• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Erotica फागुन के दिन चार

xforum

Welcome to xforum

Click anywhere to continue browsing...

komaalrani

Well-Known Member
22,873
60,996
259
फागुन के दिन चार भाग ३५ -हवा में दंगा पृष्ट४०९

अपडेट पोस्टेड

कृपया पढ़ें, लाइक करें और कमेंट जरूर दें
 
Last edited:
  • Like
Reactions: Sutradhar

komaalrani

Well-Known Member
22,873
60,996
259
फागुन के दिन चार


----
" फागुन के दिन चार " मेरी लम्बी कहानी बल्कि यूँ कहें की उपन्यास है। इसका काल क्रम २१ वी शताब्दी के शुरू के दशक हैं, दूसरे दशक की शुरुआत लेकिन फ्लैश बैक में यह कहानी २१ वीं सदी के पहले के दशक में भी जाती है.

कहानी की लोकेशन, बनारस और पूर्वी उत्तरप्रदेश से जुडी है, बड़ोदा ( वड़ोदरा ) और बॉम्बे ( मुंबई ) तक फैली है और कुछ हिस्सों में देश के बाहर भी आस पास चली आती है। मेरा मानना है की कहानी और उसके पात्र किसी शून्य में नहीं होने चाहिए, वह जहां रहते हैं, जिस काल क्रम में रहते हैं, उनकी जो अपनी आयु होती है वो उनके नजरिये को , बोलने को प्रभावित करती है और वो बात एक भले ही हम सेक्सुअल फैंटेसी ही लिख रहे हों उसका ध्यान रखने की कम से कम कोशिश करनी चाहिए।

लेकिन इसके साथ ही कहानी को कुछ सार्वभौम सत्य, समस्याओं से भी दो चार होना पड़ता है और होना चाहिए।

जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कहानी फागुन में शुरू होती है और फागुन हो, बनारस हो फगुनाहट भी होगी, होली बिफोर होली भी होगी।

लेकिन होली के साथ एक रक्तरंजित होली की आशंका भी क्षितिज पर है और यह कहानी उन दोनों के बीच चलती है इसलिए इसमें इरोटिका भी है और थ्रिलर भी जीवन की जीवंतता भी और जीवन के साथ जुडी मृत्यु की आशंका भी। इरोटिका का मतलब मेरे लिए सिर्फ देह का संबंध ही नहीं है , वह तो परिणति है। नैनों की भाषा, छेड़छाड़, मनुहार, सजनी का साजन पर अधिकार, सब कुछ उसी ' इरोटिका ' या श्रृंगार रस का अंग है। इसलिए मैं यह कहानी इरोटिका श्रेणी में मैं रख रही हूँ .

और इस कहानी में लोकगीत भी हैं, फ़िल्मी गाने भी हैं, कवितायें भी है

पर जीवन के उस राग रंग रस को बचाये रखने के लिए लड़ाई भी लड़नी होती है जो अक्सर हमें पता नहीं होती और उस लड़ाई का थ्रिलर के रूप में अंश भी है इस कहानी में।

किसी एक टैग में जिंदगी को समेटना मुश्किल है और कहानी को भी। कहानी के कुछ रंग कर्टेन रेजर या पूर्वाभास के तौर पर मैं प्रस्तुत करुँगी, सतरंगी रंग कुछ इरोटिका के कुछ थ्रिलर के. कुछ उन शहरों के जहाँ यह कहानी चक्कर काटती है.

आप का दुलार, प्यार, साथ , आशीष मिलेगा तो अगले सप्ताह से यहाँ पोस्ट करना शुरू करुँगी


अगर समय मिला, मुझे, मेरे पाठक मित्रों को तो कोशिश करुँगी महीने में तीन चार भाग जरूर पोस्ट कर दूँ ,




तो पूर्वाभास की शुरआत के पहले इस कहानी के ही एक अंश से



और साथ में टीवी चैनेल वाले ये भी बताना नहीं भूलंगे की यहाँ के लोग पढ़ने, काम ढूँढ़ने बाहर जाते हैं, कोई खास रोजगार का जरिया यहां नहीं है।



लेकिन ये दर्द सिर्फ एक शहर का नहीं, शायद पूरे पूर्वांचल का है, और जमाने से है। मारीशस, फिजी, गुयाना, पूर्वांचल के लोग गए, और शूगर केन प्लांटेशन से लेकर अनेक चीजें, उनकी मेहनत का नतीजा है। वहां फैली क्रियोल, भोजपुरी, चटनी संगीत यह सब उन्हीं दिनों के चिन्ह है।



और उसके बाद अपने देश में भी, चाहे वह बंगाल की चटकल मिलें हो।



बम्बई (अब मुम्बई) और अहमदाबाद की टेक्सटाइल मिल्स पंजाब के खेत, काम के लिए। और सिर्फ काम की तलाश में ही नहीं, इलाज के लिए बनारस, लखनऊ, दिल्ली जाते हैं। पढ़ने के लिए इलाहबाद, दिल्ली जाते हैं।



लेकिन कौन अपनी मर्जी से घर छोड़कर काले कोस जाना चाहता है? उसी के चलते लोकगीतों में रेलिया बैरन हो गई, और अभी भी हवाओं में ये आवाज गूँजती रहती है-




भूख के मारे बिरहा बिसरिगै, बिसरिगै कजरी, कबीर।

अब देख-देख गोरी के जुबना, उठै न करेजवा में पीर।
 
Last edited:

komaalrani

Well-Known Member
22,873
60,996
259
इंडेक्स
--पूर्वाभास - कुछ प्रणय प्रसंग ( इरोटिका )- बनारस की एक शाम -------पृष्ठ १
सुबह सबेरे -गुड्डी और गूंजा---पृष्ठ १
बड़े अरमानों से रखा है बलम तेरी कसम,--पृष्ठ १
अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है।---पृष्ठ १



थ्रिलर १ - स्कूल में बॉम्ब - -- पृष्ठ ६
थ्रिलर २ समुद्र और बनारसी बाला -रीत पृष्ठ ७

-------------------------------------------
भाग १ फागुन की फगुनाहट पृष्ठ ११

भाग २ रस बनारस का --चंदा भाभी - पृष्ठ १९

भाग ३ फगुनाई शाम बनारस की-------पृष्ठ ३८

भाग ४ चंदा भाभी और होली का राशिफल पृष्ठ ५८
भाग ५ चंदा भाभी की पाठशाला पृष्ठ ७२
भाग ६ - चंदा भाभी, ---अनाड़ी बना खिलाड़ी पृष्ठ ८१
भाग ७ - गुड्डी -गुड मॉर्निंग पृष्ठ ९०

