसा कहने के बाद मैं सीढ़ियों से ऊपर आ गया। ऊपर बालकनी में आया तो मेरी नज़र भाभी के कमरे की तरफ जाने वाले गलियारे पर पड़ी। गलियारा एकदम सूना था। मैं चुप चाप अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। कमरे में आ कर मैंने अपनी शर्ट उतारी और पंखा चला कर बिस्तर पर लेट गया।
बिस्तर पर लेता हुआ मैं सोच रहा था कि जिस तरह के हालात बने हुए थे उन हालातों में सिर्फ मैं ही उलझा हुआ था या मेरे अलावा भी कोई उलझा हुआ था? कई सारी बातें थी और कई सारे सवाल थे। मैं जितना उन सवालों के जवाब पाने के लिए आगे बढ़ता था उतना ही उलझ जाता था और फिर से एक नया सवाल मेरे सामने पैदा हो जाता था। मेरे सवाल मुरारी काका की हत्या से शुरू होते थे। मेरे सवालों की संख्या हर दिन बढ़ती ही जा रही थी। मुरारी काका की हत्या किसने की ये सवाल अभी भी अपनी जगह पर बना हुआ था और मैं इस सवाल के लिए अभी तक कुछ नहीं कर पाया था। हवेली में कुसुम की गहरी बातों का रहस्य अपनी जगह एक सवाल लिए खड़ा था जिसके बारे में जानना मेरे लिए ज़रूरी था। साहूकारों के सिलसिले में एक अलग ही सवाल बना हुआ था कि उन लोगों ने हमसे अपने रिश्ते तो सुधार लिए थे किन्तु इस सबके पीछे उनकी मंशा क्या थी ये जानना भी ज़रूरी था किन्तु अभी तक इस बारे में भी कुछ पता नहीं चल सका था मुझे।
भाभी के बारे में जो सवाल खड़ा हुआ था उसके बारे में आज जो कुछ उनसे पता चला था उसने मुझे हिला कर ही रख दिया था। मुझे यकीन ही नहीं जो रहा था कि मेरे बड़े भैया के बारे में किसी ने ऐसी भविष्यवाणी की है। भाभी के द्वारा ये सब जान कर ये तो समझ आया कि उन्होंने इसी वजह से मुझसे ये कहा था कि बड़े भैया दादा ठाकुर की जगह लेने के लायक नहीं हैं किन्तु अब एक सवाल ये भी था कि भैया को अपने बारे में ये बात कैसे पता है? क्या भाभी ने उन्हें इस बारे में बताया होगा? हो सकता है कि शायद उन्होंने ही बताया हो किन्तु सवाल ये था कि क्या भैया अपने बारे में ये बातें हवेली में हर किसी से छुपा रहे हैं? अगर छुपा रहे हैं तो क्यों?
पिता जी ने उस दिन मुझे जो कुछ बताया था उसका अपना एक अलग ही लफड़ा था। जिसके बारे में अभी तक कुछ पता नहीं चला था। संभव है कि पिता जी ने अपने तरीके से इस बारे में पता लगाया हो लेकिन मुझे तो कुछ भी पता नहीं था ना। क्या इस सिलसिले में मुझे पिता जी से बात करनी चाहिए? क्या उनसे इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि मुरारी की हत्या की जांच के लिए जिस दरोगा को उन्होंने कहा था उसने हत्यारे से संबंधित कुछ पता लगाया है या नहीं? दादा ठाकुर से इस बारे में बात करने से मुमकिन है कि वो मुझे यही मशवरा दें कि तुम इस सबसे दूर ही रहो। उस हालत में मैं कुछ नहीं कर सकता था। इसका मतलब मुझे खुद ही इस बारे में पता करना होगा।
उस काले साए का अपना एक अलग ही किस्सा था। इतना तो मैं जान और समझ चुका था कि पहले मिलने वाला वो साया मुझे ख़तरे से सावधान करने आया था और उस दिन उसने दूसरे उन दोनों सायों से मेरी जान भी बचाई थी किन्तु सवाल ये था कि वो साया आख़िर था कौन? आख़िर क्यों उसने मेरे ख़तरे को अपने ऊपर ले लिया था? दूसरे वो साए कौन थे जो मेरे लिए कालदूत बन कर आए थे? क्या उन सायों को मुझे मारने के लिए साहूकारों ने भेजा था? मेरे ज़हन में जब भी उन दोनों सायों का ख़याल आता था तो मैं गहरी सोच में पड़ जाता था और ये भी सोचता था कि मेरे चारो तरफ एक ऐसा ख़तरा मौजूद है जो न जाने किस तरफ से अचानक ही मुझ पर टूट पड़े।
रूपचंद्र का अपना एक अलग ही लफड़ा शुरू हो गया था। आज जिस तरह से मैंने उसे रजनी के साथ देखा था और उसकी बातें सुनी थी उससे ये तो समझ आया कि वो अपनी जाति दुश्मनी के चलते मुझसे बदला लेना चाहता है किन्तु सवाल ये था कि रजनी से उसका सम्बन्ध कैसे बना और कब से उन दोनों के बीच ये सब चल रहा है? रूपचन्द्र कितना शातिर है ये तो मैं देख ही चूका था। सरोज काकी को उसने बड़ी आसानी से इस बात के लिए मजबूर कर दिया था कि वो अपनी बेटी को उसके नीचे सुला दे। वो तो उस दिन किस्मत से मैं वहां पहुंच गया था वरना वो अनुराधा के साथ उस दिन कुछ भी कर सकता था और अनुराधा उसका विरोध नहीं कर सकती थी।
"हे भगवान!" तभी कमरे में कुसुम की आवाज़ गूँजी तो मैं सोचो से बाहर आया जबकि उसने कहा____"मैं जब भी आपके कमरे में आती हूं तो आप कहीं न कहीं खोए हुए ही दिखते हैं। अब अगर मैं आपका एक नया नाम सोचन देव रख दूं तो इस बारे में क्या कहेंगे आप?"
"अरे! आ गई तू?" उसे देखते ही मैंने उठते हुए कहा____"ला पहले चाय दे और बैठ मेरे पास।"
"आज तो रंग खेलने में मज़ा ही आ गया भइया।" कुसुम ने ख़ुशी से मुस्कुराते हुए और मुझे चाय पकड़ाते हुए कहा_____"मैंने आज अपनी सभी सहेलियों को रंग में पूरा का पूरा नहला दिया था। विशाखा तो बेचारी रोने ही लगी थी।"
"हां देखा था मैंने।" चाय का हल्का सा घूंट लेते हुए मैंने कहा____"तू भी उनकी तरह ही रंगी हुई थी और तेरा चेहरा तो एकदम से बंदरिया जैसा लग रहा था।"
"क्या कहा आपने????" कुसुम ने आँखें फैलाते हुए कहा____"मैं आपको बंदरिया जैसी लग रही थी? आप मुझे बंदरिया कैसे कह सकते हैं? जाइए, मुझे आपसे अब बात ही नहीं करना।"
"अरे! मैंने ये थोड़ी न कहा है कि तू बंदरिया है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने तो ये कहा है कि तू बंदरिया जैसी लग रही थी क्योंकि तेरे चेहरे पर लाल लाल रंग लगा हुआ था।"
"अब आप बात को घुमाइए मत।" कुसुम ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"बंदरिया जैसी लगने का मतलब यही होता है कि मैं आपको बंदरिया ही लगी। बड़े दुःख की बात है कि मेरे सबसे अच्छे वाले भैया ने मुझे बंदरिया कहा। अब किसके कंधे पर अपना सिर रख कर रोऊं मैं?"
"विभोर और अजीत के कंधे पर सिर रख के रो।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो कुसम ने खिसियानी हंसी हंसते हुए कहा____"उनका तो नाम ही मत लीजिए। वो मुझे चुप क्या कराएंगे उल्टा मुझे और रुलाएंगे। आप भी अब उनके जैसे ही बनते जा रहे हैं।"
"तेरा ये भाई किसी और के जैसा बनना पसंद नहीं करता।" मैंने कहा____"बल्कि लोग मेरे जैसा बनने की ख़्वाइश रखते हैं।"
"वाह वाह! अपने मुख से अपनी ही बड़ाई।" कुसुम ने नाटकीय भाव से हाथ नचाते हुए कहा____"वैसे मैंने सुना है कि आज आपने सबको आश्चर्य चकित कर दिया था।"
"हम ऐसे ही हैं बहना।" मैंने गर्व से अपनी गर्दन को अकड़ाते हुए कहा____"हम अक्सर ऐसा काम करते हैं जिसे देख कर लोगों की आँखें फटी की फटी रह जाती हैं। इसी लिए तो कह रहा हूं तुझसे कि लोग मेरे जैसा बनने की ख़्वाइश रखते हैं।"
"अब बस भी कीजिए भइया।" कुसुम ने कहा____"आप तो खुद ही अपने आपको चने के झाड़ पर चढ़ाए जा रहे हैं।"
"अच्छा ये बता कि तुझे मैंने जो काम दिया था उसका क्या हुआ?" मैंने बात को बदलते हुए कहा____"तुझे कुछ याद भी है या सब भूल गई है?"
"मुझे सब याद है भइया।" कुसुम ने कहा____"और मैं आपको बताने ही वाली थी लेकिन फिर बताना ही भूल गई, लेकिन आप भी तो यहाँ नहीं थे।"
"अच्छा तो अब बता।" मैंने कहा____"क्या पता किया तूने?"
"बड़े भैया के बारे में।" कुसुम ने थोड़ा संजीदा भाव से कहा____"यही कहूंगी कि वो ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं जिसका आपको अंदेशा है, जबकि वो दोनों नमूने कोई न कोई खिचड़ी ज़रूर पका रहे हैं।"
"क्या मतलब?" मैंने आँखें सिकोड़ते हुए कहा____"कैसी खिचड़ी पका रहे हैं वो दोनों?"
"साहुकार के लड़के रूपचन्द्र को तो आप जानते ही होंगे न?" कुसुम ने ये कहा तो मैंने मन ही मन चौंकते हुए कहा____"हां तो? मेरा मतलब है कि रूपचन्द्र उन दोनों के बीच में कहां से आ गया?"
"पूरी बात तो सुन लिया कीजिए।" कुसुम ने कहा____"बीच में ही टोंक देते हैं आप।"
"अच्छा नहीं टोकूंगा।" मैंने कहा____"आगे बता।"
"रूपचंद्र के छोटे भाई गौरव से उन दोनों की दोस्ती है।" कुसुम ने कहा____"हलाँकि मैंने उन दोनों को गौरव के साथ देखा तो नहीं है लेकिन एक दिन वो अपने कमरे में उसके बारे में बातें ज़रूर कर रहे थे।"
"कैसी बातें कर रहे थे वो?" मैंने उत्सुकता से पूछा।
"यही कि अभी तक तो वो दोनों।" कुसुम ने कहा____"अपने दोस्त गौरव से हवेली से बाहर ही छुप कर मिलते थे लेकिन अब वो उसे हवेली में बुलाया करेंगे। क्योंकि अब हमारे और साहूकारों के रिश्ते सुधर गए हैं।"
"अच्छा और कैसी बातें कर रहे थे वो?" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"क्या मेरे बारे में उन दोनों ने कोई बात नहीं की?"
"अभी तक तो नहीं।" कुसुम ने कहा____"लेकिन आज मैंने देखा था कि वो दोनों बहुत ही गुस्से में बाहर से आए थे और अपने कमरे में चले गए थे। मुझे भी समझ नहीं आया कि वो किस लिए गुस्सा थे? पहले मैंने सोचा कि पता करूं लेकिन फिर सहेलियों की वजह से कहीं जा ही नहीं पाई।"
"हां वो चाचा जी ने विभोर को सबके सामने थप्पड़ मारा था।" मैंने कुसुम को बताते हुए कहा____"शायद इसी लिए वो गुस्से में बाहर से आये थे।"
"पिता जी ने थप्पड़ क्यों मारा था उन्हें?" कुसुम ने हैरानी से पूछा तो मैंने उसे संक्षेप में बता दिया। मेरी बात सुन कर वो बोली_____"अच्छा तभी वो इतने गुस्से में थे।"
"हां और उनका गुस्से में होना।" मैंने सोचने वाले भाव से कहा____"ये दर्शाता है कि उन्हें अपनी ग़लती का कोई एहसास नहीं है बल्कि जिस ग़लती की वजह से उन्हें अपने पिता जी से थप्पड़ मिला है उसके लिए वो मुझे जिम्मेदार मानते हैं। ज़ाहिर है इस वजह से उन दोनों के अंदर मेरे प्रति भी गुस्सा और नफ़रत भर गई होगी। तू पता करने की कोशिश कर कि वो दोनों इस हादसे के बाद मेरे बारे में क्या बातें करते हैं?"
"ठीक है भइया।" कुसुम ने कहा____"और कुछ?"
"हां, अगर गौरव या साहूकारों का कोई भी सदस्य हवेली में आए तो तू मुझे फ़ौरन बताएगी। एक और भी है सबसे ज़रूरी बात और वो ये कि तू अपनी सहेलियों के साथ हवेली से बाहर नहीं जाएगी।"
"भला ये क्या बात हुई भैया?" कुसुम ने हैरानी से कहा____"आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?"
"क्योंकि मुझे अपनी मासूम सी बहन की बहुत ज़्यादा फ़िक्र है।" मैंने कुसुम के चेहरे को प्यार से सहलाते हुए कहा____"अगर तेरे साथ ज़रा सा भी कुछ हुआ तो मैं सारी दुनियां को आग लगा दूंगा।"
"भइया।" कहते हुए कुसुम मुझसे लिपट गई। उसकी आँखों में आँसू भर आए थे। मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा____"तुझे जब भी अपनी सहेलियों से मिलना हो तो तू यहाँ की किसी नौकरानी से कह देना। वो तेरी सहेली को हवेली में ही बुला लाएगी।"
"ठीक है भइया।" कुसुम ने मुझसे अलग होते हुए कहा____"जैसा आप कहेंगे मैं वैसा ही करूंगी।"
"ये सब मैं तेरी भलाई के लिए ही कह रहा हूं बहना।" मैंने फिक्रमंदी से कहा____"क्योंकि आज कल हालात ठीक नहीं हैं। अच्छा अब तू जा और आराम कर। आज बहुत थक गई होगी न तू?"
मेरे कहने पर कुसुम ने हाँ में सिर हिलाया और फिर वो चाय का खाली प्याला ले कर कमरे से चली गई। उसके जाने के बाद मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया। अभी मैं बिस्तर पर लेट कर कुसुम के बारे में सोचने ही लगा था कि कुसुम एक बार फिर से मेरे कमरे में दाखिल हुई और मेरे पास आ कर बोली____"आपको एक बात बताना तो मैं भूल ही गई भैया।"
"कौन सी बात?" मेरे माथे पर शिकन उभर आई।
"कल शाम को।" कुसुम ने कहा____"दादा ठाकुर के पास एक आदमी आया था। वो इस गांव का नहीं लगता था।"
"अच्छा कौन था वो आदमी?" मैंने सोचने वाले भाव से पूछा तो कुसुम ने कहा____"दादा ठाकुर उस आदमी को दरोगा जी कह रहे थे।"
"अच्छा, तो वो आदमी दरोगा था।" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"ख़ैर, दादा ठाकुर ने क्या बात की उस दरोगा से? क्या तूने सुनी थी उनकी बातें?"
"नहीं सुन पाई भइया।" कुसुम ने निराश भाव से कहा____"क्योंकि मुझे बड़ी माँ ने आवाज़ दे कर बुला लिया था। उसके बाद फिर मौका ही नहीं मिला बैठक में जाने का।"
"चल कोई बात नहीं।" मैंने कहा____"अब तू जा और आराम कर।"
कुसुम के जाने के बाद मैं सोचने लगा कि पिता जी ने उस दरोगा से क्या बातें की होंगी? क्या दरोगा ने मुरारी काका के हत्यारे का पता लगा लिया होगा? अगर हां तो कौन होगा मुरारी काका का हत्यारा? ऐसे न जाने कितने ही सवाल मेरे ज़हन में एकदम से तांडव करने लगे थे। मेरे अंदर एकदम से ये जानने की उत्सुकता बढ़ गई थी कि पिता जी ने दरोगा से आख़िर क्या बातें की होंगी? मैं अब किसी भी हालत में इन सब बातों को जानना चाहता था किन्तु सवाल था कि कैसे? मैंने फ़ैसला किया कि पिता जी से मिल कर इस बारे में ज़रूर बात करुंगा।
मैं ऐसे ही न जाने कब तक सोचो में गुम रहा और फिर मेरी आँख लग गई। मेरी नींद कुसुम के जगाने पर ही टूटी। वो मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई थी। उसे वापस भेज कर मैं उठा कर कमरे से निकल कर नीचे गुसलखाने में चला गया। गुसलखाने में मैंने हाथ मुँह धोया और खाना खाने के लिए उस जगह पर आ गया जहां पर दादा ठाकुर और जगताप चाचा जी बैठे हुए थे। उनके बगल से बड़े भैया बैठे हुए थे। विभोर और अजीत दोनों की ही कुर्सी खाली थी। ख़ैर एक कुर्सी पर आ कर मैं भी बैठ गया। खाना खाते वक़्त कोई भी बात नहीं कर सकता था इस लिए हम सब लोग चुपचाप खाना खाने में ब्यस्त हो गए।
मैं सिर नीचा किए खाना खाने में मस्त था कि तभी मेरे पैर में कोई चीज़ हल्के से छू गई तो मैंने चौंक कर सिर उठाया। मेरी नज़र बड़े भैया पर पड़ी, उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आँखों से इशारा किया तो मुझे कुछ समझ न आया कि वो किस बात के लिए इशारा कर रहे थे। तभी उन्होंने पिता जी की तरफ देखा तो मैंने भी पिता जी की तरफ देखा। पिता जी खाने का निवाला चबाते हुए मेरी तरफ ही देख रहे थे। जैसे ही मेरी नज़र उनकी नज़र से मिली तो मैंने जल्दी से नज़र हटा ली और सिर झुका कर फिर से खाना शुरू कर दिया। मेरी ये सोच कर धड़कनें तेज़ हो गईं थी कि पिता जी मेरी तरफ ऐसे क्यों देख रहे थे?
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हमेशा की तरह शानदार अपडेटअध्याय - 39
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अब तक....
बाहर आ कर मैं बुलेट में बैठ गया और रूपचंद्र से पूछा कि मेरे साथ घर चलेगा या उसका कहीं और जाने का इरादा है? मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुस्कुराते हुए बोला दोस्त अब तो घर ही जाऊंगा। उसके बाद मैं और रूपचन्द्र बुलेट से चल पड़े। थोड़ी ही दूरी पर उसका घर था इस लिए वो उतर गया और बाद में मिलने का बोल कर ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मैं रास्ते में सोच रहा था कि अब रूपचंद्र मुझसे खुल गया है तो यकीनन अब वो ज़्यादातर मेरे साथ ही रहना पसंद करेगा। अगर ऐसा हुआ तो एक तरह से वो मेरी निगरानी में ही रहेगा। धीरे धीरे मैं इन सभी भाइयों से इसी तरह घुल मिल जाना चाहता था ताकि इनके मन से मेरे प्रति हर तरह का ख़याल निकल जाए। ये सब करने के बाद मैं अपने उस कार्य को आगे बढ़ाना चाहता था जिसके बारे में मैंने काफी पहले सोच लिया था।
अब आगे....
हवेली पहुंचा तो बैठक में अपनी ऊँची कुर्सी पर बैठे पिता जी मुझे नज़र आए। उनके अलावा बैठक में जगताप चाचा और मुंशी चंद्रकांत भी बैठे थे। मुझ पर नज़र पड़ते ही पिता जी ने मुझे अपने पास आने का इशारा किया। मैं उनके पास जा कर पहले उनके पाँव छुए और फिर जगताप चाचा के। दोनों ने खुश हो कर मुझे आशीर्वाद दिया।
"अब आप जाइए मुंशी जी।" पिता जी ने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"कल पंचायत के लिए हम सुबह ही निकलेंगे। हमने फैसला किया है कि कल सुबह वैभव हमारे साथ जाएगा और आप जगताप के साथ जा कर उस मसले को सुलझाएं।"
"जैसी हुकुम की इच्छा।" मुंशी ने अदब से सिर झुकाते हुए कहा और फिर उठ कर बैठक से बाहर निकल गया।
"तो कैसा रहा साहूकारों के घर में हमारे प्यारे भतीजे का स्वागत सत्कार?" जगताप चाचा ने मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा____"वैसे सुना है बहुत वाह वाही कर रहे थे वो लोग तुम्हारी।"
"इस बारे में जानने के लिए हम भी बड़े उत्सुक हैं जागताप।" पिता जी ने कहा____"तुमने जिस तरह हमें इसकी वाह वाही वाली बातें बताई थी उससे हमें हैरानी हुई थी। वैसे तो हमने इसे ख़ास तौर पर समझा बुझा कर वहां भेजा था लेकिन अंदर ही अंदर हम इसके उग्र स्वभाव के चलते चिंतित भी थे कि ये कहीं वहां पर कोई बवाल न कर बैठे।"
"आप बेवजह ही चिंता कर रहे थे बड़े भइया।" जगताप चाचा ने मुस्कुराते हुए कहा____"आप अभी भी मेरे भतीजे को नासमझ और गैरजिम्मेदार समझ रहे हैं जबकि मुझे इस पर पूरा यकीन था कि ये वहां पर ऐसा कुछ भी नहीं करेगा जिससे किसी तरह का बवाल हो सके। ख़ैर उड़ती हुई ख़बर तो यही थी कि हमारे वैभव ने उन सभी साहूकारों का दिल जीत लिया है लेकिन हम अपने भतीजे के मुख से सुनना चाहते हैं कि इसने वहां क्या क्या किया अथवा इसके साथ वहां पर क्या क्या हुआ?"
मैंने देखा पिता जी के चेहरे पर एक अलग ही चमक थी और ये मैंने पहली बार ही देखी थी। वो मेरी तरफ ही देख रहे थे। चेहरे पर ख़ुशी के भाव थे। मैंने देर न करते हुए वहां का सारा किस्सा उन्हें संक्षेप में बता दिया जिसे सुन कर पिता जी और जगताप चाचा हैरानी से मेरी तरफ देखने लगे थे। मैं समझ सकता था कि साहूकारों की तरह उन्हें भी मेरे बदले हुए चरित्र को हजम करना इतना आसान नहीं था।
"अगर तुम्हारी बातें सच है।" पिता जी ने कहा____"और तुमने वाकई में वहां धैर्य और नम्र स्वभाव का परिचय दिया है तो ये यकीनन अच्छी बात है। हम आगे भी तुमसे यही उम्मीद करते हैं।"
"आज मैं बहुत खुश हूं बड़े भइया।" जगताप चाचा ने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"आज मेरा सबसे प्यारा और सबसे बहादुर भतीजा उसी रूप में अपना कार्य कर के लौटा है जिस रूप में और जैसे कार्य की मैं हमेशा इससे उम्मीद करता था।"
"अब तक मैंने जो कुछ भी किया है।" मैंने नम्र भाव से कहा____"उसके लिए मैं आप दोनों से माफ़ी मांगता हूं और यकीन दिलाता हूं कि आगे भी मैं वैसा ही कार्य करुगा जैसे ही आप दोनों मुझसे उम्मीद करते हैं।"
दोनों मेरी बात सुन कर ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। हालांकि पिता जी अपनी ख़ुशी को छुपाने की पूरी कोशिश कर रहे थे लेकिन वो उनके छुपाए न छुप रही थी। ख़ैर पिता जी ने मुझे कल सुबह जल्दी तैयार हो कर चलने की बात कही तो मैंने हाँ में सर हिलाया अंदर चला गया।
अंदर माँ और मेनका चाची से मुलाक़ात हुई। थोड़ी देर उन दोनों से बातें करने के बाद मैं सीढ़ियों से ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ चला। सीढ़ियों से जैसे ही मैं ऊपर पहुंचा तो मुझे बड़े भैया आते हुए दिखे। उन्हें देखते ही मुझे उस दिन का किस्सा याद आ गया जब उन्होंने मुझे थप्पड़ मारा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर ऐसा कैसे किया होगा उन्होंने?
"अरे! वैभव आ गया तू?" बड़े भैया मेरे क़रीब पहुंचते ही बोले____"मैंने सुना कि तू साहूकारों के घर गया था? कैसा रहा वहां सब?"
"प्रणाम बड़े भइया!" मैं उनके बदले हुए ब्योहार और प्रसन्न चेहरे को देख कर मन ही मन हैरान हुआ था लेकिन ज़ाहिर नहीं होने दिया।
"हमेशा खुश रह।" उन्होंने मेरे बाएं कंधे को अपने हाथ द्वारा हल्के से थपकाते हुए कहा____"अभी तेरी भाभी से पता चला कि तुझे मणि शंकर काका अपने घर ले गए थे तेरा स्वागत सत्कार करने के लिए। कसम से वैभव इस बात से मैं बेहद खुश हूं लेकिन अब ये जानने को उत्सुक भी हूं कि वहां पर सब कैसा रहा?"
मैं बड़े भैया के चेहरे पर छाई ख़ुशी को देख कर हैरान था। समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या चक्कर है? कभी तो वो मुझसे इतना गुस्सा होते थे कि मुझे थप्पड़ तक मार देते थे और कभी वो मुझ पर इतना खुश होते थे कि लगता ही नहीं था कि उन्होंने कभी मुझ पर गुस्सा किया होगा।
"क्या हुआ?" मुझे सोच में डूबा देख वो बोल पड़े_____"क्या सोचने लगा तू? वहां सब ठीक तो था न मेरे भाई?"
