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Fantasy Aryamani:- A Pure Alfa Between Two World's

nain11ster

Prime
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भाग:–172


मायूस सी उसकी आंखें थी और मासूम सा चेहरा। आर्यमणि, चहकीली के दिल की भावना को मेहसूस करते, उसके प्रस्ताव पर अपनी हामी भर दिया। चहकीली पुराने रंग में एक बार फिर चहकती हुई गुलाटी लगा दी और आर्यमणि को अपने पंख में लॉक करके नागलोक के भू–भाग पर चल दी।

नाग लोक के भू–भाग का पूरा रूप रेखा पहले से कहीं ज्यादा बदला हुआ था। हजारों किलोमीटर तक धरती ही धरती थी। बारहसिंगा, नीलगाय, गरुड़, यूनिकॉर्न, 4 फिट का लंबा बिच्छू, कई तरह के अलौकिक जीवों से वह जगह भरी पड़ी थी। आइलैंड पर पाऊं रखते ही आर्यमणि के आंखों से आंसू बहने लगे। उसके कदम ऐसे बोझिल हुये की वह लड़खड़ा कर गिर गया।

चाहकीली, आर्यमणि के पास पहुंचने के लिये तेजी दिखाई ही थी कि आर्यमणि उसे हाथ के इशारे से रोक दिया। काफी देर तक वह वहीं बैठा रोता रहा। रोते–रोते आर्यमणि चीखने लगा.... “क्यों भगवान क्यों... मेरी गलती की सजा मेरे पैक को क्यों? दुश्मनी मुझसे थी फिर उन्हे क्यों सजा मिली? जिंदगी बोझिल सी हो गयी है, घुट सी रही है। अंदर ही अंदर मैं जल रहा हूं। न जाने कब तक मैं अपने पाप तले दबा रहूंगा।”

आर्यमणि पूरा एक दिन तक पूर्ण वियोग में उसी जगह बैठा रहा। आंसू थे की रुकने का नाम ही नही ले रहे थे। तभी आर्यमणि के कंधे पर किसी का हाथ था और नजर उठाकर जब देखा तब महाती खड़ी थी..... “उठिए पतिदेव... आप कल से वियोग में है और जूनियर इवान भी कल से गुमसुम है।”...

आर्यमणि, नजर उठाकर महाती को देखा परंतु कुछ बोला नहीं। महाती आर्यमणि के मन में उठे सवाल को भांपति..... “ईश्वर ने आपसे एक इवान छीना तो इस जूनियर इवान को आपकी झोली में डाल दिया।”

“इवान... हां इवान... उसने अपना बचपन पूरा तहखाने में ही गुजारा था। मुश्किल से साल, डेढ़ साल ही तो हुये होंगे... अपनी खुशियों को समेट रहा था। ये जहां देख रहा था। दूर हो गया वह मुझेसे। हमारे पैक में एक वही था जो सबसे कम बोलता था। जिसने अपनी जिंदगी के मात्र 2 साल खुलकर जीया हो, उसे कैसे कोई सजा दे सकता है ?”..

“अलबेली... देखो उसका नाम लिया और मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गयी। जानती हो किन हालातों का उसने सामना किया था। दरिंदो की बस्ती में उसे हर रोज तरह–तरह की दरंदगी झेलनी पड़ती थी। ठीक से जवान भी नही हुई थी उस से पहले ही उसके जुड़वा भाई को अलबेली के आंखों के सामने मार दिया और अलबेली को नोचने वाले थे। तब मेरी रूही ने उसे किसी तरह बचाया।”..

“परिस्थिति कैसी भी थी कभी रूही ने अपनी व्यथा नही बताई। कभी अपने चेहरे पर दर्द नही लेकर आयी। तुम जानती हो सरदार खान की बस्ती में उसे जिसने चाहा, जब चाहा नोचा था। जिल्लत की जिंदगी वो बिता रही थी। मेरे साथ अभी तो खुशियां देखना शुरू ही किया था। दूर कर दिया सबको, छीन ली उनकी खुशियां।”

दिल का दर्द जुबान पर था और आंसू आंखों में। आर्यमणि बहते आंसू के साथ बस अपने दिल की बात कहता गया, कहता गया और कहता गया। न दिल के जज़्बात रुके और न ही आंसू। वियोग लगातार दूसरे दिन भी जारी रहा। जब आर्यमणि का वियोग कम न हुआ तब महाती ने अन्यांस का सहारा लिया।

गुमसुम सा चेहरा बनाए वह अपने पिता को रोते हुये देख रहा था। फिर उसके नन्हे हाथ बहते आंसुओं पर पड़े और उसकी मासूम आंखे एक टक नजरें बिछाए अपने पिता को देख रही थी। आर्यमणि उस कोमल स्पर्श से पिघल गया हो जैसे। नजर भर अपने बेटे को देखकर जैसे ही आर्यमणि ने अन्यांस बोला फिर तो उस मासूम की खिली सी हंसी जो किलकारी गूंजी, फिर तो सारे दर्द कहां गायब हो गये पता ही नही चला।