भाग ८ - चिकनी चमेली, पृष्ठ १२०
भाग ९ रीत की रीत रीत ही जाने पृष्ठ १३२
भाग १० रीत -मस्ती, म्यूजिक, डांस - पृष्ठ १४६
भाग ११ आज रंग है - रस की होली पृष्ठ १६०
भाग १२ - पहले रंगाई फिर धुलाई पृष्ठ १६३
भाग १३ - होली का धमाल - पृष्ठ १७५
भाग १४ - संध्या भाभी पृष्ठ १९४
भाग १५ दूबे भाभी पृष्ठ २०९
भाग 16 - गुड्डी और रीत -होली की मस्ती पृष्ठ २१४

भाग १७ -- रसिया को नार बनाउंगी पृष्ठ 234
भाग १८ मस्ती होली की, बनारस की पृष्ठ २३८


भाग १९ गुंजा और गुड्डी पृष्ठ 255
भाग २० संध्या भाभी पृष्ठ २७०
भाग २१ संध्या भाभी और गुड्डी पृष्ठ २७६
भाग २२ - मस्ती संध्या भाभी संग - पृष्ठ २९१

भाग २३ गुड्डी, बनारस की गलियां और शॉपिंग पृष्ठ २९९

भाग २४ मस्ती गुड्डी की -मजे शॉपिंग के पृष्ठ ३०६


भाग २५ रंग पृष्ठ ३०८
भाग २६, पूर्वांचल, और... पृष्ठ ३१८


भाग २७ मैं, गुड्डी और होटल पृष्ठ ३२५
भाग २८ आतंकी हमले की आशंका पृष्ठ ३३५
भाग २९ गुड्डी का प्लान पृष्ठ ३४३
भाग ३० कौन है चुम्मन ? पृष्ठ ३४७
भाग ३१ --- चू दे कन्या विद्यालय- प्रवेश और गुड्डी के आनंद बाबू पृष्ठ ३५3

भाग ३२ - आपरेशन गुंजा + + पृष्ठ ३५९
भाग ३३ - महक -अंदर की बात, पृष्ठ ३९१


भाग ३४ - मॉल में माल- महक पृष्ठ ३९८

भाग ३५ - हवा में दंगा पृष्ठ ४०९
 
Last edited:
xforum

Welcome to xforum

Click anywhere to continue browsing...

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
20,589
41,371
259
इस बार आपकी कहानी शुरू से पढूंगा। बीच में पढ़ने में मजा नही आता।

बधाई हो नए सूत्र की, और आशा है कि हर कहानी की तरह इसमें भी आपके शब्दों के जादू से सब मोहित हो।
 
xforum

Welcome to xforum

Click anywhere to continue browsing...

komaalrani

Well-Known Member
22,873
60,996
259
1. बनारस की शाम ( पूर्वाभास कुछ झलकियां )

shalwar-10.jpg


हम स्टेशन से बाहर निकल आये थे। मेरी चोर निगाहें छुप छुप के उसके उभार पे,... और मुझे देखकर हल्की सी मुस्कराहट के साथ गुड्डी ने दुपट्टा और ऊपर एकदम गले से चिपका लिया और मेरी ओर सरक आई ओर बोली, खुश।


“एकदम…” और मैंने उसकी कमर में हाथ डालकर अपनी ओर खींच लिया।

“हटो ना। देखो ना लोग देख रहे हैं…” गुड्डी झिझक के बोली।

“अरे लोग जलते हैं। तो जलने दो ना। जलते हैं और ललचाते भी हैं…” मैंने अपनी पकड़ और कसकर कर ली।

“किससे जलते हैं…” बिना हटे मुस्करा के गुड्डी बोली।

“मुझ से जलते हैं की कितनी सेक्सी, खूबसूरत, हसीन…”

मेरी बात काटकर तिरछी निगाहों से देख के वो बोली- “इत्ता मस्का लगाने की कोई जरूरत नहीं…”

“और ललचाते तुम्हारे…” मैंने उसके दुपट्टे से बाहर निकले किशोर उभारों की ओर इशारा किया।

“धत्त। दुष्ट…” और उसने अपने दुपट्टे को नीचे करने की कोशिश की पर मैंने मना कर दिया।

“तुम भी ना,… चलो तुम भी क्या याद करोगे। लोग तुम्हें सीधा समझते हैं…” मुश्कुराकर गुड्डी बोली ओर दुपट्टा उसने और गले से सटा लिया।

“मुझसे पूछें तो मैं बताऊँ की कैसे जलेबी ऐसे सीधे हैं…” और मुझे देखकर इतरा के मुस्करा दी।



“तुम्हारे मम्मी पापा तो…”

मेरी बात काटकर वो बोली- “हाँ सच में स्टेशन पे तो तुमने। मम्मी पापा दोनों ही ना। सच में कोई तुम्हारी तारीफ करता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है…” और उसने मेरा हाथ कसकर दबा दिय

“सच्ची?”

“सच्ची। लेकिन रिक्शा करो या ऐसे ही घर तक ले चलोगे?” वो हँसकर बोली।



चारों ओर होली का माहौल था। रंग गुलाल की दुकानें सजी थी। खरीदने वाले पटे पड़ रहे थे। जगह-जगह होली के गाने बज रहे थे। कहीं कहीं जोगीड़ा वाले गाने। कहीं रंग लगे कपड़े पहने। तब तक हमारा रिक्शा एक मेडिकल स्टोर के सामने से गुजरा ओर वो चीखी- “रोको रोको…”

“क्यों कया हुआ, कुछ दवा लेनी है क्या?” मैंने सोच में पड़ के पूछा।

“हर चीज आपको बतानी जरूरी है क्या?”उस सारंग नयनी ने हड़का के कहा।

वो आगे आगे मैं पीछे-पीछे।

“एक पैकेट माला-डी और एक पैकेट आई-पिल…” मेरे पर्स से निकालकर उसने 100 की नोट पकड़ा दी।


रिक्शे पे बैठकर हिम्मत करके मैंने पूछा- “ये…”

“तुम्हारी बहन के लिए है जिसका आज गुणगान हो रहा था। क्या पता होली में तुम्हारा मन उसपे मचल उठे। तुम ना बुद्धू ही हो, बुद्धू ही रहोगे…” फिर मेरे गाल पे कसकर चिकोटी काटकर उस ने हड़का के कहा।

फिर मेरे गाल पे कसकर चिकोटी काटकर वो बोली-

“तुमसे बताया तो था ना की आज मेरा लास्ट डे है। तो क्या पता। कल किसी की लाटरी निकल जाए…”



मेरे ऊपर तो जैसे किसी ने एक बाल्टी गुलाबी रंग डाल दिया हो, हजारों पिचकारियां चल पड़ी हों साथ-साथ। मैं कुछ बोलता उसके पहले वो रिक्शे वाले से बोल रही थी- “अरे भैया बाएं बाएं। हाँ वहीं गली के सामने बस यहीं रोक दो। चलो उतरो…”

गली के अन्दर पान की दुकान। तब मुझे याद आया जो चंदा भाभी ने बोला था। दुकान तो छोटी सी थी। लेकिन कई लोग। रंगीन मिजाज से बनारस के रसिये। लेकिन वो आई बढ़कर सामने। दो जोड़ी स्पेशल पान।

पान वाले ने मुझे देखा ओर मुश्कुराकर पूछा- “सिंगल पावर या फुल पावर?”