"हां भइया।" मैंने सम्हल कर और नम्र भाव से उन्हें जवाब दिया____"आपके आशीर्वाद से वहां सब कुछ बढ़िया ही रहा और अब उन सबके मन में मेरे लिए कोई भी बैर भाव नहीं है। साहूकारों के सभी लड़के भी अब मुझसे अच्छी तरह घुल मिल गए हैं और मुझे अपना भाई और दोस्त समझने लगे हैं।"
"क्या सच में?" बड़े भैया ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा____"अगर ऐसा है तो ये बहुत ही ज़्यादा ख़ुशी की बात है वैभव। मेरे लिए तो सबसे बड़ी ख़ुशी की बात ये है कि मेरा भाई अब बदल गया है और अब अच्छे काम करने लगा है। आ मेरे गले लग जा।"
कहने के साथ ही उन्होंने मुझे खींच कर अपने गले से लगा लिया। मैं उनके इस बर्ताव से जहां एक तरफ बुरी तरह हैरान था वहीं खुश भी हुआ कि उन्होंने मुझे ख़ुशी से अपने गले लगाया। मन ही मन मैंने भगवान से यही दुआ की कि हम दोनों भाइयो के बीच हमेशा ऐसा ही प्रेम बनाए रखे और ये भी कि मेरे भैया के बारे में कुल गुरु ने जो भविष्यवाणी की है वो ग़लत हो जाए।
"मुझे जब तेरी भाभी ने इस बारे में बताया।" बड़े भैया ने मुझे खुद से अलग कर के कहा____"तो मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था लेकिन फिर मुझे होली वाला दिन आया कि कैसे तू अपने से बड़ों का आशीर्वाद ले रहा था और कैसे मेरे साथ ख़ुशी ख़ुशी भांग वाला शरबत पी रहा था। मैं जानता हूं मेरे भाई कि मैंने शायद कभी भी तुझे वैसा प्यार और स्नेह नहीं दिया जैसा एक बड़े भाई को देना चाहिए लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा। अब से मैं तुझे दुखी नहीं होने दूंगा। जितने समय का मेरा जीवन बचा है उतने दिन मैं तेरे साथ हंसी ख़ुशी रहना चाहता हूं। तेरे साथ वो सब कुछ करना चाहता हूं जो बड़े भाई के रूप में मैंने अब तक नहीं किया था।"
"मुझे भाभी ने आपके बारे में सब कुछ बता दिया है भइया।" मैंने थोड़ा दुखी भाव से कहा____"और मुझे इस बात से बहुत तकलीफ़ हो रही है कि मेरे जान से भी ज़्यादा प्यारे बड़े भैया के बारे में कुल गुरु ने ऐसी घटिया भविष्यवाणी की। आप उस गुरु की बातों पर विश्वास मत कीजिए भैया। उस धूर्त की भविष्यवाणी झूठी है। आपको कुछ नहीं होगा, आप हमेशा हमारे साथ ही रहेंगे। मुझे अपने बड़े भैया का हमेशा साथ चाहिए। मैं अपनी भाभी की खुशियां उजड़ने नहीं दूंगा।"
"नियति के लेख को कोई नहीं मिटा सकता छोटे।" बड़े भैया ने मेरे चेहरे को प्यार से सहला कर और साथ ही फीकी सी मुस्कान में कहा____"हम सारी दुनिया से लड़ सकते हैं लेकिन अपने नसीब और अपने प्रारब्ध से नहीं लड़ सकते। सच तो यही है कि बहुत जल्द मुझे तुम सबको छोड़ कर इस दुनिया से रुखसत होना पड़ेगा।"
"नहीं नहीं।" मेरी आँखें छलक पड़ीं। भावावेश में आ कर मैंने एक झटके में बड़े भैया को सीने से लगा लिया, बोला_____"ऐसा मत कहिए भैया। भगवान के लिए आप हमें छोड़ कर जाने की बात मत कीजिए। मैं आपको कहीं जाने भी नहीं दूंगा। अगर किसी ने आपको मुझसे छीनने की कोशिश की तो मैं सारी दुनिया को आग लगा दूंगा।"
"पगलपन की बातें मत कर छोटे।" बड़े भैया ने लरज़ते स्वर में मेरी पीठ को सहलाते हुए कहा____"मुझे ख़ुशी है कि तू मुझे इतना प्यार करता है लेकिन ये भी सच ही है कि तेरा ये प्यार ज़्यादा दिनों तक नसीब नहीं है मुझे। तुझसे एक बात कहना चाहता हूं, तू मेरी बात को समझने की कोशिश करना मेरे भाई। अपनी भाभी का हमेशा ख़याल रखना। उसके चेहरे पर कभी दुःख के बादलों को मंडराने न देना। वो किसी को अपने दुःख दर्द नहीं दिखाती बल्कि अंदर ही अंदर उस दुःख दर्द में जलती रहती है। ये मेरी बदकिस्मती है कि मैं उसे इस हाल में छोड़ कर चला जाऊंगा वरना जी तो यही चाहता है कि उसे संसार की हर वो खुशियां दूं जिससे कि उसके चेहरे का नूर कभी फीका न पड़ सके। तुझसे मेरी बस यही विनती है मेरे भाई कि तू अपनी भाभी का हमेशा ख़याल रखना।"
"ऐसा मत कहिए भइया।" मैं और भी ज़ोरों से फफक कर रो पड़ा____"भाभी का ख़याल आप ही रखेंगे और हमेशा रखेंगे। मैंने कहा न कि आपको कुछ नहीं होगा। आप हमेशा हमारे साथ ही रहेंगे।"
"भावनाओ में मत बह मेरे भाई।" बड़े भैया ने मुझसे अलग हो कर मेरी आँखों के आंसू पोंछते हुए कहा____"सच को किसी भी तरह से नाकारा नहीं जा सकता। तू मुझे वचन दे कि तू मेरे बाद अपनी भाभी का ख़याल रखेगा और उसे कभी भी दुखी नहीं होने देगा। मुझे वचन दे मेरे भाई।"
भैया ने अपनी हथेली मेरे आगे कर दी थी और मैं बेबस व लाचार सा दुखी भाव से उनकी उस हथेली को देखे जा रहा था। दिलो दिमाग़ में एकदम से बवंडर सा चल पड़ा था जो मुझे बुरी तरह हिलाए जा रहा था। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे वक़्त में क्या करूं और क्या कहूं?
"धीरज से काम ले मेरे भाई।" भैया ने मेरी मनोदशा को महसूस करते हुए अधीरता से कहा____"अब सब कुछ तुझे ही सम्हालना होगा। पिता जी के बाद उनकी बागडोर भी तुझे ही सम्हालनी होगी और सच कहूं तो मैं खुद भी हमेशा यही चाहता था कि पिता जी के बाद तू ही उनकी बागडोर सम्हाले क्योंकि दादा ठाकुर बनने के लायक मैं कभी नहीं था। हमेशा मेरी आँखों के सामने तू ही दादा ठाकुर के रूप में नज़र आ जाता था और यकीन मान मैं तुझे उस रूप में देख कर बेहद खुश होता था। दुआ करता था कि कितना जल्दी वो दिन आए जब तू दादा ठाकुर बने और तेरे दादा ठाकुर बन जाने के बाद भी तेरा बड़ा भाई होने नाते मैं तुझ पर अपना रौब जमाऊं। तू जब खिसिया जाता तो मुझे बहुत मज़ा आता।"
"बस कीजिए भइया।" मैं बुरी तरह तड़प कर रो पड़ा____"मैं ये अब और नहीं सुन सकता।"
"चल ठीक है।" बड़े भैया ने फिर से मेरे चेहरे को प्यार से सहलाया और कहा____"अब मुझे वचन दे कि अपनी भाभी का ख़याल हमेशा रखेगा तू।"
माहौल बहुत ही ग़मगीन था। मुझे भैया के लिए बहुत दुःख हो रहा था। मेरा बस नहीं चल रहा था वरना मैं एक पल में सब कुछ ठीक कर देता। फिर भी मैंने मन ही मन फैसला किया कि कुछ तो करना ही होगा मुझे। मैंने बड़े भैया की हथेली पर अपनी हथेली रखी और उन्हें वचन दिया कि मैं भाभी का हमेशा ख़याल रखूंगा। भैया अपनी नम आँखों को पोंछते हुए चले गए और मैं दुखी मन से अपने कमरे की तरफ चला ही था कि बगल में जो राहदारी थी वहां दीवार से चिपकी खड़ी भाभी नज़र आईं मुझे। शायद वो छुप कर हमारी बातें सुन रहीं थी। उनका चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। उनकी ये हालत देख कर मैं एकदम से तड़प उठा। उधर वो मुझे देखते ही हड़बड़ाईं और जल्दी से अपनी साड़ी के छोर से अपने आंसुओं को पोंछने लगीं। मैं अभी उनसे कुछ कहने ही वाला था कि वो पलट कर वापस अपने कमरे में चली गईं।
भाभी को ऐसे जाते देख पहले तो मेरा मन किया कि मैं उनके पास जाऊं और उन्हें सांत्वना दूं लेकिन फिर ये सोच कर नहीं गया कि उन्हें इस वक़्त अकेले रहने देना ही उचित होगा। मैं भारी मन से चलते हुए अपने कमरे में दाखिल हुआ। नज़र बेड पर सोई पड़ी कुसुम और चंद्रभान की छोटी सी बच्ची पर पड़ी। वो बच्ची कुसुम से छुपकी सो रही थी और कुसुम भी गहरी नींद में थी। मैं सोचने लगा कि वो बच्ची उतने समय से मेरे यहाँ थी और अभी तक उसके घर वालों ने उसकी ख़बर तक नहीं ली या फिर ये कहें कि उस बच्ची को अपने लोगों की याद ही नहीं आई। दोनों को गहरी नींद में सोता देख मैंने उन्हें जगाना सही नहीं समझा इस लिए पलट कर बाहर आया और दरवाज़ा बंद कर के वापस चल दिया।
भाभी के कमरे के पास वाली राहदारी के पास पहुंच कर मैं रुका। ज़हन में ख़याल उभरा कि क्या भाभी के पास जाऊं या फिर नीचे चला जाऊं? मैं सोच ही रहा था कि सहसा मेरे ज़हन में एक ख़याल उभरा। मैं सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे पहुंचा। माँ से पिता जी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वो अपने कमरे में आराम कर रहे हैं। मैं जानता था कि ये समय पिता जी के आराम का ही होता था इस लिए मैंने उनके आराम पर ख़लल डालना सही नहीं समझा। मुझे याद आया कि कल सुबह मुझे उनके साथ पंचायत पर जाना है। मैं उनके पास जिस मकसद से आया था उसके लिए मुझे कल का ही समय सही लगा। ये सोच कर मैं वापस माँ के ही पास बैठ गया।
मां और मेनका चाची कुर्सियों पर बैठी थीं और कुछ नौकरानियाँ उनके निर्देश पर कपड़े में कुछ आकृतियां बना रहीं थी। मैं जब कुर्सी पर बैठ गया तो माँ ने उन नौकरानियों को कहा कि वो यहाँ से दूसरी जगह जा कर अपना काम करें। माँ के कहने पर सब उठीं और अपना अपना सामान समेट कर चली गईं। मैं समझ गया कि माँ ने मेरी वजह से उनसे ऐसा कहा था।
"क्या बात है।" मेनका चाची ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा____"आज कल तो हमारे बेटे की बड़ी तारीफें होने लगी हैं। गांव के साहूकार हमारे बेटे को इज़्ज़त सम्मान देने के लिए खुद लेने आते हैं।"
"आपके बेटे में कोई तो ख़ास बात होगी ही चाची जिसके लिए वो लोग ऐसा कर रहे हैं।" मैंने भी मुस्कुरा कर चाची से कहा____"पर लगता है हमारी प्यारी चाची को उनके द्वारा अपने बेटे को यूं इज्ज़त सम्मान देना पसंद नहीं आया।"
"अरे! ये क्या कह रहे हो तुम?" मेनका चाची ने हैरानी से मेरी तरफ देखा____"भला मुझे अपने बेटे के लिए ये सब करना पसंद क्यों नहीं आएगा? तुम क्या जानो वैभव कि इस सबसे हमें कितनी ख़ुशी हुई है। तुम्हारे चाचा तो इतने खुश थे कि दीदी से कहने लगे कि इस ख़ुशी में हम एक बहुत बड़ा उत्सव करेंगे और आस पास के सभी गांव वालों को भोजन कराएंगे।"
"मेनका सही कह रही है बेटा।" माँ ने कहा_____"अभी कुछ ही देर पहले जगताप हमारे पास आए थे। जब उन्होंने तुम्हारे मुख से वहां का सारा किस्सा सुना तो वो सीधा हमारे पास आए और ख़ुशी ख़ुशी कहने लगे कि मेरे भतीजे ने बहुत बड़ा काम किया है और इस ख़ुशी में हम बहुत बड़ा उत्सव करेंगे।"
मैं माँ की बात सुन कर सोचने लगा कि जगताप चाचा सच में मुझे कितना प्यार करते हैं। वैसे ये सच ही था कि वो मुझे बचपन से ही बहुत मानते थे। माँ से उनके बारे में ऐसी बात सुन कर मुझे भी अंदर ही अंदर बेहद ख़ुशी महसूस हुई। मन में ख़याल उभरा अभी तक कौन सी दुनिया में खोया था मैं और क्यों खोया था मैं?
"हम सब अभी से उस बड़े उत्सव की तैयारी शुरू करने वाले हैं।" मेनका चाची ने ख़ुशी से चहकते हुए कहा____"कल जब दादा ठाकुर पंचायत से लौट कर हवेली आएंगे तो उनसे इसके बारे में बात करेंगे।"
"नहीं चाची।" मैंने एकदम से संजीदा हो कर कहा____"हवेली में ऐसा कोई उत्सव नहीं होगा और ना ही आप में से कोई पिता जी से इस बारे में बात करेगा।"
"अरे! ये क्या कह रहा है तू?" माँ ने बुरी तरह चौंकते हुए कहा____"क्यों नहीं होगा उत्सव भला? तू नहीं जानता बेटा कि इस सबसे हमें कितनी ख़ुशी मिली है। गांव के साहूकारों से हमारे सम्बन्ध अच्छे हो गए हैं। हम चाहते हैं कि उस उत्सव में वो लोग भी हमारे साथ मिल कर इस ख़ुशी का आनंद लें।"
"मेरी नज़र में मैंने अभी ऐसा कोई भी बड़ा काम नहीं किया है मां।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"जिसके लिए इतने बड़े उत्सव का आयोजन किया जाए। हो सकता है कि ये सब आप लोगों के लिए ख़ुशी की बात हो लेकिन मेरे लिए नहीं है।"
"व...वैभव आख़िर बात क्या है" मेनका चाची ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"अचानक से तुम इतने गंभीर क्यों हो गए? अगर कोई बात है तो साफ़ साफ़ बताओ हमें।"
"ऐसी कोई बात नहीं है चाची।" मैं भला उन्हें कैसे बताता कि मैं अपने बड़े भैया की वजह से ऐसा कोई उत्सव नहीं होने देना चाहता था? मैं भला कैसे ऐसे उत्सव से खुश होता जबकि मेरे भैया और भाभी के जीवन में इतने बड़े दुःख के बादल छाए हुए थे।
"कुछ तो बात ज़रूर है बेटा।" माँ ने सहसा चिंतित भाव से कहा____"मुझे बता, आख़िर क्या छुपा रहा है हमसे?"
"कुछ नहीं मां।" मैं सहसा ये सोच कर अंदर ही अंदर घबरा गया कि मैंने ये कैसा माहौल बना दिया है, सम्हल कर बोला____"मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि अभी मैंने इतना बड़ा कोई भी काम नहीं है। अभी तो मुझे बहुत कुछ समझना है और बहुत कुछ करना है। जिस दिन वाकई में कोई बड़ा काम करुंगा उस दिन ख़ुशी ख़ुशी उत्सव मना लेना लेकिन अभी नहीं। "
मैं जानता था कि अब अगर और मैं उनके पास रुका तो वो दोनों मुझसे पूछती ही रहेंगी इस लिए मैं उठा और वापस अपने कमरे की तरफ बढ़ चला। मैं अंदर से एकदम दुखी सा हो गया था। आज बड़े भैया ने जिस तरह से मुझसे बातें की थी उसने मुझे हिला कर रख दिया था। मैं ये सहन नहीं कर सकता था कि मेरे बड़े भैया हम सबको इस तरह छोड़ कर चले जाएंगे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं? आख़िर कैसे मैं उनके जीवन को बचाऊं? एक तरफ भाभी थीं जो अंदर ही अंदर अपने पति के बारे में ये सब सोच सोच कर दुखी थीं और उनकी बिवसता ये थी कि वो अपना दुःख किसी को दिखा नहीं सकती थीं। मेरे सामने इतना कुछ मौजूद था जिसे मैं समेटने में सफल नहीं हो पा रहा था।
अपने कमरे में पहुंचा तो देखा कुसुम जग गई थी और किसी सोच में डूबी हुई नज़र आ रही थी। उसके कानों में दरवाज़ा खुलने की आवाज़ तक न पड़ी थी। ज़ाहिर है वो किसी गहरे ख़यालो में गुम थी। उसके मासूम से चेहरे पर कई तरह के भाव उभरते हुए दिख रहे थे। मुझे याद आया कि वो भी अपने सीने में कोई ऐसी बात छुपाए हुए थी जो उसे अंदर ही अंदर दुखी किए हुए थी। अपनी लाड़ली बहन के उदास चेहरे को देख कर मेरे दिल में एक टीस सी उभरी। मैं सोचने लगा कि कैसा भाई हूं मैं जो अपनी मासूम बहन का दुःख भी दूर नहीं कर पा रहा? बड़ी मुश्किल से मैंने खुद को सम्हाला और आगे बढ़ा।
"अब अगर मैं तेरा नाम सोचन देवी रख दूं तो कैसा रहेगा?" उसके सिरहाने पास बैठ कर मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा तो वो एकदम से चौंकी और फिर हड़बड़ा कर उठ बैठी।
"भ...भइया???" फिर वो खुद को सम्हालते हुए बोली_____"आप कब आए?"
"मुझे आए हुए तो ज़माना गुज़र गया।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन मैं ये समझने की कोशिश कर रहा था कि अपनी इस बहन का नया नाम सोचन देवी रखूं कि नहीं?"
"क्..क्या कहा आपने?" कुसुम ने आँखें फैलाते हुए कहा____"आप मेरा इतना गन्दा नाम कैसे रख सकते हैं? जाइए मुझे आपसे कोई बात नहीं करना।"
"यानि कि मुझे तेरा ये नया नाम नहीं रखना चाहिए।" उसके रूठ जाने पर मैंने उसे उसके कन्धों से पकड़ कर अपनी तरफ घुमाया और फिर प्यार से बोला____"पर भला ये कहां का इन्साफ़ हुआ कि मेरी प्यारी बहन ने अपने इस भाई का एक नाम सोचन देव रख दिया है?"
"वो तो आप पर जंचता है इस लिए रख दिया है मैंने।" कुसुम ने शरारत से मुस्कुराते हुए कहा____"आप जब देखो तब कहीं न कहीं खोए ही रहते थे इस लिए मैंने आपका वो नाम रख दिया था। वैसे भैया क्या आप मुझे नहीं बताएँगे कि इतना क्या सोचते रहते थे आप कि मुझे मजबूर हो कर आपका नाम सोचन देव रखना पड़ा?"
"सच बताऊं या झूठ?" मैंने उसकी मासूमियत से भरी आँखों में देखते हुए पूछा तो उसने मासूमियत से ही जवाब दिया____"झूठ क्यों बताएँगे? एकदम सच्चा वाला सच बताइए मुझे।"
"ठीक है फिर।" मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"असल में मैं हमेशा ये सोचता रहता हूं कि ऐसी क्या बात हो सकती है जिसने मेरी मासूम सी बहन को इतना गंभीर बना दिया है और तो और उसे इतना बेबस भी कर दिया है कि वो अपने दिल की बात अपने इस भाई से बता भी नहीं सकती?"
मेरी बात सुन कर एकदम से कुसुम के चेहरे पर घबराहट के भाव उभर आए। उसका खिला हुआ चेहरा एकदम से बुझ सा गया। वो मुझसे नज़रें चुराने लगी। मैं उसी को देख रहा था। उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ थरथराए जा रहे थे।
"क्या हुआ?" मैंने उसे उसके कन्धों से पकड़ कर प्यार से ही पूछा____"मेरी बात सुन कर तेरा खिला हुआ चेहरा क्यों उतर गया? आख़िर ऐसी क्या बात है जो तुझे इतना परेशान कर देती है? तू जानती है न कि तेरा ये भाई तुझे किसी भी कीमत पर उदास नहीं देख सकता। तू जब शरारत से मुस्कुराती है तो लगता है जैसे हर तरफ खुशियों की बहार आ गई है और जब तू ऐसे उदास हो जाती है तो लगता है जैसे इस दुनिया में अब कुछ भी नहीं रहा।"
"भ...भइया।" कुसुम बुरी तरह फफक कर रोते हुए मुझसे लिपट गई। मैंने भी उसे अपने सीने से छुपका लिया और उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगा। उसे यूं रोता देख मेरी आँखें भी भर आईं। दिल में एक हूक सी उठी जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से दबाया।
"क्या तुझे अपने इस भाई पर ज़रा भी भरोसा नहीं है?" मैंने उसे खुद से छुपकाए हुए ही कहा____"क्या तुझे लगता है कि तेरा ये भाई तेरा दुःख दूर करने में असमर्थ है? तू जानती है न कि मैं तेरे एक इशारे पर सारी दुनिया को आग लगा सकता हूं।"
"मुझे माफ़ कर दीजिए भइया।" मेरी बातें सुन कर कुसुम और भी ज़्यादा सिसक उठी____"मैं आपको तकलीफ़ नहीं देना चाहती। मैं जानती हूं कि आप मेरे लिए दुनिया का कोई भी काम कर सकते हैं लेकिन मैं क्या करूं भैया? मैं आपको कुछ भी नहीं बता सकती। मुझे माफ़ कर दीजिए।"
"अच्छा चल ठीक है।" मैंने उसे खुद से अलग किया और उसके आंसुओं को पोंछते हुए कहा____"तू रो मत। तू जानती है न कि मैं तेरी आँखों में आंसू नहीं देख सकता। चल अब शांत हो जा।"
"मुझे माफ़ कर दीजिए भइया।" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए दुखी भाव से कहा। उसकी आँखें फिर से छलक पड़ीं थी जिन्हें मैंने अपने हाथों से पोंछा और फिर कहा_____"तुझे किसी बात के लिए मुझसे माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है और हाँ मैं वादा करता हूं कि अब तुझसे इस बारे में कुछ भी नहीं पूछूंगा। मैं बस ये चाहता हूं कि तू हमेशा खुश रहे और अपनी शरारतों से अपने इस भाई को परेशान करती रहे।"
कुसुम की आँखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे समझा बुझा कर शांत किया। सहसा मेरी नज़र दरवाज़े पर खड़ी मेनका चाची पर पड़ी। जब उन्होंने देखा कि मैं उन्हें देखने लगा हूं तो उन्होंने जल्दी से अपनी आँखों के आंसू पोंछे और फिर मुस्कुराती हुई कमरे के अंदर हमारे पास आ गईं।
"मैं नहीं जानती कि ऐसी कौन सी बात है जिसे तुम कुसुम से पूछ रहे थे।" फिर उन्होंने उसी मुस्कान में कहा____"और ये तुम्हें बताने की जगह इस तरह रोने लगी थी लेकिन ये देख कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि तुम इसे आज भी उतना ही मानते हो जितना पांच महीने पहले मानते थे।"
"सारी दुनिया से नफ़रत कर सकता हूं चाची।" मैंने कुसुम के चेहरे को प्यार से सहला कर कहा____"लेकिन अपनी इस बहना से कभी नाराज़ नहीं हो सकता और ना ही इसे कभी दुखी देख सकता हूं। ये मेरी जान है, मेरा गुरूर है, मेरी शान है।"
कुसुम मेरी बात सुन कर फिर से मुझसे छुपक गई। उसकी आँखें फिर से भर आईं थी। मेनका चाची ने मेरे चेहरे को प्यार से सहलाया और कहा____"इस हवेली में एक तुम ही हो जो इसे इतना मानते हो। इसके बाकी भाई तो हमेशा इसे डांटते ही रहते हैं।"
"कोई मेरे सामने इसे डांट के दिखाए भला।" मैंने कहा____"मैं डाटने वाले का मुँह तोड़ दूंगा।"
"जिस तरह तुम इसे स्नेह करते हो।" मेनका चाची ने कहा____"मैं सोचती हूं कि जिस दिन ये ब्याह कर अपने ससुराल जाएगी तब क्या करोगे तुम?"
"समाज के बनाए नियमों का किसी तरह पालन तो करना ही पड़ेगा चाची।" मैंने गंभीरता से कहा____"पर इतना ज़रूर समझ लीजिए कि जिस दिन ये अपने भाई को छोड़ कर अपने ससुराल जाएगी उस दिन मेरा दिल टुकड़ों में बिखर जाएगा। इस हवेली में गूंजने वाली इसकी हंसी और इसकी शरारतें कहीं खो जाएंगी।"
कहते कहते सहसा मेरी आवाज़ भर्रा गई और मुझसे आगे कुछ बोला न गया। आँखों ने बगावत कर दी थी। मेरी बातें सुन कर जहां कुसुम रोते हुए मुझसे फिर से लिपट गई थी वहीं चाची ने मुझे खुद से छुपका लिया था। माहौल एकदम से ग़मगीन सा हो गया था।
"ताता बुआ त्यों लो लही है?" अचानक हम तीनों ही उस बच्ची की इस बात से चौंके। वो जग गई थी और अब बेड पर उठ कर बैठ गई थी। उसने कुसुम को रोते देखा तो मुझसे पूछ लिया था।
"अरे! मेरी प्यारी गुड़िया जग गई क्या?" कुसुम मुझसे अलग हुई तो मैंने उस बच्ची को उठा कर अपनी गोद में बैठाते हुए उससे पूछा तो वो बड़ी मासूमियत से मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा उठी।
"आप तहां तले दए थे ताता?" उसने मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"मैंने बुआ थे पूथा आपके बाले में तो बुआ ने तहा आप मेले लिए लद्दू लेने दए हैं।"
"तो क्या अभी तक तुमने लड्डू नहीं खाया गुड़िया?" मैंने हैरानी से उसकी तरफ देखते हुए पूछा जिसका जवाब उसने मुस्कुराते हुए दिया____"मैंने तो बूत थाले लद्दू थाए ताता औल आपतो पता है बुआ ने मुधे मिथाई भी थिलाइ।"
"अरे वाह!" मैंने उसके गालों को सहलाते हुए कहा____"फिर तो हमारी गुड़िया का पेट भर गया होगा।"
"हां ताता।" उसने मासूमियत से कहा____"पल मुधे औल लद्दू थाने हैं।"
मेनका चाची और कुसुम उस बच्ची की बातों से मुस्कुरा रहीं थी। उस बच्ची की वजह से माहौल सामान्य और खुशनुमा सा हो गया था। मैंने कुसुम से कहा कि वो गुड़िया के लिए लड्डू ले आए। थोड़ी ही देर में कुसुम लड्डू और मिठाई ले कर आ गई और उसे दे दिया। बच्ची लड्डू और मिठाई देख कर बेहद खुश हुई और एक लड्डू उठा कर खाने लगी।
मेनका चाची और कुसुम कुछ देर बाद चली गईं। वो बच्ची लड्डू खाने में ब्यस्त थी और मैं ये सोचने में कि विभोर और अजीत के पास कुसुम की आख़िर ऐसी कौन सी कमज़ोरी है जिसके बल पर वो लोग कुसुम को मेरे खिलाफ़ मोहरा बनाए हुए हैं? आख़िर ऐसी क्या बात हो सकती है जिसके चलते कुसुम उनकी बात मानने के लिए इस हद तक मजबूर है कि वो अपने उस भाई को भी कुछ नहीं बता रही जो उसे दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार और स्नेह देता है? मैंने फैसला किया कि सबसे पहला काम मुझे इसी सच का पता लगाना होगा।
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बहुत बढ़िया अपडेट है । वैभव अब थोड़ा दिमाग से काम लेने लगा है । इसलिए अकड़ छोड़ कर सबसे संबंध सुधारने में लगा है शिव शंकर चाचा के बातों से तो यही लगता है । इन लोगों ने वैभव को अपने घर आमंत्रित किया है ताकि रिश्तों में सुधार हो सके ।देखते हैं वैभव क्या करता है☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 25
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अब तक,,,,,
मैं सिर नीचा किए खाना खाने में मस्त था कि तभी मेरे पैर में कोई चीज़ हल्के से छू गई तो मैंने चौंक कर सिर उठाया। मेरी नज़र बड़े भैया पर पड़ी, उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आँखों से इशारा किया तो मुझे कुछ समझ न आया कि वो किस बात के लिए इशारा कर रहे थे। तभी उन्होंने पिता जी की तरफ देखा तो मैंने भी पिता जी की तरफ देखा। पिता जी खाने का निवाला चबाते हुए मेरी तरफ ही देख रहे थे। जैसे ही मेरी नज़र उनकी नज़र से मिली तो मैंने जल्दी से नज़र हटा ली और सिर झुका कर फिर से खाना शुरू कर दिया। मेरी ये सोच कर धड़कनें तेज़ हो गईं थी कि पिता जी मेरी तरफ ऐसे क्यों देख रहे थे?
अब आगे,,,,,
खाना खाने के बाद हम सब अपने अपने कमरों की तरफ चल दिए। पिता जी जिस तरह से मुझे देख रहे थे उससे मैंने यही सोचा था कि खाना खाने के बाद वो मुझसे कुछ कहेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिता जी जा चुके थे किन्तु जगताप चाचा जी कुर्सी के पास ही खड़े थे। मैं ऊपर अपने कमरे की तरफ जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ा ही था कि चाचा जी ने मुझे आवाज़ दी।
"क्या तुम अभी भी ये चाहते हो कि।" जगताप चाचा जी ने मेरे पलटने पर मुझसे कहा_____"उस जगह पर तुम्हारे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू करवाया जाए?"
"क्या मतलब हुआ इस बात का?" मैंने उलझन पूर्ण भाव से कहा____"आप मुझसे ये क्यों पूछ रहे हैं?"
