भाग -72
सुगना ने अंततः एक दिन और चुदने से मना कर दिया। रतनपुरी तरह हताश और निराश हो गया वह इस बात से बेहद क्षुब्ध था कि वह सुगना को चरम सुख ना दे पाया था यद्यपि उसमें रतन की कोई गलती न थी वह तो निष्ठुर नियति के हाथों का एक छोटा सा खिलौना था।
उसका दिलो-दिमाग उसे लगातार कोसता ना उसका काम धाम में मन लगता और नहीं बच्चों में। परिस्थितियों से क्षुब्ध हुआ मनुष्य किसी भी दिशा में जा सकता दिमाग के सोचने समझने की शक्ति निराशा में और कम हो जाती है। एक दिन आखिरकार वही हुआ जिसका डर था...
अब आगे.....
आइए अनिष्ट की आशंका को दरकिनार करते हुए सुखद पहलुओं को याद करते हैं जिस समय सुगना और रतन अपने प्रथम मिलन की रात में जी भर कर चोदा चोदी कर रहे थे उसी समय विधवा लाली एक बार फिर सुहागन हो रही थी। सोनू लाली को उसके ही घर में एकांत में स्टोर रूम में खींच लाया था। गांव का यह स्थान धान गेहूं मसूर आदि को रखने में काम आता है जो मिट्टी के बड़े-बड़े आदम कद बर्तनों में रखे जाते हैं। उस परिवेश में इसे कोठीला के नाम से जाना जाता है।
लाली बार-बार कहती
"कहां ले जा तारा... ?" परंतु उसके कदम स्वतःही सोनू के साथ साथ बढ़ रहे थे
सोनू कुछ बोल नहीं रहा था परंतु अपनी उंगलियां अपने होठों पर सटाये लाली को चुप रहने का इशारा कर रहा था। कुछ ही देर में लाली सोनू के आलिंगन में आ गयी। और दोनों विलक्षण प्रेमी एक बार फिर एकाकार होने का प्रयास करने लगे। लाली ने कहा..
"आज पूजा रहे तहरा जीजा और दीदी के तू हमरा के काहे धईले बाड़ा"
"तू हमार दीदी ना हउ का? चला तहरो पूजाई कर दी"
लाली सिहर उठी। एक पल के लिए उसके दिमाग मे सुगना द्वारा बताए गए पिछले योनि पूजन के दृश्य घूम गए। हालांकि योनि पूजन की व्यवस्था उसके घर में न थी परंतु उसे उस पूजा में होने वाली घटनाक्रमों का विधिवत एहसास था… उसने सोनू को छेड़ते हुए पूछा "तो शायद भी ले आईल वाड़ा का"
"उ का होइ"
सोनू ने कोई तैयारी न की थी? दरअसल वह शहद की उपयोगिता से अनभिज्ञ था परंतु उसमें इसका एहसास लाली को ना होने दिया और मुस्कुराते हुए बोला
"हमार लाली दीदी के रस शहदो से मीठ बा" लाली इससे पहले कुछ कहती सोनू नीचे झुकता गया और लाली की साड़ी ऊपर होती गयी।
पलक झपकते ही सोनू लाली की जांघों के बीच अपने होठों से उसके बुर के होठों को छूने का प्रयास कर रहा था। लाली अपने नितंबों को पीछे कर सोनु को रोकना चाह रही थी दरअसल वह बुर चुसवाने के लिए तैयार न थी उसने उसे धोया न था और अपने प्यारे भाई को असहज न करना चाहती थी।
सोनू ने लाली की साया (पेटीकोट) और साड़ी को छोड़ उसकी चूँची सहलानी चाही। उसके हांथ जब तक चूँची तक पहुंचते सोनू लाली के साया में आ चुका था। लाली हंसने लगी..
जैसे ही लाली सीधी हुयी उसकी बुर सोनू के होठों की जद में आ गयी। अजब सी मादक खुशबु सोनू ने नथुनों में भर गयी। सोनू ने अपना मुह खोला और गप्प से अपनी लाली दीदी की बूर् अपने मुह में भर लिया।।।
लाली की हंसी एक मादक कराह में बदल गयी..