मेरे कुछ समझ में नहीं आया, मैंने हड़बड़ा के बोल दिया- “फुल पावर…”

वो मुश्कुरा रही थी ओर मुझ से बोली- “अरे मीठे पान के लिए भी तो बोल दो। एक…”

“लेकिन मैं तो खाता नहीं…” मैंने फिर फुसफुसा के बोला।

पान वाला सिर हिला हिला के पान लगाने में मस्त था। उसने मेरी ओर देखा तो गुड्डी ने मेरा कहा अनसुना करके बोल दिया- “मीठा पान दो…”

“दो। मतलब?” मैंने फिर गुड्डी से बोला।
वो मुश्कुराकर बोली- “घर पहुँचकर बताऊँगी की तुम खाते हो की नहीं?”

मेरे पर्स से निकालकर उसने 500 की नोट पकड़ा दी। जब चेंज मैंने ली तो मेरे हाथ से उसने ले लिया और पर्स में रख लिया। रिक्शे पे बैठकर मैंने उसे याद दिलाया की भाभी ने वो गुलाब जामुन के लिए भी बोला था।


“याद है मुझे गोदौलिया जाना पड़ेगा, भइया थोड़ा आगे मोड़ना…” रिक्शे वाले से वो बोली।

“हे सुन यार ये चन्दा भाभी ना। मुझे लगता है की लाइन मारती हैं मुझपे…” मैं बोला।



हँसकर वो बोली-


“जैसे तुम कामदेव के अवतार हो। गनीमत मानो की मैंने थोड़ी सी लिफ्ट दे दी। वरना…”

मेरे कंधे हाथ रखकर मेरे कान में बोली- “लाइन मारती हैं तो दे दो ना। अरे यार ससुराल में आये हो तो ससुराल वालियों पे तेरा पूरा हक बनता है। वैसे तुम अपने मायके वाली से भी चक्कर चलाना चाहो तो मुझे कोई ऐतराज नहीं है…”

“लेकिन तुम। मेरा तुम्हारे सिवाय किसी और से…”

“मालूम है मुझे। बुद्धूराम तुम्हारे दिल में क्या है? यार हाथी घूमे गाँव-गाँव जिसका हाथी उसका नाम। तो रहोगे तो तुम मेरे ही। किसी से कुछ। थोड़ा बहुत। बस दिल मत दे देना…”

“वो तो मेरे पास है ही नहीं कब से तुमको दे दिया…”

“ठीक किया। तुमसे कोई चीज संभलती तो है नहीं। तो मेरी चीज है मैं संभाल के रखूंगी। तुम्हारी सब चीजें अच्छी हैं सिवाय दो बातों के…” गुड्डी, टिपिकल गुड्डी

तब तक मिठाई की दुकान आ गई थी ओर हम रिक्शे से उतर गए।

“गुलाब जामुन एक किलो…” मैंने बोला।

“स्पेशल वाले…” मेरे कान में वो फुसफुसाई।

“स्पेशल वाले…” मैंने फिर से दुकानदार से कहा।

“तो ऐसा बोलिए ना। लेकिन रेट डबल है…” वो बोला।

“हाँ ठीक है…” फिर मैंने मुड़कर गुड्डी से पूछा- “हे एक किलो चन्दा भाभी के लिए भी ले लें क्या?”

“नेकी और पूछ पूछ…” वो मुश्कुराई।

“एक किलो और। अलग अलग पैकेट में…” मैं बोला।

पैकेट मैंने पकड़े और पैसे उसने दिए। लेकिन मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रहा था-

“हे तुमने बताया नहीं की स्पेशल क्या? क्या खास बात है बताओ ना…”



“सब चीजें बताना जरूरी है तुमको। इसलिए तो कहती हूँ तुम्हारे अंदर दो बातें बस गड़बड़ हैं। बुद्धू हो और अनाड़ी हो। अरे पागल। होली में स्पेशल का क्या मतलब होगा, वो भी बनारस में…”
बनारसी बाला ने मुस्कराते हुए भेद खोला।


सामने जोगीरा चल रहा था। एक लड़का लड़कियों के कपड़े पहने और उसके साथ।

रास्ता रुक गया था। वो भी रुक के देखने लगी। और मैं भी।



जोगीरा सा रा सा रा। और साथ में सब लोग बोल रहे थे जोगीरा सारा रा।

तनी धीरे-धीरे डाला होली में। तनी धीरे-धीरे डाला होली में।
 
Last edited:
xforum

Welcome to xforum

Click anywhere to continue browsing...

komaalrani

Well-Known Member
22,873
60,996
259
पूर्वाभास कुछ झलकियां

(२) सुबहे बनारस - गुड्डी और गूंजा
Girl-school-IMG-20231123-070153.jpg
मेरी आँखें जब थोड़ी और नीचे उतरी तो एकदम ठहर गई। उसके उभार। उसके स्कूल की युनिफोर्म, सफेद शर्ट को जैसे फाड़ रहे हों और स्कूल टाई ठीक उनके बीच में, किसी का ध्यान ना जाना हो तो भी चला जाए। परफेक्ट किशोर उरोज। पता नहीं वो इत्ते बड़े-बड़े थे या जानबूझ के उसने शर्ट को इत्ती कसकर स्कर्ट में टाईट करके बेल्ट बाँधी थी।

पता नहीं मैं कित्ती देर तक और बेशर्मों की तरह देखता रहता, अगर गुड्डी ने ना टोका होता- “हे क्या देख रहे हो। गुंजा नमस्ते कर रही है…”

मैंने ध्यान हटाकर झट से उसके नमस्ते का जवाब दिया और टेबल पे बैठ गया। वो दोनों सामने बैठी थी। मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी और फिर आपस में फुसफुसा के कुछ बातें करके टीनेजर्स की तरह खिलखिला रही थी। मेरे बगल की चेयर खाली थी।


मैंने पूछा- “हे चंदा भाभी कहाँ हैं?”