"आज जिस तरह तुमने अपने अच्छे बर्ताव से हम सबको आश्चर्य चकित किया था।" चाचा जी ने कहा____"उससे हम सब यही समझे हैं कि अब तुम हवेली में ही रहोगे और अब से तुम अपने हर कर्त्तव्य को दिल से निभाओगे। ऐसे में उस जगह पर मकान बनवाने का कोई मतलब ही नहीं बनता।"
"मतलब बनता है चाचा जी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और मैंने आपको उस जगह पर मकान बनवाने की वजह भी बताई थी। इस लिए मैं अभी भी यही चाहता हूं कि कल से उस जगह पर मकान बनवाने का कार्य शुरू हो जाए और जितना जल्दी हो सके मकान बन कर तैयार भी हो जाए।"
मेरी बात सुन कर जगताप चाचा जी कुछ देर तक मेरी तरफ एकटक देखते रहे उसके बाद गहरी सांस लेते हुए बोले____"ठीक है, अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो कल से ही उस जगह पर मकान बनवाने का कार्य शुरू हो जाएगा। मैंने बड़े भैया से भी इस बारे में बात की थी तो उन्होंने यही कहा कि अगर तुम यही चाहते हो तो उस जगह पर तुम्हारे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दिया जाए।"
"चाचा भतीजे में ये कैसी बातें हो रही हैं?" तभी माँ ने आते हुए कहा____"और ये किस जगह पर मकान बनवाने की बात हो रही है?"
"भाभी मां।" जगताप चाचा जी ने बड़े अदब से कहा____"वैभव चाहता है कि हम इसके लिए उस जगह पर एक छोटा सा मकान बनवा दें जिस जगह पर ये चार महीने रहा है।"
"लेकिन क्यों?" माँ ने हैरत से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आख़िर उस बियावान जगह पर मकान बनवाने की ज़रूरत क्या है? क्या तू इस हवेली में नहीं रहना चाहता?"
"मैं हवेली में ही रहूंगा मां।" मैंने नम्र भाव से कहा____"लेकिन उस शांत जगह पर भी अपनी शान्ति और सुकून के लिए कुछ वक़्त बिताया करुंगा। इसी लिए मैंने चाचा जी से उस जगह पर मकान बनवा देने के लिए कहा है।"
"मुझे तो समझ ही नहीं आता कि।" माँ ने परेशान भाव से कहा____"तेरे मन में चलता क्या रहता है? भला उस वीरान जगह पर तू रहने का कैसे सोच सकता है?"
"उस जगह पर चार महीने एक झोपड़ा बना कर रह चुका हूं मां।" मैंने कहा____"उन चार महीनों में मुझे एक पल के लिए भी उस जगह पर किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि वो जगह तो मुझे ऐसी लगने लगी थी जैसे शादियों से मैं उसी जगह पर रहता आया हूं। आप इतना मत सोचिए और ना ही मेरी फ़िक्र कीजिए।"
मेरी बातें सुन कर माँ और चाचा जी मुझे देखते रहे, जबकि इतना कहने के बाद मैं पलटा और सीढ़ियों पर चढ़ता चला गया। कुछ ही देर में मैं अपने कमरे में पहुंच गया। कपड़े उतार कर और पंखा चला कर मैं बिस्तर पर लेट गया। उसके बाद अपनी आँखें बंद कर के मैं हर चीज़ के बारे में सोचने लगा। पता ही नहीं चला कि कब मुझे नींद आ गई।
सुबह कुसुम के जगाने पर ही मेरी आँख खुली। वो मेरे लिए चाय लिए खड़ी थी। मुझे ज़ोर की मुतास लगी थी इस लिए मैंने उससे चाय को मेज पर रख देने के लिए कहा और खुद कमरे से निकल गया। गुसलखाने में हाथ मुँह धो कर मैं वापस अपने कमरे में आ गया। चाय पीते हुए मुझे याद आया कि मैंने सरोज काकी से कहा था कि आज सुबह उसके खेतों की कटाई के लिए दो मजदूर भेज दूंगा। ये याद आते ही मैंने जल्दी जल्दी चाय को ख़त्म किया और कमरे से निकल कर नीचे आ गया।
नीचे आया तो मेरी नज़र आँगन में तुलसी की बेदी के पास पूजा कर रही भाभी पर पड़ी। वो अपने दोनों हाथ जोड़े और आँखे बंद किए तुलसी को प्रणाम कर रहीं थी। मुझे उनके सामने से हो कर ही जाना था इस लिए मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ चला। मैं चाहता था कि उनकी आँखें खुलने से पहले ही मैं उनके पास से गुज़र जाऊं किन्तु ऐसा हुआ नहीं। मैं तेज़ तेज़ बढ़ते हुए जैसे ही उनके पास पंहुचा तो उन्होंने अपनी आँखें खोल दी। आँखें खुलते ही उनकी नज़र सीधा मुझ पर पड़ी। मैं तो उनकी तरफ ही देख रहा था, इस लिए जैसे ही उनकी नज़र मेरी नज़र से टकराई तो मेरा दिल धक् से रह गया।
"प्रणाम भाभी।" मेरे पास कोई चारा नहीं था इस लिए ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े अदब से उन्हें प्रणाम किया और आशीर्वाद के रूप में उनका कोई जवाब सुने बिना ही मैं तेज़ी से आगे बढ़ने ही वाला था कि उन्होंने कहा____"अरे! देवर जी प्रसाद तो ले लीजिए। सुबह सुबह एकदम आंधी तूफ़ान बन के कहां जा रहे हैं?"
भाभी की बात सुन कर मैं अपनी जगह पर एकदम से जाम सा हो गया। हालांकि उनके टोक देने पर मेरे अंदर गुस्सा फूटने लगा था किन्तु मैंने अपने गुस्से को जल्दी ही सम्हाल लिया। भाभी के पूछने पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने आगे बढ़ कर प्रसाद का लड्डू मेरी तरफ बढ़ाया तो मैंने अपने दाएं हाथ की हथेली उनके सामने कर दी।
"मैं जानती हूं कि तुम्हें इस तरह से किसी का टोकना पसंद नहीं है।" भाभी ने प्रसाद मेरी हथेली पर रखते हुए कहा____"लेकिन मैं ये भी जानती हूं कि तुम इतनी तेज़ी से क्यों मेरे सामने से निकले जा रहे थे?"
भाभी ने ये कहा तो मैंने हल्के से चौंक कर उनकी तरफ देखा जबकि उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"ठाकुरों का ग़ुरूर अभी भी तुम्हारे अंदर वैसा का वैसा ही है देवर जी। जबकि मैंने तो ये उम्मीद की थी कि वो सब बातें जानने के बाद शायद तुम में कुछ बदलाव आ जाएगा। ख़ैर, एक बात और है और वो ये कि कल जो कुछ तुमने कहा था उन बातों पर तो मुझे तुमसे शख़्त नाराज़ हो जाना चाहिए था किन्तु मैं तुमसे नाराज़ नहीं हुई। जानते हो क्यों? क्योंकि मैं जानती हूं कि अगर तुम मुझे देख कर मेरी तरफ आकर्षित होते हो तो इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है। ये तो इस कलियुग का प्रभाव है वैभव। इस कलियुग में इंसान की सोच और उसकी नज़र गंगा मैया की तरह पाक़ नहीं होती। मैं तो बस ये चाहती हूं कि तुम वक़्त की नज़ाक़त को देख कर सम्हल जाओ और उन चीज़ों पर ध्यान दो जिन पर ध्यान देने की आज कल शख़्त ज़रूरत है।"
भाभी की बातें सुन कर मैं कुछ न बोल सका था किन्तु ये जान कर थोड़ी राहत ज़रूर मिली थी कि वो मेरी कल की बातों से नाराज़ नहीं थीं। मैं समझ नहीं पाया कि इतनी सहनशील औरत भला कौन हो सकती है जो मेरी उन बातों को भी ये सब सोच कर सहन कर ले या फिर उसके लिए ये कहे कि उसमे मेरी कोई ग़लती नहीं है। मेरे दिलो दिमाग़ से एक बहुत बड़ा बोझ हट गया था। कहां इसके पहले मैं उनके सामने जाने से कतरा रहा था वहीं अब उनकी बातों से मेरे अंदर का डर दूर हो गया था।
"शुक्रिया भाभी।" मैंने बड़े सम्मान भाव से कहा____"आप सच में बहुत अच्छी हैं लेकिन मैं उस सबके लिए अभी भी बहुत शर्मिंदा हूं। मुझे माफ़ कर दीजिए, मैं दिल से ये कभी नहीं चाहता कि मैं आपके बारे में एक पल के लिए भी ग़लत सोचूं लेकिन पता नहीं क्या हो जाता है मुझे कि आपके क़रीब आते ही मेरा मन मेरे काबू से बाहर होने लगता है। मुझे माफ़ कर दीजिए। अपने भगवान से कहिए कि वो मुझसे ऐसा पाप न करवाए।"
"इतना हलकान मत हो वैभव।" भाभी ने शांत भाव से कहा____"मैं जानती हूं कि तुम ग़लत नहीं हो। इस लिए तुम इतना हताश मत हो। ख़ैर अब तुम जाओ, मैं बाकी सबको भी प्रसाद दे दूं।"
भाभी के ऐसा कहने पर मैंने सिर हिलाया और उन्हें एक बार फिर से प्रणाम कर के सीढ़ियां चढ़ कर इस तरफ आ गया। इस वक़्त मेरे मन में उथल पुथल सी मची हुई थी जिसे मैं काबू में करने की कोशिश कर रहा था। इस तरफ आया तो माँ मुझे मिल गईं। मैंने माँ को प्रणाम किया तो उन्होंने ख़ुश हो कर मुझे आशीर्वाद दिया। फिर उन्होंने कहा कि नास्ता बन रहा है इस लिए मैं कहीं न जाऊं। मैंने माँ से कहा कि मुझे जाना ज़रूरी है और मैं बाहर ही कहीं खा पी लूंगा। मेरी बात सुन कर माँ मेरे चेहरे की तरफ देखती रहीं। शायद वो ये समझने की कोशिश कर रहीं थी कि इस वक़्त मैं किस मूड में हूं? मैंने मुस्कुरा कर माँ को फ़िक्र न करने के लिए कहा तो उनके चेहरे पर राहत के भाव उभर आए और फिर उन्होंने मुझे जाने की इजाज़त दे दी।
बड़े भैया इस वक़्त अपने कमरे ही होते थे और पिता जी जगताप चाचा जी के साथ बैठक में। वहां पर वो कुछ ज़रूरी चीज़ों के बारे में बातें करते थे। मैं बाहर बैठक में आया और पिता जी के साथ साथ चाचा जी को भी प्रणाम किया। मेरा ये शिष्टाचार देख कर दोनों बड़े ही खुश हुए।
"हमें ये तो समझ नहीं आया कि।" दादा ठाकुर ने मुझसे कहा____"तुम उस जगह पर मकान बनवाने के लिए क्यों इतना ज़ोर दे रहे हो किन्तु तुम्हारी इस हसरत को हम नकारना नहीं चाहेंगे। ख़ैर हमने जगताप को बोल दिया है कि वो आज से ही उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दे।"
"आप फ़िक्र मत कीजिए पिता जी।" मैंने बड़े आदर भाव से कहा____"उस जगह पर अपने लिए मकान बनवा कर मैं कोई ग़लत काम नहीं करुंगा।"
"फिर तो बहुत अच्छी बात है।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर जगताप ने भुवन को इस काम के लिए लगा दिया है। तुम चाहो तो खुद भी उस जगह पर जा कर अपने तरीके से देख रेख कर सकते हो।"
"जी मैं वहीं जा रहा हूं पिता जी।" मैंने कहा और फिर दोनों का अभिवादन कर के हवेली से बाहर आ गया।
कुछ ही देर में मैं मोटर साइकिल में बैठा गांव से बाहर की तरफ उड़ा जा रहा था। इस वक़्त मेरे ज़हन में कई सारी बातें चल रहीं थी। अभी तक मैंने वो किया था जिसका कोई मतलब नहीं होता था किन्तु अब मैं वो करने वाला था जिसका बहुत कुछ मतलब निकलने वाला था।
साहूकारों के घरों के सामने आया तो देखा पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर रूपचंद्र अपने चाचा शिव शंकर और उसके बेटे गौरव सिंह के साथ बैठा हुआ था। मुझ पर नज़र पड़ते ही शिव शंकर चबूतरे से उतर कर खड़ा हो गया। उसके उतर जाने पर रूपचन्द्र और गौरव भी नीचे उतर आए। शिव शंकर ने मुझे देख कर सलाम किया तो उसका लड़का और भतीजे ने भी किया किन्तु मैंने देखा कि रूपचन्द्र के होठों पर बड़ी जानदार मुस्कान उभर आई थी। उसकी वो मुस्कान देख कर मैं समझ गया कि वो क्या सोच कर मुस्कुरा रहा था किन्तु मैं ये ज़ाहिर नहीं करना चाहता था कि मुझे उसकी करतूत पता है।
"और शिव काका।" मैंने मोटर साइकिल खड़ी कर के सामान्य भाव से शिव शंकर की तरफ देखते हुए कहा_____"कैसे हो? चबूतरे में बैठ कर पेड़ की ठंडी छांव का आनंद ले रहे हो क्या?"
"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने कहा____"ये लड़के लोग बैठे थे तो मैं भी इनके साथ थोड़ी देर के लिए बैठ गया था।"
"अच्छी बात है काका।" मैंने कहा____"वैसे अब तो खुश हो न? हवेली से आप लोगों के रिश्ते अब सुधर गए हैं।"
"समय एक जैसा नहीं रहता छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने कहा____"परिवर्तन इस सृष्टि का नियम है और सृष्टि के इस नियम के साथ साथ इंसान को भी बदलना चाहिए। अतीत की बातों को ले कर मन मुटाव बनाए रखना भला कहां की बुद्धिमानी है? हम तो बहुत पहले से इस बारे में सोच रहे थे इस लिए होली के त्यौहार के दिन को हमने इसके लिए ज़्यादा उचित समझा। ठाकुर साहब भी हमारी विनती को सुन लिए जिसके चलते अब सब ठीक हो गया है।"
"चलो देखते हैं कि दो खानदानों के बीच ये प्रेम कब तक रहता है।" मैंने सपाट लहजे में कहा तो शिव शंकर ने कहा____"अब तो हमेशा ही चलता रहेगा छोटे ठाकुर। तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?"
"मैं इस लिए कह रहा हूं काका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्योंकि आज की नई पौध का खून बहुत गरम है। आज की नई पौध में सहनशीलता की बहुत कमी है। आज की नई पौध किसी के सामने झुकना पसंद नहीं करती और इसका सबसे बड़ा उदाहरण मैं स्वयं हूं।"
"ये तुम क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने मेरी बात सुन कर हैरानी से कहा____"तुम अब पहले जैसे नहीं रहे। मैंने कल देखा था कि कैसे तुम अपने बड़ों के सामने झुक कर उनका सम्मान कर रहे थे। मैं सच कह रहा हूं छोटे ठाकुर, कल तुम्हें उस रूप में देख कर बहुत अच्छा लगा। हवेली से आने के बाद हम लोग तुम्हारे ही बारे में चर्चा कर रहे थे। हम सब यही कह रहे थे कि छोटे ठाकुर पहले जैसे भी थे लेकिन अब उनमे सिर्फ अच्छाईयां ही है। हमारे बड़े भाई साहब तो ये भी कह रहे थे कि छोटे ठाकुर को एक दिन हम अपने घर बुलाएँगे और उनका अच्छे से स्वागत करेंगे।"
"ये तो बड़े आश्चर्य की बात है शिव काका।" मैंने मन ही मन हैरान होते हुए कहा____"भला मुझ जैसे इंसान को अपने घर बुला कर मेरा स्वागत करने का विचार आपके मन में कैसे आया? मैं तो ऐसा इंसान हूं जिसके लिए हर इंसान के अंदर सिर्फ और सिर्फ नफ़रत और घृणा ही है।"
"नहीं छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने जल्दी से कहा____"कल तुम्हारा अच्छा बर्ताव देख कर इतना तो मैं भी समझ गया हूं कि अब तुम पहले जैसे नहीं रहे। तुम्हारे अंदर जो एक अच्छा इंसान जाने कब से दबा हुआ था वो अब बाहर आ गया है। कल हम सब दादा ठाकुर से इस बारे में चर्चा कर रहे थे और यकीन मानो छोटे ठाकुर, तुम्हारा कल का बर्ताव देख कर ठाकुर साहब भी बहुत प्रसन्न थे। अब तो वैसे भी हमारे रिश्ते सुधर चुके हैं इस लिए सब कुछ भुला कर हमें एक नए सिरे से रिश्तों की शुरुआत करनी है। इसी लिए कह रहा हूं कि किसी दिन तुम्हें अपने घर बुलाएंगे। वैसे भी अब हमारा और तुम्हारा एक दूसरे के यहाँ आना जाना तो लगा ही रहेगा।"
"मानिक की तबियत अब कैसी है काका?" मैंने कुछ सोचते हुए ये कहा तो शिव शंकर तो सामान्य ही रहा किन्तु रूपचन्द्र और गौरव के चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए, जबकि मेरी बात सुन कर शिव शंकर ने कहा____"उसे शहर ले गए थे छोटे ठाकुर। शहर में डॉक्टर ने उसके हाथ पर प्लास्टर चढ़ा दिया है। पूरी तरह ठीक होने में कुछ समय तो लगेगा ही।"
"माफ़ करना काका।" मैंने खेद भरे भाव से कहा____"मानिक के साथ मैंने अच्छा नहीं किया। मुझे अपने गुस्से पर काबू रखना चाहिए था।"
"कोई बात नहीं छोटे ठाकुर।" शिव शंकर के चेहरे पर भी इस बार चौंकने के भाव उभर आये थे, बोला____"ग़लतियां तो सबसे होती हैं लेकिन इंसान को अगर अपनी ग़लती का एहसास हो जाए और वो अपनी ग़लती मान ले तो फिर उससे अच्छी बात कोई नहीं होती। मेरे भतीजे मानिक की भी ग़लती थी। उसे तुमसे उस लहजे में बात नहीं करनी चाहिए थी। ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाओ बेटा। मैं तो बस ये चाहता हूं कि दोनों खानदान के लड़के एक दूसरे से प्रेम रखें और मिल जुल कर रहें।"
"अब से यही कोशिश करुंगा काका।" मैंने कहा____"हालाँकि मैं पहले भी मानिक लोगों से उलझने में पहल नहीं करता था। ख़ैर अभी चलता हूं काका। बाद में फिर मुलाक़ात होगी आपसे।"
"ठीक है बेटा।" शिव शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा तो मैं रूपचन्द्र और गौरव पर सरसरी नज़र डालने के बाद आगे बढ़ चला।
मैं जानता था कि मेरी बातों ने रूपचन्द्र और गौरव के साथ साथ शिव शंकर को भी हैरान कर दिया होगा और यही तो मैं चाहता था। मैंने फ़ैसला कर लिया था कि अब अपनी अकड़़ को एक तरफ रख के ही हर काम करुंगा। अगर मुझे इन साहूकारों के अंदर की बात का पता लगाना है तो मुझे कुछ नरमी से काम लेना होगा और कुछ ऐसा भी करना होगा जिससे मेरा आना जाना साहूकारों के घरों में होने लगे। हालांकि अगर मैं उन लोगों के घर चला भी जाऊंगा तो कोई मेरा कुछ उखाड़ लेने वाला नहीं था किन्तु मैं ये चाहता था कि मैं जब भी उनके घर जाऊं तो एक अच्छे इंसान के रूप में जाऊं ताकि वो लोग मेरे बारे में उल्टा सीधा न सोच सकें।
रूपचंद्र मुझे देख कर शुरू में मुस्कुराया था किन्तु मेरी बातें सुन कर यकीनन वो चकरा गया होगा। वो सोचने पर मजबूर हो गया होगा कि मैं अपनी ही फितरत के ख़िलाफ़ कैसे जा सकता हूं? मेरी बातों से अब वो सोच में पड़ गया होगा और कहीं न कहीं वो चिंतित भी हो उठा होगा। ख़ैर यही सब सोचते हुए मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया।
मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि जब तक मैं दरवाज़े तक पहुँचता उससे पहले ही दरवाज़ा खुल गया था। दरवाज़े पर सरोज काकी नज़र आई। मुझे देखते ही उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई।
"कैसी हो काकी?" मैं उसके पास पहुंचते ही बोला____"मजदूर आए कि नहीं?"
"हां बेटा दो जने आये थे।" सरोज काकी ने कहा____"मैंने उन्हें खेत भेज दिया है और अब मैं भी खेतों पर ही जाने वाली थी कि तुम आ गए।"
"हां वो मैं पता करने ही आया था कि वो लोग यहाँ पहुंचे कि नहीं?" काकी एक तरफ हटी तो मैंने दरवाज़े के अंदर दाखिल होते हुए कहा____"उसके बाद मैं उस जगह भी जाऊंगा जहां खेत पर मेरा झोपड़ा बना हुआ था।"
"वहां अब किस लिए जाओगे बेटा?" सरोज काकी ने आँगन में खटिया बिछाते हुए कहा____"क्या फिर से उस जगह पर खेती करने का इरादा है?"
"खेती करने का तो कोई इरादा नहीं है काकी।" मैंने खटिया पर बैठते हुए कहा____"असल में उस जगह पर मैं अपने लिए एक छोटा सा मकान बनवा रहा हूं। आज से वहां पर काम शुरू भी हो गया है।"
"लेकिन बेटा।" काकी ने हैरानी से कहा____"उस जगह पर मकान बनवाने की क्या ज़रूरत आ पड़ी तुम्हें? क्या फिर से हवेली में किसी से अनबन हो गई है तुम्हारी?"
"नहीं काकी अनबन तो किसी से नहीं हुई।" मैंने कहा____"असल में मैं उस जगह पर इस लिए मकान बनवा रहा हूं ताकि शांत और एकांत जगह पर मैं कुछ देर के लिए सुकून से रह सकूं।"
"कहीं अपने मनोरंजन के लिए तो नहीं मकान बनवा रहे उस जगह पर?" इधर उधर देखने के बाद काकी ने मुझसे धीमे स्वर में कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"नहीं काकी ऐसी कोई बात नहीं है। उस जगह पर मकान बनवाने का सिर्फ यही मतलब है कि मैं कुछ देर एकांत में रह कर सुकून पा सकूं। हवेली में मुझे घुटन सी होती है जबकि उस जगह पर एकदम शान्ति और सुकून मिलता है।"
"चलो जो भी हो।" काकी ने फिर से इधर उधर देखा और धीमे स्वर में कहा____"तुम्हारे वहां रहने से एक चीज़ का तो फायदा होगा ही कि हम बेफिक्र हो कर मज़े कर सकेंगे।"
"ऐसा सोचना भी मत काकी।" मैंने थोड़ा शख़्त भाव से कहा____"मैं अब ऐसा कुछ भी नहीं करने वाला और हां मैं तुमसे बेहद नाराज भी हूं।"
"नाराज़???" काकी मेरी बात सुन कर चौंकते हुए बोली____"किस बात से नाराज़ हो मुझसे?"
"तुमने मुझे इस बारे में बताया क्यों नहीं कि रूपचन्द्र तुम्हारी बेटी के साथ ग़लत करने के लिए तुम्हें मजबूर किया था?" मैंने थोड़ा गुस्से में कहा_____"क्या तुम्हें मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं था कि मैं तुम लोगों को उसकी ऐसी घटिया मांग से बचा सकता? और तो और तुमने अपनी इज्ज़त को बचाने के लिए अपनी ही बेटी को उसके आगे परोस दिया? ऐसा कैसे कर सकती हो तुम?"
"मुझे माफ़ कर दो बेटा।" काकी ने हताश भाव से कहा____"मैं उसकी बातों से बहुत ज़्यादा डर गई थी। ऊपर से तुम्हारे काका की भी मृत्यु हो गई थी और ऐसे में अगर किसी को हमारे सम्बन्धों की बातें पता चल जाती तो मैं किसी को कैसे अपना मुँह दिखाती? मैं तो मर ही जाती बेटा। इस लिए मुझे जो समझ आया वही मैंने किया। तुम्हें भी इसी लिए नहीं बताया कि तुम खुद ही अपने घर परिवार से कटे हुए थे और सब कोई तुम पर मेरे मरद की हत्या का इल्ज़ाम लगा रहा था। इस लिए मैंने तुम्हें ये सब बता कर तुम्हे परेशान करना सही नहीं समझा था।"
"तुम्हारी इस ग़लती की वजह से अनुराधा को भी हमारे बारे में सब कुछ पता चल गया है।" मैंने धीमे स्वर में कहा____"और इतना ही नहीं तुम्हारी वजह से उसकी ज़िन्दगी भी बर्बाद हो जाती। वो तो उस दिन मैं संयोग से यहाँ आ गया था वरना वो कमीना तुम्हारी बेटी की इज्ज़त लूट ही लेता।"
"हां वो उस दिन पहले मेरे पास खेत में आया था।" काकी ने कहा____"उसके बाद यहाँ आया था। मैं जानती थी कि अब उससे मेरी बेटी की इज्ज़त को भगवान के सिवा कोई नहीं बचा सकता। मैं मजबूर थी और रोने के सिवा कुछ नहीं कर सकती थी। भगवन से प्रार्थना ज़रुर कर रही थी कि वो किसी तरह मेरी बेटी को बर्बाद होने से बचा ले। मुझसे रहा नहीं गया था इस लिए कुछ देर बाद मैं भी खेतों से चली आई थी। यहाँ आई तो देखा रूपचन्द्र नहीं था बल्कि तुम थे। तुम्हें देख कर मैं समझ गई थी कि भगवान ने मेरी प्रार्थना को सुन लिया है।"
"तुम्हारी बेटी कहीं नज़र नहीं आ रही।" मैंने इधर उधर देखते हुए कहा____"कहीं गई है क्या वो?"
"वो पीछे कुएं में नहा रही है।" सरोज काकी ने कहा____"आती ही होगी। अच्छा अब तुम बैठो और मैं ज़रा खेतों की तरफ जा रही हूं। नास्ता पानी न किया हो तो यहीं खा लेना।"
"अच्छा एक बात बताओ।" मैंने धड़कते हुए दिल से कहा____"तुम्हें मुझ पर भरोसा है न?"
"हां है।" सरोज काकी ने कहा___"लेकिन तुम ये क्यों पूछ रहे हो?"
"उस दिन जब मैं यहाँ आया था तब रूपचन्द्र के जाने के बाद मैं अकेला ही तुम्हारी बेटी के साथ था।" मैंने कहा____"और अब तुम खुद ही मुझे यहाँ पर बैठने का बोल कर जा रही हो। मैं ये जानना चाहता हूं कि तुम अपनी जवान बेटी के पास मुझे ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकती हो? क्या तुम मेरे चरित्र के बारे में भूल गई हो कि मैं कैसा इंसान हूं? अगर मैंने तुम्हारी बेटी को यहाँ अकेला देख कर उसके साथ कुछ ग़लत कर दिया तो?"
"होनी को कोई नहीं टाल सकता बेटा।" सरोज काकी ने अजीब भाव से कहा____"फिर भी मुझे इतना तो भरोसा है कि तुम ऐसा नहीं कर सकते। अगर करना ही होता तो इतने महीनों में मुझे इस बात का इतना तो आभास हो ही गया होता कि मेरी बेटी के प्रति तुम्हारे अंदर क्या है? वैसे भी ताली तो दोनों हाथों से ही बजती है और मैं ये भी जानती हूं कि तुम किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करना पसंद नहीं करते हो। मेरी बेटी को भी मैं अच्छी तरह जानती हूं कि वो कैसी है इस लिए मैं ये नहीं सोचती कि उसे अकेला देख कर तुम उसके साथ क्या कर सकते हो?"