"बाबू तनी धीरे से….आह…. " लाली उत्तेजना में अपने ही होंठो को काटते हुए फुसफुसाइ…
अब तक लाली और सोनु दोनों ही एक दूसरे की इच्छा और अनिच्छा को भलीभांति पहचानने लगे थे। " एक दूसरे की समझ संभोग से पहले होने वाले छेड़छाड़ को रोमांचक बना देते है। सोनू ने लाली की गहरी सुराही का रस होंठो से खींचकर पीने की कोशिश की…और लाली ने सोनु के बाल पकड़ लिए …
"बाबू बस…." लाली गरमा चुकी थी अब उसे सिर्फ उस दिब्य यंत्र की तलाश थी जो अपना मुह लाल किये सोनु की लुंगी में सर उठा रहा था।
कुछ ही देर में सोनू अपना लण्ड अपनी प्यारी और परिपक्व लाली दीदी की चूत में डाल कर गर्भाशय चुमने का प्रयास कर रहा था। कई दिनों बाद हुए इस मिलन में आवेश और उत्तेजना ज्यादा दी कुछ देर के मिलन में ही लाली और सोनू दोनों झड़ गए। सोनु मायूस होकर बोला..
"साला जल्दिये हो गइल.."
" हमरो……… बड़ा पावर बा लइका में" लाली ने सोनु को उत्साहित करते हुए चुम लिया..
"एक बार अउरी" सोनु ने लाली की चुचियों को सहलाते हुए अनुरोध भरे स्वर में कहा….
लाली भी तैयार थी…उसने सोनु के बीर्य से भीगे लण्ड को हांथो में लेकर कहा…
"ले आवा ए में ताकत भर दीं…."
कुछ देर हथेली में रगड़ने के बाद लाली घुटने के बल आ गयी और लाली के कोमल होंठो ने मोर्चा सम्हाल लिया….
सोनु सातवे आसमान पर था….रात भर दोनों एक दूसरे को तृप्त करते रहे उधर सुगना रतन से चुदवाती रही पर उसे तृप्ति का एह्सास न हुया….
नियति ने सुगना और रतन के मिलन में एक तरफा सुख रतन को दिया था और सुगना को अधूरा और तड़पता छोड़ दिया था परंतु सोनू और लाली दोनों ही तृप्त थे। आज अपने मायके में भरे पूरे घर में लाली सोनू से चुद रही थी। दोनों ने जी भरकर एक दूसरे की प्यास बुझाई और तृप्ति का अहसास लिए अलग हो गए। लाली अपने बच्चों के पास चली गई और सोनु लाली के पिता हरिया के बगल में जाकर बिछी चारपाई पर सो गया…
सुगना के योनि पूजन और लाली और सोनू के मिलन ने दोनों प्रेमी युगलों के बीच कई सारे दीवारें गिरा दीं। एक और जहां लाली अपने और सोनू के साथ चल रहे संबंधों को सुगना के सामने खुलकर स्वीकार करने लगी। वही सुगना ने भी सोनू और लाली के इस अवैध संबंध को मान्यता दे दी। दोनों सहेलियों के बीच ढेर सारे पर्दे हट रहे थे।
इसी दौरान सोनू के कॉलेज की पढ़ाई पूरी हो गयी और अब भविष्य निर्माण के लिए प्रयासरत था। मनोरमा मैडम के स डी एम पद के रुतबे का जादू देख चुका था और मन ही मन उस पद को प्राप्त करने की लालसा लिए वह पीसीएस की तैयारियों में जुट गया।
लाली और सुगना की सहमति से वह हॉस्टल छोड़कर सुगना के घर में आकर रहने लगा। रतन सोनू के आने से ज्यादा खुश न था। सोनी पहले से ही घर में रह रही थी। घर में ज्यादा लोगों की उपस्थिति रतन को नागवार गुजर रही थी उसे सुगना के पास जाने का मौका कम मिलता हांलांकि यह सुगना के लिए अच्छा ही था। वह स्वयं अब और चुदने को तैयार न थी उसे पता था वह रतन के लाख प्रयासों के बावजूद स्खलित न होगी।
निराशा उत्तेजना की दुश्मन है….सुगना पर यह भलीभांति लागू हो रहा था।
सोनू लाली के घर में रहना चाहता था परंतु सरेआम इस तरह रहना संभव न था। एक दिन छोटा सूरज अपने घर से निकलकर लाली के घर जा रहा था और बाहर सड़क पर जा रही मोटरसाइकिल से टकराते टकराते बचा…
वह गिर पड़ा….टायरों के चीखने की आवाज के साथ मोटरसाइकल रुकी। सुगना भागते हुए उसके करीब गयी और अपने सीने से सूरज को लगा लिया। ऐसा लग रहा था जैसे सुगना के कलेजे का टुकड़ा गिर पड़ा था। सूरज सच में सुगना की आंखों का तारा था… तभी सोनू ने कहा…
"दीदी सब बच्चा लोग एक साथ खेले ला दोनों घर के बीच हाल में एगो दरवाजा बना दियाव सब बच्चा लोग के आवे जावे में आसानी होइ "
सुगना के उत्तर देने से पहले लाली ने चहकते हुए कहा.. जो बाहर शोरशराबा सुन कर बाहर आ चुकी थी
"सोनू एकदम ठीक बोलता… का सुगना ते का कह तारे?"