“अपने देवर के लिए गरमा-गरम ब्रेड रोल बना रही हैं। किचेन में…” आँख नचाकर गुंजा बोली।

“हम लोगों के उठने से पहले से ही वो किचेन में लगी हैं…” गुड्डी ने बात में बात जोड़ी।

मैंने चैन की सांस ली।

तब तक गुड्डी बोली- “हे नाश्ता शुरू करिए ना। पेट में चूहे दौड़ रहे हैं हम लोगों के और वैसे भी इसे स्कूल जाना है। आज लास्ट डे है होली की छुट्टी के पहले। लेट हो गई तो मुर्गा बनना पड़ेगा…”

“मुर्गा की मुर्गी?” हँसते हुए मैंने गुंजा को देखकर बोला। मेरा मन उससे बात करने को कर रहा था लेकिन गुड्डी से बात करने के बहाने मैंने पूछा- “लेकिन होली की छुट्टी के पहले वाले दिन तो स्कूल में खाली धमा चौकड़ी, रंग, ऐसी वैसी टाइटिलें…”


मेरी बात काटकर गुड्डी बोली- “अरे तो इसीलिए तो जा रही है ये। आज टाइटिलें…”

उसकी बात काटकर गुंजा बीच में बोली- “अच्छा दीदी, बताऊँ आपको क्या टाइटिल मिली थी…”


गुड्डी- “मारूंगी। आप नाश्ता करिए न कहाँ इसकी बात में फँस गए। अगर इसके चक्कर में पड़ गए तो…”

लेकिन मुझे तो जानना था। उसकी बात काटकर मैंने गुंजा से पूछा- “हे तुम इससे मत डरो मैं हूँ ना। बताओ गुड्डी को क्या टाइटिल मिली थी?”

हँसते हुए गुंजा बोली- “बिग बी…”

पहले तो मुझे कुछ समझ नहीं आया ‘बिग बी’ मतलब लेकिन जब मैंने गुड्डी की ओर देखा तो लाज से उसके गाल टेसू हो रहे थे, और मेरी निगाह जैसे ही उसके उभारों पे पड़ी तो एक मिनट में बात समझ में आ गई। बिग बी। बिग बूब्स । वास्तव में उसके अपने उम्र वालियों से 20 ही थे।

गुड्डी ने बात बदलते हुए मुझसे कहा- “हे खाना शुरू करो ना। ये ब्रेड रोल ना गुंजा ने स्पेशली आपके लिए बनाए हैं…”

“जिसने बनाया है वो दे…” हँसकर गुंजा को घूरते हुए मैंने कहा।

मेरा द्विअर्थी डायलाग गुड्डी तुरंत समझ गई। और उसी तरह बोली- “देगी जरूर देगी। लेने की हिम्मत होनी चाहिए, क्यों गुंजा?”

“एकदम…” वो भी मुश्कुरा रही थी। मैं समझ गया था की सिर्फ शरीर से ही नहीं वो मन से भी बड़ी हो रही है।

गुड्डी ने फिर उसे चढ़ाया- “हे ये अपने हाथ से नहीं खाते, इनके मुँह में डालना पड़ता है अब अगर तुमने इत्ते प्यार से इनके लिए बनाया है तो। …”

“एकदम…” और उसने एक किंग साइज गरम ब्रेड रोल निकाल को मेरी ओर बढ़ाया। हाथ उठने से उसके किशोर उरोज और खुलकर। मैंने खूब बड़ा सा मुँह खोल दिया लेकिन मेरी नदीदी निगाहें उसके उरोजों से चिपकी थी।

“इत्ता बड़ा सा खोला है। तो डाल दे पूरा। एक बार में। इनको आदत है…” गुड्डी भी अब पूरे जोश में आ गई थी।

“एकदम…” और सच में उसकी उंगलियां आलमोस्ट मेरे मुँह में और सारा का सारा ब्रेड रोल एक बार में ही।

स्वाद बहुत ही अच्छा था। लेकिन अगले ही पल में शायद मिर्च का कोई टुकड़ा। और फिर एक, दो, और मेरे मुँह में आग लग गई थी। पूरा मुँह भरा हुआ था इसलिए बोल नहीं निकल रहे थे।

वो दुष्ट। गुंजा। अपने दोनों हाथों से अपना भोला चेहरा पकड़े मेरे चेहरे की ओर टुकुर-टुकुर देख रही थी।

“क्यों कैसा लगा, अच्छा था ना?” इतने भोलेपन से उसने पूछा की।

तब तक गुड्डी भी मेरी ओर ध्यान से देखते हुए वो बोली- “अरे अच्छा तो होगा ही तूने अपने हाथ से बनाया था। इत्ती मिर्ची डाली थी…”

मेरे चेहरे से पसीना टपक रहा था।

गुंजा बोली- “आपने ही तो बोला था की इन्हें मिर्चें पसंद है तो। मुझे लगा की आपको तो इनकी पसंद नापसंद सब मालूम ही होगी। और मैंने तो सिर्फ चार मिर्चे डाली थी बाकी तो आपने बाद में…”

इसका मतलब दोनों की मिली भगत थी। मेरी आँखों से पानी निकल रहा था। बड़ी मुश्किल से मेरे मुँह से निकला- “पानी। पानी…”

“ये क्या मांग रहे हैं…” मुश्किल से मुश्कुराहट दबाते हुए गुंजा बोली।

गुड्डी- “मुझे क्या मालूम तुमसे मांग रहे हैं। तुम दो…” दुष्ट गुड्डी भी अब डबल मीनिंग डायलाग की एक्सपर्ट हो गई थी।

पर गुंजा भी कम नहीं थी- “हे मैं दे दूंगी ना तो फिर आप मत बोलना की। …” उसने गुड्डी से बोला।


यहाँ मेरी लगी हुई थी और वो दोनों।

“दे दे। दे दे। आखिर मेरी छोटी बहन है और फागुन है तो तेरा तो…” बड़ी दरियादिली से गुड्डी बोली।

बड़ी मुश्किल से मैंने मुँह खोला, मेरे मुँह से बात नहीं निकल रही थी। मैंने मुँह की ओर इशारा किया।

“अरे तो ब्रेड रोल और चाहिए तो लीजिये ना…” और गुंजा ने एक और ब्रेड रोल मेरी ओर बढ़ाया- “और कुछ चाहिए तो साफ-साफ मांग लेना चाहिए। जैसे गुड्डी दीदी वैसे मैं…”