"भरोसा करने के लिए शुक्रिया काकी।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ये सच है कि मैं अनुराधा के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करने का सोच भी नहीं सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को। अभी तो तुम्हारे यहाँ नास्ता पानी में कुछ बना ही नहीं है इस लिए मैं भी कुछ देर के लिए देख आता हूं कि उस जगह पर मजदूर लोग क्या कर रहे हैं।"
"ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"मैं अनुराधा को बोल देती हूं कि वो जल्द से जल्द तुम्हारे लिए खाना पीना बना दे।"
"उससे कहना मैं एक डेढ़ घंटे में आ जाऊंगा।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और ये भी कहना कि भांटे का भरता ज़रूर बना के रखेगी।"
मेरी बात सुन कर सरोज काकी ने हां में सिर हिलाया तो मैंने कहा____"अच्छा काकी मुरारी काका की तेरहवीं किस दिन है?"
"परसों के दिन है बेटा।" सरोज काकी ने संजीदा भाव से कहा____"सोच रही थी कि फसल गह कर घर आ जाती तो उसे बेंच कर उनकी तेरहवीं करने के लिए शहर से कुछ सामान मंगवा लेती लेकिन लगता है समय पर फसल गह ही नहीं पाएगी।"
"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मेरे रहते हुए तुम्हें किसी बात के लिए परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। तेरहवीं करने के लिए जो जो सामान चाहिए मुझे बता देना। मैं कल ही शहर से मंगवा दूंगा।"
"सब कुछ जगन ही कर रहा है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"इस लिए वो ये नहीं चाहेगा कि इस सबके लिए तुम अपना कोई सहयोग दो।"
"मैं जगन काका से बात कर लूंगा काकी।" मैंने कहा____"और उनसे कहूंगा कि जिस चीज़ की भी ज़रूरत हो वो मुझे बोल दें। अच्छा अब मैं चलता हूं। शाम को जगन काका को यहीं पर बुला लेना। उनके सामने ही सारी बातें होंगी।"
सरोज काकी के घर से निकल कर मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के उस जगह चल दिया जहां पर मैं पिछले चार महीने झोपड़े में रहा था। थोड़ी ही देर में मैं उस जगह पर आ गया।
"प्रणाम छोटे ठाकुर।" मैं जैसे ही पहुंचा तो भुवन ने मुझे देखते हुए कहा____"मझले ठाकुर साहब ने मुझसे कहा था कि मैं आपसे पूछ कर ही यहाँ पर सारा कार्य करवाऊं। इस लिए आप इन लोगों को बता दीजिए कि किस तरह का मकान यहाँ पर बनाना है।"
भुवन की बात सुन कर मैं मोटर साइकिल से नीचे उतरा और मजदूरों की तरफ बढ़ चला। जिस जगह पर मेरा झोपड़ा था उस जगह के आस पास मैंने अच्छे से देखा और फिर मैंने भुवन से कहा कि इसी जगह पर मकान की नीव खोदना शुरू करवाओ। मेरे कहने पर भुवन ने मजदूरों को बोल दिया तो वो लोग हाथ में गैंती फावड़ा ले कर काम पर लग गए।
मैंने भुवन से कहा कि यहाँ पर पानी के लिए एक कुंआ भी होना चाहिए इस लिए किसी अच्छे जानकार को बुला कर यहाँ की ज़मीन पर पानी विचरवाओ कि किस जगह पर बढ़िया पानी होगा। मेरी बात सुन कर भुवन ने हां में सिर हिलाया और अपनी राजदूत मोटर साइकिल में बैठ कर चला गया।
मुझे कम समय में मकान बना हुआ चाहिए था इस लिए मजदूर लोग काफी संख्या में आये थे। मैं एक पेड़ की छांव के नीचे मोटर साइकिल में बैठा सबका काम धाम देख रहा था। क़रीब एक घंटे बाद भुवन आया। मोटर साइकिल में उसके पीछे एक आदमी बैठा हुआ था। मुझे देखते ही उस आदमी ने बड़े अदब से मुझे सलाम किया।
भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।
उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।
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वैभव का तो कायापलट ही हो गया । इतने शुद्ध विचार ! इतनी अच्छी अच्छी बातें ! इतनी समझदारी की बातें करने लग गया है पहले सरोज काकी फिर जगन काका समाज के बारे में अच्छे से समझा दिया☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 26
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अब तक,,,,,
भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।
उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।
अब आगे,,,,,
अभी मैं आधे रास्ते में ही था कि मेरे ज़हन में ख़याल आया कि एक बार मुरारी काका के खेतों की तरफ भी हो आऊं। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल को मुरारी काका के खेतों की तरफ मोड़ दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ सुन कर खेतों में कटाई कर रहे किसानों का ध्यान मेरी तरफ गया। मैंने आम के पेड़ के नीचे मोटर साइकिल खड़ी की। आम के पेड़ के नीचे ही मुरारी काका का खलिहान बना हुआ था। सरोज काकी खलिहान में ही एक तरफ खटिया पर बैठी हुई थी। मुझे देखते ही वो खटिया से उठ गई।
"कटाई ठीक से चल रही है न काकी?" मैंने सरोज काकी के पास आते हुए पूछा तो काकी ने कहा____"हां बेटा ठीक से ही चल रही है। तुमने जिन दो लोगों को भेजा है उन्होंने आधे से ज़्यादा खेत काट दिया है। मुझे लगता है कि आज ही सब कट जाएगा।"
"तुम चिंता मत करना काकी।" काकी ने मुझे खटिया में बैठने का इशारा किया तो मैंने खटिया में बैठते हुए कहा____"कटाई के बाद ये दोनों तुम्हारी फसल की गहाई भी करवा देंगे।"
"वो तो ठीक है बेटा।" काकी ने थोड़े चिंतित भाव से कहा____"लेकिन मुझे चिंता जगन की है और गांव वालों की भी। जगन को तो मैं समझा दूंगी लेकिन गांव वालों को कैसे समझाऊंगी?"
"क्या मतलब??" मैंने न समझने वाले भाव से पूछा तो काकी ने कहा____"मतलब ये कि तुम्हारी इस मदद से गांव के कुछ लोग तरह तरह की बातें बनाएंगे। मुझे डर है कि वो कहीं ऐसी बातें न बनाएं जिससे मेरी और मेरी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लग जाए।"
"ये तुम क्या कह रही हो काकी?" मैंने हैरानी से कहा____"इसमें तुम्हारी और तुम्हारी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लगने वाली कौन सी बात हो जाएगी भला?"
"तुम समझ नहीं रहे हो बेटा।" सरोज ने बेबस भाव से कहा____"ये तो तुम भी जानते ही होंगे न कि सब तुम्हारे चरित्र के बारे में कैसी राय रखते हैं। तुम्हारे चरित्र के बारे में सोच कर ही गांव के कुछ लोग ऐसी बातें सोचेंगे और दूसरों से करेंगे भी। वो यही कहेंगे कि तुमने हमारी मदद सिर्फ इस लिए की होगी क्योंकि तुम्हारी मंशा मेरी बेटी को फ़साने की है।"
"तुम अच्छी तरह जानती हो काकी कि मेरे ज़हन में ऐसी बात दूर दूर तक नहीं है।" मैंने कहा____"मेरे चरित्र को जानने वालों को क्या ये समझ नहीं आता कि अगर मेरे मन में यही सब बातें होती तो क्या अब तक मैं तुम्हारी बेटी के साथ कुछ ग़लत न कर चुका होता?"
"मैं तो अच्छी तरह जानती हूं बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन लोगों को कैसे कोई समझा सकता है? उन्हें तो बातें बनाने के लिए मौका और मुद्दा दोनों ही मिल ही जाएगा न।"
"गांव और समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काकी।" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"तुम चाहे लाख नेक काम करो इसके बावजूद लोग तुम्हारी अच्छाई का गुड़गान नहीं करेंगे बल्कि वो सिर्फ इस बात की कोशिश में लगे रहेंगे कि तुम्हारे में बुराई क्या है और तुम्हारे बारे में बुरा कैसे कहा जाए? इस लिए अगर गांव समाज के लोगों का सोच कर चलोगी तो हमेशा दब्बू बन के ही रहोगी। जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाओगी। गांव समाज के लोग दूसरों की कमियां खोजने के लिए फुर्सत से बैठे होते हैं। उनके पास दूसरा कोई काम नहीं होता। तुम ये बताओ काकी कि गांव समाज में ऐसा कौन है जो दूध का धुला हुआ बैठा है? इस हमाम में सब नंगे ही हैं। कमियां सब में होती हैं। दब के रहने वाले लोग उनकी कमियों का किसी से ज़िक्र नहीं करते जबकि ख़ुद को अच्छा समझने वाले धूर्त किस्म के होते हैं जो सिर्फ ढिंढोरा पीटते हैं।"
"बात तो तुम्हारी ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने बेचैनी से पहलू बदला____"लेकिन इस समाज में अकेली औरत का जीना इतना आसान भी तो नहीं होता। ख़ास कर तब जब उसका मरद ईश्वर के घर पहुंच गया हो। उसे बहुत कुछ सोच समझ कर चलना पड़ता है।"
"मैं ये सब बातें जानता हूं काकी।" मैंने कहा____"लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि किसी से इतना दब के भी नहीं रहना चाहिए कि लोग उसे दबाते दबाते ज़मीन में ही गाड़ दें। अपना हर काम सही से करो और निडर हो कर करो तो कोई माई लाल कुछ नहीं उखाड़ सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं जगन काका से भी मिलना चाहता था। उनसे मिल कर परसों के कार्यक्रम के बारे में बात करनी थी।"
"जगन खाना खाने गया है।" सरोज काकी ने कहा____"आता ही होगा घर से। मुझे तो उसकी भी चिंता है कि कहीं वो इस सब से नाराज़ न हो जाए।"
"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मैं जगन काका को अच्छे से समझा दूंगा।"
मेरी बात सुन कर काकी अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी उसकी नज़र दूर से आते हुए जगन पर पड़ी। उसे देख कर सरोज काकी ने मुझे इशारा किया तो मैंने भी जगन की तरफ देखा। जगन हांथ में एक लट्ठ लिए तेज़ क़दमों से इसी तरफ चला आ रहा था। कुछ ही देर में जब वो हमारे पास आ गया तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। उसने घूर कर देखा मुझे।
"छोटे ठाकुर तुम यहाँ??" फिर उसने चौंकने वाले भाव से मुझसे कहा तो मैंने हल्की मुस्कान में कहा____"तुमसे ही मिलने आया था काका लेकिन तुम थे नहीं। काकी ने बताया कि तुम खाना खाने घर गए हुए हो तो सोचा तुम्हारे आने का इंतज़ार ही कर लेता हूं।"
"मुझसे भला क्या काम हो सकता है तुम्हें?" जगन ने घूरते हुए ही कहा मुझसे____"और ये मैं क्या देख रहा हूं छोटे ठाकुर? तुम्हारे गांव के ये दो मजदूर मेरे भाई के खेत की कटाई क्यों कर रहे हैं?"
"वो मेरे कहने से ही कर रहे हैं काका।" मैंने शांत भाव से कहा____"मुरारी काका ने मेरे लिए इतना कुछ किया था तो मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि उनके एहसानों का क़र्ज़ जितना हो सके तो चुका ही दूं। काकी ने तो इसके लिए मुझे बहुत मना किया लेकिन मैं ही नहीं माना। मैंने मुरारी काका का वास्ता दिया तब जा के काकी राज़ी हुई। तुम तो जानते हो काका कि मुरारी काका मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे इस लिए ऐसे वक़्त में भी अगर मैं उनके परिवार के लिए कुछ न करूं तो मुझसे बड़ा एहसान फरामोश दुनिया में भला कौन होगा?"
मेरी बात सुन कर जगन मेरी तरफ देखता रह गया। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरी बातों में कहीं मेरा कोई निजी स्वार्थ तो नहीं है? कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जगन काका ने कहा____"माना कि ये सब कर के तुम मेरे भाई का एहसान चुका रहे हो छोटे ठाकुर लेकिन मैं ये हरगिज़ नहीं चाह सकता कि तुम्हारी वजह से मेरे गांव के लोग मेरे घर परिवार के बारे में उल्टी सीधी बातें करने लगें।"
"गांव समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काका।" मैंने वही बात दोहराई जो इसके पहले सरोज काकी से कही थी____"समाज के लोग तो दूसरों की कमियां ही खोजते रहते हैं। तुम चाहे लाख अच्छे अच्छे काम करो मगर समाज के लोग तुम्हारे द्वारा किए गए अच्छे काम में भी बुराई ही खोजेंगे। मेरे ऊपर मुरारी काका के बड़े उपकार हैं काका। आज अगर मैं ऐसे वक़्त में उनकी मदद नहीं करुंगा तो इसी गांव समाज के लोग मेरे बारे में ये कहते फिरेंगे कि जिस मुरारी ने मुसीबत में दादा ठाकुर के लड़के की इतनी मदद की थी उसने मुरारी के गुज़र जाने के बाद उसके परिवार की तरफ पलट कर ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि वो किस हाल में हैं? जगन काका दुनिया के लोग मौका देख कर हर तरह की बातें करना जानते हैं। तुम अच्छा करोगे तब भी वो तुम्हें ग़लत ही कहेंगे और ग़लत करोगे तब तो ग़लत कहेंगे ही। हालांकि इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें इंसान की अच्छाईयां भी दिखती हैं और वो दिल से क़बूल करते हुए ये कहते हैं कि फला इंसान बहुत अच्छा है।"
"शायद तुम ठीक कह रहे हो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ये सच है कि आज का इंसान कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचता है। तुमने जो कुछ कहा वो एक कड़वा सच है लेकिन ग़रीब आदमी करे भी तो क्या? समाज के ठेकेदारों के बीच उसे दब के ही रहना पड़ता है।"
"समाज के लोगों को ठेकेदार बनाया किसने है काका?" मैंने जगन काका की तरफ देखते हुए कहा____"हमारे तुम्हारे जैसे लोगों ने ही उन्हें ठेकेदार बना रखा है। ये ठेकेदार क्या दूध के धुले हुए होते हैं जो हर किसी पर कीचड़ उछालते रहते हैं? क्या तुम नहीं जानते कि समाज के इन ठेकेदारों का दामन भी किसी न किसी चीज़ से दाग़दार हुआ पड़ा है? लोग बड़े शौक से दूसरों पर ऊँगली उठाते हैं काका लेकिन वो ये नहीं देखते कि दूसरों की तरफ उनकी एक ही ऊँगली उठी हुई होती है जबकि उनकी खुद की तरफ उनकी बाकी की चारो उंगलियां उठी हुई होती हैं। समाज के सामने उतना ही झुको काका जितने में मान सम्मान बना रहे लेकिन इतना भी न झुको कि कमर ही टूट जाए।"
जगन काका मेरी बात सुन कर कुछ न बोले। पास ही खड़ी सरोज काकी भी चुप थी। कुछ देर मैं उन दोनों की तरफ देखता रहा उसके बाद बोला____"मैं पहले भी तुमसे कह चुका हूं काका कि अब मैं पहले जैसा नहीं रहा और आज भी यही कहता हूं। मैं सच्चे दिल से मुरारी काका के लिए कुछ करना चाहता हूं। मैं हर रोज़ ये सोचता हूं कि मुरारी काका मुझे ऊपर से देखते हुए सोच रहे होंगे कि उनके जाने के बाद मैं उनके परिवार के लिए कुछ करता हूं कि नहीं? उन्होंने मेरी मदद बिना किसी स्वार्थ के की थी तो क्या मैं इतना बेगैरत और असमर्थ हूं कि उनके एहसानों का क़र्ज़ भी न चुका सकूं? तुम ही बताओ काका कि तुम मेरी जगह होते तो क्या ऐसे वक़्त में मुरारी काका के परिवार वालों से मुँह मोड़ कर चले जाते? क्या तुम एक पल के लिए भी ये न सोचते कि तुम्हारे मुसीबत के दिनों में मुरारी काका ने तुम्हारी कितनी मदद की थी?"
"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"मैं अभी तक तुम्हारे बारे में ग़लत ही सोच रहा था किन्तु तुम्हारी इन बातों से मुझे एहसास हो गया है कि तुम ग़लत नहीं हो। यकीनन तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो यही करता। मुझे ख़ुशी हुई कि तुम एक अच्छे इंसान की तरह अपना फ़र्ज़ निभा रहे हो।"
"अगर तुम सच में समझते हो काका कि मैं सच्चे दिल से अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूं।" मैंने कहा____"तो अब तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ निभाने से रोकोगे नहीं। परसों मुरारी काका की तेरहवीं है और मैं चाहता हूं कि मुरारी काका की तेरहवीं अच्छे तरीके से हो। जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो तुम मुझसे बेझिझक हो कर बोलो। वक़्त ज़्यादा नहीं है इस लिए अभी बताओ कि तेरहवीं के दिन किस किस चीज़ की ज़रूरत होगी। मैं हर ज़रूरत की चीज़ शहर से मगवा दूंगा।"
"इसकी क्या ज़रूरत है छोटे ठाकुर?" जगन ने झिझकते हुए कहा____"हम अपने हिसाब से सब कर लेंगे।"
"इसका मतलब तो यही हुआ न काका।" मैंने कहा____"कि तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ नहीं निभाने देना चाहते। मुरारी काका मेरे पिता समान थे इस नाते भी मेरा ये फ़र्ज़ बनता है कि मैं अपना फ़र्ज़ निभाने में कोई कसर न छोडूं। मुझे मुरारी काका के लिए इतना कर लेने दो काका। तुम कहो तो मैं तुम्हारे पैरों में गिर कर इस सब के लिए तुमसे भीख भी मांग लूं।"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" मैं खटिया से उठ कर खड़ा हुआ तो जगन एकदम से हड़बड़ा कर बोल पड़ा_____"ये कैसी बातें कर रहे हो तुम? तुम अगर सब कुछ अपने तरीके से ही करना चाहते हो तो ठीक है। मैं तुम्हें अब किसी भी बात के लिए मना नहीं करुंगा।"
"तो फिर चलो मेरे साथ।" मैंने कहा तो जगन ने चौंकते हुए कहा____"पर कहां चलूं छोटे ठाकुर?"
"अरे! मेरे साथ शहर चलो काका।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"परसों मुरारी काका की तेरहवीं है इस लिए आज ही शहर से सारा ज़रूरत का सामान खरीद कर ले आएंगे। उसके बाद बाकी का यहाँ देख लेंगे।"
"पर इस वक़्त कैसे?" जगन मेरी बातें सुन कर बुरी तरह हैरान था____"मेरा मतलब है कि क्या अभी हम शहर चलेंगे?"
"क्या काका।" मैंने कहा____"अभी जाने में क्या ख़राबी है? अभी तो पूरा दिन पड़ा है। हम शहर से सारा ज़रूरत का सामान ले कर शाम होने से पहले ही यहाँ आ जाएंगे।"
मेरी बात सुन कर जगन काका उलझन में पड़ गया था। हैरान तो सरोज काकी भी थी किन्तु वो ज़ाहिर नहीं कर रही थी। वो भली भाँति जानती थी कि इस मामले में मैं मानने वाला नहीं था। उधर जगन ने सरोज काकी की तरफ देखते हुए कहा____"भौजी तुम क्या कहती हो?"
"मैं क्या कहूं जगन?" सरोज काकी ने शांत भाव से कहा____"तुम्हें जो ठीक लगे करो। मुझे कोई समस्या नहीं है।"
"तो ठीक है फिर।" जगन ने जैसे फैसला करते हुए कहा____"मैं छोटे ठाकुर के साथ शहर जा रहा हूं। तेरहवीं के दिन जो जो सामान लगता हो वो सब बता दो मुझे।"
"क्या तुम्हें पता नहीं है?" सरोज काकी ने कहा____"कि तेरहवीं के दिन क्या क्या सामान लगता है?"
"थोड़ा बहुत पता तो है मुझे।" जगन ने कहा____"फिर भी अगर कुछ छूट जाए तो बता दो मुझे।"
जगन काका के कहने पर सरोज काकी सामान के बारे में सोचने लगी। इधर मैंने उन दोनों से कहा कि तुम दोनों तब तक सारे सामान के बारे में अच्छे से सोच लो तब तक मैं खाना खा के आता हूं। मेरी बात सुन कर दोनों ने हां में सिर हिला दिया। मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के सरोज काकी के घर की तरफ चल पड़ा। जगन काका से बात कर के अब मैं बेहतर महसूस कर रहा था। आख़िर जगन काका को मैंने इस सब के लिए मना ही लिया था।
जगन काका से हुई बातों के बारे में सोचते हुए मैं कुछ ही देर में मुरारी काका के घर पहुंच गया। मोटर साइकिल को मुरारी काका के घर के बाहर खड़ी कर के जैसे ही मैं नीचे उतरा तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ मुझे सुनाई दी। मैंने गर्दन मोड़ कर देखा दरवाज़े के उस पार हरे रंग का शलवार कुर्ता पहने अनुराधा खड़ी थी। सीने में उसके दुपट्टा नहीं था जिससे मुझे उसके सीने के उभार साफ़ साफ़ दिखाई दिए किन्तु मैंने जल्दी ही उसके सीने से अपनी नज़र हटा कर उसके चेहरे पर डाली तो उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान सजी दिखी मुझे। जैसे ही हम दोनों की नज़रें मिली तो वो जल्दी से पलट गई। ऐसा पहली बार ही हुआ था कि उसने अपने गले में दुपट्टा नहीं डाला था। शायद मोटर साइकिल की आवाज़ सुन कर वो जल्दी से दरवाज़ा खोलने आई थी और इस जल्दबाज़ी में वो अपने गले में दुपट्टा डालना भूल गई थी। ख़ैर उसके पलट कर चले जाने से मैं हल्के से मुस्कुराया और फिर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।
मैं अंदर आँगन में आया तो देखा उसने अपने गले में दुपट्टा डाल लिया था। मैंने मन ही मन सोचा कि इस काम में बड़ी जल्दबाज़ी दिखाई उसने। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने मुझे अपने सीने के उभारों को देखते हुए देख लिया हो और उसे अचानक से याद आया हो कि वो जल्दबाज़ी में दुपट्टा डालना भूल गई थी। मुझे मेरा ये ख़याल जायज़ लगा क्योंकि मैंने देखा था कि वो जल्दी ही पलट गई थी।
"मैं आपके ही आने का इंतज़ार कर रही थी छोटे ठाकुर।" मुझे आँगन में आया देख उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमे स्वर में कहा____"ख़ाना तो कब का बना हुआ है।"
"हां वो मैं तुम्हारे खेतों की तरफ चला गया था।" मैंने कहा____"वहां पर जगन काका से काफी देर तक बातें होती रहीं। परसों काका की तेरहवीं है न तो उसी सिलसिले में बातें हो रही थी। अभी मुझे खाना खा कर जल्दी जाना भी है। मैं जगन काका को ले कर शहर जा रहा हूं ताकि वहां से ज़रूरी सामान ला सकूं।"
"क्या काका आपकी बात मान गए?" अनुराधा ने हैरानी भरे भाव से पूछा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे हिसाब से क्या उन्हें मेरी बात नहीं माननी चाहिए थी?"
"नहीं मेरे कहने का मतलब वो नहीं था।" अनुराधा ने झेंपते हुए जल्दी से कहा____"मैंने तो ऐसा इस लिए कहा कि वो आपसे नाराज़ थे।"
"वो बेवजह ही मुझसे नाराज़ थे अनुराधा।" मैंने कहा____"और ये बात तुम भी जानती हो। ख़ैर मैंने उन्हें दुनियादारी की बातें समझाई तब जा कर उन्हें समझ आया कि मैं मुरारी काका के लिए जो कुछ भी कर रहा हूं वो सच्चे दिल से ही कर रहा हूं।"
"आप हाथ मुँह धो लीजिए।" अनुराधा ने लोटे में पानी लाते हुए कहा____"मैं आपके लिए खाना लगा देती हूं।"
"क्या तुमने भी अभी खाना नहीं खाया?" वो मेरे क़रीब आई तो मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूंछा।
"वो मैं आपके आने का इंतज़ार कर रही थी।" उसने नज़र झुका कर कहा____"इस लिए मैंने भी नहीं खाया।"
"ये तो ग़लत किया तुमने।" मैंने उसके हाथ से पानी से भरा लोटा लेते हुए कहा____"मेरी वजह से तुम्हें भूखा नहीं रहना चाहिए था। अगर मैं यहाँ खाना खाने नहीं आता तो क्या तुम ऐसे ही भूखी रहती?"
"जब ज़्यादा भूख लगती तो फिर खाना ही पड़ता मुझे।" अनुराधा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"उस सूरत में आपको बचा हुआ खाना ही खाने को मिलता।"
"तो क्या हुआ।" मैंने नर्दे के पास पानी से हाथ धोते हुए कहा____"मैं बचा हुआ भी खा लेता। आख़िर तुम्हारे हाथ का बना हुआ खाना मैं कैसे नहीं खाता?"
"अब बातें न बनाइए।" अनुराधा मुस्कुराते हुए पलट गई____"जल्दी से हाथ मुँह धो कर आइए।"
"जो हुकुम आपका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो वो कुछ न बोली, बल्कि रसोई की तरफ तेज़ी से बढ़ गई। मैं समझ सकता था कि मेरी बात सुन कर वो फिर से मुस्कुराई होगी। असल में जब वो मुस्कुराती थी तो उसके दोनों गालों पर हल्के गड्ढे पड़ जाते थे जिससे उसकी मुस्कान और भी सुन्दर लगने लगती थी।
मैं हाथ मुँह धो कर रसोई के पास बरामदे में आ गया। ज़मीन में एक चादर बिछी हुई थी और सामने लकड़ी का एक पीढ़ा रखा हुआ था। पीढ़े के बगल से लोटा गिलास में पानी रखा हुआ था। मैं आया और उसी चादर में बैठ गया। इस वक़्त मेरी धड़कनें ये सोच कर थोड़ी बढ़ गईं थी कि इस वक़्त घर में मैं और अनुराधा दोनों अकेले ही हैं। हालांकि उसका छोटा भाई अनूप भी था जो आज कहीं दिख नहीं रहा था। कुछ ही देर में अनुराधा आई और थाली को मेरे सामने लकड़ी के पीढ़े पर रख दिया। थाली में दाल चावल और पानी लगा कर हाथ से पोई हुई रोटियां रखी हुईं थी। थाली के एक कोने में कटी हुई प्याज अचार के साथ रखी हुई थी और एक तरफ हरी मिर्च। अनुराधा थाली रखने के बाद फिर से रसोई में चली गई थी और जब वो वापस आई तो उसके हाथ में एक कटोरी थी जिसमे भांटा का भरता था। भांटा का भरता देख कर मैं खुश हो गया।
"वाह! ये सबसे अच्छा काम किया तुमने।" मैंने अनुराधा की तरफ देखते हुए कहा____"भांटा का भरता बना दिया तो कसम से दिल ख़ुशी से झूम उठा है। अब एक काम और करो और वो ये कि तुम भी अपनी थाली ले कर यहीं आ जाओ। तुम्हें भूखा रहने की अब कोई ज़रूरत नहीं है।"
"आप खा लीजिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं बाद में खा लूंगी।"
"एक तो तुम मुझे छोटे ठाकुर न बोला करो।" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"जब तुम मुझे छोटे ठाकुर बोलती हो तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मैं कितना बुड्ढा हूं। क्या मैं तुम्हें बुड्ढा नज़र आता हूं? अरे अभी तो मेरी उम्र खेलने कूदने की है। तुमसे भी मैं उम्र में छोटा ही होऊंगा।"
"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा पहले तो हंसी फिर आँखें फाड़ते हुए बोली____"आप मुझसे छोटे कैसे हो सकते हैं भला?"
"क्यों नहीं हो सकता?" मैंने कहा____"असल में मेरे दाढ़ी मूंछ हैं इस लिए मैं तुमसे बड़ा दिखता हूं वरना मैं तो तुमसे तीन चार साल छोटा ही होऊंगा।"
"मुझे बेवकूफ न बनाइए।" अनुराधा ने मुझे घूरते हुए कहा____"मां बता रही थी मुझे कि जब दादा ठाकुर की दूसरी औलाद तीन साल की हो गई थी तब मैं पैदा हुई थी। इसका मतलब आप मुझसे तीन साल बड़े हैं और आप खुद को मुझसे छोटा बता रहे हैं?"