लहराकर, उछालकर, चूमकर, पूरा प्यार जताते हुये आर्यमणि उसे प्यार करता रहा। आर्यमणि जब वियोग से बाहर आया तब सवालिया नजरों से महाती को देखते.... “मैने तो तुम्हे कुछ साल इंतजार करने कहा था ना।”

महा:– आपने इंतजार करने तो कहा था पतिदेव, किंतु जब आप एक दिन मुझे नही दिखे तो मन बेचैन सा हो गया। फिर क्या था उठाया बोरिया बिस्तर और चली आयी।

आर्यमणि:– चली आयी। लेकिन तुम्हे पता कैसे था कि मैं यहां हूं?

महा:– ये हम जलपड़ियों का सबसे बड़ा रहस्य है जिसे आज तक कोई जलीय मानव जान न पाया। आप भी कभी नही जान पाओगे।

आर्यमणि:– क्यों अपने पति से भी नही साझा कर सकती...

महा:– जलीय मानव कह दी तो कहीं ये तो नही समझ रहे न की हम किसी के पास भी पहुंच सकते हैं। यदि ऐसा सोच रहे हैं तो गलत सोच रहे हैं। हमारे समुदाय की स्त्रियां केवल अपने पति के पास ही पहुंच सकती है और सबने ये रहस्य अपने पति से ही छिपा कर रखा है। क्या समझे पतिदेव...

आर्यमणि:– हां समझ गया, तुमसे चेतकर रहना होगा।

महाती:– चेतने की नौबत वाले काम सोचना भी मत पतिदेव। आपके लिये कुछ भी कर जायेंगे लेकिन यदि किसी और ख्याल दिल में भी आया तो पहले उसे चीड़ देंगे, बाद में आपके हाथ–पाऊं तोड़कर उम्र भर सेवा करेंगे।

आर्यमणि:– तुम कुछ ज्यादा ही गंभीर न हो गयी। खैर छोड़ो इन बातों को...

महाती:– माफ कीजिए पतिदेव। पर क्या करूं आपने बात ही ऐसी छेड़ी की मैं अपनी भावना कहने से खुद को रोक नहीं पायी। छोड़िए इन बातों को और उस बेचारे गुमसुम प्राणी के ओर भी थोड़ा ध्यान दे दीजिए।

महाती, आर्यमणि को गुमसुम पड़े मटुका और उसके झुंड को दिखाने लगी। आर्यमणि 2 दिनो से वियोग में था और देख भी न पाया की शेर माटुका और उसका पूरा परिवार वहीं पर गुमसुम पड़ा था। आर्यमणि दौड़कर बाहर आया। मटुका का सर अपने बाहों में भर लिया अपना सर मटुका के सर से टीका दिया। दोनो के आंखों के दोनो किनारे से आंसू की धारा बह रही थी। कुछ देर रोने के बाद आर्यमणि ने मटुका को समझाया की जो भी हुआ वह एक गहरी साजिश थी। बेचारा जानवर समझे तब न। वो तो बस रूही, अलबेली और इवान के जाने के शोक में न जाने कबसे थे।

रात के वक्त आर्यमणि और महाती दोनो कॉटेज में ही थे। जूनियर सो चुका था और महाती अपने हाथो में तेल लिये आर्यमणि के सर का मालिश कर रही थी। आर्यमणि काफी सुकून से आंखें मूंदे था।

“सुनिए न जी”... महाती बड़े धीमे से कही...

“हूं.....”

“आपने मुझे अपनी पत्नी स्वीकार किया न”..

“तुम ऐसे क्यों पूछ रही हो महा”...

महा, अपनी मालिश को जारी रखती... “कुछ नही बस ऐसे ही पूछ रही थी।”...

“मन में कोई दूसरा ख्याल न लाओ महा। मुझ पर तुम्हारा पूरा हक है।”

छोटे से वार्तालाप के बाद फिर कोई बात नही हुई। आर्यमणि नींद की गहराइयों में सो चुका था। देर रात जूनियर के रोने की आवाज से आर्यमणि की नींद खुली। आर्यमणि जब ध्यान से देखा तब पता चला की वह जूनियर के रोने की आवाज नही थी, बल्कि महाती सुबक रही थी। आर्यमणि तुरंत बिस्तर से उतरकर महा के करीब आया और उसे उठाकर बिस्तर पर ले गया।

आर्यमणि, महा के आंसू पोंछते.... “ये सब क्या है महा? क्या हुआ जो ऐसे रो रही थी।”.... आर्यमणि के सवाल पर महा कुछ बोल ना पायी बस सुबकती हुई आर्यमणि के गले लग गयी और गले लगकर सुबकती रही।

आर्यमणि पहली बार महा के जज्बातों को मेहसूस कर रहा था। उसे समझते देर न लगी की क्यों महा सर की मालिश के वक्त उसे पत्नी के रूप में स्वीकारने वाले सवाल की और क्यों अभी वो सुबक रही थी। आर्यमणि, महा के पीठ को प्यार से सहलाते.... “तुम मेरी पत्नी हो महा, अपनी बात बेझिझक मुझसे कहो।”..

