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Sci-FI Rahashyo se bhara Brahmand (completed)

Hero tera

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अध्याय 3

खण्ड 3

वही दूसरी ओर गजेश्वर राज्य में आग के समान ये सूचना फेल गई। कि अब्दुल्ला राजा भानु और उसके वज़ीर नागेश्वर की हत्या करके फरार हो गया। अब लोगों में इसकी चर्चा होने लगीं की ज़रूर अब्दुल्ला की पत्नी और बेटी की हत्या में राजा का किसी प्रकार सम्बन्ध था इसलिये अब्दुल्ला ने ये कठोर कदम उठाया। वही जब युवराज इंद्र अपने धूर्त मंत्रियों के साथ वेश्यालय पहुंचे तो अपने पिता और वज़ीर की निर्मम हत्या देख कर, खुद पर काबू खो बैठे। पहले तो उसने वेश्यालय की सारी वेश्याओं को एक जगह एकत्रित करवा कर लकड़ी के खम्भों से बंधवा दिया। उसके पश्चात उनको जीवित ही अग्नि के सुपुर्द कर दिया। ये दृश्य देख कर केवल प्रजा जन ही नहीं बल्कि राजा के मंत्री भी दहशत में आ गए। सब को ये समझते देर ना लगी के राजकुमार अपने पिता के जैसा दुष्ट होने के साथ साथ सनकी भी है। ना जाने कब किस को दंडित कर दे।

उसके बाद इंद्र अपने सेनापति को बुलवा कर। उसको वसुंधरा पर आक्रमण करने की तैयारी को बोलता है। क्योंकि उसको विश्वास था कि उनके राज्य का भगोड़ा वसुंधरा में ही जा छुपा होगा।

मंत्रियों में से एक वृद्ध अनुभवी मंत्री आगे बढ़ कर बोला" यदि राजा की अनुमति हो तो ये सेवक कुछ कहना चाहता है।

इंद्र को कभी किसी ने राजा कह कर संबोधित नहीं किया था ये उसके जीवन में पहली बार था जो किसी ने उसको राजा कहा अब इसको सुन इंद्र के भीतर गर्व का गुबार फूटा जिसके प्रभाव में उसने वृद्ध को बोलने की अनुमति दे दी।

वृद्ध अपनी शालीनता और अनुभव के माध्यम से बड़े ही मीठे सुर में बोला " महाराज एक कुशल राजा अपने विरोधी को युद्ध से पहले एक चेतावनी जरूर देता है। ताकि बिना युद्ध के ही सामने वाला आत्मा समर्पण कर दे। इस से युद्ध में होने वाली हानि के बिना ही शत्रु को केवल अपने भय से ही पराजित किया जाता है। इंद्र को वृद्ध की बात में दम लगा और उसने वृद्ध को ही इस कार्य को करने के लिए कहा और साथ में ये भी बोला उनके पास विचार विमर्श करने के लिए तीन दिन का समय है। अन्यथा अपने विनाश के वो स्वयं ही कारण होंगे।

वृद्ध ने पहर भर में चेतावनी लिखवा कर वसुंधरा भिजवा दी जिसे पड़ कर राजा को भी ये मामला गंभीर लगा क्योंकि उनको नहीं पता के अब्दुल्ला ने राजा और वज़ीर की इतनी क्रूरता से हत्या क्यों कि। इसलिए उनकी नज़र में अब्दुला एक अपराधी था। वसुंधरा में अभी तक अब्दुल्ला नहीं पहुँचा था इसलिये राजा साहब अपने सलाहकारों से सलाह कर गजेश्वर राज्य के लिए संदेश भिजवाना चाह रहे थे। जिसमें वो राजा भानु की मृत्यु का दुख जाहिर करते और साथ में आश्वासन भी देते की अब्दुल्ला के मिलते ही वसुंधरा राज्य उसे गजेश्वर राज्य को सौंप देगा के तभी कुछ सैनिक दौड़ते हुए सभा में आये और युवराज नरसिम्हा के साथ घाटी घटना को राजा को बताया।

जब लोगों ने युवराज के साथ घटी इस दुखद घटना को सुना तो सभी भगवान से युवराज की सलामती की प्राथना करते है। अब राजा बड़े युवराज और कुछ सैनिकों के साथ उस स्थान के लिये निकलता है। तभी उन्हें किले के बाहर से कुछ शोर सुनाई देता है। बाहर आ कर राजा देखता है। युवराज नरसिम्हा को कोई व्यक्ति सहारा दे कर ला रहा था। घायल नरसिम्हा के पास पहुँच राजा को पता चलता है कि उसके बेटे को नया जीवन दान देने वाला व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि अब्दुल्ला है।

असल में अब्दुल्ला गजेश्वर राज्य से भागने के बाद उन पर्वतों में जा छुपता है। और एक दिन से भी अधिक वहाँ पर वसुंधरा राज्य में प्रवेश करने के लिए भटकता रहता है। और जब वो पर्वतों की आधी से अधिक ऊंचाई पार कर लेता है। तो उसको कुछ लोगों की चीख पुकार सुनाई देती है। उस आवाज़ आती दिशा की ओर देखने पर वो अपने से थोड़ी उपर एक व्यक्ति को लटका पाता है। पर्वतों की विचित्र संरचना के कारण ना तो सैनिकों को अब्दुल्ला दिखता है। और ना ही अब्दुल्ला को सैनिक नजर आते है। बस उसको नरसिम्हा ही दिखता है। सौभाग्य से जब नरसिम्हा का हाथ दरारों से फिसला तो अब्दुल्ला ने अंतिम क्षण उसको पकड़ लिया,

इन सब को जान राजा दुविधा में पड़ जाता है। क्योंकि थोड़ी देर पहले जिसके बारे में उनके विचार गलत थे अब वैसे नहीं रहे और इस पर उनको ये भी विश्वास हो जाता है। ये कोई दुष्ट नहीं हो सकता। इसके बाद राजा अब्दुल्ला से उसका सारा वृतांत सुनते है। जिसे सुन उनको भी अब्दुल्ला के प्रति दया आती है। और वो अब्दुल्ला को गजेश्वर राज्य से आये पैगाम को दिखा कर बोलता है। " हमने अपने जीवन में कभी अन्याय का साथ नहीं दिया और आज भी नहीं देंगे फिर उस संदेश को फाड़ कर फेंक देता है।

ये देख कर अब्दुल्ला चिंतित होकर बोला" महाराज मुझ अकेले प्राणी के लिए आप इतना जोखिम न ले और वैसे भी मेरे जीवन में अब कोई मूल नहीं रहा इसलिए क्या फर्क पड़ता है। आप मुझे राजा इंद्र के पास भेज दे।

मगर राजा ऐसा करने से मना करता हुआ बोला " सवाल किसी एक व्यक्ति या एक राज्य का नहीं है। अब सवाल सत्य और असत्य का है। न्याय और अन्याय का है। उस दुष्ट के हाथों तुम्हारी मृत्यु का मतलब है। अन्याय के हाथों न्याय की हत्या और वसुंधरा राज्य कभी भी अन्याय का साथ देकर जीवित रहना स्वीकार नहीं करेगा, बल्कि इस राज्य का प्रत्येक व्यक्ति न्याय और सत्य का साथ देकर वीरगति प्राप्त कर लेना सर्वोच्चता समझेगा।

राजा की बातों ने सभासदों के भीतर देशप्रेम और सत्य की ज्वाला भड़का दी। और हर एक व्यक्ति जो उस सभा में उपस्थित था राजा की जय जय कार करने लगा। सिवाए एक को छोड़कर जो शायद इस निर्णय से सहमत नहीं था वो राजा का एक युवा मंत्री था किंतु साहस की आपूर्ति होने के कारण वो अपने विचार व्यक्त ना कर पाया। और मन ही मन कुढ़ता रहा।

वही तीन दिन तक इंद्र को वसुंधरा की ओर से जब कोई उत्तर नहीं आया तो उसने वसुंधरा पर आक्रमण करने का आदेश दिया। और जंगल के भीतर से जाने का निर्णय लिया, जिसे सुन कर कुछ अधिकारियों को बड़ा अचम्भा हुआ। वो बोलने लगे " क्या राजा इन्द्र को उस भयानक जंगल की सत्यता का ज्ञान नहीं है।

" क्या राजा इन्द्र उसकी अलौकिकता से अज्ञात है।

" क्या आप उस जंगल के भीतर के रहस्यमय किस्सों को नहीं जानते।

इन सब को सुन इन्द्र भड़क उठा और बोला " ये सारी बातें हमारे शत्रु द्वारा फैलाया एक मायावी भ्रम है। ताकि हम भय से उस जंगल के भीतर ना जाए। मुझे आप लोग ये बताओ यहाँ उपस्थित किसी भी व्यक्ति ने उस जंगल के भयंकर भ्रमों को स्वयं वास्तविकता में देखा है। इस प्रश्न ने सब के मुंह पर ताला लगा दिया। और बात भी सही थी सदियों से लोगों ने केवल इसके बारे में सुना था मगर भय के कारण किसी में भी सत्य का पता लगाने के लिए उस जंगल में जाने का कभी साहस ही नहीं हुआ।

राजा इन्द्र की बातों को सुन वही वृद्ध जिसने चेतावनी पत्र भिजवाने की सलाह दी थी आगे बढ़ कर राजा इन्द्र से कुछ कहने की अनुमति मांगता है। राजा द्वारा अनुमति प्राप्त होते ही वो वृद्ध बोला " महाराज निःसंदेह आप जैसा युद्ध नीति में पारंगत राजा मैंने आज तक नहीं देखा, आपकी योजना तो सटीक है। किंतु हमारे यहाँ लोगों में अंधविश्वास की कमी नहीं।

यदि हम सीधे सम्पूर्ण सेना समेत जंगल में चले जाते है। तो सैनिकों के भीतर का अंधविश्वास उनके भीतर ही रहेगा, जिसके कारण किसी अन्य कारण वश घटी घटना भी सैनिकों को अलौकिक लगेगी। और इससे हमें काफी हानि हो सकती है। इन सब परिस्थितियों से निपटने के लिए मेरे पास एक उपाय है।

वृद्ध महापुरुष के भाषण ने राजा इन्द्र को सत्य का अनुभव करा दिया। और अब राजा ने उस से उपाय पूछा तो वृद्ध बोला " महाराज कल जब हम अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ उस जंगल की सीमा पर पहुँचेंगे तो वहाँ पर हम 1000 सैनिकों की एक टुकड़ी को पहले जंगल के भीतर भेजेंगे ताकि वो सबसे सरल और सुरक्षित मार्ग का पता लगा कर वापिस आए।

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ashish_1982_in

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अध्याय 3

खंड 1

वसुंधरा एक सुंदर और विशाल राज्य जिसकी सुंदरता और मनमोहक दृश्य किसी को भी मन्त्र मुग्ध कर दे।

जितना ये राज्य सुंदर है। उससे कई गुना विशाल है। जो अपने भीतर सदियों से कई रहस्य समाए हुए है। इसकी तीन दिशाओं को घेरे हुआ अद्भुत जंगल राज्य के लिए एक वरदान से कम नहीं जो बड़े से बड़े राज्य की विशाल सेनाओं को अपने भीतर चमत्कारी रूप से हमेशा के लिए समा लेता है। और वसुंधरा राज्य की सीमा की सदैव सुरक्षा में किसी अटल सैनिक की भांति खड़ा रहता है। इसके अतिरिक्त शेष बची चौथी दिशा में ऊंचे ऊँचे भीमकाय पर्वत जिनपर खड़ी चिकनी चट्टान और विष धारी जीवों के रहते चढ़ना असंभव है। यदि चढ़ भी गए तो पर्वत की चोटी पर बैठे वसुंधरा के निडर और साहसी तीर अंदाज़ आपका स्वागत यमराज बन कर करेंगे जिसके बाद आपकी मृत्यु निश्चित है।

अब बात करते है यहाँ के शासक की जिनका नाम चंद्र प्रताप राणा है। ये पराक्रमी साहसी राजा चंद्र भान के वंशज है। अपने पूर्वजों की भांति शूर वीरता और न्याय प्रियता इन्हें विरासत में मिली है। अपने युवा काल से ही ये एक निष्पक्ष व्यक्ति रहे है। जो कभी भी जाति धर्म या धन संपत्ति के आधार पर निर्णय नहीं लेते थे। इनके इन्हीं गुणों के कारण एक हिन्दू होने के बावजूद एक मुस्लिम शहजादी गुल नाज़ इन से प्रेम करने लगी थी और राणा जी भी उनके प्रेम बंधन में बंध गए,

राणा ने समाज के विरुद्ध जा कर गुल नाज़ से प्रेम विवाह किया, जिसके चलते दोनों धर्मों के कट्टर पंक्तियों ने भरपूर विरोध जताया और उनके विवाह में अनेकों अर्चन पैदा की।

राजा चंद्र प्रताप राणा का मानना था यदि संसार की रचना करने वाला ईश्वर किसी एक धर्म को ही सत्य मानता तो उसके अतिरिक्त सभी धर्मों का अंत करने में उसको क्षण भर का भी समय नहीं लगता। संसार में विभिन्न प्रकार के धर्मों का जीवित होना इस बात का प्रमाण है। कि ईश्वर के समक्ष प्रत्येक धर्म प्रिय है। और प्रत्येक व्यक्ति उसकी संतान है।

किसी भी बाग में अगर एक ही शेणी के फूल हो तो उसकी तुलना में विभिन्न प्रकार के फूलों वाला बाग अधिक आकर्षित और सुंदर होगा। ठीक इसी प्रकार से ये संसार ईश्वर का बाग है। जिसकी सुंदरता विभिन्न प्रकार के धर्मों और लोगों के होने से है।

बस इसी प्रकार की सोच से भरे हुए थे राजा चंद्रा,

खेर इन्हीं सकारात्मक विचारों के चलते वसुंधरा राज्य में प्रत्येक धर्म का सम्मान और स्वागत होता था। राजा को सबसे अधिक नफरत भेदभाव रखने वाले व्यक्तियों से थी। और उन्हें सबसे अधिक प्रसन्नता साहसी लोगों से मिल कर होती थी। खेर विवाह पश्चात राजा की तीन संतानें हुई। जिनमें से दो पुत्र और एक पुत्री थी।

इनका नाम करण भी रानी द्वारा बड़े ही अनूठे रूप से हुआ। वो प्रत्येक संतान को जन्म देते ही अपनी प्रजा के समक्ष लाती और उनके नाम की विशेषता बता कर उनका नाम करण करती,

जैसे जब प्रथम पुत्र का जन्म हुआ तो रानी गुल नाज़ उसको दोनों हाथों से उठा कर बोली " ये है जिंदा शेर को अपने हाथों से बीच में से फाड़ देने वाला हम्जा

और प्रथम बेटे का नाम हम्जा राणा रखा गया

दूसरी संतान भी पुत्र हुई जिसका नाम अधर्मियों को अपने पंजों से चिर कर उनका कलेजा निकालने वाला नरसिम्हा राणा रखा,

और अंतिम पुत्री का नाम पापियों और दुष्टों का नरसंहार कर लोगों का उद्धार करने वाली दुर्गा,

हम्जा नरसिम्हा और दुर्गा ये तीनों ही अपने पिता के सद्गुणों और प्रजा के प्रति सहानुभूति से भरे पड़े थे।

