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लगभग 1 महीने का पूरा वक्त था और सीने में आग भड़क रही थी। शादी की तैयारियों के साथ ही सभी को मारने की तैयारी भी चल रही थी। शादी लोनावाला, महाराष्ट्र, के किसी रिजॉर्ट से हो रही थी। जैसा शुरू से होता चला आया था, सुकेश और उज्जवल भारद्वाज आस–पास ही ठहरे थे, और उन दोनो के आस–पास उनके कुछ सहयोगी। बस एक जयदेव था जिसका कमरा नंबर पता नही चला था। खैर, किसी का कमरा नंबर पता हो की नही हो लेकिन तैयारियां पूरी थी। शादी के एक रात पूर्व भूमि को जयदेव भी दिख गया। दोनो की नजरें एक बार टकराई और दोनो अलग रास्ते पर चल दिये।
रात के 2 बज रहे थे, जब असली खेल शुरू हुआ। कहते है न, आत्मविश्वास और अति आत्मविश्वास में धागे मात्र का फर्क होता है। यहां तो नायजो समुदाय में विश्वास और आत्मविश्वास से कहीं ऊपर सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ होने की भावना थी। इसी भावना के चलते यह विश्वास पनपा की मेरा कौन क्या बिगड़ लेगा। हालांकि सुरक्षा के सभी कड़े इंतजामात थे, लेकिन एक आईएएस केशव कुलकर्णी का दिमाग और पूर्व के 2 घातक शिकारी, भूमि और जया, शिकार पर निकले थे। सुरक्षा के जितने भी इंतजाम थे वो सब फिर क्या कर लेते...
रिजॉर्ट का वो हिस्सा जहां सुकेश और उज्जवल ठहरे थे, रात भर के जश्न के बाद घोड़े बेचकर सो रहे थे। सुकेश और मीनाक्षी, उज्जवल और अक्षरा के अलावा वहां आस–पास के स्वीट्स में कौन–कौन थे, ये भूमि, जया और केशव को नही पता था। बस एक ही बात पता थी, बदला, बदला और बदला... और इंतकाम की आग ऐसी भड़की थी, उसका नजारा रात के 2 बजे सबको पता चल गया।
न कोई विस्फोट हुआ और न ही कोई गोली चली। एसी के डक्ट से चली तो एक गैस, और फिर जो नजारा सामने आया वह केशव, जया और भूमि को सुकून देने वाला नजारा था। हालांकि गैस की गंध से सोए लोग भी जाग चुके थे, लेकिन जागने में थोड़ी देर हो चुकी थी। जबतक जागकर समझते की भागना था, उस से पहले ही एक छोटी सी चिंगारी और चारो ओर आग ही आग। एसी कमरा यानी पूरा बंद कमरा। ऊपर से बाहर निकलने वाला दरवाजा भी बाहर से बंद। चिंगारी उठते ही मानो रिजॉर्ट के उस हिस्से के हर स्वीट के अंदर एटम बॉम्ब जैसा विस्फोट के साथ आग फैला हो। पलक झपकने के पूर्व सब सही और पलक झपकते ही चारो ओर आग ही आग।
अंदर कई हजार डिग्री के तापमान तक कमरे झुलसने के बाद बाहर धुवां दिखने लगा। एक गार्ड ने जैसे ही किसी तरह एक स्वीट का दरवाजा खोला, धू करके आग का बवंडर दरवाजा के रास्ते इतनी दूर तक गया की वो गार्ड भी उसके चपेट में आ गया। किसी तरह उस गार्ड को बचाकर ले गये और यह नजारा देखकर दूसरे गार्ड की फट गयी। फिर किसी की हिम्मत नही हुई, किसी दरवाजे को खोलने की। कहीं दूर से आग और धुवां का मजा लेते तीनो, केशव, जया और भूमि अंदर से काफी खुश हो रहे थे।
भूमि:– अरे अभी तो धुवां ही नजर आ रहा, तंदूर प्रहरी कब नजर आएंगे.…
केशव:– हां मैं भी उसी के इंतजार में हूं। यादि कोई बच जायेगा तो उसके लिए व्यवस्था टाइट तो रखे हो न...
भूमि:– मौसा पूरी व्यवस्था टाइट है... किसी को बचने तो दो...
जया:– नही जो बचेंगे वो उनकी किस्मत... अब हम दोबारा हमला नही करेंगे, बल्कि यहां से सुरक्षित निकलने की तैयारी करो। अभी अपने बच्चे का पूरा इंतकाम लेना बाकी है। बदला लेने से पहले मैं मर नही सकती...
केशव:– जैसे तुम्हारी मर्जी... चलो फिर पास से इसका नजारा लेते है.…
तीनो आग वाले हिस्से में पहुंच गये। मौके पर अग्निशमन की गाड़ियां पहुंच चुकी थी। फायर फाइटर्स अपने काम में लग चुके थे। ये तीनों भी अब आग बुझने और जले हुये तंदूर प्रहरियों के बाहर आने का इंतजार करने लगे।
"बहुत खूब, तो अब भी तुम लोगों में हिम्मत बाकी है?"… भूमि के करीब खड़ा जयदेव धीरे से कहा...
भूमि:– कहीं मजलूम तो नही समझ रखे थे न जयदेव..
जयदेव:– न ना.. तुझे तो बस जरिया समझ रखा था, लेकिन निकली फालतू। सारा क्रेडिट तो वो माया ले गयी। तुझपर सम्मोहन करने का कोई फायदा नही निकला।
भूमि:– अभी तेरी बातों पर मुझे कोई प्रतिक्रिया देने की जरूरत नही। बस तू जो बोला था वह याद आ गया... तुम लोग आसमान से भी ऊंची रेंज वाले लोग हो ना। शायद खुद को अपेक्स सुपरनैचुरल कहलवाना ज्यादा पसंद करते हो... एक बात बताओ, जिस समुदाय का बिल्ड अप इतना बड़ा था, उन्हे इस आग में कुछ हुआ तो नही होगा ना.…
जयदेव:– तू गलत खेल गई है...
भूमि:– मां बाप कभी मां बाप थे ही नहीं। पति कभी पति नही था। एक प्यारा भाई था वो बचा नही... अब तो ले लिया पंगा जयदेव... गलत सही जो खेलना था, खेल लीया। अब उखाड़ ले जो उखाड़ना है...
जयदेव:– सुबह के उजाला होने से पहले तू क्या, इस जगह पर आर्यमणि के जितने भी चाहनेवाले उसके करीबी है, सब मरेंगे...
भूमि:– पंगा किसी से लो तो उसके परिणाम के लिए भी तैयार रहो, ऐसा ही कुछ तू कहकर गया था न... खुदको क्या भगवान समझता है, जो तेरे पंगे का कोई जवाब नही देगा... साला खुद पर आयी तो बिलबिला रहा है... सुन बे बदबूदार मल… तेरे गांड़ में दम हो तो सुबह होने से पहले हमारी लाश गिरा कर दिखा देना... अब मुझे तेरे भाई बंधु का तंदूर देखने दे... तु तबतक जाकर हमारे मर्डर की तैयारी कर..
जयदेव, अपनी उंगली दिखाते.… "तुझे तो मैं छोडूंगा नही"..
भूमि:– जो भी है करके दिखा चुतिए, बोल बच्चन मत दे। वैसे एक जिज्ञासा है... क्या आग में तुमलोग भी जलते हो, या फिर जो खुद को इतना ऊंचा बताते है, वो अमर बूटी खाकर आया है, जो आग भी उसका कुछ नही बिगाड़ सकती...
जयदेव घूरती नजरो से देखने लगा। इस से पहले की कुछ कहता, अग्निशमको द्वारा आग में फंसे लोगों को बचाकर बाहर निकाला जा रहा था। सबसे पहले सुकेश भारद्वाज ही बाहर आया... पूरा का पूरा जला हुआ... देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अगर सुकेश को पकड़ ले तो हाथ में उसका पूरा भुना मांस चला आयेगा...
एक–एक करके कुल 22 लोगों को निकाला गया। 22 में से 17 की हालत गंभीर और 5 लोगों को मृत घोषित कर दिया गया। मरने वालों में से 2 बड़े नाम, अक्षरा भारद्वाज और उज्जवल भारद्वाज थे। लगभग सुबह के 5 बज रहे थे। कौतूहल से भरा माहोल शांत होने को आया था। दूर खड़े तमाशा देख रहे लोग अब धीरे–धीरे छटने लगे, केवल 4 लोगों को छोड़कर…. भूमि, जया, केशव एक टीम और दूसरी ओर जयदेव...
मृत और गंभीर रूप से घायलों का ब्योरा जैसे ही आया, भूमि रौबदार आवाज में.… "हम फलाना है, हम चिलाना है... मासी खुद को तुर्रम खां समझने वालों को परख लिया.. आग में उनके भी मांस ठीक वैसे ही जले, जैसे हमारा दिल जल रहा है। चलो स्कोर बुरा तो नहीं। 5 के नरक लोक का टिकट कट गया।"
जया:– भूमि, कोई तो कह रहा था, सूरज निकलने से पहले हमारी लाश गिरा देगा... घंटे भर में तो सूरज निकल भी आएगा...
केशव:– सुनो बे, तुम्हे जो करना था वो कर चुके... अब हमारी बारी है... शिकार करने वाले खुद भी शिकार हो सकते हैं, यह बात हम तो कभी नही भूले, लेकिन लगता है ये पाठ तुम नीच लोगों ने नही पढ़ा... कोई बात नही अभी साक्षात गुरुदेव केशव कुलकर्णी तुम्हे ये पाठ रटवा देंगे... बस देखते जाओ... चलो सब यहां से...
इतना कहकर वहां से तीनो निकल लिये। उन तीनो को मारने का इरादा रखने वाला जयदेव तुरंत ही अपने लोगो को इकट्ठा किया। बाहर निकला तो था तीनो को मारने, लेकिन हल्के अंधेरे और हल्के उजाले वाले भोर की बेला में जयदेव को काल के दर्शन हो गये। सात्त्विक आश्रम के 6 संन्यासियों के साथ ओजल उनके रास्ते में खड़ी थी।
जयदेव, ओजल को सामने देख, अपना कारवां रोकते.… "ब्लड पैक की एक जिंदा बची अल्फा। अच्छे वक्त पर आयी हो। हम अभी आर्यमणि के सभी चाहने वालों को खत्म करने जा रहे थे। तु अकेली जिंदा रहकर क्या कर लेती... खत्म करो इन सबको जल्दी..."
जयदेव के लिये शायद यह वक्त बुरा चल रहा था। जयदेव ने अपनी बातें समाप्त किया और अगले ही पल निशांत का एक जोड़दार तमाचा पड़ गया। इधर निशांत को तमाचा पड़ा और उधर जयदेव के साथ आये गुर्गों को कब ओजल काटकर जमीन पर उसके टुकड़े बिछा दी, जयदेव को पता भी नही चला। और जब तक पता चला तब तक लाशें गिर चुकी थी।
जयदेव लगातार आंखों से रौशनी निकालता रहा लेकिन वायु विघ्न मंत्र को साधने वालों पर फिर कहां ये नायजो के आंखों की लेजर काम आती है। अगले ही पल वहां चारो ओर धुवां। धुएं के अंदर जयदेव को शुद्ध रूप से लात और घुसे पर रहे थे। इतने कड़क लतों और घुसो की बारिश हो रही थी कि उसका हीलिंग प्रोसेस लुल हो गयी।
किसी आम इंसान की तरह जयदेव भी बेहोशी हो गया और बेहोशी के बाद जब आंखें खुली तब चारो ओर अंधेरा ही अंधेरा था। वह जगह इतनी अंधकार थी कि आंखों के लेजर की रौशनी तक से कुछ नही देखा जा सकता था। जयदेव कई दिनों तक बाहर निकलने की कोशिश करता रहा, पर चारो ओर ऐसी दीवारें बनी थी जो न तो बाहुबल से टूटा और न ही नजरों के लेजर से।
अंत में अहंकारी नायजो समुदाय के घमंडी जयदेव खुद में बेबस सा महसूस करने लगा। जब बेबसी का दौड़ शुरू हुआ उसके पहले दिन जयदेव चींखते चिल्लाते यही कहता रहा की यहां से निकलकर सबसे पहले तुम्हारी लाश गिराऊंगा। फिर कुछ दिन बीते। बेबसी ने उनके जीवन में ऐसा पाऊं पसारा की बाद ने गिड़गिड़ाते हुए कहने लगे... "मुझे जाने दो। क्यों यहां रखे हो। तुम्हे क्या चाहिए कुछ तो बोलो"…
खैर आवाज पहले दिन वाला अहंकारी हो या फिर हिम्मत टूटने के बाद बेबस जैसा, दोनो ही परिस्थिति में जयदेव को बाहर से कहीं कोई जवाब नहीं मिला। मिला तो सिर्फ उसे अंधेरा।... घोर अंधेरा था। उस अंधेरे में खाने के लिये नाक का इस्तमाल करना पड़ता था। किसी तरह सूंघ कर अपने खाने तक पहुंचते थे।
जयदेव गायब हो चुका था। उसकी कोई खबर नहीं मिली। हाई टेबल प्रहरी को चलाने वाले नायजो सब जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे। नायज़ो हाई टेबल पर ऐसा हमला हुआ था मानो उनकी कमर टूट गयी हो। आर्यमणि मर चुका था और उसके मरने के बाद भी जब नायजो का शिकर हो गया, इस बात से भिड़ पागल बनी हुई थी। मीटिंग विवियन ले रहा था और सामने लाखों की भिड़।
विवियन:– 12 मई की सुबह काली थी। इस आगजनी को 3 महीने हो गये। हमारे 5 लोग तत्काल मारे गये। इलाज के दौरान 6 लोगों की मौत हो चुकी है। जो 11 लोग अभी बचे है, वो भी पता नही कब तक ठीक होंगे या कभी ठीक होंगे भी या नही.…
भीड़ से एक आवाज:– ये सुनने हम यहां नही आये। जिन कीड़ों ने ये काम किया था, उन्हे जिंदा जलाया की नही..
पलक, अपनी जगह से खड़ी होती... "उन्हे मारने के लिए जयदेव 6 लोगों के साथ गया था, लेकिन पिछले 3 महीने से न तो आग लगाने वालों का पता लगा और न ही जयदेव का"…
भीड़ से कोई... "तुम सब नकारा हो गये हो। क्या अब कोई हमसे भी ऊपर है?
विवियन:– यहां आपस में झगड़ने से कोई फायदा नही है। ये वक्त आपस में लड़ने का नही...
भिड़ से कोई एक:– पहले तो वो आर्यमणि था, जिसने जब चाहा हमारा शिकार कर लिया। वो गया तो उसकी बहन और उसके मां–बाप। न जाने कहां छिपे है। अंधेरे से बाहर निकलते है और सबको जलाकर अंधेरे में फिर गायब। क्या हम उनके लिये इतना आसान शिकार है?
विवियन:– मैं आप सबकी तकलीफ को समझता हूं। हमारे लोग उन सबकी तलाश में जुटे है, तब तक आप लोग धैर्य बनाकर चलिए और जिसे भी वो लोग दिख जाये मारिए पहले सवाल बाद में कीजिए।
विवियन इतना ही बोला था कि पीछे से उसके कंधे पर हाथ पड़ा। मुड़कर देखा तो माया खड़ी थी।। माया पूरे भीड़ को हाथ दिखाती.… "तुम्हारे लीडर्स के घायल होते ही तुम्हारा संगठन ही कमजोर सा लग रहा। सब शांत रहेंगे... पहली बार हम सामने आकर किसी को मारे थे। उसका कुछ तो परिणाम भुगतोगे या नही... जिन्होंने हम पर हमला किया, उन्होंने अपने पूरे क्षमता के साथ हमला किया। हमे भी पता नही था कि आम से दिखने वाले ये लोग कितना नुकसान कर सकते है। लेकिन देखो, तुम्हारे सभी नेताओं को ही लिटा दिया। इसलिए 2 बात हमेशा याद रहे... पहला की खुलकर कभी सामने मत आओ और यदि सामने आते भी हो तो जबतक सभी मुसीबत खत्म न हो जाये, तब तक आंखें खुली और दिमाग हमेशा खतरे को साफ करने के पीछे लगाओ"…
भीड़ से एक... तो क्या ये इंसान इतने ताकतवर हो गये की अब हमारा शिकार करेंगे?
माया:– ताकत की बात कौन कहता है। ताकत से लड़े होते तो क्या कोई मरता भी। शिकार करने की तकनीक हमने किनसे सीखी है, इंसानों से ही। घात लगाकर पूरे धैर्य पूर्वक शिकार करना। मौत कहां से चली आयी किसी को पता नही। तो हां अपनी शारीरिक क्षमता पर इतना विश्वास न जताओ क्योंकि इंसान क्या कर सकते है उसका प्रत्यक्ष उदाहरण सामने है... जिन लोगों ने हमे चोट दिया वो सब शिकारी थे और उन्हें पता था कि किसने उनके प्रियजनों को मारा था। ये बात तो तुम्हारे लीडर्स भी जानते थे कि जिन लोगों ने हमला किया था, उन्हे पहले से तुम्हारे लीडर्स पर शक था। लेकिन कहते है न विनाश काले विपरित बुद्धि... वो लोग हमारा क्या बिगड़ लेंगे ये सोचने वाले कुछ लोग मर गये और कुछ मरने के कगार पर है।
भीड़:– हां समझ गये की शरीर की क्षमता जितनी जरूरी है, उस से कहीं ज्यादा मानसिक क्षमता मायने रखती है। और वो दूसरी बात क्या है माया...
माया:– यह पहली बार नही था जो हमने आग का सामना किया हो। आर्यमणि हमारे कई लोगों को जिंदा जला चुका है। हां लेकिन उस वक्त इतना ध्यान इसलिए नही गया क्योंकि वह केवल जलाता नही था। तुम सब एक ही काम में लग जाओ...ऐसी युक्ति ढूंढो की दोबारा कोई हमे आग से डरा न सके। वैसे एक खुश खबरी भी है। हमारे नए दोस्त निमेषदर्थ ने आर्यमणि के खून से ऐसी हीलिंग पोशन तैयार कर लिया है कि महज 1 घंटे में तुम्हारे बचे हुए लीडर्स तुम लोगों से बात करेंगे। पृथ्वी पर मेरा काम खत्म होता है, इसलिए मैं विषपर प्लैनेट वापस जा रही। आते जाते रहूंगी... और हां पलक एक मेघावी नायजो है, उम्मीद है उसके लीडरशिप में तुम लोग और ऊंचाइयों को छू सकोगे.… अब मैं चलती हूं...