वो नालायक। मैंने बड़ी जोर से ना ना में सिर हिलाया और दूर रखे ग्लास की ओर इशारा किया। उसने ग्लास उठाकर मुझे दे दिया लेकिन वो खाली था। एक जग रखा था। वो उसने बड़ी अदा से उठाया।

“अरे प्यासे की प्यास बुझा दे बड़ा पुण्य मिलता है…” ये गुड्डी थी।

“बुझा दूंगी। बुझा दूंगी। अरे कोई प्यासा किसी कुंए के पास आया है तो…” गुंजा बोली और नाटक करके पूरा जग उसने ग्लास में उड़ेल दिया। सिर्फ दो बूँद पानी था।

“अरे आप ये गुझिया खा लीजिये ना गुड्डी दीदी ने बनायी है आपके लिए। बहुत मीठी है कुछ आग कम होगी तब तक मैं जाकर पानी लाती हूँ। आप खिला दो ना अपने हाथ से…”

वो गुड्डी से बोली और जग लेकर खड़ी हो गई।

गुड्डी ने प्लेट में से एक खूब फूली हुई गुझिया मेरे होंठों में डाल ली और मैंने गपक ली। झट से मैंने पूरा खा लिया। मैं सोच रहा था की कुछ तो तीतापन कम होगा। लेकिन जैसे ही मेरे दांत गड़े एकदम से, गुझिया के अन्दर बजाय खोवा सूजी के अबीर गुलाल और रंग भरा था। मेरा सारा मुँह लाल। और वो दोनों हँसते-हँसते लोटपोट।

तब तक चंदा भाभी आईं एक प्लेट में गरमागरम ब्रेड रोल लेकर। लेकिन मेरी हालत देखकर वो भी अपनी हँसी नहीं रोक पायीं, कहा- “क्या हुआ ये दोनों शैतान। एक ही काफी है अगर दोनों मिल गई ना। क्या हुआ?”

मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाया- “पानी…”

उन्होंने एक जासूस की तरह पूरे टेबल पे निगाह दौडाई जैसे किसी क्राइम सीन का मुआयना कर रही हों। वो दोनों चोर की तरह सिर झुकाए बैठी थी। फिर अचानक उनकी निगाह केतली पे पड़ी और वो मुश्कुराने लगी। उन्होंने केतली उठाकर ग्लास में पोर किया। और पानी।

रेगिस्तान में प्यासे आदमी को कहीं झरना नजर आ जाए वो हालत मेरी हुई। मैंने झट से उठाकर पूरा ग्लास खाली कर दिया। तब जाकर कहीं जान में जान आई। जब मैंने ग्लास टेबल पे रखा तब चन्दा भाभी ने मेरा चेहरा ध्यान से देखा। वो बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकने की कोशिश कर रही थी लेकिन हँसी रुकी नहीं। और उनके हँसते ही वो दोनों जो बड़ी मुश्किल से संजीदा थी। वो भी। फिर तो एक बार हँसी खतम हो और मेरे चेहरे की और देखें तो फिर दुबारा। और उसके बाद फिर।

“आप ने सुबह। हीहीहीही। आपने अपना चेहरा। ही ही शीशे में। हीहीहीही…” चन्दा भाभी बोली।

“नहीं वो ब्रश नहीं था तो गुड्डी ने। उंगली से मंजन। फिर…” मैंने किसी तरह समझाने की कोशिश की मेरे समझ में कुछ नहीं आ रहा था।



“जाइए जाइए। मैंने मना तो नहीं किया था शीशा देखने को। मगर आप ही को नाश्ता करने की जल्दी लगी थी। मैंने कहा भी की नाश्ता कहीं भागा तो नहीं जा रहा है। लेकिन ये ना। हर चीज में जल्दबाजी…” ऐसे बनकर गुड्डी बोली।

गुंजा- “अच्छा मैं ले आती हूँ शीशा…”

और मिनट भर में गुंजा दौड़ के एक बड़ा सा शीशा ले आई। लग रहा था कहीं वाशबेसिन से उखाड़ के ला रही हो और मेरे चेहरे के सामने कर दिया।

मेरा चेहरा फक्क हो गया। न हँसते बन रहा था ना।

तीनों मुश्कुरा रही थी।

मांग तो मेरी सीधी मुँह धुलाने के बाद गुड्डी ने काढ़ी थी। सीधी और मैंने उसकी शरारत समझा था। लेकिन अब मैंने देखा। चौड़ी सीधी मांग और उसमें दमकता सिन्दूर। माथे पे खूब चौड़ी सी लाल बिंदी, जैसे सुहागन औरतें लगाती है। होंठों पे गाढ़ी सी लाल लिपस्टिक और। जब मैंने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला तो दांत भी सारे लाल-लाल।

अब मुझे बन्दर छाप दन्त मंजन का रहस्य मालूम हुआ और कैसे दोनों मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी। ये भी समझ में आया। चलो होली है चलता है।

चन्दा भाभी ने मुझे समझाया और गुंजा को बोला- “हे जाकर तौलिया ले आ…”

उन्होंने गुड्डी से कहा- “हे हलवा किचेन से लायी की नहीं?”

मैं तुरंत उनकी बात काटकर बोला- “ना भाभी अब मुझे इसके हाथ का भरोसा नहीं है आप ही लाइए…”

हँसते हुए वो किचेन में वापस में चली गईं। गुंजा तौलिया ले आई और खुद ही मेरा मुँह साफ करने लगी। वो जानबूझ कर इत्ता सटकर खड़ी थी की उसके उरोज मेरे सीने से रगड़ रहे थे। मैंने भी सोच लिया की चलो यार चलता है इत्ती हाट लड़कियां।

मैंने गुड्डी को चिढ़ाते हुए कहा- “चलो बाकी सब तो कुछ नहीं लेकिन ये बताओ। सिंदूर किसने डाला था?”

गुंजा ने मेरा मुँह रगड़ते हुए पूछा- “क्यों?”

“इसलिए की सिन्दूर दान के बाद सुहागरात भी तो मनानी पड़ेगी ना। अरे सिन्दूर चाहे कोई डाले सुहागरात वाला काम किये बिना तो पूरा नहीं होगा ना काम…” मैंने हँसते हुए कहा।
 

Tiger 786

Well-Known Member
6,263
22,721
188
फागुन के दिन चार


----
" फागुन के दिन चार " मेरी लम्बी कहानी बल्कि यूँ कहें की उपन्यास है। इसका काल क्रम २१ वी शताब्दी के शुरू के दशक हैं, दूसरे दशक की शुरुआत लेकिन फ्लैश बैक में यह कहानी २१ वीं सदी के पहले के दशक में भी जाती है.

