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Fantasy Aryamani:- A Pure Alfa Between Two World's

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भाग:–171


तीन माह बाद आर्यमणि साधना पूर्ण कर अपनी आंखें खोला। आर्यमणि का दिमाग पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो चुका था। उसे वशीकरण से पहले और उसके बाद का पूरा ज्ञान था। योगियों के समक्ष अपने हाथ जोड़कर उन्हे आभार व्यक्त करने लगा। योगियों ने न सिर्फ आर्यमणि का आभार स्वीकार किया बल्कि अपना क्षेत्र रक्षक भी घोषित कर दिया। आर्यमणि खुशी–खुशी वहां से विदा लेकर अंतर्ध्यान हो गया।

आर्यमणि वहां से अंतर्ध्यान होकर सीधा राजधानी पहुंचा। भव्य से महल के द्वार पर आर्यमणि खड़ा था, और वहां के बनावट को बड़े ध्यान से देख रहा था.... “इतने ध्यान से क्या देख रहे हैं जमाई बाबू?”... पीछे से आर्यमणि की सास, यानी की महाती की मां ज्योत्सना पूछने लगी।

आर्यमणि, उनके पाऊं छूते..... “कुछ नही मां, इस भवन के अलौकिक बनावट को देख रहा था। इस महल में लगा हर पत्थर जैसे अपना इतिहास बता रहा हो।”...

ज्योत्सना:– हां ये बेजान से पत्थर अपनी कहानी हर पल बयान करते है। भले ही अपने पर्वत से अलग हो गये हो, पर हर पल अपनी गुण और विशेषता से यह जाहिर कर जाते है कि वह किस बड़े से साख का हिस्सा थे और इस दुनिया में क्या करने आये थे।

आर्यमणि:– हां आपने सही कहा मां... किस बड़ी साख का हिस्सा थे और दुनिया में क्या करने आये हैं।

ज्योत्सना:– लंबी साधना के बाद एक बार फिर बाल और दाढ़ी बढ़ आया है। मै मेक अप आर्टिस्ट को यहीं बुलवा दूं क्या?

आर्यमणि:– नही मां, मैं करवा लूंगा। आप किस हिचक में है वो बताईये?

ज्योत्सना:– तुम मन के अंदर की दुविधा को भांप जाते हो, क्यों? अब जब सीधे पूछ लिये हो तो मैं भी बिना बात को घुमाए कह देती हूं... पाप मेरे पति ने किया और सजा सभी रिश्तेदार भुगत रहे। घर से हर वर्ष एक लाश निकल रही है। हो सके तो इसे रोक लो..

आर्यमणि:– हम्मम आपने तो मुझे दुविधा में डाल दिया है मां। क्या जो आपके पति विजयदर्थ ने किया, उसके लिये मैं उन्हे क्षमा कर दूं?

ज्योत्सना:– मैने सुना है तुम भी एक बहुत बड़े साख, सात्त्विक आश्रम का हिस्सा हो। संसार के जिस हिस्से में रहते हो, अपने कर्म से सबको बता जाते हो की तुम किस बड़े साख के हिस्से हो और दुनिया में क्या करने आये हो। मै अपने पति के लिये माफी नही चाहती, बस वो लोग जो उनके श्राप के कारण मर रहे, उन्हे रोकना चाहती हूं।

आर्यमणि:– आप मेरी मां ही है। आपकी बात मैं टाल नही सकता। मै आपके पति को मार भी नही सकता क्योंकि मैं नही चाहता एक झटके में उसे मुक्ति मिले। ऐसे में आप बताएं मैं क्या करूं?

ज्योत्सना:– मेरे पति जिस कारण से इतने धूर्त हो चुके है, उनसे वो करण ही छीन लो। इस से बड़ी सजा क्या होगी। उन्हे राजा के पद से हटाकर राजधानी से निष्काशित कर दो।

आर्यमणि:– इसके लिये तो पहले नए राजा की घोषणा करनी होगी और माफ कीजिएगा विजयदर्थ के एक भी बच्चे उस लायक नही।

ज्योत्सना:– क्यों महाती भी नही है क्या?

आर्यमणि:– हम दोनो का विवाह होना नियति थी। जो हो गया उसे मैं बदल तो नही सकता, किंतु जब महाती की नियति मुझसे जुड़ चुकी है फिर आगे उसके किस्मत में ताज नही। आपके पास और कोई विकल्प है अन्यथा मैं विजयदर्थ को उसके श्राप के साथ छोड़ जाऊंगा। इस से बेहतरीन सजा तो मैं भी नही दे सकता था।

ज्योत्सना:– मेरे पास विकल्पों की कमी नही है। मै बिना किसी पक्षपात के सिंहासन के योग्य के नाम बताऊंगी। पहला सबसे योग्य नाम महाती ही थी। किंतु यदि वह सिंहासन का भार नहीं लेती तब दूसरा सबसे योग्य नाम यजुरेश्वर है। बौने के राज घराने का कुल दीपक। चूंकि विजयदर्थ और उसके पीछे की तीन पीढ़ियों ने अपने स्वार्थी स्वभाव के कारण राज सिंहासन के योग्यता के लिये इतनी लंबी–चौड़ी रेखा खींच चुके है कि बौनो के समुदाय ने खुद को सिंहासन के लायक ही समझना छोड़ दिया।

आर्यमणि:– हम्मम, यजुरेश्वर... ठीक है मैं इस इंसान की छानबीन करने के बाद बताता हूं। अभी आपकी आज्ञा हो तो मैं जरा अपने बच्चे से मिल लूं.....