महा:– पत्नी होती तो मुझे स्वीकारते, ना की नकारते। मै जानती हूं आपके हृदय में रूही दीदी बसती है, उनके बराबर ना सही अपने हृदय में छोटा सा स्थान ही दे दो।

आर्यमणि, महा को खुद से अलग करते.... “अभी थोड़ा विचलित हूं। अभी थोड़ा वियोग में हूं। देखा जाये तो मेरे लिये रूही का दूर जाना अभी कल की ही बात है, क्योंकि उसके जाने के ठीक बाद मैं तो महासागर में ही अपने कई साल गुजार दिये। बस 2 दिनो से ही तो उसे याद कर रहा हूं।”..

महा अपना चेहरा साफ करती...... “ठीक है आपको जितना वक्त लेना है ले लो। मै भी पागल हूं, आपकी व्यथा को ठीक से समझ नही पायी। आप मुझे महा कहकर पुकारते हैं, वही मेरे लिये आपका प्यार है। कब से कान तरस गये थे कि आप कुछ तो अलग नाम से मुझे पुकारो।”..

आर्यमणि:– दिल छोटा न करो महा, तुम बहुत प्यारी हो, बस मुझे थोड़ा सा वक्त दे दो।

महा:– ले लीजिए जी, इत्मीनान से पूरा वक्त ले लीजिए। बस मुझे खुद से अलग नहीं कीजिएगा।

आर्यमणि:– मैने कब तुम्हे अलग किया?

महा:– मुझे और अपने बेटे को पीछे छोड़ आये और पूछते है कि कब अलग किया।

आर्यमणि:– मैं अब और अपनो को नही खो सकता था, इसलिए जब तक मैं अपने दुश्मनों को सही अंजाम तक पहुंचा न दूं, तब तक अकेला ही काम करूंगा।

महा:– आप ऐसा क्यों सोचते हो। अकेला कितना भी ताकतवर क्यों न हो, भिड़ के आगे दम तोड़ ही देता है। इसलिए तो असुर महाराज लंकाधिपति रावण के पास भी विशाल सेना थी। प्रभु श्री राम से भी बुद्धिमान और बलवान कोई हो सकता था क्या? फिर भी युद्ध के लिये उन्होंने सेना जुटाई थी। शक्ति संगठन में है, अकेला कभी भी शिकार हो जायेगा...

आर्यमणि:– युद्ध कौशल और रणनीति की शिक्षा तुम्हे किसने दी?

महा:– इस विषय की मैं शोधकर्ता हूं। आधुनिक और पौराणिक हर युद्ध नीति का बारीकी से अध्यन किया है। उनकी नीतियों की मजबूती और खामियां दोनो पता है। समस्त ब्रह्माण्ड के मानव प्रजाति हमारे कैदखाने में है। उनके पास से मैने बहुत कुछ सीखा है। आप मुझे खुद से दूर न करे। वैसे भी भेड़िया हमेशा अपने पैक के साथ शिकार करता है और मैं आपके पैक का हिस्सा हूं।

आर्यमणि:– अच्छा जी, मतलब अब मैं भेड़िया हो गया। मुझे एक जानवर कह रही हो।

महा:– अब जब आपने यह सोच ही लिया की मैने आपको जानवर कह कर संबोधित किया है, तो अंदर के जानवर को थोड़ा तो जगा लो पतिदेव। कम से कम आज की रात तो मुझे अच्छे से देख लो।

अचानक ही कॉटेज में पूरी रौशनी होने लगी। आर्यमणि, महा के ठुड्ढी को पकड़कर उसका चेहरा थोड़ा ऊपर किया। दोनो की नजरें एक दूसरे से उलझ रही थी.... “तुम्हे न देख पाना मेरी भूल हो सकती थी, पर तुम कमाल की दिखती हो। एक बार ध्यान से देख लो तो नजरें ठहर जाये। किसी कवि ने आज तक कभी जिस सौंदर्य की कल्पना नहीं की होगी, तुम वही हो। शब्द कम पर जाये इस एक रूप वर्णन में। जितनी अलौकिक सुंदर हो उतनी ही कमाल की तुम्हारी काया है। भला तुम्हे कैसे नजरंदाज कर सकता हूं।”..