वसुंधरा के तीन दिशाओं को घेरने वाला जंगल जितना बाहरी लोगों के लिये प्राण घातक था उतना ही वसुंधरा के लोगों के लिए भी था। इसलिए वसुंधरा के राजाओं ने वसुंधरा में प्रवेश करने का मार्ग बेहद ही गुप्त रूप से उन विशाल पर्वतों के भीतर से बना रखा था जो वसुंधरा के सैनिकों से सदैव भरा रहता वहाँ पर उपस्थित 100 सैनिक भी ऊँचाई पर होने के कारण किसी बाहरी आक्रमण द्वारा किए हजारों सैनिकों पर भी भारी पड़ते थे।

वैसे तो राजा के कई शत्रु थे किंतु सबसे अधिक शत्रुता रखने वाला व्यक्ति जंगलों की दूसरी ओर के विशाल राज्य गजेश्वर का राजा भानु उदय सिंह था।

गजेश्वर राज्य वसुंधरा की तुलना में 10 गुना अधिक विशाल था और उनकी सेना शक्ति भी दस गुना अधिक थी, फिर भी वसुंधरा को पराजित करने में असमर्थ था। जिसका कारण वसुंधरा की विचित्र संरचना थी।

भानु एक क्रूर और अन्यायी राजा था जो प्रजा को केवल सुख भोगने वाली वस्तु के समान समझता था उसकी दुष्टता से दुखी होकर उसके राज्य के अनेकों ईमानदार हुनर कार लोग गजेश्वर राज्य से भाग कर वसुंधरा राज्य की शरण में जा पहुँचे थे। और अपने राज्य के भगोड़ों को शरण देते देख, राजा भानु को लगता कि राजा चंद्रा उसका अपमान करता है। खेर इसी प्रकार से राज्य के अन्य लोगों ने भी वसुंधरा राज्य के राजा के गुणगान सुने हुए थे और वो भी वसुंधरा की शरण में जाना चाहते थे। लेकिन राजा भानु ने अपनी प्रजा के भीतर इतना खोफ भर रखा था कि वो चाह कर भी नहीं जा पाते यदि कोई व्यक्ति भागते हुए पकड़ा जाता तो उसके सम्पूर्ण परिवार को धीरे धीरे प्रताड़ित करके मार दिया जाता, फिर चाहे उसके परिवार में 90 वर्ष का वृद्ध हो या 6 माह का शिशु सब के सब ये दर्दनाक पीड़ा भोगते, और ये सब सम्पूर्ण प्रजा के समक्ष किया जाता, ताकि आगे से वो ध्यान रखे के वो यहाँ से जाने का विचार त्याग दें।

भानु उदय की पत्नी एक दयावान रानी थी पर अपने पति के डर ने उसको विवश कर दिया था। और अब पति कैसा भी हो पति धर्म निभाना उसका प्रथम कर्तव्य था।

भानु उदय की दो संतान थी एक पुत्र और दूसरी पुत्री।

पुत्र का स्वभाव बिल्कुल अपने पिता समान दुष्ट था किंतु पुत्री का स्वभाव अपनी माता समान था। हाँ बस इतना अंतर था कि अपने पिता के प्रभाव में उसके भीतर का दया भाव मर चुका था। साथ में वो अत्यंत सुंदर भी थी। उसने भविष्य में किसी भी संकट से बचने के लिए युद्ध नीति में अच्छा प्रशिक्षण भी प्राप्त किया हुआ था।

उसके बाद आता है। गजेश्वर के अन्य सभा सदो का परिचय जिनमें कुछ अत्याचारी और लोभी मंत्रियों के साथ साथ राजा भानु का विश्वास पात्र वजीर नागेश्वर जो राजा से भी अधिक धूर्त था। ऐसा नहीं था कि गजेश्वर राज्य में कोई भी अच्छा व्यक्ति सभासद बनने योग्य ना हो, असल में कोई भी सद्भाव वाला व्यक्ति उस सभा में अन्य धूर्त सभासदों की दुष्ट नीतियों का आसानी से शिकार बन जाता था जिसके कारण उस दरबार में कोई भी अच्छा व्यक्ति अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह पाता था

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Very nice update bhai
 
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ashish_1982_in

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अध्याय 3

खण्ड 2

गजेश्वर राज्य में अब्दुला नाम का एक गरीब किसान था जिसकी एक सुंदर बीवी और एक तेरह वर्षीय बेटी थी।

अब्दुल्ला दुनिया दारी की अधिक चिंता ना करके केवल अपने छोटे से परिवार पर ही ध्यान देता। उसके लिये उसका परिवार ही उसकी दुनिया थी हष्टपुष्ट होने के कारण वो खेती में दुगनी मेहनत करता जिससे वो आसानी से राजा को लगान चुका कर अपने परिवार का पेट पाल लेता था। उसको राजा की क्रूरता का सम्पूर्ण ज्ञान था मगर उसने इस माहौल में दब कर जीना सीख लिया,

वही एक दिन रोजाना की तरह उसके घर से दोपहर का भोजन खेत पर लेकर उसके घर से कोई नहीं आया, जिसपर उसको लगा, शायद उसकी पत्नी की तबीयत ठीक नहीं होगी इसलिए शाम को सूर्य अस्त होने से पहले ही वो अपने घर पहुँच गया। लेकिन घर पर पहुँच कर उसको पता लगा कि उसकी पत्नी और उसकी बेटी आज दोपहर का भोजन लेकर उसके पास के लिए निकली थी और तब से ही वापस नहीं आई, ये बात सुनकर अब्दुल्ला घबरा गया और भाग कर अपने खेतों पर वापिस पहुँचा। रास्ते में भी उसने खूब छान बिन की मगर उसकी पत्नी और बेटी का कोई नमो निशान ना मिला। सुबह तक वो पागलों की तरह इधर से उधर अपने परिवार को खोजता रहा। लेकिन कोई पता ना चला।

दिन के उजाले में उसको एक आदमी मिला जो नाले की ओर तेजी से जा रहा था और अब्दुल्ला के पूछने पर उसने बोला नाले के सामने के कुम्हार को नाले में से एक महिला और बच्ची की लाश मिली है। ये खबर सुनकर अब्दुल्ला बदहवास दौड़ता हुआ नाले पर पहुंचा पर वहाँ खड़े कुछ लोगों ने अब्दुला को आगे जाने ना दिया। बस उसको रोक कर बोलने लगे “ भाई शायद भगवान की यही मर्जी है। लगता है, भाभी और गुड़िया जब तुम्हारे लिए खाना लेकर आ रहे थे तो वो दोनों नाले में गिर गई और उनकी मृत्यु हो गई। अब इस बात को सुन अब्दुल्ला से और ना रुका गया। और अपने मजबूत बदन का भरपूर जोर लगा कर उन सब को धकेलता हुआ दोनों लाशों के पास जा पहुंचा।

अपनी पत्नी और बेटी को इस अवस्था में देख वो चीख चीख कर रोने लगा। यहाँ तक कि अपनी बेटी के गन्दे शव को बाँहों में भर ऐसे लाड दुलार करता है। जैसे वो अब भी जीवित हो और अपने पिता से नाराजगी जताने के लिए मरने का नाटक कर रही है। वहाँ मौजूद हर एक शख्स जानता था कि अब्दुल्ला के लिए उसका परिवार क्या महत्व रखता था वो अपनी बेटी को राजकुमारी की तरह पालता था कभी उसको कोई काम नहीं करने देता। और आज उसके ही मृत शरीर को अपने हाथों में लिए बैठा है। इस दर्द भरे पिता विलाप ने प्रत्येक व्यक्ति को भावुक कर दिया।

लोगों ने कैसे तैसे अब्दुल्ला को संभाला और उसकी पत्नी और बेटी को दफन किया।

इन सब के बाद कुछ दिनों तक अब्दुल्ला ने ना तो किसी से बात की और ना ही खेतों पर गया। बस एक प्रकार का सन्नाटा समेटे घर के एक कोने में पड़ा रहा। उसकी ये खामोशी आने वाले किसी भयानक तूफान का संकेत कर रही थी।

दो चार दिन के बाद जब वो अपने दुख से थोड़ा उभरा तो उसके दिमाग में एक बात आई कि जिस नाले में उसके बीवी बच्चों की लाश मिली वो नाला उसके खेत से घर तक के रास्ते में दूर दूर तक नहीं आता और जब वो गिरी तो नाले के पास रहने वाले कुम्हार ने उनकी आवाज़ क्यों नहीं सुनी।

बस फिर क्या था पहुँच गया कुम्हार के घर अब्दुल्ला और सीधा सवालों की बौछार कर दी उसपर।

उसके दिमाग में शायद ये ख्याल दूर तक न था कि इस समय अब्दुल्ला उसके घर पर आ धमके गा, इसलिये वो अब्दुल्ला को देख कर हड़बड़ा गया। जिस पर अब्दुल्ला का शक यकीन में बदल गया। लेकिन खूब डराने धमकाने पर भी कुम्हार केवल झूठ ही बोले जा रहा था तभी गुस्से में आ कर अब्दुल्ला ने अपने पीछे से गंडासा निकाल कर कुम्हार के 10 वर्षीय बालक के गर्दन पर रख दिया।

अपने खून पर जब संकट आता है। तो बड़े से बड़ा शूरवीर धराशायी हो जाता है। फिर ये तो केवल एक कुम्हार था। इस तरह की परिस्थिति में फंसा जान वो भावुक होकर बोला" मुझे ये तो नहीं पता तुम्हारे बीवी और बेटी के साथ क्या हुआ, लेकिन ये बात सही है। कल डर से मैंने जो कुछ भी कहा वो सब झूठ था।

असल में कल संध्या समय मुझे कोई भारी चीज़ नाले में गिरने की आवाज़ आई तो मैं बाहर निकला मैंने देखा हमारे राजा के सिपाही नाले को घेरे खड़े है। और फिर एक और बार कुछ भारी चीज़ उन्होंने नाले में फेंकी, उस समय मुझे लगा जरूर कोई सड़ा हुआ जानवर फेंकने आये होंगे। क्योंकि ये लोग अकसर ऐसा करते है। लेकिन जब भोर को मैंने नाले में देखा तो मेरे पैरो तले जमीन खिसक गई। मगर तुम ही बताओ राजा का मामला देख अपने परिवार की सलामती के लिए मैं झूठ नहीं बोलता तो और क्या करता।

इस बात को सुन अब्दुल्ला ने कुम्हार के बालक को छोड़ दिया, और फिर गहरी सोच में डूब गया। अगले ही क्षण अब्दुल्ला कुम्हार से बोला" क्या उन सिपाहियों में से किसी की सूरत देखी तुमने?

कुम्हार " हाँ एक को मैंने पहचान लिया था वो थड़ी वाले चौधरी का बेटा था लेकिन मेरी तुमसे विनती है। हम लोग बहोत छोटे लोग है। यदि किसी तरह राजा या उसके लोगों को पता चला कि तुम्हें ये सब मैंने बताया है। तो हमारा बचना असम्भव होगा। कृपा करके मेरा नाम किसी प्रकार से किसी को पता न चले, मुझे मृत्यु का भय नहीं है। बस अपने परिवार की चिंता है जो तुम अच्छे से समझ सकते हो।

अब्दुल्ला " तुम चिंता न करो, मैं वचन देता हूँ। यदि मैं पकड़ा गया तो चाहे वो मेरे शरीर की बोटी बोटी नोच डाले मगर मैं तुम पर आंच तक ना आने दूँगा।

इतना बोल अब्दुल्ला वहाँ से चला जाता है। और सीधा साहूकार के पास पहुँच कर अपने खेत, घर और मवेशी सब बेच डालता है। साहूकार के पूछने पर

“ तुम ये सब बेच कर कही जा रहे हो। तो अब्दुल्ला बोलता है। इन जगहों पर मेरे लिए मेरी पत्नी और बेटी को भुला पाना मुश्किल था। इसलिए अब से मैं किसी के पास मजदूरी करूँगा और अपनी सम्पत्ति दान धर्म में लगा दूँगा। ताकि ईश्वर उनकी रूह को सुकून दे।

लेकिन अब्दुल्ला का असल मकसद कुछ और था। पहले वो कुछ दिनों तक बारीकी से उस परिचित सिपाही पर नज़र रखता है। सौभाग्य से एक दिन सिपाही अकेला था बस इसी समय को उचित अवसर मान कर अब्दुल्ला सिपाही को बेहोश करके। एक सूनसान क्षेत्र में ले गया। जहाँ दूर दूर तक कोई नहीं था। पहले अब्दुल्ला सिपाही से थोड़ी सख्ती से अपनी पत्नी और बेटी के बारे में पूछता है। पर कोई विशेष उत्तर ना मिलने पर वो विभिन्न प्रकार के औज़ारों से उसको कष्ट देता है, ताकि वो सच बोले अब्दुल्ला सिपाही के सारे नाखून उखाड़ देता है उसके कई दांतो को तोड़ डालता है। अंत में जब उसकी नाक को काटने वाला होता है। तो वो बोल पड़ा " राजा का वज़ीर नागेश्वर कुछ दिन पहले कुछ सिपाहियों के साथ शिकार के लिए निकला था तभी बीच रास्ते में उसको तुम्हारी पत्नी और बेटी दिखी। नागेश्वर का मन तुम्हारी बेटी के मोहक रूप पर रीझ गया, तो उसने अपने एक सैनिक द्वारा दोनों को अपने पास बुलाया। और तुम्हारी पत्नी से तुम्हारे बेटी को एक रात के लिए छोड़ने को कहाँ साथ में ढेर सारे धन का प्रस्ताव भी दिया।

तुम्हारी पत्नी को ये बात इतनी बुरी लगी के उसने सभी सैनिकों के सामने नागेश्वर के एक जोर का चांटा लगा दिया। जिस पर नागेश्वर भड़क गया। और दोनों का अपहरण कर के अपने एक निजी निवास में ले आया। पहले उसने तुम्हारी पत्नी के साथ फिर तुम्हारी बेटी के साथ बलात्कार किया।

इतने पर भी उसका मन नहीं भरा तो उसने अपने खास सिपाहियों से उनके साथ दुष्कर्म करवाया। तुम्हारी बेटी अधिक छोटी होने के कारण पीड़ा सहन नहीं कर सकी और वही उसकी मौत हो गई। और ये देख कर नागेश्वर ने तुम्हारी पत्नी की भी हत्या कर दी।

इस सारे किस्से को सुनते समय अब्दुल्ला की आंखों से निरन्तर आँसू निकले जा रहे थे और उसके चेहरे पर क्रोध की अग्नि बढ़ती जा रही थी। जब सैनिक की बातें पूरी हुई तो अब्दुल्ला ने उससे एक अंतिम प्रश्न पूछा " क्या उस समय तुम भी वहाँ थे। सैनिक शर्म से सर झुका देता है। जिस पर अब्दुल्ला उसे बोलता है। तुम्हारा जीवित रहना या तुम्हें मार देने का निर्णय मैं अल्ला पर छोड़ता हूँ। और एक चाकू लेकर उसकी और उसकी रस्सी खोलने के लिए आगे बढ़ा।