ज्योत्सना:– मैं भी अपने नाती के पास ही जा रही थी... चलो साथ चलते है।

आर्यमणि और उसकी सास दोनो साथ में ही महाती से मिलने पहुंच गये। आर्यमणि को देख महाती प्यारी सी मुस्कान बिखेरते.... “आप कब लौटे पतिदेव”...

आर्यमणि अपना ध्यान अपने बच्चे पर लगाते... “अभी थोड़े समय पहले ही पहुंचा हूं।”

ज्योत्सना दोनो के बीच से अपनी नाती को हटाते.... “तुम दोनो आराम से बातें करो जबतक मैं इस सैतान को घुमाकर लाती हूं।”..

ज्योत्सना के जाते ही उस कमरे में बिलकुल खामोशी पसर गयी। न तो आर्यमणि को कुछ समझ में आ रहा था कि क्या कहे और न ही महाती अपने संकोच से बाहर निकल पा रही थी। कुछ देर दोनो ही खामोशी से नीचे तल को देखते रहे। महाती किसी तरह संकोच वश धीमी सी आवाज में कही.... “सुनिए”..

आर्यमणि, अपनी नजरे जहां जमाए था वहीं जमाए रखा। महाती की आवाज सुनकर बिना उसे देखे.... “हां..”..

महाती:– अब क्या मुझसे इतनी नफरत हो गयी कि मेरे ओर देखे बिना ही बात करेंगे...

आर्यमणि, फिर भी बिना महाती को देखे जवाब दिया.... “तो क्या मुझे नफरत नहीं होनी चाहिए। तुम मेरी मानसिक मनोस्थिति जानती थी, फिर भी मुझसे विवाह की।”..

महाती:– शायद मैं आपके नफरत के ही लायक हूं। ठीक है आपका जो भी निर्णय होगा वह मैं खुशी–खुशी स्वीकार लूंगी...

आर्यमणि:– वैदिक मंत्र पढ़े गये थे। 5 योगियों ने मिलकर हमारा विवाह तय किया था, इसे न स्वीकारने की हिम्मत मुझमें नहीं। थोड़ा वक्त दो मुझे...

महाती २ कदम आगे आकर आर्यमणि का हाथ थामते.... “आप मेरे हृदय में भगवान की तरह थे। आपसे शादी का निर्णय लेना आसान नही था। एक ओर दिल गुदगुदा रहा था तो दूसरे ओर आपके सम्मोहन में होना उतना ही खटक रहा था। मै शादी से साफ इंकार कर चुकी थी, परंतु नियति कुछ और ही थी। आपके साथ इतना लंबा वक्त बिता। आपके साथ इतने प्यार भरे पल संजोए। मै शायद भूल भी चुकी थी कि आपका सम्मोहन जब टूटेगा तब क्या होगा? शायद मैं आज के वक्त की कल्पना नहीं करना चाहती थी। और आज देखिए शादी के इतने साल बाद मेरे पति ही मेरे लिये अंजान हो गये।”...

आर्यमणि:– मैं तुम्हारे लिये अंजान नही हूं महा। बस सम्मोहन टूटने के बाद तुम मेरे लिये अंजान सी हो गयी हो। ये शादी मुझे स्वीकार है, बस थोड़ा वक्त दो।

महा:– यदि आपकी शादी आपके माता पिता की मर्जी से हुई होती। वही परंपरागत शादी जिसमे लड़का और लड़की अंजान रहते है तो क्या आप ऐसी बातें करते? जब शादी स्वीकार है तो मुझे भी स्वीकार कीजिए। जब मेरे करीब ही रहना नहीं पसंद करेंगे, जब मुझे देखेंगे ही नही, तो मैं कैसे आपको पसंद आ सकती हूं?

आर्यमणि:– तुम जिस दिन मेरी दुविधा समझोगी... खैर उस दिन शायद तुम मेरी दुविधा समझो ही नही। मै क्या कहूं कुछ समझ में ही नही आ रहा।

महाती एक कदम और आगे लेती अपना सर आर्यमणि के सीने से टिकाती..... “मैं जानती हूं आपके हृदय में रूही दीदी है, जिस वजह से आपको ये सब धोखा लग रहा है। आप इतना नही सोचिए। पहले भी आपने मुझमें रूही दीदी को देखा था, आगे भी मुझे उसी नजर से देखते रहिए। आपके पग–पग मैं साथ निभाती रहूंगी। आपके जीवन में स्त्री प्रेम की जगह को पूरा भर दूंगी।”

आर्यमणि, अपनी नजरे नीची कर महाती से नजरें मिलाते..... “महा तुम्हारा प्रेम–भाव अतुलनीय है। लेकिन कुछ वर्ष शायद तुम्हे मुझसे दूर रहना पड़े।”