महा, आर्यमणि के सीने में अपना सर छिपाती... “अब आगे कुछ न कहिए जी, मुझे लाज आ रही है। आपके मुंह से अपनी तारीफ सुन मेरा रोम–रोम गदगद हो गया है। थोड़ा नींद ले लीजिए। कल से हमे बहुत काम निपटाने है।”..

आर्यमणि:– हां कल से हमे बहुत से काम निपटाने है। मगर आज की रात तुम्हे पूरा तो देख लेने दो।

महा:– बोलिए नही, मुझे अंदर से कुछ–कुछ होता है।

“बोलूं नही फिर क्या करूं?”.... कहते हुये आर्यमणि ने सारी का पल्लू हटा दिया। अंधेरा कमरा और भी जगमग–जगमग रौशन हो गयी। महाती अंधेरा करने की गुजारिश करती रही, किंतु एक–एक करके उसके बदन से कपड़े निकलते रहे। महाती सुकुड़ती जा रही थी। आर्यमणि की आंखें फैलती जा रही थी। अद्भुत ये क्षण था। महा का खूबसूरत तराशा बदन। बदन की बनावट, उसकी कसावट, ओय होय, होय–होय। तहलका था तहलका।

महा कुछ कहना तो नही चाहती थी लेकिन आर्यमणि को घूरते देख बेचारी लाज तले मरी–मरी बोल ही दी..... “ए जी ऐसे क्या घूर रहे हो।”...

“तुम्हे अब तक ना देखने की गलती को सुधार रहा हूं महा।”..

“सुनिए न, आपकी ही पत्नी हूं। मेरा शरीर मेरी आत्मा मेरा रोम–रोम सब आपका ही है। लेकिन यूं एक बार में ही पूरा न देखो की मैं लाज से मार जाऊं।”..

“तो फिर कैसे देखूं?”

“अब देखना बंद भी करो। बचा हुआ फिर कभी देख लेना। रात खत्म हो जायेगी या फिर सैतान बीच में ही जाग गया तो जलती रह जाऊंगी। अब आ भी जाओ।”..

आर्यमणि इस प्यार भरी अर्जी पर अपनी भी मर्जी जताते आगे की प्रक्रिया शुरू कर दिया, जिसके लिये महा को निर्वस्त्र किया था। जैसे–जैसे रात सुरूर पर चढ़ता गया, वैसे–वैसे आर्यमणि हावी होता गया। आर्यमणि का हावी होना महाती के मजे के नए दरवाजे खोल रहा था। पहली बार संभोग करते वक्त नशा जैसा सुरूर सर चढ़ा था और रोम–रोम में उत्तेजना जैसे बह रही थी।

रात लंबी और यादगार होते जा रही थी। धक्के इतने तेज पड़ रहे थे कि पूरा शरीर थिरक रहा था। और अंत में जब दोनो की गाड़ी स्टेशन पर लगी दोनो हांफ भी रहे थे और आनंदमय मुस्कान भी ले रहे थे।

अगली सुबह काफी आनंदमय थी। मीठी अंगड़ाई के साथ महा की नींद खुली। नींद खुलते ही महा खुद की हालत को दुरुस्त की और किचन को पूरा खंगाल ली। किचन में सारा सामान था, सिवाय दूध के। ऐसा लगा जैसे महा ने हवा को कुछ इशारा किया हुआ तभी “किं, किं, कीं कीं” करते कई सारे छोटे–छोटे नुकीले दांत हवा में दिखने लगे।

जबतक महा पानी गरम करती, मेटल टूथ की टुकड़ी दूध भी वहां पहुंचा चुकी थी। आर्यमणि के लिये चाय, जूनियर के लिये नाश्ता तैयार करने के बाद महा आर्यमणि के लिये बेड–टी लेकर चल दी। महा ने आर्यमणि को उठाकर चाय दी और फटाफट तैयार होने कह दी और खुद जूनियर को खिलाने लगी। नाश्ता इत्यादि करने के बाद खिलती धूप में महा, आर्यमणि के साथ सफर पर निकलने के लिये तैयार थी।

 
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CFL7897

Be lazy
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To Arya FIR use Jagah per a Gaya Jahan per Uske pack ko Mara gaya tha....

Ivan Albeli Ruhi ki Yadon ne Arya ko ek gehri viyog Mein Dal Diya...
Dukh Kyon Na Ho usne is pack ko Apne dil se banaya tha aur Pyar Se Pala tha..