कहानी की लोकेशन, बनारस और पूर्वी उत्तरप्रदेश से जुडी है, बड़ोदा ( वड़ोदरा ) और बॉम्बे ( मुंबई ) तक फैली है और कुछ हिस्सों में देश के बाहर भी आस पास चली आती है। मेरा मानना है की कहानी और उसके पात्र किसी शून्य में नहीं होने चाहिए, वह जहां रहते हैं, जिस काल क्रम में रहते हैं, उनकी जो अपनी आयु होती है वो उनके नजरिये को , बोलने को प्रभावित करती है और वो बात एक भले ही हम सेक्सुअल फैंटेसी ही लिख रहे हों उसका ध्यान रखने की कम से कम कोशिश करनी चाहिए।

लेकिन इसके साथ ही कहानी को कुछ सार्वभौम सत्य, समस्याओं से भी दो चार होना पड़ता है और होना चाहिए।

जैसा की नाम से ही स्पष्ट है कहानी फागुन में शुरू होती है और फागुन हो, बनारस हो फगुनाहट भी होगी, होली बिफोर होली भी होगी।

लेकिन होली के साथ एक रक्तरंजित होली की आशंका भी क्षितिज पर है और यह कहानी उन दोनों के बीच चलती है इसलिए इसमें इरोटिका भी है और थ्रिलर भी जीवन की जीवंतता भी और जीवन के साथ जुडी मृत्यु की आशंका भी। इरोटिका का मतलब मेरे लिए सिर्फ देह का संबंध ही नहीं है , वह तो परिणति है। नैनों की भाषा, छेड़छाड़, मनुहार, सजनी का साजन पर अधिकार, सब कुछ उसी ' इरोटिका ' या श्रृंगार रस का अंग है। इसलिए मैं यह कहानी इरोटिका श्रेणी में मैं रख रही हूँ .

और इस कहानी में लोकगीत भी हैं, फ़िल्मी गाने भी हैं, कवितायें भी है

पर जीवन के उस राग रंग रस को बचाये रखने के लिए लड़ाई भी लड़नी होती है जो अक्सर हमें पता नहीं होती और उस लड़ाई का थ्रिलर के रूप में अंश भी है इस कहानी में।

किसी एक टैग में जिंदगी को समेटना मुश्किल है और कहानी को भी। कहानी के कुछ रंग कर्टेन रेजर या पूर्वाभास के तौर पर मैं प्रस्तुत करुँगी, सतरंगी रंग कुछ इरोटिका के कुछ थ्रिलर के. कुछ उन शहरों के जहाँ यह कहानी चक्कर काटती है.

आप का दुलार, प्यार, साथ , आशीष मिलेगा तो अगले सप्ताह से यहाँ पोस्ट करना शुरू करुँगी


अगर समय मिला, मुझे, मेरे पाठक मित्रों को तो कोशिश करुँगी महीने में तीन चार भाग जरूर पोस्ट कर दूँ ,




तो पूर्वाभास की शुरआत के पहले इस कहानी के ही एक अंश से



और साथ में टीवी चैनेल वाले ये भी बताना नहीं भूलंगे की यहाँ के लोग पढ़ने, काम ढूँढ़ने बाहर जाते हैं, कोई खास रोजगार का जरिया यहां नहीं है।



लेकिन ये दर्द सिर्फ एक शहर का नहीं, शायद पूरे पूर्वांचल का है, और जमाने से है। मारीशस, फिजी, गुयाना, पूर्वांचल के लोग गए, और शूगर केन प्लांटेशन से लेकर अनेक चीजें, उनकी मेहनत का नतीजा है। वहां फैली क्रियोल, भोजपुरी, चटनी संगीत यह सब उन्हीं दिनों के चिन्ह है।



और उसके बाद अपने देश में भी, चाहे वह बंगाल की चटकल मिलें हो।



बम्बई (अब मुम्बई) और अहमदाबाद की टेक्सटाइल मिल्स पंजाब के खेत, काम के लिए। और सिर्फ काम की तलाश में ही नहीं, इलाज के लिए बनारस, लखनऊ, दिल्ली जाते हैं। पढ़ने के लिए इलाहबाद, दिल्ली जाते हैं।



लेकिन कौन अपनी मर्जी से घर छोड़कर काले कोस जाना चाहता है? उसी के चलते लोकगीतों में रेलिया बैरन हो गई, और अभी भी हवाओं में ये आवाज गूँजती रहती है-




भूख के मारे बिरहा बिसरिगै, बिसरिगै कजरी, कबीर।

अब देख-देख गोरी के जुबना, उठै न करेजवा में पीर।
Komal ji Maine apki yeh kahani xossip pe padi thi par Puri nahi pad paya,chalo ek bar phir se ek adbhut or Sundar kahani padne ko milegi,apko bohot bohot shubkamnaye👏👏👏👏
 

Umakant007

चरित्रं विचित्रं..
4,108
5,315
144
ए जिज्जी, Welcome 🤗😁... With a New B00M...

होली के पूर्व ही होली का एक जोगीरा वैभव और रागिनी के पुनर्विवाह {प्रेम विवाह} के उपलक्ष्य में:-

बनवा बीच कोयलिया बोले, पपीहा नदी के तीर
अँगना में भोजइया डोले, जैसे झलके नीर

जोगीरा सा रा रा रा रा।
जोगीरा सा रा रा रा रा...
 
Last edited:
xforum

Welcome to xforum

Click anywhere to continue browsing...

komaalrani

Well-Known Member
22,873
60,996
259
( 3) बड़े अरमानों से रखा है बलम तेरी कसम,

प्यार की दुनियां में ये पहला कदम

Teej-Janhavi-Y-desktop-wallpaper-jahnavi-kapoor-bollywood-actress-seductive.jpg


लोग कहते हैं इश्क चाँद की तरह होता है। या तो बढ़ता है या घटता है। और यहाँ तो शुक्ल पक्ष अभी लगा ही था।

गुड्डी ने बताया की, वो परवान चढ़ा जब वो लोग लखनऊ गए एक इंटर कालेज कल्चरल फेस्ट में।


एक तो अपने शहर से दूर, दूसरे लखनऊ वैसे भी मुहब्बत और शायरी के लिए मशहूर। फेस्ट ल मार्टीनयर स्कूल में था। और रीत का स्कूल कभी तीसरे चौथे नंबर से ऊपर नहीं आ पाता था। पहले और दूसरे नंबर पे लखनऊ और नैनीताल के कान्वेंट स्कूल ही अक्सर रहते थे।