माया सभा समाप्त करके चली गयी और पलक के लिये एक नई राह खोल गयी। कुछ वर्ष पूर्व ही उसे भी पता चला था की वह अपने भाई राजदीप की तरह ही एक पूर्ण नायजो है। बाकी उसका बड़ा भाई कंवल और बड़ी बहन नम्रता में नायजो वाले कोई गुण नही आये थे। पलक जब लीडरशिप की राह में चली फिर उसने पीछे मुड़कर नही देखा। छोटे उम्र के इस लीडर ने चारो ओर से खूब सराहना बटोरी। देखते ही देखते समुदाय में उसका कद और रूतवा इतना ऊंचा हुआ कि वो अब 5 ग्रहों में बैठे लीडर्स के साथ उठा–बैठा करती थी।
वक्त अपने रफ्तार से चलता रहा। दिन बीत रहे थे। सुकेश और मीनाक्षी भी स्वास्थ्य होकर अपना काम देख रहे थे। उस आगजनी में अक्षरा और उज्जवल अपना दम तोड़ चुके थे। इस बात का मलाल सबको था। उस दिन के बाद हर कोई भूमि, केशव और जया की तलाश करते रहे, लेकिन उन्हें एक निशान तक नही मिले। जयदेव भी बिलकुल गायब ही था... सबको जमीन निगल गई या आसमान खा गया कुछ पता नहीं चल पा रहा था.…
अब तो वक्त भी इतना गुजर चुका था कि धीरे–धीरे सब इस बात को भूलते जा रहे थे। प्रहरी के मुखौटा तले नायजो समुदाय फल फूल रहा था। वेयरवुल्फ को अब भी बीस्ट वुल्फ बनाया जा रहा था। प्रहरी में आने वाले इंसानों के दिमाग में अब भी 2 दुनिया के रखवाले होने का भूत घुसाया जा रहा था और इसी काम के दौरान ही, पृथ्वी मानव सभ्यता का मिलन नायजो समुदाय से होता था। कुछ इंसानी बच्चे पैदा होते। उन्हे या तो मार दिया जाता या फिर जय प्रहरी के नारे लगवाए जाते। कुछ पूर्ण अथवा अल्प नायजो बनते, उन सबको अलग सभा में बिठाकर अपनी परम्परा में ढालते। कुल मिलाकर नायजो का सब कुछ चकाचक चल रहा था।
रूही, इवान और अलबेली की लाशें गिर चुकी थी। आर्यमणि हताश अपने घुटने पर बैठा हुआ था। निमेषदर्थ को उसके प्रयोग के लिये आर्यमणि का खून देने के बाद, जैसे ही माया खंजर चलाई, ठीक उसी वक्त चाहकीली महासागर के उस हिस्से में पहुंच चुकी थी। चाहकिली थी तो काफी दूर लेकिन हृदय में जैसे वियोग सा उठा था और पल में उसकी आवाज ने जो कहर बरसाया उसका परिणाम यह हुआ की जिस पहाड़ पर अल्फा पैक का शिकार हो रहा था, वह पूरा पहाड़ ही बीच से ढह गया। देखने से ऐसा लग रहा था मानो वहां 2 पहाड़ के मध्य गहरी खाई बन गयी हो।
जिस वक्त चाहकीली ने यह सुनामी उठाई उस वक्त माया खंजर चला चुकी थी। चाहकिली की आवाज पर पानी, सुनामी का रूप ले चुकी थी। पानी कई हजार फीट ऊंचा उठा और इस रफ्तार से पहाड़ी के उस हिस्से से गुजरा की पूरी पहाड़ मानो रेत के तिनके की तरह ढह गयी। माया जो साफ मौसम में अपना खंजर चलाई थी, वह पानी के सुनामी के बीच फंस गयी। हालांकि खंजर सर को छू चुकी थी लेकिन सर को पूरा फाड़ने से पहले ही वह जगह नीचे महासागर में घुस गयी। माया को लगा उसका काम हो गया और खंजर पूरी चली थी। ढहते पहाड़ के साथ आर्यमणि, निमेषदर्थ, और माया तीनो ही पानी में गिरे। पानी में गिड़ने के दौरान ही निमेषदर्थ के हाथ से अमेया छूट कर अलग हो गयी। माया और निमेषदर्थ तो पानी के साथ बह गये लेकिन पानी के ठीक पीछे पूरी रफ्तार से आ रही चाहकीली तेज वेग से बहते पानी को अपनी पूंछ से फाड़ती हुई आर्यमणि और अमेया को उसमे लपेटी और बिना रुके वहां से गुप्त स्थान पहुंची।
चूंकि चाहकील निमेषदर्थ को देख चुकी थी इसलिए आर्यमणि और अमेया को ऐसी जगह छिपाई, जहां से महासागरीय इंसान तो क्या स्वयं देवता भी उन्हें नही ढूंढ पाते। दोनो को छिपाने के बाद चाहकीली सीधा राजधानी पहुंची। यूं तो सोधक कभी भी शहरी इलाकों से गुजरते नही। पहला मौका था जब चाहकीली अल्फा पैक को लेकर राजधानी पहुंची थी। और यह दूसरा मौका था।
चाहकीली प्रशासनिक भवन के चारो ओर गोल–गोल चक्कर काटती ह्रदय कंपन करने वाली तरंगे छोड़ रही थी। प्रशासनिक भवन में काम कर रहे सभी आला अधिकारी भय से अपना काम छोड़ भवन से बाहर निकलने की कोशिश करने लगे, लेकिन चाहकीली का शरीर प्रवेश द्वार को पूरा घेरे खड़ी थी। महा एक हॉल में कुछ अधिकारियों से मुलाकात कर रही थी, जब उसने भी वह डरवाना तरंग सुना।
सबको आराम से बैठने बोलकर वह जैसे ही बाहर आयी, बाहर पूरा अफरा–तफरी का माहौल था। महाती अपने कलाई में लटक रहे छोटे से धनुष के धागे को धीमे से खींचकर नीचे निकास द्वार तक पहुंची। जबतक महाती वहां पहुंचती, चाहकीली पूरी तरह से शांत हो चुकी थी। महाती चाहकीली के पंख के ऊपर खड़ी हो गयी। चाहकीली, महाती को अपने पंख में लॉक करती वहां से निकल गयी। शहर की भिड़–भाड़ से जैसे ही वो बाहर निकली...
महाती:– ए बड़बोली.. ऐसा भी कौन सा इमरजेंसी था जो तू राजधानी पहुंच गयी। वैसे भी आज कल तो तेरे नए–नए दोस्त बन गये, फिर मेरी क्या जरूरत...
चाहकीली:– वो नए दोस्त भी तेरी तरह मुझसे बात कर सकते हैं, लेकिन आज तक उन्हे भी पता नही की तू मुझसे बात कर सकती है।
महाती:– बड़ा एहसान कर दी जो उन्हे ये बात न बताई। मै तो तेरे एहसान तले दब गयी।
चाहकीली:– मेरे एहसानो तले दबी ही है। भूल मत मैं बीच में नही आती तो तू बौनो की बस्ती में मर चुकी होती।
महाती:– अच्छा और वो जो तेरे पेट के अंदर घुसकर जो मैने तुझे दर्द से राहत दिया था उसकी भी चर्चा कर ले। अंदर इतना एसिड और बैक्टीरिया का सामना करना पड़ा था कि मैं मरते–मरते बची थी। और भी बताऊं के मैने अपने धनुष से तेरे लिये क्या–क्या किया था।
चाहकीली:– हां याद है ना मुझे... भीषण दर्द में मुझे नाग लोक की भूमि पर तड़पता छोड़ गयी थी। मार देती तो ज्यादा अच्छा लगता।
महाती:– मार देती तो तेरे नए दोस्त कैसे मिलते। तुझे जिंदा कैसे देखती... वो भी पहले की तरह चहकती हुई।
चाहकीली और भी ज्यादा रफ्तार बढ़ाती.... “जो दर्द मैने झेला था, वह दर्द किसी को न मिले। मै दर्द से तड़प रही थी जब वह हाथ पहली बार मेरे सर से टीका और एक पल के लिये मुझे असीम शांति मिली थी। फिर तो उसने मेरे दर्द और बीमारी का पूरी तरह से उपचार कर नई जिंदगी दिया और आज खुद”...
महाती:– क्या हुआ... आर्यमणि ठीक तो है न...
चाहकीली:– उसके सभी साथी मर चुके है और आर्यमणि चाचू हील भी नही रहे। धड़कने चालू है पर कुछ कह नही सकते।
महाती:– ये क्या हो गया? हमारे क्षेत्र में उन्ही के साथ ऐसा भीषण कांड हो गया। तुम्हे पक्का यकीन है रूही, अलबेली, इवान नही रहे?
चाहकीली:– सब तुम्हारे भाई ने किया है। उसके साथ कुछ बाहरी लोग थे। सबने मिलकर धोखे से उन सबका शिकार कर लिया। किसी तरह मैं आर्यमणि चाचू को वहां से हटा तो दी लेकिन तब तक घातक हमला हो चुका था।
महाती:– हम सबकी बच्ची कहां है?
चाहकीली:– घटना के वक्त अमेया तो तुम्हारे भाई के गोद में ही थी। वह पूरी तरह से सुरक्षित है। उसे भी चाचू के साथ ही रखा है।
महाती:– हम्मम, ये कमीना निमेष बहुत दूर की सोच रहा है। हमे अमेया को जमीन पर रखना होगा और आर्यमणि का इलाज यहीं महासागर में करना होगा।
चाहकीली:– ऐसा क्यों?
महाती:– दोनो साथ रहेंगे तो सबको पता चल जायेगा की आर्यमणि जिंदा है। दोबारा हमला हो सकता है।
चाहकीली:– और कहीं अमेया को तुम्हारा भाई उठा ले गया तो?
महाती:– जो भी अमेया को उठा ले जायेगा वो उसे मरेगा तो नही ही। आर्यमणि जब पूर्ण रूप से स्वास्थ्य हो जायेगा तब अमेया को वापस ले आयेंगे। तुम तो उनके साथ ज्यादा वक्त बियायी हो। कोई उनका भरोसेमंद साथी है, जो अमेया को छिपाकर रख सके...
चाहकीली:– हां बहुत मजबूत साथी है। एक तरह से वह आर्यमणि का मजबूत परिवार है।
महाती:– ठीक है, फिर अमेया को उसके पास जल्दी लेकर चल...
कुछ ही देर में दोनो एक गुप्त स्थान पर थे। वहां से चाहकीली, महाती और अमेया को लेकर पूरा महासागर पार करती कैलाश मठ तक पहुंची। महाती पानी के नीचे तल में ही रही और अमेया को ऊपर के पंख में डालकर चाहकीली पानी के ऊपर हुई। आचार्य जी मठ में थे, जब उन्हें चाहकीली के आने की खबर मिली। अभी 2 दिन पहले ही चाहकीली से मुलाकात हुई थी। काफी खुश थे जब आचार्य जी ने रक्षा पत्थर को देखा था। किंतु उसी के कुछ देर बाद कुछ अनहोनी का आभाष उन्हे और संन्यासी शिवम दोनो को हुआ था। पीछे से अपस्यु को अल्फा पैक का इमरजेंसी संदेश भी मिला।
चाहकीली की खबर सुनकर आचार्य जी तेजी से बाहर निकले। चाहकीली के साथ अमेया को देखकर आचार्य जी भाव विभोर हो उठे। उन्हे लगा जैसे अल्फा पैक भी चाहकीली के साथ पहुंचा हो। उन्होंने चाहकीली से आर्यमणि के विषय में जानकारी लेने की कोशिश किये लेकिन चाहकीली की भाषा समझना और उसके भाव को परखना आचार्य जी के वश में नहीं था। चाहकीली के साथ किसी का न होना इस बात के ओर साफ इशारा कर गया कि अब कोई नही बचा।
चाहकीली वहां से जाने ही वाली थी कि तभी संन्यासी शिवम् चाहकीली को रोकते हुये “सेल बॉडी सब्सटेंस” के कई जार उसके सामने रखते..... “गुरुदेव अपनी सिद्धि प्राप्त करने के लिये नाग–लोक के भू–भाग पहुंचे थे। मै जानता हूं वो जीवित है, लेकिन कब तक रहेंगे इस एक प्रश्न ने बेचैन कर रखा है। यदि तुम उनके शरीर में किसी तरह ये द्रव्य डाल सकी तो उनकी जान बच जायेगी। इन्हे अपने हाथों से उठा लो तो मैं समझूंगा की तुम मेरी बात समझ गयी।”
आचार्य जी किसी तरफ अपनी भावनाओं पर काबू करते.... “शिवम वो बेजुबान तुम्हारी बात नही समझ रही, लेकिन तुम तो समझने की कोशिश करो। आर्यमणि अब जीवित नही तभी तो केवल उसकी बच्ची को लेकर आयी है।
संन्यासी शिवम्, आचार्य जी की बातों को साफ नकारते.... “ये जीव गुरु आर्यमणि को क्यों नही लायी या गुरु आर्यमणि क्यों नही यहां पहुंचे इसके पीछे कोई कारण हो सकता है, लेकिन आपकी समीक्षा गलत है। मेरा हृदय कहता है गुरु आर्यमणि जीवित है।”
आगे भी इस विषय पर बातें होती रही। यूं तो आचार्य जी कई बार अपनी दिव्य दृष्टि डाल चुके थे, परंतु नाग लोक के भू–भाग के क्षेत्र में वह दृष्टि नही पहुंच सकती थी। दोनो में फिर दिव्य–दृष्टि योजन पर बातें होने लगी। चाहकीली को लगा उसके विषय में कुछ कहा जा रहा था, इसलिए वह भी समझने की कोशिश करने लगी। लेकिन तभी नीचे से महाती चलने का इशारा कर दी।
चाहकीली यूं तो कुछ भी नही समझी किंतु संन्यासी शिवम् की भावना को वह भांप ली। अपने छोटे–छोटे पंख में उस जार को अच्छे से फंसा ली। चाहकिली फिर वहां रुकी नही। दोनो (चाहकीली और महाती) जैसे ही महासागर की गहराइयों में पहुंचे, महाती झुंझलाती हुई कहने लगी..... “तू जब उनकी भाषा समझ नही सकती, फिर क्यों सुन रही थी?”
चाहकीली:– उनकी भाषा न सही भावना तो समझ में आ रही थी ना।
महाती:– ठीक है मैं धनुष का प्रयोग करने वाली हूं... थोड़ी धीमे हो जा।
जैसे ही चाहकीली धीमी हुई महाती अपने कलाई पर लटक रहे छोटे से धनुष को निकालकर जैसे ही अपने हाथ में ली, पूरा धनुष अपने आकार में आ गया। खाली धनुष के डोर को पूरा खींचकर जैसे ही महाती ने छोड़ा, गहरे पानी के अंदर गोलाकार रास्ता बन गया। चाहकीली उन रास्तों से गुजरी और सीधा आर्यमणि के पास थी।
महाती ने आर्यमणि के शरीर का ऊपरी मुआयना किया। पीछे से चाहकीली अपनी जिज्ञासा दिखाती.... “कब तक चाचू जागेंगे?... उन्हे दर्द तो नहीं हो रहा?”... महाती उसे चुप रहने का इशारा करती अपना काम करने लगी। थोड़ी देर जांच करने के बाद..... “दिमाग पूरा बंद है। पहले मैं देखती हूं संन्यासी ने क्या दिया है। यदि उसकी दी हुई दवा से काम बन गया तब तो ठीक वरना आर्यमणि को हॉस्पिटल ले जाना होगा। और हां मामला दिमाग से जुड़ा हुआ है तो शायद ठीक होने में काफी वक्त लग जाये।
आर्यमणि बिलकुल बेजान सा पड़ा हुआ था। उसका सर बीच से फटा था। कुछ इंच खंजर अंदर घुसी थी, जिस कारण उसे होश नही आ रहा था और न ही उसका सर हील हो रहा था। महाती बिना देर किये कुछ संकेत भेजी और वहां पर “किं किं किं” करते मेटल टूथ का बड़ा सा झुंड पहुंच गया। महाती और मेटल टूथ के बीच कुछ सांकेतिक संवाद हुये। कुछ देर तक सांकेतिक संवाद करने के बाद महाती ने आर्यमणि के ओर इशारा न कर दिया। जैसा ही मेटल टूथ की झुंड ने आर्यमणि को देखा "ची, ची" करने लगे। इस बार जब मेटल टूथ के झुंड ने “ची ची” की आवाज निकाली चाहकीली की आंखें बड़ी हो गयी और वो बड़े ध्यान से देखने लगी।
इधर मेटल टूथ की झुंड से हजारों मेटल टूथ टूटकर आर्यमणि के करीब पहुंचे। कुछ देर तक आर्यमणि के शरीर का निरक्षण करने के बाद अपनी आवाज में कुछ बातें करने लगे। उनकी बात जैसे ही समाप्त हुई, आर्यमणि का पूरा शरीर मेटल टूथ से ढक गया। उनका काम होने के बाद जैसा ही वो आर्यमणि के ऊपर से हटे आर्यमणि को पूरा साफ करके उठे थे। हां वो अलग बात थी कि आर्यमणि के शरीर से पूरे बाल और पूरे कपड़े भी उसने साफ कर दिया था।
आर्यमणि का शरीर बिलकुल चमक रहा था। कुछ गिने चुने मेटल टूथ थे, जो आर्यमणि के शरीर से चिपके हुये थे। सभी वाइटल ऑर्गन जैसे लीवर, किडनी, फेफेरे, हृदय, इनके अलावा पाऊं के सभी उंगलियों से लेकर माथे तक निश्चित दूरी बनाकर उनपर मेटल टूथ चिपके हुये थे। ठीक उसी प्रकार शरीर के पिछले हिस्से पर भी ऐसे ही चिपके थे। आर्यमणि के सिर पर जहां खंजर लगी थी, उस पूरे लाइन को मेटल टूथ ने कवर कर लिया था। देखते ही देखते चिपके हुये मेटल टूथ के कंचे जैसे शरीर से पूरा लाल रक्त बहने लगा।
लाल रक्त के साथ कभी हरा द्रव्य तो कभी पीला द्रव्य निकल रहा था। वहीं सर का ऊपरी हिस्सा जो कुछ इंच नीचे तक चिड़ा हुआ था, वहां पर लगे मेटल टूथ के शरीर से लगातार पीला और नीला द्रव्य निकल रहा था। तकरीबन एक घंटे बाद आर्यमणि ने काफी तेज श्वास अपने अंदर खींचा और एक बार अपना आंख खोलकर फिर बेहोश हो गया। सभी मेटल टूथ आर्यमणि के शरीर से अलग हो गये शिवाय सर पर बैठे मेटल टूथ के। जो भी मेटल टूथ सिर से चिपके थे, अपने दातों से ही आर्यमणि के माथे पर टांका लगा दिया हो जैसे।
एक बार फिर मेटल टूथ और महाती के बीच सांकेतिक वार्तालाप शुरू हो चुकी थी। महाती ने फिर से कुछ समझाया और समझाने के बाद “सेल बॉडी सब्टांस” वाले जार के ओर इशारा कर दिया। मेटल टूथ का झुंड कुछ देर तक जार को देखता रहा। उनमें से कुछ ने उस जार को बड़ी सावधानी से ऐसे खोला की उसका द्रव्य पानी में न घुले और कुछ मेटल टूथ ने सेल बॉडी सब्सटेंस का मजा लिया। जिन मेटल टूथ ने मजे लिये सबने अपने साथियों से कुछ कहा। फिर तो मेटल टूथ आ रहे थे, जार से द्रव्य पी रहे थे और वापस लौट जाते। 2 जार को इन लोगों ने खोल दिया और करोड़ों मेटल टूथ सेल बॉडी सब्सटेंस को पीने के बाद मीटिंग करने लगे।
देखते ही देखते मेटल टूथ के झुंड ने आर्यमणि का मुंह खोल दिया। मेटल टूथ सेल बॉडी सब्सटेंस को अपने मुंह ने रखते और आर्यमणि के मुंह में घुसकर उसे गिड़ा देते। ऐसा करते हुये उन्होंने पहले जार को खाली कर दिया। फिर कुछ देर तक रुके और आर्यमणि के श्वास की समीक्षा करने लगे। जैसे ही उन्हें लगा की आर्यमणि की हालत में पहले से सुधार है, महाती के पास पहुंच गये।
महाती ने पूरी समीक्षा ली। खुद से एक बार और आर्यमणि की जांच की। जांच के बाद वो इतनी खुश थी कि चाहकीली की पंख पकड़कर जोड़–जोड़ से भींचने लगी। महाती की खुशी देख चाहकीली भी खुशी से उछलती.... “चाचू कब तक होश में आयेंगे?”...
