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Incest आह..तनी धीरे से.....दुखाता.

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Lovely Anand

Love is life
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144
आह ....तनी धीरे से ...दुखाता
(Exclysively for Xforum)
यह उपन्यास एक ग्रामीण युवती सुगना के जीवन के बारे में है जोअपने परिवार में पनप रहे कामुक संबंधों को रोकना तो दूर उसमें शामिल होती गई। नियति के रचे इस खेल में सुगना अपने परिवार में ही कामुक और अनुचित संबंधों को बढ़ावा देती रही, उसकी क्या मजबूरी थी? क्या उसके कदम अनुचित थे? क्या वह गलत थी? यह प्रश्न पाठक उपन्यास को पढ़कर ही बता सकते हैं। उपन्यास की शुरुआत में तत्कालीन पाठकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए सेक्स को प्रधानता दी गई है जो समय के साथ न्यायोचित तरीके से कथानक की मांग के अनुसार दर्शाया गया है।

इस उपन्यास में इंसेस्ट एक संयोग है।
अनुक्रमणिका
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भाग 126 (मध्यांतर)
 
Last edited:
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भाग 97
सोनू का लाल फूला हुआ सुपाड़ा लाली की हथेली में था…ऐसा लग रहा था जैसे लाली उसे खुद को छोड़ किसी और को चाहने का दंड दे रही हो पर लंड आज सुगना की चाहत लिए तैयार था…

सोनू उत्तेजना से कपने लगा…लाली ने उसे बेहद उत्तेजित कर दिया था..

और एक बार फिर लाली चुदने लगी….सुगना ने आज लाली का नया रूप देखा था…शायद उसे लाली से यह उम्मीद न थी…

सुगना से और बर्दाश्त न हुआ….वह अपने कमरे में आ गई…


सुगना ने खुद को संतुलित किया और गंदे गंदे ख्यालों को दरकिनार कर वह अपने श्रृंगारदान को खोल कर अपनी क्रीम लगाने लगी तभी उसका ध्यान उस जिल्द लगी किताब पर चला गया जिसको सोनू अपनी बड़ी बहन सुगना के लिए छोड़ आया था किताब के दोनों हिस्सों को एक साथ देख कर सुगना चौक उठी आखिर यह किसने किया हे भगवान…

अब आगे…..

आइए सुगना को अपनी तड़प और सोनू को लाली के साथ उनके हाल पर छोड़ देते हैं….. और आपको लिए चलते हैं हिमालय की गोद में जहां सुगना के पति रतन की मेहनत अब रंग ला चुकी थी। विद्यानंद ने उसे जिस आश्रम का निर्माण कार्य सौंपा था वह अब पूरा हो चुका था ….आज रतन उसका मुआयना करने जा रहा था..…

कुछ ही महीनों में रतन ने विद्यानंद आश्रम में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था ऐसा नहीं था कि यह स्थान उसे विद्यानंद के पुत्र होने के कारण प्राप्त हुआ था अपितु उसने अपनी मेहनत और लगन से वह मुकाम हासिल किया था l

आश्रम सच में बेहद खूबसूरत बना था रतन अपनी जीप में बैठकर आश्रम के लिए निकल चुका था कुछ दूर की यात्रा करने के बाद बड़े-बड़े चीड़ के पेड़ दिखाई पढ़ने लगे….. जैसे जैसे वह शहर से दूर होता गया प्रकृति की गोद में आता गया।

शहर की सुंदरता कृत्रिम है और जंगल की प्राकृतिक

कृत्रिम निर्माण सदैव तनाव का कारण है और प्रकृति सहज एवं सरल..

यह वाक्यांश जीवन के हर क्षेत्र में अपनी अहमियत साबित करते हैं चाहे वह जीवन शैली हो या सेक्स…

रतन खोया हुआ था…धरती इतनी सुंदर कैसे हो सकती है ?…शहरों में भीड़ भाड़ और लगातार हो रहे विकास कार्यों की वजह से…शहर प्रदूषित हो चुके है जबकि जंगल में प्रकृति अपनी खूबसूरती को संजोए हमेशा नई नवेली दुल्हन की तरह सजी धजी रहती है …..

रतन प्रकृति की खूबसूरती में खोया हुआ धीरे-धीरे आश्रम के गेट पर आ गया। इस आश्रम तक जन सामान्य का पहुंचना बेहद कठिन था…. निजी वाहनों के अलावा यहां आने का कोई विकल्प न था शहर से दूर यह सड़क विशेषकर इस आश्रम के लिए ही बनाई गई थी…

दो सिक्यूरिटी गार्ड ने उस आश्रम का विशाल गेट खोला और रतन की गाड़ी अंदर प्रवेश कर गई।

अंदर की खूबसूरती देखने लायक थी. सड़क के किनारे सुंदर सुंदर पार्क बनाए गए थे उसमें करीने से जंगली और खूबसूरत फूल लगाए गए थे जो अब अपनी कलियां बिखेर कर रतन की मेहनत को चरितार्थ कर रहे थे…

सपाट खाली जगह सुंदर विदेशी घांस से पटी हुई थी कभी-कभी प्रकृति से की गई छेड़छाड़ उसे और भी सुंदर बना देती है इस आश्रम के चारों तरफ जो फूल पौधे लगाए गए थे वह इस आश्रम को और भी खूबसूरत बना रहे थे…

सामने तीन मंजिला भवन दिखाई पढ़ने लगा भवन की खूबसूरती दिखने लायक थी दूर से देखने पर यह होटल दिखाई पड़ता परंतु भवन के मुख्य भाग की सजावट उसे एक आलीशान आश्रम की शक्ल दे रही थी। रतन उस भवन तक पहुंच चुका था सिक्योरिटी गार्ड ने अपने पैर पटक कर रतन को सैल्यूट किया.. और रतन स्वयं अपनी ही बनाई कृति को देखकर भावविभोर हो उठा.. भवन के रंग रोगन ने उसे और भी खूबसूरत बना दिया था.

उस दौरान (90 के दशक में) इतनी सुंदर कलाकृति का निर्माण देखने लायक था…

अब तक निर्माण कार्य में लगे लोगों की फौज वहां आ चुकी थी और उनके प्रतिनिधि ने रतन को बताया..

"महाराज पुरुष आश्रम का कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है परंतु महिला हॉस्टल में कुछ ही काम बाकी है वह भी अगले हफ्ते में पूरा हो जाएगा आश्रम का उद्घाटन हम लोग दीपावली के दिन कर सकते हैं…"


रतन ने पुरुष आश्रम के कक्षों का मुआयना किया और वहां पर उपलब्ध सामग्री की गुणवत्ता की जांच की दीवारों के रंग रोगन को अपने पारखी निगाहों से देखा। निर्माण कार्य में लगे लोगों ने अच्छा कार्य किया था।

आश्रम में कमरों में जो सादगी थी वह होटल से अलग थी। यह कहना कठिन था की आश्रम के कमरे ज्यादा खूबसूरत थे या पांच सितारा होटल का सजा धजा शयनकक्ष…परंतु सादगी जितनी खूबसूरत हो सकती थी वो थी।

जिस प्रकार कहानी की नायिका सुगना ग्रामीण परिवेश में पलने बढ़ने के बाद भी बिना किसी कृत्रिम प्रयास के बेहद खूबसूरत और कोमल थी या आश्रम भी उसी प्रकार खूबसूरत था…

इस पुरुष आश्रम के ठीक पीछे वह विशेष भवन था जिसमें वह अनोखे कूपे बनाए गए थे (जिनका विवरण पहले दिया जा चुका है..) इस भवन का निर्माण विद्यानंद ने एक विशेष प्रयोजन के लिए कराया था जिसकी आधी अधूरी जानकारी रतन को थी परंतु विद्यानंद के मन में क्या था यह तो वही जाने …परंतु रतन ने इस विशेष भवन का निर्माण पूरी तन्मयता और कार्यकुशलता से किया था… अंदर बने कूपे निराले थे।

आज इस विशेष भवन में प्रवेश कर रतन खुद गौरवान्वित महसूस कर रहा था सचमुच अंदर से उस भवन की खूबसूरती देखने लायक थी.. दीवारों पर की गई नक्काशी और कृत्रिम प्रकाश से उसे बेहद खूबसूरत ढंग से सजाया था।

विधाता ने प्रकृति के माध्यम से इंसान को रंगों की पहचान थी परंतु विधाता की कृति इंसान ने उन रंगों के इतने रूप बना दिए जितने शायद विधाता की कल्पना भी न थी..

प्रकाश के विविध रंगों ने साज सज्जा को नया आयाम दे दिया था अलग-अलग रंगों के प्रकाश जब दीवार पर सजी मूर्तियों पर पढ़ते उसकी खूबसूरती निखर निखर कर बाहर आती ऐसा लगता जैसे पत्थर बोलने को आतुर थे वह इस भवन में होने वाली घटनाओं के साक्षी बनने वाले थे…


ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे विद्यानंद ने जो भी धन अर्जित किया था उसका अधिकांश भाग इसके निर्माण में लगा दिया था..