पहले तो हेड गर्ल ने बहुत नाक भौं सिकोड़ी की कोई नाइन्थ की लड़की जाय। लेकिन करन की जिद और आधी इवेंट्स में तो वही पार्टिसिपेट करने वाला था। लास्ट इवेंट के पहले तक उनका कालेज चौथे नंबर पर था। लेकिन सबसे ज्यादा बड़ी इवेंट अभी बाकी थी,

म्यूजिकल क्विज की।

रीत ने चार इवेंट में भाग लिया वो एक में फर्स्ट आई थी, वेस्टर्न डांस में, इन्डियन क्लासिकल और फिल्म में सेकंड और वेस्टर्न म्यूजिक में थर्ड। करन तीन इवेंट में फर्स्ट आया था और दो में सेकंड।

म्यूजिकल क्विज की इवेंट पचास नम्बर की थी और इसके तीन राउंड थे। फर्स्ट राउंड के तीस नम्बर थे। और इसमें फर्स्ट फोर टीम, सेकंड और थर्ड राउंड में भाग ले सकती थी। लेकिन वो राउंड आप्शनल थे और उसमें दस नम्बर मिलते जीतने वाली टीम को और लास्ट आने वाली दो टीम के पांच नम्बर कट जाते। थर्ड राउंड में सर्प्राइज पैकेट भी होता था।

म्यूजिकल क्विज शुरू हुई और उसमें रीत करन और वो हेड गर्ल तीनों ने भाग लिया। इस राउंड में तीन की टीम थी। और इसमें रीत का स्कूल फर्स्ट आ गया। अब ओवर आल रैंकिंग में वो लोग तीसरे पे आ गए थे। झगड़ा था नेक्स्ट राउंड में भाग लें की नहीं। दोनों राउंड इन्डियन फिल्म म्यूजिक पर थे।

हेड गर्ल बोली- “हमें नहीं पार्टिसिपेट करना चाहिए। अभी हमारी थर्ड पोजीशन तो सिक्योर है। अगर कहीं निएगेटिव नंबर मिल गए तो हम फोर्थ पे पहुँच जायेंगे।

लेकिन करन बोला यार नो रिस्क नो गेन। और रीत को लेकर पहुँच गया एंट्री देने।

चार टीमें थी। लखनऊ के दो कालेज लोरेटो और ल मार्टिनियर, नैनीताल से शेरवूड स्कूल। ये राउंड रिटेन था। और तीन पार्ट में। स्क्रीन पे एक सब्जेक्ट आता और कुछ कंडीशन और सारी टीमों को कागज पे लिख के देना होता। सबकी निगाहें स्क्रीन पे गड़ी थी। और एक ट्रेन की फोटो आई।

सब लोग इंतेजार कर रहे थे ट्रेन के बारे में पिक्चर का नाम। लेकिन जब डिटेल्स आये तो फूँक सरक गई। ट्रेन बे बेस्ड हिंदी गाने। ब्लैक एंड व्हाईट फिल्मो के, फिल्म और म्यूजिक डायरेक्टर के नाम के और पांच मिनट में जो टीम सबसे ज्यादा गानों के नाम लिखती वो फर्स्ट।

आडियेंस में बैठी लड़के लड़कियों ने जोर से बोऒ किया, ब्लैक एंड व्हाईट फिल्मो के गाने। करन ने भी परेशान होकर रीत की ओर देखा। लेकिन रीत कागज कलम लेकर तैयार। और जैसे ही अनाउंस हुआ।

योर टाइम स्टार्टस नाउ।

उसने लिखना शुरू किया। एक-दो गाने करन ने भी बताये।

और पांच मिनट के बाद

पांच मिनट खतम होते ही लिस्ट ले ली गई।

पहली टीम ने सिर्फ पांच गाने लिखे थे। उसमें से एक क्विज मास्टर ने कैंसल कर दिया। छैयां छैयां। कलर्ड होने के कारण यानी सिर्फ चार

दूसरी टीम उसी स्कूल की थी ल मार्टिनियर और क्लैप भी उसे सबसे ज्यादा मिल रहे थे। उसकी लिस्ट में छ गाने थे सारे सही।

खूब जोर से क्लैप हुआ। ब्लैक एंड व्हाईट। और वो भी एक सब्जेक्ट पे।

अगला नम्बर लोरेटो का था। उसके आठ गाने थे। और अबकी वहां की लड़कियों ने आसमान सिर पर उठा लिया। उनकी जो कान्टेसटेंटस थी वो दो बार बोर्न वीटा क्विज के फाइनल में पहुँच चुकी थी। और एक बार सेकंड भी आई थी।

अब तय हो गया की इन लड़कियों ने जीत लिया मैदान। वो हाथ हिलाकर लोगों को विश कर रही थी। अब क्विज मास्टर इन लोगों की लिस्ट चेक कर रहा था। और कुछ अनाउन्स नहीं कर रहा था। उधर आडियेंस शोर कर रही थी रिजल्ट रिजल्ट।

उन लोगों के बारह गाने थे।



चौथी आई टीम शेरवूड नैनीताल आउट हो गई थी। उसे निगेटिव प्वाइंट मिल गए।

----

इसके बाद म्यूजिकल क्विज का फाइनल राउंड था। उसमें सिर्फ दो टीमें भाग ले सकती थी। उनकी टीम और लोरेटो।

ये सबसे टफ राउंड भी था, और स्क्रीन पर कंडीशंस आई।



01॰ पचास के दशक का गाना

02॰ ब्लैक एंड व्हाईट

03॰ डुएट

04॰ तीन अलग-अलग संगीत कारों के जिनकी चिट निकाली जायेगी।

रीत करन की चिट में रोशन, ओ पी नय्यर और शंकर जयकिशन निकले। एक बार करन को थोड़ी घबड़ाहट हुई लेकिन अबकी रीत ने उसका हाथ दबा दिया। सबसे पहले उन्होंने-


मांग के हाथ तुम्हारा, मांग लिया संसार,...

ओ पी नय्यर का गाया और पूरा हाल तालियों से गूँज उठा।

याद किया दिल ने कहाँ हो तुम,....