पर ये क्या अब्दुल्ला ने उसकी रस्सी न खोल कर उसकी दोनों आंखों की पलकें काट डाली और उसके जख्मों पर शहद लगा कर उसके मुंह में कपड़ा ठूस कर वहाँ से चला गया। और जाते समय कह गया, अब से तुम्हारा जीना मरना दोनों खुदा के हाथ में है पर जो किसी निर्बल की सहायता नहीं करता, अल्लाह उसकी सहायता नहीं करता।

अब्दुल्ला के जाते ही उस सिपाही को विभिन्न प्रकार के कीड़े मकोड़ों ने घेर लिया और थोड़ी ही देर में उसको नोच नोच कर खाने लगे।
अब उसने एक योजना बनाई। जिसके अनुसार उसने नागेश्वर पर कड़ी निगरानी रखी, और अंत में उसको एक अहम जानकारी प्राप्त हुई।

असल में राजा भानु और नागेश्वर दोनों सप्ताह में एक बार अय्याशी के लिए एक वेश्यालय में जाते थे उनका समय देर रात का होता, और उनके साथ कुछ दो तीन सैनिक ही होते थे जो वेश्यालय के बाहर ही ठहरते थे। बस फिर क्या था सप्ताह भर तक वो रोज़ वेश्यालय में जाता और जानकारी इकट्ठी करता, वो दिखावे के लिए वेश्याओं को भी पैसे दे कर उनके साथ कमरे में जाता लेकिन उनसे केवल जानकारी ही लेता और बदले में उनको मोटी रकम देता। जिससे उस पर किसी को शक नहीं हुआ सब को लगा। कोई अमीर परदेसी है जो किसी मुर्गी से कम नहीं।

उसका जानकारी प्राप्त करने का तरीका भी बड़ा अनूठा था उदाहरण के तौर पर जब उसको ये जानना था कि राजा कौन से कमरे में किस वेश्या के साथ जाता है। तो वो मूल्यवान भेस भूसा पहन कर, नशे में होने का ढोंग करते हुए चिल्ला चिल्ला कर बोलता है। हम अपने देश के राजा है। हमें वही कमरा चाहिए जो इस देश के राजा के लिए है। हमें वो ही कन्या चाहिए जो इस देश के राजा की प्रियतमा है। हमें हर वो सुख सुविधा चाहिए। जो इस देश के राजा को मिलती है। किंतु ध्यान रहे अगर हमारे साथ छल किया, तो हम तुम्हारे राजा यानी अपने प्रिय मित्र से कह कर तुम सब को मृत्यु दंड दिलवा देंगे।

अब एक ओर धन का लोभ और दूसरी ओर अपने सनकी राजा का भय तो किसकी मजाल थी जो उसको मना करता।

अंत में छठे दिन रात को वो उस कक्ष में सोया नहीं केवल सोने का ढोंग करता रहा। और जब उसके साथ आई सेविका सच में सो गई तो वो बड़ी सावधानी से एक ऐसी जगह पर जा कर छुप गया जहाँ उसे कोई ना ढूंढ पाए। जब सेविका उठी तो अपने पास से अब्दुल्ला को गायब देख कर समझी वो इसके उठने से पहले ही चला गया।

अब्दुल्ला पूरा दिन उस जगह पर छुप कर बैठा रहा, और रात को जब उस कक्ष की सजावट होने लगी तो उसको समझ आ गया। कि बस राजा अब आने ही वाला है। जल्द ही राजा भी आ गया। और जब राजा ने अपने कपड़े उतारे तभी अब्दुल्ला ने एक हाथ में नंगी तलवार और दूसरे हाथ में कुल्हाड़ी ले कर राजा के ऊपर आक्रमण कर दिया इससे पहले राजा कोई प्रतिक्रिया देता अब्दुल्ला ने राजा को तलवार की नोक पर अपने अधीन कर दिया। वहाँ मौजूद कन्या की हल्की सी चीख भी निकली, लेकिन अब्दुल्ला ने उसको डरा कर चुप करा दिया।

फिर अब्दुल्ला उस वेश्या से बोला " जाओ नागेश्वर के कक्ष में जा कर बोलो राजा ने तुम्हें अभी याद किया है। और ध्यान रहे इसके सिवा कोई और चालाकी की तो राजा की मौत की ज़िम्मेदार तुम खुद होगी।

वेश्या अब्दुल्ला के कहे अनुसार नागेश्वर को बुला लाई। भीतर के दृश्य से अनजान जब नागेश्वर अंदर पहुँचा। तो वो भी सकपका गया, उसने कभी इस तरह की अपेक्षा नहीं की थी और उसके हथियार भी दूसरे कक्ष में छूट गए थे। नागेश्वर के सामने एक आदमी ने राजा को हत्यार की नोक पर बंधी बना रखा था तो राजा की सुरक्षा के खातिर नागेश्वर को उस आदमी की बात माननी ही थी।

अब्दुल्ला नागेश्वर और उस वेश्या से कक्ष के भीतर आ कर कक्ष को बंद करने का आदेश देता है। नागेश्वर अब्दुल्ला के कहे अनुसार करके अब्दुल्ला की और आराम से बड़ने लगा। तभी अब्दुल्ला ने अपने एक ही वार से तलवार द्वारा राजा के सर के दो टुकड़े कर दिए। ये देख कर नागेश्वर का रंग पीला पड़ गया और वो वापिस दरवाज़ा खोलने के लिये भागा मगर भाग ना सका। अब्दुल्ला किसी बाघ की तरह उसपर झपटा और अपनी कुल्हाड़ी से लगातार उसके सर पर कई वार किए। और तब तक करता रहा जब तक उसके सर का कीमा ना बन गया। उसके बाद अब्दुल्ला ने वेश्या को देखा, जिसपर वेश्या का दहशत से बुरा हाल हो गया। मगर अब्दुल्ला ने उसको कोई नुकसान नहीं पहुँचाया और दरवाज़ा खोल कर वो वहाँ से बाहर निकला असल में अब्दुल्ला ने पहले ही सोच लिया था कि इस को करने में पक्का उसकी मृत्यु हो जाएगी। तो क्या फर्क पड़ता है। अगर उस वेश्या ने उसको देख भी लिया। और सौभाग्य से वो किसी प्रकार बच भी गया तो फौरन उस राज्य को छोड़ देगा।

जब अब्दुल्ला वेश्यालय के बाहर निकला, तो उसको खून में सना देख सैनिकों ने उस पर हमला कर दिया।
एक तो बलिष्ठ ऊपर से परिवार के प्रतिशोध की अग्नि का उसके भीतर वास ऐसे में अब्दुल्ला पर 10 सैनिक भी भारी नहीं पड़ते। तो भला वेश्यालय के बाहर खड़े दो चार सैनिक कैसे टिक पाते। अंत में अपना रास्ता साफ देख अब्दुल्ला वहाँ से भाग निकला।

और गजेश्वर राज्य की सीमा को लाँघने में सफल हुआ।

वसुंधरा का छोटा राजकुमार नरसिम्हा राज्य की सुरक्षा जांच करता हुआ पर्वतों पर पहुँच गया।

वो पर्वतों की चोटी पर बैठे सैनिकों की समस्याओं को सुन रहा था तभी ना जाने कैसे जिस जगह वो खड़ा था उस जगह का पत्थर सरक कर नीचे गिर गया। उसके साथ ही नरसिम्हा भी गिर पड़ा, नरसिम्हा गिर कर मर ही जाता के तभी किसी प्रकार उसके हाथ पर्वत की दरारों में जा फंसे अब सारे सैनिकों में हड़कम सा मच गया। सभी सैनिक रस्सी लेने दौड़े पर तब तक काफी देर हो चुकी थी और नरसिम्हा का हाथ उन दरारों से भी छूट गया।

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अध्याय 3

खण्ड 3

वही दूसरी ओर गजेश्वर राज्य में आग के समान ये सूचना फेल गई। कि अब्दुल्ला राजा भानु और उसके वज़ीर नागेश्वर की हत्या करके फरार हो गया। अब लोगों में इसकी चर्चा होने लगीं की ज़रूर अब्दुल्ला की पत्नी और बेटी की हत्या में राजा का किसी प्रकार सम्बन्ध था इसलिये अब्दुल्ला ने ये कठोर कदम उठाया। वही जब युवराज इंद्र अपने धूर्त मंत्रियों के साथ वेश्यालय पहुंचे तो अपने पिता और वज़ीर की निर्मम हत्या देख कर, खुद पर काबू खो बैठे। पहले तो उसने वेश्यालय की सारी वेश्याओं को एक जगह एकत्रित करवा कर लकड़ी के खम्भों से बंधवा दिया। उसके पश्चात उनको जीवित ही अग्नि के सुपुर्द कर दिया। ये दृश्य देख कर केवल प्रजा जन ही नहीं बल्कि राजा के मंत्री भी दहशत में आ गए। सब को ये समझते देर ना लगी के राजकुमार अपने पिता के जैसा दुष्ट होने के साथ साथ सनकी भी है। ना जाने कब किस को दंडित कर दे।

उसके बाद इंद्र अपने सेनापति को बुलवा कर। उसको वसुंधरा पर आक्रमण करने की तैयारी को बोलता है। क्योंकि उसको विश्वास था कि उनके राज्य का भगोड़ा वसुंधरा में ही जा छुपा होगा।

मंत्रियों में से एक वृद्ध अनुभवी मंत्री आगे बढ़ कर बोला" यदि राजा की अनुमति हो तो ये सेवक कुछ कहना चाहता है।

इंद्र को कभी किसी ने राजा कह कर संबोधित नहीं किया था ये उसके जीवन में पहली बार था जो किसी ने उसको राजा कहा अब इसको सुन इंद्र के भीतर गर्व का गुबार फूटा जिसके प्रभाव में उसने वृद्ध को बोलने की अनुमति दे दी।

वृद्ध अपनी शालीनता और अनुभव के माध्यम से बड़े ही मीठे सुर में बोला " महाराज एक कुशल राजा अपने विरोधी को युद्ध से पहले एक चेतावनी जरूर देता है। ताकि बिना युद्ध के ही सामने वाला आत्मा समर्पण कर दे। इस से युद्ध में होने वाली हानि के बिना ही शत्रु को केवल अपने भय से ही पराजित किया जाता है। इंद्र को वृद्ध की बात में दम लगा और उसने वृद्ध को ही इस कार्य को करने के लिए कहा और साथ में ये भी बोला उनके पास विचार विमर्श करने के लिए तीन दिन का समय है। अन्यथा अपने विनाश के वो स्वयं ही कारण होंगे।

वृद्ध ने पहर भर में चेतावनी लिखवा कर वसुंधरा भिजवा दी जिसे पड़ कर राजा को भी ये मामला गंभीर लगा क्योंकि उनको नहीं पता के अब्दुल्ला ने राजा और वज़ीर की इतनी क्रूरता से हत्या क्यों कि। इसलिए उनकी नज़र में अब्दुला एक अपराधी था। वसुंधरा में अभी तक अब्दुल्ला नहीं पहुँचा था इसलिये राजा साहब अपने सलाहकारों से सलाह कर गजेश्वर राज्य के लिए संदेश भिजवाना चाह रहे थे। जिसमें वो राजा भानु की मृत्यु का दुख जाहिर करते और साथ में आश्वासन भी देते की अब्दुल्ला के मिलते ही वसुंधरा राज्य उसे गजेश्वर राज्य को सौंप देगा के तभी कुछ सैनिक दौड़ते हुए सभा में आये और युवराज नरसिम्हा के साथ घाटी घटना को राजा को बताया।

जब लोगों ने युवराज के साथ घटी इस दुखद घटना को सुना तो सभी भगवान से युवराज की सलामती की प्राथना करते है। अब राजा बड़े युवराज और कुछ सैनिकों के साथ उस स्थान के लिये निकलता है। तभी उन्हें किले के बाहर से कुछ शोर सुनाई देता है। बाहर आ कर राजा देखता है। युवराज नरसिम्हा को कोई व्यक्ति सहारा दे कर ला रहा था। घायल नरसिम्हा के पास पहुँच राजा को पता चलता है कि उसके बेटे को नया जीवन दान देने वाला व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि अब्दुल्ला है।

असल में अब्दुल्ला गजेश्वर राज्य से भागने के बाद उन पर्वतों में जा छुपता है। और एक दिन से भी अधिक वहाँ पर वसुंधरा राज्य में प्रवेश करने के लिए भटकता रहता है। और जब वो पर्वतों की आधी से अधिक ऊंचाई पार कर लेता है। तो उसको कुछ लोगों की चीख पुकार सुनाई देती है। उस आवाज़ आती दिशा की ओर देखने पर वो अपने से थोड़ी उपर एक व्यक्ति को लटका पाता है। पर्वतों की विचित्र संरचना के कारण ना तो सैनिकों को अब्दुल्ला दिखता है। और ना ही अब्दुल्ला को सैनिक नजर आते है। बस उसको नरसिम्हा ही दिखता है। सौभाग्य से जब नरसिम्हा का हाथ दरारों से फिसला तो अब्दुल्ला ने अंतिम क्षण उसको पकड़ लिया,

इन सब को जान राजा दुविधा में पड़ जाता है। क्योंकि थोड़ी देर पहले जिसके बारे में उनके विचार गलत थे अब वैसे नहीं रहे और इस पर उनको ये भी विश्वास हो जाता है। ये कोई दुष्ट नहीं हो सकता। इसके बाद राजा अब्दुल्ला से उसका सारा वृतांत सुनते है। जिसे सुन उनको भी अब्दुल्ला के प्रति दया आती है। और वो अब्दुल्ला को गजेश्वर राज्य से आये पैगाम को दिखा कर बोलता है। " हमने अपने जीवन में कभी अन्याय का साथ नहीं दिया और आज भी नहीं देंगे फिर उस संदेश को फाड़ कर फेंक देता है।

ये देख कर अब्दुल्ला चिंतित होकर बोला" महाराज मुझ अकेले प्राणी के लिए आप इतना जोखिम न ले और वैसे भी मेरे जीवन में अब कोई मूल नहीं रहा इसलिए क्या फर्क पड़ता है। आप मुझे राजा इंद्र के पास भेज दे।

मगर राजा ऐसा करने से मना करता हुआ बोला " सवाल किसी एक व्यक्ति या एक राज्य का नहीं है। अब सवाल सत्य और असत्य का है। न्याय और अन्याय का है। उस दुष्ट के हाथों तुम्हारी मृत्यु का मतलब है। अन्याय के हाथों न्याय की हत्या और वसुंधरा राज्य कभी भी अन्याय का साथ देकर जीवित रहना स्वीकार नहीं करेगा, बल्कि इस राज्य का प्रत्येक व्यक्ति न्याय और सत्य का साथ देकर वीरगति प्राप्त कर लेना सर्वोच्चता समझेगा।

राजा की बातों ने सभासदों के भीतर देशप्रेम और सत्य की ज्वाला भड़का दी। और हर एक व्यक्ति जो उस सभा में उपस्थित था राजा की जय जय कार करने लगा। सिवाए एक को छोड़कर जो शायद इस निर्णय से सहमत नहीं था वो राजा का एक युवा मंत्री था किंतु साहस की आपूर्ति होने के कारण वो अपने विचार व्यक्त ना कर पाया। और मन ही मन कुढ़ता रहा।