"अरे! काकी ने तुमसे झूठ कह दिया होगा।" मैंने रोटी का निवाला मुँह में डालने के बाद कहा____"ख़ैर जो भी हो लेकिन अब से तुम मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहोगी और ये तुम्हें मानना ही होगा।"
"तो फिर मैं क्या कहूंगी आपको?" अनुराधा ने उलझन पूर्ण भाव से कहा तो मैंने कहा____"हम दोनों की उम्र में थोड़ा ही अंतर है तो तुम मेरा नाम भी ले सकती हो।"
"हाय राम!" अनुराधा ने चौंकते हुए कहा____"मैं भला आपका नाम कैसे ले सकती हूं? मेरे बाबू भी तो आपका नाम नहीं लेते थे तो फिर मैं कैसे ले सकती हूं। ना ना छोटे ठाकुर। मैं आपका नाम नहीं ले सकती। माँ को पता चल गया तो वो मुझे बहुत मारेगी।"
"काकी कुछ नहीं कहेगी तुम्हें।" मैंने कहा____"मैं काकी से कह दूंगा कि मैंने ही तुम्हें मेरा नाम लेने के लिए कहा है। चलो अब मेरा नाम ले कर मुझे पुकारो एक बार। मैं भी तो सुनूं कि तुम्हारे मुख से मेरा नाम कैसा लगता है?"
"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" अनुराधा बुरी तरह हड़बड़ा गई____"मैं आपका नाम नहीं ले सकती।"
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" मैंने कहा____"तो अब से मैं भी तुम्हें छोटी ठकुराइन कहा करुंगा।"
"छोटी ठकुराइन???" अनुराधा बुरी तरह चौंकी____"ये क्या कह रहे हैं आप?"
"सही तो कह रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ठाकुर तो तुम भी हो। काकी बड़ी ठकुराइन हो गई और तुम छोटी ठकुराईन।"
"ऐसे थोड़ी न होता है।" अनुराधा ने अपने हाथ को झटकते हुए कहा____"वो तो बड़े लोगों को ऐसा कहते हैं। हम तो ग़रीब लोग हैं।"
"इंसान छोटा बड़ा रुपए पैसे या ज़्यादा ज़मीन जायदाद होने से नहीं होता अनुराधा।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"बल्कि छोटा बड़ा दिल से होता है। जिसका दिल जितना अच्छा होता है वो उतना ही महान और बड़ा होता है। इन चार महीनों में इतना तो मैं देख ही चुका हूं कि तुम सबका दिल कितना बड़ा है और अच्छा भी है। इस लिए मेरी नज़र में तुम सब महान और बड़े लोग हो। ऐसे में अगर मैं तुम्हें ठकुराइन कहूंगा तो हर्गिज़ ग़लत नहीं होगा।"
"आप घुमावदार बातें कर के मुझे उलझा रहे हैं छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं तो इतना जानती हूं कि आज के ज़माने में दिल बड़ा होने से कुछ नहीं होता बल्कि जिसके पास आपके जैसा रुतबा और धन दौलत हो वही बड़ा आदमी होता है।"
"आज के ज़माने की सच्चाई भले ही यही हो।" मैंने कहा____"लेकिन असल सच्चाई वही है जिसके बारे में अभी मैं तुम्हें बता चुका हूं। हम ऐसे बड़े लोग हैं जो किसी की ज़रा सी बुरी बात भी बरदास्त नहीं कर सकते जबकि तुम लोग ऐसे बड़े लोग हो जो बड़ी से बड़ी बुरी बात भी बरदास्त कर लेते हो। तो अब तुम ही बताओ अनुराधा कि हम में से बड़ा कौन हुआ? बड़ा वही हुआ न जिसमें हर तरह की बात को सहन कर लेने की क्षमता होती है? रूपया पैसा धन दौलत ऐसी चीज़े हैं जिनके असर से इंसान घमंडी हो जाता है और वो इंसान को इंसान नहीं समझता जबकि जिसके पास इस तरह की दौलत नहीं होती वो कम से कम इंसान को इंसान तो समझता है। आज के युग में जो कोई इंसान को इंसान समझे वही बड़ा और महान है।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा इस बार कुछ न बोली। शायद इस बार उसे मेरी बात काटने के लिए कोई जवाब ही नहीं सूझा था। वैसे मैंने बात ग़लत नहीं कही थी, हक़ीक़त तो वास्तव में यही है। ख़ैर अनुराधा जब एकटक मेरी तरफ देखती ही रही तो मैंने बात बदलते हुए कहा____"तो ठकुराइन जी, आप अपनी भी थाली ले आइए और मुझ छोटे आदमी के साथ बैठ कर खाना खाइए ताकि मुझे भी थोड़ा अच्छा महसूस हो।"
"आप ऐसे बात करेंगे तो मैं आपसे बात नहीं करुंगी।" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"मुझे आपकी ऐसी बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी।"
"तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर न कहो।" मैंने कहा____"मुझे भी तुम्हारे मुख से अपने लिए छोटे ठाकुर सुनना अच्छा नहीं लगता और अब अगर तुमने दुबारा मुझे छोटे ठाकुर कहा तो मैं ये खाना छोड़ कर चला जाऊंगा यहाँ से।"
"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा के माथे पर शिकन उभर आई____"भगवान के लिए ऐसी ज़िद मत कीजिए।"
"तुम भी तो ज़िद ही कर रही हो।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तुम्हें अपना तो ख़याल है लेकिन मेरा कोई ख़याल ही नहीं है। ये कहां का इन्साफ हुआ भला?"
अनुराधा मेरी बात सुन कर बेबस भाव से देखने लगी थी मुझे। उसके चेहरे पर बेचैनी के भाव गर्दिश करते हुए नज़र आ रहे थे। इस वक़्त जिस तरह के भाव उसके चेहरे पर उभर आये थे उससे वो बहुत ही मासूम दिखने लगी थी और मैं ये सोचने लगा था कि कहीं मैंने उस पर कोई ज़्यादती तो नहीं कर दी?
"क्या हुआ?" फिर मैंने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देखे जा रही हो मुझे?"
"आप ऐसा क्यों चाहते हैं?" अनुराधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं आपका नाम लूं?"
"अगर सच सुनना चाहती हो तो सुनो।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"तुम एक ऐसी लड़की हो जिसने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि ऐसा कैसे हुआ है लेकिन इतना ज़रूर समझ गया हूं कि ऐसा तुम्हारी वजह से ही हुआ है और मेरा यकीन करो अपनी फितरत बदल जाने का मुझे कोई रंज़ नहीं है। बल्कि एक अलग ही तरह का एहसास होने लगा है जिसकी वजह से मुझे ख़ुशी भी महसूस होती है। इस लिए मैं चाहता हूं कि मेरी फितरत को बदल देने वाली लड़की मुझे छोटे ठाकुर न कहे बल्कि मेरा नाम ले। ताकि छोटे ठाकुर के नाम का प्रभाव मुझ पर फिर से न पड़े।"
मेरी बातें सुन कर अनुराधा आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगी थी। हालांकि मैंने उससे जो भी कहा था वो एक सच ही था। इन चार महीनो में यकीनन मेरी फितरत कुछ हद तक बदल ही गई थी वरना चार महीने पहले मैं घंटा किसी के बारे में ऐसा नहीं सोचता था।
"चार महीने पहले मैं एक ऐसा इंसान था अनुराधा।" उसे कुछ न बोलते देख मैंने कहा____"जो किसी के भी बारे में ऐसे ख़्याल नहीं रखता था बल्कि ये कहूं तो ज़्यादा बेहतर होगा कि अपनी ख़ुशी के लिए मैं जब चाहे किसी के भी साथ ग़लत कर बैठता था लेकिन जब से यहाँ आया हूं और इस घर से जुड़ा हूं तो मेरी फितरत बदल गई है और मेरी फितरत को बदल देने में तुम्हारा सबसे बड़ा योगदान है।"
"पर मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया।" अनुराधा ने बड़ी मासूमियत से कहा।
"कभी कभी ऐसा भी होता है अनुराधा कि किसी के कुछ न करने से भी बहुत कुछ हो जाता है।" मैंने कहा____"तुम समझती हो कि तुमने कुछ नहीं किया और ये बात वाकई में सच है मगर एक सच ये भी है कि तुम्हारे कुछ न करने से ही मेरी फितरत बदल गई है। तुम्हारी सादगी ने और तुम्हारे चरित्र ने मुझे बदल दिया है। शुरू में जब तुम्हें देखा था तो मेरे ज़हन में बस यही ख़्याल आया था कि तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह एक दिन अपने जाल में फांस लूंगा मगर तुम भी इस बात की गवाह हो कि मैंने तुम्हारे साथ कभी कुछ ग़लत करने का नहीं सोचा। असल में मैं तुम्हारे साथ कुछ ग़लत कर ही नहीं पाया। मेरे ज़मीर ने तुम्हारे साथ कुछ ग़लत करने ही नहीं दिया। मैंने इस बारे में बहुत सोचा और तब मुझे एहसास हुआ कि ऐसा क्यों हुआ? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं खुश हूं कि तुमने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं इस बात से भी खुश हूं कि तुम्हारी ही वजह से मैंने दूसरी चीज़ों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। मेरी नज़र में तुम्हारा स्थान बहुत बड़ा है अनुराधा और इसी लिए मैं चाहता हूं कि तुम मेरा नाम लो।"
"आप कुछ और लेंगे?" अनुराधा ने मेरी बात का जवाब दिए बिना पूछा____"भांटा का भरता और ले आऊं आपके लिए?"
"इतना काफी है।" मैंने कहा____"वैसे मुझे ख़ुशी होती अगर तुम भी मेरे पास ही बैठ कर खाना खाती।"
"वो मुझे आपके सामने।" अनुराधा ने नज़रें झुका कर कहा____"ख़ाना खाने में शर्म आएगी इस लिए पहले आप खा लीजिए, मैं बाद में खा लूंगी।"
"ख़ाना खाने में कैसी शर्म?" मैंने हैरानी से कहा____"मैं भी तो तुम्हारे सामने ही खा रहा हूं। मुझे तो शर्म नहीं आ रही बल्कि तुम सामने बैठी हो तो मुझे अच्छा ही लग रहा है।"
"आपकी बात अलग है।" अनुराधा ने लजाते हुए कहा____"आप एक लड़का हैं और मैं एक लड़की हूं।"
"ये तो कोई बात नहीं हुई।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हें मुझसे इतना शर्माने की कोई ज़रूरत नहीं है। ख़ैर अभी तो मुझे जल्दी जाना है इस लिए तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा लेकिन अगली बार अगर तुम ऐसे शरमाओगी तो सोच लेना फिर।"
"क्या मतलब???" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंक गई।
"अरे! डरो नहीं।" मैंने हंसते हुए कहा____"मैं तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा नहीं करुंगा बल्कि काकी से तुम्हारी शिकायत करुंगा कि तुम मुझसे शर्माती बहुत हो।"
मेरी बात सुन कर अनुराधा मुस्कुरा कर रह गई। ख़ैर मैंने खाना ख़त्म किया और थाली में ही हाथ मुँह धो कर उठ गया। मेरे उठ जाने के बाद अनुराधा ने मेरी थाली को उठाया और एक तरफ रख दिया। मैं जानता था कि जब तक मैं यहाँ रहूंगा अनुराधा की साँसें उसके हलक में अटकी हुई रहेंगी जो की स्वाभाविक बात ही थी। मुझे जगन काका को ले कर शहर भी जाना था इस लिए मैं अनुराधा से बाद में आने का कह कर घर से बाहर निकल गया। अनुराधा से आज काफी बातें की थी मैंने और मुझे उससे बातें करने में अच्छा भी लगा था।
मोटर साइकिल को चालू कर के मैं वापस मुरारी काका के खेतों की तरफ चल दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। जगन, सरोज काकी के पास ही खड़ा हुआ था। उसने दूसरे कपड़े पहन रखे थे। शायद वो मेरे जाने के बाद फिर से घर गया था।
"अच्छे से खा लिया है न बेटा?" मैं जैसे ही खटिया में बैठा तो सरोज काकी ने मुझसे पूछा____"अनु ने खाना ठीक से दिया है कि नहीं?"
"हां काकी।" मैंने कहा____"मेरी वजह से वो भी भूखी ही बैठी थी। मैंने उससे कहा भी कि खाना खा लो लेकिन वो कहने लगी कि मेरे बाद खाएगी।"
"वो ऐसी ही है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"शर्मीली बहुत है वो।"
"काका सारे सामान के बारे में सोच लिया है न तुमने?" मैंने जगन की तरफ देखते हुए कहा____"अगर सोच लिया है तो फिर हमें जल्द ही शहर चलना चाहिए। क्योंकि वक़्त से हमें लौटना भी होगा और बाकी के काम भी करने होंगे।"
"मैंने भौजी से पूछ कर सारे सामान के बारे में याद कर लिया है।" जगन काका ने कहा____"तुम्हारे जाने के बाद मैं भी घर गया था। वो क्या है न कि तुम्हारे साथ शहर जाऊंगा तो कपड़े भी तो ठीक ठाक होने चाहिए थे न।"
"तो चलो फिर।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और हां काका। खेतों की कटाई और गहाई की चिंता मत करना। ये दोनों मजदूर सब कर देंगे।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा छोटे ठाकुर।" जगन के चेहरे पर ख़ुशी की चमक नज़र आई____"चलो चलते हैं।"
मैंने मोटर साइकिल चालू किया तो जगन मेरे पीछे बैठ गया। उसके बैठते ही मैंने मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया। रास्ते में मैं और जगन काका दुनिया भर की बातें करते हुए शहर पहुंच गए। शहर में हमने अलग अलग दुकानों में जा जा कर सारा सामान ख़रीदा। सारे सामान का पैसा ज़ाहिर है कि मैंने ही दिया उसके बाद हम वापस गांव की तरफ चल पड़े। शाम होने से पहले ही हम गांव पहुंच गए। मैंने मोटर साइकिल सीधा मुरारी काका के घर के सामने ही खड़ी की। जगन काका के दोनों हाथों में सामान था जो कि बड़े बड़े थैलों में था। घर के अंदर आ कर मैं आँगन में ही एक खटिया पर बैठ गया, जबकि जगन काका सारा सामान सरोज काकी के कमरे में रख आए।
सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
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हवेली के अन्दर बहुत बड़ी साज़िश रची जा रही है वैभव ही नहीं बल्कि उसका पुरा परिवार ही किसी के षड्यंत्र के शिकार होते दिख रहे हैं ।☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 27
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अब तक,,,,,,
सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
अब आगे,,,,,,
सूरज अस्त हो चुका था और शाम का धुंधलका छाने लगा था। वातावरण में मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ गूँज रही थी और मैं अपनी ही धुन में आगे बढ़ा चला जा रहा था कि तभी मुझे अपने दाएं तरफ सड़क के किनारे खेतों में उगी गेहू की फसल में कुछ हलचल सी महसूस हुई। जैसा कि मैंने बताया शाम का धुंधलका छाने लगा था इस लिए मुझे कुछ ख़ास दिखाई नहीं दिया। हालांकि मैंने ज़्यादा ध्यान भी नहीं दिया और आगे बढ़ता ही रहा। तभी हलचल फिर से हुई और इस बार ये हलचल सड़क के दोनों तरफ हुई थी। ये मेरा वहम नहीं था। मेरे ज़हन में बिजली की तरह ये ख़याल आया कि कुछ तो गड़बड़ ज़रूर है। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार और तेज़ कर दी।
मोटर साइकिल की रफ़्तार तेज़ हुई तो सड़क के दोनों तरफ बड़ी तेज़ी से हलचल शुरू हो गई। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता मेरे सामने से एक मोटी रस्सी बड़ी ही तेज़ी से मेरी तरफ आई। ऐन वक़्त पर मैंने अपने सिर को तेज़ी से झुका लिया जिससे वो रस्सी मेरे सिर के बालों को छूती हुई पीछे निकल गई। एक पल के लिए तो मेरी रूह तक कांप गई कि ये अचानक से क्या हो गया था। ज़ाहिर था कि सड़क के दोनों तरफ कोई था जो मोटी रस्सी को हाथ में पकडे हुए था और जैसे ही मैं उस रस्सी की ज़द में आया तो दोनों तरफ से रस्सी को उठा लिया गया था। ये तो मेरी किस्मत थी कि सही समय पर मुझे वो रस्सी नज़र आ गई और मैंने ऐन वक़्त पर अपने सिर को बड़ी तेज़ी से झुका लिया था वरना उस रस्सी में फंस कर मैं मोटर साइकिल से निश्चित ही नीचे गिर जाता।
मैंने पीछे पलट कर देखने की ज़रा सी भी कोशिश नहीं की बल्कि मोटर साइकिल को और भी तेज़ी से दौड़ाता हुआ गांव की तरफ निकल गया। इतना तो मैं समझ चुका था कि गांव से दूर इस एकांत जगह पर कोई मेरे आने का पहले से ही इंतज़ार कर रहा था। कदाचित उसका मकसद यही था कि वो इस एकांत में मुझे इस तरह से गिराएगा और फिर मेरे साथ कुछ भी कर गुज़रेगा। मेरे ज़हन में उस दिन शाम का वो वाक्या उजागर हो गया था जब वो दो साए एकदम से प्रगट हो गए थे और मुझ पर हमला कर दिए थे। मेरा दिल बड़ी तेज़ी से ये सोच सोच कर धड़के जा रहा था कि इस वक़्त मैं बाल बाल बचा था वरना आज ज़रूर मैं एक गंभीर संकट में फंस जाने वाला था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर कौन हो सकता है ऐसा जो मुझे इस तरह से नुकसान पहुंचा सकता है? मेरे ज़हन में रूपचन्द्र का ख़याल आया कि क्या वो इस तरह से मुझे नुकसान पंहुचा सकता है या फिर साहूकारों में से कोई ऐसा है जो मेरी जान का दुश्मन बना बैठा है?
यही सब सोचते हुए मैं हवेली में पहुंच गया। मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य दरवाज़े से होते हुए अंदर आया तो बैठक में मुझे पिता जी नज़र आए। इस वक़्त वो अकेले ही थे और अपने हाथ में लिए हुए मोटी सी किताब में कुछ पढ़ रहे थे। मेरे ज़हन में ख़याल आया कि क्या मुझे पिता जी से इस सबके बारे में बात करनी चाहिए? मेरे दिल ने कहा कि बेशक बात करनी चाहिए और हो सकता है कि इससे कुछ और भी बातें खुल जाएं। ये सोच कर मैं उनकी तरफ बढ़ा तो उन्हें मेरे आने की आहट हुई जिससे उन्होंने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।
"क्या बात है?" मुझे अपने क़रीब आया देख उन्होंने किताब को बंद करते हुए कहा____"सब ठीक तो है न?"
"मुझे लगता है कि सब ठीक नहीं है पिता जी।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"अचानक से कुछ ऐसी चीज़ें होने लगी हैं जिनकी मुझे बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी।"
"हमारे कमरे में चलो।" पिता जी अपने सिंघासन से उठते हुए बोले____"वहीं पर तफ़सील से सारी बातें होंगी।"
"जी बेहतर।" मैंने अदब से कहा और उनके पीछे पीछे चल दिया। कुछ ही देर में मैं उनके साथ उनके कमरे में आ गया। पिता जी का कमरा बाकी कमरों से ज़्यादा बड़ा था और भव्य भी था।
"बैठो।" अपने बिस्तर पर बैठने के बाद उन्होंने मुझे एक कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।
"अब बताओ।" मेरे बैठते ही उन्होंने मुझसे कहा_____"किस बारे में बात कर रहे थे तुम?"
"पिछले कुछ दिनों से।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"मेरे साथ कुछ अजीब सी घटनाएं हो रही हैं पिता जी।"
मैंने पिता जी को साए वाली सारी बातें बता दी कि कैसे एक दिन शाम को मुझे एक साया नज़र आया और उसने मुझसे बात की उसके बाद फिर दो साए और आए और उन्होंने मुझ पर हमला किया जिसमे पहले वाले साए ने उनसे भिड़ कर मुझे बचाया। मैंने पिता जी को वो वाक्या भी बताया जो अभी रास्ते में हुआ था। सारी बातें सुनने के बाद पिता जी के चेहरे पर गंभीरता छा गई। कुछ देर वो जाने क्या सोचते रहे फिर गहरी सांस लेते हुए बोले____"हमने पहले भी तुम्हें इसके लिए आगाह किया था कि आज कल वक़्त और हालात ठीक नहीं चल रहे हैं। ऐसे में तुम्हें बहुत ही ज़्यादा सम्हल कर चलने की ज़रूरत है।"
"हम कितना भी सम्हल कर चलें पिता जी।" मैंने पहलू बदलते हुए कहा____"लेकिन छिप कर हमला करने वालों का कोई क्या कर लेगा? मैं ये जानना चाहता हूं कि इस तरह का वाक्या सिर्फ मेरे साथ ही हो रहा है या हवेली के किसी और सदस्य के साथ भी ऐसा हो रहा है? अगर ये सिर्फ मेरे साथ ही हो रहा है तो ज़ाहिर है कि जो कोई भी ये कर रहा है या करवा रहा है वो सिर्फ मुझे ही अपना दुश्मन समझता है।"
"इस तरह का वाक्या अभी फिलहाल तुम्हारे साथ ही हो रहा है।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"किसी और के साथ यदि ऐसा हो रहा होता तो इस बारे में हमें ज़रूर पता चलता। जैसे अभी तुमने हमें अपने साथ हुए इस मामले के बारे में बताया वैसे ही हवेली के वो लोग भी बताते जिनके साथ ऐसा हुआ होता। जिस तरह के हालात बने हुए हैं उससे हमें शुरू से ही ये आभास हो रहा था कि जो कोई भी ये कर रहा है वो तुम्हें ही सबसे पहले अपना मोहरा बनाएगा। इस लिए हमने गुप्त रूप से तुम्हारी सुरक्षा के लिए एक ऐसे आदमी को लगा दिया था जो तुम्हारे आस पास ही रहे और तुम्हारी रक्षा करे। तुम जिस पहले वाले साए की बात कर रहे हो उसे हमने ही तुम्हारी सुरक्षा के लिए लगा रखा है। उसके बारे में हमारे सिवा दूसरा कोई नहीं जानता है और हां तुम भी उससे कोई बात नहीं करोगे और ना ही किसी से उसके बारे में ज़िक्र करोगे।"
"तो क्या वो हर पल मेरे आस पास ही रहता है?" मैं ये जान कर मन ही मन हैरान हुआ था कि पहला वाला साया पिता जी का आदमी था। मेरी बात सुन कर पिता जी ने कहा____"वो उसी वक़्त तुम्हारे आस पास रहेगा जब तुम हवेली से बाहर निकलोगे। उसका काम सिर्फ इतना ही है कि जैसे ही तुम हवेली से बाहर निकलो तो वो तुम्हारी सुरक्षा के लिए तुम्हारे पीछे साए की तरह लग जाए, किन्तु इस तरीके से कि तुम्हें या किसी और को उसके बारे में भनक भी न लग सके।"
"तो क्या दिन में भी वो मेरे आस पास रहता है?" मैंने कुछ सोचते हुए पूछा तो पिता जी ने कहा____"नहीं, दिन में नहीं रहता। दिन में तुम्हारी सुरक्षा के लिए हमने दूसरे लोग लगा रखे हैं जो अपना चेहरा छुपा कर नहीं रखते।"
"क्या अभी तक ये पता नहीं चला कि हमारे साथ ये सब कौन कर रहा है?" मैंने पिता जी की तरफ देखते हुए पूछा।
"ये इतना आसान नहीं है बरखुर्दार।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा_____"गुज़रते वक़्त के साथ साथ हमें भी ये समझ आ गया है कि जो कोई भी ये सब कर रहा है वो बहुत ही शातिर है। वो ऐसा कोई भी काम नहीं करता है जिसकी वजह से उसकी ज़रा सी भी ग़लती हमारी पकड़ में या हमारी नज़र में आ जाए। यही वजह है कि अभी तक हम कुछ पता नहीं कर पाए और ना ही इस मामले में कुछ कर पाए।"
"साहूकारों के बारे में आपका क्या ख़याल है?" मैंने धड़कते हुए दिल से कहा____"उन्होंने हमसे अपने रिश्ते सुधार लिए हैं। ज़ाहिर है कि अब उनका आना जाना हवेली में लगा ही रहेगा। आपको क्या लगता है...क्या उन्होंने अपने किसी मकसद के लिए हमसे अपने सम्बन्ध सुधारे होंगे या फिर सच में वो सुधर गए हैं?"
"तुम्हारे मन में उन लोगों के प्रति ये जो सवाल उभरा है।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"यही सवाल गांव के लगभग हर आदमी के मन में उभरा होगा। साहूकारों ने हमसे अपने रिश्ते सुधार लिए ये कोई साधारण बात नहीं है। आज कल हर आदमी के मन में यही सवाल उभरा हुआ होगा कि क्या सच में शाहूकार लोग सुधर गए हैं और उनके मन में अब हमारे प्रति कोई बैर भाव नहीं है? इन सभी सवालों के जवाब तो हमें तभी मिलेंगे जब उनकी तरफ से कुछ ऐसा होता हुआ दिखेगा जो कि उनकी मंशा को स्पष्ट रूप से ज़ाहिर कर दे। जब तक वो शरीफ बने रहेंगे तब तक हम कुछ भी नहीं कह सकते कि उनके मन में क्या है लेकिन हां इतना ज़रूर कर सकते हैं कि उनकी तरफ से बढ़ने वाले किसी भी क़दम के लिए हम पहले से ही पूरी तरह से तैयार और सतर्क रहें।"
"मुरारी काका के हत्यारे के बारे में क्या कुछ पता चला?" मेरे पूछने पर पिता जी ने कुछ देर तक मेरी तरफ देखा फिर शांत भाव से बोले____"हमने दरोग़ा को बुलाया था और अकेले में उससे इस बारे में पूछा भी था लेकिन उसने यही कहा कि उसके हाथ अभी तक कोई सुराग़ नहीं लगा है। उसका कहना है कि अगर हमने उसे मौका-ए-वारदात पर आने दिया होता और घटना स्थल की जांच करने दी होती तो शायद उसे कोई न कोई ऐसा सुराग़ ज़रूर मिल जाता जिससे उसे मुरारी की हत्या के मामले में आगे बढ़ने के लिए कुछ मदद मिल जाती।"
"तो क्या अब ये समझा जाए कि मुरारी काका के हत्यारे का पता लगना नामुमकिन है?" मैंने कहा____"ज़ाहिर है कि जैसे जैसे दिन गुज़रते जाएंगे वैसे वैसे ये मामला और भी ढीला होता जाएगा। उस सूरत में हत्या से सम्बंधित कोई भी सुराग़ मिलना संभव तो हो ही नहीं सकेगा।"
"मुरारी के हत्यारे का पता एक दिन तो ज़रूर चलेगा।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"देर से ही सही लेकिन हत्यारा हमारी नज़र में ज़रूर आएगा। क्योंकि हमें अंदेशा ही नहीं बल्कि यकीन भी है कि मुरारी की हत्या बेवजह नहीं हुई थी। उसकी हत्या किसी ख़ास मकसद के तहत की गई थी। मुरारी की हत्या में तुम्हें फंसाना ही हत्यारे का मकसद था लेकिन वो उस मकसद में कामयाब नहीं हुआ। शायद यही वजह है कि अब वो तुम्हारे साथ ये सब कर रहा है। उसे ये समझ आ गया है कि किसी की हत्या में तुम्हें फंसाने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा इस लिए अब वो सीधे तौर पर तुम्हें नुकसान पहुंचाना चाहता है।"
"बड़े भैया के बारे में कुल गुरु ने जो कुछ कहा।" मैंने धड़कते दिल से पिता जी की तरफ देखते हुए कहा_____"वो सब आपने बाकी लोगों को क्यों नहीं बताया?"