महाती:– जो जार संन्यासी ने दिया वह चमत्कार से कम नही। मैने मेटल टूथ को समझा दिया है कि क्या करना है। अब मैं यहां से जा रही हूं और तू एक बार भी चर्चा मत करना की इनका इलाज मैने किया था। या मैं यहां आयी भी थी।
चाहकीली:– लेकिन ऐसा क्यों?
महाती अपनी आंखें दिखाती... “कोई सवाल नही जो बोली वो कर।”...
अपनी बात कहकर महाती ने सेल बॉडी सब्सटेंस से भरे एक जार को लेकर चली गयी। मेटल टूथ को जैसा समझाया गया था वह बिलकुल वैसा ही कर रहे थे। आर्यमणि को हर 6 घंटे पर धीरे–धीरे “सेल बॉडी सब्सटेंस” दे रहे थे।
आर्यमणि के सर पर हमला हुआ था। ऐसी जगह जहां से हर चीज कंट्रोल होती है। और एक बार सर के हिस्से में भाड़ी गड़बड़ हुआ, फिर तो सारे शरीर के सभी सिस्टम काम करना बंद कर देता है। एक तरह से मेटल टूथ ने सेल बॉडी सब्सटेंस को आर्यमणि के शरीर में पहुंचाकर उसकी जान ही बचाई थी।
सेल बॉडी सब्सटेंस ने अपना काम किया। क्षति हुई हर स्नायु तंतु सुचारू रूप से काम करना शुरू कर चुका था। आर्यमणि का अपना हीलिंग पूरी तरह से दुरस्त हो चुका था। सर के घाव भर चुके थे। चाहकीली और मेटल टूथ लागातार आर्यमणि की देख रहे कर रहे थे। अचानक ही रात को आर्यमणि की आंखे खुल गयी और जागते ही वो वियोग से रोने लगा। चाहकीली ने बहुत सारी बातें की, लेकिन एक ऐसा शब्द नही था जो आर्यमणि के वियोग को कम कर सके।
लगातार २ दिनो तक रोने के बाद आर्यमणि ने अपने आंसू पोछे..... “चाहकीली मुझे कोई देख भी न सके ऐसे जगह ले चलो।”
चाहकीली:– चाचू आप पहले से ही ऐसी जगह पर हो। यह सोधक प्रजाति का क्षेत्र का सबसे गहरा हिस्सा है, जहां हम अपने देवता को पूजते हैं। यहां किसी को भी आने की इजाजत नहीं है।
आर्यमणि:– फिर ये मेटल टूथ कैसे आ गये और तुम्हारे लोगों ने मुझे ऐसे पवित्र जगह लाने से रोका नहीं?
चाहकीली:– भगवान को भला उसके घर आने से कौन रोक सकता है। और ये मेटल टूथ तो केवल मेरे वियोग को मेहसूस कर यहां आ गये। ये सब मेरे दोस्त जो ठहरे...
आर्यमणि:– हम्मम ठीक है। मै अपनी साधना में बैठने वाला हूं। मुझे यहां किसी प्रकार का विघ्न नही चाहिए।
चाहकीली:– ठीक है फिर मैं मेटल टूथ को लेकर निकलती हूं, आप जब तक चाहिए यहां अपनी साधना कीजिए, आपको यहां छोटी सी सरसराहट की आवाज तक नहीं सुनाई देगी।
चाहकीली अपनी बात कहकर वहां से सबको लेकर निकली। आर्यमणि मंत्र उच्चारण करते आसान लगाया और पलथी लगाकर बैठा। जल साधना, सबसे कठोर साधना, उसमे भी इतनी गहराई में। दिन बीता, महीने बीते, बिता साल। दूसरे साल के 2 महीने बीते होंगे जब आर्यमणि ने अपना आंख खोल लिया।
बदन पर पूरा काई जमी थी। दाढ़ी फिट भर लंबी हो चली थी। बड़े–बड़े नाखून निकल आये थे। पर चेहरे पर अलग ही तेज और शांति के भाव थे। आंख खोलते ही उसने चाहकीली का स्मरण किया किंतु उसे कोई जवाब नही मिला। कुछ देर तक आर्यमणि ने गहरा ध्यान लगाया।
पिछले 14 महीने की तस्वीर साफ होने लगी थी। कैसे निमेषदर्थ ने पता लगाया की हत्याकांड वाले दिन चाहकीली ने समुद्री तूफान उठाया था। उस तूफान में उसकी सबसे बड़ी ख्वाइश अमेया कहीं खो गयी थी, जो बाद में निमेषदर्थ के लाख ढूंढने के बाद भी नही मिली। उसी के बाद से निमेषदर्थ चाहकीली को वश में करने पर तुल गया था।
किंतु चाहकीली और निमेषदर्थ के बीच एक ही बाधा थी, महाती। महती अक्सर ही निमेषदर्थ के सम्मोहन को पूर्ण नही होने देती। पर 8 महीने पहले, निमेषदर्थ ने बौने के समुदाय से पूरा मामला फसा दिया। जलपड़ी और बौने 2 ऐसे समुदाय थे, जिनपर पूरे महासागर का उत्तरदायित्व था। पिछले कई पीढ़ियों ने बौने के समुदाय से एक भी राजा नही देखा था, जबकि पूर्व में 3–4 जलपड़ी समुदाय के राजा होते तो एक बौने के राज घराने से राजा बनता था।
बौने समुदाय हो या फिर जलपड़ी समुदाय। राजा के लिये सब उसकी प्रजा ही थी। दोनो ओर से लोग सड़कों पर थे और उत्पात मचाकर प्रशासन के नाक में दम कर रखा था। महाती अपने पिता के साथ जैसे ही व्यस्त हुई, मौका देखकर निमेषदर्थ ने चाहकीली को सम्मोहित कर लिया।
सम्मोहित करने के बाद निमेषदर्थ सबसे पहले कैलाश मार्ग मठ ही गया। मठ में कितने सिद्ध पुरुष मिलते यह तो निमेषदर्थ को भी नही पता था, इसलिए अपनी पूरी तैयारी के साथ पहुंचा था। ऐतिहातन उसने अपने 5 सैनिक आगे भेजे और उस जगह का मुआयना करने कहा। 5 सैनिक मठ के दरवाजे तक पहुंचे किंतु प्रवेश द्वार मंत्रों से अभिमंत्रित थी।
कई दिनों तक निमेषदर्थ वहीं घात लगाये बैठा रहा। मठ से किसी के बाहर आने का इंतजार में उसने महीना बिता दिया, परंतु मठ से कोई बाहर नही निकला। हां लेकिन 1 महीने बाद बाहर से कुछ संन्यासी मठ में जरूर जा रहे थे। निमेषदर्थ, संन्यासियों की टोली देखकर समझ तो गया था कि अमेया उनके साथ नही थी और न ही मठ में उसके होने के कोई भी संकेत मिले थे। निमेषदर्थ अमेया का पता लगाने के इरादे से संन्यासियों का रास्ता रोक लिया। सबसे आग संन्यासी शिवम ही थे। निमेषदर्थ को सवालिया नजरों से देखते.... “तुम कौन हो और हमारा रास्ता क्यों रोक रखे हो?”..
निमेषदर्थ:– मैं महासागर मानव हूं। अपने पिता की पहली संतान और महासागर का होने वाला भावी महाराजा। महासागर की एक बच्ची थल पर आ गयी है और पता चला है कि वह यहीं इसी मठ में है।
संन्यासी शिवम:– यदि महासागर की कोई बच्ची यहां होती तो हमें अवश्य पता होता। फिर भी तुम अपनी संतुष्टि के लिये यहां ढूंढ सकते है।
निमेषदर्थ:– जब आप इतने सुनिश्चित है तो फिर अंदर जाकर ढूंढना ही क्यूं? गंगा जल हाथ पर लेकर मेरे साथ मंत्र दोहरा दीजिए, मैं पूर्णतः सुनिश्चित हो जाऊंगा।
संन्यासी शिवम:– यदि विजयदर्थ ये बात आकर कहते तो मैं एक बार सोचता भी, तुम किस अधिकार से मुझे सीधा आदेश दे रहे हो।
निमेषदर्थ:– संन्यासी तुम्हारी बातों से मुझे समझ में आ गया है कि अमेया तुम्हारे ही पास है। जल्दी से उस बच्ची को लौटा दो, वरना अंजाम अच्छा नही होगा...
संन्यासी शिवम ने एक छोटा सा मंत्र पढ़ा और कुछ ही पल में विजयदर्थ वहां पहुंच चुका था। विजयदर्थ जैसे ही वहां पहुंचा संन्यासी शिवम पर खिसयाई नजरों से देखते.... “संन्यासी एक योजन में तुम्हारे बुलाने से मैं चला क्या आया, तुम तो मुझे परेशान करने लगे।”
सन्यासी शिवम्:– जरा पीछे मुड़कर देखिए फिर पता चलेगा की कौन किसको परेशान कर रहा है।
विजयदर्थ जैसे ही पीछे मुड़कर देखा, सामने निमेषदर्थ खड़ा था। उसे यहां देख निमेषदर्थ घोर आश्चर्य करते.... “तुम यहां क्यों आये हो?”
निमेषदर्थ:– पिताजी इन्ही लोगों के पास अमेया है।
विजयदर्थ, खींचकर एक तमाचा जड़ते..... तुम सात्विक आश्रम द्वारा संचालित एक मठ के संन्यासी से उनके गुरु आर्यमणि की बच्ची को मांगने आये हो?
निमेषदर्थ:– पिताजी मुझे नही पता था कि...
विजयदर्थ ने पूरी बात सुनना भी उचित नही समझा। वह अपना पंजा झटका और निमेषदर्थ के गले, हाथ और पाऊं मोटे जंजीरों में कैद हो चुके थे। विजयदर्थ अपनी गुस्से से लाल आंखें दिखाते..... “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई थल पर आकर अपनी पहचान जाहिर करने और यहां के जीवन में हस्तछेप करने की। वैसे भी तुम मेरे उत्तराधिकारी कभी नहीं रहे और आज की हरकतों के बात तुम राजकुमार भी नही रहे। अपनी सजा भुगतने के बाद तुम सामान्य नागरिक का जीवक जीयोगे। संन्यासी इसकी गलती की सजा मैं दे रहा हूं। आप से विनती है आप भी इस बात को यहीं समाप्त कर दे।”
संन्यासी शिवम:– आपके न्याय प्रणाली से मैं बेहद प्रसन्न हुआ। ठीक है मैं इस बात को यहीं समाप्त करता हूं।
इस वाकये के बाद निमेषदर्थ अपने हर तरह के अधिकार खो चुका था। हां वो भी एक दंश का मालिक था, इसलिए उस दंश का अधिकार उस से नही छीना जा सकता था। अपनी कैद से खुन्नस खाया विजयदर्थ, रिहा होते ही अपनी बहन हिमा से मिला और अपनी सजा के लिये चाहकीली को जिम्मेदार मानते हुये उसे मारने की योजना बना लिया। जिस दिन चाहकीली को जान से मारने की तैयारी चल रही थी, आर्यमणि अपनी साधना को वहीं पूर्ण विराम लगाते, अपनी आंखें खोल लिया।
सोधक जीव के गुप्त स्थान से आर्यमणि उठकर बाहर आया। कुछ दूर चलने के बाद आर्यमणि सोधक प्रजाति के आबादी वाले क्षेत्र में पहुंच गया। क्षेत्र के सीमा पर चाहकीली के पिता शावल मिल गये। बड़ी चिंता और बड़े–बड़े आंसुओं के साथ आर्यमणि को देखते..... “आर्यमणि वो मेरी बच्ची चाहकीली।”...
आर्यमणि धीमे मुस्कुराया और अपना हाथ शावल के बदन पर रखते..... “चिंता मत करो, चाहकीली को कुछ नही होगा। कल सुबह तक वो तुम लोगों के साथ होगी। मै इतना ही बताने यहां तक आया था।”...
अपनी बात कहकर आर्यमणि सीधा अंतर्ध्यान हो गया और उस सभा में पहुंचा जहां चाहकीली को मृत्यु की सजा दी जा रही थी। आर्यमणि भिड़ के पीछे से गरजते हुये.... “तुम्हे नही लगता की तुम्हारी ये सभा भ्रष्ट हो चुकी है। मां जैसे एक मासूम से जीव के दिमाग को काबू कर उसे मारने जा रहे हो?”
“मेरी सभा में ये कौन बोला?”..... आर्यमणि के सवाल पर उस सभा का मुखिया ने गरजते हुये पूछा। आर्यमणि यह आवाज भली भांति पहचानता था। आर्यमणि जैसे–जैसे अपनी दोनो बांह फैला रहा था, वैसे–वैसे भिड़ दोनो किनारे हो रही थी और बीच से रास्ता बनते जा रहा था। आर्यमणि के नजरों के सामने उसका दोषी निमेषदर्थ खड़ा था। बीच का रास्ता जो खाली था, इस खाली रास्ते पर अचानक ही जड़ों ने कब्जा जमा लिया और देखते ही देखते निमेषदर्थ जड़ों में लिपटा हुआ था।
जड़ों में लिपटने के साथ ही निमेषदर्थ की यादें आर्यमणि के पास आने लगी और उस याद में आर्यमणि ने अपने एक और दोषी को पाया जो इस वक्त इसी सभा में मौजूद थी किंतु हत्याकांड वाले दिन वह दिखी नही थी। निमेषदर्थ की बहन हिमा। जैसे ही आर्यमणि को अपना दूसरा दोषी मिला, आर्यमणि बिना वक्त गवाए उसे भी जड़ों में जकड़ चुका था।
दोनो किनारे पर जो भीड़ खड़ी थी, उसमे एक हजार कुशल सैनिक भी थे। हालांकि वो जड़ों में तो नही जकड़े थे, लेकिन किसी अदृश्य शक्ति ने उनके पाऊं जमा दिये हो जैसे। कोई भी हील तक नही पा रहा था। आर्यमणि एक–एक कदम बढ़ाते हुये निमेषदर्थ के पास पहुंचा। आर्यमणि अपने गुस्से से लाल आंखें निमेषदर्थ को दिखाते .... “आखिर किस लालच में तुमने मेरे परिवार को मार डाला था निमेष।”...
निमेषदर्थ:– देखो आर्यमणि मैं तो बस एक मोहरा था।
आर्यमणि:– तुम्हारी यादों में मैं सब देख चुका हूं। तभी तो तुम्हारी बहन भी जड़ों में जकड़ी हुई है। तुम दोनो अपने आखरी वक्त में किसी को याद करना चाहो तो कर सकते हो।
“ठीक है मुझे वक्त दो। मै सबको याद कर लेता हूं।”.... इतना कह कर निमेषदर्थ अपनी आंख मूंदकर जोड़–जोड़ से कहने लगा.... “हे मेरे अनुयाई, मेरे रक्षक.. मैं तुम्हे याद कर रहा हूं। सबको मैं दिल से याद कर रहा हूं। ऐसा लग रहा है मेरे प्राण अब जाने वाले है। मौत मेरे नजरों के सामने खड़ी है। वह मुझे बेबस कर चुकी है। वह मुझे घूर रही है और किसी भी वक्त मुझे अपने चपेट में ले लेगी।”...