Usko Dukh ko mahsus karke uski Patni mahati Apne bete ko Lekar Uske pass a gai yah Kahate Hue ki Ham Kabhi alag Nahin ho sakte...
Manhatti ne Ne Sahi Kaha Sahi Kaha ki Akele Jaane per Shikar hone ki Sambhavna 100% hai Yadi group mein Gaye to Shakti bhi badhegi aur jokhim bhi kam hoga....

Ine Sab ghatnaon ke bich vah book Anant Kriti uska Kahin pata nahin chala aur sath mein Alpha pack dwara ekattha Kiye Gaya mulyvan Pathar vah Sab bhi pata nahin Kahan Samudra Mein Kho Gaye..koi jankari Is sandarbh me??????
 

Vk248517

I love Fantasy and Sci-fiction story.
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भाग:–172


मायूस सी उसकी आंखें थी और मासूम सा चेहरा। आर्यमणि, चहकीली के दिल की भावना को मेहसूस करते, उसके प्रस्ताव पर अपनी हामी भर दिया। चहकीली पुराने रंग में एक बार फिर चहकती हुई गुलाटी लगा दी और आर्यमणि को अपने पंख में लॉक करके नागलोक के भू–भाग पर चल दी।

नाग लोक के भू–भाग का पूरा रूप रेखा पहले से कहीं ज्यादा बदला हुआ था। हजारों किलोमीटर तक धरती ही धरती थी। बारहसिंगा, नीलगाय, गरुड़, यूनिकॉर्न, 4 फिट का लंबा बिच्छू, कई तरह के अलौकिक जीवों से वह जगह भरी पड़ी थी। आइलैंड पर पाऊं रखते ही आर्यमणि के आंखों से आंसू बहने लगे। उसके कदम ऐसे बोझिल हुये की वह लड़खड़ा कर गिर गया।

चाहकीली, आर्यमणि के पास पहुंचने के लिये तेजी दिखाई ही थी कि आर्यमणि उसे हाथ के इशारे से रोक दिया। काफी देर तक वह वहीं बैठा रोता रहा। रोते–रोते आर्यमणि चीखने लगा.... “क्यों भगवान क्यों... मेरी गलती की सजा मेरे पैक को क्यों? दुश्मनी मुझसे थी फिर उन्हे क्यों सजा मिली? जिंदगी बोझिल सी हो गयी है, घुट सी रही है। अंदर ही अंदर मैं जल रहा हूं। न जाने कब तक मैं अपने पाप तले दबा रहूंगा।”

आर्यमणि पूरा एक दिन तक पूर्ण वियोग में उसी जगह बैठा रहा। आंसू थे की रुकने का नाम ही नही ले रहे थे। तभी आर्यमणि के कंधे पर किसी का हाथ था और नजर उठाकर जब देखा तब महाती खड़ी थी..... “उठिए पतिदेव... आप कल से वियोग में है और जूनियर इवान भी कल से गुमसुम है।”...

आर्यमणि, नजर उठाकर महाती को देखा परंतु कुछ बोला नहीं। महाती आर्यमणि के मन में उठे सवाल को भांपति..... “ईश्वर ने आपसे एक इवान छीना तो इस जूनियर इवान को आपकी झोली में डाल दिया।”

“इवान... हां इवान... उसने अपना बचपन पूरा तहखाने में ही गुजारा था। मुश्किल से साल, डेढ़ साल ही तो हुये होंगे... अपनी खुशियों को समेट रहा था। ये जहां देख रहा था। दूर हो गया वह मुझेसे। हमारे पैक में एक वही था जो सबसे कम बोलता था। जिसने अपनी जिंदगी के मात्र 2 साल खुलकर जीया हो, उसे कैसे कोई सजा दे सकता है ?”..

“अलबेली... देखो उसका नाम लिया और मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गयी। जानती हो किन हालातों का उसने सामना किया था। दरिंदो की बस्ती में उसे हर रोज तरह–तरह की दरंदगी झेलनी पड़ती थी। ठीक से जवान भी नही हुई थी उस से पहले ही उसके जुड़वा भाई को अलबेली के आंखों के सामने मार दिया और अलबेली को नोचने वाले थे। तब मेरी रूही ने उसे किसी तरह बचाया।”..