"क्या मतलब???" पिता जी मेरे मुँह से ये बात सुन कर बुरी तरह चौंके थे____"हमारा मतलब है कि ये क्या कह रहे हो तुम?"
"इस बारे में मुझे सब पता है पिता जी।" मैंने संजीदा भाव से कहा____"और मैं ये जानना चाहता हूं कि उनके बारे में जो कुछ भी कुल गुरु ने कहा क्या वो सच है? क्या सच में बड़े भैया का जीवन काल...??"
"ख़ामोश।" पिता जी एकदम से बोल पड़े____"ये सब रागिनी बहू ने बताया है न तुम्हें?"
"क्या फ़र्क पड़ता है पिता जी?" मैंने कहा____"सच जैसा भी हो वो कहीं न कहीं से सामने आ ही जाता है। आपको पता है बड़े भैया को भी अपने बारे में ये सब बातें पता है।"
"क्या????" पिता जी एक बार फिर चौंके____"उसे कैसे पता चली ये बात? हमने रागिनी को शख़्ती से मना किया था कि वो इस बात को राज़ ही रखे।"
"आख़िर क्यों पिता जी?" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में ये सब बातें राज़ क्यों रख रहे हैं आप?"
"ये जानना तुम्हारे लिए ज़रूरी नहीं है।" पिता जी ने कठोर भाव से कहा____"अब तुम जा सकते हो।"
"मैं अपने जीते जी बड़े भैया को कुछ नहीं होने दूंगा।" मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा____"और जिस कुल गुरु ने मेरे बड़े भैया के बारे में ऐसी घटिया भविष्यवाणी की है उसका खून कर दूंगा मैं।"
"अपनी हद में रहो लड़के।" पिता जी एकदम से गुस्से में बोले____"गुरु जी के बारे में ऐसा बोलने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?"
"कोई मेरे भाई के बारे में ऐसी बकवास भविष्यवाणी करे।" मैंने भी शख़्त भाव से कहा____"तो क्या मैं उसकी आरती उतारूंगा? वैभव सिंह ऐसे गुरु की गर्दन उड़ा देना ज़्यादा पसंद करेगा।"
इससे पहले कि पिता जी कुछ बोलते मैं एक झटके से कमरे से बाहर आ गया। मेरे अंदर एकदम से गुस्सा भर गया था जिसे मैं शांत करने की कोशिश करते हुए अंदर बरामदे में आया। मेरी नज़र एक तरफ कुर्सी में बैठी माँ पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ कह रहीं थी। मैं सीधा आँगन से होते हुए दूसरी तरफ आया। इस तरफ विभोर और अजीत कुर्सी में बैठे हुए थे और एक कुर्सी पर चाची बैठी हुईं थी। मुझे देखते ही विभोर और अजीत कुर्सी से उठ कर खड़े हो गए। मैंने चाची को प्रणाम किया और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
मैं तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर आया तो एकदम से किसी से टकरा गया किन्तु जल्दी ही सम्हला और अभी खड़ा ही हुआ था कि मेरी नज़र भाभी पर पड़ी। मुझसे टकरा जाने से वो भी पीछे की तरफ झोंक में चली गईं थी और पीछे मौजूद दीवार पर जा लगीं थी।
"माफ़ करना भाभी।" मैं बौखलाए हुए भाव से बोल पड़ा____"मैंने जल्दी में आपको देखा ही नहीं।"
"तुम जब देखो आंधी तूफ़ान ही बने रहते हो?" भाभी ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा____"कहां जाने की इतनी जल्दी रहती है तुम्हें?"
"ग़लती हो गई भाभी।" मैंने मासूम सी शक्ल बनाते हुए कहा____"अब माफ़ भी कर दीजिए न।"
"हां हां ठीक है, जाओ माफ़ किया।" भाभी ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"तुम भी क्या याद रखोगे कि किस दिलदारनी से पाला पड़ा था।"
"भैया कहा हैं भाभी?" मैंने भाभी की बात पर ध्यान न देते हुए पूछा तो उन्होंने कमरे की तरफ इशारा करते हुए कहा____"तुम्हारे भैया जी कमरे में आराम फरमा रहे हैं।"
मैं भाभी की बात सुन कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला और वो नीचे चली गईं। कुछ ही पलों में मैं भैया के कमरे का दरवाज़ा खटखटाते हुए उन्हें आवाज़ दे रहा था। थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला और भैया नज़र आए मुझे।
"तू यहाँ???" मुझे देखते ही बड़े भैया ने शख़्त भाव से कहा तो मैंने हैरानी से देखते हुए उनसे कहा____"हां भैया, मैं आपसे मिलने आया हूं।"
"पर मुझे तुझसे कोई बात नहीं करनी।" भैया ने गुस्से वाले अंदाज़ में कहा_____"अब इससे पहले कि मेरा हांथ उठ जाए चला जा यहाँ से।"
"ये आप क्या कह रहे हैं भैया?" मारे आश्चर्य के मेरा बुरा हाल हो गया। मुझे समझ में नहीं आया कि भैया को अचानक से क्या हो गया है और वो इतने गुस्से में क्यों हैं? कल तक तो वो मुझसे बहुत ही अच्छे से बात कर रहे थे लेकिन इस वक़्त उनका बर्ताव ऐसा क्यों है? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि उन्होंने मुझे धक्का देते हुए गुस्से में कहा____"तुझे एक बार में बात समझ में नहीं आती क्या? दूर हो जा मेरी नज़रों के सामने से वरना तेरे लिए अच्छा नहीं होगा।"
"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं?" मैंने फटी फटी आँखों से उन्हें देखते हुए कहा_____"क्या हो गया है आपको?"
"चटाक्क्।" मेरे बाएं गाल पर उनका ज़ोरदार थप्पड़ पड़ा जिससे कुछ पलों के लिए मेरे कान ही झनझना गए, जबकि उन्होंने गुस्से में कहा_____"मैंने कह दिया न कि मुझे तुझसे कोई बात नहीं करना। अब जा वरना तेरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े कर दूंगा।"
कहने के साथ ही भैया ने मुझे ज़ोर का धक्का दिया और फिर पलट कर कमरे के अंदर दाखिल हो कर तेज़ी से दरवाज़ा बंद कर लिया। मैं भौचक्का सा बंद हो चुके दरवाज़े की तरफ देखता रह गया था। मेरा ज़हन जैसे कुंद सा पड़ गया था। मेरी आँखें जैसे इस सबको देखने के बाद भी यकीन नहीं कर पा रहीं थी। कुछ पलों बाद जब मेरे ज़हन ने काम किया तो मैं पलटा और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।
कमरे में आ कर मैं पलंग पर लेट गया और अभी जो कुछ भी हुआ था उसके बारे में सोचने लगा। मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि भैया मुझसे गुस्सा थे और उस गुस्से में उन्होंने मुझे थप्पड़ मार दिया है। मेरे ज़हन में एक ही पल में न जाने कितने ही सवाल मानो तांडव सा करने लगे। आख़िर क्या हो गया था बड़े भैया को? वो इतने गुस्से में क्यों थे? क्या भाभी की वजह से वो पहले से ही गुस्से में थे? कल ही की तो बात है वो मुझसे कितना स्नेह और प्यार से बातें कर रहे थे और अपने साथ मुझे भांग वाला शरबत पिला रहे थे। मुझे अपने सीने से भी लगाया था उन्होंने। उस वक़्त मैंने देखा था कि वो कितना खुश थे लेकिन अभी जो कुछ मैंने देखा सुना और जो कुछ हुआ वो सब क्या था? सोचते सोचते मेरे दिमाग़ की नसें तक दर्द करने लगीं मगर कुछ समझ न आया मुझे। फिर ये सोच कर मैंने इन सब बातों को अपने ज़हन से निकालने का सोचा कि भाभी से इस बारे में पूछूंगा।
रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैं चुप चाप खाना खाने चला गया। इस दौरान भी मेरे ज़हन में बड़े भैया ही रहे। हम सबके बीच एक कुर्सी पर वो भी खाना खा रहे थे और मैं बार बार उनकी तरफ देखने लगता था। वो हमेशा की तरह ख़ामोशी से खाना खा रहे थे और मैं उनके चेहरे के भावों को समझने की कोशिश कर रहा था किन्तु इस वक़्त उनके चेहरे पर ऐसे कोई भी भाव नहीं थे जिससे मैं किसी बात का अंदाज़ा लगा सकता। ख़ैर खाना खाने के बाद सब लोग अपने अपने कमरे में चले गए और मैं ये सोचने लगा कि भाभी से अगर अकेले में मुलाक़ात हो जाए तो मैं उनसे बड़े भैया के इस बर्ताव के बारे में कुछ पूछ सकूं लेकिन दुर्भाग्य से मुझे ऐसा मौका मिला ही नहीं और मजबूरन मुझे अपने कमरे में चले जाना पड़ा।
अपने कमरे में पलंग पर लेटा मैं काफी देर तक सोचता रहा और फिर न जाने कब मेरी आँख लग गई। पता नहीं मुझे सोए हुए कितना वक़्त गुज़रा था लेकिन इस वक़्त मेरी पलकों के तले एक ख़्वाब चल रहा था। वो ख़्वाब ठीक वैसा ही था जैसा उस रात मुंशी चंद्रकांत के घर सोते समय मैंने देखा था। मैं किसी वीराने में अकेला पड़ा हुआ था। मेरे आस पास अँधेरा था लेकिन उस अँधेरे में भी मैं देख सकता था कि मेरे चारो तरफ से काला गाढ़ा धुआँ अपनी बाहें फैलाए हुए आ रहा है। मैं उस धुएं को देख कर बुरी तरह घबराने लगता हूं। कुछ ही देर में वो काला गाढ़ा धुआँ मेरे जिस्म को चारो तरफ से छूने लगता है और धीरे धीरे मैं उस धुएं मैं डूबने लगता हूं। ख़ुद को काले धुएं में डूबता देख मैं बुरी तरह अपने हाथ पैर चलाता हूं और मारे दहशत के पूरी शक्ति से चीख़ता भी हूं लेकिन मेरी आवाज़ मेरे हलक से बाहर नहीं निकलती। जैसे जैसे मैं उस धुएं में डूब रहा था वैसे वैसे डर और घबराहट से मेरा बुरा हाल हुआ जा रहा था। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई मेरा गला दबाता जा रहा है और मैं अपने बचाव के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहा हूं। एक वक़्त ऐसा भी आया जब मेरा समूचा जिस्म उस काले गाढ़े धुएं में डूब गया और तभी मैं बुरी तरह छटपटाते हुए एकदम से उठ बैठता हूं।
मेरी नींद टूट चुकी थी। मैं बौखलाया सा कमरे में इधर उधर देखने लगा। मेरी साँसें धौकनी की मानिन्द चल रहीं थी। समूचा जिस्म पसीने से तर बतर था। कमरे में बिजली का बल्ब जल रहा था और कमरे की छत में कुण्डे पर झूलता हुआ पंखा अपनी मध्यम गति से चल रहा था। हर तरफ गहन ख़ामोशी छाई हुई थी और इस ख़ामोशी में अगर कोई आवाज़ गूँज रही थी तो वो थी मेरी उखड़ी हुई साँसों की आवाज़।
कुछ पल लगे मेरे ज़हन को जाग्रित होने में और फिर मुझे समझ आया कि मैं आज फिर से वही बुरा ख़्वाब देख रहा था जो उस रात मुंशी के घर में देखा था और उसके चलते मैं बुरी तरह से चीख़ कर उठ बैठा था किन्तु आज मैं चीख़ते हुए नहीं उठा था। हालांकि ख़्वाब में मैं पूरी शक्ति से चीख़ रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर इस तरह का ख़्वाब आने का क्या मतलब है? ये कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सकता था। एक ही ख़्वाब बार बार नहीं आ सकता था। ऐसा नहीं था कि मैं कभी ख़्वाब नहीं देखता था बल्कि वो तो मैं हर रात ही देखता था लेकिन वो सारे ख़्वाब सामान्य होते थे लेकिन ये ख़्वाब सामान्य नहीं था। इस तरह का ख़्वाब आज दूसरी बार देखा था मैंने। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अचानक से इस तरह का ख़्वाब आने के पीछे कोई ऐसी वजह तो नहीं है जिसके बारे में फिलहाल मैं सोच नहीं पा रहा हूं?
काफी देर तक मैं पलंग पर बैठा इस ख़्वाब के बारे में सोचता रहा। मेरी आँखों से नींद गायब हो चुकी थी। मेरा गला सूख गया था इस लिए पानी से अपने गले को तर करने का सोच कर मैं पलंग से नीचे उतरा और दरवाज़ा खोल कर कमरे से बाहर आ गया।
हवेली में हर तरफ कब्रिस्तान के जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। अँधेरा तो नहीं था क्योंकि बिजली के बल्ब जगह जगह पर जल रहे थे जिससे उजाला था। मैं नंगे पैर ही राहदरी से चलते हुए सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला। दूसरे छोर पर आ कर मैं उस गलियारे के पास रुका जिस गलियारे पर भैया भाभी का कमरा था और उनके बाद थोड़ा आगे चल कर एक तरफ विभोर अजीत का कमरा और उनके कमरे के सामने कुसुम का कमरा था। मैंने गलियारे पर नज़र डाली। गलियारा एकदम सुनसान ही था। कहीं से ज़रा सी भी आहट नहीं सुनाई दे रही थी।
गलियारे से नज़र हटा कर मैं पलटा और सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे आ गया। नीचे बड़े से गलियारे के एक तरफ कोने में एक बड़ा सा मटका रखा हुआ था। मैं उस मटके के पास गया और गिलास से पानी निकाल कर मैंने पानी पिया। ठंडा पानी हलक से नीचे उतरा तो काफी राहत मिली।
दो गिलास पानी पी कर मैं वापस सीढ़ियों की तरफ आया और सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर आ गया। अभी मैं लम्बी राहदरी पर ही आया था कि तभी बिजली चली गई। बिजली के जाते ही हर तरफ काला अँधेरा छा गया। कुछ पल रुकने के बाद मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ा ही था कि तभी छन छन की आवाज़ ने मेरे कान खड़े कर दिए। बिजली की तरह मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि इस वक़्त ये पायल के छनकने की आवाज़ कैसे? छन छन की आवाज़ मेरे पीछे से आई थी। मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं थी। तभी एक बार फिर से छन छन की आवाज़ हुई तो मेरे मुख से अनायास ही निकल गया____"कौन है?"
मैंने जैसे ही कौन है कहा तो एकदम से छन छन की आवाज़ तेज़ हो गई और ऐसा लगा जैसे कोई सीढ़ियों की तरफ भागा है। मैं तेज़ी से पलटा और मैं भी सीढ़ियों की तरफ लपका। छन छन की आवाज़ अभी भी मुझे दूर जाती हुई सुनाई दे रही थी। अँधेरा बहुत था इसके बावजूद मैं तेज़ी से सीढ़ियां उतरते हुए नीचे आया था लेकिन तब तक आवाज़ आनी बंद हो चुकी थी। नीचे दोनों तरफ लम्बी चौड़ी राहदरी थी और मैं एक जगह खड़ा हो कर अँधेरे में इधर उधर किसी को देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे समझ न आया कि इतनी जल्दी छन छन की आवाज़ कैसे बंद हो सकती है? ये तो निश्चित था कि छन छन की आवाज़ किसी लड़की या औरत के पायल की थी लेकिन सवाल ये था कि इतनी रात को इस वक़्त ऐसी कौन सी लड़की या औरत हो सकती है जो ऊपर से इस तरह नीचे भाग कर आई थी? हवेली में कई सारी नौकरानियाँ थी और उनके पैरों में भी ऐसी पायलें थी। इस लिए अब ये पता करना बहुत ही मुश्किल था कि इस वक़्त वो कौन रही होगी?
मैं काफी देर तक इस इंतज़ार में सीढ़ियों के पास खड़ा रहा कि शायद वो छन छन की आवाज़ फिर कहीं से सुनाई दे जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे कि वो जो कोई भी थी वो एकदम से गायब ही हो गई थी। मजबूरन मुझे वापस लौटना पड़ा। कुछ ही देर में मैं वापस ऊपर आ गया। मैंने गलियारे की तरफ देखा किन्तु अँधेरे में कुछ दिखने का सवाल ही नहीं था लेकिन इतना तो पक्का हो चुका था कि वो जो कोई भी थी इसी गलियारे से आई थी। अब सवाल ये था कि इस गलियारे में वो किसके कमरे में थी? भैया भाभी के कमरे में उसके होने का सवाल ही नहीं था, तो क्या वो विभोर और अजीत के कमरे में थी? हालांकि सवाल तो ये भी था कि वो जो कोई भी थी तो क्या वो हवेली की कोई नौकरानी ही थी या फिर हवेली की ही कोई महिला?
अपने कमरे में आ कर मैंने दरवाज़ा अंदर से बंद किया और पलंग पर लेट गया। काफी देर तक मैं इस बारे में सोचता रहा लेकिन मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। इस वाकये के चलते मैं अपने उस ख़्वाब के बारे में भूल ही गया था जो इस सबके पहले मैं नींद में देख रहा था। पता नहीं कब मेरी आँख लग गई और मैं फिर से सो गया।
सुबह कुसुम के जगाने पर ही मेरी आँख खुली। सुबह सुबह उसे मुस्कुराते हुए देखा तो मेरे भी होठों पर मुस्कान उभर आई। वो हाथ में चाय का प्याला लिए खड़ी थी।
"अब उठ भी जाइए छोटे ठाकुर।" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"ज़रा नज़र उठा कर खिड़की से आफ़ताब को देखिए, वो चमकते हुए अपने उगे होने की गवाही देगा।"
"वाह! क्या बात है।" मैंने उठते हुए कहा____"मेरी बहना तो शायरी भी करती है।"
"सब आपकी नज़रे इनायत का असर है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए बड़ी अदा से कहा____"वरना हम में ऐसा हुनर कहां?"
"कल रात में तूने खाना ही खाया था न?" मैंने अपनी कमीज पहनते हुए कहा____"या खाने में मिर्ज़ा ग़ालिब को खाया था?"
"आपको ना हमारी क़दर है और ना ही हमारी शायरी की।" कुसुम ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं। आप चाय पीजिए, मुझे अभी याद आया कि माँ ने मुझे जल्दी वापस आने को कहा था।"
मैंने कुसुम के हाथ से चाय का प्याला लिया तो वो पलट कर कमरे से बाहर निकल गई। उसका चेहरा उतर गया था ये मैंने साफ़ देखा था। मुझे समझ न आया कि अचानक से उसका चेहरा क्यों उतर गया था और वो बहाना बना कर कमरे से चली क्यों गई थी। ख़ैर मैंने चाय के प्याले को एक तरफ लकड़ी के मेज पर रखा और तेज़ी से कमरे से निकल गया। असल में मुझे बड़ी ज़ोरों की मुतास लगी थी। मैं तेज़ी से चलते हुए नीचे गुसलखाने में पहुंचा। मूतने के बाद मैंने हाथ मुँह धोया और वापस कमरे में आ कर चाय पीने लगा।
कल शाम वाला भैया का बर्ताव मेरे ज़हन में आया तो मैं एक बार फिर से उनके बारे में सोचने लगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि बड़े भैया कल शाम को मुझसे इस तरह क्यों पेश आए थे? आख़िर अचानक से क्या हो गया था उन्हें? मैंने इस बारे में भाभी से पूछने का निश्चय कर चाय ख़त्म की और कमरे से निकल गया। सबसे पहले तो मैं गुसलखाने में जा कर नित्य क्रिया से फुर्सत हो कर नहाया धोया और कमरे में आ कर दूसरे कपड़े पहन कर नीचे आ गया।
आज भाभी मुझे आँगन में तुलसी की पूजा करते हुए नहीं दिखी थीं, शायद मुझे देरी हो गई थी। सुबह के वक़्त वैसे भी उनसे मिलना मुश्किल था। मैं चाहता था कि उनसे तभी मिलूं जब उनके पास समय हो और वो अकेली हों। ख़ैर इस तरफ आ कर मैं कुछ देर माँ के पास बैठा उनसे इधर उधर की बातें करता रहा। उसके बाद पिता जी के साथ बैठ कर हम सबने नास्ता किया। नास्ता करने के बाद मैंने अपनी मोटर साइकिल ली और हवेली से बाहर की तरफ निकल गया। अभी मैं हाथी दरवाज़े के पास ही आया था कि बाहर मुझे मणिशंकर अपनी बीवी के साथ मिल गया। मुझे देखते ही उसने मुझसे मुस्कुराते हुए दुआ सलाम की जिसके जवाब में मैंने भी उसे सलाम किया।
"सुबह सुबह इधर कहां भटक रहे हो मणि काका?" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा तो उसने कहा_____"ठाकुर साहब से मिलने जा रहा हूं छोटे ठाकुर। कुछ ज़रूरी काम भी है उनसे।"
"चलिए अच्छी बात है।" मैंने कहा____"वो हवेली में ही हैं। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
"ठीक है बेटा।" मणि शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा तो मैं आगे बढ़ चला।
रास्ते में मैं ये सोचता जा रहा था कि मणि शंकर अपनी बीवी के साथ हवेली क्यों जा रहा था? आख़िर ऐसा कौन सा ज़रूरी काम होगा उसे जिसके लिए वो अपने साथ अपनी बीवी को भी ले कर हवेली आया था? साहूकारों के घर के सामने आया तो देखा आज चबूतरे पर कोई नहीं था। मैंने एक नज़र साहूकारों के घरों पर डाली और आगे बढ़ गया। मुझे याद आया कि मुझे रूपा से मिलना था लेकिन शायद अब उससे मेरा मिलना संभव नहीं था क्योंकि रूपचन्द्र को मेरे और उसके सम्बन्धों के बारे में पता चल चुका था। वैसे कल शिव शंकर ने मुझसे कहा था कि उसके बड़े भाई लोग मुझे अपने घर बुलाने की बात कर रहे थे। अगर ये बात सच है तो इसी बहाने मेरा आना जाना साहूकारों के घरों में हो सकता था। मैं भी अब इस इंतज़ार में था कि कब ये लोग मुझे बुलाते हैं। एक बार ऐसा हो गया तो फिर मैं बिना बुलाए भी आसानी से उन लोगों के घर जा सकता था। हालांकि उसके लिए मुझे अपनी छवि को उनके बीच अच्छी बनानी थी जो कि मैंने सोच ही लिया था कि बनाऊंगा।
मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। साली न जाने कब से रूपचन्द्र से चुदवा रही थी और मुझे इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी। मन तो कर रहा था कि उसकी चूत में गोली मार दूं लेकिन मैं पहले ये जानना चाहता था कि आख़िर उन दोनों के बीच ये सब शुरू कैसे हुआ?
मुंशी के घर का दरवाज़ा बंद था इस लिए मैं आगे ही निकल गया। कुछ आगे आया तो मुझे याद आया कि कल शाम जब मैं वापस आ रहा था तब यहाँ पर किसी ने मुझे रस्सी के द्वारा मोटर साइकिल से गिराने की कोशिश की थी। मैं एक बार फिर से ये सोचने लगा कि कौन कर सकता है ऐसा?
हमेशा अपने में ही मस्त रहने वाला मैं अब गंभीर हो गया था और आज कल जो कुछ मेरे साथ हो रहा था उसके बारे में गहराई से सोचने भी लगा था। मैं समझ चुका था कि अच्छी खासी चल रही मेरी ज़िन्दगी की माँ चुद गई है और कुछ हिजड़ों की औलादें हैं जो मुझे अपने जाल में फंसाने की कोशिश कर रहे हैं। वो जानते हैं कि सामने से वो मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकते हैं इस लिए कायरों की तरह छिप कर वार करने की मंशा बनाए बैठे हैं।
कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।
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एक बार फिर से वैभव ने निराश किया । जब कुसुम उसे कुछ बताना चाहती थी तो उसने उसकी बात क्यों नहीं सुनी ?☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 28
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अब तक,,,,,,
कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।
अब आगे,,,,,
शहर से जब मैं वापस लौटा तो दोपहर के तीन बज गए थे। मैं सीधा मुरारी काका के घर ही आ गया था। मैंने मोटर साइकिल घर के बाहर खड़ी की और जैसे ही दरवाज़े के पास पंहुचा तो दरवाज़ा खुला। सरोज काकी ने दरवाज़ा खोला था। मैं अंदर आया तो देखा आँगन में जगन अपने बीवी बच्चों के साथ ही बैठा था। मुझे देखते ही जगन खटिया से उठ गया और मुझे बैठने को कहा तो मैं बैठ गया।
जगन की बीवी और उसके बच्चे अंदर बरामदे में बैठे थे और सरोज काकी आँगन में। घर के दूसरी तरफ एक बड़ा सा पेड़ था जिसकी छांव आँगन में रहती थी। बड़ा सा आँगन था इस लिए हवा आती रहती थी वरना तो इस वक़्त धूप में आंगन में बैठना मुश्किल ही हो जाता। ख़ैर सरोज काकी ने मुझसे खाने पीने का पूछा तो मैंने उसे बताया कि मैंने शहर में ही खा लिया है किन्तु ठंडा पानी ज़रूर पियूंगा।
"और काका कैसी चल रही है तैयारी?" मैंने अपने पास ही दूसरी खटिया में बैठे जगन काका से पूछा_____"सारा सामान इकठ्ठा हो गया न या अभी और भी किसी चीज़ की कमी है?"