निमेषदर्थ चिल्लाकर अपनी भावना कह रहा था। हर शब्द के साथ जैसे वहां का माहोल बदल रहा हो। निमेषदर्थ जहां खड़ा था, उस से तकरीबन 100 मीटर आगे चाहकीली अचेत अवस्था में लेटी थी। निमेषदर्थ के हर शब्द के साथ उसमें जैसे जान आ रहा हो। जैसे ही निमेषदर्थ का बोलना समाप्त हुआ वहां का माहौल ही बदल गया।
चारो ओर सोधक प्रजाति के जीव फैले हुये थे। सोधक जीव की संख्या इतनी थी कि एक के पीछे एक कतार में इस प्रकार खड़े थे कि मानो जीवित पहाड़ों की श्रृंखला सामने खड़ी थी। न सिर्फ सोधक प्रजाति थे बल्कि शार्क और व्हेल जैसी मछलियां की भी भारी तादात में थी, जो सोधक प्रजाति के आगे थी और उन सबने मिलकर निमेषदर्थ को घेर लिया था।
चाहकीली तो सबसे पास में ही थी। खूंखार हुई शार्क और वेल्स के साथ वह भी निमेषदर्थ के चक्कर लगा रही थी। इसी बीच निमेषदर्थ खुद को जड़ों की कैद से आजाद करके पागलों की तरह हंसने लगा..... “क्या सोचे थे हां... मेरी जगह पर मुझे ही मार सकते हो। अभी तक तो इन जानवरों को ये नहीं पता की मेरी मौत कौन है। जरा सोचो मेरे एक इशारे पर तुम्हारा क्या होगा? फिर अभी तो तुम पर यह जानवर भरी पड़ेगा। इन जानवरों का मालिक मैं, फिर तुम पर कितना भारी पर सकता हूं।”...
आर्यमणि, निमेषदर्थ की बातें सुनकर मुश्कुराया। फिर उसकी बहन हिमा के ओर देखते..... “तुम्हे भी कुछ कहना है?”...
हिमा:– मुझे कुछ बोलने के लिये तुम जैसों के इजाजत की ज़रूरत नही। भाई इसे जानवरों का चारा बना दो।
निमेषदर्थ:– बिलकुल बहना, अभी करता हूं।
फिर तो मात्र एक उंगली के इशारे थे और सभी खूंखार जलीय जीवों ने जैसे एक साथ हमला बोल दिया हो। जिसमे चाहकिली सबसे आगे थी। आर्यमणि के शरीर से 50 गुणा बड़ा मुंह फाड़े चाहकिली एक इंच की दूरी पर रही होगी, तभी वहां के माहौल में वह दहाड़ गूंजी जो आज से पहले कभी किसी ने नहीं सुनी गयी थी। ऐसी दहाड़ जो महासागर के ऊपरी सतह पर तो कोई भूचाल नही लेकर आयी लेकिन पानी की गहराई में कहड़ सा मचा दिया था। ऐसी दहाड़ जिसे सुनकर जलीय मानव का कलेजा कांप गया। ऐसी दहाड़ जिसे सुनने वाले हर समुद्री जीव अपना सर झुकाकर अपनी जगह ठहर गये। जीव–जंतुओं को नियंत्रित करने की इतनी खतरनाक वह दहाड़ थी कि पूरे महासागर के जीव–जंतु जिस जगह थे वहीं अपने सर झुका कर रुक गये।
आर्यमणि:– चाहकीली क्या तुम मुझे सुन रही हो...
चाहकीली:– कोई विधि से मेरी जान ले लो चाचू। मै इस नालायक निमेषदर्थ की बातों में आकर आपको ही निगलने वाली थी। मुझे अब जीवित नहीं रहना...
आर्यमणि:– अपना सर ऊपर उठाओ...
चाहकीली अपना सर ऊपर की। उसके आंखों से उसके आंसू बह रहे थे। आर्यमणि अपना हाथ बढ़ाकर उसके एक बूंद गिरते आंसू को अपने हथेली पर लेते.... “बेटा रोने जैसी बात नही है। तुम्हारा दिमाग निमेष के कब्जे में था। अब मेरी बात ध्यान से सुनो।”...
निमेषदर्थ:– ये तुम कर कैसे रहे हो। मेरे जानवरों को होश में कैसे ले आये...
आर्यमणि का फिर एक इशारा हुआ और एक बार फिर निमेषदर्थ जड़ों में जकड़ा हुआ था.... “निमेष तुमसे मैं कुछ देर से बात करता हूं। तब तक हिमा तुम अपने आखरी वक्त में किसी को याद करना चाहो तो कर लो।”.... इतना कहने के बाद अपने हथेली के आंसू को अभिमंत्रित कर.... “चाहकीली अपना सर नीचे करो”...
चाहकिली थोड़ा पीछे हटकर अपना सर पूरा नीचे झुका दी। आर्यमणि थोड़ा ऊपर हुआ और चाहकीली के माथे के ठीक बीच आंसू वाला पूरा पंजा टिकाते हुये..... “आज के बाद तुम्हारे दिमाग को कोई नियंत्रित नही कर सकेगा। इसके अलावा जितने भी सोधक का दिमाग किसी ने काबू किया होगा, तुम्हारे एक आवाज पर वो सब भी मुक्त होंगे। अब तुम यहां से सभी जीवों को लेकर जाओ। मै जरा पुराना हिसाब बराबर कर लूं।”
चाहकीली:– चाचू मुझे भी इस निमेष का विनाश देखना है।
आर्यमणि:– वो जड़ों की कैद से आजाद होने वाला है। मै नही चाहता की यहां के युद्ध में एक भी जीव घायल हो। मेरी बात को समझो। तुम चाहो तो इन्हे दूर ले जाने बाद वापस आओ और एक किलोमीटर दूर से ही इसके विनाश को देखो। ऐसा तो कर सकती हो ना।
चाहकीली, चहकती हुई... “हां बिलकुल चाचू।”... इतना कहने के बाद चाहकीली एक कड़क सिटी बजाई और सभी जीवों को लेकर वहां से निकली। वो जगह जैसे ही खाली हुई, आर्यमणि दोनो भाई बहन को खोलते.... “उम्मीद है तुमने अपने सभी प्रियजनों को याद कर लिया होगा। अब अपनी मृत्यु के लिये तैयार हो जाओ।”
“किसकी मृत्यु”.... इतना कहकर हिमा ने अपना दंश को आर्यमणि के सामने कर दिया। उसके दंश से लगातार छोटे–छोटे उजले कण निकल रहे थे जो आर्यमणि के ओर बड़ी तेजी से बढ़ रहे थे। देखने में ऐसा लग रहा था जैसे एनीमशन में शुक्राणु चलते है। ये उजले कण भी ठीक उसी प्रकार से आर्यमणि के ओर बढ़ रहा था।
सभी कण लगातार आर्यमणि के ओर बढ़ रहे थे लेकिन जैसे ही वह एक फिट की दूरी पर रहते, अपने आप ही नीचे तल में गिरकर कहीं गायब हो जाते। फिर तो कई खतरनाक हमले एक साथ हुये। पहले हिमा अकेली कर रही थी। बाद ने हिमा और निमेषदर्थ ने एक साथ हमला किया। उसके बाद निमेषदर्थ ने अपने 1000 कुशल सैनिकों को आज़ाद करके सबको साथ हमला करने बोला।
आर्यमणि अपना दोनो हाथ ऊपर उठाते.... “एक मिनट रुको जरा।”...
निमेषदर्थ:– क्यों एक साथ इतने लोग देखकर फट गयी क्या?
आर्यमणि:– फट गयी... फट गयी.. ये मेरी अलबेली की भाषा हुआ करती थी, जिसकी मृत्यु की कहानी तुमने लिखी थी।
कुछ बूंद आंसू आंखों के दोनो किनारे आ गये। आर्यमणि उन्हे साफ करते.... “हां फट गयी समझो। यहां आम लोग है, पहले उन्हे जाने दो। मै कौन सा यहां से भागा जा रहा हूं।”
निमेषदर्थ कुछ देर के लिये रुका। वहां से जब सारे लोग हटे तब एक साथ हजार लोगो की कतार थी। ठीक सामने आर्यमणि खड़ा। निमेषदर्थ का एक इशारा हुआ और हजार हाथ आर्यमणि के सामने हमला करने के लिये तन गये। उसके अगले ही पल हर जलीय सैनिक के हाथ से काला धुआं निकल रहा था। निमेषदर्थ और हिमा के दंश से भी भीषण काला धुवां निकल रहा था। धुएं के बीच आर्यमणि कहीं गुम सा हो गया। कहीं किसी तरह की कोई हलचल नहीं।
निमेषदर्थ कुछ देर के लिये रुका। वहां से जब सारे लोग हटे तब एक साथ हजार लोगो की कतार थी। ठीक सामने आर्यमणि खड़ा। निमेषदर्थ का एक इशारा हुआ और हजार हाथ आर्यमणि के सामने हमला करने के लिये तन गये। उसके अगले ही पल हर जलीय सैनिक के हाथ से काला धुआं निकल रहा था। निमेषदर्थ और हिमा के दंश से भी भीषण काला धुवां निकल रहा था। धुएं के बीच आर्यमणि कहीं गुम सा हो गया। कहीं किसी तरह की कोई हलचल नहीं।
लगभग 5 मिनट तक पूर्ण शांति छाई रही। तभी निमेषदर्थ ने इशारा किया और सैनिकों की छोटी टुकड़ी उस काले धुएं के बीच घुसी। बाहर सभी लोग टकटकी लगाये बस धुएं को ही देख रहे थे। सैनिक की वह टुकड़ी भी धुएं में कहीं गायब हो गयी। तकरीबन मिनट भर तक चीर शांति छाई रही, उसके बाद जो ही चीखने की आवाज आयी। माहौल ही पूरा अशांत हो गया।
सैनिकों के लगातार चीखने की आवाज आती रही और रेंगते हुये जब कुछ सैनिक धुवां के बाहर आ रहे थे, तब वहां मौजूद हर किसी का कलेजा कांप गया। असहाय सैनिक खून से लहू–लुहान किसी तरह उस काले धुएं से निकल रहे थे। किंतु जैसे ही धुएं के बाहर आते उनका शरीर फटकर चिथरा हो जाता और मांस के लोथड़े वही आस पास फैल जाते।
पूरी टुकड़ी का वही हश्र हुआ। मौत की चींखें जब शांत हुई तब एक पल नही लगा उस धुएं को छंटने में। जैसे ही धुवां छंटा आर्यमणि अपनी जगह पर खड़ा मंद–मंद मुस्कुरा रहा था। निमेषदर्थ और बाकी सभी की आंखें फटी की फटी रह गयी, क्योंकि जिस काले धुएं ने आर्यमणि का कुछ नही बिगड़ा, उस काले धुएं के मात्र एक हिस्से से तो 10 सोधक प्रजाति के जीव फट जया करते थे।
आर्यमणि ने बस अपना एक हाथ ऊपर किया और जड़ों में सभी सैनिक जकड़े हुये थे। उसके अगले ही पल वो सब कहां गायब हुये ये तो बस आर्यमणि ही जानता था। हां लेकिन अब हिमा और निमेषदर्थ के चेहरे पर भय साफ देखा जा सकता था। आर्यमणि पूरे विश्वास के साथ जैसे ही अपना कदम आगे बढ़ाया तभी एक बार फिर से उसपर हमला हुआ।
पानी में कई सारे तैरते चट्टान आर्यमणि के ओर बड़ी रफ्तार के साथ बढ़े। आर्यमणि ने न तो अपने बढ़ते कदम को रोका और न ही आ रहे विशालकाय चट्टान के रास्ते से हटने की कोशिश करी। बस वो अपने कदम आगे बढ़ता रहा। चट्टाने बहते हुये आर्यमणि के करीब जरूर पहुंची, लेकिन हर चट्टान आर्यमणि के करीब पहुंचते–पहुंचते अपना रास्ता बदल लेता। कुछ दाएं से निकल गये तो कुछ बाएं से और आर्यमणि उन दोनो भाई बहन के करीब पहुंच चुका था।
जैसे ही आर्यमणि निमेषदर्थ और हिमा के करीब पहुंचा, दोनो ने अपना बाहुबल का प्रयोग करने का सोचा। दोनो के हाथ हवा में भी आये किंतु उसके बाद जैसे जम गये हो। न तो उसका हाथ हिला और न ही शरीर। आर्यमणि बिलकुल उनके करीब पहुंचते..... “जैसे तुम अभी बेजान हो ठीक अंदर से मैं भी इतना ही बेजान था।”.... आर्यमणि अपनी बात कहने के साथ ही अपना पंजा झटका और उसके क्ला झट से निकल आये।
अपने क्ला के एक वार से हिमा का दायां हाथ काटकर नीचे गिराते.... “तुम्हे क्या लगता है, क्या तुम मुझे मार सकते हो?”.... इतना कहकर आर्यमणि ने फिर अपना क्ला चलाया और निमेषदर्थ का दायां पाऊं कटकर अलग हो गया। बहन का हाथ गया तो भाई का पाऊं। दोनो जमे हुये थे। अपने अंग को शरीर से अलग होते जरूर देखे परंतु दर्द दोनो में से किसी को नही हुआ।
इस से आगे कुछ होता उस से पहले ही आर्यमणि का अभिमंत्रित जाल टूट चुका था। निमेषदर्थ और हिमा भीषण पीड़ा मेहसूस करते जोर–जोर से चिल्लाते हुये नीचे गिर गये। वहीं आर्यमणि, 6 योगियों के बीच घिरा था और पीछे से विजयदर्थ चला आ रहा था। विजयदर्थ ने इशारा किया और उसके लोग निमेषदर्थ और हिमा को सहारा देकर वहां से ले जाने की तैयारी में लग गये।
विजयदर्थ:– तुमने क्या सोचा यहां आकर मेरे बच्चों को मार सकते हो?
आर्यमणि, विजयदर्थ की बात सुनकर मुस्कुराया और प्रतिउत्तर में सिर्फ इतना ही कहा.... “अपनी विधि से दोषियों को सजा दे रहा हूं। आप बीच में न ही पड़े तो बेहतर होगा।”
विजयदर्थ:– गुरुदेव पहले इसे काबू करे, बाद में सोचते है इसका क्या करना है?
आर्यमणि:– विजयदर्थ ना तो मेरे यहां होने का कारण पूछे और न ही मुझसे इतने दिनो बाद मिलने की कोई खुशी जाहिर किये। अपने बच्चों के मोह में सब भूल गये?
विजयदर्थ:– आर्यमणि तुमसे मिलने की खुशी को मैं बयां नही कर सकता। तुम समझ नही सकते की तुम्हे सुरक्षित देखकर मैं अंदर से कैसा महसूस कर रहा हूं। किंतु इस वक्त तुम अपने आपे में नहीं हो।
आर्यमणि:– तुम्हारे कपूत बच्चे यहां एक सोधक जीव का शिकर कर रहे थे। इन्होंने मेरे परिवार को मुझसे दूर कर दिया और उसके बावजूद भी तुम्हारे नालायक बच्चों को मारने के बदले मैं तुमसे बात कर रहा हूं, ये मेरे धैर्य का परिचय है।
हिमा, दर्द से कर्राहती हुई कहने लगी..... “पिताजी यदि आरोप तय हो गया तो मृत्यु दण्ड भोगने के तैयार हूं, लेकिन बिना किसी सुनवाई के ऐसी बर्बरता।”...
विजयदर्थ:– गुरुदेव कृपा आर्यमणि को काबू में करे। यह अनुचित न्याय है।
विजयदर्थ के साथ आये योगी, आर्यमणि को घेरकर बैठ गये। आर्यमणि, हाथ जोड़कर वहां आये सभी योगियों को नमन करते.... “उम्मीद है योग और आध्यात्म किसी राजा के अधीन नही अपितु सत्य और न्याय के लिये प्रयोग में लाये जाते हो।”...
इतना कहकर आर्यमणि वहीं आसान लगाकर बैठे। उसके चारो ओर 6 योगी बैठ हुये थे। मंत्र उच्चारण शुरू हो गया। मंत्र से मंत्र का काट चलता रहा। लगातार 22 दिनो तक मंत्र से मंत्र टकराते रहे। एक अकेला आर्यमणि कई वर्षो से सिद्ध प्राप्त किये हुये 6 योगियों से टकरा रहा था और अकेले ही उनपर भारी पड़ रहा था। बाईसवें दिन की समाप्ति के साथ ही 6 योगियों ने मिलकर आर्यमणि के दिमाग पर काबू पा लिया।
काबू पाने के बाद सभी योगियों की इच्छा हुई की आखिर इतनी कम उम्र में एक लड़का इतनी सिद्धि कैसे प्राप्त कर कर सकता है, उसकी जांच की जाये। इच्छा हुई तो सभी मंत्र जाप करते आर्यमणि के दिमाग में भी घुस गये। आर्यमणि के दिमाग में जब वो घुसे तब उनके आश्चर्य की कोई सीमा ही नही रही। आर्यमणि की किसी भी याद को वो लोग नही देख पाये, सिवाय एक याद के जिसमे अल्फा पैक को लगभग समाप्त कर दिया गया था।
सभी योगी विचलित होकर आर्यमणि के दिमाग से बाहर निकले। वो लोग आर्यमणि को जगाते उस से पहले बहुत देर हो चुकी थी। राजा विजयदर्थ आर्यमणि के दिमाग पर काबू पा चुका था। 6 योगियों के मुखिया योगी पशुपति नाथ जी विजयदर्थ के समक्ष खड़े होते.... “हम इस लड़के से कई गुणा ज्यादा मंत्रो के प्रयोग को जानते थे। कई मंत्र और साधना के विषय में तो शायद इसे ज्ञान भी नही, फिर भी इसके सुरक्षा मंत्रो की सिद्धि हमसे कई गुणा ऊंची थी। परंतु तुमने क्या किया विजय?”...
विजयदर्थ:– मैने क्या किया गुरुदेव...
