अब यह कहानी धीरे धीरे उपन्यास की शक्ल लेती जा रही, जैसे कोई पहाड़ी नदी क्षिप्र गति से उछलती मचलती पहाड़ियों के बीच से निकल कर मैदान में आ कर अपने पाटों का विस्तार बढ़ा कर, मध्यम गति से आगे बढ़ रही हो,
यह बात मैं कई कारणों से कह रही हूँ , शुरू में बहुत दिनों तक ये राख में दबे अंगारों की तरह सरयू सिंह और सुगना की कामेच्छा और फिर कजरी की सहमति से, बल्कि कजरी ने उन्हें हवा दी और वो चिंगारियां धधकती आग बनी, रिश्तों का बंधन तो नहीं था लेकिन सामाजिक मान्यताएं तो थीं, एक अधेड़ परन्तु युवा हृदय और उन से भी बढ़कर दम ख़म रखने वाले सरयू सिंह परन्तु अविवाहित , और दूसरी ओर सुगना जो कहने को तो विवाहित पर यौवन सुख और मातृ सुख दोनों से वंचित
लेकिन अब तो पात्रों की कतार सी है, लाली और सोनू , सुगना के लिए ललचाता राजेश, अब अज्ञात यौवना नहीं लेकिन सद्य किशोरियां सुगना की दोनों बहनें और विकास,
फिर अगली पीढ़ी की भी आहट, विवाहेतर संबंधों की परणिति अभिशप्त सूरज जिसपर उसकी मौसियों के सम्पर्क का जादुई असर होता है , जिसके बारे में विद्यानंद की भविष्य वाणी न सिर्फ सुगना को डराती घबड़ाती है , लेकिन वो जानती है की उसकी कोख में सूरज की बहन आनी है पर वह कैसे गर्भवती होगी पर यह तय है की वो भी शायद विवाहेतर संबंधों का परिणाम होगा, पता नहीं।
कहानी के साथ लेखक की टिप्पणियां कभी संवाद के माध्यम से कभी नियति के रूप में बार बार सामने आती हैं और कहीं कहीं यह ग्रीक त्रासदियों की याद दिलाता है , जहां बहुत कुछ जाने अनजाने बिन चाहे घटित होता है , सोफोक्लीज ( ईसा से लगभग ५०० वर्ष पूर्व, लगभग बुद्ध के समकालीन) की प्रसिद्ध ग्रीक त्रासदी ओडिपस राजा ( जो ४२९ ई पूर्व में पहली बात मंचित हुआ ) ओडिपस के अभिशप्त पिता पर यही शाप है की उसका पुत्र पितृहन्ता होगा और अपनी माँ से विवाह करेगा , और यही होता है लेकिन एकदम अनजाने में,... बस नियति ने क्या नियत कर रखा है इसे न कोई जानता है न टाल सकता है,...
विवाहेतर संबंधों के बारे में मैंने पहले भी एक पोस्ट में चर्चा की थी,महाभारत के आलोक में, कौरव नियोग की उत्पत्ति थे तो पांडव , कुंती और माद्री के देवों से संबंध , ... के कारण, ...
हमारे देश का नाम जिन के नाम पर पड़ा, वो भरत शकुन्त्ला और दुष्यंत के पुत्र थे। शकुंतला की कथा को कालिदास ने काव्य से अमर किया, और हम सब जानते हैं ,
मेनका वृषणश्र (ऋग्वेद १-५१-१३) अथवा कश्यप और प्राधा (महाभारत आदिपर्व, ६८-६७) की पुत्री तथा ऊर्णयु नामक गंधर्व की पत्नी थी। इंद्र ने विश्वामित्र को तप भ्रष्ट करने के लिये इसे भेजा था जिसमे यह सफल हुई और इसने एक कन्या को जन्म दिया। उसे यह मालिनी तट पर छोड़कर स्वर्ग चली गई। शकुन पक्षियों द्वारा रक्षित एवं पालित होने के कारण महर्षि कण्व ने उस कन्या को शकुन्तला नाम दिया जो कालान्तर में दुष्यन्त की पत्नी बनी।
कथा में कई बार विवाहेतर संबंधो और व्यभिचार का उल्लेख सम्भवत इसलिए किया जाता है की ये संबंध न तो श्लाघ्य हैं न अनुकरणीय, और कथा के पात्र अगर इस तरह के संबंधों में लिप्त हैं भी तो भी यह दैहिक और मानसिक विलास के लिए है , पर हो सकता है मेरी समझ गलत भी हो। मैं लेखक की इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ की नैतिक अनैतिक का निर्णय पूरी तरह पाठकों के ऊपर छोड़ दिया जाय,
पोस्ट बहुत ही अच्छी है।
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आपकी प्रतिक्रिया को पढ़ना उतना ही आनंददायक है जितना कुछ पाठको के लिये इस कहानी को पढ़ना।
आपके द्वारा दिए गए वेदों के अनुच्छेदों का वर्णन यह इंगित करता है कि आप एक प्रबुद्ध और जागरूक पाठिका हैं।
परंतु सच कहूं तो मुझे अब इस कहानी की उपयोगिता को लेकर प्रश्नचिन्ह कायम है ।
पाठकों की उदासीनता इस प्रश्न चिन्ह को हमेशा बनाए रखती है।
फिर भी आप जैसे कुछ चुनिंदा पाठकों की प्रतिक्रियाओं के इंतजार में यह उपन्यास और आगे बढ़ता रहेगा , मंथर गति से।।
पुनः धन्यवाद