पहला अपडेट..........
क्या मैं सच मैं एक बदचलन औरत थी या कोई और यह तो वक्त ही बतायगा। चलो देखते है मेरे साथ ऐसा क्या हुआ जो मैं ऐसे शब्द कह रही हूँ।
वृद व्यक्ति अस्पताल के अपने बिस्तर पर सारेसाज़ो-सामान के साथ लेटे हुए थे। उनके हार्ट बीटस मॉनिटर पर ग्राफ की तरह दरसा रहे थे। उनकी कमजोर बाहें मैं अनेक सुईयां लगी हुई थी और एक ट्यूब उनके मुँह से होते हुए फैफडो मैं जा रही थी। वो जानते थे की जीवन उनके शरीर से किनारा करने कर रहा है लेकिन उन्होंने भगवान से प्राथना की थी की उन्हे कुछ और देर जीने की अनुमति दे जिससे वो इथिहासिक पल देख सके जिसका वो वर्षो से प्रतिkछा कर रहे थे।
टेलीविजन पर चलती फिरती चित्रों से आने वाली चमक के इलावा कमरे मैं अंधेरा था, अंदर कमरे मैं धूप ना आये इसलिए खिड़कियो पर मोटे मोटे परदे खींची थी। उनके स्टील के बेड के पास एक कुर्सी पर, बीच- बीच मैं ऊँघती हुई नर्स बैठी हुई थी। भारत के उन्नीसवी प्रधानमन्त्री की शपथ लेते देख रहे अस्सी वर्ष आयु के बुजुर्ग के आँखों मैं टेलीविजन की रोशनी चमक उठी।
उनके दोनों मोबाइल लगातार बजने का कारण उनके नीजी सचिव नाकेश को अंदर ले आया था। बगल वाले कमरे का मरीज शिकायत कर रहा था की निरंतर बजती हुई घंटी से उसे परेसानी हो रही थी। लगभग साठ साल के सचिव ने कमरे मैं देखा तो उसने पाया की उनका मालिक बिस्तर पर लेटे हुए है और उनका ध्यान नई दिल्ली से दिखाई जाने वाली तस्वीरों पर है
वो फोन की घंटीयों को अपने काम मैं अडचन नही डाल देने सकते थे। उन्होंने इस पल का इनतेज़ार तीस सालों से कर रहे थे। उनके सचिव ने कहा था की मोबाइल को स्विच ऑफ कर दे, लेकिन उन्होंने आदेश दिया की मोबाइल और उनकी जीवन तब तक नही बंद हो सकती जब तक वो इस पल को देख ना ले।
बनारस का अस्पताल उनके लिए सक्षम नही था, प्रोफेसर विध्यसागर को कोई फरक नही था, वो दिल्ली, मुंबई के किसी अस्पताल मैं मर जाने से मना कर दिया था। बनारस उनका घर था और वो अपने रचेता से अपने घर से और अपने शर्तो से मिलना चाहते थे।
टेलीविजन पर राष्ट्रप्रति भवन दिखाई दे रहा था। उसमे राष्ट्रप्रति एक 26 साल की महिला को पद की शपथ दिला रहे थे। वो हमेशा की तरह साडी मैं थी जिससे वो और भी ज्यदा खूबसूरत लग रही थी। किसी ने कभी यह नही सोचा था की एक 26 साल की लड़की हिंदुस्तान की प्रधनमन्त्री बनने वाली है।
लगभग ऐसा लग रहा था की विध्यसागर ने अपनी पूरी जिंदगी इस अवसर की tyaari मैं लगा दी थी। वो शुद् हिन्दी मैं बोल रही थी “मैं ज्योति मिश्रा ईश्वर को साक्षी मानकर शपथ लेती हूँ की मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची आस्ताँ और निष्ठा वहन करूँगी, कि मैं भारत की अखंडता को बनाए रखूंगी, कि ईमानदारी और धर्मपूर्वक मैं प्रधानमंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करूंगी और कि किसी डर या पक्षपात के, स्नेह या द्वेष के बिना संविधान और विधि के अनुरूप सभी लोगों के साथ न्याय करूंगी।”