महाती:– ऐसे अपनेपन से बात करते अच्छे लगते हैं जी। आप मेरी और अन्यंस की चिंता नही कीजिए। दीदी (रूही) और परिवार के हर खून का बदला आप ऐसे लेना की दोबारा कोई हमारे परिवार को आंख उठा कर न देख सके। लेकिन उन सब से पहले घर की बड़ी बेटी को ढूंढ लाओ। अमेया को मैं अपने आंचल तले बड़ी करूंगी।

आर्यमणि:– हम्म्म ठीक है, काम शुरू करने से पहले अमेया तुम्हारे पास होगी। मै आज तुम्हारे और अन्यांस के साथ पूरा समय बिताऊंगा। उसके बाद कल मैं पहले नाग लोक की भूमि पर जाऊंगा, उसके बाद कहीं और।

महाती खुशी से आर्यमणि को चूम ली। उसकी आंखों में आंसू थे और बहते आंसुओं के साथ वह कहने लगी..... “आप मेरी खुशी का अंदाजा नहीं लगा सकते। मां अम्बे की कृपा है जो आपने मुझसे मुंह न मोड़ा”..

आर्यमणि:– पूरे वैदिक मंत्रों के बीच 5 तपस्वी ने हमारा विवाह करवाया था। तुम्हे छोड़ने का अर्थ होता अपना धर्म को छोड़ देना।

महाती पूरी खुश थी। अपनी खुशी में वो मात्र राजधानी ही नही, बल्कि समस्त महासागर में चल रहे काम से सबको छुट्टी दे दी। कैदियों के प्रदेश से लगभग 10 लाख कैदियों को उनके ग्रह पर छोड़ दिया गया। अगले एक दिन तक दोनो साथ रहे और एक दूसरे के साथ काफी प्यारा वक्त बिताया। इस पूरे एक दिन में आर्यमणि, विजयदर्थ को भी सजा देने का ठान चुका था।

यूं तो विजयदर्थ के संदेश पूरे दिन मिलते रहे किंतु आर्यमणि उस से मिलना नही चाहता था। महासागर को छोड़ने से पहले विजयदर्थ और आर्यमणि आमने–सामने थे और पूरी सभा लगी हुई थी। सभा में महाती के अलावा विजयदर्थ के बचे हुये 3 बेटे और एक बेटी भी मौजूद थी। उन सबकी मौजूदगी में आर्यमणि ने साफ–साफ शब्दों में कह दिया....

“यदि विजयदर्थ बौने समुदाय के यजुरेश्वर को राजा बनाते है तथा उसके राजा बनने के उपरांत वह अपनी कुल धन संपत्ति छोड़, अपने परिवार के साथ राजधानी छोड़कर किसी अन्य जगह साधारण नागरिक का जीवन शुरू करते है। तो ही मैं विजयदर्थ को उसके किये के लिये माफ करूंगा।”..

एक राजा से उसकी गद्दी छीन ली। एक राज परिवार से उसकी कुल धन संपत्ति छीनकर, उसे आम लोगों की तरह गुमनामी में जीने की सजा दे डाली। ये तो विजयदर्थ के लिये हर वर्ष अपनो के लाश देखने से भी बड़ी सजा थी। किंतु जुबान तो जुबान होती है, जो विजयदर्थ ने योगियों को दिया था... “आर्यमणि जो भी सजा देगा मंजूर होगा।”... और दिल पर पत्थर रखकर विजयदर्थ और उसके पूरे परिवार ने इस प्रस्ताव पर सहमति जता दिया।

विदा लेने पहले आर्यमणि एक बार अपने बच्चे अन्यांस को गोद में लिया और महाती से कुछ औपचारिक बाते की। नागलोक के भू–भाग पर जाने के लिये उसकी सवारी भी पहुंच चुकी थी, जिसे आर्यमणि वर्षों बाद देख रहा था। चहकीली नजरों के सामने थी और पहले के मुकाबले उसका शरीर काफी विकसित भी हो चुका था। हां लेकिन शारीरिक विकास के साथ–साथ चहकीली की भावना भी पहले जैसी नहीं दिखी। वह बिलकुल खामोश और शांत थी।

आर्यमणि यूं तो तल पर ही खड़ा था, किंतु उसके उसके शरीर से उसकी आत्मा धुएं समान निकली जो चाहकीली के चेहरे के बराबर थी। चहकीली उस आत्मा को देख अपनी आंखे बड़ी करती.... “चाचू ये आप हो?”

आर्यमणि:– हां ये मैं ही हूं...

चहकीली:– पर आप ऐसे कैसे मेटल टूथ की तरह दिखने लगे। बिलकुल पारदर्शी और धुएं समान...

आर्यमणि:– मेरा दिखना छोड़ो और तुम अपनी बताओ। इतनी गुमसुम शक्ल क्यों बनाई हुई हो।

चहकीली:– हम जानवर है ना... और जानवरों की कोई भावना नहीं होती...