“परिस्थिति कैसी भी थी कभी रूही ने अपनी व्यथा नही बताई। कभी अपने चेहरे पर दर्द नही लेकर आयी। तुम जानती हो सरदार खान की बस्ती में उसे जिसने चाहा, जब चाहा नोचा था। जिल्लत की जिंदगी वो बिता रही थी। मेरे साथ अभी तो खुशियां देखना शुरू ही किया था। दूर कर दिया सबको, छीन ली उनकी खुशियां।”

दिल का दर्द जुबान पर था और आंसू आंखों में। आर्यमणि बहते आंसू के साथ बस अपने दिल की बात कहता गया, कहता गया और कहता गया। न दिल के जज़्बात रुके और न ही आंसू। वियोग लगातार दूसरे दिन भी जारी रहा। जब आर्यमणि का वियोग कम न हुआ तब महाती ने अन्यांस का सहारा लिया।

गुमसुम सा चेहरा बनाए वह अपने पिता को रोते हुये देख रहा था। फिर उसके नन्हे हाथ बहते आंसुओं पर पड़े और उसकी मासूम आंखे एक टक नजरें बिछाए अपने पिता को देख रही थी। आर्यमणि उस कोमल स्पर्श से पिघल गया हो जैसे। नजर भर अपने बेटे को देखकर जैसे ही आर्यमणि ने अन्यांस बोला फिर तो उस मासूम की खिली सी हंसी जो किलकारी गूंजी, फिर तो सारे दर्द कहां गायब हो गये पता ही नही चला।

लहराकर, उछालकर, चूमकर, पूरा प्यार जताते हुये आर्यमणि उसे प्यार करता रहा। आर्यमणि जब वियोग से बाहर आया तब सवालिया नजरों से महाती को देखते.... “मैने तो तुम्हे कुछ साल इंतजार करने कहा था ना।”

महा:– आपने इंतजार करने तो कहा था पतिदेव, किंतु जब आप एक दिन मुझे नही दिखे तो मन बेचैन सा हो गया। फिर क्या था उठाया बोरिया बिस्तर और चली आयी।

आर्यमणि:– चली आयी। लेकिन तुम्हे पता कैसे था कि मैं यहां हूं?

महा:– ये हम जलपड़ियों का सबसे बड़ा रहस्य है जिसे आज तक कोई जलीय मानव जान न पाया। आप भी कभी नही जान पाओगे।

आर्यमणि:– क्यों अपने पति से भी नही साझा कर सकती...

महा:– जलीय मानव कह दी तो कहीं ये तो नही समझ रहे न की हम किसी के पास भी पहुंच सकते हैं। यदि ऐसा सोच रहे हैं तो गलत सोच रहे हैं। हमारे समुदाय की स्त्रियां केवल अपने पति के पास ही पहुंच सकती है और सबने ये रहस्य अपने पति से ही छिपा कर रखा है। क्या समझे पतिदेव...

आर्यमणि:– हां समझ गया, तुमसे चेतकर रहना होगा।

महाती:– चेतने की नौबत वाले काम सोचना भी मत पतिदेव। आपके लिये कुछ भी कर जायेंगे लेकिन यदि किसी और ख्याल दिल में भी आया तो पहले उसे चीड़ देंगे, बाद में आपके हाथ–पाऊं तोड़कर उम्र भर सेवा करेंगे।

आर्यमणि:– तुम कुछ ज्यादा ही गंभीर न हो गयी। खैर छोड़ो इन बातों को...

महाती:– माफ कीजिए पतिदेव। पर क्या करूं आपने बात ही ऐसी छेड़ी की मैं अपनी भावना कहने से खुद को रोक नहीं पायी। छोड़िए इन बातों को और उस बेचारे गुमसुम प्राणी के ओर भी थोड़ा ध्यान दे दीजिए।

महाती, आर्यमणि को गुमसुम पड़े मटुका और उसके झुंड को दिखाने लगी। आर्यमणि 2 दिनो से वियोग में था और देख भी न पाया की शेर माटुका और उसका पूरा परिवार वहीं पर गुमसुम पड़ा था। आर्यमणि दौड़कर बाहर आया। मटुका का सर अपने बाहों में भर लिया अपना सर मटुका के सर से टीका दिया। दोनो के आंखों के दोनो किनारे से आंसू की धारा बह रही थी। कुछ देर रोने के बाद आर्यमणि ने मटुका को समझाया की जो भी हुआ वह एक गहरी साजिश थी। बेचारा जानवर समझे तब न। वो तो बस रूही, अलबेली और इवान के जाने के शोक में न जाने कबसे थे।

रात के वक्त आर्यमणि और महाती दोनो कॉटेज में ही थे। जूनियर सो चुका था और महाती अपने हाथो में तेल लिये आर्यमणि के सर का मालिश कर रही थी। आर्यमणि काफी सुकून से आंखें मूंदे था।

“सुनिए न जी”... महाती बड़े धीमे से कही...

“हूं.....”

“आपने मुझे अपनी पत्नी स्वीकार किया न”..

“तुम ऐसे क्यों पूछ रही हो महा”...

महा, अपनी मालिश को जारी रखती... “कुछ नही बस ऐसे ही पूछ रही थी।”...