इस विशेष भवन के पीछे हुबहू पुरुष आश्रम जैसा सा ही एक और आश्रम था.. वह महिलाओं के लिए बनाया गया था.. महिलाओं के आश्रम के ठीक सामने भी वैसा ही पार्क और वैसे ही सड़क थी.. यूं कहिए कि वह विशेष भवन पुरुष आश्रम और महिला आश्रम के बीच एक कड़ी था। बाकी पुरुष आश्रम तक पहुंचने का रास्ता अलग था और महिला आश्रम तक पहुंचने का रास्ता अलग।


पुरुष आश्रम में आ रहे आगंतुकों को महिला आश्रम दिखाई नहीं पड़ता था इसी प्रकार महिला आश्रम में आ रहे लोग पुरुष आश्रम को देख नहीं सकते थे यहां तक कि वह विशेष भवन भी सामने से दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि वह पुरुष आश्रम और महिला आश्रम के बीचों-बीच स्थित था….

महिला आश्रम का मुआयना करने के पश्चात जो छुटपुट कार्य बाकी थे उसके लिए रतन ने निर्माण कार्य में लगे लोगों को दिशा निर्देशित किया।

अब तक उसकी जीप घूम कर महिला आश्रम के गेट पर आकर खड़ी हो गई थी…महिला आश्रम और पुरुष आश्रम के एक दूसरे से नजदीक होने के बावजूद वाहन को वहां पहुंचने के लिए 10 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ा था…दरअसल महिला आश्रम और पुरुष आश्रम के पहुंचने के लिए जो मुख्य द्वार बनाया गया था वह पूरी तरह अलग था…

रतन आश्रम का मुआइना कर पूरी तरह संतुष्ट हो गया जो कुछ छुटपुट कार्य बाकी था वह दो तीन दिनों में पूरा हो जाना था।


आज रतन विद्यानंद से मिलकर आश्रम के की निर्माण कार्य पूरा हो जाने की सूचना देने वाला था ….और उनसे आश्रम के उद्घाटन से संबंधित दिशा निर्देश प्राप्त करने वाला था.

रतन खुशी खुशी वापस विद्यानंद के मुख्य आश्रम की ओर निकल पड़ा……महिला आश्रम के सामने बने पार्क से उसकी जीप गुजर रही थी एक पल के लिए उसे यह भ्रम हो गया कि वह पुरुष आश्रम के सामने की तरफ से जा रहा है या महिला आश्रम के? उसने पीछे पलट कर देखा और मुस्कुराते हुए उसने ड्राइवर से कहा

"यह पार्क हूबहू पुरुष आश्रम के पार्क की तरह ही है "

हां महाराज दोनों ही बिल्कुल एक जैसे दिखाई पड़ते हैं ....

जीप तेजी से सरपट विद्यानंद के मुख्य आश्रम की तरफ बढ़ती जा रही थी। रतन अपने जीवन के पन्ने पलट कर देख रहा था कैसे वह मुंबई में एक आम जीवन जीवन व्यतीत करते करते आज अचानक खास हो गया था । शायद इसमें वह सुगना का ही योगदान मानता था उसके प्यार की वजह से ही वह बबीता जैसी दुष्ट और व्यभिचारी पत्नी को छोड़ पाने की हिम्मत जुटा पाया और अपनी प्यारी मिंकी को लेकर सुगना की शरण में आ गया था …पर हाय री नियति सुगना और रतन का मिलन हुआ तो अवश्य परंतु न जाने उस प्यार की पवित्रता में क्या कमी थी सुगना की जादुई बुर ने रतन के लंड को स्वीकार न किया।

रतन ने सुगना के कुएं से अपनी प्यास खूब बुझाई पर कुआं स्वयं प्यासा रह गया…

रतन.सुगना को तृप्त न कर पाया था और यही उसके लिए विरक्ति का कारण बन गया था.. जैसे-जैसे रतन की जीप विद्यानंद के आश्रम की करीब आ रही थी रतन की धड़कनें बढ़ रही थी । आज भी वह विद्यानंद के सामने जाने में घबराता था परंतु धीरे-धीरे वह उनके करीब आ रहा था..

रतन यद्यपि विद्यानंद का पुत्र था परंतु फिर भी उसका चेहरा विद्यानंद से पूरी तरह नहीं मिलता था किसी बाहरी व्यक्ति के लिए यह बता पाना कठिन था कि रतन विद्यानंद का पुत्र है ऐसा क्यों हुआ होगा यह तो विधाता ही जाने परंतु रतन की मां कजरी और विद्यानंद का मिलन एक मधुर मिलन न था …

विद्यानंद के कक्ष के बाहर बैठा रतन अपनी बारी का इंतजार कर रहा था । अंदर विद्यानंद अपना ध्यान लगाकर अपने इष्ट को याद कर रहे थे कुछ ही देर बाद एक सेविका रतन को अंदर ले गई।


विद्यानंद ने अपनी आंखें खोली और रतन को देखकर बोले

" बताओ वत्स… तुम्हारे चेहरे की मुस्कुराहट बता रही है कि मैंने तुम्हें जो कार्य दिया था वह तुमने पूर्ण कर लिया है"

" हां महाराज .. आपके आशीर्वाद से आश्रम का निर्माण कार्य पूरा हो गया है आप जब चाहें हम लोग उसका उद्घाटन कर सकते हैं.."


विद्यानंद की चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई का चेहरा आभा से चमकने लगा उन्होंने रतन को बैठने के लिए कहा और अपनी सेविका को एकांत का इशारा किया…

विद्यानंद ने रतन को संबोधित करते हुए कहा..

" जन सामान्य की यह अवधारणा है कि जिस व्यक्ति ने संयास ले लिया है उसने भौतिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली परंतु ऐसा कर पाना इतना आसान नहीं है…काम क्रोध मद लोभ यह मनुष्य के स्वाभाविक गुण हैं इन पर नियंत्रण कर और विजय पाकर वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है.


आश्रम में रहने वाले मेरे हजारों अनुयायियों में से आज भी कई लोग इन सामान्य गुणों का परित्याग कर पाने में अक्षम हैं.. मुझे यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है.."

रतन की आंखें शर्म से झुक गई उसे ऐसा लगा जैसे विद्यानंद की बातें उसकी ओर ही इंगित कर रही थी रतन सकपका गया तो क्या विद्यानंद जी को उसके आश्रम में किए गए व्यभिचार की खबर थी? वह सर झुकाए विद्यानंद की बातें सुनता रहा विद्यानंद ने आगे कहा..

" आज भी इस आश्रम के अनुयायी किसी ने किसी रूप में वासना से ग्रस्त हैं वो अपनी अपनी समस्याओं की वजह से घर त्यागकर इस आश्रम में आए हुए हैं।

ऐसी लोग आश्रम में आ तो गए हैं परंतु उनकी स्वाभाविक कामवासना अभी भी जीवित है और वह अपने उचित की साथी की तलाश में अक्सर अपना समझ जाया करते है..

जिस आश्रम का निर्माण तुमने कराया है उसका एक विशेष प्रयोजन है यह आश्रम .. मेरे अनुयायियों को कामवासना से मुक्ति दिलाने के लिए ही बनाया गया है."

रतन रतन ने आंख उठाकर विद्यानंद की तरफ देखा जो अपनी आंखें बंद किए अपने मुख से यह अप्रत्याशित शब्द कह रहे थे परंतु उनके चेहरे के भाव यह बता रहे थे कि वह जो कुछ कह रहे थे वह आवेश और उद्वेग से परे एक शांत और सहज मन की बात थी..उन्होंने फिर कहा..

"मेरी बात ध्यान से सुनना वह आश्रम स्त्री और पुरुष के मिलन के लिए बनाया गया है… समाज में आज भी कई किशोर युवक और युवतियां समागम को लेकर अलग-अलग भ्रांतियां पाले हुए है.. जिसकी वजह से किशोर और किशोरियों में एक भय जन्म ले चुका है.. किशोरियां समागम से घबराती हैं और किशोर अपनी मर्दानगी पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं समाज में धीरे धीरे यह व्याधि फैलती जा रही है और उनके माता-पिता अक्सर मेरी शरण में आकर उनके लिए सुखद गृहस्थ जीवन का आशीर्वाद मांगते हैं।


स्त्री और पुरुष का मिलन ही गृहस्थ जीवन की कुंजी है यह उतना ही पावन है जितना परमात्मा से मिलन.. परंतु किसी न किसी कारणवश सभी स्त्री और पुरुषों का मिलन उतना सुखद नहीं होता जितना उन्हें होना चाहिए इसका कारण सिर्फ और सिर्फ अज्ञानता है..न तो पुरुष स्त्री के कोमल शरीर को पूरी तरह समझ पाता है और नहीं स्त्री पुरुष की उग्र उत्तेजना को..

और जब उन दोनों का मिलन होता है तब निश्चित की परिणाम आशानुरूप नहीं रहते.. मैं चाहता हूं कि तुम गृहस्थ जीवन में रहने के इच्छुक स्त्री और पुरुषों को एक दूसरे को समझ में में मदद करो.. जिस आश्रम का निर्माण तुमने कराया है वह इस प्रयोजन को चरितार्थ करेगा

तुम्हें इस बात का विशेष प्रबंध करना होगा कि आश्रम में रह रहे इस स्त्री और पुरुष एक दूसरे को कभी भी न जान पाएं…उनकी गोपनीयता सुरक्षित रखना तुम्हारा कार्य है यदि गोपनीयता भंग होती है तो यह आश्रम अपना अस्तित्व खो बैठेगा…..


पुरुष और स्त्री दोनों का मिलन सिर्फ और सिर्फ आश्रम के मुख्य भवन में होना चाहिए इसके अलावा कहीं नहीं..