आर्यमणि:– ये बात न तुम मेरी रूही से कहना, जो अब भी उस आइलैंड पर इंतजार कर रही है।

चहकीली:– क्या आंटी की आत्मा? तो क्या वहां अलबेली और इवान भी मिलेंगे...

आर्यमणि:– नही उन दोनो को तो रूही ने स्वर्ग लोक भेज दिया और खुद यहीं रुक गयी ताकि अपनी और उन दोनो की अधूरी इच्छाएं पूरी करवा सके।

चहकीली:– आप झूठ बोल रहे हो ना चाचू...

आर्यमणि:– अभी तुम मेरे साथ चल रही हो ना, तो चलकर खुद ही देख लेना...

चहकीली:– मैं आपकी बातों में नही उलझती। वैसे चाचू एक बात पूछूं..

आर्यमणि:– हां पूछो..

चहकीली:– चाचू क्या आपका खून नही खौलता? चाचू आप रूही चाची को भूलकर महाती के साथ खुश कैसे हो सकते हो?

आर्यमणि:– “खुश दिखना और अंदर से खुश रहना 2 अलग–अलग बातें होती है। वैसे भी रूही और महाती में एक बात सामान है... वो दोनो ही मुझे बेहद चाहती है। इस बात से फर्क नही पड़ता की मैं क्या चाहता हूं। उनको जब खुशी देखता हूं तब मैं भी अंदर से खुश हो जाता हूं। फिर ये मलाल नहीं रहता की मेरी पसंद क्या थी।”

“चहकीली एक बात पता है, एकमात्र सत्य मृत्यु है। इसे खुशी–खुशी स्वीकार करना चाहिए। हां मानता हूं कि रूही, अलबेली और इवान की हत्या नही होनी चाहिए थी। किसी के दिमागी फितूर का शिकर मेरा परिवार हुआ। अतः उन्हें मैं दंड भी ऐसा दूंगा की उन्हे अपने जीवित रहने पर अफसोस होगा। बाकी मैं जब भी अपनी रूही, अलबेली और इवान को याद करूंगा तो मुस्कुराकर ही याद करूंगा। तुम भी अपनी मायूसी को तोड़ो।”

चहकीली:– केवल एक शर्त मैं मायूसी छोड़ सकती हूं। निमेषदर्थ को आप मेरे हवाले कर दीजिए...

आर्यमणि:– तुम्हे निमेष चाहिए था तो उस वक्त क्यों नही बोली जब मैं उसका पाऊं काट रहा था। उसी वक्त मैं तुम्हे निमेष को दे देता। जनता हूं तुम उसे मृत्यु ही देती लेकिन तुम्हारी खुशी के लिये इतना तो कर ही सकता था।

चहकीली:– बिलकुल नहीं... मै उसे मारना नही चाहती हूं...

आर्यमणि:– फिर तुम उसके साथ क्या करोगी? और ये क्यों भुल जाती हो, निमेष को सिर्फ महासागर से निष्काशित किया गया था, ना की उसकी सारी शक्तियों को छीनकर निष्कासित किया गया था। निमेष के पास अब भी उसके आंखों की जहरीली तरंगे और वो दंश है, जो थल पर भी उतना ही कारगर असर करते है। नमूना मैं नागलोक के भू–भाग पर देख चुका हूं।

चहकीली:– मुझे निमेष तो चाहिए लेकिन उसका मैं कुछ नही करूंगी, बल्कि सब तुम करोगे चाचू...

आर्यमणि:– मैं क्या करूंगा...

चहकीली:– उस निमेषदर्थ को शक्तिहीन कर दोगे। फिर मल निकासी के ऊपर जो मेरे पेट पर सर्जरी किये थे, उस जगह को चिड़कर, निमेषदर्थ को मल निकास नली के अंदर की दीवार से टांक देना। बस इतना कर देना...

आर्यमणि:– किसी दूसरे को सजा देने के लिये मैं तुम्हे दर्द दे दूं, ऐसा नहीं हो सकता...

चहकीली:– फिर मेरी उदासी कभी नही जायेगी। चाचू मेरे दिल का बोझ बस एक आपकी हां पर टिका है। मना मत करो ना...

मायूस सी उसकी आंखें थी और मासूम सा चेहरा। आर्यमणि, चहकीली के दिल की भावना को मेहसूस करते, उसके प्रस्ताव पर अपनी हामी भर दिया। चहकीली पुराने रंग में एक बार फिर चहकती हुई गुलाटी लगा दी और आर्यमणि को अपने पंख में लॉक करके नागलोक के भू–भाग पर चल दी।

 

nain11ster

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किधर हो नैन भाई
साला xf वाले भी अजीब c है बिन बात के ब्लॉक कर देते है नई id बनाना पडा कमेंट कर ने के लिए

Aise kaise bina baat par ban kar diya... Koi na sahayad cool naam tha aur kisi ko chahiye hoga... Nayi I'd bana liye na... Khush rahne ka man ...