वही तीन दिन तक इंद्र को वसुंधरा की ओर से जब कोई उत्तर नहीं आया तो उसने वसुंधरा पर आक्रमण करने का आदेश दिया। और जंगल के भीतर से जाने का निर्णय लिया, जिसे सुन कर कुछ अधिकारियों को बड़ा अचम्भा हुआ। वो बोलने लगे " क्या राजा इन्द्र को उस भयानक जंगल की सत्यता का ज्ञान नहीं है।

" क्या राजा इन्द्र उसकी अलौकिकता से अज्ञात है।

" क्या आप उस जंगल के भीतर के रहस्यमय किस्सों को नहीं जानते।

इन सब को सुन इन्द्र भड़क उठा और बोला " ये सारी बातें हमारे शत्रु द्वारा फैलाया एक मायावी भ्रम है। ताकि हम भय से उस जंगल के भीतर ना जाए। मुझे आप लोग ये बताओ यहाँ उपस्थित किसी भी व्यक्ति ने उस जंगल के भयंकर भ्रमों को स्वयं वास्तविकता में देखा है। इस प्रश्न ने सब के मुंह पर ताला लगा दिया। और बात भी सही थी सदियों से लोगों ने केवल इसके बारे में सुना था मगर भय के कारण किसी में भी सत्य का पता लगाने के लिए उस जंगल में जाने का कभी साहस ही नहीं हुआ।

राजा इन्द्र की बातों को सुन वही वृद्ध जिसने चेतावनी पत्र भिजवाने की सलाह दी थी आगे बढ़ कर राजा इन्द्र से कुछ कहने की अनुमति मांगता है। राजा द्वारा अनुमति प्राप्त होते ही वो वृद्ध बोला " महाराज निःसंदेह आप जैसा युद्ध नीति में पारंगत राजा मैंने आज तक नहीं देखा, आपकी योजना तो सटीक है। किंतु हमारे यहाँ लोगों में अंधविश्वास की कमी नहीं।

यदि हम सीधे सम्पूर्ण सेना समेत जंगल में चले जाते है। तो सैनिकों के भीतर का अंधविश्वास उनके भीतर ही रहेगा, जिसके कारण किसी अन्य कारण वश घटी घटना भी सैनिकों को अलौकिक लगेगी। और इससे हमें काफी हानि हो सकती है। इन सब परिस्थितियों से निपटने के लिए मेरे पास एक उपाय है।

वृद्ध महापुरुष के भाषण ने राजा इन्द्र को सत्य का अनुभव करा दिया। और अब राजा ने उस से उपाय पूछा तो वृद्ध बोला " महाराज कल जब हम अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ उस जंगल की सीमा पर पहुँचेंगे तो वहाँ पर हम 1000 सैनिकों की एक टुकड़ी को पहले जंगल के भीतर भेजेंगे ताकि वो सबसे सरल और सुरक्षित मार्ग का पता लगा कर वापिस आए।

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अध्याय 3

खंड 4

जब वो 1000 सैनिकों का समूह वापिस आएगा। तो हमें सरल मार्ग की जानकारी के लाभ के साथ साथ अन्य सैनिकों का जंगल के प्रति जो भय है। वो समाप्त करने का भी लाभ होगा,

राजा इन्द्र को ये योजना उपयुक्त लगी, और अगले दिन जंगल की सीमा पर पहुँच कर 1000 सैनिकों को अपनी सेना में से राजा इन्द्र ने चुना, और उनको योजना समझा कर अपने सेना पति के साथ जंगल में भेज दिया।

राजा और अन्य महान अनुभवी लोगों की गणना के आधार पर वो जंगल अधिक से अधिक 5 दिनों की यात्रा में पार हो जायेगा।

जिसके अनुसार जंगल में गए सैनिक 10 से 12 दिनों के भीतर वापिस आ जाएंगे, इसलिये जंगल की सीमा पर ही बड़े बड़े पंडाल लगाए गए,

अभी सैनिकों को गए हुए केवल 2 दिन ही हुए थे कि राजा इन्द्र को अपने खेमे के बहार लोगों की हाहाकार सुनाई देती है। जब राजा इन्द्र ने बाहर आ कर देखा तो कुछ सैनिक एक जगह गुट बना कर किसी चीज़ को घेरे खड़े थे और बहुत से सैनिक उस गुट की ओर भाग कर उस गुट की विशालता को लगातार बढ़ाए जा रहे थे। हालातों का जायज़ा लेने के लिए राजा इन्द्र भी वहाँ पहुँचे जिन्हें देख कर भीड़ ने बड़ी सरलता से राजा को रास्ता दिया। जब राजा ने उस चीज़ को देखा तो बड़े दंग हुए। वो चीज़ असल में मानव के अर्ध भस्म कंकाल थे। जिसमें अभी भी तपिश थी। राजा इन्द्र इस को देख कर बड़े ही आश्चर्य से पूछता है। ये क्या है।

इस पर एक सैनिक आगे आकर बोला " महाराज 1000 सैनिकों की टुकड़ी आपने जंगल में भेजी थी। उन में से एक सैनिक थोड़ी देर पहले भयभीत होकर भागता हुआ जंगल से निकला और दो चार कदम बढ़ा कर वो अपने आप ही अग्नि से भस्म हो गया। जैसे किसी दैवीय शक्ति का उस पर प्रहार हुआ हो, और उसके जलने से पहले उसको देख कर ऐसा नहीं लग रहा था कि वो दो दिन पहले ही जंगल में गया हो बल्कि लगता था वो कई महीनों से उस जंगल के भीतर था।

राजा इन्द्र को उस सैनिक की बातों पर विश्वास नहीं हुआ तो उन्होंने किसी अन्य सैनिक को आगे बुला कर घटना का विस्तार पूछा पर उसने भी वही बोला।

राजा इन्द्र इन सब को देख काफी गहरे असमंजस में पड़ गए। वो हर बार की तरह कोई तर्क सोचने लगे के तभी जंगल के भीतर भेजे अन्य सैनिकों को एक के बाद एक उसी तरह जंगल के बाहर आता और भस्म होता देखा, जिस प्रकार उस सैनिक ने बताया था और देखते ही देखते उस सीमा पर भस्म सैनिकों के सेकड़ो कंकाल वहाँ इकट्ठा हो गए,

राजा इन्द्र को अब उस जंगल की वास्तविकता पर कोई संदेह न रहा, वो वापिस अपने राज्य की ओर चला गया ताकि शेष रहे सैनिकों के साथ किसी और रणनीति का उपयोग कर वो वसुंधरा को पराजित करें।

वृद्ध के सुझाव ने एक छोटी सी टुकड़ी के बलिदान द्वारा विशाल सेना के साथ साथ अपने राजा इन्द्र के प्राण भी बचा लिए,

इस के बाद से राजा इन्द्र उस वृद्ध को अत्यंत आदर देते।

एक लम्बा समय बिताने के बाद राजा इन्द्र ने एक योजना बनाई। जिसके अनुसार वो अपने कुछ विश्वास पात्रों को वसुंधरा राज्य में गजेश्वर राज्य के भगोड़े बना कर भेजेगा, और सही समय आने पर वो लोग राजा को उसके सम्पूर्ण परिवार समेत मार देंगे।

राजा इन्द्र की ये योजना एक हद तक सफल भी हुई, किन्तु वे लोग केवल वसुंधरा के राजा की ही हत्या करने में सफल हो पाए , बाकी और किसी की वो हत्या करते उससे पहले ही युवराज हम्जा ने अब्दुल्ला के साथ मिल कर उनका वध कर दिया


अब राज गद्दी का अधिकार राजा हम्जा को दिया गया, जिसको संभालते ही हम्जा ने गजेश्वर राज्य पर आक्रमण करके उनको परास्त करने का निर्णय लिया, हम्जा नहीं चाहता था कि अब कोई और इन्द्र की कूट नीति का शिकार बने।

दोनों राज्यों के बीच आमने सामने का एक भयंकर महायुद्ध हुआ कोई भी राज्य किसी भी रूप में कम नहीं था भले ही सैनिकों के अस्त्र नष्ट हो जाते या उनके अंग कट कर धरती पर गिर जाते, तब भी वो युद्ध भूमि को नहीं छोड़ते और अपनी अंतिम सांस तक युद्ध करते रहते।

मानव इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार इस युद्ध में यहाँ की युद्धभूमि ने देखा।

युद्ध भूमि रक्त से लाल हो गई। कोई भी रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। तो हम्जा को और अधिक मानव संहार को रोकने का एक ही उपाय सुझा राजा इन्द्र का वध जिसके चलते उनकी सेना अपने अस्त्र डाल देगी।

हम्जा राजा इन्द्र की ओर एक कुशल बलिष्ठ योद्धा की भांति बढ़ने लगा। जिसे राजा इन्द्र के कुछ निष्ठावान सैनिकों ने देखा तो स्वयं को राजा इन्द्र की सुरक्षा दीवार बना कर मजबूती से खड़ा कर लिया। किन्तु इस समय राजा इन्द्र अन्याय के साथ थे और राजा हम्जा न्याय के प्रतीक जो अन्याय की बड़ी से बड़ी दीवार को तोड़ कर बहार निकल ही आता है। और वही हुआ भी,

राजा हम्जा ने निरंतर सैनिकों से युद्ध करते हुए अंत में राजा इन्द्र का सर धड़ से अलग कर दिया।

जिसके बाद गजेश्वर राज्य के शेष बचे सैनिकों के पास अपने अस्त्र डाल देने के सिवा कोई अन्य मार्ग ना था।

चारों दिशाओं में शीत लहर दौड़ने लगी, वातावरण में गहरी खामोशी छा गई। दोनों राज्यों के सैनिकों की नज़रें अपने नए नरेश अपने नए स्वामी हम्जा की ओर जा रुकी, उस शांत वातावरण में हम्जा सैनिकों से कुछ बोलने वाला था तभी एक अज्ञात घुड़सवार जिसने नकाब पहना था राजा हम्जा पर फुर्ती से वार करता हुआ निकला, राजा हम्जा अपने ऊपर हुए इस अचानक प्रहार से बचने का भरपूर प्रयत्न करते है। फिर भी उनके बाजू में उस घुड़सवार की तलवार से घाव हो जाता है। वो घुड़सवार बिना रुके बस दौड़ता ही चला गया, जिसका पीछा हम्जा ने अपने घोड़े पर बैठ कर किया।

राजा के पीछे उसके कुछ अन्य सैनिक भी दौड़े लेकिन थोड़ी ही दूर पहुँच कर सैनिकों ने देखा राजा हम्जा उस घुड़सवार के पीछे पीछे उन शापित जंगलों में जा घुसे, जिस पर वो जंगलों के भीतर न जा कर उनकी सीमा पर ही रुक गए।

उस अंतिम अलौकिक घटना ने दोनों राज्य में खोफ भर दिया था जिसके कारण वो सैनिक जंगल के भीतर जाने का साहस ना जुटा पाए।

काफी देर तक जब युवराज नरसिम्हा ने अपने भाई को वापिस आते ना देखा तो उसको अपने भाई की चिंता होने लगी। और वो भी उस दिशा में बढ़ चला, आगे जा कर जब उसने जंगल की सीमा पर अपने सैनिकों को खड़ा पाया, तो उनसे पूछने पर उसको सारा किस्सा पता चला।

युवराज नरसिम्हा ने दो दिन तक अपने बड़े भाई की वहाँ प्रतीक्षा की किन्तु कोई भी सूचना प्राप्त ना कर पाया तीसरे दिन वो वापिस लौट ही रहा था कि वहाँ मौजूद सैनिकों ने शोर मचाना शुरू कर दिया।

शोर को सुन कर युवराज नरसिम्हा पीछे मुड़े तो उन्होंने अपने बड़े भाई को जंगलों से बदहवास हालत में बाहर आता देखा,

युवराज तुरंत अपने घोड़े से उतरे और अपने बड़े भाई के सीने से जा लगे। युवराज ने अपने बड़े भाई को बताया कि उसको लगा उसने उन्हें खो ही दिया है। और इतना बोल कर युवराज रोने लगे।

लेकिन युवराज की बात का हम्जा कोई उत्तर दे उससे पहले ही हम्जा ठंडी काली राख में परिवर्तित हो कर वही बिखर गए।

अब इस दृश्य ने युवराज की बची कूची आशा को भी नष्ट कर दिया। और अपने भाई की मृत्यु शोक ने उनको भी भीतर तक से झंझोर दिया।

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अध्याय 3

खंड 5

नरसिम्हा के लिए अपने बड़े भाई की मृत्यु का शोक अपार था। किंतु इस समय उनके ऊपर दो राज्यों का कार्यभार आ पड़ा, जिसको अपने दुख के कारण वो अनदेखा नहीं कर सकते थे। नरसिम्हा नहीं चाहता था कि उसके कारण दोनों राज्यों की प्रजा जिनकी जनसंख्या लाखों में थी किसी भी प्रकार से कष्ट भोगे, नरसिम्हा ने बड़े ही कुशलता पूर्वक दोनों राज्यों की देख रेख करनी शुरू कर दी। नरसिम्हा ने आने वाले प्रत्येक संकट का निर्भयता से सामना कर उनका हल निकाला। नरसिम्हा ने वसुंधरा राज्य के पर्वतों वाले गुप्त मार्ग को भी सामान्य रूप से खोल दिया। ताकि दोनों राज्य के वासियों का आना जाना सरल बन जाये।

धीरे धीरे नरसिम्हा को नई समस्या उभरती दिखाई दी।

गजेश्वर राज्य में पुराने राजा के समय में भ्रष्टाचार काफी अधिक था। जब पुराने राजा का वध हुआ तो कुछ समय के लिये भय के करण वो भ्रष्टाचारी शांत बैठे रहे। किन्तु समय बीतने के साथ उनके भीतर का लोभ धीरे धीरे किसी राक्षस की भांति जागरूक होने लगा। और उनका भय भी जाता रहा।

नरसिम्हा को गजेश्वर राज्य की ये नई समस्याएं दिखी, जिनमें भ्रष्टाचार और पद का दुरुपयोग करने वालो की एक बड़ी तादाद उभरती नज़र आई। इसके समाधान के लिए राजा नरसिम्हा ने जगह जगह चेतावनी की मुनादी करवाई ताकि अनुचित कार्य करने वाले लोग ये सब बन्द कर दे। मगर इनका दुष्ट लोगों पर कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। उलटा उनकी भ्रष्टाचार की गंदगी वसुंधरा तक आ पहुँची,

अब राजा नरसिम्हा ने ठोस कदम उठाते हुए। उन सभी भ्रष्ट और अपने पद का दुरुपयोग करने वाले लोगों को एक एक कर देश निकाला दे दिया

एक एक कर निकाले उन लोगों की संख्या सेकड़ो में पहुँच गई। जो गजेश्वर राज्य के आस पास के बीहड़ इलाकों में अपना बसेरा बना कर रहने लगे।

उन लोगों ने वसुंधरा और गजेश्वर राज्य के आने जाने वाले धनी और व्यापारियों पर आक्रमण कर डकैती डालनी शुरू कर दी।