योगी पशुपतिनाथ:– तुम्हारे बेटी और बेटे ने मिलकर गुरु आर्यमणि के परिवार की हत्या कर डाली। उनमें से एक (अलबेली) गर्भवती भी थी। जिस हथियार से गुरु आर्यमणि के परिवार को मारा गया वह रीछ स्त्री महाजनीका की दिव्य खंजर थी। इसका अर्थ समझ भी रहे हो। वही स्त्री जो कभी महासागर पर काबू पाने के इरादे से आयी थी। जिसे बांधने में न जाने कितने साधुओं ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। उसी के खंजर से पूरे हत्याकांड को अंजाम दिया गया। तुम्हारे बच्चे जाकर असुर प्रवृति के लोगों से मिल गये और तुमने बिना जांच किये उल्टा गुरु आर्यमणि पर काबू किया।
विजयदर्थ अपने दोनो हाथ जोड़ते.... “गुरुवर क्या वाकई महाजनिका की खंजर से गुरु आर्यमणि के परिवार को मारा गया था।”..
योगी पशुपतिनाथ:– हां, और इस पूरे घटने का रचायता और कोई नही तुम्हारा पुत्र निमेशदर्थ था। आज हमने अपने योग को किसी राजा के अधीन कर दिया। इसलिए इसी वक्त मैं अपने प्राण त्यागता हूं।
इतना कहकर योगी पशुपतिनाथ जी ने कुछ मंत्रो का प्रयोग खुद पर ही कर लिया और जहां वो खड़े थे वहां मात्र राख बची थी। विजयदर्थ अपने घुटने पर आकर उस राख को छूते.... “ये मैने क्या कर दिया गुरुदेव। मैने कभी ऐसा तो न चाहा था। मुझे लगा आर्यमणि अपने परिवार की मृत्यु में बौखलाया था इसलिए मुझे इसपर काबू चाहिए था। ये मुझसे कौन सा पाप हो गया?”..
उन्ही योगियों में से एक योगी वशुकीनाथ जी.... "क्या वाकई सिर्फ इतनी सी बात थी विजय। तुम झूठ किस से बोल रहे?”
विजयदर्थ:– गुरुवर आर्यमणि कुछ देर पहले तक मेरे लिये मरा ही हुआ था। उसे काबू में करने की और क्या मनसा हो सकती है?
योगी वशुकीनाथ:– खड़े हो जाओ विजय। तुम अब भी पूरा सच नहीं कह रहे। आर्यमणि को यहां जल में रोक के रखने की चाह में जितने धूर्त तुम हो चुके थे, योगी पशुपतिनाथ जी को उसी की सजा मिली है। गुरु आर्यमणि का परिवार रहा नहीं। तुम्हे उन जैसा हीलर हर कीमत पर अपने पास चाहिए था। मौका उन्होंने खुद तुम्हे दिया, जब वो तुम्हारे बच्चे को मारने पहुंच गये। तुमने भी मौके को पूरा भुनाते हमारे जरिए उनके दिमाग पर काबू पा लिया। देख लो तुम्हारी बुरी नियत का क्या परिणाम हुआ?”
विजयदर्थ, योगी वशुकिनाथ जी के पाऊं में दोबारा गिरते..... “गुरुवर मुझे माफ कर दे। मै घोर पश्चाताप में हूं। मेरी लालच बस इतनी सी थी कि जलीय साम्राज्य फलता–फूलता रहे। कोई भी दुश्मन हमारी दुनिया को तबाह न करे।”
योगी वशुकीनाथ:– महासागर की भलाई को लेकर तुम्हारी नियत पर कभी शक नही था विजय। तभी तो हमने गुरु आर्यमणि को बांधा। लेकिन तुम भी कहां विश्वास पात्र रहे। सत्य और न्याय के बीच हमें ला खड़ा किया। हम सब के पापों की जिम्मेदारी योगी पशुपतिनाथ जी ने ली। जानते हो हमारे पाप की सजा तो उन्होंने खुद को दे दी। साथ ही साथ गुरु आर्यमणि के साथ जो गलत किया, उसके भरपाई में उन्होंने अपना सारा ज्ञान उनके मस्तिष्क में निहित कर दिया। अब हम अपनी साधना में जा रहे है। दोबारा अब हमसे किसी भी प्रकार के मदद की उम्मीद मत रखना।
विजयदर्थ, योगी वशुकीनाथ के चरणों को भींचते.... “ऐसा न कहे गुरुवर। आप हमे छोड़ चले जायेंगे तब यहां के जलीय तंत्र पूर्ण रूप से टूट जायेगा। विश्वास मानिए किसी योग्य उत्तराधिकारी के मिलते ही अपने पाप की सजा मैं भी खुद को स्वयं दूंगा। किंतु आप हमसे मुंह न मोरे।”
योगी वशुकीनाथ:– तुम्हारे निर्णय ने मुझे प्रसन्न जरूर किया है किंतु गुरु आर्यमणि का क्या? उनके साथ जो गलत हुआ है, उसकी भरपाई कैसे करोगे? तुमने तो मौका मिलते ही उनके दिमाग को भी अपने वश में कर लिया।
विजयदर्थ:– मैं एक पिता हूं, इसलिए मोह नहीं जायेगा। उपचार के उपरांत जब मेरे दोनो बच्चे ठीक हो जाएंगे तब मैं उन्हे जलीय तंत्र से पूर्ण निष्कासित कर दूंगा। न वो मेरे आंखों के सामने होंगे और न ही मैं आर्यमणि के प्रतिसोध के बीच आऊंगा। यही नही आर्यमणि का विवाह मैं अपने सबसे योग्य पुत्री महाती के साथ करवा दूंगा। और जिस दिन आर्यमणि की तंद्रा टूटेगी, उसी दिन मैं उन्हे यहां का राजा घोषित करके अपनी मृत्यु को स्वयं गले लगा लूंगा।
योगी वशुकीनाथ:– क्या कोई ऐसी शक्ति है जो तुम्हारे राज्य में घुसकर गुरु आर्यमणि को तुम्हारे वश से अलग कर सके? तुम उन्हे अभी क्यों नही छोड़ देते...
विजयदर्थ:– विश्वास मानिए मैं चाहता तो हूं लेकिन उत्साह में मुझसे भूल हो गयी।
योगी वशुकीनाथ:– “हां मैं समझ गया। तुमने त्वरण वशीकरण का प्रयोग कर दिया। अब या तो कोई बाहरी त्वरित शक्ति आर्यमणि के दिमाग में घुसकर उसे तुम्हारे वशीकरण से निकलेगी या फिर जब आर्यमणि का जीवन स्थिर होगा तभी वो तुम्हारे जाल से निकलेगा। तुम इतना कैसे गिर सकते हो, मुझे अब तक समझ में नही आ रहा।”
“मेरा श्राप है तुम्हे, तुम हर वर्ष अपने परिवार के एक व्यक्ति का मरा हुआ मुंह देखोगे। सिवाय अपनी बेटी महाती के जिसके विवाह की योजना तुमने बनाई है और तुम्हारे दोनो पुत्र और पुत्री (निमेष और हिमा) जो गुरु आर्यमणि के दोषी है। अब मेरी नजरो से दूर हो जाओ इस से पहले की आवेश में आकर मैं कुछ और बोल जाऊं।”
योगी वशुकीनाथ:– तुम्हारे पाप की कोई क्षमा नही। एक आखरी शब्द तुम्हारे लिये है, तुम और तुम्हारे समुदाय के लोग अब जमीन का मुंह कभी नहीं देख सकते और इलाज के उपरांत निमेषदर्थ और हिमा कभी जल में नही रह सकते। बस तुम्हारे कुल से जिसका विवाह गुरु आर्यमणि के साथ होगा, उसकी शक्तियां पूर्ण निहित होगी।
विजयदर्थ, रोते हुये योगी वशुकीनाथ के पाऊं को जकड़ लिया। न जाने कितनी ही मिन्नते उसने की तब जाकर योगी वशुकीनाथ ने अपने श्राप का तोड़ में केवल इतना ही कहे की... “यदि गुरु आर्यमणि ने तुम्हे क्षमा कर दिया तो ही तुम श्राप से मुक्त होगे, लेकिन शर्त यही होगी विजयदर्थ की तुम खुद को सजा नही दोगे। बल्कि तुम्हारी सजा स्वयं गुरु आर्यमणि तय करेंगे और उसी दिन हम वापस फिर तुम्हारे राज्य में कदम रखेंगे।”
योगी अपनी बात समाप्त कर वहां से अंतर्ध्यान हो गये और विजयदर्थ नीचे तल को तकता रह गया। जैसे ही वह आर्यमणि के साथ अपने महल में पहुंचा, महल से एक अप्रिय घटना की खबर आ गयी। विजयदर्थ के सबसे छोटे पुत्र का देहांत हो गया था। विजयदर्थ के पास सिवाय रोने के और कुछ नही बचा था।
विजयदर्थ तो मानो जैसे गहरे वियोग में चला गया हो। कुछ दिन बीते होंगे जब उसके दो अपंग बच्चे (निमेषदर्थ और हिमा) को महासागर से निकालकर किसी वीरान टापू पर फेंक दिया गया। जल में विचरण करने की सिद्धि निमेषदर्थ और हिमा से छीन चुकी थी। कुछ दिन और बीते होंगे जब महाती अपने पिता से मिलन पहुंची। कारण था बीते कुछ दिनों से शासन के अंदेखेपन की बहुत सी खबरे और हर खबर का अंत विजयदार्थ के नाम से हो जाता। महाती आते ही उनके इस अनदेखेपन का कारण पूछने लगी। तब विजयदर्थ ने उसे पूरी कहानी बता दी।
अपने सौतेले भाई बहन की करतूत तो महाती पहले से जानती थी। अपने पिता की लालच भरी छल सुनकर तो महाती अचरज में ही पर गयी, जबकि आर्यमणि के बारे में तो विजयदर्थ को भी पूरी बात पता थी। महाती अपने पिता को वियोग में छोड़कर, उसी क्षण पूरे शासन का कार्य भार अपने ऊपर ली। मुखौटे के लिये बस अब उसके पिताजी राजा थे, बाकी सारे फैसले महाती खुद करने लगी।
लगभग 2 महीने बीते होंगे जब राजधानी में जश्न का माहोल था। एक बड़े से शोक के बाद इस जश्न ने जैसे विजयदर्थ को प्रायश्चित का मौका दिया था। वह मौका था आर्यमणि और महाती के विवाह का। जबसे विजयदर्थ ने आर्यमणि पर त्वरित सम्मोहन किया था, उसके कुछ दिन बाद से ही आर्यमणि, महाती के साथ रह रहा था। यूं तो चटपटे खबरों में महाती का नाम अक्सर आर्यमणि के साथ जोड़ा जाता। किंतु महाती ने किसी भी बात की परवाह नही की।
लगभग 2 महीने बीते होंगे जब राजधानी में जश्न का माहोल था। एक बड़े से शोक के बाद इस जश्न ने जैसे विजयदर्थ को प्रायश्चित का मौका दिया था। वह मौका था आर्यमणि और महाती के विवाह का। जबसे विजयदर्थ ने आर्यमणि पर त्वरित सम्मोहन किया था, उसके कुछ दिन बाद से ही आर्यमणि, महाती के साथ रह रहा था। यूं तो चटपटे खबरों में महाती का नाम अक्सर आर्यमणि के साथ जोड़ा जाता। किंतु महाती ने किसी भी बात की परवाह नही की।
परंतु एक दिन योगी वशुकीनाथ, महाती के मन की चेतनाओं में आये और उन्होंने जल्द से जल्द आर्यमणि से विवाह करने का विचार दिया। कुछ वार्तालाप योगी वशुकीनाथ और महाती के बीच हुई। किसी सम्मोहित व्यक्ति से बिना उसकी मर्जी के शादी करना महाती को गलत लग रहा था। लेकिन सही–गलत के इस विचार को योगी जी ने सिरे से नकार दिया। त्वरित सम्मोहन से बाहर लाने की महाती की कोशिश और नित्य दिन आर्यमणि को योग और साधना का ध्यान करवाना ही काफी था, एक सच्चा साथी की पहचान के लिये। फिर आर्यमणि के प्रति महाती का सच्चा लगाव और उसके अंतर्मन का प्यार योगीयों से छिपा भी नही था।
जबसे योगियों ने आर्यमणि के साथ अन्याय किया था, तबसे वह आर्यमणि की कुंडली पर लगातार ध्यान लगाए थे। यूं तो भविष्य कोई देख नहीं सकता परंतु एक अनुमान के हिसाब से जो उन योगियों को दिखा, उस अनुसार कुछ अर्चनो को आर्यमणि की अकेली किस्मत मात नही दे सकती थी। उन अर्चनों के वक्त कुछ ग्रहों को अपनी सही दशा में होना अति आवश्यक था और यह तभी संभव था जब आर्यमणि की किस्मत किसी अनोखे कुंडली वाली स्त्री से जुड़ी हुई हो।
योगियों ने साफ शब्दों में कह दिया, “गुरु आर्यमणि जब कभी भी सम्मोहन से बाहर होंगे, उन्हे तुम्हारी जरूरत होगी। यह भी सत्य है कि तंद्रा टूटने के बाद वह शादी नहीं कर सकते इसलिए तुम्हारा अभी उनसे शादी अनिवार्य है।”
महाती:– गुरुवर किंतु बिना उनकी मर्जी के शादी करने से वो मुझे स्वीकारेंगे क्या?