मैं भी वही सोच रहा हु गुरु की आखिर मैंने किया क्या

कही गलती से किसी मॉडरेटर की आईटम को फ्रेंड रिकवेस्ट तो नहीं भेज दी 😜

Mod ke item idhar hai kya :yikes:
नैन भाई किधर हो कही आप का विकेट भी ना गिरा दिया हो xf ने 😜😜😜🙏🙏🙏🙏🙏

Hahahaha.... Nahi abhi tak to bacha tha kahin aapke comment ko na un logon ne padh liya ho... Lucifer Saar kuch bhool chuk ho gayi ho to maaf kar Dena...

Update posted
 

king cobra

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तीन माह बाद आर्यमणि साधना पूर्ण कर अपनी आंखें खोला। आर्यमणि का दिमाग पूर्ण रूप से व्यवस्थित हो चुका था। उसे वशीकरण से पहले और उसके बाद का पूरा ज्ञान था। योगियों के समक्ष अपने हाथ जोड़कर उन्हे आभार व्यक्त करने लगा। योगियों ने न सिर्फ आर्यमणि का आभार स्वीकार किया बल्कि अपना क्षेत्र रक्षक भी घोषित कर दिया। आर्यमणि खुशी–खुशी वहां से विदा लेकर अंतर्ध्यान हो गया।

आर्यमणि वहां से अंतर्ध्यान होकर सीधा राजधानी पहुंचा। भव्य से महल के द्वार पर आर्यमणि खड़ा था, और वहां के बनावट को बड़े ध्यान से देख रहा था.... “इतने ध्यान से क्या देख रहे हैं जमाई बाबू?”... पीछे से आर्यमणि की सास, यानी की महाती की मां ज्योत्सना पूछने लगी।

आर्यमणि, उनके पाऊं छूते..... “कुछ नही मां, इस भवन के अलौकिक बनावट को देख रहा था। इस महल में लगा हर पत्थर जैसे अपना इतिहास बता रहा हो।”...

ज्योत्सना:– हां ये बेजान से पत्थर अपनी कहानी हर पल बयान करते है। भले ही अपने पर्वत से अलग हो गये हो, पर हर पल अपनी गुण और विशेषता से यह जाहिर कर जाते है कि वह किस बड़े से साख का हिस्सा थे और इस दुनिया में क्या करने आये थे।

आर्यमणि:– हां आपने सही कहा मां... किस बड़ी साख का हिस्सा थे और दुनिया में क्या करने आये हैं।

ज्योत्सना:– लंबी साधना के बाद एक बार फिर बाल और दाढ़ी बढ़ आया है। मै मेक अप आर्टिस्ट को यहीं बुलवा दूं क्या?

आर्यमणि:– नही मां, मैं करवा लूंगा। आप किस हिचक में है वो बताईये?

ज्योत्सना:– तुम मन के अंदर की दुविधा को भांप जाते हो, क्यों? अब जब सीधे पूछ लिये हो तो मैं भी बिना बात को घुमाए कह देती हूं... पाप मेरे पति ने किया और सजा सभी रिश्तेदार भुगत रहे। घर से हर वर्ष एक लाश निकल रही है। हो सके तो इसे रोक लो..

आर्यमणि:– हम्मम आपने तो मुझे दुविधा में डाल दिया है मां। क्या जो आपके पति विजयदर्थ ने किया, उसके लिये मैं उन्हे क्षमा कर दूं?

ज्योत्सना:– मैने सुना है तुम भी एक बहुत बड़े साख, सात्त्विक आश्रम का हिस्सा हो। संसार के जिस हिस्से में रहते हो, अपने कर्म से सबको बता जाते हो की तुम किस बड़े साख के हिस्से हो और दुनिया में क्या करने आये हो। मै अपने पति के लिये माफी नही चाहती, बस वो लोग जो उनके श्राप के कारण मर रहे, उन्हे रोकना चाहती हूं।

आर्यमणि:– आप मेरी मां ही है। आपकी बात मैं टाल नही सकता। मै आपके पति को मार भी नही सकता क्योंकि मैं नही चाहता एक झटके में उसे मुक्ति मिले। ऐसे में आप बताएं मैं क्या करूं?

ज्योत्सना:– मेरे पति जिस कारण से इतने धूर्त हो चुके है, उनसे वो करण ही छीन लो। इस से बड़ी सजा क्या होगी। उन्हे राजा के पद से हटाकर राजधानी से निष्काशित कर दो।

आर्यमणि:– इसके लिये तो पहले नए राजा की घोषणा करनी होगी और माफ कीजिएगा विजयदर्थ के एक भी बच्चे उस लायक नही।

ज्योत्सना:– क्यों महाती भी नही है क्या?