आश्रम से संबंधित दिशा निर्देश और विस्तृत नियमावली माधवी ने बनाई है वह तुम्हें और भी विस्तार से समझा देगी…

माधवी का नाम सुनकर रतन चौका.. लगभग विद्यानंद से जुड़े सभी खास स्त्री और पुरुषों को जानता था पर माधवी का नाम उसने आज से पहले कभी नहीं सुना था विद्यानंद ने…

विद्यानंद ने आगे कहा..


"इस आश्रम से कुछ स्त्रियां और कुछ पुरुष उस आश्रम में रहने के लिए भेजे जाएंगे और जब उनकी वासना समाप्त हो जाएगी तब वो इस आश्रम में वापस आ सकेंगे…"

रतन विद्यानंद की बातों को बेहद ध्यान से सुन रहा था उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि विद्यानंद जैसा महात्मा भी वासना को इतना महत्व देता था.. रतन ने भी वासना की कई रूप देखे थे अपनी पत्नी बबीता के व्यभिचार को भी और अपनी पत्नी सुगना के व्यभिचार को जिससे उसने सूरज जैसे दिव्य बालक को जन्म दिया था यह अलग बात थी की व्यभिचार के कारण अलग थे पर इन संबंधों की सामाजिक मान्यता न थी ना हो सकती थी..


विद्यानंद की गंभीर आवाज आई

" माधवी को बुलाया जाए" और थोड़ी ही देर में एक विदेशी और बेहद खूबसूरत युवती रतन के सामने खड़ी थी.. श्वेत धवल वस्त्रों में उस विदेशी युवती को देखकर रतन अवाक रह गया। माधवी….. उसकी खूबसूरती देखने लायक थी 24 - 25 वर्ष की माधवी सुडौल काया की स्वामी थी.. हल्के भूरे रेशमी बाल जो एकदम सीधे थे उसके चेहरे की खूबसूरती और भी बड़ा रहे थे… रतन उसकी खूबसूरती में खो गया और विद्यानंद ने रतन की आंखों को पढ़कर उसके मनोभावों का अंदाजा लगा लिया….. विद्यानंद ने रतन से कहा

"वत्स तुम माधवी के साथ चले जाओ यह तुम्हें उस आश्रम से संबंधित नियमावली समझा देगी और मैं चाहता हूं कि तुम भी उस आश्रम में रहकर ही वहां का कार्य भार देखो …. तुम पुरुष आश्रम का कार्यभार संभाल लेना और माधवी महिला आश्रम का…"

विद्यानंद ने अपनी आंखें बंद कर ली.. और हाथ उठाकर रतन को आशीर्वाद दिया शायद यह मुलाकात की समाप्ति का इशारा भी था रतन के मन में अब भी ढेरों प्रश्न थे उसने कुछ और कहना चाहा परंतु विद्यानंद अपनी ध्यान मुद्रा में जा चुके थे। उसने माधवी की तरफ देखा और माधवी ने मुस्कुरा कर उसका अभिवादन किया अपने रतन को अपने पीछे आने का इशारा किया और वह पलट कर वापस जाने लगी..

विद्यानंद की आंखें बंद होने के बाद रतन की आंखें पूरी तरह खुल गई सामने बलखाती हुई माधवी जा रही थी और रतन उसके पीछे-पीछे …

श्वेत चादर में लिपटी माधवी की कामुक और मदमस्त काया देखने लायक थी…श्वेत वस्त्र के आवरण के बावजूद माधवी की चौडी छाती पतली कमर और भरे-भरे नितंब अपनी खूबसूरती का एहसास बखूबी करा रहे थे…

रतन की वासना ने उसे घेर लिया और उसका लंड कुलांचे मारने लगा…उसके नेत्र वस्त्रों के पार माधवी की मदमस्त काया को देखने का प्रयास करने लगे माधवी की नग्न छवि उसके दिलो-दिमाग में बनती चली गई…

जैसे-जैसे वासना हावी होती गई दिमाग कुंद होता गया शरीर का सारा रक्त जैसे उस वह तना हुआ लंड अपनी तरफ खींच रहा था…

माधवी अपने कक्ष में आ चुकी थी और रतन दरवाजे पर खड़ा माधवी के इशारे का इंतजार कर रहा था ऐसे ही किसी युवती के कमरे में जाने में वह संकोच कर रहा था..

"अरे रतन जी अंदर आ जाइए" विदेशी युवती के मुख से शुद्ध हिंदी में संबोधन सुनकर रतन और भी आश्चर्य में पड़ गया वह यंत्र वत अंदर आ.गया.."

माधुरी का कमरा भी बेहद भव्य था शायद वह विद्यानंद की विशेष शिष्या थी… रतन को यह एहसास हो गया था कि विद्यानंद से शायद वह जितना नजदीक था माधवी उससे दो कदम आगे थी.. आप बैठिए मैं दो मिनट में आती हूं..

माधवी अपने कक्ष के भीतर बने एक छोटे से कक्ष में प्रवेश कर गई और रतन अपनी तेज धड़कनें के साथ उसका इंतजार करने लगा…

##############

इधर बनारस में सूरज चढ़ आया था …खिड़कियों के बीच फंसे शीशों से उसकी रोशनी छन छन कर सुगना के गोरे चेहरे पर पढ़ रही थी …बदन पर पड़ी हुई रजाई सुगना के मदमस्त बदन को छुपाए हुए थी..परंतु बंद पलकें, गोरे गाल और रस से लबरेज उसके होंठ सूरज की रोशनी में चमक रहे थे…

उस पर बाल की दो लड़िया निकलकर गालों को चूमने का प्रयास कर रहीं थीं …

होठों पर बेहद हल्की मुस्कान छाई हुई थी शायद सुगना कोई सुखद और मीठा स्वप्न देख रही थी..

यदि कामदेव भी सुगना को उस रूप में देख लेते तो उन्हें इस बात का अफसोस होता कि उन्होंने ऐसी सुंदर अप्सरा को धरती पर क्यों दर् दर ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया था…

अचानक दरवाजे पर खटखट हुई और सुगना जाग उठी ….रजाई के अंदर उसे अपनी नग्नता का एहसास हुआ…नाइटी चुचियों के अपर एक घेरा बनाकर पड़ी हुई थी सुगना की ब्रा और पेंटी तकिए के नीचे अपने बाहर आने की राह देख रहे थे…

न जाने क्यों दिन भर स्त्री अस्मिता के वो दोनो प्रहरी रात्रि में रति भाव के आगमन पर अपनी उपयोगिता को देते थे…

जब तक सुगना उन्हे पहन पाती दरवाजे पर खट खट के साथ मधुर आवाज आई…

"दीदी…

शेष अगले भाग में..
"जिस प्रकार कहानी की नायिका सुगना ग्रामीण परिवेश में पलने बढ़ने के बाद भी बिना किसी कृत्रिम प्रयास के बेहद खूबसूरत और कोमल थी या आश्रम भी उसी प्रकार खूबसूरत था…"



गजब लेखन॥
 

yenjvoy

Member
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भाग 97
सोनू का लाल फूला हुआ सुपाड़ा लाली की हथेली में था…ऐसा लग रहा था जैसे लाली उसे खुद को छोड़ किसी और को चाहने का दंड दे रही हो पर लंड आज सुगना की चाहत लिए तैयार था…

सोनू उत्तेजना से कपने लगा…लाली ने उसे बेहद उत्तेजित कर दिया था..

और एक बार फिर लाली चुदने लगी….सुगना ने आज लाली का नया रूप देखा था…शायद उसे लाली से यह उम्मीद न थी…

सुगना से और बर्दाश्त न हुआ….वह अपने कमरे में आ गई…


सुगना ने खुद को संतुलित किया और गंदे गंदे ख्यालों को दरकिनार कर वह अपने श्रृंगारदान को खोल कर अपनी क्रीम लगाने लगी तभी उसका ध्यान उस जिल्द लगी किताब पर चला गया जिसको सोनू अपनी बड़ी बहन सुगना के लिए छोड़ आया था किताब के दोनों हिस्सों को एक साथ देख कर सुगना चौक उठी आखिर यह किसने किया हे भगवान…

अब आगे…..

आइए सुगना को अपनी तड़प और सोनू को लाली के साथ उनके हाल पर छोड़ देते हैं….. और आपको लिए चलते हैं हिमालय की गोद में जहां सुगना के पति रतन की मेहनत अब रंग ला चुकी थी। विद्यानंद ने उसे जिस आश्रम का निर्माण कार्य सौंपा था वह अब पूरा हो चुका था ….आज रतन उसका मुआयना करने जा रहा था..…

कुछ ही महीनों में रतन ने विद्यानंद आश्रम में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था ऐसा नहीं था कि यह स्थान उसे विद्यानंद के पुत्र होने के कारण प्राप्त हुआ था अपितु उसने अपनी मेहनत और लगन से वह मुकाम हासिल किया था l

आश्रम सच में बेहद खूबसूरत बना था रतन अपनी जीप में बैठकर आश्रम के लिए निकल चुका था कुछ दूर की यात्रा करने के बाद बड़े-बड़े चीड़ के पेड़ दिखाई पढ़ने लगे….. जैसे जैसे वह शहर से दूर होता गया प्रकृति की गोद में आता गया।

शहर की सुंदरता कृत्रिम है और जंगल की प्राकृतिक

कृत्रिम निर्माण सदैव तनाव का कारण है और प्रकृति सहज एवं सरल..