सुगना को खुद भी यह बात पसंद आई और आखिरकार एक दिन लाली और सुगना के घरों के बीच की दीवार को तोड़कर एक दरवाजा लगा दिया जो सामान्यतयः खुला रहता। रतन को यह थोड़ा अटपटा लगा परंतु उसे तो इस बात का एहसास तक ना था की सोनू और लाली के बीच एक अद्भुत और नायाब रिश्ता बन चुका है और यह दरवाजा इस रिश्ते में कितना अहम था ये पाठक भलीभाँति समझ सकते हैं।
सोनू दिन भर पढ़ाई करता और बीच-बीच में लाली के बच्चे और अपने भतीजे भतीजीयों के साथ खेल कूद कर उनका मनोरंजन करता और जैसे ही रतन और सुगना अपने कमरे में जाते वह अपनी लाली दीदी की तनहाई दूर करने चला जाता।..
वैसे भी लाली का अब कोई ना था सोनू ही उसका सहारा था। और सोनू की बहन सुगना उसकी प्रिय सहेली थी. लाली और सुगना के बच्चे भी बेहद प्रसन्न थे। वो बेझिझक एक घर से दूसरे घर आ जाते और सब मिलजुल कर खेलते। इधर रतन और सुगना अपनी चुदाई करते उधर लाली और सोनू। सब अपने आप में मगन थे सिर्फ सुगना तड़प रही थी नियति से यह देखा ना गया और एक दिन… वही हुआ जिसका डर था….
सुबह तड़के सुगना ने रतन को जगाते हुए कहा
"ए जी उठिए होटल नइखे जाए के बा का?"
सुनना की जो हांथ रतन को छूने की कोशिश कर रहे थे वह लंबे होते गए पर रतन बिस्तर पर न था। सुगना संतुष्ट हो गई की रतन उठ चुका है पर कुछ देर कोई हलचल न होने पर वह बिस्तर से उठी और बाथरूम की तरफ देखा बाथरूम का दरवाजा खुला हुआ था रतन वहां न था।
सुगना हॉल में आए और बाहर दरवाजे की तरफ देखा जो खुला हुआ था। रतन ऐसे तो कभी बाहर न जाता था परंतु आज दरवाजा खुला देखकर सुगना ने मन ही मन सोचा शायद वह किसी कार्य से बाहर गया हो। परंतु ऐसा न था। जैसे ही सुगना एक बार फिर अपने कमरे में आयी बिस्तर पर पड़ा कागज सारी कहानी कह गया।
सुगना हतप्रभ सी अवाक खड़ी थी। उसे कुछ समझ में न आया। वह भागती हुई लाली के कमरे की तरफ दौड़ी दोनों घरों के बीच अब कोई दीवार ना थी सुगना ने लाली का दरवाजा खटखटा दिया लाली आनन-फानन में झटपट अपनी नाइटी डालती हुयी बाहर आ गई पर सुगना को अपनी नंगी जांघों की एक झलक दिखा गयी…
"का भईल सुगना ?" सुगना ने कोई उत्तर न दिया अपितु अपने हाथ में दिया हुआ खत लाली को पकड़ा दिया। लाली खत की तरफ देखने लगी और सुगना लाली के बिस्तर की तरफ जिस पर सोनू नंग धड़ंग पड़ा हुआ था। यह तो शुक्र था सोनु पेट के बल लेता था वरना उसके जिस औजार की तारीफ लाली खुलकर करती थी उसके दर्शन उसकी अपनी बहन सुगना कर लेती।
निश्चित ही आज रात सोनू और लाली ने एक बार फिर जमकर चुदाई की थी। बिस्तर की सलवटे और लाली का नींद में डूबा मादक शरीर इस बात की गवाह था। सुगना सोनू को नग्न अवस्था में देखकर सुगना तुरंत ही हटकर दूर हो गई और लाली उसके पीछे पीछे।
सुगना ने कहा
"सोनू के जगा के स्टेशन भेज… का जाने ओहिजे गइल होखसु "
कुछ ही देर में सोनू रतन को ढूढने के लिए बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन के चक्कर काटने लगा परंतु जिसे जाना था वह जा चुका था।
रतन ने अपने खत में घर छोड़ने की बात स्पष्ट कर दी थी पर वह कहां जा रहा था यह उसने यह जिक्र न किया था जो स्वाभाविक था परंतु उसे न ढूंढने की नसीहत अवश्य दे थी फिर भी सुगना अपने पत्नी धर्म का निर्वहन करते हुए उसे ढूंढने का प्रयास कर रही थी।
रतन अचानक ही सुगना और अपने भरे पूरे परिवार से दूर हो गया था। नियति मुस्कुरा रही थी….क्या पता वह आने वाले समय में अपनी भूमिका के लिए तैयार हो रहा हो?