आर्यमणि:– हम दोनो का विवाह होना नियति थी। जो हो गया उसे मैं बदल तो नही सकता, किंतु जब महाती की नियति मुझसे जुड़ चुकी है फिर आगे उसके किस्मत में ताज नही। आपके पास और कोई विकल्प है अन्यथा मैं विजयदर्थ को उसके श्राप के साथ छोड़ जाऊंगा। इस से बेहतरीन सजा तो मैं भी नही दे सकता था।

ज्योत्सना:– मेरे पास विकल्पों की कमी नही है। मै बिना किसी पक्षपात के सिंहासन के योग्य के नाम बताऊंगी। पहला सबसे योग्य नाम महाती ही थी। किंतु यदि वह सिंहासन का भार नहीं लेती तब दूसरा सबसे योग्य नाम यजुरेश्वर है। बौने के राज घराने का कुल दीपक। चूंकि विजयदर्थ और उसके पीछे की तीन पीढ़ियों ने अपने स्वार्थी स्वभाव के कारण राज सिंहासन के योग्यता के लिये इतनी लंबी–चौड़ी रेखा खींच चुके है कि बौनो के समुदाय ने खुद को सिंहासन के लायक ही समझना छोड़ दिया।

आर्यमणि:– हम्मम, यजुरेश्वर... ठीक है मैं इस इंसान की छानबीन करने के बाद बताता हूं। अभी आपकी आज्ञा हो तो मैं जरा अपने बच्चे से मिल लूं.....

ज्योत्सना:– मैं भी अपने नाती के पास ही जा रही थी... चलो साथ चलते है।

आर्यमणि और उसकी सास दोनो साथ में ही महाती से मिलने पहुंच गये। आर्यमणि को देख महाती प्यारी सी मुस्कान बिखेरते.... “आप कब लौटे पतिदेव”...

आर्यमणि अपना ध्यान अपने बच्चे पर लगाते... “अभी थोड़े समय पहले ही पहुंचा हूं।”

ज्योत्सना दोनो के बीच से अपनी नाती को हटाते.... “तुम दोनो आराम से बातें करो जबतक मैं इस सैतान को घुमाकर लाती हूं।”..

ज्योत्सना के जाते ही उस कमरे में बिलकुल खामोशी पसर गयी। न तो आर्यमणि को कुछ समझ में आ रहा था कि क्या कहे और न ही महाती अपने संकोच से बाहर निकल पा रही थी। कुछ देर दोनो ही खामोशी से नीचे तल को देखते रहे। महाती किसी तरह संकोच वश धीमी सी आवाज में कही.... “सुनिए”..

आर्यमणि, अपनी नजरे जहां जमाए था वहीं जमाए रखा। महाती की आवाज सुनकर बिना उसे देखे.... “हां..”..

महाती:– अब क्या मुझसे इतनी नफरत हो गयी कि मेरे ओर देखे बिना ही बात करेंगे...

आर्यमणि, फिर भी बिना महाती को देखे जवाब दिया.... “तो क्या मुझे नफरत नहीं होनी चाहिए। तुम मेरी मानसिक मनोस्थिति जानती थी, फिर भी मुझसे विवाह की।”..

महाती:– शायद मैं आपके नफरत के ही लायक हूं। ठीक है आपका जो भी निर्णय होगा वह मैं खुशी–खुशी स्वीकार लूंगी...

आर्यमणि:– वैदिक मंत्र पढ़े गये थे। 5 योगियों ने मिलकर हमारा विवाह तय किया था, इसे न स्वीकारने की हिम्मत मुझमें नहीं। थोड़ा वक्त दो मुझे...

महाती २ कदम आगे आकर आर्यमणि का हाथ थामते.... “आप मेरे हृदय में भगवान की तरह थे। आपसे शादी का निर्णय लेना आसान नही था। एक ओर दिल गुदगुदा रहा था तो दूसरे ओर आपके सम्मोहन में होना उतना ही खटक रहा था। मै शादी से साफ इंकार कर चुकी थी, परंतु नियति कुछ और ही थी। आपके साथ इतना लंबा वक्त बिता। आपके साथ इतने प्यार भरे पल संजोए। मै शायद भूल भी चुकी थी कि आपका सम्मोहन जब टूटेगा तब क्या होगा? शायद मैं आज के वक्त की कल्पना नहीं करना चाहती थी। और आज देखिए शादी के इतने साल बाद मेरे पति ही मेरे लिये अंजान हो गये।”...

आर्यमणि:– मैं तुम्हारे लिये अंजान नही हूं महा। बस सम्मोहन टूटने के बाद तुम मेरे लिये अंजान सी हो गयी हो। ये शादी मुझे स्वीकार है, बस थोड़ा वक्त दो।

महा:– यदि आपकी शादी आपके माता पिता की मर्जी से हुई होती। वही परंपरागत शादी जिसमे लड़का और लड़की अंजान रहते है तो क्या आप ऐसी बातें करते? जब शादी स्वीकार है तो मुझे भी स्वीकार कीजिए। जब मेरे करीब ही रहना नहीं पसंद करेंगे, जब मुझे देखेंगे ही नही, तो मैं कैसे आपको पसंद आ सकती हूं?