यह वाक्यांश जीवन के हर क्षेत्र में अपनी अहमियत साबित करते हैं चाहे वह जीवन शैली हो या सेक्स…

रतन खोया हुआ था…धरती इतनी सुंदर कैसे हो सकती है ?…शहरों में भीड़ भाड़ और लगातार हो रहे विकास कार्यों की वजह से…शहर प्रदूषित हो चुके है जबकि जंगल में प्रकृति अपनी खूबसूरती को संजोए हमेशा नई नवेली दुल्हन की तरह सजी धजी रहती है …..

रतन प्रकृति की खूबसूरती में खोया हुआ धीरे-धीरे आश्रम के गेट पर आ गया। इस आश्रम तक जन सामान्य का पहुंचना बेहद कठिन था…. निजी वाहनों के अलावा यहां आने का कोई विकल्प न था शहर से दूर यह सड़क विशेषकर इस आश्रम के लिए ही बनाई गई थी…

दो सिक्यूरिटी गार्ड ने उस आश्रम का विशाल गेट खोला और रतन की गाड़ी अंदर प्रवेश कर गई।

अंदर की खूबसूरती देखने लायक थी. सड़क के किनारे सुंदर सुंदर पार्क बनाए गए थे उसमें करीने से जंगली और खूबसूरत फूल लगाए गए थे जो अब अपनी कलियां बिखेर कर रतन की मेहनत को चरितार्थ कर रहे थे…

सपाट खाली जगह सुंदर विदेशी घांस से पटी हुई थी कभी-कभी प्रकृति से की गई छेड़छाड़ उसे और भी सुंदर बना देती है इस आश्रम के चारों तरफ जो फूल पौधे लगाए गए थे वह इस आश्रम को और भी खूबसूरत बना रहे थे…

सामने तीन मंजिला भवन दिखाई पढ़ने लगा भवन की खूबसूरती दिखने लायक थी दूर से देखने पर यह होटल दिखाई पड़ता परंतु भवन के मुख्य भाग की सजावट उसे एक आलीशान आश्रम की शक्ल दे रही थी। रतन उस भवन तक पहुंच चुका था सिक्योरिटी गार्ड ने अपने पैर पटक कर रतन को सैल्यूट किया.. और रतन स्वयं अपनी ही बनाई कृति को देखकर भावविभोर हो उठा.. भवन के रंग रोगन ने उसे और भी खूबसूरत बना दिया था.

उस दौरान (90 के दशक में) इतनी सुंदर कलाकृति का निर्माण देखने लायक था…

अब तक निर्माण कार्य में लगे लोगों की फौज वहां आ चुकी थी और उनके प्रतिनिधि ने रतन को बताया..

"महाराज पुरुष आश्रम का कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है परंतु महिला हॉस्टल में कुछ ही काम बाकी है वह भी अगले हफ्ते में पूरा हो जाएगा आश्रम का उद्घाटन हम लोग दीपावली के दिन कर सकते हैं…"


रतन ने पुरुष आश्रम के कक्षों का मुआयना किया और वहां पर उपलब्ध सामग्री की गुणवत्ता की जांच की दीवारों के रंग रोगन को अपने पारखी निगाहों से देखा। निर्माण कार्य में लगे लोगों ने अच्छा कार्य किया था।

आश्रम में कमरों में जो सादगी थी वह होटल से अलग थी। यह कहना कठिन था की आश्रम के कमरे ज्यादा खूबसूरत थे या पांच सितारा होटल का सजा धजा शयनकक्ष…परंतु सादगी जितनी खूबसूरत हो सकती थी वो थी।

जिस प्रकार कहानी की नायिका सुगना ग्रामीण परिवेश में पलने बढ़ने के बाद भी बिना किसी कृत्रिम प्रयास के बेहद खूबसूरत और कोमल थी या आश्रम भी उसी प्रकार खूबसूरत था…

इस पुरुष आश्रम के ठीक पीछे वह विशेष भवन था जिसमें वह अनोखे कूपे बनाए गए थे (जिनका विवरण पहले दिया जा चुका है..) इस भवन का निर्माण विद्यानंद ने एक विशेष प्रयोजन के लिए कराया था जिसकी आधी अधूरी जानकारी रतन को थी परंतु विद्यानंद के मन में क्या था यह तो वही जाने …परंतु रतन ने इस विशेष भवन का निर्माण पूरी तन्मयता और कार्यकुशलता से किया था… अंदर बने कूपे निराले थे।

आज इस विशेष भवन में प्रवेश कर रतन खुद गौरवान्वित महसूस कर रहा था सचमुच अंदर से उस भवन की खूबसूरती देखने लायक थी.. दीवारों पर की गई नक्काशी और कृत्रिम प्रकाश से उसे बेहद खूबसूरत ढंग से सजाया था।

विधाता ने प्रकृति के माध्यम से इंसान को रंगों की पहचान थी परंतु विधाता की कृति इंसान ने उन रंगों के इतने रूप बना दिए जितने शायद विधाता की कल्पना भी न थी..

प्रकाश के विविध रंगों ने साज सज्जा को नया आयाम दे दिया था अलग-अलग रंगों के प्रकाश जब दीवार पर सजी मूर्तियों पर पढ़ते उसकी खूबसूरती निखर निखर कर बाहर आती ऐसा लगता जैसे पत्थर बोलने को आतुर थे वह इस भवन में होने वाली घटनाओं के साक्षी बनने वाले थे…


ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे विद्यानंद ने जो भी धन अर्जित किया था उसका अधिकांश भाग इसके निर्माण में लगा दिया था..

इस विशेष भवन के पीछे हुबहू पुरुष आश्रम जैसा सा ही एक और आश्रम था.. वह महिलाओं के लिए बनाया गया था.. महिलाओं के आश्रम के ठीक सामने भी वैसा ही पार्क और वैसे ही सड़क थी.. यूं कहिए कि वह विशेष भवन पुरुष आश्रम और महिला आश्रम के बीच एक कड़ी था। बाकी पुरुष आश्रम तक पहुंचने का रास्ता अलग था और महिला आश्रम तक पहुंचने का रास्ता अलग।


पुरुष आश्रम में आ रहे आगंतुकों को महिला आश्रम दिखाई नहीं पड़ता था इसी प्रकार महिला आश्रम में आ रहे लोग पुरुष आश्रम को देख नहीं सकते थे यहां तक कि वह विशेष भवन भी सामने से दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि वह पुरुष आश्रम और महिला आश्रम के बीचों-बीच स्थित था….

महिला आश्रम का मुआयना करने के पश्चात जो छुटपुट कार्य बाकी थे उसके लिए रतन ने निर्माण कार्य में लगे लोगों को दिशा निर्देशित किया।

अब तक उसकी जीप घूम कर महिला आश्रम के गेट पर आकर खड़ी हो गई थी…महिला आश्रम और पुरुष आश्रम के एक दूसरे से नजदीक होने के बावजूद वाहन को वहां पहुंचने के लिए 10 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ा था…दरअसल महिला आश्रम और पुरुष आश्रम के पहुंचने के लिए जो मुख्य द्वार बनाया गया था वह पूरी तरह अलग था…

रतन आश्रम का मुआइना कर पूरी तरह संतुष्ट हो गया जो कुछ छुटपुट कार्य बाकी था वह दो तीन दिनों में पूरा हो जाना था।


आज रतन विद्यानंद से मिलकर आश्रम के की निर्माण कार्य पूरा हो जाने की सूचना देने वाला था ….और उनसे आश्रम के उद्घाटन से संबंधित दिशा निर्देश प्राप्त करने वाला था.

रतन खुशी खुशी वापस विद्यानंद के मुख्य आश्रम की ओर निकल पड़ा……महिला आश्रम के सामने बने पार्क से उसकी जीप गुजर रही थी एक पल के लिए उसे यह भ्रम हो गया कि वह पुरुष आश्रम के सामने की तरफ से जा रहा है या महिला आश्रम के? उसने पीछे पलट कर देखा और मुस्कुराते हुए उसने ड्राइवर से कहा

"यह पार्क हूबहू पुरुष आश्रम के पार्क की तरह ही है "

हां महाराज दोनों ही बिल्कुल एक जैसे दिखाई पड़ते हैं ....

जीप तेजी से सरपट विद्यानंद के मुख्य आश्रम की तरफ बढ़ती जा रही थी। रतन अपने जीवन के पन्ने पलट कर देख रहा था कैसे वह मुंबई में एक आम जीवन जीवन व्यतीत करते करते आज अचानक खास हो गया था । शायद इसमें वह सुगना का ही योगदान मानता था उसके प्यार की वजह से ही वह बबीता जैसी दुष्ट और व्यभिचारी पत्नी को छोड़ पाने की हिम्मत जुटा पाया और अपनी प्यारी मिंकी को लेकर सुगना की शरण में आ गया था …पर हाय री नियति सुगना और रतन का मिलन हुआ तो अवश्य परंतु न जाने उस प्यार की पवित्रता में क्या कमी थी सुगना की जादुई बुर ने रतन के लंड को स्वीकार न किया।

रतन ने सुगना के कुएं से अपनी प्यास खूब बुझाई पर कुआं स्वयं प्यासा रह गया…

रतन.सुगना को तृप्त न कर पाया था और यही उसके लिए विरक्ति का कारण बन गया था.. जैसे-जैसे रतन की जीप विद्यानंद के आश्रम की करीब आ रही थी रतन की धड़कनें बढ़ रही थी । आज भी वह विद्यानंद के सामने जाने में घबराता था परंतु धीरे-धीरे वह उनके करीब आ रहा था..