जिस से तंग आ कर राजा ने मुख्य मार्गों पर सैनिकों की सुरक्षा मुहैया करवा दी। किन्तु यहाँ भी कुछ लालची व्यापारी ऐसे थे जो राजा से कर बचाने के लिए अपना धन उनकी नज़र से बचाने के चक्कर में कुछ अलग रास्तों से शहर में प्रवेश करते। जिसके कारण असुरक्षित स्थान से उनको गुजरना पड़ता। और वो लोग आसानी से डाकुओं की क्रूरता का शिकार हो जाते। यहाँ तक कि डाकुओं का साहस इतना अधिक हो गया, की वो जिस गाँव में कम सुरक्षा होती उसमें ही डकैती मारने के लिये घुस जाते, उनके पास बड़े ही शातिर लोग थे। जो उनको सटीक जानकारी दिया करते।

राजा ने कई बार इन से तंग आ कर अपने सेना की बड़ी टुकड़ी उनके बीहड़ इलाकों में डाकुओं को पकड़ने के लिए भिजवाई किन्तु वे डाकू बड़ी चतुराई से वहाँ से भी बच कर निकलने में सफल होते।

इसी प्रकार से एक सामान्य दिन राजा का एक प्रिय सेवक अपनी नई विवाहित धर्म पत्नी को उसके मायके छोड़ने जा रहा था। उसके पास अपने ससुराल के लिए कई मूल्यवान उपहार और खाने की सामग्री थी वो रथ पर था जो राजा द्वारा उसको विवाह में भेंट स्वरूप मिला था।

जब उन दुष्ट डाकुओं को इनकी जानकारी मिली, तो डाकुओं के लिए ये किसी स्वर्ण अवसर से कम नहीं था। बड़ी सरलता से दुष्ट डाकुओं ने उस प्रेमी जोड़े को पकड़ कर बंधक बना लिया।

डाकुओं ने रथ और अन्य मूल्यवान वस्तु लूट ली मगर उन पापियों की क्रूरता इस पर समाप्त नहीं हुई। उन डाकुओं ने उस युवक को पेड़ के साथ रस्सियों से जकड़ कर बांध दिया।

उसके बाद उस निर्बल असहाय युवक के सामने ही उसकी पत्नी के साथ एक एक कर दुष्कर्म किया। उसके बाद बड़ी निर्दयता से एक बड़े पत्थर से उस युवती का सर बार बार कुचल कर उसकी हत्या कर दी।

अपनी नवविवाहिता स्त्री के साथ ऐसा अन्याय होता देखने वाले उस युवक की स्थिति का अनुमान लगाना बड़ा ही कठिन है।

इन सब हिंसक दृश्यों से आनंदित होते राक्षस रूपी डाकुओं में से एक उस पेड़ से बंधे युवक की हत्या के लिए उसकी ओर बढ़ता है। युवक के पास पहुँच वो डाकू अपनी तलवार का मुळा मजबूती से पकड़ता है। तभी बिजली की गति से एक घुड़ सवार उस डाकू के पीछे से गुजरता है। और वो डाकू वही जम सा जाता है। युवक इस दृश्य को समझे उससे पहले उस डाकू का सर धड़ से अलग हो कर उस युवक की गोद में आ गिरा।



युवक ने नज़रें उठाई। तो पाया काले घोड़े पर एक तलवार धारी योद्धा अपना चेहरा ढक कर बैठा है। उसको देख कर युवक को प्रतीत हो रहा था मानो कोई देवता साक्षात उन पापियों का विनाश करने उनका काल बन कर आया है। ना जाने क्यों उस घुड़सवार को देख कर युवक के भीतर एक नई ऊर्जा का संचार सा हुआ।

और उस युवक की आंखों से श्रद्धा और गर्व के आँसू बहने लगे। जैसे उसके आंसू कह रहे हो। इन पापियों का नाश कर इस धरती का उद्धार करो भगवन उद्धार करो...

अपने साथी का धड़ सर से अलग ज़मीन पर पड़ा देख। बाकी के सभी डाकू अपने भीतर क्रोध अग्नि को भर उस घुड़सवार पर झपटे, जो इस बात से अज्ञात की वो घुड़सवार कोई साधारण घुड़ सवार ना था। बल्कि चक्रवर्ती राजा हम्जा राणा था जिसका पता तब चला जब दो चार डाकुओं को यमलोक पहुँचाने के बाद उनका नकाब हट गया।

इस योद्धा का पराक्रम शूर वीरता और तेज़ उन डाकुओं में से बहुत से डाकू स्वयं अपनी आँखों से रणभूमि में महायुद्ध में देख चुके थे।

अब उन डाकुओं का आधा साहस वही पस्त हो गया। और बचे आधे साहस के साथ उन्होंने हम्जा राणा पर आक्रमण किया,

परंतु हम्जा जैसे अस्त्र विद्या में निपुण मनुष्य के आगे वो जंगली युद्ध करने वाले डाकू कहा टिकते। उन डाकुओं को तो केवल बल द्वारा युद्ध लड़ना आता था किंतु हम्जा बल और बुद्धि अस्त्र और शस्त्र सब का उपयोग करना जनता था।

देखते ही दखते पूरी भूमि रक्तमय हो गई। और उन डाकुओं में कुछ चुनिंदा डाकू ही शेष रह गए। जिन्होंने अपने प्राणों की रक्षा के लिए आत्मा समर्पण कर दिया। हम्जा ने उनके हाथों को मजबूती से बांध कर घोड़ों पर बिठा दिया। और बाकी डाकुओं के बचे घोड़ों को एक के पीछे एक बांध कर उनका झुण्ड बना दिया और सबसे आगे बंधे पांचों घोड़ों को उस रथ से बांधा। फिर युवक को मुक्त कर उसको रथ की कमान संभालने के लिए बोला। युवक मुक्त होते ही पहले अपने जीवन दान देने वाले के चरणों को बड़े ही आदर से स्पर्श कर उनको धन्यवाद देता है। उसके बाद अपनी पत्नी का शव उठा कर अपने रथ में रख कर ढक देता है। जिसको करते समय अपनी प्रियतमा के साथ बिताए कुछ मधुर क्षण उस युवक को भीतर से खसोटते थे। जीवन भी विचित्र है। जिसके साथ युवक कुछ समय पहले लम्बे समय तक साथ निभाने की कसमें खा रहा था अब उसका ही शव युवक के हाथों में है।

वसुंधरा में प्रवेश करते समय हम्जा ने अपना नकाब वापिस लगा लिया था वो नहीं चाहता था उसको देख कर लोग उसके इर्द-गिर्द किसी भी तरह इकट्ठा हों।

हम्जा सबसे आगे था, उसके पीछे अपने रथ में बैठा युवक और युवक के पीछे बंधे हुए घोड़ों का झुंड जिन पर पांच हाथ बंधे डाकुओं को लादा हुआ था।

युवक ने एक जगह देखा, की हम्जा के घोड़े की दाईं ओर एक पोटली सी बंधी हुई थी जिसको गोर से देखने पर ऐसा लगता कि उसके भीतर कोई शिशु सो रहा हो। मगर फिर इसको अपना भ्रम समझ युवक अनदेखा करता है। और मन में किसी वस्तु के होने का झूठ बसा कर अपना ध्यान उस से हटाता है।

हम्जा को गए हुए 1 वर्ष से भी अधिक गुजर चुका था। जिसके बीच बहुत से बदलाव हुए। यहाँ तक कि उसके प्रिय भाई नरसिम्हा और बहन दुर्गा दोनों का विवाह हो चुका था। हम्जा भी काफी बदल गया। उसे देख कर लगता था मानो उसके भीतर कई राज दफन है। जिसके खुल जाने के भय से उसने मोन व्रत धारण कर रखा है। खैर जिस प्रकार वसुंधरा राज्य में उसका आगमन हुआ। मतलब 50 से भी अधिक घोड़ों का झुंड और साथ में 5 खूंखार आतंकी तो भला कैसे लोगों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित नहीं होता। जिसका परिणाम ये हुआ। की उसके महल पहुँचने से पहले ही उसके आने की सूचना महल पहुँच गई। मगर एक अज्ञात व्यक्ति के रूप में जिसका नरसिम्हा को कोई अनुमान नहीं की वो मित्र है या शत्रु, इसलिये अपने सलाह कारों के कहने पर वो स्वयं उसके स्वागत के लिये। किले के बहार पहुँच गया। मगर अकेला नहीं बल्कि अपनी शाही सैनिकों की टुकड़ी के साथ थोड़ी देर की प्रतीक्षा करने के बाद उन्हें वो अज्ञात व्यक्ति नज़र आ गया।

जब हम्जा ने किले के बहार शाही सैनिकों की टुकड़ी अपने भाई के साथ खड़ी देखी, तो ना जाने क्यों उसके भीतर का योद्धा जागृत हो गया और वो फुर्ती से घोड़े से उतर कर अपनी तलवार को अपनी मियान से ऐसे बाहर खिंचता है। मानो उन राज सैनिकों को युद्ध के लिए ललकार रहा हो। राज सैनिक भी अपने राजा पर खतरा मंडराता देख कर अपने योद्धा रूप में तुरंत ही परिवर्तित हो जाते है। इससे पहले कोई अनर्थ हो पीछे रथ पर सवार युवक अपनी पूरी जान लगा कर चीख पड़ा " रुको....

युवक की आवाज़ सुनकर हम्जा भी दो कदम पीछे हट गया। उसे देख कर ऐसा लगा मानो उसकी चेतना उसकी युद्ध इंद्री उसके नियंत्रण में नहीं थी और युवक की तीखी आवाज़ ने उसको जागरूक सा कर दिया, हम्जा को उसके शरीर का नियंत्रण लोटा दिया हो।

वही रथ से नीचे उतर कर दौड़ता हुआ वो युवक राजा के समक्ष जा पहुँचा। अपने विश्वास पात्र अपने प्रिय सेवक को देख कर राजा को उससे कोई खतरा महसूस नहीं हुआ और वो भी घोड़े से उतर कर उससे वापिस आने का कारण पूछने लगा।

युवक ने अपने साथ घटी सारी घटना विस्तार से बता कर बोला " और ये दैवीय पुरुष और कोई नहीं हमारे स्वामी आपके प्रिय भाई हम्जा राणा है। जिनके कारण आज आपका ये तुच्छ सेवक जीवित आपके समक्ष है।

युवक की बातों को सुन नरसिम्हा की आंखों से आंसू बहने लगे, भले ही उसने अपने भाई को अपनी आंखों से राख होते देखा, किन्तु जिस प्रकार एक माता अपने मृत बालक को जीवित देख कर उससे उसके जीवित होने पर सवाल करने की जगह उसको सीधा अपने हृदय से लगा लेती है। ठीक उसी तरह अपने बड़े भाई के जीवित होने की अविश्वसनीय सूचना सुन कर नरसिम्हा से भी रहा नहीं गया, और वो बिना अपने प्राणों की परवाह किए सीधा हम्जा के समक्ष जा पहुँचा, और उसका नकाब अपने हाथों से हटा दिया।

उस पर्दे को हटा कर नरसिम्हा ने केवल हम्जा का रूप ही नहीं उजागर किया, बल्कि उसके साथ उस चमत्कारी सत्य को भी उजागर किया जिसकी अपेक्षा वहाँ उपस्थित किसी भी मनुष्य के लिए करना असंभव था।

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अध्याय 3

खंड 4

जब वो 1000 सैनिकों का समूह वापिस आएगा। तो हमें सरल मार्ग की जानकारी के लाभ के साथ साथ अन्य सैनिकों का जंगल के प्रति जो भय है। वो समाप्त करने का भी लाभ होगा,

राजा इन्द्र को ये योजना उपयुक्त लगी, और अगले दिन जंगल की सीमा पर पहुँच कर 1000 सैनिकों को अपनी सेना में से राजा इन्द्र ने चुना, और उनको योजना समझा कर अपने सेना पति के साथ जंगल में भेज दिया।

राजा और अन्य महान अनुभवी लोगों की गणना के आधार पर वो जंगल अधिक से अधिक 5 दिनों की यात्रा में पार हो जायेगा।

जिसके अनुसार जंगल में गए सैनिक 10 से 12 दिनों के भीतर वापिस आ जाएंगे, इसलिये जंगल की सीमा पर ही बड़े बड़े पंडाल लगाए गए,

अभी सैनिकों को गए हुए केवल 2 दिन ही हुए थे कि राजा इन्द्र को अपने खेमे के बहार लोगों की हाहाकार सुनाई देती है। जब राजा इन्द्र ने बाहर आ कर देखा तो कुछ सैनिक एक जगह गुट बना कर किसी चीज़ को घेरे खड़े थे और बहुत से सैनिक उस गुट की ओर भाग कर उस गुट की विशालता को लगातार बढ़ाए जा रहे थे। हालातों का जायज़ा लेने के लिए राजा इन्द्र भी वहाँ पहुँचे जिन्हें देख कर भीड़ ने बड़ी सरलता से राजा को रास्ता दिया। जब राजा ने उस चीज़ को देखा तो बड़े दंग हुए। वो चीज़ असल में मानव के अर्ध भस्म कंकाल थे। जिसमें अभी भी तपिश थी। राजा इन्द्र इस को देख कर बड़े ही आश्चर्य से पूछता है। ये क्या है।

इस पर एक सैनिक आगे आकर बोला " महाराज 1000 सैनिकों की टुकड़ी आपने जंगल में भेजी थी। उन में से एक सैनिक थोड़ी देर पहले भयभीत होकर भागता हुआ जंगल से निकला और दो चार कदम बढ़ा कर वो अपने आप ही अग्नि से भस्म हो गया। जैसे किसी दैवीय शक्ति का उस पर प्रहार हुआ हो, और उसके जलने से पहले उसको देख कर ऐसा नहीं लग रहा था कि वो दो दिन पहले ही जंगल में गया हो बल्कि लगता था वो कई महीनों से उस जंगल के भीतर था।

राजा इन्द्र को उस सैनिक की बातों पर विश्वास नहीं हुआ तो उन्होंने किसी अन्य सैनिक को आगे बुला कर घटना का विस्तार पूछा पर उसने भी वही बोला।

राजा इन्द्र इन सब को देख काफी गहरे असमंजस में पड़ गए। वो हर बार की तरह कोई तर्क सोचने लगे के तभी जंगल के भीतर भेजे अन्य सैनिकों को एक के बाद एक उसी तरह जंगल के बाहर आता और भस्म होता देखा, जिस प्रकार उस सैनिक ने बताया था और देखते ही देखते उस सीमा पर भस्म सैनिकों के सेकड़ो कंकाल वहाँ इकट्ठा हो गए,

राजा इन्द्र को अब उस जंगल की वास्तविकता पर कोई संदेह न रहा, वो वापिस अपने राज्य की ओर चला गया ताकि शेष रहे सैनिकों के साथ किसी और रणनीति का उपयोग कर वो वसुंधरा को पराजित करें।

वृद्ध के सुझाव ने एक छोटी सी टुकड़ी के बलिदान द्वारा विशाल सेना के साथ साथ अपने राजा इन्द्र के प्राण भी बचा लिए,

इस के बाद से राजा इन्द्र उस वृद्ध को अत्यंत आदर देते।

एक लम्बा समय बिताने के बाद राजा इन्द्र ने एक योजना बनाई। जिसके अनुसार वो अपने कुछ विश्वास पात्रों को वसुंधरा राज्य में गजेश्वर राज्य के भगोड़े बना कर भेजेगा, और सही समय आने पर वो लोग राजा को उसके सम्पूर्ण परिवार समेत मार देंगे।