रतन के जाने की खबर सलेमपुर तक पर पहुंची और एक बार फिर सरयू सिंह अपनी भाभी कजरी को लेकर बनारस में उपस्थित थे..सुगना सरयू सिंह को देख कर रो पड़ी। वह तुरंत ही उनके आलिंगन में आ गयी।
दुख में आलिंगन की प्रगाढ़ता बढ़ जाती है।
सुगना सरयू सिंह से पूरी तरह लिपटी हुई थी रतन के जाने का उसे दुख तो अवश्य था परंतु शायद उतना नहीं जितना एक आम पत्नी को अपने पति के जाने पर होता। सुगना और रतन दोनों में कुछ हद तक प्यार अवश्य हुआ था परंतु इसमें वह कसक ना थी जो सरयू सिंह और सुगना के बीच थी।
सरयू सिह एक पल के लिए यह भूल गए कि वह जिस सुगना को अपने आलिंगन में लिए हुए हैं वह अब उनकी प्रेयसी नहीं उनकी पुत्री थी। कोमल शरीर के स्पर्श से जैसे ही लंड में हरकत हुई उनका दिमाग सक्रिय हो गया और उन्होंने सुगना को स्वयं से अलग करते हुए उसके माथे को चूम कर बोला
"जायदे उ साला कोनो काम के ना रहे तोहरा कोनो दिक्कत ना होखि" इस वाक्य में न कोई छुपा संदेश था न शरारत।
सरयू सिंह को अपने संचित धन पर अब भी भरोसा था वह सुगना वह उनके बच्चों के आने वाले जीवन के लिए पर्याप्त था। परंतु क्या युवा सुगना सारा जीवन यूं ही अकेले गुजार पाएगी। अभी वह एक 25 वर्षीय तरुणी थी जिसमें 2 बच्चों को जन्म अवश्य दिया था परंतु आज भी वह युवा किशोरी की तरह कमनीय काया 5 और चेहरे पर बाल सुलभ मासूमियत लिए हुए थी । सच वह प्यार की प्रतिमूर्ति थी..
जाने निष्ठुऱ नियति ने सुगना के भाग्य में क्या लिखा था? सुगना ने अपने सभी रिश्ते बखूबी निभाए थे और उसे प्रत्युत्तर में अपने परिवार से भरपूर प्यार और सम्मान मिला था. सरयू सिंह आज भी उसके हर दिल अजीज थे। यदि सरयू सिह उसे स्वयं से दूर ना करते तो वह आज भी उनकी गोद में खेलते हुए उनके मोटे और मजबूत पर कोमल लण्ड को अपनी मखमली बूर् में भर उस पर उछलते कूदते स्वयं भी स्खलित होती और डालने बाबूजी के अंडकोषों में संचित स्वेत वीर्य से अपनी बुरकी कामाग्नि को बुझाती। आह….पर सरयू सिह बदल चुके थे यह जानने के बाद कि सुगना उनकी ही पुत्री है उनकी काम वासना में ठहराव आ गया था…
रतन की मां कजरी पूरी तरह टूट चुकी थी उसके बुढ़ापे की लाठी उसका बेटा रतन अपने ही बाप की तरह घर छोड़कर भाग गया था। सरयू सिंह कजरी का भरपूर साथ देते परंतु रतन के जाने की कसक कजरी को कमजोर और दुखी कर गई।
कुछ दिनों तक बनारस में रहकर सरयू सिंह और कजरी एक बार फिर से सलेमपुर के लिए निकल गए। सुगना मन ही मन सोच थी और ऊपर वाले से प्रार्थना करती कि काश यह समय तीन चार वर्ष पीछे हो जाता और वह अपने बाबूजी को उसी रूप में देखती और महसूस करती जैसा वह सूरज के जन्म से पहले उनके साथ रहती थी।
गुजरा हुआ समय वापस नहीं आता परंतु उसकी सुखद समय की यादें आदमी को तरोताजा कर देती हैं। यही हाल सुगना का था वह यादें उसे गुदगुदाती और उसके होठों पर मुस्कान आ जाती। होठों पर ही क्या नीचे जांघों के बीच सिकुड़ी वह सुंदर और प्यारी बुर मुस्कुराने लगती और होठों पर पानी लिए अपने अद्भुत प्रेमी के होठों और अपने मूसल का इंतजार करती।
दिन बीतते गए। सुगना ने अपने बच्चों पर ऐसा जादू किया हुआ था कि उन्हें रतन के जाने का कोई विशेष एहसास ना हुआ। जब जब बच्चे उन्हें पूछते सुगना बड़े प्रेम से उन्हें फुसला लेती और कहती
" मुंबई शहर गईल बाड़े पैसा कमाये" बच्चे शांत और संतुष्ट हो जाते।
देखते ही देखते सुगना और लाली की स्थिति एक जैसी हो गयी। एक का पति स्वर्ग सिधार चुका था और दूसरा इसी धरती पर न जाने कहां गुम हो गया था। सुगना अभी भी सिंदूर लगाती पर उसका सुहाग जाने कहाँ विलुप्त था। वही लाली विधवा थी पर सोनू साए की तरह उस से चिपका रहता और लाली की रातें गुलजार रखता। सोनू को भी अपनी बहन सुगना से लाली को लेकर अब भी शर्म कायम था। यह बात उसे बेहद उत्तेजित करती की कैसे वह अपनी बहन की सहेली को उसकी जानकारी में चोदता था। .