रतन यद्यपि विद्यानंद का पुत्र था परंतु फिर भी उसका चेहरा विद्यानंद से पूरी तरह नहीं मिलता था किसी बाहरी व्यक्ति के लिए यह बता पाना कठिन था कि रतन विद्यानंद का पुत्र है ऐसा क्यों हुआ होगा यह तो विधाता ही जाने परंतु रतन की मां कजरी और विद्यानंद का मिलन एक मधुर मिलन न था …

विद्यानंद के कक्ष के बाहर बैठा रतन अपनी बारी का इंतजार कर रहा था । अंदर विद्यानंद अपना ध्यान लगाकर अपने इष्ट को याद कर रहे थे कुछ ही देर बाद एक सेविका रतन को अंदर ले गई।


विद्यानंद ने अपनी आंखें खोली और रतन को देखकर बोले

" बताओ वत्स… तुम्हारे चेहरे की मुस्कुराहट बता रही है कि मैंने तुम्हें जो कार्य दिया था वह तुमने पूर्ण कर लिया है"

" हां महाराज .. आपके आशीर्वाद से आश्रम का निर्माण कार्य पूरा हो गया है आप जब चाहें हम लोग उसका उद्घाटन कर सकते हैं.."


विद्यानंद की चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई का चेहरा आभा से चमकने लगा उन्होंने रतन को बैठने के लिए कहा और अपनी सेविका को एकांत का इशारा किया…

विद्यानंद ने रतन को संबोधित करते हुए कहा..

" जन सामान्य की यह अवधारणा है कि जिस व्यक्ति ने संयास ले लिया है उसने भौतिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली परंतु ऐसा कर पाना इतना आसान नहीं है…काम क्रोध मद लोभ यह मनुष्य के स्वाभाविक गुण हैं इन पर नियंत्रण कर और विजय पाकर वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है.


आश्रम में रहने वाले मेरे हजारों अनुयायियों में से आज भी कई लोग इन सामान्य गुणों का परित्याग कर पाने में अक्षम हैं.. मुझे यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है.."

रतन की आंखें शर्म से झुक गई उसे ऐसा लगा जैसे विद्यानंद की बातें उसकी ओर ही इंगित कर रही थी रतन सकपका गया तो क्या विद्यानंद जी को उसके आश्रम में किए गए व्यभिचार की खबर थी? वह सर झुकाए विद्यानंद की बातें सुनता रहा विद्यानंद ने आगे कहा..

" आज भी इस आश्रम के अनुयायी किसी ने किसी रूप में वासना से ग्रस्त हैं वो अपनी अपनी समस्याओं की वजह से घर त्यागकर इस आश्रम में आए हुए हैं।

ऐसी लोग आश्रम में आ तो गए हैं परंतु उनकी स्वाभाविक कामवासना अभी भी जीवित है और वह अपने उचित की साथी की तलाश में अक्सर अपना समझ जाया करते है..

जिस आश्रम का निर्माण तुमने कराया है उसका एक विशेष प्रयोजन है यह आश्रम .. मेरे अनुयायियों को कामवासना से मुक्ति दिलाने के लिए ही बनाया गया है."

रतन रतन ने आंख उठाकर विद्यानंद की तरफ देखा जो अपनी आंखें बंद किए अपने मुख से यह अप्रत्याशित शब्द कह रहे थे परंतु उनके चेहरे के भाव यह बता रहे थे कि वह जो कुछ कह रहे थे वह आवेश और उद्वेग से परे एक शांत और सहज मन की बात थी..उन्होंने फिर कहा..

"मेरी बात ध्यान से सुनना वह आश्रम स्त्री और पुरुष के मिलन के लिए बनाया गया है… समाज में आज भी कई किशोर युवक और युवतियां समागम को लेकर अलग-अलग भ्रांतियां पाले हुए है.. जिसकी वजह से किशोर और किशोरियों में एक भय जन्म ले चुका है.. किशोरियां समागम से घबराती हैं और किशोर अपनी मर्दानगी पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं समाज में धीरे धीरे यह व्याधि फैलती जा रही है और उनके माता-पिता अक्सर मेरी शरण में आकर उनके लिए सुखद गृहस्थ जीवन का आशीर्वाद मांगते हैं।


स्त्री और पुरुष का मिलन ही गृहस्थ जीवन की कुंजी है यह उतना ही पावन है जितना परमात्मा से मिलन.. परंतु किसी न किसी कारणवश सभी स्त्री और पुरुषों का मिलन उतना सुखद नहीं होता जितना उन्हें होना चाहिए इसका कारण सिर्फ और सिर्फ अज्ञानता है..न तो पुरुष स्त्री के कोमल शरीर को पूरी तरह समझ पाता है और नहीं स्त्री पुरुष की उग्र उत्तेजना को..

और जब उन दोनों का मिलन होता है तब निश्चित की परिणाम आशानुरूप नहीं रहते.. मैं चाहता हूं कि तुम गृहस्थ जीवन में रहने के इच्छुक स्त्री और पुरुषों को एक दूसरे को समझ में में मदद करो.. जिस आश्रम का निर्माण तुमने कराया है वह इस प्रयोजन को चरितार्थ करेगा

तुम्हें इस बात का विशेष प्रबंध करना होगा कि आश्रम में रह रहे इस स्त्री और पुरुष एक दूसरे को कभी भी न जान पाएं…उनकी गोपनीयता सुरक्षित रखना तुम्हारा कार्य है यदि गोपनीयता भंग होती है तो यह आश्रम अपना अस्तित्व खो बैठेगा…..


पुरुष और स्त्री दोनों का मिलन सिर्फ और सिर्फ आश्रम के मुख्य भवन में होना चाहिए इसके अलावा कहीं नहीं..

आश्रम से संबंधित दिशा निर्देश और विस्तृत नियमावली माधवी ने बनाई है वह तुम्हें और भी विस्तार से समझा देगी…

माधवी का नाम सुनकर रतन चौका.. लगभग विद्यानंद से जुड़े सभी खास स्त्री और पुरुषों को जानता था पर माधवी का नाम उसने आज से पहले कभी नहीं सुना था विद्यानंद ने…

विद्यानंद ने आगे कहा..


"इस आश्रम से कुछ स्त्रियां और कुछ पुरुष उस आश्रम में रहने के लिए भेजे जाएंगे और जब उनकी वासना समाप्त हो जाएगी तब वो इस आश्रम में वापस आ सकेंगे…"

रतन विद्यानंद की बातों को बेहद ध्यान से सुन रहा था उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि विद्यानंद जैसा महात्मा भी वासना को इतना महत्व देता था.. रतन ने भी वासना की कई रूप देखे थे अपनी पत्नी बबीता के व्यभिचार को भी और अपनी पत्नी सुगना के व्यभिचार को जिससे उसने सूरज जैसे दिव्य बालक को जन्म दिया था यह अलग बात थी की व्यभिचार के कारण अलग थे पर इन संबंधों की सामाजिक मान्यता न थी ना हो सकती थी..


विद्यानंद की गंभीर आवाज आई

" माधवी को बुलाया जाए" और थोड़ी ही देर में एक विदेशी और बेहद खूबसूरत युवती रतन के सामने खड़ी थी.. श्वेत धवल वस्त्रों में उस विदेशी युवती को देखकर रतन अवाक रह गया। माधवी….. उसकी खूबसूरती देखने लायक थी 24 - 25 वर्ष की माधवी सुडौल काया की स्वामी थी.. हल्के भूरे रेशमी बाल जो एकदम सीधे थे उसके चेहरे की खूबसूरती और भी बड़ा रहे थे… रतन उसकी खूबसूरती में खो गया और विद्यानंद ने रतन की आंखों को पढ़कर उसके मनोभावों का अंदाजा लगा लिया….. विद्यानंद ने रतन से कहा

"वत्स तुम माधवी के साथ चले जाओ यह तुम्हें उस आश्रम से संबंधित नियमावली समझा देगी और मैं चाहता हूं कि तुम भी उस आश्रम में रहकर ही वहां का कार्य भार देखो …. तुम पुरुष आश्रम का कार्यभार संभाल लेना और माधवी महिला आश्रम का…"

विद्यानंद ने अपनी आंखें बंद कर ली.. और हाथ उठाकर रतन को आशीर्वाद दिया शायद यह मुलाकात की समाप्ति का इशारा भी था रतन के मन में अब भी ढेरों प्रश्न थे उसने कुछ और कहना चाहा परंतु विद्यानंद अपनी ध्यान मुद्रा में जा चुके थे। उसने माधवी की तरफ देखा और माधवी ने मुस्कुरा कर उसका अभिवादन किया अपने रतन को अपने पीछे आने का इशारा किया और वह पलट कर वापस जाने लगी..

विद्यानंद की आंखें बंद होने के बाद रतन की आंखें पूरी तरह खुल गई सामने बलखाती हुई माधवी जा रही थी और रतन उसके पीछे-पीछे …

श्वेत चादर में लिपटी माधवी की कामुक और मदमस्त काया देखने लायक थी…श्वेत वस्त्र के आवरण के बावजूद माधवी की चौडी छाती पतली कमर और भरे-भरे नितंब अपनी खूबसूरती का एहसास बखूबी करा रहे थे…

रतन की वासना ने उसे घेर लिया और उसका लंड कुलांचे मारने लगा…उसके नेत्र वस्त्रों के पार माधवी की मदमस्त काया को देखने का प्रयास करने लगे माधवी की नग्न छवि उसके दिलो-दिमाग में बनती चली गई…

जैसे-जैसे वासना हावी होती गई दिमाग कुंद होता गया शरीर का सारा रक्त जैसे उस वह तना हुआ लंड अपनी तरफ खींच रहा था…

माधवी अपने कक्ष में आ चुकी थी और रतन दरवाजे पर खड़ा माधवी के इशारे का इंतजार कर रहा था ऐसे ही किसी युवती के कमरे में जाने में वह संकोच कर रहा था..