"ज़रुरत का मुख्य सामान तो हम कल ही शहर से ले आए थे।" जगन ने कहा____"अब सिर्फ राशन ही रह गया था तो हमने उसकी भी ब्यवस्था कर ली है। कुल मिला कर सारी ब्यवस्था हो गई है बेटा।"
"फिर भी अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बेझिझक मुझसे बोल देना।" मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाल कर जगन की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये कुछ पैसे हैं इन्हें रख लो। कल ब्राम्हणों को दान दक्षिणा देने के काम आएंगे।"
पैसा देख कर जगन मेरी तरफ देखने लगा था और यही हाल लगभग सबका ही था। मैंने ज़ोर दिया तो जगन ने वो पैसा ले लिया। कुछ देर और बैठ कर मैंने कल तेरहवीं से सम्बन्धित कुछ बातें की उसके बाद मैं सरोज काकी के घर से निकल कर उस तरफ चल पड़ा जहां पर मेरा नया मकान बन रहा था।
पेड़ की छांव में मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं मजदूरों के पास आ गया। मुझे देखते ही सबने बड़े अदब से मुझे सलाम किया। काफी सारे मजदूर और मिस्त्री थे इस लिए मकान का निर्माण कार्य बड़ी तेज़ी चल रहा था। कुछ मजदूर आस पास की सफाई करने में लगे हुए थे ताकि मकान के आस पास की ज़मीन साफ़ रहे। मकान से कुछ ही दूर कुएं की खुदाई चल रही थी। मैंने पास जा कर देखा तो पता चला कुआं काफी गहरा हो गया है और उसमे भरपूर पानी भी है, जिसकी वजह से अंदर कुएं को और ज़्यादा खोदने में परेशानी हो रही थी। कुएं में इतना पानी था कि उसे खाली करना अब किसी के भी बस में नहीं था। मजदूरों ने जब ये बात मुझे बताई तो मैंने उन्हें खोदने से मना कर दिया और ये कहा कि कुएं की दीवारों को पक्का कर दो।
मैं शहर एक ज़रूरी काम से गया था। असल में मैं एक काम गुप्त रूप से करवाना चाहता था। ख़ैर कुछ देर रुकने के बाद मैं गांव की तरफ चलने ही लगा था कि सामने से एक मोटर साइकिल में भुवन आता दिखा मुझे। मुझे देखते ही उसने सलाम किया। मैंने उससे उसका हाल चाल पूछा और बुलेट को चालू कर के हवेली की तरफ चल दिया।
शाम अभी हुई नहीं थी। रास्ते में जब मैं आया तो मुझे याद आया कि पिछले दिन इसी रास्ते पर किसी ने मुझे रस्से द्वारा सड़क पर गिराने की कोशिश की थी। इस बात के याद आते ही मैं एकदम से सतर्क हो गया। हालांकि दुबारा ऐसा कुछ मेरे साथ हुआ नहीं बल्कि मैं बड़े आराम से गांव में दाखिल हो गया।
मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। रजनी का ख़याल आते ही मेरे मन में उसके लिए गुस्सा और नफ़रत भरने लगी। मैं उसे उसके किए की सज़ा देना चाहता था किन्तु उसके लिए अभी मेरे पास वक़्त नहीं था। वैसे भी आज कल मैं ऐसी ऐसी मुसीबतों में फंसा हुआ था कि एक नई मुसीबत को अपने गले नहीं लगाना चाहता था। मुंशी के घर के सामने से गुज़र कर जब मैं साहूकारों के सामने आया तो ये देख कर चौंका कि घर के बड़े से दरवाज़े के पास रूपा खड़ी थी और एक छोटे से बच्चे से बात कर रही थी। बुलेट की तेज़ आवाज़ उसके कानों में पड़ी तो उसने गर्दन घुमा कर सड़क की तरफ देखा। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर अपलक मेरी तरफ देखने लगी।
मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार को एकदम से धीमा कर दिया और होठों पर मुस्कान सजा कर उसकी तरफ देखा तो उसके होठों पर भी मुस्कान उभर आई किन्तु अगले ही पल वो तब हड़बड़ा गई जब मैंने अचानक से उसे देखते हुए आँख मार दी थी। रूपा ने घबरा कर इधर उधर देखा। इस वक़्त घर के बाहर कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन किया कि मैं रूपा को अपने पास बुलाऊं किन्तु अगले ही पल मैंने अपना ये इरादा बदल दिया। मुझे अंदेशा था कि बुलेट की तेज़ आवाज़ घर के अंदर मौजूद बाकी लोगों के कानों में भी पहुंच गई होगी। रूपचंद्र अगर अंदर होगा तो वो फ़ौरन समझ जाएगा कि बुलेट में मैं ही होऊंगा।
मैंने रूपा को इशारा किया तो उसने चौंक कर पहले उस छोटे से बच्चे की तरफ देखा और फिर इधर उधर देखने के बाद मेरी तरफ देखते हुए इशारे से ही पूछा कि क्या है? वो छोटा सा बच्चा भी मेरी तरफ ही देख रहा था। मैंने रूपा को इशारे से ही कल मंदिर में मिलने के लिए कहा तो उसने झट से अपना सिर इंकार में ज़ोर ज़ोर से हिलाया। ये देख कर मैंने उसे आँखें दिखाई तो वो बेबस भाव से मुझे देखने लगी। मुझे उसकी बेबसी और मासूमियत पर बेहद तरस आया किन्तु मेरा उससे मिलना बेहद ज़रूरी था इस लिए मैंने इस बार उससे अनुरोध किया। मेरे अनुरोध पर उसने कुछ पल सोचा और फिर हां में सिर हिला दिया। रूपा जब मंदिर में मिलने के लिए राज़ी हो गई तो मैंने मुस्कुराते हुए मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया।
एक मुद्दत हो गई थी रूपा से मिले हुए और उसे प्यार किए हुए। पहले के और अब के हालात में बहुत ज़्यादा अंतर हो गया था। अब साहूकारों से हमारे रिश्ते सुधर चुके थे इस लिए मैं अपनी तरफ से ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता था और ना ही करना चाहता था जिसकी वजह से मेरी छवि फिर से बिगड़ जाए। ख़ैर रूपा के बारे में सोचते हुए मैं हवेली में दाखिल हुआ। मोटर साइकिल एक तरफ खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा। जैसा कि मैंने बताया था कि हवेली के बाहर बहुत बड़ा हरा भरा मैदान था जिसके एक छोर पर कई सारी जीपें और दूसरे छोर पर बग्घी और मोटर साइकिल वग़ैरा खड़ी रहतीं थी। मुख्य दरवाज़े की तरफ बढ़ा तो देखा जगताप चाचा जी जीप में बैठ कर कहीं जाने को तैयार थे। वो मेरी तरफ देख कर हल्के से मुस्कुराए और फिर जीप को हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ा दिया।
हवेली के अंदर आया तो मेरे ज़हन में बड़े भैया का ख़याल आ गया। मैं एक बार फिर से सोचने लगा कि आख़िर ऐसी क्या बात थी कि उन्होंने मुझसे इतने गुस्से में बात की थी जबकि होली के दिन वो मुझसे बड़े प्यार से और बड़ी ख़ुशी से बात कर रहे थे। होली के दिन उनका वर्ताव वैसा ही था जैसे के हमारा भरत मिलाप हुआ था किन्तु पिछले दिन का उनका वर्ताव मेरे लिए एकदम उम्मीद से परे था। बड़े भैया के उस वर्ताव की असल वजह को जानने के लिए मेरा भाभी से मिलना ज़रूरी था।
अंदर आया तो सबसे पहले मेरी मुलाक़ात कुसुम से हुई। मैंने उससे भाभी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो अपने कमरे में हैं। मैंने कुसुम से बड़े भैया के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो विभोर और अजीत के साथ जीप से कहीं गए हुए हैं। कुसुम की बात सुन कर मैंने सोचा भाभी से मिल कर बात करने का ये बढ़िया मौका है। ये सोच कर मैंने कुसुम से कहा कि बढ़िया गरम गरम चाय मेरे कमरे में ले कर आ।
आंगन से होते हुए जब मैं दूसरे छोर पर आया तो मेरी नज़र मेनका चाची पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ बात कर रहीं थी। नौकरानी की उम्र यही कोई तीस के आस पास थी। थोड़ी सांवली थी किन्तु जिस्म काफी कसा हुआ दिख रहा था। घागरा चोली पहने हुए थी वो। चोली में कैद उसकी भारी भरकम चूचियां ऐसी प्रतीत हो रहीं थी जैसे चोली को फाड़ कर बाहर ही आ जाएंगी। मैं जब थोड़ा क़रीब पंहुचा तो अनायास ही मेरी नज़र उसके नंगे पेट से नीचे फिसल कर उसके घाघरे में छुपे चौड़े कूल्हों से होते हुए नंगी टांगों पर और फिर पैरों पर आ कर ठहर गई। अपने पैरों में चांदी की मामूली सी पायल पहने थी वो किन्तु वो पायल वैसी ही थी जो चलने पर छन छन की आवाज़ करती थी। मेरे ज़हन में एकदम से विचार कौंधा कि क्या पिछली रात यही थी जो सीढ़ियों से उतर कर भागते हुए ऊपर से नीचे आई थी और जिसके पीछे मैं भी भागता हुआ आया था?
चाची के पास पंहुचा तो चाची ने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा। उस नौकरानी ने जब मुझे देखा तो उसने घबरा कर जल्दी से अपनी नज़रें नीचे कर ली। उसका घबरा कर इस तरह से अपनी नज़रें नीचे कर लेना मेरे मन में और भी ज़्यादा शक पैदा कर गया। मैं ये तो जानता था कि हवेली के नौकर और नौकरानियाँ मुझसे बेहद डरते थे किन्तु बिना वजह के इस तरह से तो बिलकुल भी नहीं।
उस नौकरानी की शक्ल अच्छे से देख कर मैं सीढ़ियों से ऊपर आ गया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। हवेली में कई ऐसे नौकर और नौकरानियाँ थी जिनके मैं नाम तक नहीं जानता था। जब से पिता जी ने नौकरानियों को मेरे कमरे में आने से शख़्त मना किया था तब से मेरा भी उनसे कोई वास्ता नहीं रहा था वरना तो आए दिन मैं हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे लेटा ही लेता था। अपनी हवस की आग को शांत करने के बाद मुझे उनसे कोई मतलब नहीं होता था। ख़ैर अभी जो नौकरानी चाची के पास खड़ी दिखी थी उस पर मेरा शक गहरा गया था और अब मैं अपने इस शक का समाधान करना चाहता था। अगर ये वही नौकरानी थी जो पिछली रात अँधेरे में अपनी छन छन करती पायल की आवाज़ के साथ नीचे भागती हुई गई थी तो मेरे लिए ये जानना बेहद ज़रूरी था कि वो उतनी रात को किसके कमरे में थी और क्या कर रही थी?
अपने कमरे में आ कर मैंने अपनी शर्ट उतारी और पंखा चालू कर के पलंग पर लेट गया। मैं सोच रहा था कि कल मुरारी काका की तेरहवीं हो जाने के बाद मैं हर उस चीज़ के बारे में गहराई से सोचूंगा और फिर उन सभी चीज़ों के बारे में जानने और सुलझाने की कोशिश शुरू करुंगा जिन चीज़ों की वजह से आज कल मेरी ज़िन्दगी झंड बनी हुई थी।
कुसुम चाय ले कर आई और पलंग पर ही मेरे पास बैठ गई। मैंने उसके हाथ से चाय का प्याला लिया और उसे मुँह से लगा कर उसकी एक चुस्की ली। कुसुम मेरी तरफ ही देख रही थी। मेरी नज़र जब उस पर पड़ी तो मैं हल्के से मुस्कुराया।
"अब तुझे क्या हुआ?" मैंने थोड़ा सा उठ कर पलंग की पिछली पुस्त से पीठ टिका कर कहा____"इस तरह मुँह क्यों लटका रखा है तूने? किसी ने कुछ कहा क्या?"
"नहीं, किसी ने कुछ नहीं कहा भैया।" कुसुम ने कुछ सोचते हुए कहा____"लेकिन एक बात है जिसके बारे में सोच रही हूं कि आपको बताऊं कि नहीं?"
"अगर तुझे लगता है कि वो बात मुझे बताना तेरे लिए ज़रूरी है।" मैंने जैसे उसे समझाते हुए कहा____"तो बेझिझक हो कर बता दे। इसमें इतना सोचने की क्या बात है?"
"सोचने की ही तो बात है भैया।" कुसुम ने बड़ी मासूमियत से कहा____"तभी तो सोच रही हूं।"
"तो फिर एक काम कर तू।" मैंने कहा____"और वो ये कि पहले तू दो चार दिन सोच ही ले, उसके बाद मुझे बता देना।"
"अब और कितना सोचूं भैया?" कुसुम ने मानो झुंझला कर कहा____"जाने कब से तो सोच रही हूं मैं उस बात के बारे में। अब और नहीं सोचा जाता मुझसे।"
"चल अब मेरा भेजा मत खा।" मैंने चाय की एक और चुस्की लेने के बाद कहा____"जल्दी से बता कि ऐसी कौन सी बात है जिसके बारे में जाने कबसे तू इतना सोच रही है?"
"पहले ये तो सुन लीजिए।" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं सोच क्यों रही थी?"
"अच्छा ठीक है।" मैंने झुंझला कर कहा____"यही बता कि सोच क्यों रही थी तू?"
"वो क्या है न कि।" कुसुम ने झिझकते हुए कहा____"जो बात मैं आपसे बताना चाहती थी वो ऐसी बात है कि मुझे आपसे बताने में शर्म आ रही है। इसी लिए तब से अब तक यही सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे...क्योंकि मुझे शर्म आएगी न।"
"तो क्या अब बताने में शर्म नहीं आएगी तुझे?" मैंने उसे घूरा।
"अरे! ऐसे कैसे नहीं आएगी?" कुसुम ने अपना एक हाथ झटकते हुए कहा____"वो तो बहुत ज़्यादा आएगी भैया। इसी लिए तो इतने दिन से सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे?"
"मुझे तो लगता है कि।" मैंने कहा____"तू आज मेरे दिमाग़ का दही करने आई है। अरे! यार अगर तुझे कोई बात बतानी ही है तो बेझिझक बता दे न। फ़ालतू का मेरा समय क्यों बर्बाद कर रही है और मुझे परेशान क्यों कर रही है?"
"क्या कहा आपने?" कुसुम ने आँखें फैला कर कहा____"मैं फ़ालतू की बात कर रही हूं और आपके दिमाग़ का दही कर रही हूं??? आप मेरे बारे में ऐसा कैसे बोल सकते हैं? जाइए मुझे कुछ नहीं बताना आपको।"
"हे भगवान!" मेरा मन किया कि मैं अपने बाल नोच लूं, किन्तु फिर ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े प्यार से कहा____"ग़लती हो गई मेरी प्यारी बहना। तू तो जानती है कि तेरा ये भाई बुद्धि से ज़रा पैदल है।"
"ख़बरदार।" मेरी बात पूरी होते ही कुसुम एक झटके में बोल पड़ी____"ख़बरदार जो आपने मेरे भैया को बुद्धि से पैदल कहा। अरे! मेरे भैया तो सबसे अच्छे हैं, मुझे अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं।"
"अगर ऐसा है।" मैंने गहरी सांस ली____"तो बता न मेरी प्यारी बहना कि वो कौन सी बात है जिसके बारे में तू इतने दिनों से सोचती आ रही है?"
"पर भैया।" कुसुम ने बेबस भाव से कहा____"मैं वो बात आपको कैसे बताऊं? मुझे वो बात बताने में बहुत ज़्यादा शर्म आएगी। नहीं भैया नहीं, मैं वो बात आपको नहीं बता सकती।"
"तू रुक अभी बताता हूं तुझे।" मैंने चाय के प्याले को एक तरफ रखा और जैसे ही एक झटके से उसकी तरफ झपटा तो वो खिलखिला कर हंसती हुई कमरे से बाहर भाग गई, जबकि मैंने आगे का वाक्य मानो ख़ुद से ही कहा_____"इतनी देर से भेजा चाट रही है मेरा।"
कुसुम के जाने के बाद मैं वापस पलंग पर पहले की तरह पीठ टिका कर बैठ गया और ये सोच कर मुस्कुरा उठा कि मेरी ये नटखट बहन कितनी सफाई से मेरा भेजा चाट कर चली गई है। ख़ैर चाय पीने के बाद मैं पलंग से नीचे उतरा और शर्ट पहन कर भाभी से मिलने के लिए कमरे से बाहर आ कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला।
लम्बी चौड़ी राहदारी से चलते हुए जैसे ही मैं भाभी के कमरे के सामने आया तो मेरी नज़र कमरे से बाहर निकल रही भाभी पर पड़ी। उन्हें कमरे से बाहर निकलते देख मैं रुक गया। उनकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी और अपने कमरे के बाहर मुझे देख कर वो रुक गईं थी। उनके खूबसूरत चेहरे पर पहले तो चौंकने के भाव उभरे फिर उनकी झील सी गहरी आँखों में सवालिया भाव नज़र आए मुझे।
"वैभव तुम??" फिर उन्होंने सामान्य भाव से कहा____"कहीं इस तरफ का रास्ता तो नहीं भटक गए?"
"वो मैं आपसे मिलने आया था भाभी।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"असल में मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी है। अगर आपके पास वक़्त हो तो...!"
"अपने देवर के लिए मेरे पास वक़्त ही वक़्त है वैभव।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"अन्दर आ जाओ।"
कहने के साथ ही भाभी वापस कमरे में चली गईं तो मैं भी चुप चाप कमरे में दाखिल हो गया। इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही बढ़ गईं थी। मैं बहुत कोशिश करता था कि भाभी के सामने मैं सामान्य ही रहूं लेकिन पता नहीं क्यों उनके सामने आते ही मेरी धड़कनें थोड़ी तेज़ हो जाती थी और न चाहते हुए भी मैं उनके रूप सौंदर्य पर आकर्षित होने लगता था। ये अलग बात है कि इसके लिए बाद में मुझे बेहद पछतावा भी होता था।
"बैठो।" मैं अंदर आया तो भाभी ने कमरे में एक तरफ रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।
"अब बताओ।" मैं जैसे ही कुर्सी में बैठा तो भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए शांत भाव से कहा____"अपनी इस भाभी से ऐसी कौन सी ज़रूरी बात करनी थी तुम्हें?"
"असल में मुझे।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में आपसे कुछ पूछना था।"
"हां तो पूछो।" भाभी ने बड़ी बेबाकी से कहा तो मैं कुछ पलों तक उनके सुन्दर चेहरे की तरफ देखता रहा और फिर अपनी बढ़ चली धड़कनों को काबू करने का प्रयास करते हुए बोला____"होली वाले दिन बड़े भैया मुझसे बड़े ही अच्छे तरीके से मिले थे। यहाँ तक कि जब मैंने उनके पैर छुए थे तो उन्होंने खुश हो कर मुझे अपने गले से भी लगाया था। उसके बाद उन्होंने खुद उसी ख़ुशी में मुझे भांग वाला शरबत पिलाया था। उनके ऐसा करने से मैं भी बहुत खुश था लेकिन कल शाम को उनका वर्ताव ऐसा था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।"
"क्या हुआ था कल?" भाभी ने पूछा तो मैंने उन्हें कल शाम का सारा वाक्या विस्तार से बता दिया जिसे सुन कर उनके चेहरे पर वैसे भाव बिल्कुल भी नहीं उभरे जिसे आश्चर्य कहा जाता है। बल्कि मेरी बातें सुनने के बाद उन्होंने एक गहरी सांस ली और फिर गंभीर भाव से कहा____"पिछले कुछ समय से उनका वर्ताव ऐसा ही है वैभव। मुझे तो उनके ऐसे वर्ताव की आदत पड़ चुकी है किन्तु तुम्हारे लिए शायद ये नई बात होगी क्योंकि तुम तो हमेशा ही अपने में ही मस्त रहते थे। तुम्हें भला इस बात से कैसे कोई मतलब हो सकता था कि हवेली में रहने वाले तुम्हारे अपनों के बीच क्या चल रहा है या उनके हालात कैसे हैं? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं किसी को अपना दुःख नहीं दिखाती वैभव। जब से मुझे कुल गुरु के द्वारा ये पता चला है कि उनका जीवन काल बस कुछ ही समय का है तब से मैं इस कमरे में अकेले ही छुप कर अपने आँसू बहा लेती हूं। ईश्वर से हर वक़्त पूछती हूं कि उन्होंने ये कैसा इन्साफ किया है कि इतनी कम उम्र में मुझे विधवा बना देने का फैसला कर लिया है? आख़िर वो मुझे किस गुनाह की सज़ा देना चाहता है? अपनी समझ में तो मैंने ऐसा कोई गुनाह नहीं किया है जिसके लिए वो मेरे साथ ऐसा करे। दादा ठाकुर ने मुझे शख़्ती से मना किया था कि मैं उनके बारे में ये बातें हवेली में किसी को न बताऊं। मैं जानती हूं कि अपने बेटे के बारे में ये सब जान कर वो खुद भी अंदर से बेहद दुखी होंगे और शायद यही वजह है कि वो मौका देख कर मुझे इसके लिए समझाते रहते हैं। ईश्वर का खेल तो ईश्वर ही जानता है। वो जो भी करता है उसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होती है। दादा ठाकुर की इन्हीं बातों से खुद को तसल्ली देती रहती हूं। अब तो खुद को भी समझा लिया है कि इस बात के लिए रोने से भला क्या मिलेगा? इससे अच्छा तो ये है कि जिस ईश्वर ने ऐसा इंसाफ लिखा है उसी से उनकी ज़िन्दगी की भीख मांगू। क्या पता किसी दिन उस भगवान को मुझ पर तरस आ जाए।"
भाभी ये सब कहने के बाद सुबकने लगीं थी। उनका सुन्दर सा चेहरा एकदम से मलिन पड़ गया था। मैंने आज तक उन्हें बस मुस्कुराते हुए ही देखा था। मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि उन्होंने अपने अंदर इतना बड़ा दुःख दर्द दबा के रखा है। बिस्तर के किनारे पर बैठी सुबक रहीं भाभी को देख कर मेरे दिल में दर्द सा होने लगा। मेरा जी चाहा कि मैं पलक झपकते ही उनके पास जाऊं और उन्हें अपने सीने से छुपका लूं लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सका।
"भगवान के लिए ऐसे मत रोइए भाभी।" मुझसे रहा न गया तो मैंने आहत भाव से कहा____"मैं सच में बहुत शर्मिंदा हूं। आज तक मैं अपनी दुनिया में मस्त था। ये सच है कि आज तक मुझे अपने सिवा किसी से कोई मतलब नहीं था लेकिन अब मैं मतलब रखूंगा भाभी। आज मुझे अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा है कि मैंने आज तक जो कुछ किया वो मैंने क्यों किया? क्यों आज तक मैं अपनों से और अपनी ज़िम्मेदारियों से भागता रहा था? अगर मैंने ऐसा न किया होता तो आज हालात ऐसे न होते।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"तुम इस सबके लिए अपने आपको दोष मत दो। हां ये सच है कि तुम्हें अपनों का और अपनी ज़िम्मेदारियों का ख़याल रखना चाहिए था लेकिन ये भी सच है कि जो कुछ भी होता है वो उस ऊपर वाले की मर्ज़ी से ही होता है। इस दुनिया में वही होता है वैभव जो सिर्फ ऊपर वाला चाहता है। उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। हम मामूली इंसान तो उसके हाथ की कठपुतली हैं।"
"मैं ये सब नहीं जानता भाभी।" मैंने दुखी भाव से कहा____"मैं तो बस इतना समझ रहा हूं कि आज जैसे भी हालात बने हैं उन हालातों के लिए कहीं न कहीं मैं ख़ुद भी ज़िम्मेदार हूं। अपनी ख़ुशी के लिए मैंने हमेशा वही किया जिसने इस ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर ग्रहण लगाया। मैं बहुत बुरा हूं भाभी।"
"सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते वैभव।" भाभी बिस्तर से उतर कर मेरे पास आते हुए बोलीं____"मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें अपनी ग़लतियों का एहसास है और तुम अपनी ग़लतियों के लिए पछतावा कर रहे हो। मैं हमेशा यही कामना करती थी कि तुम सही रास्ते पर आ जाओ और अपने बिखर रहे परिवार को सम्हाल लो। आज ईश्वर ने शायद मेरी कामनाओं को पूरा कर दिया है। कोई इंसान ईश्वर के लेख को तो नहीं मिटा सकता लेकिन सब कुछ अच्छा करने का प्रयास तो कर ही सकता है। इस लिए मैं चाहती हूं कि अब से तुम वही करो जिससे ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर कोई आंच न आए। मैंने तो अपने उस दुःख को किसी तरह जज़्ब कर लिया है वैभव लेकिन माँ जी अपने बेटे के बारे में वो सब जान कर ख़ुद को सम्हाल नहीं पाएँगी। मैं नहीं चाहती कि किसी दिन ऐसा भी लम्हा आ जाए जो इस हवेली की दरो दीवार को हिला कर रख दे।"
"आप बहुत महान हैं भाभी।" मैंने श्रद्धा भाव से कहा____"इतने बड़े दुःख के बाद भी आप इस हवेली में रहने वालों और इस खानदान के बारे में इतना कुछ सोचती हैं। आप इतनी अच्छी कैसे हो सकती हैं भाभी? एक मैं हूं जो अपनी देवी सामान भाभी को देख कर अपनी नीयत ख़राब कर बैठता है। काश! वो ऊपर वाला बड़े भैया की जगह मेरे जीवन काल को समाप्त कर देता।"
"नहीं वैभव।" भाभी ने जल्दी से आगे बढ़ कर मेरे सिर को अपने पेट के पास छुपकाते हुए कहा____"भगवान के लिए ऐसा मत कहो। बस यही प्रार्थना करो कि किसी को भी कुछ न हो।"
भाभी की बात सुन कर मैं कुछ न बोला बल्कि भाभी के पेट से छुपका हुआ मैं बस यही सोच कर दुखी होता रहा कि काश मेरे भैया को मेरी उम्र लग जाए। कुछ देर बाद मैं भाभी से अलग हुआ। मैंने देखा उनकी आँखों में आंसू तैर रहे थे। संसार भर की मासूमियत विद्यमान थी उस पाक़ चेहरे में।
"एक बात बताइए भाभी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"भैया को अपने बारे में वो सब बातें कैसे पता हैं? क्या आपने उन्हें बताया है?"
"वो असल में बात ये हुई थी।" भाभी ने कहा____"कि एक दिन दादा ठाकुर मुझे उन्हीं सब बातों के लिए समझा रहे थे तो तुम्हारे भैया ने सुन लिया था। उसके बाद उन्होंने मुझसे उस बारे में पूछा था लेकिन मैंने जब उन्हें कुछ नहीं बताया तो उन्होंने अपनी कसम दे दी। उनकी कसम से मजबूर हो कर मुझे उन्हें सब कुछ बताना ही पड़ा।
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अभी तक समस्याएं जस की तस है ।उसके भैया का बदला स्वभाव कुछ तो है भैया को पता चल गया है की उसके पास ज्यादा समय नहीं है सायद इसलिए ऐसा बर्ताव। कर रहा हो वैभव ने वैसे तो कुछ पहल की है जैसे कि अपनी भाभी से बातें करना अपनी भाभी को समझाना और उनको रोने न देना उनको हमेशा मुस्कराते रहना अपने पुराने मित्रों से मिलकर कोई योजना बनाना , हवेली में रहने वाली उस अज्ञात " छम छम " पायल वाली का पता लगाना एवं कुसुम से उसकी परेशानियों के बारे में जानकारी लेना आदि । शायद कुसुम जरूर कुछ बताती अगर विभोर ने उसे आवाज नहीं दी होती ।☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 29
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अब तक,,,,,,
भाभी की बात सुन कर मैं कुछ न बोला बल्कि भाभी के पेट से छुपका हुआ मैं बस यही सोच कर दुखी होता रहा कि काश मेरे भैया को मेरी उम्र लग जाए। कुछ देर बाद मैं भाभी से अलग हुआ। मैंने देखा उनकी आँखों में आंसू तैर रहे थे। संसार भर की मासूमियत विद्यमान थी उस पाक़ चेहरे में।
"एक बात बताइए भाभी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"भैया को अपने बारे में वो सब बातें कैसे पता हैं? क्या आपने उन्हें बताया है?"
"वो असल में बात ये हुई थी।" भाभी ने कहा____"कि एक दिन दादा ठाकुर मुझे उन्हीं सब बातों के लिए समझा रहे थे तो तुम्हारे भैया ने सुन लिया था। उसके बाद उन्होंने मुझसे उस बारे में पूछा था लेकिन मैंने जब उन्हें कुछ नहीं बताया तो उन्होंने अपनी कसम दे दी। उनकी कसम से मजबूर हो कर मुझे उन्हें सब कुछ बताना ही पड़ा।"
अब आगे,,,,,
"तो इस तरीके से भैया को अपने बारे में वो सब पता चला।" मैंने सोचने वाले भाव से कहा____"ख़ैर भैया के उस बर्ताव ने मुझे बड़ी हैरत में डाल रखा है भाभी। होली के दिन वो मुझसे ऐसे मिले थे जैसे हमारा भरत मिलाप हुआ था। उन्होंने बड़ी ख़ुशी से मुझे अपने गले लगाया था और फिर उसी ख़ुशी में उन्होंने ये कह कर मुझे भांग वाला शरबत भी पिलाया था कि आज वो बहुत खुश हैं। उनके उस बर्ताव से मैं भी बेहद खुश हो गया था लेकिन कल शाम को जब मैं उनसे मिलने उनके कमरे में गया तो वो मुझे बेहद गुस्से में नज़र आए थे और उसी गुस्से में मुझे ये तक कहा था कि वो मुझसे कोई बात नहीं करना चाहते और अगर मैं उनके सामने से न गया तो वो मेरे टुकड़े टुकड़े कर देंगे। मैं उस वक़्त उनके उस वर्ताव से आश्चर्य चकित था भाभी। मुझे अब भी समझ नहीं आ रहा कि उनका अचानक से वैसा वर्ताव कैसे हो गया? आख़िर अचानक से उन्हें क्या हो गया था कि वो मुझे देखते ही बेहद गुस्से में आ गए थे जबकि मैंने तो उन्हें कुछ कहा भी नहीं था?"