“मन में कोई दूसरा ख्याल न लाओ महा। मुझ पर तुम्हारा पूरा हक है।”

छोटे से वार्तालाप के बाद फिर कोई बात नही हुई। आर्यमणि नींद की गहराइयों में सो चुका था। देर रात जूनियर के रोने की आवाज से आर्यमणि की नींद खुली। आर्यमणि जब ध्यान से देखा तब पता चला की वह जूनियर के रोने की आवाज नही थी, बल्कि महाती सुबक रही थी। आर्यमणि तुरंत बिस्तर से उतरकर महा के करीब आया और उसे उठाकर बिस्तर पर ले गया।

आर्यमणि, महा के आंसू पोंछते.... “ये सब क्या है महा? क्या हुआ जो ऐसे रो रही थी।”.... आर्यमणि के सवाल पर महा कुछ बोल ना पायी बस सुबकती हुई आर्यमणि के गले लग गयी और गले लगकर सुबकती रही।

आर्यमणि पहली बार महा के जज्बातों को मेहसूस कर रहा था। उसे समझते देर न लगी की क्यों महा सर की मालिश के वक्त उसे पत्नी के रूप में स्वीकारने वाले सवाल की और क्यों अभी वो सुबक रही थी। आर्यमणि, महा के पीठ को प्यार से सहलाते.... “तुम मेरी पत्नी हो महा, अपनी बात बेझिझक मुझसे कहो।”..

महा:– पत्नी होती तो मुझे स्वीकारते, ना की नकारते। मै जानती हूं आपके हृदय में रूही दीदी बसती है, उनके बराबर ना सही अपने हृदय में छोटा सा स्थान ही दे दो।

आर्यमणि, महा को खुद से अलग करते.... “अभी थोड़ा विचलित हूं। अभी थोड़ा वियोग में हूं। देखा जाये तो मेरे लिये रूही का दूर जाना अभी कल की ही बात है, क्योंकि उसके जाने के ठीक बाद मैं तो महासागर में ही अपने कई साल गुजार दिये। बस 2 दिनो से ही तो उसे याद कर रहा हूं।”..

महा अपना चेहरा साफ करती...... “ठीक है आपको जितना वक्त लेना है ले लो। मै भी पागल हूं, आपकी व्यथा को ठीक से समझ नही पायी। आप मुझे महा कहकर पुकारते हैं, वही मेरे लिये आपका प्यार है। कब से कान तरस गये थे कि आप कुछ तो अलग नाम से मुझे पुकारो।”..

आर्यमणि:– दिल छोटा न करो महा, तुम बहुत प्यारी हो, बस मुझे थोड़ा सा वक्त दे दो।

महा:– ले लीजिए जी, इत्मीनान से पूरा वक्त ले लीजिए। बस मुझे खुद से अलग नहीं कीजिएगा।

आर्यमणि:– मैने कब तुम्हे अलग किया?

महा:– मुझे और अपने बेटे को पीछे छोड़ आये और पूछते है कि कब अलग किया।

आर्यमणि:– मैं अब और अपनो को नही खो सकता था, इसलिए जब तक मैं अपने दुश्मनों को सही अंजाम तक पहुंचा न दूं, तब तक अकेला ही काम करूंगा।

महा:– आप ऐसा क्यों सोचते हो। अकेला कितना भी ताकतवर क्यों न हो, भिड़ के आगे दम तोड़ ही देता है। इसलिए तो असुर महाराज लंकाधिपति रावण के पास भी विशाल सेना थी। प्रभु श्री राम से भी बुद्धिमान और बलवान कोई हो सकता था क्या? फिर भी युद्ध के लिये उन्होंने सेना जुटाई थी। शक्ति संगठन में है, अकेला कभी भी शिकार हो जायेगा...

आर्यमणि:– युद्ध कौशल और रणनीति की शिक्षा तुम्हे किसने दी?

महा:– इस विषय की मैं शोधकर्ता हूं। आधुनिक और पौराणिक हर युद्ध नीति का बारीकी से अध्यन किया है। उनकी नीतियों की मजबूती और खामियां दोनो पता है। समस्त ब्रह्माण्ड के मानव प्रजाति हमारे कैदखाने में है। उनके पास से मैने बहुत कुछ सीखा है। आप मुझे खुद से दूर न करे। वैसे भी भेड़िया हमेशा अपने पैक के साथ शिकार करता है और मैं आपके पैक का हिस्सा हूं।

आर्यमणि:– अच्छा जी, मतलब अब मैं भेड़िया हो गया। मुझे एक जानवर कह रही हो।

महा:– अब जब आपने यह सोच ही लिया की मैने आपको जानवर कह कर संबोधित किया है, तो अंदर के जानवर को थोड़ा तो जगा लो पतिदेव। कम से कम आज की रात तो मुझे अच्छे से देख लो।

अचानक ही कॉटेज में पूरी रौशनी होने लगी। आर्यमणि, महा के ठुड्ढी को पकड़कर उसका चेहरा थोड़ा ऊपर किया। दोनो की नजरें एक दूसरे से उलझ रही थी.... “तुम्हे न देख पाना मेरी भूल हो सकती थी, पर तुम कमाल की दिखती हो। एक बार ध्यान से देख लो तो नजरें ठहर जाये। किसी कवि ने आज तक कभी जिस सौंदर्य की कल्पना नहीं की होगी, तुम वही हो। शब्द कम पर जाये इस एक रूप वर्णन में। जितनी अलौकिक सुंदर हो उतनी ही कमाल की तुम्हारी काया है। भला तुम्हे कैसे नजरंदाज कर सकता हूं।”..