"अरे रतन जी अंदर आ जाइए" विदेशी युवती के मुख से शुद्ध हिंदी में संबोधन सुनकर रतन और भी आश्चर्य में पड़ गया वह यंत्र वत अंदर आ.गया.."

माधुरी का कमरा भी बेहद भव्य था शायद वह विद्यानंद की विशेष शिष्या थी… रतन को यह एहसास हो गया था कि विद्यानंद से शायद वह जितना नजदीक था माधवी उससे दो कदम आगे थी.. आप बैठिए मैं दो मिनट में आती हूं..

माधवी अपने कक्ष के भीतर बने एक छोटे से कक्ष में प्रवेश कर गई और रतन अपनी तेज धड़कनें के साथ उसका इंतजार करने लगा…

##############

इधर बनारस में सूरज चढ़ आया था …खिड़कियों के बीच फंसे शीशों से उसकी रोशनी छन छन कर सुगना के गोरे चेहरे पर पढ़ रही थी …बदन पर पड़ी हुई रजाई सुगना के मदमस्त बदन को छुपाए हुए थी..परंतु बंद पलकें, गोरे गाल और रस से लबरेज उसके होंठ सूरज की रोशनी में चमक रहे थे…

उस पर बाल की दो लड़िया निकलकर गालों को चूमने का प्रयास कर रहीं थीं …

होठों पर बेहद हल्की मुस्कान छाई हुई थी शायद सुगना कोई सुखद और मीठा स्वप्न देख रही थी..

यदि कामदेव भी सुगना को उस रूप में देख लेते तो उन्हें इस बात का अफसोस होता कि उन्होंने ऐसी सुंदर अप्सरा को धरती पर क्यों दर् दर ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया था…

अचानक दरवाजे पर खटखट हुई और सुगना जाग उठी ….रजाई के अंदर उसे अपनी नग्नता का एहसास हुआ…नाइटी चुचियों के अपर एक घेरा बनाकर पड़ी हुई थी सुगना की ब्रा और पेंटी तकिए के नीचे अपने बाहर आने की राह देख रहे थे…

न जाने क्यों दिन भर स्त्री अस्मिता के वो दोनो प्रहरी रात्रि में रति भाव के आगमन पर अपनी उपयोगिता को देते थे…

जब तक सुगना उन्हे पहन पाती दरवाजे पर खट खट के साथ मधुर आवाज आई…

"दीदी…

शेष अगले भाग में..
आगे चल कर माधवी और मोनी का 3way रतन के साथ संभव हो पायेगा?
 

Kadak Londa Ravi

Roleplay Lover
304
594
94
भाग 97
सोनू का लाल फूला हुआ सुपाड़ा लाली की हथेली में था…ऐसा लग रहा था जैसे लाली उसे खुद को छोड़ किसी और को चाहने का दंड दे रही हो पर लंड आज सुगना की चाहत लिए तैयार था…

सोनू उत्तेजना से कपने लगा…लाली ने उसे बेहद उत्तेजित कर दिया था..

और एक बार फिर लाली चुदने लगी….सुगना ने आज लाली का नया रूप देखा था…शायद उसे लाली से यह उम्मीद न थी…

सुगना से और बर्दाश्त न हुआ….वह अपने कमरे में आ गई…


सुगना ने खुद को संतुलित किया और गंदे गंदे ख्यालों को दरकिनार कर वह अपने श्रृंगारदान को खोल कर अपनी क्रीम लगाने लगी तभी उसका ध्यान उस जिल्द लगी किताब पर चला गया जिसको सोनू अपनी बड़ी बहन सुगना के लिए छोड़ आया था किताब के दोनों हिस्सों को एक साथ देख कर सुगना चौक उठी आखिर यह किसने किया हे भगवान…

अब आगे…..

आइए सुगना को अपनी तड़प और सोनू को लाली के साथ उनके हाल पर छोड़ देते हैं….. और आपको लिए चलते हैं हिमालय की गोद में जहां सुगना के पति रतन की मेहनत अब रंग ला चुकी थी। विद्यानंद ने उसे जिस आश्रम का निर्माण कार्य सौंपा था वह अब पूरा हो चुका था ….आज रतन उसका मुआयना करने जा रहा था..…

कुछ ही महीनों में रतन ने विद्यानंद आश्रम में एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था ऐसा नहीं था कि यह स्थान उसे विद्यानंद के पुत्र होने के कारण प्राप्त हुआ था अपितु उसने अपनी मेहनत और लगन से वह मुकाम हासिल किया था l

आश्रम सच में बेहद खूबसूरत बना था रतन अपनी जीप में बैठकर आश्रम के लिए निकल चुका था कुछ दूर की यात्रा करने के बाद बड़े-बड़े चीड़ के पेड़ दिखाई पढ़ने लगे….. जैसे जैसे वह शहर से दूर होता गया प्रकृति की गोद में आता गया।

शहर की सुंदरता कृत्रिम है और जंगल की प्राकृतिक

कृत्रिम निर्माण सदैव तनाव का कारण है और प्रकृति सहज एवं सरल..

यह वाक्यांश जीवन के हर क्षेत्र में अपनी अहमियत साबित करते हैं चाहे वह जीवन शैली हो या सेक्स…

रतन खोया हुआ था…धरती इतनी सुंदर कैसे हो सकती है ?…शहरों में भीड़ भाड़ और लगातार हो रहे विकास कार्यों की वजह से…शहर प्रदूषित हो चुके है जबकि जंगल में प्रकृति अपनी खूबसूरती को संजोए हमेशा नई नवेली दुल्हन की तरह सजी धजी रहती है …..

रतन प्रकृति की खूबसूरती में खोया हुआ धीरे-धीरे आश्रम के गेट पर आ गया। इस आश्रम तक जन सामान्य का पहुंचना बेहद कठिन था…. निजी वाहनों के अलावा यहां आने का कोई विकल्प न था शहर से दूर यह सड़क विशेषकर इस आश्रम के लिए ही बनाई गई थी…

दो सिक्यूरिटी गार्ड ने उस आश्रम का विशाल गेट खोला और रतन की गाड़ी अंदर प्रवेश कर गई।

अंदर की खूबसूरती देखने लायक थी. सड़क के किनारे सुंदर सुंदर पार्क बनाए गए थे उसमें करीने से जंगली और खूबसूरत फूल लगाए गए थे जो अब अपनी कलियां बिखेर कर रतन की मेहनत को चरितार्थ कर रहे थे…

सपाट खाली जगह सुंदर विदेशी घांस से पटी हुई थी कभी-कभी प्रकृति से की गई छेड़छाड़ उसे और भी सुंदर बना देती है इस आश्रम के चारों तरफ जो फूल पौधे लगाए गए थे वह इस आश्रम को और भी खूबसूरत बना रहे थे…

सामने तीन मंजिला भवन दिखाई पढ़ने लगा भवन की खूबसूरती दिखने लायक थी दूर से देखने पर यह होटल दिखाई पड़ता परंतु भवन के मुख्य भाग की सजावट उसे एक आलीशान आश्रम की शक्ल दे रही थी। रतन उस भवन तक पहुंच चुका था सिक्योरिटी गार्ड ने अपने पैर पटक कर रतन को सैल्यूट किया.. और रतन स्वयं अपनी ही बनाई कृति को देखकर भावविभोर हो उठा.. भवन के रंग रोगन ने उसे और भी खूबसूरत बना दिया था.

उस दौरान (90 के दशक में) इतनी सुंदर कलाकृति का निर्माण देखने लायक था…

अब तक निर्माण कार्य में लगे लोगों की फौज वहां आ चुकी थी और उनके प्रतिनिधि ने रतन को बताया..

"महाराज पुरुष आश्रम का कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है परंतु महिला हॉस्टल में कुछ ही काम बाकी है वह भी अगले हफ्ते में पूरा हो जाएगा आश्रम का उद्घाटन हम लोग दीपावली के दिन कर सकते हैं…"


रतन ने पुरुष आश्रम के कक्षों का मुआयना किया और वहां पर उपलब्ध सामग्री की गुणवत्ता की जांच की दीवारों के रंग रोगन को अपने पारखी निगाहों से देखा। निर्माण कार्य में लगे लोगों ने अच्छा कार्य किया था।

आश्रम में कमरों में जो सादगी थी वह होटल से अलग थी। यह कहना कठिन था की आश्रम के कमरे ज्यादा खूबसूरत थे या पांच सितारा होटल का सजा धजा शयनकक्ष…परंतु सादगी जितनी खूबसूरत हो सकती थी वो थी।

जिस प्रकार कहानी की नायिका सुगना ग्रामीण परिवेश में पलने बढ़ने के बाद भी बिना किसी कृत्रिम प्रयास के बेहद खूबसूरत और कोमल थी या आश्रम भी उसी प्रकार खूबसूरत था…

इस पुरुष आश्रम के ठीक पीछे वह विशेष भवन था जिसमें वह अनोखे कूपे बनाए गए थे (जिनका विवरण पहले दिया जा चुका है..) इस भवन का निर्माण विद्यानंद ने एक विशेष प्रयोजन के लिए कराया था जिसकी आधी अधूरी जानकारी रतन को थी परंतु विद्यानंद के मन में क्या था यह तो वही जाने …परंतु रतन ने इस विशेष भवन का निर्माण पूरी तन्मयता और कार्यकुशलता से किया था… अंदर बने कूपे निराले थे।

आज इस विशेष भवन में प्रवेश कर रतन खुद गौरवान्वित महसूस कर रहा था सचमुच अंदर से उस भवन की खूबसूरती देखने लायक थी.. दीवारों पर की गई नक्काशी और कृत्रिम प्रकाश से उसे बेहद खूबसूरत ढंग से सजाया था।

विधाता ने प्रकृति के माध्यम से इंसान को रंगों की पहचान थी परंतु विधाता की कृति इंसान ने उन रंगों के इतने रूप बना दिए जितने शायद विधाता की कल्पना भी न थी..