आर्यमणि:– तुम जिस दिन मेरी दुविधा समझोगी... खैर उस दिन शायद तुम मेरी दुविधा समझो ही नही। मै क्या कहूं कुछ समझ में ही नही आ रहा।

महाती एक कदम और आगे लेती अपना सर आर्यमणि के सीने से टिकाती..... “मैं जानती हूं आपके हृदय में रूही दीदी है, जिस वजह से आपको ये सब धोखा लग रहा है। आप इतना नही सोचिए। पहले भी आपने मुझमें रूही दीदी को देखा था, आगे भी मुझे उसी नजर से देखते रहिए। आपके पग–पग मैं साथ निभाती रहूंगी। आपके जीवन में स्त्री प्रेम की जगह को पूरा भर दूंगी।”

आर्यमणि, अपनी नजरे नीची कर महाती से नजरें मिलाते..... “महा तुम्हारा प्रेम–भाव अतुलनीय है। लेकिन कुछ वर्ष शायद तुम्हे मुझसे दूर रहना पड़े।”

महाती:– ऐसे अपनेपन से बात करते अच्छे लगते हैं जी। आप मेरी और अन्यंस की चिंता नही कीजिए। दीदी (रूही) और परिवार के हर खून का बदला आप ऐसे लेना की दोबारा कोई हमारे परिवार को आंख उठा कर न देख सके। लेकिन उन सब से पहले घर की बड़ी बेटी को ढूंढ लाओ। अमेया को मैं अपने आंचल तले बड़ी करूंगी।

आर्यमणि:– हम्म्म ठीक है, काम शुरू करने से पहले अमेया तुम्हारे पास होगी। मै आज तुम्हारे और अन्यांस के साथ पूरा समय बिताऊंगा। उसके बाद कल मैं पहले नाग लोक की भूमि पर जाऊंगा, उसके बाद कहीं और।

महाती खुशी से आर्यमणि को चूम ली। उसकी आंखों में आंसू थे और बहते आंसुओं के साथ वह कहने लगी..... “आप मेरी खुशी का अंदाजा नहीं लगा सकते। मां अम्बे की कृपा है जो आपने मुझसे मुंह न मोड़ा”..

आर्यमणि:– पूरे वैदिक मंत्रों के बीच 5 तपस्वी ने हमारा विवाह करवाया था। तुम्हे छोड़ने का अर्थ होता अपना धर्म को छोड़ देना।

महाती पूरी खुश थी। अपनी खुशी में वो मात्र राजधानी ही नही, बल्कि समस्त महासागर में चल रहे काम से सबको छुट्टी दे दी। कैदियों के प्रदेश से लगभग 10 लाख कैदियों को उनके ग्रह पर छोड़ दिया गया। अगले एक दिन तक दोनो साथ रहे और एक दूसरे के साथ काफी प्यारा वक्त बिताया। इस पूरे एक दिन में आर्यमणि, विजयदर्थ को भी सजा देने का ठान चुका था।

यूं तो विजयदर्थ के संदेश पूरे दिन मिलते रहे किंतु आर्यमणि उस से मिलना नही चाहता था। महासागर को छोड़ने से पहले विजयदर्थ और आर्यमणि आमने–सामने थे और पूरी सभा लगी हुई थी। सभा में महाती के अलावा विजयदर्थ के बचे हुये 3 बेटे और एक बेटी भी मौजूद थी। उन सबकी मौजूदगी में आर्यमणि ने साफ–साफ शब्दों में कह दिया....

“यदि विजयदर्थ बौने समुदाय के यजुरेश्वर को राजा बनाते है तथा उसके राजा बनने के उपरांत वह अपनी कुल धन संपत्ति छोड़, अपने परिवार के साथ राजधानी छोड़कर किसी अन्य जगह साधारण नागरिक का जीवन शुरू करते है। तो ही मैं विजयदर्थ को उसके किये के लिये माफ करूंगा।”..

एक राजा से उसकी गद्दी छीन ली। एक राज परिवार से उसकी कुल धन संपत्ति छीनकर, उसे आम लोगों की तरह गुमनामी में जीने की सजा दे डाली। ये तो विजयदर्थ के लिये हर वर्ष अपनो के लाश देखने से भी बड़ी सजा थी। किंतु जुबान तो जुबान होती है, जो विजयदर्थ ने योगियों को दिया था... “आर्यमणि जो भी सजा देगा मंजूर होगा।”... और दिल पर पत्थर रखकर विजयदर्थ और उसके पूरे परिवार ने इस प्रस्ताव पर सहमति जता दिया।

विदा लेने पहले आर्यमणि एक बार अपने बच्चे अन्यांस को गोद में लिया और महाती से कुछ औपचारिक बाते की। नागलोक के भू–भाग पर जाने के लिये उसकी सवारी भी पहुंच चुकी थी, जिसे आर्यमणि वर्षों बाद देख रहा था। चहकीली नजरों के सामने थी और पहले के मुकाबले उसका शरीर काफी विकसित भी हो चुका था। हां लेकिन शारीरिक विकास के साथ–साथ चहकीली की भावना भी पहले जैसी नहीं दिखी। वह बिलकुल खामोश और शांत थी।

आर्यमणि यूं तो तल पर ही खड़ा था, किंतु उसके उसके शरीर से उसकी आत्मा धुएं समान निकली जो चाहकीली के चेहरे के बराबर थी। चहकीली उस आत्मा को देख अपनी आंखे बड़ी करती.... “चाचू ये आप हो?”

आर्यमणि:– हां ये मैं ही हूं...