महा, आर्यमणि के सीने में अपना सर छिपाती... “अब आगे कुछ न कहिए जी, मुझे लाज आ रही है। आपके मुंह से अपनी तारीफ सुन मेरा रोम–रोम गदगद हो गया है। थोड़ा नींद ले लीजिए। कल से हमे बहुत काम निपटाने है।”..

आर्यमणि:– हां कल से हमे बहुत से काम निपटाने है। मगर आज की रात तुम्हे पूरा तो देख लेने दो।

महा:– बोलिए नही, मुझे अंदर से कुछ–कुछ होता है।

“बोलूं नही फिर क्या करूं?”.... कहते हुये आर्यमणि ने सारी का पल्लू हटा दिया। अंधेरा कमरा और भी जगमग–जगमग रौशन हो गयी। महाती अंधेरा करने की गुजारिश करती रही, किंतु एक–एक करके उसके बदन से कपड़े निकलते रहे। महाती सुकुड़ती जा रही थी। आर्यमणि की आंखें फैलती जा रही थी। अद्भुत ये क्षण था। महा का खूबसूरत तराशा बदन। बदन की बनावट, उसकी कसावट, ओय होय, होय–होय। तहलका था तहलका।

महा कुछ कहना तो नही चाहती थी लेकिन आर्यमणि को घूरते देख बेचारी लाज तले मरी–मरी बोल ही दी..... “ए जी ऐसे क्या घूर रहे हो।”...

“तुम्हे अब तक ना देखने की गलती को सुधार रहा हूं महा।”..

“सुनिए न, आपकी ही पत्नी हूं। मेरा शरीर मेरी आत्मा मेरा रोम–रोम सब आपका ही है। लेकिन यूं एक बार में ही पूरा न देखो की मैं लाज से मार जाऊं।”..

“तो फिर कैसे देखूं?”

“अब देखना बंद भी करो। बचा हुआ फिर कभी देख लेना। रात खत्म हो जायेगी या फिर सैतान बीच में ही जाग गया तो जलती रह जाऊंगी। अब आ भी जाओ।”..

आर्यमणि इस प्यार भरी अर्जी पर अपनी भी मर्जी जताते आगे की प्रक्रिया शुरू कर दिया, जिसके लिये महा को निर्वस्त्र किया था। जैसे–जैसे रात सुरूर पर चढ़ता गया, वैसे–वैसे आर्यमणि हावी होता गया। आर्यमणि का हावी होना महाती के मजे के नए दरवाजे खोल रहा था। पहली बार संभोग करते वक्त नशा जैसा सुरूर सर चढ़ा था और रोम–रोम में उत्तेजना जैसे बह रही थी।

रात लंबी और यादगार होते जा रही थी। धक्के इतने तेज पड़ रहे थे कि पूरा शरीर थिरक रहा था। और अंत में जब दोनो की गाड़ी स्टेशन पर लगी दोनो हांफ भी रहे थे और आनंदमय मुस्कान भी ले रहे थे।

अगली सुबह काफी आनंदमय थी। मीठी अंगड़ाई के साथ महा की नींद खुली। नींद खुलते ही महा खुद की हालत को दुरुस्त की और किचन को पूरा खंगाल ली। किचन में सारा सामान था, सिवाय दूध के। ऐसा लगा जैसे महा ने हवा को कुछ इशारा किया हुआ तभी “किं, किं, कीं कीं” करते कई सारे छोटे–छोटे नुकीले दांत हवा में दिखने लगे।

जबतक महा पानी गरम करती, मेटल टूथ की टुकड़ी दूध भी वहां पहुंचा चुकी थी। आर्यमणि के लिये चाय, जूनियर के लिये नाश्ता तैयार करने के बाद महा आर्यमणि के लिये बेड–टी लेकर चल दी। महा ने आर्यमणि को उठाकर चाय दी और फटाफट तैयार होने कह दी और खुद जूनियर को खिलाने लगी। नाश्ता इत्यादि करने के बाद खिलती धूप में महा, आर्यमणि के साथ सफर पर निकलने के लिये तैयार थी।

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