योगी:– तुम्हारी लगन और प्यार एक पत्नी के रूप में स्वीकारने पर विवश कर देगी। यदि यह प्रेम उन्हे विवश ना कर सकी तो तुम दोनो की संतान गुरु आर्यमणि को तुम्हे स्वीकारने पर विवश अवश्य कर देगी। वजह चाहे जो भी हो वो तुम्हे स्वीकार करेंगे। बस सवाल एक ही है, क्या गुरु आर्यमणि को तुम पति के रूप में स्वीकार कर सकती हो। तुम्हे पहले ही बता दूं उनके साथ जीवन बिताना आसान नहीं होगा और न ही तुम महलों वाला सुख देख पाओगी।
महाती के लिये तो मानो अविष्मरणीय घटना उसके दिमाग में चल रही थी। आर्यमणि संग भावनाएं तो तब ही जुड़ चुके थे, जब उनकी निहस्वर्थ भावना को देखी। चूंकि आर्यमणि पहले से शादी–सुदा थे, इसलिए मन के अंदर किसी भगवान का दर्जा देकर वह पूजा करती थी। परंतु आज योगियों की बातें सुनने के बाद महाती अपनी भावना को काबू न कर पायी।
विवाह के प्रस्ताव पर अपनी हामी भरने के बाद महाती ने मन की चेतनाओं में ही उसने विवाह का शुभ मुहरत भी पूछ लीया। चूंकि योगी राजधानी नही आते इसलिए कुछ लोगों की मौजूदगी में महाती, आर्यमणि के साथ योगियों के स्थान तक गयी और वैदिक मंत्रों के बीच पूर्ण विधि से दोनो का विवाह सम्पन्न हो गया।
विवाह संपन्न होने के साथ ही जश्न का सिलसिला भी शुरू हो गया। कई दिनों बाद विजयदर्थ के चेहरे पर भी मुस्कान आयी थी। फिर तो पूरे शहरी राज्यों में जलसे और रंगारंग कार्यक्रम का दौर शुरू हो गया। महाती, आर्यमणि के साथ शहरी क्षेत्रों का भ्रमण करती नागलोक के दरवाजे पर थी। नभीमन स्वयं पातल लोक के दरवाजे पर स्वागत के लिये पहुंचा और नए जोड़ों को आशीर्वाद दिलवाने शेषनाग के मंदिर तक लेकर आये।
महाती के आग्रह पर नाभिमन ने आर्यमणि से टेलीपैथी भी करने की कोशिश की। दिमाग के अंदर अपनी ध्वनि पहुंचाकर आर्यमणि को वशीकरण से आजाद करने की कोशिश। किंतु आर्यमणि ने तो जैसे अपने दिमाग के चारो ओर फैंस लगा रखा हो। किसी भी विधि से नाभिमन आर्यमणि के दिमाग में घुस ना सका।
वहीं वशीकरण के जाल में फंसा आर्यमणि को ऐसा लग रहा था की वह रूही के साथ अपने खुशियों के पल बिता रहा है और बाकी सारी दुनिया उसके प्यार से जल रही है, इसलिए उसने खुद से पूरी दुनिया को ही ब्लॉक कर रखा था। योगियों के साथ की गयी कोशिश का भी वही नतीजा हुआ था। आर्यमणि किसी को अपने दिमाग में घुसने ही नही दे रहा था। और बिना आर्यमणि के दिमाग में घुसे वशीकरण से मुक्त नही करवाया जा सकता था।
खैर, महाती वहां से निराश निकली। बस खुशी इस बात की थी कि विजयदर्थ के सम्मोहन के बाद भी आर्यमणि महाती से काफी ज्यादा प्यार जता रहा था। जब विवाह नही हुआ था तब कभी–कभी महाती को यह प्यार काफी भारी पड़ जाता था। लेकिन विवाह के बाद महाती अंदर ही अंदर आर्यमणि से उसी भारी प्यार के इंतजार में थी।
बहुत ज्यादा इंतजार भी नही करना पड़ा। शादी के बाद जब देश भ्रमण करके लौटे, तब उसी रात फूलों को सेज सजी थी। मखमल का बिस्तर लगाया गया था। पहली ऐसी रात थी जब महाती और आर्यमणि एक साथ एक कमरे में होते। महाती पूरी दुल्हन के लिबास में पूरा घूंघट डाले सेज पर बैठी उसका इंतजार कर रही थी। धराम की आवाज के साथ दरवाजा खुला और फिर दरवाजा बंद।
ये रात बड़ी सुहानी थी। महाती अपने पिया से मिलने वाली थी। मन मचल रहा था, बदन तड़प रहा था। हृदय में विच्छोभ तरंगे उठ रही थी। शारीरिक संभोग से पहले उसके एहसास का ये थ्रिल अनोखा था। कभी दिल घबरा रहा था तो कभी श्वास चढ़ जाती। धड़कन तब धक से रह गयी जब आर्यमणि ने पहला कदम आगे बढ़ाया। कदमों की थाप ने तो जैसे और भी जीना दुभर कर दिया हो।
फिर वो आर्यमणि के कठोर हाथों का पहला स्पर्श। कोमल कली से बदन पर रोएं खड़े हो गये, वह लचर सी गयी और बिस्तर पर सीधी लेट गयी। फिर तो पहले होटों से होंठ टकराए। मधुर एहसास का एक जाम था, जिसे होटों से लगाते ही महाती मदहोश हो गयी। कसमसाती, तिलमिलाती दुविधा और झिझक के बीच उसने भी अपने पहले चुम्बन का भरपूर आनंद उठाया।
स्वांस उखड़ सी गयी थी। चढ़ती श्वंस के साथ ऊपर उठते वक्षों को आर्यमणि ने कपड़ों के ऊपर से ही दबोच लिया। कोरे बदन पर ये कठोर छुवन एक नया एहसास का दौर शुरू कर रही थी। बेकरारी बड़ी थी और रोमांच हर पल बढ़ता जा रहा था। जैसे–जैसे आर्यमणि आगे बढ़ रहा था, उत्तेजना से महाती के हाथ–पाऊं कांप रहे थे।
जैसे ही एक–एक करके आर्यमणि ने लाज की डोर खोलना शुरू किया, महाती उत्तेजना और लाज के बीच फंसती जा रही थी। चोली के सारे गांठ खोलने के बाद जैसे ही आर्यमणि ने चोली को बदन से अलग किया, महाती अपने हाथ से कैंची बनाती, अपने वक्षों को उनके बीच छिपा लिया। आज तक कभी वह निर्वस्त्र नही हुई थी, इसलिए मारे लाज की वो मरी जा रही थी।
आर्यमणि पूरे सुरूर के साथ आगे बढ़ रहा था। अपने दोनो हाथ से महाती की कलाई को जैसे ही आर्यमणि ने थामा, आने वाला पल की कल्पना कर महाती ने करवट ले लिया। महाती ने जैसे ही करवट लिया आर्यमणि ने बिना वक्त गवाए लहंगे की डोर को खींच दिया। दुविधा में फंसी महाती अपने स्तनों को छिपाती या हाथों से लहंगे को पकड़ती जो धीरे–धीरे नीचे सरक रही थी।
लहंगा इतना नीचे तक सरक चुका था कि महाती के गुप्तांग के दिखने की शुरवात होने ही वाली थी। महाती झट से अपना लहंगा संभाली और अगले ही पल आर्यमणि के हाथ उसके खुले वक्षों को मिज रहे थे। गहरे श्वनास खींचने के साथ ही महाती की सिसकारी निकल गयी। हालत अब तो और पतली हो गयी थी।
महाती जितना विरोध कर रही थी, आर्यमणि को उतना ही मजा आ रहा था। अंत में माहती ने खुद ही आत्मसमर्पण कर दिया। अपनी आंखें मूंदकर वह चित लेट गयी और आर्यमणि ने संगमरमर से तराशे बदन पर अपने होटों से पूरा मोहर लगाते चला गया। महाती तो मारे उत्तेजना के 2 बार चरम सुख प्राप्त कर चुकी थी।
आर्यमणि के हाथ महाती के तराशे बदन पर रेंग रहे थे। ऐसा लग रहा था महाती का बदन और भी चमक रहा था और वह और भी ज्यादा आकर्षित कर रही थी। फिर अचानक ही आर्यमणि के हाथ का स्पर्श कहीं गायब हो गया। महाती कुछ पल प्रतीक्षा की। किंतु जब उत्तेजना को भड़काने वाली स्पर्श उसके बदन से दूर रहा, तब किसी तरह हिम्मत करके महाती अपनी आंखें खोल ली। आंख खोली और तुरंत अपना चेहरा अपने हाथ से ढक ली।
दिल में तूफान उमड़ आया था। धड़कने बेकाबू हो गयी थी। आर्यमणि का हाहाकारी देख महाती के अंदर पूरा हाहाकार मचा हुआ था। हालत केवल महाती की खराब नही थी बल्कि आर्यमणि का जोश भी अपने चरम पर था। इतना आकर्षक और कामुक स्त्री को पूर्णतः निर्वस्त्र देखकर रुकना भी बैमानी ही था।
आर्यमणि कूदकर बिस्तर पर चढ़ा। महाती के दोनो पाऊं खोलकर, उसके दोनो पाऊं के बीच में आया। योनि को छिपाए हथेली को थोड़ा जोड़ लगाकर हटाया और हटाने के साथ ही अपना लिंग, महाती के योनि से टीका दिया। फिर तो बड़े आराम से आर्यमणि इंच दर इंच अपना लिंग धीरे–धीरे महाती के योनि के अंदर घुसाने लगा।
खून की हल्की धार बह गयी। ऐसा लग रहा था कोई खंजर चिड़ते हुये अंदर घुस रहा है। महाती की सारी उत्तेजना दर्द मे तब्दील हो गयी। किंतु अपने होंठ को दातों तले दबाकर महाती अपने पहले मिलन को धीरे–धीरे आगे बढ़ने दे रही थी। कुछ देर तक धीरे–धीरे लिंग अंदर बाहर होता रहा। इसी बीच धीरे–धीरे महाती का दर्द भी गायब होता जा रहा था और उत्तेजना हावी होती रही। फिर तो सारे बैरियर जैसे टूट गये हो। रफ्तार धीरे–धीरे पकड़ता गया। फिर तो अंधाधुन रफ्तार बढ़ती रही। बिना रुके धक्के पर धक्का लगता रहा। महाती की सिसकारियां तेज और लंबी होती जा रही थी।
संभोग के असीम आनंद का अनुभव दोनो ही ले रहे थे और दोनो ही काफी मजे में थे। तभी उत्तेजना को थाम दे ऐसा बहाव दोनो के गुप्तांगों से एक साथ निकला। दोनो ही साथ–साथ बह गये और आस पास ही निढल होकर लेट गये। गहरी नींद के बाद जब महाती की आंखें खुली तब नजर सीधा आर्यमणि के झूलते लिंग पर गयी और वह शर्माकर अपने कपड़े समेटकर भागी।
कुछ देर में खुद को पूरी तरह से नई नवेली दुल्हन की तरह तैयार कर, महाती जैसे ही दरवाजे के बाहर आयी, बाहर कई दासियां इंतजार कर रही थी। दासियां सवालिया नजरों से महाती को देखी और महाती इसके जवाब ने बस शर्माकर मुश्कुरा दी। फिर तो दासियों में भी हर्षोल्लास छा गया। प्रथम मिलन की सूचना चारो ओर थी और पूरी राजधानी खिल रही थी।
कई दिनों तक राजधानी में जश्न चलता रहा। विवाह के बाद महाती खुद में पूर्ण होने का अनुभूति तो कर रही थी, किंतु एक वशीकरण वाले इंसान से बिना उसकी मर्जी के विवाह करना महाती को खटकता ही रहा। किंतु हर बार जब वह मायूस होती, योगियों की एक ही बात दिमाग में घूमती..... “यदि प्रेम सच्चा हो तो आर्यमणि कभी न कभी तुम्हे स्वीकार जरूर करेगा।” खैर महीने बीते, साल गुजर गये। सामान्य सा सुखी दंपत्य जीवन चलता रहा।
इधर विजयदर्थ अपना ज्यादातर वक्त कैद में फसे लोगों के प्रबंधन में गुजारता था। चर्चा यदि करें कैदियों के प्रदेश और वहां फसने वाले कैदियों की तो.... कैदियों के प्रदेश में वही लोग कैदी होते थे जिनकी जान किसी कारणवश महासागर में गिड़कर लगभग जाने वाली होती थी। ज्यादातर लोगों के विमान क्षतिग्रस्त होने के कारण ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती थी।
ऐसा नहीं था कि कैदियों को रिहाई का मौका नही मिलता। उन सबको कुछ आसान सा काम दिया जाता था और काम पूरा करने के लिये पर्याप्त से भी ज्यादा वक्त मिलता था। किंतु आज तक कभी ऐसा हुआ नही की कैद में फसे लोगों ने कोई भी आसान सा काम पूरा करके दिया हो। इसका सबसे बड़ा कारण तो उस जगह को बनावट थी, और कैद में केवल पृथ्वी वाशी ही नही फंसते बल्कि दूसरे ग्रह के लोग भी उतने ही फंसते थे।
दरअसल अंतरिक्ष में बने ब्लैक होल का एक सीधा रास्ता महासागरीय साम्राज्य भी था। ब्लैक होल में फंसने का अर्थ ही था लगभग तय मृत्यु अथवा अंतहीन सफर। अंतरिक्ष में जो भी विमान ब्लैक होल में फंसता उनमें से कुछ विमान सीधा कैदियों के प्रदेश में आकर फंसता। एक ऐसा कैद जिसकी कल्पना भी कोई कर नही सकता।
यदि एक नजर इस विशेष प्रकार की कैद पर डाले तो.... कैदियों के प्रदेश के 2 रास्ते थे। एक सीधा रास्ता अर्थात पृथ्वी पर फैले महासागर का लाखों वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र और दूसरा रास्ता अंतरिक्ष में फैले ब्लैक होल से होकर सीधा महासागर का रास्ता। दोनो ही रास्ते एक दूसरे के ऊपर नीचे थे। इसकी संरचना थोड़ी जटिल थी, जिसे आसान शब्दों में यदि समझा जाये तो पृथ्वी से महासागर के पानी का सतह था और आकाश से भी महासागर के पानी का सतह था।
दोनो ओर से जब नीचे गहराइयों में जाते तब बिलकुल मध्य भाग को जीरो प्वाइंट कहते थे। सबसे कमाल यह जीरो प्वाइंट ही था, और समझने में सबसे जटिल। किसी भी सतह से पानी में डूबे हो, फिर वो आकाश के ओर से पानी का सतह हो या फिर पृथ्वी के ओर से पानी का सतह। अनंत गहराई में जाने के बाद पाऊं जमाने वाले तल की उम्मीद तो रहती है। किंतु कैदियों के प्रदेश जाने वाले रास्ते में कोई तल नही था।
आकाश और पृथ्वी के ओर से जो भी कैदियों के प्रदेश जाता था, वहां कोई तल नही था, बल्कि दोनो रास्तों के मध्य भाग को जीरो प्वाइंट कहते थे। जीरो प्वाइंट पर पहुंचने के बाद भले ही तल की जगह पानी दिख रहा हो परंतु जीरो प्वाइंट के नीचे नही तैर सकते। इसका सीधा अर्थ था कि यदि कोई आकाश के ओर से आ रहा है तो वह जीरो प्वाइंट पर आने के बाद और नीचे नही जा सकता बल्कि जिस रास्ते नीचे आया है उसी रास्ते ऊपर जायेगा। और यही नियम पृथ्वी के ओर से भी था।
इस जीरो प्वाइंट के आधे किलोमीटर ऊपर या नीचे कुछ नही था, उसके बाद शुरू होती थी 8–10 किलोमीटर की पतले–पतले पर्वत की मीनार। यह मीनार जीरो प्वाइंट के दोनो ओर बिलकुल किसी मिरर इमेज की तरह थे, जो दोनो ओर से एक जैसे बनावट की थी। कैदियों के प्रदेश में ऐसी मीनारें लाखो किलोमीटर में फैले हुये थे। पर्वत के इन्ही मिनारों के बीच ऊपर से लेकर नीचे तक कई छोटे–छोटे गुफा बने थे, जिनमे कैदी रहते थे।
यहां फसने वालों की संख्या अरबों में थी। जिन्हे पूरा क्षेत्र घूमने की पूरी छूट थी। अपनी रिहाई की मांग करने की भी पूरी छूट थी। विजयदर्थ ऐसा नहीं था कि किसी को जबरदस्ती रोक के रखता। बस उसका यही कहना था कि... “हम नही होते तो तुम्हारी मृत्यु लगभग तय थी, इसलिए कोई भी एक छोटा सा काम कर दो और बदले में अपनी रिहाई ले लो।”...
हां और यह भी सत्य था कि काम उन्हे छोटे–छोटे ही मिलते थे। जैसे कुर्सी बनाना, मनोरंजन करना, इत्यादि इत्यादि। परंतु महासागर की वह ऐसी कैद थी जहां महासागर का कोई तल ही नही था। जीरो प्वाइंट के 20 किलोमीटर ऊपर पानी का सतह, और नीचे जीरो प्वाइंट जो पूरा पानी पर खड़ा था। जब कोई संसाधन ही नही तो काम कैसे पूरा होगा। ऊपर से केकड़े जैसा वहां के कैदियों का समुदाय। कहीं से किसी के निकलने की उम्मीद होती तो दूसरे फसे लोग उनका काम बिगाड़ देते।
विजयदर्थ का सारा दिनचर्या कैदियों को सुनने और उन्हे मीनार में जगह देने में चला जाता। कुछ कैदी जो अपनी पूरी उम्र बिताकर मर जाते, उनके बच्चों को महासागरीय शहर में तरह–तरह के काम करने के लिये भेज दिया जाता। महारहरीय साम्राज्य का जितने भी मजदूरों वाले काम थे, वो इन्ही कैदियों से करवाए जाते थे।
देखते–देखते 2 साल से ऊपर हो चुके थे। इस बीच विजयदर्थ ने अपनी एक और पत्नी और अपने एक और बेटे की मृत्यु को भी देखा। हृदय कांप सा गया। मन में लगातार वियोग सा उठता और एक ही सवाल दिमाग में घूमता... “और कितने दिन उसे श्राप को झेलना होगा?” इस दौरान विजयदर्थ के लिये एक ही खुशी की बात थी, महाती ने एक पुत्र को जन्म दिया था, जिसके साथ आर्यमणि का लगाव अतुलनीय था।
हर सभा में आर्यमणि सबके साथ बैठता लेकिन वह पूर्णतः मौन ही रहता। जबसे वसीकरण हुआ था, तबसे आर्यमणि ने एक शब्द भी नही बोला था। दिमाग के अंदर एक ही छवि रुकी थी, जो उसे खुश रखती थी। वह यहां रूही के साथ था और उसका पूरा पैक यहीं महासागर की गहराइयों में मजे कर रहा है।
आर्यमणि के मन में एक भ्रम जाल बना हुआ था, जिसमे आर्यमणि उलझा हुआ था। वह पूर्णतः मौन था किंतु मन के भीतर उसकी अपनी ही एक खुशियों की दुनिया थी, और सांसारिक जीवन का सुख वह महाती के साथ भोग रहा था। इन्ही चेतनाओं की दुनिया में एक दिन किसी लड़की ने दस्तक दी। ऐसी दस्तक जिसका इंतजार न जाने कबसे विजयदर्थ और महाती कर रहे थे।
आर्यमणि के मन में एक भ्रम जाल बना हुआ था, जिसमे आर्यमणि उलझा हुआ था। वह पूर्णतः मौन था किंतु मन के भीतर उसकी अपनी ही एक खुशियों की दुनिया थी, और सांसारिक जीवन का सुख वह महाती के साथ भोग रहा था। इन्ही चेतनाओं की दुनिया में एक दिन किसी लड़की ने दस्तक दी। ऐसी दस्तक जिसका इंतजार न जाने कबसे विजयदर्थ और महाती कर रहे थे।
दरअसल कैदियों के प्रदेश में ब्रह्मांड का एक प्रबल वीर योद्धा, निश्चल, अपने एक कमाल की साथी ओर्जा के साथ पहुंचा था। पहुंचा शब्द इसलिए क्योंकि कुछ दिन पहले उस योद्धा निश्चल के ग्रह से एक विमान उड़ी थी जो ब्लैक होल में फंस गयी। उस विमान पर निश्चल की बहन सेरिन और पूरा क्रू मेंबर साथ में थे। उसी विमान की तलाश में पीछे से निश्चल भी ब्लैक होल में घुसा और अपनी बहन की तरह वह भी कैदियों के प्रदेश में फंस गया।