प्रकाश के विविध रंगों ने साज सज्जा को नया आयाम दे दिया था अलग-अलग रंगों के प्रकाश जब दीवार पर सजी मूर्तियों पर पढ़ते उसकी खूबसूरती निखर निखर कर बाहर आती ऐसा लगता जैसे पत्थर बोलने को आतुर थे वह इस भवन में होने वाली घटनाओं के साक्षी बनने वाले थे…


ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे विद्यानंद ने जो भी धन अर्जित किया था उसका अधिकांश भाग इसके निर्माण में लगा दिया था..

इस विशेष भवन के पीछे हुबहू पुरुष आश्रम जैसा सा ही एक और आश्रम था.. वह महिलाओं के लिए बनाया गया था.. महिलाओं के आश्रम के ठीक सामने भी वैसा ही पार्क और वैसे ही सड़क थी.. यूं कहिए कि वह विशेष भवन पुरुष आश्रम और महिला आश्रम के बीच एक कड़ी था। बाकी पुरुष आश्रम तक पहुंचने का रास्ता अलग था और महिला आश्रम तक पहुंचने का रास्ता अलग।


पुरुष आश्रम में आ रहे आगंतुकों को महिला आश्रम दिखाई नहीं पड़ता था इसी प्रकार महिला आश्रम में आ रहे लोग पुरुष आश्रम को देख नहीं सकते थे यहां तक कि वह विशेष भवन भी सामने से दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि वह पुरुष आश्रम और महिला आश्रम के बीचों-बीच स्थित था….

महिला आश्रम का मुआयना करने के पश्चात जो छुटपुट कार्य बाकी थे उसके लिए रतन ने निर्माण कार्य में लगे लोगों को दिशा निर्देशित किया।

अब तक उसकी जीप घूम कर महिला आश्रम के गेट पर आकर खड़ी हो गई थी…महिला आश्रम और पुरुष आश्रम के एक दूसरे से नजदीक होने के बावजूद वाहन को वहां पहुंचने के लिए 10 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ा था…दरअसल महिला आश्रम और पुरुष आश्रम के पहुंचने के लिए जो मुख्य द्वार बनाया गया था वह पूरी तरह अलग था…

रतन आश्रम का मुआइना कर पूरी तरह संतुष्ट हो गया जो कुछ छुटपुट कार्य बाकी था वह दो तीन दिनों में पूरा हो जाना था।


आज रतन विद्यानंद से मिलकर आश्रम के की निर्माण कार्य पूरा हो जाने की सूचना देने वाला था ….और उनसे आश्रम के उद्घाटन से संबंधित दिशा निर्देश प्राप्त करने वाला था.

रतन खुशी खुशी वापस विद्यानंद के मुख्य आश्रम की ओर निकल पड़ा……महिला आश्रम के सामने बने पार्क से उसकी जीप गुजर रही थी एक पल के लिए उसे यह भ्रम हो गया कि वह पुरुष आश्रम के सामने की तरफ से जा रहा है या महिला आश्रम के? उसने पीछे पलट कर देखा और मुस्कुराते हुए उसने ड्राइवर से कहा

"यह पार्क हूबहू पुरुष आश्रम के पार्क की तरह ही है "

हां महाराज दोनों ही बिल्कुल एक जैसे दिखाई पड़ते हैं ....

जीप तेजी से सरपट विद्यानंद के मुख्य आश्रम की तरफ बढ़ती जा रही थी। रतन अपने जीवन के पन्ने पलट कर देख रहा था कैसे वह मुंबई में एक आम जीवन जीवन व्यतीत करते करते आज अचानक खास हो गया था । शायद इसमें वह सुगना का ही योगदान मानता था उसके प्यार की वजह से ही वह बबीता जैसी दुष्ट और व्यभिचारी पत्नी को छोड़ पाने की हिम्मत जुटा पाया और अपनी प्यारी मिंकी को लेकर सुगना की शरण में आ गया था …पर हाय री नियति सुगना और रतन का मिलन हुआ तो अवश्य परंतु न जाने उस प्यार की पवित्रता में क्या कमी थी सुगना की जादुई बुर ने रतन के लंड को स्वीकार न किया।

रतन ने सुगना के कुएं से अपनी प्यास खूब बुझाई पर कुआं स्वयं प्यासा रह गया…

रतन.सुगना को तृप्त न कर पाया था और यही उसके लिए विरक्ति का कारण बन गया था.. जैसे-जैसे रतन की जीप विद्यानंद के आश्रम की करीब आ रही थी रतन की धड़कनें बढ़ रही थी । आज भी वह विद्यानंद के सामने जाने में घबराता था परंतु धीरे-धीरे वह उनके करीब आ रहा था..

रतन यद्यपि विद्यानंद का पुत्र था परंतु फिर भी उसका चेहरा विद्यानंद से पूरी तरह नहीं मिलता था किसी बाहरी व्यक्ति के लिए यह बता पाना कठिन था कि रतन विद्यानंद का पुत्र है ऐसा क्यों हुआ होगा यह तो विधाता ही जाने परंतु रतन की मां कजरी और विद्यानंद का मिलन एक मधुर मिलन न था …

विद्यानंद के कक्ष के बाहर बैठा रतन अपनी बारी का इंतजार कर रहा था । अंदर विद्यानंद अपना ध्यान लगाकर अपने इष्ट को याद कर रहे थे कुछ ही देर बाद एक सेविका रतन को अंदर ले गई।


विद्यानंद ने अपनी आंखें खोली और रतन को देखकर बोले

" बताओ वत्स… तुम्हारे चेहरे की मुस्कुराहट बता रही है कि मैंने तुम्हें जो कार्य दिया था वह तुमने पूर्ण कर लिया है"

" हां महाराज .. आपके आशीर्वाद से आश्रम का निर्माण कार्य पूरा हो गया है आप जब चाहें हम लोग उसका उद्घाटन कर सकते हैं.."


विद्यानंद की चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई का चेहरा आभा से चमकने लगा उन्होंने रतन को बैठने के लिए कहा और अपनी सेविका को एकांत का इशारा किया…

विद्यानंद ने रतन को संबोधित करते हुए कहा..

" जन सामान्य की यह अवधारणा है कि जिस व्यक्ति ने संयास ले लिया है उसने भौतिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली परंतु ऐसा कर पाना इतना आसान नहीं है…काम क्रोध मद लोभ यह मनुष्य के स्वाभाविक गुण हैं इन पर नियंत्रण कर और विजय पाकर वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है.


आश्रम में रहने वाले मेरे हजारों अनुयायियों में से आज भी कई लोग इन सामान्य गुणों का परित्याग कर पाने में अक्षम हैं.. मुझे यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है.."

रतन की आंखें शर्म से झुक गई उसे ऐसा लगा जैसे विद्यानंद की बातें उसकी ओर ही इंगित कर रही थी रतन सकपका गया तो क्या विद्यानंद जी को उसके आश्रम में किए गए व्यभिचार की खबर थी? वह सर झुकाए विद्यानंद की बातें सुनता रहा विद्यानंद ने आगे कहा..

" आज भी इस आश्रम के अनुयायी किसी ने किसी रूप में वासना से ग्रस्त हैं वो अपनी अपनी समस्याओं की वजह से घर त्यागकर इस आश्रम में आए हुए हैं।

ऐसी लोग आश्रम में आ तो गए हैं परंतु उनकी स्वाभाविक कामवासना अभी भी जीवित है और वह अपने उचित की साथी की तलाश में अक्सर अपना समझ जाया करते है..

जिस आश्रम का निर्माण तुमने कराया है उसका एक विशेष प्रयोजन है यह आश्रम .. मेरे अनुयायियों को कामवासना से मुक्ति दिलाने के लिए ही बनाया गया है."

रतन रतन ने आंख उठाकर विद्यानंद की तरफ देखा जो अपनी आंखें बंद किए अपने मुख से यह अप्रत्याशित शब्द कह रहे थे परंतु उनके चेहरे के भाव यह बता रहे थे कि वह जो कुछ कह रहे थे वह आवेश और उद्वेग से परे एक शांत और सहज मन की बात थी..उन्होंने फिर कहा..