राजा इन्द्र की ये योजना एक हद तक सफल भी हुई, किन्तु वे लोग केवल वसुंधरा के राजा की ही हत्या करने में सफल हो पाए , बाकी और किसी की वो हत्या करते उससे पहले ही युवराज हम्जा ने अब्दुल्ला के साथ मिल कर उनका वध कर दिया


अब राज गद्दी का अधिकार राजा हम्जा को दिया गया, जिसको संभालते ही हम्जा ने गजेश्वर राज्य पर आक्रमण करके उनको परास्त करने का निर्णय लिया, हम्जा नहीं चाहता था कि अब कोई और इन्द्र की कूट नीति का शिकार बने।

दोनों राज्यों के बीच आमने सामने का एक भयंकर महायुद्ध हुआ कोई भी राज्य किसी भी रूप में कम नहीं था भले ही सैनिकों के अस्त्र नष्ट हो जाते या उनके अंग कट कर धरती पर गिर जाते, तब भी वो युद्ध भूमि को नहीं छोड़ते और अपनी अंतिम सांस तक युद्ध करते रहते।

मानव इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार इस युद्ध में यहाँ की युद्धभूमि ने देखा।

युद्ध भूमि रक्त से लाल हो गई। कोई भी रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। तो हम्जा को और अधिक मानव संहार को रोकने का एक ही उपाय सुझा राजा इन्द्र का वध जिसके चलते उनकी सेना अपने अस्त्र डाल देगी।

हम्जा राजा इन्द्र की ओर एक कुशल बलिष्ठ योद्धा की भांति बढ़ने लगा। जिसे राजा इन्द्र के कुछ निष्ठावान सैनिकों ने देखा तो स्वयं को राजा इन्द्र की सुरक्षा दीवार बना कर मजबूती से खड़ा कर लिया। किन्तु इस समय राजा इन्द्र अन्याय के साथ थे और राजा हम्जा न्याय के प्रतीक जो अन्याय की बड़ी से बड़ी दीवार को तोड़ कर बहार निकल ही आता है। और वही हुआ भी,

राजा हम्जा ने निरंतर सैनिकों से युद्ध करते हुए अंत में राजा इन्द्र का सर धड़ से अलग कर दिया।

जिसके बाद गजेश्वर राज्य के शेष बचे सैनिकों के पास अपने अस्त्र डाल देने के सिवा कोई अन्य मार्ग ना था।

चारों दिशाओं में शीत लहर दौड़ने लगी, वातावरण में गहरी खामोशी छा गई। दोनों राज्यों के सैनिकों की नज़रें अपने नए नरेश अपने नए स्वामी हम्जा की ओर जा रुकी, उस शांत वातावरण में हम्जा सैनिकों से कुछ बोलने वाला था तभी एक अज्ञात घुड़सवार जिसने नकाब पहना था राजा हम्जा पर फुर्ती से वार करता हुआ निकला, राजा हम्जा अपने ऊपर हुए इस अचानक प्रहार से बचने का भरपूर प्रयत्न करते है। फिर भी उनके बाजू में उस घुड़सवार की तलवार से घाव हो जाता है। वो घुड़सवार बिना रुके बस दौड़ता ही चला गया, जिसका पीछा हम्जा ने अपने घोड़े पर बैठ कर किया।

राजा के पीछे उसके कुछ अन्य सैनिक भी दौड़े लेकिन थोड़ी ही दूर पहुँच कर सैनिकों ने देखा राजा हम्जा उस घुड़सवार के पीछे पीछे उन शापित जंगलों में जा घुसे, जिस पर वो जंगलों के भीतर न जा कर उनकी सीमा पर ही रुक गए।

उस अंतिम अलौकिक घटना ने दोनों राज्य में खोफ भर दिया था जिसके कारण वो सैनिक जंगल के भीतर जाने का साहस ना जुटा पाए।

काफी देर तक जब युवराज नरसिम्हा ने अपने भाई को वापिस आते ना देखा तो उसको अपने भाई की चिंता होने लगी। और वो भी उस दिशा में बढ़ चला, आगे जा कर जब उसने जंगल की सीमा पर अपने सैनिकों को खड़ा पाया, तो उनसे पूछने पर उसको सारा किस्सा पता चला।

युवराज नरसिम्हा ने दो दिन तक अपने बड़े भाई की वहाँ प्रतीक्षा की किन्तु कोई भी सूचना प्राप्त ना कर पाया तीसरे दिन वो वापिस लौट ही रहा था कि वहाँ मौजूद सैनिकों ने शोर मचाना शुरू कर दिया।

शोर को सुन कर युवराज नरसिम्हा पीछे मुड़े तो उन्होंने अपने बड़े भाई को जंगलों से बदहवास हालत में बाहर आता देखा,

युवराज तुरंत अपने घोड़े से उतरे और अपने बड़े भाई के सीने से जा लगे। युवराज ने अपने बड़े भाई को बताया कि उसको लगा उसने उन्हें खो ही दिया है। और इतना बोल कर युवराज रोने लगे।

लेकिन युवराज की बात का हम्जा कोई उत्तर दे उससे पहले ही हम्जा ठंडी काली राख में परिवर्तित हो कर वही बिखर गए।

अब इस दृश्य ने युवराज की बची कूची आशा को भी नष्ट कर दिया। और अपने भाई की मृत्यु शोक ने उनको भी भीतर तक से झंझोर दिया।

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अध्याय 3

खंड 5

नरसिम्हा के लिए अपने बड़े भाई की मृत्यु का शोक अपार था। किंतु इस समय उनके ऊपर दो राज्यों का कार्यभार आ पड़ा, जिसको अपने दुख के कारण वो अनदेखा नहीं कर सकते थे। नरसिम्हा नहीं चाहता था कि उसके कारण दोनों राज्यों की प्रजा जिनकी जनसंख्या लाखों में थी किसी भी प्रकार से कष्ट भोगे, नरसिम्हा ने बड़े ही कुशलता पूर्वक दोनों राज्यों की देख रेख करनी शुरू कर दी। नरसिम्हा ने आने वाले प्रत्येक संकट का निर्भयता से सामना कर उनका हल निकाला। नरसिम्हा ने वसुंधरा राज्य के पर्वतों वाले गुप्त मार्ग को भी सामान्य रूप से खोल दिया। ताकि दोनों राज्य के वासियों का आना जाना सरल बन जाये।

धीरे धीरे नरसिम्हा को नई समस्या उभरती दिखाई दी।

गजेश्वर राज्य में पुराने राजा के समय में भ्रष्टाचार काफी अधिक था। जब पुराने राजा का वध हुआ तो कुछ समय के लिये भय के करण वो भ्रष्टाचारी शांत बैठे रहे। किन्तु समय बीतने के साथ उनके भीतर का लोभ धीरे धीरे किसी राक्षस की भांति जागरूक होने लगा। और उनका भय भी जाता रहा।

नरसिम्हा को गजेश्वर राज्य की ये नई समस्याएं दिखी, जिनमें भ्रष्टाचार और पद का दुरुपयोग करने वालो की एक बड़ी तादाद उभरती नज़र आई। इसके समाधान के लिए राजा नरसिम्हा ने जगह जगह चेतावनी की मुनादी करवाई ताकि अनुचित कार्य करने वाले लोग ये सब बन्द कर दे। मगर इनका दुष्ट लोगों पर कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। उलटा उनकी भ्रष्टाचार की गंदगी वसुंधरा तक आ पहुँची,

अब राजा नरसिम्हा ने ठोस कदम उठाते हुए। उन सभी भ्रष्ट और अपने पद का दुरुपयोग करने वाले लोगों को एक एक कर देश निकाला दे दिया

एक एक कर निकाले उन लोगों की संख्या सेकड़ो में पहुँच गई। जो गजेश्वर राज्य के आस पास के बीहड़ इलाकों में अपना बसेरा बना कर रहने लगे।

उन लोगों ने वसुंधरा और गजेश्वर राज्य के आने जाने वाले धनी और व्यापारियों पर आक्रमण कर डकैती डालनी शुरू कर दी।

जिस से तंग आ कर राजा ने मुख्य मार्गों पर सैनिकों की सुरक्षा मुहैया करवा दी। किन्तु यहाँ भी कुछ लालची व्यापारी ऐसे थे जो राजा से कर बचाने के लिए अपना धन उनकी नज़र से बचाने के चक्कर में कुछ अलग रास्तों से शहर में प्रवेश करते। जिसके कारण असुरक्षित स्थान से उनको गुजरना पड़ता। और वो लोग आसानी से डाकुओं की क्रूरता का शिकार हो जाते। यहाँ तक कि डाकुओं का साहस इतना अधिक हो गया, की वो जिस गाँव में कम सुरक्षा होती उसमें ही डकैती मारने के लिये घुस जाते, उनके पास बड़े ही शातिर लोग थे। जो उनको सटीक जानकारी दिया करते।

राजा ने कई बार इन से तंग आ कर अपने सेना की बड़ी टुकड़ी उनके बीहड़ इलाकों में डाकुओं को पकड़ने के लिए भिजवाई किन्तु वे डाकू बड़ी चतुराई से वहाँ से भी बच कर निकलने में सफल होते।

इसी प्रकार से एक सामान्य दिन राजा का एक प्रिय सेवक अपनी नई विवाहित धर्म पत्नी को उसके मायके छोड़ने जा रहा था। उसके पास अपने ससुराल के लिए कई मूल्यवान उपहार और खाने की सामग्री थी वो रथ पर था जो राजा द्वारा उसको विवाह में भेंट स्वरूप मिला था।

जब उन दुष्ट डाकुओं को इनकी जानकारी मिली, तो डाकुओं के लिए ये किसी स्वर्ण अवसर से कम नहीं था। बड़ी सरलता से दुष्ट डाकुओं ने उस प्रेमी जोड़े को पकड़ कर बंधक बना लिया।

डाकुओं ने रथ और अन्य मूल्यवान वस्तु लूट ली मगर उन पापियों की क्रूरता इस पर समाप्त नहीं हुई। उन डाकुओं ने उस युवक को पेड़ के साथ रस्सियों से जकड़ कर बांध दिया।

उसके बाद उस निर्बल असहाय युवक के सामने ही उसकी पत्नी के साथ एक एक कर दुष्कर्म किया। उसके बाद बड़ी निर्दयता से एक बड़े पत्थर से उस युवती का सर बार बार कुचल कर उसकी हत्या कर दी।

अपनी नवविवाहिता स्त्री के साथ ऐसा अन्याय होता देखने वाले उस युवक की स्थिति का अनुमान लगाना बड़ा ही कठिन है।

इन सब हिंसक दृश्यों से आनंदित होते राक्षस रूपी डाकुओं में से एक उस पेड़ से बंधे युवक की हत्या के लिए उसकी ओर बढ़ता है। युवक के पास पहुँच वो डाकू अपनी तलवार का मुळा मजबूती से पकड़ता है। तभी बिजली की गति से एक घुड़ सवार उस डाकू के पीछे से गुजरता है। और वो डाकू वही जम सा जाता है। युवक इस दृश्य को समझे उससे पहले उस डाकू का सर धड़ से अलग हो कर उस युवक की गोद में आ गिरा।



युवक ने नज़रें उठाई। तो पाया काले घोड़े पर एक तलवार धारी योद्धा अपना चेहरा ढक कर बैठा है। उसको देख कर युवक को प्रतीत हो रहा था मानो कोई देवता साक्षात उन पापियों का विनाश करने उनका काल बन कर आया है। ना जाने क्यों उस घुड़सवार को देख कर युवक के भीतर एक नई ऊर्जा का संचार सा हुआ।

और उस युवक की आंखों से श्रद्धा और गर्व के आँसू बहने लगे। जैसे उसके आंसू कह रहे हो। इन पापियों का नाश कर इस धरती का उद्धार करो भगवन उद्धार करो...

अपने साथी का धड़ सर से अलग ज़मीन पर पड़ा देख। बाकी के सभी डाकू अपने भीतर क्रोध अग्नि को भर उस घुड़सवार पर झपटे, जो इस बात से अज्ञात की वो घुड़सवार कोई साधारण घुड़ सवार ना था। बल्कि चक्रवर्ती राजा हम्जा राणा था जिसका पता तब चला जब दो चार डाकुओं को यमलोक पहुँचाने के बाद उनका नकाब हट गया।

इस योद्धा का पराक्रम शूर वीरता और तेज़ उन डाकुओं में से बहुत से डाकू स्वयं अपनी आँखों से रणभूमि में महायुद्ध में देख चुके थे।

अब उन डाकुओं का आधा साहस वही पस्त हो गया। और बचे आधे साहस के साथ उन्होंने हम्जा राणा पर आक्रमण किया,

परंतु हम्जा जैसे अस्त्र विद्या में निपुण मनुष्य के आगे वो जंगली युद्ध करने वाले डाकू कहा टिकते। उन डाकुओं को तो केवल बल द्वारा युद्ध लड़ना आता था किंतु हम्जा बल और बुद्धि अस्त्र और शस्त्र सब का उपयोग करना जनता था।

देखते ही दखते पूरी भूमि रक्तमय हो गई। और उन डाकुओं में कुछ चुनिंदा डाकू ही शेष रह गए। जिन्होंने अपने प्राणों की रक्षा के लिए आत्मा समर्पण कर दिया। हम्जा ने उनके हाथों को मजबूती से बांध कर घोड़ों पर बिठा दिया। और बाकी डाकुओं के बचे घोड़ों को एक के पीछे एक बांध कर उनका झुण्ड बना दिया और सबसे आगे बंधे पांचों घोड़ों को उस रथ से बांधा। फिर युवक को मुक्त कर उसको रथ की कमान संभालने के लिए बोला। युवक मुक्त होते ही पहले अपने जीवन दान देने वाले के चरणों को बड़े ही आदर से स्पर्श कर उनको धन्यवाद देता है। उसके बाद अपनी पत्नी का शव उठा कर अपने रथ में रख कर ढक देता है। जिसको करते समय अपनी प्रियतमा के साथ बिताए कुछ मधुर क्षण उस युवक को भीतर से खसोटते थे। जीवन भी विचित्र है। जिसके साथ युवक कुछ समय पहले लम्बे समय तक साथ निभाने की कसमें खा रहा था अब उसका ही शव युवक के हाथों में है।

वसुंधरा में प्रवेश करते समय हम्जा ने अपना नकाब वापिस लगा लिया था वो नहीं चाहता था उसको देख कर लोग उसके इर्द-गिर्द किसी भी तरह इकट्ठा हों।

हम्जा सबसे आगे था, उसके पीछे अपने रथ में बैठा युवक और युवक के पीछे बंधे हुए घोड़ों का झुंड जिन पर पांच हाथ बंधे डाकुओं को लादा हुआ था।

युवक ने एक जगह देखा, की हम्जा के घोड़े की दाईं ओर एक पोटली सी बंधी हुई थी जिसको गोर से देखने पर ऐसा लगता कि उसके भीतर कोई शिशु सो रहा हो। मगर फिर इसको अपना भ्रम समझ युवक अनदेखा करता है। और मन में किसी वस्तु के होने का झूठ बसा कर अपना ध्यान उस से हटाता है।

हम्जा को गए हुए 1 वर्ष से भी अधिक गुजर चुका था। जिसके बीच बहुत से बदलाव हुए। यहाँ तक कि उसके प्रिय भाई नरसिम्हा और बहन दुर्गा दोनों का विवाह हो चुका था। हम्जा भी काफी बदल गया। उसे देख कर लगता था मानो उसके भीतर कई राज दफन है। जिसके खुल जाने के भय से उसने मोन व्रत धारण कर रखा है। खैर जिस प्रकार वसुंधरा राज्य में उसका आगमन हुआ। मतलब 50 से भी अधिक घोड़ों का झुंड और साथ में 5 खूंखार आतंकी तो भला कैसे लोगों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित नहीं होता। जिसका परिणाम ये हुआ। की उसके महल पहुँचने से पहले ही उसके आने की सूचना महल पहुँच गई। मगर एक अज्ञात व्यक्ति के रूप में जिसका नरसिम्हा को कोई अनुमान नहीं की वो मित्र है या शत्रु, इसलिये अपने सलाह कारों के कहने पर वो स्वयं उसके स्वागत के लिये। किले के बहार पहुँच गया। मगर अकेला नहीं बल्कि अपनी शाही सैनिकों की टुकड़ी के साथ थोड़ी देर की प्रतीक्षा करने के बाद उन्हें वो अज्ञात व्यक्ति नज़र आ गया।

जब हम्जा ने किले के बहार शाही सैनिकों की टुकड़ी अपने भाई के साथ खड़ी देखी, तो ना जाने क्यों उसके भीतर का योद्धा जागृत हो गया और वो फुर्ती से घोड़े से उतर कर अपनी तलवार को अपनी मियान से ऐसे बाहर खिंचता है। मानो उन राज सैनिकों को युद्ध के लिए ललकार रहा हो। राज सैनिक भी अपने राजा पर खतरा मंडराता देख कर अपने योद्धा रूप में तुरंत ही परिवर्तित हो जाते है। इससे पहले कोई अनर्थ हो पीछे रथ पर सवार युवक अपनी पूरी जान लगा कर चीख पड़ा " रुको....