वो पहले भी चर्चा हुई थी ना केकड़े की कहानी। यदि कैदियों के प्रदेश से कोई निकालना भी चाहे तो दूसरे कैदी उसका काम बिगाड़ देते है। ठीक वैसे ही निश्चल के साथ भी हुआ। निश्चल अपनी साथी ओर्जा की मदद से अपने विमान में घुसने की कोशिश कर रहा था, ताकि विजयदर्थ को कोई अनोखा भेंट देकर यहां से निकला जाए। ठीक उसी वक्त करोड़ों कैदी एक साथ आये और उस विशाल से विमान को ऐसा क्षतिग्रस्त किया की उसके अंदर की कोई भी वस्तु किसी काम की नही रह गयी थी।
यदि किसी के कैद से निकलने की उम्मीद को ही मार दे, फिर तो उस व्यक्ति का आवेशित होना जायज है। ऊपर से निश्चल एक “विगो सिग्मा, अनक्लासिफाइड अल्फा” था। ऐसा वीर योद्धा जो सदियों में एक बार पैदा होता है। जमीन पर उसकी गति और बेरहम खंजर का का खौफ पूरे ब्रह्मांड में स्थापित था।
उसके अलावा निश्चल के साथ सफर कर रही लड़की ओर्जा अपने प्लेनेट की एक भगोड़ी थी। और वह जिस प्लेनेट की भगोड़ी थी, वह प्लेनेट ही नही अपितु यूनिवर्स का एक पूरा हिस्सा ही रहस्यमई था, जिसपर एक अकेला शासक अष्टक अपने कोर प्लेनेट से सकड़ों ग्रहों पर राज करता था। और उन सभी सैकड़ों ग्रह पर कोई भी दूसरा समुदाय नही बल्कि अष्टक के वंशज ही रहते थे। अष्टक के वंशजों में एक से बढ़कर एक नगीने थे, जो अकेला चाह ले तो पूरे ग्रह पर कब्जा कर ले। उन्ही नागिनो में सबसे कीमती नगीना थी अर्सीमिया। अर्सीमिया के पास टेलीपैथी और दिमाग पर काबू पाने की ऐसी असीम शक्ति थी कि वह एक ही वक्त में अष्टक के असंख्य वंशज के दिमाग से जुड़ी रहती। इस प्रकार से बिना किसी भी ग्रह पर कोई शासक बनाए अष्टक एक ही जगह से सारा कंट्रोल अपने हाथ में रखता था।
अर्सीमिया ही वह धुरी थी जिसके वजह से असीम ताकत रखने वाले असंख्य लोग एक कमांड में काम करते थे। और अर्सीमिया ही वह वजह थी जिसके कारण अष्टक का साम्राज्य रहस्य बना हुआ था, क्योंकि कोई भी बाहरी उनके क्षेत्र में घुसे उस से पहले ही अर्सीमिया टेलीपैथी के जरिए उसके दिमाग में होती थी और नजदीकी सैन्य टुकड़ी उनका काम तमाम कर देती।
अर्सीमिया के पास दिमाग में घुसने की ऐसी शक्ति थी कि यदि वह कुछ लोगों के ऊपर ध्यान लगाये, तो वह अनंत और विशाल फैले ब्रह्मांड के एक छोड़ से दूसरे छोड़ तक टेलीपैथी कर सकती थी। वहीं अगर पूरे जन जाति के दिमाग में घुसना है तो वह एक वक्त में अनंत फैले ब्रह्मांड के 30 फीसदी हिस्से में बसने वाले हर प्राणी के दिमाग में एक साथ घुस भी सकती थी और ऐसा भूचाल मचाती की उसका दिमाग भी फाड़ सकती थी।
ओर्जा, अर्सीमिया की ही सबसे आखरी संतान थी और ठीक अर्सीमिया की तरह ही उसकी टेलीपैथी की शक्ति भी थी। हां साथ में उसे अपने पिता से विगो समुदाय की शक्ति भी मिली थी, जिसके बारे में ओर्जा को कोई ज्ञान नहीं था। ओर्जा जब अपने कोर प्लेनेट से भागी तब वह अपनी मां अर्सीमिया के दिमाग में घुसकर उसका दिमाग ऐसे खराब करके भागी थी कि वह कोमा में चली गयी। उसके बाद तो रहस्यमय अष्टक का टोटल कम्युनिकेशन लूल होने से उसका रहस्य ब्रह्मांड के दूसरे ग्रहों पर खुलना शुरू हो चुका था।
निश्चल और ओर्जा दोनो ही कमाल के थे। भागने के क्रम में ही ओर्जा, निश्चल से मिली और उसी के साथ सफर करते हुये महासागर की गहराइयों तक पहुंच गयी। दोनो ही विजयदर्थ के कैदी थे और निश्चल भेंट स्वरूप उसे अपनी हाई टेक्नोलॉजी के कुछ इक्विपमेंट अपने विमान से देने की सोच रहा था, ताकि इस बेकार की कैद से उसे आजादी मिले। परंतु दूसरे कैदियों ने पूरा मामला बिगाड़ दिया और निश्चल आवेश में आकर पूरी भिड़ से लड़ गया।
निश्चल पूरी भिड़ से तो लड़ गया किंतु जलीय तंत्र में वह किसी आम इंसान की तरह था, जो भीड़ के हाथों मार खा रहा था। तभी ओर्जा ने जो ही पूरी भिड़ के दिमाग में घुसकर उत्पात मचाया की फिर दोबारा किसी ने निश्चल और ओर्जा को छुआ तक नहीं। हां लेकिन निश्चल की हालत खराब थी और उसे इलाज की सख्त जरूरत थी।
ओर्जा अपनी शक्तियों से तुरंत विजयदर्थ को बुलायी। विजयदर्थ जब निश्चल की हालत देखा तब उसने तुरंत आर्यमणि को बुलवाया और निश्चल को हील करवा दिया। ओर्जा अब तक जितने बार भी आर्यमणि को देखी, तब मौन ही देखी थी। बस यहीं से उसे एक उम्मीद की किरण नजर आने लगी और वह टेलीपैथी के जरिए आर्यमणि से कनेक्ट हो गयी।
आर्यमणि के माश्तिस्क में उसकी पहली आवाज ऐसे गूंजी की आर्यमणि अपना सर पकड़ कर बैठ गया। महाती उस वक्त आर्यमणि के साथ ही थी और अचानक ही सर पकड़कर बैठे देख काफी चिंतित हो गयी। पल भर में ही वहां डॉक्टर्स की लाइन लगी थी, और हर किसी ने यही कहा की आर्यमणि को कुछ नही हुआ है।
वहीं दिमाग के अंदर गूंजे ओर्जा की आवाज ने आर्यमणि के दिमागी दुनिया को हिला दिया था। आर्यमणि को यही लगता रहा की कोई खतरा है, जो उसके परिवार के ओर तेजी से बढ़ रहा था। आर्यमणि, ओर्जा की आवाज लगातार सुनता रहा लेकिन हर बार उस आवाज को नजरंदाज ही किया। हर बार जब वह आवाज मस्तिष्क में गूंजती, आर्यमणि की चेतनाओं की दुनिया धुंधली पड़ जाती।
आंखों में ग्लिच पैदा होने लगा। हमेशा साथ रहने वाली रूही, कभी उसे रूही तो कभी महाती दिख रही थी। ओर्जा लगातार आर्यमणि के मस्तिष्क में गूंज रही थी और धीरे–धीरे उसके यादों का चक्र धूमिल होता जा रहा था। ओर्जा के संपर्क का यह चौथा दिन था, जब आर्यमणि की तंद्रा टूटी और वह वशीकरण मंत्र से पूर्णतः मुक्त था। मुक्त तो हो गया था लेकिन दिमाग की यादें पूर्णतः अस्त–व्यस्त हो चुकी थी। कल्पना और सच्चाई के बीच आर्यमणि का दिमाग जूझ रहा था।
कभी उसे अल्फा पैक की हत्या मात्र एक सपना लगता और सच्चाई यही समझ में आती की विजयदर्थ ने छल से पूरे अल्फा पैक को यहीं महासागर की गहराई में फंसा रखा है। तो कभी वह वियोग से रोने लगता। सारी सिद्धियां जैसे मन की चेतनाओं में कहीं गुम हो चुकी थी। महाती और अपने बच्चे अन्याश से कटा–कटा सा रहने लगा था। आर्यमणि को लग रहा था कि महाती से विवाह और उस विवाह से पैदा हुआ लड़का मात्र एक छल है, जो विजयदर्थ का किया धरा है। इस साजिश में उसकी बेटी महाती भी विजयदर्थ का साथ दे रही थी।
आर्यमणि की जबसे तंद्रा टूटी थी वह कुछ भी तय नहीं कर पा रहा था। इस बीच ओर्जा लगातार आर्यमणि के दिमाग के अंदर अपनी आवाज पहुंचाती रही, लेकिन आर्यमणि उसे नजरंदाज कर अपनी ही व्यथा में खोया रहा। ओर्जा के संपर्क करने का यह छठवां दिन था जब आर्यमणि अपनी समस्या को दरकिनार करते ओर्जा से बात किया... “हां ओर्जा मैं तुम्हे सुन सकता हूं।”...
ओर्जा:– शुक्र है ऊपरवाले का, आपने जवाब तो दिया। देखिए महान हीलर आर्यमणि हम यहां कैद में फंस गये है, और मेरे दोस्त का यहां से निकलना जरूरी है।
आर्यमणि, कुछ देर ओर्जा से बात करने के बाद उसे अपने दोस्त के साथ जीरो प्वाइंट के पंचायत स्थल तक आने कहा और खुद जाकर यात्रा को तैयारी करने लगा। आर्यमणि जब महल छोड़कर निकल रह था, तब महाती सामने से टकरा गयी... “मेरे जान की सवारी कहां जा रही है।”
आर्यमणि:– देखो महाती मैं कितनी बार कह चुका हूं कि मुझे जल लोक रोकने की यह घटिया सी चाल अब काम नही आयेगी। तुम्हे पता होना चाहिए की मैं वशीकरण से बाहर आ चुका हूं। और अब मैं वहां जा रहा हूं, जहां तुम लोगों ने मेरे पैक को कैद कर रखा है।
अपनी बात कहकर आर्यमणि वहां से चला गया। पीछे से महाती चिल्लाती रही की वो कई सारे यादों के बीच अब भी फंसे है, लेकिन सुनता कौन है। आर्यमणि एक सोधक जीव पर सवार हुआ और सीधा कैदियों की नगरी पहुंचा। कैदियों की नगरी में जिस स्थान पर विजयदर्थ फैसला किया करता था, वहां आर्यमणि पहुंचा। उस जगह पर एक स्त्री और एक पुरुष पहले से उसका इंतजार कर रहे थे।
विजयदर्थ के प्रति मन में घोर आक्रोश और ओर्जा के लिये उतना ही आभार लिये आर्यमणि उन दोनो के पास पहुंचा। चूंकि ओर्जा इकलौती ऐसी थी जो मन के अंदर बात कर सकती थी इसलिए वह अपना और अपने साथी का परिचय दी। उसने बताया की कैसे वो अपने साथी निश्चल के साथ पृथ्वी के लिये निकली थी और यहां आकर फंस गयी।
आर्यमणि अपने दोनो हाथ जोड़ते.... “संभवतः तुम दोनो का यहां फंसना नियति ही थी। मुझे यहां के राजा विजयदर्थ के तिलिस्म जाल से निकालने का धन्यवाद। साला ये झूठे और मक्कारों की दुनिया है और यहां के राजा को तो सही वक्त पर सजा दूंगा।"
आर्यमणि की बात सुनकर ओर्जा और निश्चल के बीच कुछ बात चीत हुई। शायद ओर्जा, निश्चल से अपने और आर्यमणि के बीच हुई बातों को बता रही थी। दोनो के बीच कुछ देर की बातचीत के बाद ओर्जा, आर्यमणि से पूछने लगी.... “तुम हो कौन और यहां कैसे फंस गये।”
आर्यमणि, ओर्जा की बात सुनकर मुस्कुराया और जवाब में बस इतना ही कहा.... “इस जलीय साम्राज्य में मेरा वजूद क्या है उसे न ही जानो तो अच्छा है। और मेरे यहां फंसे होने की लंबी कहानी है, किसी दिन दोनो फुरसत में मिलेंगे तब बताऊंगा।”...
एक बार फिर निश्चल, ओर्जा और आर्यमणि के बीच हुई बात को जानने की कोशिश करने लगा। इकलौती ओर्जा ही थी जो टेलीपैथी कम्यूनकेशन कर रही थी। बार–बार आर्यमणि की बात सुनकर निश्चल को समझाना उसे उबाऊ लगने लगा। इसलिए वह आर्यमणि और निश्चल के टेलीपैथी कम्युनिकेशन को ही जोड़ती.... “निश्चल अब तुम सीधा पूछ लो जो पूछना है।”
आर्यमणि:– मुझसे क्या बात करनी है, मैं सब जनता हूं। तुम्हारे जितने भी आदमी हैं, उन सबके नाम जुबान पर रखना और तब तक तुम उस राजा विजयदर्थ से कुछ मत कहना, जबतक मैं नहीं कहूं। बहुत कमीना है वो। उसकी बातों में उलझे तो यहां से किसी को निकलने नहीं देगा। ओर्जा अब तुम बुलाओ विजयदर्थ को, कहना तुमने उसका काम कर दिया।
ओर्जा ने ठीक वैसा ही किया जैसा आर्यमणि ने कहा था। विजयदर्थ वहां पहुंचते ही पूछने लगा की... “कौन सा काम तुम लोगों ने मेरे लिये किया है?”
आर्यमणि पीछे छिपा था। जैसे ही विजयदर्थ की बात समाप्त हुई, आर्यमणि चिंखते हुये ..... "विजयदर्थ दिल तो करता है तुम्हारी हरकत के लिये तुम्हें अभी चिरकर यहां के तिलिश्म को भंग कर दूं। बस हाथ बंधे हुये हैं। तुम्हारे भरोसे यहां के जीव और इंसान सुरक्षित है, इसलिए छोड़ रहा हूं।”
विजयदर्थ:- आर्यमणि मुझे क्षमा कर दो। मैने जो कुछ भी किया था, उसमे सिर्फ एक ही लोभ था, तुम्हे यहां रखना। लेकिन....
आर्यमणि:- मैं जब वादा कर चुका था कि यहां के समस्त जीवन को मैं यहां आकर ठीक करता रहूंगा, फिर मेरे साथ ही छल...
विजयदर्थ, अपने दोनों हाथ जोड़े।... "आप एक प्योर अल्फा है, पृथ्वी से ज्यादा जरूरीत यहां है... आप चाहो तो यहां का राजा बन जाओ। मेरी बेटी से शादी करके अपना नया जीवन शुरू कर लो और राजा बनकर यहां के पालनहार बनिए"
दरअसल महाती, राजा विजयदार्थ को पहले ही सारी घटना बता चुकी थी। वह विजयदर्थ को समझा चुकी थी कि आर्यमणि अपने यादों के बीच उलझ चुका है, वह जैसा कहे वैसा कर देने और अंत में आर्यमणि को लेकर योगियों के क्षेत्र में चले आने। यही वजह थी कि विजयदर्थ, आर्यमणि के कथानक अनुसार ही जवाब दे रहा था।
आर्यमणि:- बातों में न उलझाओ। तुम्हारे किये कि सजा मैं वापस आ कर तय करूंगा। अभी मैं, मेरे सभी साथी, ये लड़की ओर्जा, और इसके सभी साथी, यहां से निकलेंगे। बिना कोई एक शब्द बोले तुम ये अभी कर रहे हो। ओर्जा तुम केवल अपने साथियों का नाम बोलो। पहले वो लोग यहां से जायेंगे। फिर तुम दोनो के साथ मैं अपने पैक को लेकर निकलूंगा।
ओर्जा, आर्यमणि को हैरानी से देखती हुई.... “क्या तुमने अभी टेलीपैथी की है। मैने तो कोई बात ही नही की सब तुमने ही कह डाला।”
आर्यमणि:– हां मैं टेलीपैथी कर सकता हूं। बस मुझे इस विजयदर्थ से सीधी बात नही करनी थी। पर क्या करूं अपने पैक को देखने के लिये इतना व्याकुल हूं कि मुझसे रहा नही गया। अब तुम देर न करो और अपने साथियों के नाम बताओ।
आर्यमणि ने जैसा कहा ओर्जा ने ठीक वैसा ही किया। थोड़ी ही देर में उसके सभी साथी पृथ्वी के सतह पर थे। अंत में बच गये थे आर्यमणि, ओर्जा और निश्चल। आर्यमणि विजयदर्थ के ओर सवालिया नजरों से देखते... “मेरा पैक कहां है।”
विजयदर्थ:– मैं सबको एक साथ निकालता हूं। पृथ्वी की सतह पर सब मिल जायेंगे।
अपनी बात समाप्त कर विजयदर्थ ने फिर से अपने दंश को लहरा दिया। ओर्जा और निश्चल एक साथ पृथ्वी की सतह पर निकले, जबकि आर्यमणि को लेकर विजयदर्थ योगियों के क्षेत्र पहुंच गया। आर्यमणि की जब आंख खुली और खुद को योगियों के बीच पाया तब वह अपना सर पकड़कर बैठ गया। यादें एक दूसरे के ऊपर इस कदर परस्पर जुड़ रहे थे कि दिमाग की वास्तविक और काल्पनिक सोच की रेखा मिट चुकी थी।
आर्यमणि काफी मुश्किल दौड़ में था। उसे एक पल लगता की इन योगियों के साथ उसकी भिडंत हो चुकी है, तो अगले पल लगता की ये योगी मेरे स्वप्न में आये थे। मेरे साथ इन्होंने द्वंद किया और इनके एक गुरु पशुपतिनाथ जी ने अपना पूरा ज्ञान मेरे मस्तिष्क में डाला था। योगी समझ चुके थे कि आर्यमणि के साथ क्या हुआ था?
किसी तरह आर्यमणि को योगियों ने समझाया। उसे अपने बीच तीन माह की साधना पर बिठाया। 3 दिन तक तो आर्यमणि सामान्य रूप से साधना करता रहा, किंतु चौथे दिन से दिमाग की वास्तविक और काल्पनिक रेखा फिर से बनने लगी। धीरे–धीरे आर्यमणि अपने तप की गहराइयों में जाने लगा। दूसरे महीने की समाप्ति के बाद आर्यमणि योगी पशुपतिनाथ के ज्ञान की सिद्धियों को भी साधना शुरू कर चुका था।
तीन माह बाद आर्यमणि साधना पूर्ण कर अपनी आंखें खोला। आर्यमणि का दिमाग पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो चुका था। उसे वशीकरण से पहले और उसके बाद का पूरा ज्ञान था। योगियों के समक्ष अपने हाथ जोड़कर उन्हे आभार व्यक्त करने लगा। योगियों ने न सिर्फ आर्यमणि का आभार स्वीकार किया बल्कि अपना क्षेत्र रक्षक भी घोषित कर दिया। आर्यमणि खुशी–खुशी वहां से विदा लेकर अंतर्ध्यान हो गया।
Jab Maine yeh story padni shuru ki thi tab bech mai ise padna band karke nishchal wali dono story padhi thi or tab pata chala tha ki is story mai bi nishchal ki entry hogi.
Par is chakar mai NAINA ji ke notification 400 ke upar ho gaye sorry Naina ji
तीन माह बाद आर्यमणि साधना पूर्ण कर अपनी आंखें खोला। आर्यमणि का दिमाग पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो चुका था। उसे वशीकरण से पहले और उसके बाद का पूरा ज्ञान था। योगियों के समक्ष अपने हाथ जोड़कर उन्हे आभार व्यक्त करने लगा। योगियों ने न सिर्फ आर्यमणि का आभार स्वीकार किया बल्कि अपना क्षेत्र रक्षक भी घोषित कर दिया। आर्यमणि खुशी–खुशी वहां से विदा लेकर अंतर्ध्यान हो गया।
आर्यमणि वहां से अंतर्ध्यान होकर सीधा राजधानी पहुंचा। भव्य से महल के द्वार पर आर्यमणि खड़ा था, और वहां के बनावट को बड़े ध्यान से देख रहा था.... “इतने ध्यान से क्या देख रहे हैं जमाई बाबू?”... पीछे से आर्यमणि की सास, यानी की महाती की मां ज्योत्सना पूछने लगी।
आर्यमणि, उनके पाऊं छूते..... “कुछ नही मां, इस भवन के अलौकिक बनावट को देख रहा था। इस महल में लगा हर पत्थर जैसे अपना इतिहास बता रहा हो।”...