चहकीली:– पर आप ऐसे कैसे मेटल टूथ की तरह दिखने लगे। बिलकुल पारदर्शी और धुएं समान...

आर्यमणि:– मेरा दिखना छोड़ो और तुम अपनी बताओ। इतनी गुमसुम शक्ल क्यों बनाई हुई हो।

चहकीली:– हम जानवर है ना... और जानवरों की कोई भावना नहीं होती...

आर्यमणि:– ये बात न तुम मेरी रूही से कहना, जो अब भी उस आइलैंड पर इंतजार कर रही है।

चहकीली:– क्या आंटी की आत्मा? तो क्या वहां अलबेली और इवान भी मिलेंगे...

आर्यमणि:– नही उन दोनो को तो रूही ने स्वर्ग लोक भेज दिया और खुद यहीं रुक गयी ताकि अपनी और उन दोनो की अधूरी इच्छाएं पूरी करवा सके।

चहकीली:– आप झूठ बोल रहे हो ना चाचू...

आर्यमणि:– अभी तुम मेरे साथ चल रही हो ना, तो चलकर खुद ही देख लेना...

चहकीली:– मैं आपकी बातों में नही उलझती। वैसे चाचू एक बात पूछूं..

आर्यमणि:– हां पूछो..

चहकीली:– चाचू क्या आपका खून नही खौलता? चाचू आप रूही चाची को भूलकर महाती के साथ खुश कैसे हो सकते हो?

आर्यमणि:– “खुश दिखना और अंदर से खुश रहना 2 अलग–अलग बातें होती है। वैसे भी रूही और महाती में एक बात सामान है... वो दोनो ही मुझे बेहद चाहती है। इस बात से फर्क नही पड़ता की मैं क्या चाहता हूं। उनको जब खुशी देखता हूं तब मैं भी अंदर से खुश हो जाता हूं। फिर ये मलाल नहीं रहता की मेरी पसंद क्या थी।”

“चहकीली एक बात पता है, एकमात्र सत्य मृत्यु है। इसे खुशी–खुशी स्वीकार करना चाहिए। हां मानता हूं कि रूही, अलबेली और इवान की हत्या नही होनी चाहिए थी। किसी के दिमागी फितूर का शिकर मेरा परिवार हुआ। अतः उन्हें मैं दंड भी ऐसा दूंगा की उन्हे अपने जीवित रहने पर अफसोस होगा। बाकी मैं जब भी अपनी रूही, अलबेली और इवान को याद करूंगा तो मुस्कुराकर ही याद करूंगा। तुम भी अपनी मायूसी को तोड़ो।”

चहकीली:– केवल एक शर्त मैं मायूसी छोड़ सकती हूं। निमेषदर्थ को आप मेरे हवाले कर दीजिए...

आर्यमणि:– तुम्हे निमेष चाहिए था तो उस वक्त क्यों नही बोली जब मैं उसका पाऊं काट रहा था। उसी वक्त मैं तुम्हे निमेष को दे देता। जनता हूं तुम उसे मृत्यु ही देती लेकिन तुम्हारी खुशी के लिये इतना तो कर ही सकता था।

चहकीली:– बिलकुल नहीं... मै उसे मारना नही चाहती हूं...

आर्यमणि:– फिर तुम उसके साथ क्या करोगी? और ये क्यों भुल जाती हो, निमेष को सिर्फ महासागर से निष्काशित किया गया था, ना की उसकी सारी शक्तियों को छीनकर निष्कासित किया गया था। निमेष के पास अब भी उसके आंखों की जहरीली तरंगे और वो दंश है, जो थल पर भी उतना ही कारगर असर करते है। नमूना मैं नागलोक के भू–भाग पर देख चुका हूं।

चहकीली:– मुझे निमेष तो चाहिए लेकिन उसका मैं कुछ नही करूंगी, बल्कि सब तुम करोगे चाचू...

आर्यमणि:– मैं क्या करूंगा...

चहकीली:– उस निमेषदर्थ को शक्तिहीन कर दोगे। फिर मल निकासी के ऊपर जो मेरे पेट पर सर्जरी किये थे, उस जगह को चिड़कर, निमेषदर्थ को मल निकास नली के अंदर की दीवार से टांक देना। बस इतना कर देना...

आर्यमणि:– किसी दूसरे को सजा देने के लिये मैं तुम्हे दर्द दे दूं, ऐसा नहीं हो सकता...

चहकीली:– फिर मेरी उदासी कभी नही जायेगी। चाचू मेरे दिल का बोझ बस एक आपकी हां पर टिका है। मना मत करो ना...

मायूस सी उसकी आंखें थी और मासूम सा चेहरा। आर्यमणि, चहकीली के दिल की भावना को मेहसूस करते, उसके प्रस्ताव पर अपनी हामी भर दिया। चहकीली पुराने रंग में एक बार फिर चहकती हुई गुलाटी लगा दी और आर्यमणि को अपने पंख में लॉक करके नागलोक के भू–भाग पर चल दी।

wonderful update bhai ji Arya ka faisla bilkul sahi hai mai khus hun usne mahti ko dil se apna liya hai
 
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