युवक की आवाज़ सुनकर हम्जा भी दो कदम पीछे हट गया। उसे देख कर ऐसा लगा मानो उसकी चेतना उसकी युद्ध इंद्री उसके नियंत्रण में नहीं थी और युवक की तीखी आवाज़ ने उसको जागरूक सा कर दिया, हम्जा को उसके शरीर का नियंत्रण लोटा दिया हो।

वही रथ से नीचे उतर कर दौड़ता हुआ वो युवक राजा के समक्ष जा पहुँचा। अपने विश्वास पात्र अपने प्रिय सेवक को देख कर राजा को उससे कोई खतरा महसूस नहीं हुआ और वो भी घोड़े से उतर कर उससे वापिस आने का कारण पूछने लगा।

युवक ने अपने साथ घटी सारी घटना विस्तार से बता कर बोला " और ये दैवीय पुरुष और कोई नहीं हमारे स्वामी आपके प्रिय भाई हम्जा राणा है। जिनके कारण आज आपका ये तुच्छ सेवक जीवित आपके समक्ष है।

युवक की बातों को सुन नरसिम्हा की आंखों से आंसू बहने लगे, भले ही उसने अपने भाई को अपनी आंखों से राख होते देखा, किन्तु जिस प्रकार एक माता अपने मृत बालक को जीवित देख कर उससे उसके जीवित होने पर सवाल करने की जगह उसको सीधा अपने हृदय से लगा लेती है। ठीक उसी तरह अपने बड़े भाई के जीवित होने की अविश्वसनीय सूचना सुन कर नरसिम्हा से भी रहा नहीं गया, और वो बिना अपने प्राणों की परवाह किए सीधा हम्जा के समक्ष जा पहुँचा, और उसका नकाब अपने हाथों से हटा दिया।

उस पर्दे को हटा कर नरसिम्हा ने केवल हम्जा का रूप ही नहीं उजागर किया, बल्कि उसके साथ उस चमत्कारी सत्य को भी उजागर किया जिसकी अपेक्षा वहाँ उपस्थित किसी भी मनुष्य के लिए करना असंभव था।

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अध्याय 3

खण्ड 6

लोगों के लिए हम्जा केवल जीवित ही नहीं था बल्कि उस शापित जंगल से सुरक्षित जीवित निकला एक लोता दैवीय पुरुष बन गया था।

नरसिम्हा अपने भाई से बहुत देर तक लिपट कर रोता रहा। किन्तु हम्जा की उस पर कोई प्रतिक्रिया ना थी मानो जंगल ने उसके भीतर की भावनाओं को नष्ट कर दिया, उसके भीतर बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका था। नरसिम्हा अलग होते ही अपने भाई से नाराजगी जताते हुए अनेकों प्रश्न करता है। मगर हम्जा किसी का भी उत्तर दिए बिना अपने घोड़े की तरफ वापिस मुड़ा और उस लटकती पोटली को खोल कर ले आया। जिसमें युवक को किसी शिशु के होने का भ्रम था और आश्चर्यजनक रूप से उसमें एक कोमल और सुंदर तीन माह का शिशु गहरी नींद में सोया हुआ था। जिसको किसी वस्तु की भांति अपने भाई को बड़ी कठोरता से पकड़ाते हुए हम्जा बोला " आज से मेरी संतान तुम्हारी हुई। मुझे आशा है इसका पालन पोषण तुम अच्छे से करोगे। और इस बात का कभी भी इसको पता नहीं चलने दोगे के मैं इस अभागे का सगा पिता हूँ।

इससे पहले नरसिम्हा कुछ पूछता हम्जा ने उसको अपने विश्राम करने की व्यवस्था करवाने का आदेश दिया, क्योंकि वो बेहद थक चुका था।

अब नरसिम्हा में भी कुछ और पूछने का साहस न रहा। उसको भी लगा हम्जा एक लंबी अवधि तक संकटों से घिरा रहा होगा इस समय उसका विश्राम करना आवश्यक है।

कुछ सेवकों द्वारा हम्जा को एक कक्ष में भेज दिया गया, उन पांचों डाकुओं को बंधी बना कर उस युवक के हाथों कैद खाने में डलवा दिया गया। जब उन पांचों डाकुओं ने देखा कि हम्जा चला गया, तो उस युवक को मानसिक प्रताड़ना देने लगे, वो चाहते थे क्रोध वश वो युवक कोई गलती करें और उनको बंधिग्रह से भागने का अवसर प्राप्त हो।

बन्द होते ही उनमें से एक डाकू युवक की तरफ देख कर बोला " वैसे मस्त माल थी कमिनी रात भर नींद नहीं आएगी उसकी याद में।

युवक अपनी आँखों में क्रोध अग्नि को भर उसको घूरता है।

तभी दूसरा डाकू बोला " वैसे मजा तो उसको भी खूब आया पर शर्म के मारे कुछ बोल ना पाई।

इन पापियों की नीचता सारे बंधन लांघ चूंकि थी। वो ये भी नहीं सोच रहे थे जिसके बारे में वो अपशब्द निकाल रहे है। वो अब इस लोक में जीवित भी नहीं है। इस अंतिम शब्द प्रहार ने युवक को उनका वध करने के लिए प्रेरित कर दिया। और वो अपनी तलवार खिंच कर जैसे ही उनके पास बड़ा।

युवक के साथ आए सिपाही ने युवक को रोक लिया। और बड़े ही विनम्र भाव से बोला " जाने दो मित्र इन दुष्टों में और हम में एक बड़ा अंतर है। सभ्यता और अनुशासन का और हमारे देश और इसके कानून के प्रति ही हमारी निष्ठा हमें सभ्य समाज का अटूट अंग बनाती है। ये नीच तुम्हें उकसा कर तुम्हारे जरिए भागने की योजना बना रहे है। क्योंकि ये आने वाले कल से भयभीत है। तुम अधिक से अधिक उनको अभी मार कर कुछ क्षणों की पीड़ा दोगे। किन्तु इन्हें अभी जीवित छोड़ कर आने वाले कल के भय से हर क्षण झटपटा कर कष्ट भोगने पर विवश कर दोगे।

सिपाही की बातें युवक को समझ आ गई और उसने भी उनको अभी अनदेखा कर दिया।

अगले दिन तक राजा हम्जा राणा के जीवित होने की सूचना दोनों राज्य में आग की भांति फेल गई। और महल के बाहर उनसे मिलने आये हर तबके के शुभ चिंतकों की भीड़ जमा हो गई। मगर हम्जा ने किसी से भी मिलने से साफ इनकार कर दिया।

वही नरसिम्हा ने उनके प्रजा जनों में अपने बड़े भाई का प्रेम देख कर उनका दिल रखने के लिये ये बोल कर उन्हें वापिस भेज दिया। की अभी बड़े भाई साहब का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। राज वैध ने उनको कुछ दिन विश्राम करने का निवेदन किया है। आप सबसे मेरी विनती है। ईश्वर से अपने प्रिय राजा हम्जा के लिए प्राथना करें ताकि वो जल्द से जल्द स्वस्थ हो कर आपसे मिले।

इस बात को सुन लोगों को राजा से न मिलने का दुख तो हुआ। मगर साथ में उनके स्वस्थ को लेकर लोगों में चिंता भी हुई और लोग अपने अपने घर चले गए।

वही अपने कक्ष में लेटा हम्जा जब भी आँखों को बंद कर सोने की कोशिश करता है। तो उसके कानों में ख़ौफ़नाक चीखें और आँखों के सामने कुछ दर्दनाक दृश्य किसी चलचित्र की भांति आने शुरू हो जाते है। कभी किसी स्त्री का हम्जा पर खंजर से वार करना तो कभी उसी स्त्री की गोद से अपने साथ लाए बालक को छीनने का दृश्य उसके सामने बार बार आते रहते है। जिसके चलते हम्जा एक दर्द भरी चीख निकाल कर अपने दोनों कानों पर हाथ रख कर पागलों की तरह फुट-फुट कर रोता है।

जब कोई व्यक्ति अपने मनोभावों को छिपाने में निपुण हो और किसी हादसे से ऐसे व्यक्ति के मनोभाव भी अनियंत्रित हो जाए तो सोचिए वो हादसा कितना भयंकर भय भीत कर देने वाला होगा। जिसने पर्वत जैसे कठोर हृदय बन चुके हम्जा को भी बालकों की तरह फुट-फुट कर रोने पर विवश कर दिया।

थोड़ी ही देर में हम्जा खुद को संभाल कर पुर्न कठोर रूप धारण कर सैनिकों को बुलवा कर आदेश देता है। कि दोनों राज्यों में घोषणा करवाओ कल प्राप्त काल राम लीला मैदान में उन पांचों डाकुओं को उनके घीनोने अपराधों के लिए सब के सामने दंडित किया जाएगा और प्रत्येक घर से कम से कम एक सदस्य का होना अनिवार्य है। इसका विरोध करने वाले पर राजा द्वारा सख्त करवाई होगी।

हम्जा की बात सुन सैनिकों ने उनके आदेश अनुसार ही किया और अगली सुबह लोगों की भारी तादाद राम लीला मैदान में एकत्रित हुईं।

सभी ने सोचा था अधिक से अधिक उनको कुछ कोड़े लगा कर देश निकाला मिलेगा या आजीवन कारावास। और एक तरह से लोगों के लिए ये दंड उचित भी था। किंतु अन्य दिनों से विपरीत जो भयंकर दंड उन डाकुओं को मिला उसने सब की अंतरात्मा तक को भयभीत कर दिया। इतना भयानक दण्ड वो भी हम्जा के मुख से सुनना लोगों के लिये असम्भव सा था।

सबसे पहले उन सभी की चमड़ी नोकीले तेज धार चाकू से जगह- जगह से कटवाई जिसके चलते डाकुओं को अपार पीड़ा हुई। उनमें से कुछ तो कष्ट सहन न कर पाने के कारण अचेत तक हो गए मगर हम्जा ने उनको एक विशेष जड़ी बूटी सुंघा कर उनकी चेतना शक्ति फिर से लौटाई ताकि वो और भी कष्ट भोगे।

उसके बाद एक-एक कर उनको खोलते तेल में डाला गया। जब एक डाकू खोलते तेल में डाला जाता तो अगली बारी वाला डाकू ये देख कर भयंकर मानसिक पीड़ा से गुजरता और शारीरिक पीड़ा से कई गुना अधिक मानसिक पीड़ा होती है। जो वहाँ उपस्थित प्रत्येक नागरिक भोग रहा था। जब उनमें से कुछ नागरिक इस उत्पीड़न को देखने की क्षमता के ना होने के कारण वहाँ से जाने लगें तो हम्जा ने उन्हें कठोर चेतावनी देते हुए वही पर रुकने के लिए विवश कर दिया।

जिसकी कल्पना मात्र से मनुष्य का हृदय दहल जाता है। उसको अपने सामने होते हुए देखने के लिए हम्जा ने लोगों को विवश कर उनमें अत्यंत भय पैदा कर दिया।

और शायद यही हम्जा भी चाहता था लोगों में इतना भय भर देना की कोई कल्पना में भी अपराध ना करें।

इस अमानवीय दंड क्रिया को कर हम्जा अपने कक्ष में विश्राम कर रहा था तभी इस बात को सुन बड़े ही दुखी भाव के साथ नरसिम्हा कक्ष में प्रवेश करता है। और बोला " क्षमा करें भाई साहब लेकिन आपको कोई अधिकार नहीं की हमारे पूर्वजों द्वारा बनाए संविधान और नियम के विपरीत जा कर आप अपनी अमानवीय नीति अपनाए।

हम्जा तेश में आ कर बोला " मैं उन मानवीय नीतियों को नहीं मानता जिसके चलते अमानवीय अपराधियों का जन्म हो। धिक्कार है। ऐसी नीतियों पर जिसके कारण निर्दोषों की हत्या करने वाले राक्षस जीवित घूमते रहे।

नरसिम्हा भावुक होकर बोला " भाई साहब वो जीवन किस काम का जिसको सदैव भय के साये में जिया जाए। यदि निर्दोषों की रक्षा के लिए उनको मानसिक कष्ट देकर भय से बांधे रखना हो तो क्या उनका जीवन किसी ऐसे पशु के समान नहीं हो जाएगा जिसे पिंजरे में उसकी सुरक्षा के नाम पर कैद किया गया हो।

एक सच्चा राजा प्रजा जनों में अपना भय पैदा नहीं करता बल्कि अपने प्रति प्रेम आदर और सम्मान पैदा करता है। तभी वो प्रजा प्रिय सच्चा राजा बनता है।

ये अंतिम बातें हम्जा को उसके अतीत में ले गई। जहाँ उसके मस्तिष्क के किसी कोने में वो एक सुंदरी को ये शब्द बोलते सुनता है।

" एक सच्चा राजा प्रजा जनों में अपना भय पैदा नहीं करता बल्कि अपने प्रति प्रेम आदर और सम्मान पैदा करता है।

इस बात को याद कर अब हम्जा खुद को और अधिक ना सम्हाल पाया और जंगल से वापिस आने के बाद पहली बार वो अपने भाई से हाथ जोड़ कर क्षमा मांगता है।