उसके बाद शंकर जयकिशन का,

सबसे अंत में रोशन का संगीत दिया मल्हार का रीत का फेवरिट और वैसे भी करन, मुकेश के गाने बहुत अच्छा गाता था। रीत ने लता- मुकेश का दुयेट शुरू किया-

बड़े अरमानों से रखा है बलम तेरी कसम, हो बलम तेरी कसम

प्यार की दुनियां में ये पहला कदम हो, पहला कदम।


और फिर करन।

जुदा न कर सकेंगे हमको जमाने के सितम

हो जमाने के सितम, प्यार की दुनियां में ये पहला कदम हो, पहला कदम।


पूरा हाल तालियां बजा रहा था। लेकिन रीत और करन सुधबुध खोये, मुश्कुराते एक दूसरे को देखते गा रहे थे, जैसे बस वहीं दोनों हाल में हो। जब गाना आखीर में पहुँचा-

मेरी नैया को किनारे का इन्तजार नहीं

तेरा आँचल हो तो पतवार की भी दरकार नहीं

तेरे होते हुए क्यों हो मुझे तूफान का गम

प्यार की दुनियां में ये पहला कदम हो, पहला कदम।


सारा हाल खड़ा हो गया। स्टैंडिंग ओवेशन। उन्हें दस में दस मिले। और इस गाने के लिए भी एक स्पेशल अवार्ड।

उनका कालेज पहली बार इस फेस्ट में फर्स्ट आया था।

गुड्डी बोली की जब वो दोनों लौट कर आये तो बस कालेज में छा गए।

घर लौटते हुए गुड्डी ने रीत से पूछा- “कुछ हुआ?”


और जवाब में जोर का घूंसा गुड्डी की पीठ पे पड़ा।
 
xforum

Welcome to xforum

Click anywhere to continue browsing...

komaalrani

Well-Known Member
22,873
60,996
259
3 (b) अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है।

Girl-d59044ae7c36e26216d5f621aee16fd9.jpg




गुड्डी जोर से चिल्लाई, फिर पूछा।
“कुछ बोला उसने?”
रीत मुश्कुराती रही।

“बोल ना आई लव यू बोला की नहीं…” गुड्डी पीछे पड़ी रही।

“ना…” रीत ने मुश्कुराकर जवाब दिया

“कुछ तो बोला होगा…” गुड्डी पीछे पड़ी थी।

“हाँ। रीत ने मुश्कुराकर जुर्म कबूल किया। वो बोला- “मुझे तुमसे एक चीज मांगनी है…”

अब गुड्डी उतावली हो गई- “बोल ना दिया तुमने की नहीं…”


रीत बिना सुने बोलती गई-

“मैंने बोला मेरे पास तो जो था मैंने बहुत पहले तुम्हें दे दिया है। मेरा तो अब कुछ है नहीं। फिर हम दोनों बहुत देर तक चुपचाप, बिना बोले, हाथ पकड़कर बातें करते रहे…”

“बिना बोले बातें कैसे?” गुड्डी की कुछ समझ में नहीं आया।

“तू बड़ी हो जायेगी ना तो तेरे भी समझ में आ जायेंगी ये बातें…” हँसते हुए रीत बोली।

उसका घर आ गया था। बस एक बात उसे रोकते हुए गुड्डी बोली- “किस्सी ली उसने?”

एक जोर का और पड़ा गुड्डी की पीठ पे और रीत धड़धड़ाते हुए ऊपर चल दी। लेकिन दरवाजे से गुड्डी को देखते हुए मीठी निगाहों से, हल्के से हामी में सिर हिला दिया।

गुड्डी ने बोला की रीत ने बाद में बताया था। एक बहुत छोटी सी गाल पे। लेकिन वो पागल हो गई थी, दहक उठी थी। दिन सोने के तार से खींचते गए।

करन का आई॰एम॰ए॰ ( इंडियन मिलेट्री अकेडमी) देहरादून में एडमिशन हो गया। ये खबर भी उसने सबसे पहले रीत को दी और उसे स्टेशन छोड़ने उसके घर के के लोगों के साथ रीत भी गई और भी कालेज के बहुत से लोग, मुँहल्ले के भी।

गुड्डी ने हँसकर बोला-

“जो काम पहले वो करती थी। डाक तार वालों ने सम्हाल लिया। और बाद में इंटर नेट वालों ने। मेसेज इधर-उधर पहुँचाने का। गुड्डी उसकी अकेली राजदां थी। लेकिन वो दिन कैसे गुजरते थे। वो या तो रीत जानती थी या दिन।

अहमद फराज साहब की शायरी का शौक तो करन ने लगा दिया और दुष्यंत कुमार उसने खुद पढ़ना शुरू कर दिया। कविता समझने का सबसे आसन तरीका है इश्क करना, फिर कोई कुंजी टीका की जरूरत नहीं पड़ती। जो वो गाती गुनगुनाती रहती थी। उसने करन को चिट्ठी में लिख दिया:

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे

इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत

हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता

हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे।




जब वह करन को स्टेशन छोड़ने गई थी तो करन ने उसे धर्मवीर भारती की एक किताब लेकर दे दी थी और जब कोई विरह में हो तो संसार की सारी विरहणीयों का दुःख अपना लगने लगता है। वह बार-बार इन लाइनों को पढ़ती, कभी रोती, कभी मुश्कुराती-



कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था, तुम्हारे आश्लेष में

आज वह जूड़े से गिरे जुए बेले-सा टूटा है, म्लान है, दुगुना सुनसान है

बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले सा मेरा यह जिस्म-

टूटे खँडहरों के उजाड़ अन्तःपुर में,

छूटा हुआ एक साबित मणिजटित दर्पण-सा-

आधी रात दंश भरा बाहुहीन

प्यासा सर्वीला कसाव एक, जिसे जकड़ लेता है

अपनी गुंजलक में

अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है


मन्त्र-पढ़े बाण-से छूट गये तुम तो कनु,

शेष रही मैं केवल, काँपती प्रत्यंचा-सी।




विरह के पल युग से बन जाते, वो एक चिट्ठी पोस्ट करके लौटती तो दूसरी लिखने बैठ जाती और उधर भी यही हालत थी करन की चिट्ठी रोज। जिस दिन नहीं आती। गुड्डी उसे खूब चिढ़ाती।

देखकर आती हूँ, कहीं डाक तार वालों की हड़ताल तो नहीं हो गई। और जब करन आता, तो काले कोस ऐसे विरह के पल, कपूर बनकर उड़ जाते। लगता ही नहीं करन कहीं गया था स्कूल और मुँहल्ले की खबरों से लेकर देश दुनियां का हाल।

बस जो रीत उसे नहीं बताती, वो अपने दिल का हाल। लेकिन शायद इसलिए की ये बात तो उसने पहले ही कबूल कर ली थी की अब उसका दिल अपना नहीं है।

आई॰एम॰ए॰ से वो लौट कर आया। तो सबसे पहले रीत के पास, वो भी यूनिफार्म में, और उसने रीत को सैल्यूट किया। गुड्डी वहीं थी। रीत ने उसे बाहों में भींच लिया।

दोनों कभी हँसते कभी रोते।


रीत हाई स्कूल पास कर एलेव्न्थ में पहुँच गई।

करन की ट्रेनिंग करीब खतम थी।
 
Top