सोनू की लगन और तैयारी में सुगना और लाली दोनों ही अपना सहयोग देती एक तरफ जहां सुगना सोनू की पसंद के खान-पान का ध्यान रखती वहीं दूसरी तरफ लाली सोनू की शारीरिक जरूरतों को पूरा कर उसका ध्यान बाहर न भटकने देती। परिवार में पूरी तरह खुशियां थी घर में सिर्फ सुगना ही ऐसी थी जिसकी खुशियों पर ग्रहण लगा हुआ सब कुछ होते हुए भी सुगना अधूरी थी …
रतन को गए 5 महीने से ऊपर का वक्त बीत चुका था संयोग से आज माघ महीने की पूर्णमासी थी.
चंद्रमा पूरा था पर सुगना की खुशियां अधूरी थी। इसी पूर्णिमा के दिन उसने रतन की लाठी से अपनी योनि पूजा का विधि विधान पूर्ण किया था। कुछ नियम ऐसे होते हैं जो समाज द्वारा बना तो दिए जाते हैं पर उन्हें पूरा कैसे किया जाएगा इस बारे में सब अपने अनुसार रास्ता निकाल लेते हैं सूरज के जन्म के बाद सुगना ने रतन की लाठी के साथ कुल देवता की पूजा तो संपन्न कर ली परंतु लाठी के साथ संभोग कर कैसे स्खलित होगी यह यक्ष प्रश्न कठिन था।
जिस रतन को वह गैर समझती थी उसकी लाठी को उसके लंड का प्रतीक मानकर स्खलितहोना यह आसंभव ही नहीं नामुमकिन था. सुगना बिस्तर पर लेटी हुयी अपनी सुखद यादों में खो गयी…
आखिरकार उस दिन सुगना का साथ कजरी ने दिया था। सुगना जब तक पूजा कर वापस अपने कमरे में आती कजरी के निर्देश पर सरयू सिंह सुगना के कमरे में आकर पहले ही छुप गए। उन्होंने ऐसा कजरी के निर्देश पर कर तो दिया था परंतु भरे पूरे मर्दाना शरीर के मालिक सरयू सिंह को छोटी सी जगह पर ज्यादा देर तक छुपना आसहज महसूस हो रहा था। सुगना के कमरे में उसे छोड़ने आयीं अन्य महिलाएं भी अठखेलियां कर रही थी।
एक महिला ने कहा..
"आतना फूल जैसन बहुरिया बीया रतनवा पागल ह आज घर रहे के चाही बतावा बेचारी के आज के दिन लाठी मिली.."
कजरी ने फिर भी अपने पुत्र का ही साथ दिया था और बात को समझते हुए बोली…
"नोकरी में छुट्टी मिलल अतना आसान ना होला..
"जायद….. अब सुगना के छोड़ द लोग दिनभर काम करत करत थाक गइल बिया आराम करे द लोग"
सरयू सिंह की जान में जान आई और जैसे ही महिलाएं कमरे से बाहर गई सुगना ने साँकल लगा दी। इससे पहले कि वह मुड़ती नंग धड़ंग सरयू सिंह उसके सामने अपना तना हुआ लण्ड लिए उपस्थित थे…..
सुगना आश्चर्य से उन्हें देख रही थी…
शेष अगले भाग में…