नरसिम्हा को भी उसके भाई की आंखों से पछतावे के मोती छलकते दिखाई देते है। और वो भी भावुक हो कर अपने बड़े भाई के गले लग जाता है। हम्जा भी अबकी बार अपने मनोभावों को दबा ना पाया और अपने भाई से चिपक कर रोने लगा।

नरसिम्हा बोला " जब तक आप अपने ऊपर टूटे दुखों का वर्णन नहीं करेंगे तब तक ये आपको भीतर से खाता रहेगा। आप एक बार विश्वास तो करो। ताकि आपका भी मन हल्का हो।

और इन बातों को सुन हम्जा अपनी आप बीती बताना शुरू करता है।

तुम्हें याद होगा किस प्रकार हमारे बाल युग में पिता द्वारा उस जंगल में ना जानें के लिए हमें बार बार कठोर चेतावनी दी जाती थी। मगर उनकी हर चेतावनी हमारे भीतर उलटा प्रभाव डालती और हमारे भीतर जंगल को देखने की जिज्ञासा को और भी अधिक बड़ा जाती थी।

प्रति उत्तर में बाल युग की किसी स्मृति को याद कर नरसिम्हा एक शरारती हँसी हंस कर अपनी सहमति देता है।

आगे हम्जा बोला " किन्तु जंगल के भीतर जाने के बाद ही मुझे उसके भयानक अंधकार का पता चला, एक समय तो ऐसा भी आया कि मेरे भीतर अनंत निराशा ने घर कर लिया और मुझे लगने लगा मेरा पूरा जीवन इस जंगल में ही कट जाएगा।

नरसिम्हा हम्जा की बात काटते हुए बोला " मैंने आपको अपनी आँखों से मृत देखा था इस बात ने अभी तक मेरे मन में एक फ़ांस सी चुभो रखी है। अब जब बातें हो ही रही थी तो मुझसे ये बोले बिना ना रहा गया बाकी बीच में टोकने के लिये क्षमा चाहता हूँ।

नरसिम्हा के प्रश्न का उत्तर देते हुए हम्जा बोला" मैं ये तो नहीं जानता तुमने किस प्रकार मुझे मरते देखा परंतु उस जंगल में रह कर इतना तो जान चुका हूँ। कि जो भी तुमने देखा था वो एक छलावा था जो उस जंगल की नकारात्मक शक्तियों का एक मायाजाल था ताकि तुम भ्रमित हो कर मान लो कि मैं मर गया और फिर मेरा पीछा ना करो।

खेर जब मैं उस घुड़सवार का पीछा कर रहा था उस समय मैं जंगल में भूल वश नहीं बल्कि जानते बुझते घुसा था। मैंने उसका पीछा करते समय इतना तो समझ लिया था कि वो घुड़सवारी में निपुण है। साथ ही चतुर भी, जिसे बिना कोई योजना के पकड़ना असम्भव है। तो जब हम एक घुमाओ दार रास्ते पर आ गए। तो मैंने उस रास्ते से उतर झाड़ियों से हो कर उसको पकड़ने का निर्णय लिया ताकि उसको आसानी से पकड़ सकूँ मगर मेरी ये चालाकी मुझ पर ही भारी पड़ गई।

जल्दी बाजी में मैं दलदल में जा धंसा, अचानक गिरने से मेरे घोड़े ने एक जोरदार चीख निकाली जिसे उस घुड़सवार ने सुन लिया वो क्षण भर के लिए रुका फिर आगे बढ़ गया। मैं जानता था यदि जल्द ही कुछ ना किया गया तो मेरा मरना तय है। इसलिए चारों तरफ नज़रों को दौड़ा कर उस दलदल से बच निकलने का कोई उपाय सोचने लगा। तभी वो घुड़ सवार मुझे वापिस आता दिखा, पास आने पर मैंने उसके हाथों में एक मजबूत बैल देखी जिस देखते ही मैं समझ गया कि मुझे मुसीबत में देख वो मेरी सहायता के लिए बेल लेने ही गया था उसको पास से देखने पर मुझे ये भी समझ आ गया कि ये कोई पुरुष नहीं बल्कि महिला है। उसने बैल का एक सिरह एक मोटे वृक्ष से बांध दिया और उसका दूसरा सिरा मेरी और फेंक कर वहाँ से निकल गया। ताकि मैं उसको कोई हानि न पहुँचा सकूँ। इससे दो बात साफ हो गई थी। पहली वो एक । सद्भावना रखने वाली स्त्री थी दूसरी उसको मुझ पर रत्ती भर का भी विश्वास नहीं था नहीं तो वो मेरे प्राणों की रक्षा कर मुझसे मिलने के लिए अवश्य रुकती। उसके इस उपकार ने उससे मिलने की मेरी इच्छा शक्ति को और भी अधिक कर दिया और साथ में इस बात की भी ग्लानि होने लगी के वो मेरे ही भय के कारण इस जंगल में घुसी थी। यदि उसके साथ कुछ भी गलत हुआ तो उसका पाप मेरे सर है।

मैंने ठान ली उस घुड़सवार को सही और सुरक्षित इस जंगल से निकाले बिना मैं घर वापिस नहीं जाऊंगा।

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Hero tera

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अध्याय 3

खंड 7

लगभग कोस भर की दूरी तय कर हम्जा को उस स्त्री का घोड़ा मिला, जो अब जीवित नहीं था उसकी मृत्यु बड़े ही निर्दयता से उसकी गर्दन मरोड़ कर की थी। जिसके लिए अपार बल की आवश्यकता थी। ये देख कर हम्जा को चिंता और भय ने घेर लिया। हम्जा को उस स्त्री की चिंता होने लगी। साथी उस का भय भी था जिसने घोड़े की गर्दन को मरोड़ा, क्योंकि जो घोड़े की गर्दन को मरोड़ सकता है। उतना अधिक बल रखने वाले को मारना हम्जा की क्षमता से बहार था।

हम्जा अजीब कशमकश में फंसा उस स्त्री को खोजने लगा, साथ ही कही से हमला ना हो इसके लिए भी सतर्कता बरत रहा था।

तभी उसकी नज़र एक विशाल वृक्ष पर पड़ी, जिसके आड़ में छुपती उस स्त्री की झलक हम्जा को दिखी, उसे देख कर हम्जा थोड़ा असावधान हो गया था। वो स्त्री की ओर बड़ा तभी उस स्त्री ने हम्जा पर धोके से एक नोकीले तेज खंजर द्वारा सीने पर वार कर दिया।

जब उस ने हम्जा को देखा तो वो घबरा गई उसको देख कर स्पष्ट था कि उसने हम्जा के होने की अपेक्षा नहीं कि थी।

पर अब वार हो चुका था स्त्री इस पर कोई प्रतिक्रिया देती उससे पहले कोई दैत्य आकार राक्षस उसके बालो को अपने हाथों से पकड़ कर खिंचने लगा। वो भीमकाय आकर का था जिसके सर पर दो सींग भी थे उसके जबड़ों से राल टपक रही थी। उसका पंजा स्त्री के सर से भी दुगना था।

स्त्री की दयनीय स्थिति ने हम्जा के भीतर कर्तव्य की असाधारण शक्ति का विकास कर दिया। वो अपनी पूरी ताकत के साथ खड़ा हुआ। और उस विशाल राक्षस पर अपनी तलवार से एक जोरदार प्रहार किया। मगर उस राक्षस की चमड़ी बड़ी विचित्र थी जैसे पत्थर हो इसलिये तलवार के प्रहार से उसको एक खरोंच तक नहीं आई, उलटा उस तलवार की धार खुदड़ी हो गई। राक्षस को हम्जा के वार से क्रोध आ गया। उसने स्त्री को छोड़ कर हम्जा की गर्दन एक हाथ से दबोच ली और फिर हम्जा को उसी हाथ से उठाने लगे। उस राक्षस की मजबूत पकड़ के कारण हम्जा से सांस नहीं ली जा रही थी हम्जा को कुछ सुझा नहीं तो उसने अपने सीने में लगे खंजर को निकाल कर एक और बार असफल प्रहार किया जो इस बार चमत्कारी रूप से सफल हुआ। हम्जा ने तेजी से उसके कानों में खंजर को घोंपा और निकाल लिया। जिससे उस राक्षस को पीड़ा होने लगी और उसने हम्जा को एक ओर फेंक दिया। हम्जा को लगा जरूर इस राक्षस की कमजोरी उसका सर है। और इसी को मान कर उसने पास के एक वृक्ष पर फुर्ती से चढ़ कर उस राक्षस पर एक छलांग लगाई और उसके सर को अपना लक्ष्य साधा तभी वो राक्षस हम्जा को देख कर वहाँ से हटा और हम्जा का लक्ष्य चूक गया और उस राक्षस के सर की जगह उसका सीना सामने आ गया।

मगर ये क्या हम्जा का खंजर इस बार उसके सीने में भी जा धसा और हम्जा खंजर की तेज धार और अपने वज़न के बल से उस खंजर को झटका दे कर नीचे खिंच कर ले आता है। जिसके कारण राक्षस के सीने से पेट तक एक बड़ा सा चीरा लग गया।

और उसका सारा रक्त हम्जा के ऊपर आ गिरा वो तो शुक्र था ईश्वर का की राक्षस के मरते ही वो हम्जा के ऊपर नहीं गिरा बल्कि उसके विपरीत गिरा जहाँ। अब तक हम्जा के घाव से भी काफी रक्त बह गया था। जिसके कारण बिना किसी चेतावनी के वो भी मूर्छित हो कर धरती पर गिर पड़ा।

जब हम्जा को होश आया तो वे खुद को झाड़ियों से बनी अस्थायी झोंपड़ी में पाता है। जिसको शायद उस स्त्री ने ही बनाया था उसके शरीर पर ऊपरी वस्त्र भी नहीं थे और चेहरे पर गिरा रक्त भी साफ किया जा चुका था उसके घाव पर कुछ जड़ी बूटियों को मकड़ी के जालो की सहायता से चिपकाया हुआ था। इन सब को देख कर हम्जा को समझते देर ना लगी कि ये सारी व्यवस्था उस कन्या द्वारा ही कि गई होगी।

थोड़ी देर बाद हम्जा को झोंपड़े के बाहर किसी की आहट सुनाई दी तो हम्जा वहाँ से बाहर आ कर देखता है। वो युवती भोजन की व्यवस्था कर रही थी।

अब तक जब भी हम्जा का उस युवती से सामना हुआ वो अजीब हालातों में था जिसके कारण वो युवती के सौंदर्य को ढंग से देख ही नहीं पाया, मगर अब वो एक नए रूप का अनुभव कर रहा था। उस स्त्री की सुंदरता सच में अत्यंत मनमोहक थी जिसके समक्ष संसार की कोई सुंदरी न टिक पति। हम्जा भी उसकी सुंदरता और उसके दया भाव का प्रेमी हो गया था। न जाने क्यों उस स्त्री के प्रति उसका मन एक प्रेमी की भांति चंचल होने लगा, उस सुंदरी को किसी के अपने पीछे खड़े होने का एहसास हुआ और झट से खड़ी हो कर अपनी तलवार एक कुशल योद्धा की तरह हम्जा की गर्दन पर ला रोकती है। और अगले ही क्षण हम्जा को देख कर तलवार पीछे कर लेती है। फिर बिना कुछ बोले अपने काम में दोबारा लग गई।

" मैं कितने समय से मूर्छित हूँ। हम्जा आदरपूर्वक पूछता है।

" दो दिनों से, युवती बेरुखी से बोली।

" यानी आप पिछले दो दिनों से मेरे लिए कष्ट उठा रही हो। भगवान ने आपको बाहरी और भीतरी दोनों प्रकार की सुंदरता प्रदान की है। मैं आपके उपकारों का आभारी हूं। वैसे मैं वसुंधरा राज्य का नरेश राजा हम्जा राणा हूँ और आपका परिचय।

इससे आगे हम्जा और कुछ बोल पाता उस से पहले वो कन्या क्रोधित हो कर फुर्ती से हम्जा की गर्दन पर अपना खंजर लगा कर तीखे स्वर में बोली " मैं गजेश्वर राज्य के महा नायक और तुम्हारे शत्रुघ्न स्वर्गवासी राजा भानु उदय की तुम्हारे कारण एक लोती बची संतान अम्बाला हूँ। माना मेरे पिता द्वारा कई पाप हुए लेकिन उससे अधिक बड़ा पाप मुझसे हुआ जो अपने पिता के शत्रु और अपने भाई के हत्यारे पर दया की, किन्तु अब मुझमें और अधिक धैर्य नहीं है। जो मैं तुम्हारी बकवास को सुन सकूँ। तो तुम्हारे लिए यही सही होगा कि आज और चुप बैठो नहीं तो सदैव के लिए चुप्पी साध लोगे, कल तक तुम खुद की देखभाल करने योग्य हो जाओगे उसके बाद मैं अपने रास्ते और तुम अपने रास्ते,

ये सब बोलते समय भले ही उसके मुख पर क्रोध था मगर उसकी आँखों मे एक अजीब सी चमक थी जो उसके मन का भेद किसी ओर ही रूप को दर्शा रही थी जो हम्जा से न छुप सका।

असल में अम्बाला के भीतर भी हम्जा के प्रति एक आकर्षण पैदा हो गया था जो अम्बाला को हम्जा से भी अधिक भय दे रहा था। वो डर रही थी कही उसको हम्जा से प्रेम न हो जाए, इसलिये खुद को बार बार इस बात को याद कराती की हम्जा कौन है। और सदियों से उन दोनों के परिवारों के संबंध क्या है।

इसी बीच हम्जा के मधुर शब्द उसके कानों पर पड़े जिससे उसका खुद पर से नियंत्रण जाने सा लगा। और वो इस अपेक्षा में हम्जा की गर्दन पर नोकीला खंजर रख कर उसको कठोर वचन सुनाती है। कि इसके बाद हम्जा शांत होकर बैठ जाएगा और वो आसानी से खुद पर नियंत्रण कर लेगी।

लेकिन इसके विपरीत हम्जा खुद के प्राणों का समर्पण अम्बाला के चरणों पर करता हुआ बोला " यदि तुम्हारे समक्ष मेरा मूल्य केवल तुम्हारे भाई के हत्यारे जितना है। जिसके प्राण हर तुम्हारे भीतर सुख पैदा होगा, तो इससे अधिक सौभाग्य की बात मेरे लिये और कोई नहीं हो सकती कि मेरे प्राण तुम्हारी प्रसन्नता के लिए तुम्हारे द्वारा निकाल लिए जाए।

हम्जा की बातों ने अब अम्बाला को पूरी तरह से खोल दिया और वो जान गई कि केवल वही नहीं हम्जा भी उससे उतना ही प्रेम करता है। वो हम्जा के गले लग गई। और ऐसा करने से वो खुद को ना रोक पाई। इसके बाद दो पवित्र प्रेमियों का मिलन हुआ। जिनका मिलना भाग्य ने पहले से रच रखा था जिनका मिलना प्रकृति का एक कल्याण मार्ग था। जिनके मिलने पर भविष्य के संसार की सुरक्षा का भार था।

उनका मिलन एक पवित्र मेल था जिसमें दो पावन आत्माओं का संगम हुआ।

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