बुज़ुर्ग मुस्कुराए। डर, पक्षपात, स्नेह या द्वेष के बिना! बकवास! इनमें से किसी के भी बिना प्रधानमंत्री बनना मुमकिन ही नहीं था, और ये भी साली जानती है। क्या इसे पता नही कैसे यह यहाँ तक पहुंची है।
वो कुछ सोचते हुए हंसे और नतीजा हुआ खरखराती खांसी, जो उनकी नष्ट हो जाने की पीड़ा और उनके फेफड़ों में जकड़े कैंसर की याद दिला गया। कमरे के बाहर खड़े ख़ुफ़िया विभाग के bodyguards ने उन्हें खांसते सुना। वो समझ नहीं पा रहे थे कि वो किससे किसकी रक्षा कर रहे हैं। बेशक ऐसे बहुत से लोग थे जो इस कमबख़्त की मौत चाहते थे लेकिन ऐसा लगता था कि ईश्वर की कुछ और ही योजना है। ऐसा लगता था मानो विध्यसागर नाक पर अंगूठा रखकर अपने दुश्मनों को चिढ़ा रहे हों और कह रहे हों “आओ पकड़ लो मुझे, लेकिन मैं यहां होऊंगा ही नहीं!”
उनके सिर पर पसीने की परत फैल गई थी, नर्स ने एक तौलिए से पसीना पोंछा। बाहर बैठे खुफिया एजेंसी के karamchari उसकी गतिविधियों को देखते रहे। ट्यूब के बावजूद अपनी नाक से जीवनादायी ऑक्सीजन को खींचने के लिए संघर्ष करते हुए, उन्होंने सांस लेने की कोशिश की तो उनके पतले–पतले होंठ कांप गए।
उनकी त्वचा एक दम बेरुखी हो गयी थी और उनका पतला–दुबला शरीर बिस्तर पर नाममात्र ही जगह घेरे हुए था। इतना कमज़ोर छोटा सा आदमी इतना शक्तिशाली कैसे हो सकता था? उनके कमरे के बाहर लॉबी में राजनीतिक सहयोगियों का जमावड़ा लगा था। प्रोफेसर विद्यासागर के कोई दोस्त नहीं थे। उनकी राजनिति दुनिया में सिर्फ़ दुश्मन होते थे।
उनकी मौत से पहले ही बाहर के लोगों ने अन्दआज लगा लिया था की वो अब ज़िंदा बाहर नही आएगा। उसकी मौत की खबर के लिए हॉस्पिटल के बाहर पत्रकारो की भीड़ जमी हुई थी। देश के कई नेता उसकी मौत की खबर सुनने के लिए बेताब थे।
प्रोफेसर को इन सब से कोई फरक नही पड़ने वाला था, क्यों की वो जानते थे की उसको इस धरती पर कोई नही है जो उसे ज़िंदा देखना चाहता था। वो इन सबकी परवाह किये बगैर उसकी नज़र टेलीविजन पर लगी हुई थी।
वो तो बस ज्योति को प्रधानमंत्री की शपथ लेते हुए देख रहे थे, उनकी सानसें उखड़ रही थी, लेकिन अपनी नज़र TV से नही हटा रहे थे। शपथ खतम होते ही ज्योति ने दोनों हाथ जोड़कर लोगो का अभिवादन किया की तभी अचानक वो पीछे की तरफ लडखडाई…ज्योति के सीधे कंधे मैं से लाल रंग का धब्बा भडने लगा। उसे गोली मारी गयी थी।।।
इधर प्रोफेसर की आँखें बंद होने लगी, उसके सपना पूरा हुआ।।।
उसका क्या सपना था जो वो तीस साल से इन्तजार कर रहा था। क्या वो ज्योति को प्रधानमंत्री बनाकर मारना चाहता था?
अगर उसे मारना ही था तो उसे पहले ही मार देता।
ऐसा क्या हुआ जो उसने ऐसा कदम उठाया… यह सब जानने के लिए आप कहानी के साथ जुड़े रहिए…