"मेरी बात ध्यान से सुनना वह आश्रम स्त्री और पुरुष के मिलन के लिए बनाया गया है… समाज में आज भी कई किशोर युवक और युवतियां समागम को लेकर अलग-अलग भ्रांतियां पाले हुए है.. जिसकी वजह से किशोर और किशोरियों में एक भय जन्म ले चुका है.. किशोरियां समागम से घबराती हैं और किशोर अपनी मर्दानगी पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं समाज में धीरे धीरे यह व्याधि फैलती जा रही है और उनके माता-पिता अक्सर मेरी शरण में आकर उनके लिए सुखद गृहस्थ जीवन का आशीर्वाद मांगते हैं।


स्त्री और पुरुष का मिलन ही गृहस्थ जीवन की कुंजी है यह उतना ही पावन है जितना परमात्मा से मिलन.. परंतु किसी न किसी कारणवश सभी स्त्री और पुरुषों का मिलन उतना सुखद नहीं होता जितना उन्हें होना चाहिए इसका कारण सिर्फ और सिर्फ अज्ञानता है..न तो पुरुष स्त्री के कोमल शरीर को पूरी तरह समझ पाता है और नहीं स्त्री पुरुष की उग्र उत्तेजना को..

और जब उन दोनों का मिलन होता है तब निश्चित की परिणाम आशानुरूप नहीं रहते.. मैं चाहता हूं कि तुम गृहस्थ जीवन में रहने के इच्छुक स्त्री और पुरुषों को एक दूसरे को समझ में में मदद करो.. जिस आश्रम का निर्माण तुमने कराया है वह इस प्रयोजन को चरितार्थ करेगा

तुम्हें इस बात का विशेष प्रबंध करना होगा कि आश्रम में रह रहे इस स्त्री और पुरुष एक दूसरे को कभी भी न जान पाएं…उनकी गोपनीयता सुरक्षित रखना तुम्हारा कार्य है यदि गोपनीयता भंग होती है तो यह आश्रम अपना अस्तित्व खो बैठेगा…..


पुरुष और स्त्री दोनों का मिलन सिर्फ और सिर्फ आश्रम के मुख्य भवन में होना चाहिए इसके अलावा कहीं नहीं..

आश्रम से संबंधित दिशा निर्देश और विस्तृत नियमावली माधवी ने बनाई है वह तुम्हें और भी विस्तार से समझा देगी…

माधवी का नाम सुनकर रतन चौका.. लगभग विद्यानंद से जुड़े सभी खास स्त्री और पुरुषों को जानता था पर माधवी का नाम उसने आज से पहले कभी नहीं सुना था विद्यानंद ने…

विद्यानंद ने आगे कहा..


"इस आश्रम से कुछ स्त्रियां और कुछ पुरुष उस आश्रम में रहने के लिए भेजे जाएंगे और जब उनकी वासना समाप्त हो जाएगी तब वो इस आश्रम में वापस आ सकेंगे…"

रतन विद्यानंद की बातों को बेहद ध्यान से सुन रहा था उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि विद्यानंद जैसा महात्मा भी वासना को इतना महत्व देता था.. रतन ने भी वासना की कई रूप देखे थे अपनी पत्नी बबीता के व्यभिचार को भी और अपनी पत्नी सुगना के व्यभिचार को जिससे उसने सूरज जैसे दिव्य बालक को जन्म दिया था यह अलग बात थी की व्यभिचार के कारण अलग थे पर इन संबंधों की सामाजिक मान्यता न थी ना हो सकती थी..


विद्यानंद की गंभीर आवाज आई

" माधवी को बुलाया जाए" और थोड़ी ही देर में एक विदेशी और बेहद खूबसूरत युवती रतन के सामने खड़ी थी.. श्वेत धवल वस्त्रों में उस विदेशी युवती को देखकर रतन अवाक रह गया। माधवी….. उसकी खूबसूरती देखने लायक थी 24 - 25 वर्ष की माधवी सुडौल काया की स्वामी थी.. हल्के भूरे रेशमी बाल जो एकदम सीधे थे उसके चेहरे की खूबसूरती और भी बड़ा रहे थे… रतन उसकी खूबसूरती में खो गया और विद्यानंद ने रतन की आंखों को पढ़कर उसके मनोभावों का अंदाजा लगा लिया….. विद्यानंद ने रतन से कहा

"वत्स तुम माधवी के साथ चले जाओ यह तुम्हें उस आश्रम से संबंधित नियमावली समझा देगी और मैं चाहता हूं कि तुम भी उस आश्रम में रहकर ही वहां का कार्य भार देखो …. तुम पुरुष आश्रम का कार्यभार संभाल लेना और माधवी महिला आश्रम का…"

विद्यानंद ने अपनी आंखें बंद कर ली.. और हाथ उठाकर रतन को आशीर्वाद दिया शायद यह मुलाकात की समाप्ति का इशारा भी था रतन के मन में अब भी ढेरों प्रश्न थे उसने कुछ और कहना चाहा परंतु विद्यानंद अपनी ध्यान मुद्रा में जा चुके थे। उसने माधवी की तरफ देखा और माधवी ने मुस्कुरा कर उसका अभिवादन किया अपने रतन को अपने पीछे आने का इशारा किया और वह पलट कर वापस जाने लगी..

विद्यानंद की आंखें बंद होने के बाद रतन की आंखें पूरी तरह खुल गई सामने बलखाती हुई माधवी जा रही थी और रतन उसके पीछे-पीछे …

श्वेत चादर में लिपटी माधवी की कामुक और मदमस्त काया देखने लायक थी…श्वेत वस्त्र के आवरण के बावजूद माधवी की चौडी छाती पतली कमर और भरे-भरे नितंब अपनी खूबसूरती का एहसास बखूबी करा रहे थे…

रतन की वासना ने उसे घेर लिया और उसका लंड कुलांचे मारने लगा…उसके नेत्र वस्त्रों के पार माधवी की मदमस्त काया को देखने का प्रयास करने लगे माधवी की नग्न छवि उसके दिलो-दिमाग में बनती चली गई…

जैसे-जैसे वासना हावी होती गई दिमाग कुंद होता गया शरीर का सारा रक्त जैसे उस वह तना हुआ लंड अपनी तरफ खींच रहा था…

माधवी अपने कक्ष में आ चुकी थी और रतन दरवाजे पर खड़ा माधवी के इशारे का इंतजार कर रहा था ऐसे ही किसी युवती के कमरे में जाने में वह संकोच कर रहा था..

"अरे रतन जी अंदर आ जाइए" विदेशी युवती के मुख से शुद्ध हिंदी में संबोधन सुनकर रतन और भी आश्चर्य में पड़ गया वह यंत्र वत अंदर आ.गया.."

माधुरी का कमरा भी बेहद भव्य था शायद वह विद्यानंद की विशेष शिष्या थी… रतन को यह एहसास हो गया था कि विद्यानंद से शायद वह जितना नजदीक था माधवी उससे दो कदम आगे थी.. आप बैठिए मैं दो मिनट में आती हूं..

माधवी अपने कक्ष के भीतर बने एक छोटे से कक्ष में प्रवेश कर गई और रतन अपनी तेज धड़कनें के साथ उसका इंतजार करने लगा…

##############

इधर बनारस में सूरज चढ़ आया था …खिड़कियों के बीच फंसे शीशों से उसकी रोशनी छन छन कर सुगना के गोरे चेहरे पर पढ़ रही थी …बदन पर पड़ी हुई रजाई सुगना के मदमस्त बदन को छुपाए हुए थी..परंतु बंद पलकें, गोरे गाल और रस से लबरेज उसके होंठ सूरज की रोशनी में चमक रहे थे…

उस पर बाल की दो लड़िया निकलकर गालों को चूमने का प्रयास कर रहीं थीं …

होठों पर बेहद हल्की मुस्कान छाई हुई थी शायद सुगना कोई सुखद और मीठा स्वप्न देख रही थी..

यदि कामदेव भी सुगना को उस रूप में देख लेते तो उन्हें इस बात का अफसोस होता कि उन्होंने ऐसी सुंदर अप्सरा को धरती पर क्यों दर् दर ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया था…

अचानक दरवाजे पर खटखट हुई और सुगना जाग उठी ….रजाई के अंदर उसे अपनी नग्नता का एहसास हुआ…नाइटी चुचियों के अपर एक घेरा बनाकर पड़ी हुई थी सुगना की ब्रा और पेंटी तकिए के नीचे अपने बाहर आने की राह देख रहे थे…

न जाने क्यों दिन भर स्त्री अस्मिता के वो दोनो प्रहरी रात्रि में रति भाव के आगमन पर अपनी उपयोगिता को देते थे…

जब तक सुगना उन्हे पहन पाती दरवाजे पर खट खट के साथ मधुर आवाज आई…

"दीदी…

शेष अगले भाग में..
Ratan Madhbi ki
chuchiiyo ko dekhta h

146-1000.jpg

Jisko dekhkar ratan ka loda khada ho jata



Bhut dhansu update
Ab aage dekhte h Bina Jane kon kisse sex krta h
 

raniaayush

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यह भाग वास्तव में प्रकृति में विचरण करने की तरह शांतचित्त और सुंदर था। विद्यानंद ने जो भी कहा वह वास्तव में सामाज में इस प्रकार की समस्या है। हम भोग तो करना चाहता हैं लेकिन उसमें सम्पूर्णता का अभाव हो जाता है और कृत्रिमता हावी हो जाती है।
बहुत सुंदर लेखन ।
 

sunoanuj

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Khani fir se sutr par shuru ho gayi hai kya mitr …
 

sunoanuj

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Bahut barhiya update tha last wala .. ab khani ek nye mod ki taraf jaa rahi hai…
 
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