ज्योत्सना:– हां ये बेजान से पत्थर अपनी कहानी हर पल बयान करते है। भले ही अपने पर्वत से अलग हो गये हो, पर हर पल अपनी गुण और विशेषता से यह जाहिर कर जाते है कि वह किस बड़े से साख का हिस्सा थे और इस दुनिया में क्या करने आये थे।
आर्यमणि:– हां आपने सही कहा मां... किस बड़ी साख का हिस्सा थे और दुनिया में क्या करने आये हैं।
ज्योत्सना:– लंबी साधना के बाद एक बार फिर बाल और दाढ़ी बढ़ आया है। मै मेक अप आर्टिस्ट को यहीं बुलवा दूं क्या?
आर्यमणि:– नही मां, मैं करवा लूंगा। आप किस हिचक में है वो बताईये?
ज्योत्सना:– तुम मन के अंदर की दुविधा को भांप जाते हो, क्यों? अब जब सीधे पूछ लिये हो तो मैं भी बिना बात को घुमाए कह देती हूं... पाप मेरे पति ने किया और सजा सभी रिश्तेदार भुगत रहे। घर से हर वर्ष एक लाश निकल रही है। हो सके तो इसे रोक लो..
आर्यमणि:– हम्मम आपने तो मुझे दुविधा में डाल दिया है मां। क्या जो आपके पति विजयदर्थ ने किया, उसके लिये मैं उन्हे क्षमा कर दूं?
ज्योत्सना:– मैने सुना है तुम भी एक बहुत बड़े साख, सात्त्विक आश्रम का हिस्सा हो। संसार के जिस हिस्से में रहते हो, अपने कर्म से सबको बता जाते हो की तुम किस बड़े साख के हिस्से हो और दुनिया में क्या करने आये हो। मै अपने पति के लिये माफी नही चाहती, बस वो लोग जो उनके श्राप के कारण मर रहे, उन्हे रोकना चाहती हूं।
आर्यमणि:– आप मेरी मां ही है। आपकी बात मैं टाल नही सकता। मै आपके पति को मार भी नही सकता क्योंकि मैं नही चाहता एक झटके में उसे मुक्ति मिले। ऐसे में आप बताएं मैं क्या करूं?
ज्योत्सना:– मेरे पति जिस कारण से इतने धूर्त हो चुके है, उनसे वो करण ही छीन लो। इस से बड़ी सजा क्या होगी। उन्हे राजा के पद से हटाकर राजधानी से निष्काशित कर दो।
आर्यमणि:– इसके लिये तो पहले नए राजा की घोषणा करनी होगी और माफ कीजिएगा विजयदर्थ के एक भी बच्चे उस लायक नही।
ज्योत्सना:– क्यों महाती भी नही है क्या?
आर्यमणि:– हम दोनो का विवाह होना नियति थी। जो हो गया उसे मैं बदल तो नही सकता, किंतु जब महाती की नियति मुझसे जुड़ चुकी है फिर आगे उसके किस्मत में ताज नही। आपके पास और कोई विकल्प है अन्यथा मैं विजयदर्थ को उसके श्राप के साथ छोड़ जाऊंगा। इस से बेहतरीन सजा तो मैं भी नही दे सकता था।
ज्योत्सना:– मेरे पास विकल्पों की कमी नही है। मै बिना किसी पक्षपात के सिंहासन के योग्य के नाम बताऊंगी। पहला सबसे योग्य नाम महाती ही थी। किंतु यदि वह सिंहासन का भार नहीं लेती तब दूसरा सबसे योग्य नाम यजुरेश्वर है। बौने के राज घराने का कुल दीपक। चूंकि विजयदर्थ और उसके पीछे की तीन पीढ़ियों ने अपने स्वार्थी स्वभाव के कारण राज सिंहासन के योग्यता के लिये इतनी लंबी–चौड़ी रेखा खींच चुके है कि बौनो के समुदाय ने खुद को सिंहासन के लायक ही समझना छोड़ दिया।
आर्यमणि:– हम्मम, यजुरेश्वर... ठीक है मैं इस इंसान की छानबीन करने के बाद बताता हूं। अभी आपकी आज्ञा हो तो मैं जरा अपने बच्चे से मिल लूं.....
ज्योत्सना:– मैं भी अपने नाती के पास ही जा रही थी... चलो साथ चलते है।
आर्यमणि और उसकी सास दोनो साथ में ही महाती से मिलने पहुंच गये। आर्यमणि को देख महाती प्यारी सी मुस्कान बिखेरते.... “आप कब लौटे पतिदेव”...
आर्यमणि अपना ध्यान अपने बच्चे पर लगाते... “अभी थोड़े समय पहले ही पहुंचा हूं।”
ज्योत्सना दोनो के बीच से अपनी नाती को हटाते.... “तुम दोनो आराम से बातें करो जबतक मैं इस सैतान को घुमाकर लाती हूं।”..
ज्योत्सना के जाते ही उस कमरे में बिलकुल खामोशी पसर गयी। न तो आर्यमणि को कुछ समझ में आ रहा था कि क्या कहे और न ही महाती अपने संकोच से बाहर निकल पा रही थी। कुछ देर दोनो ही खामोशी से नीचे तल को देखते रहे। महाती किसी तरह संकोच वश धीमी सी आवाज में कही.... “सुनिए”..
आर्यमणि, अपनी नजरे जहां जमाए था वहीं जमाए रखा। महाती की आवाज सुनकर बिना उसे देखे.... “हां..”..
महाती:– अब क्या मुझसे इतनी नफरत हो गयी कि मेरे ओर देखे बिना ही बात करेंगे...
आर्यमणि, फिर भी बिना महाती को देखे जवाब दिया.... “तो क्या मुझे नफरत नहीं होनी चाहिए। तुम मेरी मानसिक मनोस्थिति जानती थी, फिर भी मुझसे विवाह की।”..
महाती:– शायद मैं आपके नफरत के ही लायक हूं। ठीक है आपका जो भी निर्णय होगा वह मैं खुशी–खुशी स्वीकार लूंगी...
आर्यमणि:– वैदिक मंत्र पढ़े गये थे। 5 योगियों ने मिलकर हमारा विवाह तय किया था, इसे न स्वीकारने की हिम्मत मुझमें नहीं। थोड़ा वक्त दो मुझे...
महाती २ कदम आगे आकर आर्यमणि का हाथ थामते.... “आप मेरे हृदय में भगवान की तरह थे। आपसे शादी का निर्णय लेना आसान नही था। एक ओर दिल गुदगुदा रहा था तो दूसरे ओर आपके सम्मोहन में होना उतना ही खटक रहा था। मै शादी से साफ इंकार कर चुकी थी, परंतु नियति कुछ और ही थी। आपके साथ इतना लंबा वक्त बिता। आपके साथ इतने प्यार भरे पल संजोए। मै शायद भूल भी चुकी थी कि आपका सम्मोहन जब टूटेगा तब क्या होगा? शायद मैं आज के वक्त की कल्पना नहीं करना चाहती थी। और आज देखिए शादी के इतने साल बाद मेरे पति ही मेरे लिये अंजान हो गये।”...
आर्यमणि:– मैं तुम्हारे लिये अंजान नही हूं महा। बस सम्मोहन टूटने के बाद तुम मेरे लिये अंजान सी हो गयी हो। ये शादी मुझे स्वीकार है, बस थोड़ा वक्त दो।
महा:– यदि आपकी शादी आपके माता पिता की मर्जी से हुई होती। वही परंपरागत शादी जिसमे लड़का और लड़की अंजान रहते है तो क्या आप ऐसी बातें करते? जब शादी स्वीकार है तो मुझे भी स्वीकार कीजिए। जब मेरे करीब ही रहना नहीं पसंद करेंगे, जब मुझे देखेंगे ही नही, तो मैं कैसे आपको पसंद आ सकती हूं?
आर्यमणि:– तुम जिस दिन मेरी दुविधा समझोगी... खैर उस दिन शायद तुम मेरी दुविधा समझो ही नही। मै क्या कहूं कुछ समझ में ही नही आ रहा।
महाती एक कदम और आगे लेती अपना सर आर्यमणि के सीने से टिकाती..... “मैं जानती हूं आपके हृदय में रूही दीदी है, जिस वजह से आपको ये सब धोखा लग रहा है। आप इतना नही सोचिए। पहले भी आपने मुझमें रूही दीदी को देखा था, आगे भी मुझे उसी नजर से देखते रहिए। आपके पग–पग मैं साथ निभाती रहूंगी। आपके जीवन में स्त्री प्रेम की जगह को पूरा भर दूंगी।”
आर्यमणि, अपनी नजरे नीची कर महाती से नजरें मिलाते..... “महा तुम्हारा प्रेम–भाव अतुलनीय है। लेकिन कुछ वर्ष शायद तुम्हे मुझसे दूर रहना पड़े।”
महाती:– ऐसे अपनेपन से बात करते अच्छे लगते हैं जी। आप मेरी और अन्यंस की चिंता नही कीजिए। दीदी (रूही) और परिवार के हर खून का बदला आप ऐसे लेना की दोबारा कोई हमारे परिवार को आंख उठा कर न देख सके। लेकिन उन सब से पहले घर की बड़ी बेटी को ढूंढ लाओ। अमेया को मैं अपने आंचल तले बड़ी करूंगी।
आर्यमणि:– हम्म्म ठीक है, काम शुरू करने से पहले अमेया तुम्हारे पास होगी। मै आज तुम्हारे और अन्यांस के साथ पूरा समय बिताऊंगा। उसके बाद कल मैं पहले नाग लोक की भूमि पर जाऊंगा, उसके बाद कहीं और।
महाती खुशी से आर्यमणि को चूम ली। उसकी आंखों में आंसू थे और बहते आंसुओं के साथ वह कहने लगी..... “आप मेरी खुशी का अंदाजा नहीं लगा सकते। मां अम्बे की कृपा है जो आपने मुझसे मुंह न मोड़ा”..
आर्यमणि:– पूरे वैदिक मंत्रों के बीच 5 तपस्वी ने हमारा विवाह करवाया था। तुम्हे छोड़ने का अर्थ होता अपना धर्म को छोड़ देना।
महाती पूरी खुश थी। अपनी खुशी में वो मात्र राजधानी ही नही, बल्कि समस्त महासागर में चल रहे काम से सबको छुट्टी दे दी। कैदियों के प्रदेश से लगभग 10 लाख कैदियों को उनके ग्रह पर छोड़ दिया गया। अगले एक दिन तक दोनो साथ रहे और एक दूसरे के साथ काफी प्यारा वक्त बिताया। इस पूरे एक दिन में आर्यमणि, विजयदर्थ को भी सजा देने का ठान चुका था।
यूं तो विजयदर्थ के संदेश पूरे दिन मिलते रहे किंतु आर्यमणि उस से मिलना नही चाहता था। महासागर को छोड़ने से पहले विजयदर्थ और आर्यमणि आमने–सामने थे और पूरी सभा लगी हुई थी। सभा में महाती के अलावा विजयदर्थ के बचे हुये 3 बेटे और एक बेटी भी मौजूद थी। उन सबकी मौजूदगी में आर्यमणि ने साफ–साफ शब्दों में कह दिया....
“यदि विजयदर्थ बौने समुदाय के यजुरेश्वर को राजा बनाते है तथा उसके राजा बनने के उपरांत वह अपनी कुल धन संपत्ति छोड़, अपने परिवार के साथ राजधानी छोड़कर किसी अन्य जगह साधारण नागरिक का जीवन शुरू करते है। तो ही मैं विजयदर्थ को उसके किये के लिये माफ करूंगा।”..
एक राजा से उसकी गद्दी छीन ली। एक राज परिवार से उसकी कुल धन संपत्ति छीनकर, उसे आम लोगों की तरह गुमनामी में जीने की सजा दे डाली। ये तो विजयदर्थ के लिये हर वर्ष अपनो के लाश देखने से भी बड़ी सजा थी। किंतु जुबान तो जुबान होती है, जो विजयदर्थ ने योगियों को दिया था... “आर्यमणि जो भी सजा देगा मंजूर होगा।”... और दिल पर पत्थर रखकर विजयदर्थ और उसके पूरे परिवार ने इस प्रस्ताव पर सहमति जता दिया।
विदा लेने पहले आर्यमणि एक बार अपने बच्चे अन्यांस को गोद में लिया और महाती से कुछ औपचारिक बाते की। नागलोक के भू–भाग पर जाने के लिये उसकी सवारी भी पहुंच चुकी थी, जिसे आर्यमणि वर्षों बाद देख रहा था। चहकीली नजरों के सामने थी और पहले के मुकाबले उसका शरीर काफी विकसित भी हो चुका था। हां लेकिन शारीरिक विकास के साथ–साथ चहकीली की भावना भी पहले जैसी नहीं दिखी। वह बिलकुल खामोश और शांत थी।
आर्यमणि यूं तो तल पर ही खड़ा था, किंतु उसके उसके शरीर से उसकी आत्मा धुएं समान निकली जो चाहकीली के चेहरे के बराबर थी। चहकीली उस आत्मा को देख अपनी आंखे बड़ी करती.... “चाचू ये आप हो?”
आर्यमणि:– हां ये मैं ही हूं...
चहकीली:– पर आप ऐसे कैसे मेटल टूथ की तरह दिखने लगे। बिलकुल पारदर्शी और धुएं समान...
आर्यमणि:– मेरा दिखना छोड़ो और तुम अपनी बताओ। इतनी गुमसुम शक्ल क्यों बनाई हुई हो।
चहकीली:– हम जानवर है ना... और जानवरों की कोई भावना नहीं होती...
आर्यमणि:– ये बात न तुम मेरी रूही से कहना, जो अब भी उस आइलैंड पर इंतजार कर रही है।
चहकीली:– क्या आंटी की आत्मा? तो क्या वहां अलबेली और इवान भी मिलेंगे...
आर्यमणि:– नही उन दोनो को तो रूही ने स्वर्ग लोक भेज दिया और खुद यहीं रुक गयी ताकि अपनी और उन दोनो की अधूरी इच्छाएं पूरी करवा सके।
चहकीली:– आप झूठ बोल रहे हो ना चाचू...
आर्यमणि:– अभी तुम मेरे साथ चल रही हो ना, तो चलकर खुद ही देख लेना...
चहकीली:– मैं आपकी बातों में नही उलझती। वैसे चाचू एक बात पूछूं..
आर्यमणि:– हां पूछो..
चहकीली:– चाचू क्या आपका खून नही खौलता? चाचू आप रूही चाची को भूलकर महाती के साथ खुश कैसे हो सकते हो?
आर्यमणि:– “खुश दिखना और अंदर से खुश रहना 2 अलग–अलग बातें होती है। वैसे भी रूही और महाती में एक बात सामान है... वो दोनो ही मुझे बेहद चाहती है। इस बात से फर्क नही पड़ता की मैं क्या चाहता हूं। उनको जब खुशी देखता हूं तब मैं भी अंदर से खुश हो जाता हूं। फिर ये मलाल नहीं रहता की मेरी पसंद क्या थी।”
“चहकीली एक बात पता है, एकमात्र सत्य मृत्यु है। इसे खुशी–खुशी स्वीकार करना चाहिए। हां मानता हूं कि रूही, अलबेली और इवान की हत्या नही होनी चाहिए थी। किसी के दिमागी फितूर का शिकर मेरा परिवार हुआ। अतः उन्हें मैं दंड भी ऐसा दूंगा की उन्हे अपने जीवित रहने पर अफसोस होगा। बाकी मैं जब भी अपनी रूही, अलबेली और इवान को याद करूंगा तो मुस्कुराकर ही याद करूंगा। तुम भी अपनी मायूसी को तोड़ो।”
चहकीली:– केवल एक शर्त मैं मायूसी छोड़ सकती हूं। निमेषदर्थ को आप मेरे हवाले कर दीजिए...
आर्यमणि:– तुम्हे निमेष चाहिए था तो उस वक्त क्यों नही बोली जब मैं उसका पाऊं काट रहा था। उसी वक्त मैं तुम्हे निमेष को दे देता। जनता हूं तुम उसे मृत्यु ही देती लेकिन तुम्हारी खुशी के लिये इतना तो कर ही सकता था।
चहकीली:– बिलकुल नहीं... मै उसे मारना नही चाहती हूं...
आर्यमणि:– फिर तुम उसके साथ क्या करोगी? और ये क्यों भुल जाती हो, निमेष को सिर्फ महासागर से निष्काशित किया गया था, ना की उसकी सारी शक्तियों को छीनकर निष्कासित किया गया था। निमेष के पास अब भी उसके आंखों की जहरीली तरंगे और वो दंश है, जो थल पर भी उतना ही कारगर असर करते है। नमूना मैं नागलोक के भू–भाग पर देख चुका हूं।
चहकीली:– मुझे निमेष तो चाहिए लेकिन उसका मैं कुछ नही करूंगी, बल्कि सब तुम करोगे चाचू...
आर्यमणि:– मैं क्या करूंगा...
चहकीली:– उस निमेषदर्थ को शक्तिहीन कर दोगे। फिर मल निकासी के ऊपर जो मेरे पेट पर सर्जरी किये थे, उस जगह को चिड़कर, निमेषदर्थ को मल निकास नली के अंदर की दीवार से टांक देना। बस इतना कर देना...
आर्यमणि:– किसी दूसरे को सजा देने के लिये मैं तुम्हे दर्द दे दूं, ऐसा नहीं हो सकता...
चहकीली:– फिर मेरी उदासी कभी नही जायेगी। चाचू मेरे दिल का बोझ बस एक आपकी हां पर टिका है। मना मत करो ना...
मायूस सी उसकी आंखें थी और मासूम सा चेहरा। आर्यमणि, चहकीली के दिल की भावना को मेहसूस करते, उसके प्रस्ताव पर अपनी हामी भर दिया। चहकीली पुराने रंग में एक बार फिर चहकती हुई गुलाटी लगा दी और आर्यमणि को अपने पंख में लॉक करके नागलोक के भू–भाग पर चल दी।