"उनका ऐसा वर्ताव मेरे साथ भी है वैभव।" भाभी ने गहरी सांस ले कर उदास भाव से कहा____"पिछले कुछ समय से बड़ा अजीब सा वर्ताव कर रहे हैं वो। किसी किसी दिन वो अपने आप ही मुझसे गुस्सा हो जाते हैं और उस गुस्से में वो ऐसी बातें बोलते हैं जो बताने में भी मुझे शर्म आएगी। शुरू शुरू में मैं भी तुम्हारी तरह उनके ऐसे वर्ताव से चकित हो जाती थी किन्तु अब आदत हो गई है।"
"क्या पिता जी को बड़े भैया के ऐसे वर्ताव के बारे में पता है?" मैंने भाभी की तरफ देखते हुए पूछा____"क्या आपने पिता जी को उनके ऐसे वर्ताव के बारे में बताया नहीं?"
"हां उन्हें पता है।" भाभी ने कहा____"मैंने ही उन्हें बताया था। मेरे बताने पर पिता जी ने यही कहा कि तुम्हारे भैया का ऐसा वर्ताव शायद इस वजह से होगा कि उन्हें अपने बारे में वो भविष्यवाणी पता चल गई है जिसकी वजह से वो रात दिन उस बारे में सोचते होंगे और वो सब सोच सोच कर खुद को हलकान करते होंगे। इस वजह से किसी किसी दिन वो थोड़ा चिड़चिड़े हो कर ऐसा वर्ताव करते हैं।"
"क्या आपने और पिता जी ने बड़े भैया से उनके ऐसे वर्ताव के बारे में कुछ नहीं पूछा?" मैंने कहा____"जब आपको और पिता जी को उनके बारे में सब पता है तो उनके लिए आप दोनों को फिक्रमंद होना चाहिए था। उन्हें हर हाल में खुश रखने की कोशिश करनी चाहिए थी।"
"तुम्हें क्या लगता है वैभव कि हमने ऐसी कोशिश ही नहीं की?" भाभी ने गंभीर भाव से कहा____"नहीं वैभव, हमने इस बारे में तुम्हारे भैया से बहुत पूछा लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया। दादा ठाकुर कई बार उन्हें अपने साथ ले कर शहर गए और वहां अकेले में उनसे उनके उस वर्ताव के बारे में पूछा लेकिन तुम्हारे भैया ने उन्हें कुछ नहीं बताया। सिर्फ ये कहा कि उन्हें अब हर चीज़ से नफ़रत सी हो गई है। मैं उनकी पत्नी हूं वैभव और मुझे उनके लिए सबसे ज़्यादा दुःख है। हर रोज़ उनसे पूछती हूं और समझाती भी हूं। थोड़े समय के लिए उनका वर्ताव बहुत अच्छा हो जाता है लेकिन सुबह आँख खुलते ही उनका वर्ताव फिर से वैसा ही हो जाता है। मैं रात दिन इसी सोच में कुढ़ती रहती हूं कि आख़िर उन्हें कैसे खुश रखूं? संसार के सभी देवी देवताओं की पूजा भक्ति करती हूं लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा। आज जिस तरह के हालात बने हुए हैं उसे देख कर ये भी ख़याल रखना पड़ता है कि उनके बारे में ऐसी बात हवेली के बाहर न जाए वरना जो भी हमारा दुश्मन होगा उसे इस बात से यकीनन कोई न कोई फायदा हो जाएगा। हवेली में भी उनके बारे में ऐसी बात बाकी किसी को पता नहीं है। हवेली में किसी को उनके बारे में इसी लिए नहीं बताया गया क्योंकि ऐसी बातें माँ जी के कानों तक भी पहुंच जाएंगी और माँ जी उनके बारे में ऐसी बातें सहन नहीं कर पाएंगी। झूठी ही सही लेकिन अपने चेहरे पर हंसी और मुस्कान सजा कर रखनी पड़ती है ताकि हवेली में इस बात की भनक किसी भी तरह से किसी को न लग सके। सबसे ज़्यादा दुखी तो मैं हूं वैभव क्योंकि उन्हीं से तो मेरा सब कुछ है। अगर उन्हें ही कुछ हो गया तो मेरा तो सब कुछ उजड़ ही जायेगा न।"
भाभी ये सब कहने के बाद फफक फफक कर रोने लगीं थी। उनकी बातों ने मेरे दिलो दिमाग़ को झकझोर कर रख दिया था। मुझे एहसास हो रहा था कि इतना सब कुछ होने के बाद भाभी के लिए इस हवेली में सबके सामने अपने होठों पर मुस्कान सजा के रहना कितना मुश्किल होता होगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ईश्वर मेरी देवी सामान भाभी के भाग्य में ऐसा दुःख क्यों लिख दिया था? इतनी छोटी सी उम्र में उन्हें विधवा बना देने का अन्याय क्यों कर रहा था? मेरी नज़र भाभी के रोते हुए चेहरे पर पड़ी। दुःख और पीड़ा के भाव से उनका खूबसूरत चेहरा बिगड़ गया था। मेरे दिल में एक हूक सी उठी और मैंने धीरे से उनके कंधे पर अपना एक हाथ रखा तो उन्होंने चेहरा उठा कर मेरी तरफ देखा और फिर एक झटके से मेरे सीने से लिपट गईं। उनके लिपटते ही मेरा वजूद जैसे हिल सा गया। इस वक़्त मेरे मन में उनके लिए कोई भी ग़लत भावना नहीं थी बल्कि मैं बड़े प्यार से उन्हें खुद से छुपका कर उन्हें दिलाशा देने लगा था।
"मत रोइए भाभी।" मैंने उन्हें चुप कराने की गरज़ से कहा____"बड़े भैया को कुछ नहीं होगा। मैं अपने बड़े भैया को कुछ होने भी नहीं दूंगा। भगवान के लिए चुप हो जाइए। आप तो मेरी सबसे अच्छी और बहादुर भाभी हैं। आप इस तरह से हिम्मत नहीं हार सकती हैं। सब कुछ ठीक हो जाएगा। मेरे रहते भैया को कुछ नहीं होगा।"
"मुझे झूठा दिलासा मत दो वैभव।" भाभी ने मुझसे अलग हो कर और दुखी भाव से कहा____"तुम किसी के प्रारब्ध को नहीं बदल सकते और न ही तुम भगवान के लिखे को मिटा सकते हो। अब तो सारी ज़िन्दगी मुझे यूं ही तड़प तड़प के जीना है।"
"माना कि मैं किसी के प्रारब्ध को नहीं बदल सकता और न ही भगवान के लिखे को मिटा सकता हूं।" मैंने भाभी से कहा____"लेकिन अपनी आख़िरी सांस तक सब कुछ ठीक कर देने की कोशिश तो कर ही सकता हूं न भाभी? अभी तक तो मुझे अपनी किसी भी ज़िम्मेदारी का एहसास ही नहीं था लेकिन अब मैं हर ज़िम्मेदारी को अपनी जान दे कर भी निभाउंगा और ये मैं यूं ही नहीं कह रहा बल्कि ये वैभव सिंह का वादा है आपसे...और हां एक वादा मैं आपसे भी चाहता हूं।"
"मुझसे??" भाभी ने थोड़े हैरानी भरे भाव से मुझे देखा।
"हां भाभी।" मैंने कहा____"आपसे भी मुझे एक वादा चाहिए और वो ये कि आप ख़ुद को दुखी नहीं रखेंगी और अपनी आँखों से इस तरह आँसू नहीं बहाएंगी। मुझसे वादा कीजिए भाभी।"
"बहुत मुश्किल है वैभव।" भाभी की आँख से आंसू का एक कतरा छलक कर उनके खूबसूरत गाल पर बह आया जिसे मैंने अपने एक हाथ से पोंछा और फिर उनकी तरफ देखते हुए कहा____"ये आख़िरी आंसू था भाभी जो आपकी आँखों से निकला है। अब से कोई आंसू नहीं निकलना चाहिए। मुझसे वादा कीजिए कि अब से आप न तो ख़ुद को दुखी रखेंगी और न ही अपनी आँखों से आंसू बहाएंगी।"
मेरे कहने पर भाभी मुझे कुछ पलों तक अपलक देखती रहीं और फिर हल्के से अपना सिर हां में हिलाया। रोने की वजह से उनका बेदाग़ और खूबसूरत चेहरा थोड़ा मलिन हो गया था। मैं ख़ामोशी से कुछ पलों तक उन्हें देखता रहा और फिर बिना कुछ कहे उसी ख़ामोशी से पलट कर कमरे से बाहर निकल गया। इस वक़्त मेरे ज़हन में भैया और भाभी ही थे और मैं उन दोनों के बारे में सोचते हुए हवेली से बाहर निकल गया।
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उस वक़्त शाम पूरी तरह से घिर चुकी थी और रात का अँधेरा धीरे धीरे पूरी कायनात को अपनी आगोश में समेटने लगा था। हालांकि इस वक़्त ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था क्योंकि गांव के लोग अभी जाग ही रहे थे। बिजली इस वक़्त गई हुई थी इस लिए घरों में लालटेन के जलने का प्रकाश दिख रहा था। मैं पैदल ही अँधेरे में चलता हुआ एक तरफ तेज़ी से बढ़ा चला जा रहा था। ये गांव का पूर्वी छोर था और इस छोर पर मैं साढ़े चार महीने बाद आया था। मैं अकेला था और पैदल ही चल रहा था इस लिए इस बात का भी ख़याल था मुझे कि मेरे आस पास मेरा कोई दुश्मन न मौजूद हो जो आज कल मेरी ही फ़िराक में है। हालांकि दादा ठाकुर ने मेरी सुरक्षा के लिए एक साए को लगा रखा है लेकिन अपनी तरफ से भी सतर्क रहना मेरे लिए निहायत ही ज़रूरी था।
काफी देर तक पैदल चलने के बाद मैं एक पक्के मकान के पास आ कर रुक गया। मकान के बगल से नीम का एक बड़ा सा पेड़ था जिसके नीचे चबूतरा बना हुआ था। इस वक़्त चबूतरे पर कोई नहीं था। मैंने देखा मकान का दरवाज़ा खुला हुआ है और अंदर लालटेन का हल्का प्रकाश फैला हुआ है। मैं नीम के पेड़ के पास ही अँधेरे में खड़ा हुआ था। आस पास और भी घर थे लेकिन घर के बाहर इस वक़्त कोई नहीं दिख रहा था। मैंने आस पास का अच्छे से मुआयना किया और फिर उस पक्के मकान के खुले हुए दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।
मैं चलते हुए अभी उस दरवाज़े के क़रीब पंहुचा ही था कि तभी अंदर से मेरी ही उम्र का जो शख़्स आता हुआ दिखा मुझे वो चेतन था। उसे देख कर मैं अपनी जगह पर रुक गया। बाहर क्योंकि अँधेरा था इस लिए वो मुझे देख नहीं सकता था। ख़ैर कुछ ही पलों में जब वो दरवाज़े के बाहर अँधेरे में आया तो मैंने उसे दबोच लिया और जल्दी से उसके मुख पर अपने एक हाथ ही हथेली रख दी। चेतन मेरे द्वारा अचानक की गई इस हरकत से बुरी तरह डर गया और मुझसे छूटने की कोशिश करने ही लगा था कि तभी मैंने गुर्राते हुए धीमी आवाज़ में कहा____"ज़्यादा फड़फड़ा मत वरना एक ही झटके में तेरी गर्दन मरोड़ दूंगा। उसके बाद क्या होगा ये बताने की ज़रूरत नहीं है मुझे।"
चेतन मेरी सर्द आवाज़ सुन कर एकदम से ढीला पड़ गया। वो मेरी आवाज़ से मुझे पहचान चुका था। जब वो ढीला पड़ गया तो मैंने धीरे से ही कहा____"डर मत, मैं तेरे साथ कुछ नहीं करुंगा लेकिन हां ज़्यादा तेज़ आवाज़ की तो जान से मार दूंगा तुझे। बात समझ में आई कि नहीं?"
मेरे कहने पर उसने हां में अपने सिर को जल्दी से हिलाया तो मैंने उसे छोड़ दिया। मेरे छोड़ देने पर चेतन एकदम से मुझसे दूर हुआ और अपनी उखड़ी हुई साँसों को काबू करते हुए कहा____"ये क्या था वैभव? तूने तो मेरी जान ही निकल दी थी।"
"मेरे साथ चल।" मैंने कहा तो उसने चौंक कर पूछा____"कहां चलूं?"
"जहन्नुम में।" मैंने शख़्त भाव से कहा तो चेतन अँधेरे में मुझे कुछ पलों तक घूरा और फिर मेरे पीछे चल पड़ा।
मैं चलते हुए नीम के पेड़ के पास आ कर रुक गया तो चेतन भी रुक गया। वो मेरे पास ही खड़ा था इस लिए उसके चेहरे के भावों से मैं समझ सकता था कि इस वक़्त उसके मन में क्या चल रहा है।
"मुझे समझ नहीं आ रहा कि तू इस वक़्त यहाँ कैसे?" चेतन से जब न रहा गया तो उसने मुझसे कहा____"क्या मेरी ग़लती की सज़ा देने आया है यहाँ?"
"भूल जा उस बात को।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"मैंने तुम दोनों को माफ़ कर देने का फैसला किया है लेकिन....।"
"लेकिन???" चेतन हकलया।
"लेकिन ये कि उसके लिए मैं तुम दोनों को जो कहूंगा वो करना पड़ेगा।" मैंने शख़्त भाव से ये कहा तो चेतन जल्दी से बोल पड़ा____"बिल्कुल करेंगे भाई। तू बस एक बार बोल के तो देख।"
"ठीक है।" मैंने कहा____"कल सुनील के साथ गांव के बाहर उसी जगह पर मिलना जहां पर हम पहले मिला करते थे।"
"क्या कोई नई माल हाथ लगी है?" चेतन ने खुश होते हुए जल्दी से पूछा तो मैंने उसके पेट में हल्के से एक मुक्का जड़ते हुए कहा____"बुरचटने साले। तुझे क्या मैं दल्ला नज़र आता हूं?"
"तो फिर मेरा सुनील के साथ उस जगह मिलने से तेरा क्या मतलब है?" चेतन ने कराहते हुए कहा तो मैंने कहा____"मेरा मतलब तुम दोनों की गांड मारने से है। आज रात तू अपनी गांड में अच्छे से तेल लगा लेना ताकि कल जब मैं तेरी गांड में अपना सूखा लंड डालूं तो तुझे दर्द न हो गांडू।"
"ये क्या कह रहा है तू?" चेतन की हवा निकल गई, घबरा कर बोला____"भगवान के लिए ऐसा मत करना वैभव। क्या गांड मारने के लिए तुझे कोई लड़की नहीं मिली जो अब तू हम दोनों की मारने की बात कह रहा है?"
"बकवास बंद कर भोसड़ी के।" मैंने इस बार गुस्से में कहा____"मुझे तुम दोनों की सड़ियल गांड में कोई दिलचस्पी नहीं है। अब जा अपनी गांड मरा। कल समय से उस जगह पर मिल जाना वरना तेरे घर आ कर तेरी गांड मारुंगा।"
चेतन मेरी बात सुन कर मूर्खों की तरह मेरी तरफ देखता रह गया था और मैं पलट कर हवेली की तरफ वापस चल पड़ा था। मेरे ज़हन में इस वक़्त कई सारी बातें चल रहीं थी जिनके बारे में मैं गहराई से विचार करता जा रहा था।
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जब मैं हवेली पंहुचा तो माँ से सामना हो गया मेरा। उन्होंने मुझे देखते ही पूछा कि कहां चला गया था तू? उन्होंने बताया कि उन्होंने खुद मुझे हवेली में हर जगह खोजा था लेकिन मैं उन्हें कहीं नहीं मिला था। उनके पूछने पर मैंने उन्हें बताया कि मैं बाहर खुली हवा लेने गया था। मेरी बात सुनने के बाद माँ ने कुछ पलों तक मुझे देखा और फिर बोलीं कि खाने के लिए सब मेरा इंतज़ार कर रहे हैं।
गुसलखाने में जा कर मैंने हाथ मुँह धोया और सबके साथ खाना खाने आ गया। आज खाने पर काफी सारे लोग बैठे हुए थे। जगताप चाचा जी के लड़के भी थे किन्तु मेरी नज़र बड़े भैया पर थी। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। मुझ पर नज़र पड़ते ही उन्होंने इस तरह से अपना मुँह फेर लिया जैसे वो मुझे देखना ही नहीं चाहते थे। मुझे उनके इस वर्ताव से थोड़ा दुःख तो हुआ लेकिन फिर ये सोच कर खुद को समझा लिया कि इसमें शायद उनकी कोई ग़लती नहीं है बल्कि इसके पीछे वही वजह है जिसके बारे में भाभी ने बताया था। मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब मुझे क्या करना है। ख़ैर हम सबने पिता जी की इजाज़त मिलते ही ख़ामोशी से भोजन करना शुरू किया।
खाना खाने के बाद सब अपने अपने कमरों की तरफ चले गए। मैं भी चुपचाप अपने कमरे की तरफ चल दिया तो आगे बरामदे के पास मुझे कुसुम मिल गई। मैंने उसे खाना खाने के बाद मेरे कमरे में आने को कहा तो उसने सिर हिला दिया। बिजली आ गई थी इस लिए हवेली में हर तरफ उजाला फैला हुआ था। मैं आँगन से न जा कर लम्बे चौड़े बरामदे से चल कर दूसरी तरफ जा रहा था। असल में मेरी नज़र उस नौकरानी को खोज रही थी जो मेनका चाची से बातें कर रही थी और मुझे देखते ही घबरा सी गई थी।
बरामदे से चलते हुए मैं दूसरी तरफ आ गया। इस बीच मुझे दूसरी कई नौकरानियाँ दिखीं लेकिन वो नौकरानी मुझे नज़र न आई। हवेली इतनी बड़ी थी कि उसमे कमरों की कोई कमी नहीं थी। हवेली के सभी नौकर और नौकरानियों के लिए अलग अलग कमरे थे जो हवेली के बाएं छोर पर थे। हालांकि कुछ नौकर और नौकरानी शाम को अपने अपने घर चले जाते थे लेकिन कुछ हवेली में ही रहते थे। माँ और चाची के लिए दो दो नौकरानियाँ थी। जिनमे से एक एक माँ और चाची के कपड़े धोती थी और दूसरी उनका श्रृंगार करती थी। भाभी के लिए भी इसी तरह दो नौकरानियाँ थी। हालांकि भाभी को अपने काम खुद करना पसंद था किन्तु माँ की बात रखने के लिए उन्हें नौकरानियों को काम देना पड़ता था। बाकी की नौकरानियाँ मर्दों के कपड़े धोती थी और हवेली की साफ़ सफाई करती थी। नौकरों का काम हवेली के बाहर की साफ़ सफाई का था जिसमे बग्घी वाले घोड़ों की देख भाल करना भी शामिल था।
मैं दूसरी तरफ आ चुका था। मेरी नज़र अभी उस नौकरानी को खोज रही थी। मेरे मन में ख़याल उभरा कि क्या वो नौकरानी मेनका चाची की होगी? क्योंकि वो उन्हीं के पास खड़ी थी और चाची उससे बातें कर रही थी। मैंने कभी इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया था कि हवेली में रहने वाली नौकरानियों में कौन किसका काम करती हैं। पहले वाली सभी नौकरानियों को पिता जी ने मेरी वजह से हवेली से निकाल दिया था। आज अगर वो नौकरानियाँ हवेली में होतीं तो मेरे कहने पर वो कुछ भी कर सकती थीं। ख़ैर मैं सीढ़ियों पर चढ़ कर ऊपर अपने कमरे की तरफ चल पड़ा।
कमरे में आ कर मैंने अपनी कमीज उतारी और पंखा चालू कर के पलंग पर लेट गया। पलंग पर लेटा मैं सोच रहा था कि आज के समय में मेरे सामने कई सारे ऐसे मामले थे जिनको मुझे सुलझाना था। पहला मामला मुरारी काका की हत्या का था जो कि दिन-ब-दिन एक रहस्य सा बनता जा रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर किस वजह से मुरारी काका का क़त्ल किया गया होगा? क्या सिर्फ इस लिए कि उनकी हत्या कर के मुझे फंसा दिया जाए और उनकी हत्या के जुर्म में कानूनन मुझे जेल हो जाए? पिता जी का तो यही सोचना था इस बारे में। ख़ैर दूसरा मामला था साहूकारों का कि उन्होंने क्या सोच कर हमसे अपने रिश्ते सुधारे होंगे? क्या ऐसा करने के पीछे सच में उनका कोई मकसद छिपा है? तीसरा मामला था हवेली में रहने वाले मेरे चचेरे भाइयों का। आख़िर मैंने उनका क्या बुरा किया है जिसकी वजह से वो दोनों मुझसे दूर दूर रहते हैं? चौथा मामला था मेरे बड़े भाई साहब का जो कि किसी रहस्य से कम नहीं था। कुल गुरु ने उनके बारे में भविष्यवाणी की है कि उनका जीवन काल बस कुछ ही समय का है। सवाल है कि आख़िर ऐसा क्यों? वहीं एक तरफ सोचने वाला सवाल ये भी है कि आख़िर बड़े भैया का वर्ताव ऐसा क्यों हो जाता है कि वो मुझसे या भाभी से गुस्सा हो जाते हैं? हालांकि एक सवाल तो ये भी है कि क्या उनका ऐसा वर्ताव हवेली के बाकी लोगों के साथ भी है या उनके ऐसे वर्ताव के शिकार सिर्फ मैं और भाभी ही हैं? पांचवा मामला था कुसुम का। हमेशा अपनी नटखट और चुलबुली हरकतों से हवेली में शोर मचाने वाली कुसुम कभी कभी इतना गंभीर क्यों हो जाती है? आख़िर चार महीने में ऐसा क्या हो गया है जिसने उसे गंभीर बना दिया है? ऐसे अभी और भी मामले थे जो मेरे लिए रहस्य ही बनते जा रहे थे जैसे कि रजनी का रूपचन्द्र के साथ सम्बन्ध और वो दो साए जो मुझे उस दिन बगीचे में मारने आये थे।
मैं इन सभी मामलों में इतना खो गया था कि मुझे पता ही नहीं चला कि कब मेरे कमरे में कुसुम आ कर खड़ी हो गई थी। उसने जब मुझे आवाज़ दी तो मैं चौंक कर विचारों के समुद्र से बाहर आया।
"मैंने आपका नाम सोचन देव ठीक ही रखा है।" कुसुम ने पलंग के किनारे पर बैठते हुए कहा____"पता नहीं आज कल आपको क्या हो गया है कि हर वक़्त कहीं न कहीं खोए हुए ही नज़र आते हैं।"
"वक़्त और हालात ही ऐसे हैं कि मुझे हर पल खो जाने पर मजबूर किए रहते हैं।" मैंने थोड़ा सा उठ कर पलंग की पुष्ट पर अपनी पीठ टिकाते हुए कहा____"ख़ैर ये सब छोड़ और ये बता खाना खा लिया तूने?"
"हां खाना खा कर ही आई हूं यहां।" कुसुम ने कहा____"आप बताइए किस लिए बुलाया था मुझे?"
"अगर मैं तुझसे ये पूछूं कि तू मुझसे कितना प्यार करती है।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए ख़ास भाव से कहा____"तो क्या तू इसका सच सच जवाब देगी?"
"ये...ये क्या कह रहे हैं आप?" कुसुम ने हैरत से मेरी तरफ देखते हुए कहा तो मैंने कहा____"क्यों क्या ग़लत कह रहा हूं मैं? क्या तू अपने इस भाई से प्यार नहीं करती?"
"वो तो मैं करती हूं।" कुसुम ने कहा____"एक आप ही तो हैं जो मेरे सबसे अच्छे वाले भैया हैं। भला कौन ऐसी बहन होगी जो ऐसे भाई से प्यार नहीं करेगी? आप ये क्यों पूछ रहे हैं?"
"वो इस लिए कि तू अपने इस भाई से सच छुपा रही है।" मैंने उसके चेहरे की तरफ देखते हुए कहा____"अगर तू सच में अपने इस भाई से प्यार करती है तो मुझे वो बता जिसे तू मुझसे छुपा रही है। मुझे बता कि इन चार महीनों में यहाँ पर ऐसा क्या हुआ है जिसने तुझे गंभीर बना दिया है?"
"ऐसी कोई बात नहीं है भइया।" कुसुम ने नज़रें चुराते हुए कहा____"आप बेवजह ही इस बात की शंका कर रहे हैं। मैं तो वैसी ही हूं जैसी हमेशा से थी। आपको ऐसा क्यों लगता है कि चार महीनों में यहाँ पर कुछ ऐसा हुआ है जिसने मुझे गंभीर बना दिया है?"
"तूने शायद भुला दिया होगा लेकिन मुझे अभी भी याद है।" मैंने कहा____"जब मैं चार महीने बाद यहाँ आया था तब इसी कमरे में मेरी तुझसे बातें हो रही थी। उन्हीं बातों में तूने मुझसे कहा था कि यहाँ तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ख़ुशी से ऐसे भी काम करते हैं जिसे वो गुनाह नहीं समझते। अब बता बहना, तू उस वक़्त ऐसे किन लोगों की बात कर रही थी और हां मुझसे झूठ मत बोलना। मुझे सच सुनना है तुझसे।"
मेरी बात सुन कर कुसम के चेहरे पर एकदम से कई सारे भाव आते जाते दिखाई देने लगे। वो एकदम से मुझे कुछ परेशान सी और कुछ घबराई हुई सी दिखाई देने लगी थी। उसके खूबसूरत और मासूम से चेहरे पर बेचैनी से पसीना उभर आया था। मैं अपलक उसी को देख रहा था और समझ भी रहा था कि उसके मन में बड़ी तेज़ी से कुछ चलने लगा है।
"क्या हुआ?" जब वो कुछ न बोली तो मैंने कहा____"तू इतना परेशान और घबराई हुई सी क्यों दिखने लगी है? आख़िर क्या बात है बहना? मुझसे बेझिझक हो कर बता। तू अच्छी तरह जानती है कि तेरा ये भाई तुझे किसी भी हालत में परेशान या दुखी होते नहीं देख सकता। अगर कोई बात है तो तू मुझे बिना संकोच के बता दे। मैं तुझसे वादा करता हूं कि मेरे रहते तुझे कोई कुछ नहीं कहेगा।"
मेरी बात सुन कर कुसुम ने नज़र उठा कर मेरी तरफ देखा। उसके चेहरे पर दुःख और पीड़ा के भाव उभर आये थे। उसकी आँखों में आंसू तैरते हुए नज़र आए मुझे। उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठ कांप रहे थे। अभी शायद वो कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी कमरे के बाहर से एक आवाज़ आई जिसे सुन कर कुसुम के साथ साथ मेरा भी ध्यान उस आवाज़ पर गया। कमरे के बाहर विभोर था और वो कुसुम को आवाज़ दे कर ये कहा था कि माँ बुला रही हैं उसे। विभोर की ये बात सुन कर कुसुम ने मेरी तरफ बेबस भाव से देखा और फिर चुपचाप पलंग से उठ कर कमरे से बाहर चली गई।
कुसुम तो चली गई थी लेकिन मैं ये सोचने पर मजबूर हो गया था कि आख़िर ऐसी क्या बात थी कि मेरे पूछने पर उसके चेहरे पर इस तरह के भाव मानो तांडव सा करने लगे थे? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी मैं चौंका। मेरे ज़हन में बिजली की तरह ये ख़याल उभरा कि विभोर की आवाज़ ठीक उसी वक़्त क्यों आई थी जब कुसुम शायद मुझसे कुछ बोलने वाली थी? क्या ये इत्तेफ़ाक़ था या फिर जान बूझ कर उसने उसी वक़्त कुसुम को आवाज़ दी थी? यानि हो सकता है कि वो कमरे के बाहर छुप कर हमारी बातें सुन रहा होगा और जैसे ही उसे आभास हुआ कि कुसुम मुझे कुछ बताने वाली है तो उसने उसे आवाज़ लगा दी। मुझे अपना ये ख़्याल जंचा तो ज़रूर किन्तु मैं ख़ुद ये निर्णय नहीं ले सका कि मेरे इस ख़्याल में कोई सच्चाई है भी अथवा नहीं?
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