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sunoanuj

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Update 37


वीरेंद्र सिंह को गजसिंह औऱ कर्मा डाकू का कोई नाम औऱ निशान नहीं मिला तो थक्कर महल लौट के आ गया..
जब वीरेंद्र सिंह महल आया तो उसके सिपाही भी उसकी बटाइ गई चीज पश्चिम की रेतीली जमीन से लेकर आ चुके थे..
दो दिन पहले सवान की पहली बारिश ने सैनिको के लम्बे इंतजार को समाप्त कर दिया था.. बैरागी को उसकी मगई चीज लाकर दे दी गई थी औऱ अब बैरागी अपने काम में लग गया था..
वीरेंद्र सिंह जागीर की सीमाओ पर चौकसी बढाकर बैरागी के कार्य के सफल होने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था..

रुक्मा अब पूरी तरफ सकुशल हो गई थी औऱ उसने अपने कश के बाहर खड़े समर से बहुत बार बहाने बहाने से बात करने की कोशिश की थी मगर समर अपनी असली जगह जानता था औऱ उसने राजकुमारी के प्रेम भरे आग्रह औऱ सन्देश का कोई जवाब नहीं दिया औऱ राजकुमारी को हर बार अपने दूर करते हुए अनदेखा कर दिया.. रुक्मा समर का ये व्यवहार समझ पाने में असमर्थ थी.. उसके मन में समर रमाया हुआ था रुक्मा किसी भी शर्त औऱ तर्क पर समर को पाना चाहती थी..

वैद्य ज़ी की आँख लगी तो रुक्मा चुपके से अपने बिस्तर से उठकर कश के बाहर आ गई औऱ इधर उधर देखकर कश के बाहर पहरेदारी पर तैनात समर के गले लगते हुए बोली..
रुक्मा - कल एक चिट्टी रखी थी मैंने तुम्हारे कमरबंध की गठरी में.. तुमने पढ़ी?
समर रुक्मा को अपने से अलग करता हुआ - माफ़ करिये राजकुमारी ज़ी.. मैं आपकी इच्छा पूर्ण नहीं कर सकता..
रुक्मा - मैं तुमसे तुम्हारा जवाब नहीं मांगा.. केवल अपने मन की बात तुम्हें बताइ है. मैं जानती हूं तुम मेरा प्रस्ताव स्वीकार क्यों नहीं कर रहे. तुम्हें इसी बात का भय है ना कि जब मेरे पिता को हमारे प्रेम का पता लगेगा तो क्या करेंगे? समर तुम उनकी चिंता मुझ पर छोड़ दो.. मैं तुमसे प्रेम करती हूं और अब तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकती..
समर - राजकुमारी ज़ी आपकक्ष के भीतर जाइये.. यदि आपको यहां पर किसी ने मेरे साथ खड़ा हुआ देख लिया तो बिना करण ही लोग आपके और मेरे बारे में भ्रान्ति फैलाने लगेंगे..
रुक्मा - समर मैं तुमसे प्रेम करती हूं.. और मेरा प्रेम इतना कमजोर नहीं है कि किसी के कुछ भी कह देने से उसे हानि हो जाए.. मैंने तुमसे प्रेम किया है और मैं तुमसे वादा करती हूं कि मैं हमारे प्रेम के बीच आने वाली हर चुनौती को स्वीकार करके उस चुनौती का सामना कर सकती हूं और हमारे प्रेम को सुरक्षित रख सकती हूँ इसके लिए मुझे अपने पिता के विरोध में खड़ा होना पड़े तो मैं हो जाउंगी..
समर - किन्तु मैं आपसे प्रेम नहीं करता राजकुमारी.. आपको मेरे जैसे साधारण सिपाही के पास बार-बार आना शोभा नहीं देता..
रुक्मा - क्या शोभा देता है और क्या नहीं.. इसका फैसला तुम मत करो समर.. मैं तुमसे प्रेम करती हूं और बदले में तुम्हें भी मुझसे प्रेम करना पड़ेगा..मेरा प्रेम प्रस्ताव कोई आग्रह नहीं है जिसे तुम ठुकरा कर चले जाओगे.. मैं तुम्हारी राजकुमारी हूं.. औऱ तुम्हारी राजकुमार होने के नाते मेरा तुम पर आधीपत्य है.. तुम्हे मेरा हर आदेश मानना होगा औऱ मेरे कहे अनुसार ही आचरण भी करना होगा..
समर - रानी माँ के आने का समय हो गया है राजकुमारी.. अब आपको भीतर कश में जाना चाहिए..
रुक्मा फिर से समर के गले लगते हुए - मेरे पहले मिलन का भी समय आ चूका है समर.. मैं चाहती हूँ तुम मुझे भोगो.. औऱ मैं तुम्हे..
समर - कैसी बातें कर ही हो आप राजकुमारी.. मैं आपके योग्य नहीं.. अगर किसी को आपकी बातों का पता चला तो मेरा सर धड से अलग कर दिया जाएगा..आप अपने कश में जाइये..
रुक्मा - अभी के लिए मैं जाती हूँ समर.. तुम्हे जोखिम में डालना मेरा उद्देश्य नहीं है.. पर तुम याद रखना मैं तुम्हे अपनेआप से अलग नहीं होने दूंगी..
ये कहकर रुक्मा कश में चली जाती है...

समर के पहरेदारी का समय समाप्त होता है औऱ वो महल में एक जगह बैठकर आराम करने लगता है..
जयसिंह - क्या हुआ समर आज भी यही रुकने की मंशा है? तुम अपने घर क्यों नहीं जाते? तुम्हारी माँ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होगी..
समर - मैं बस जाने ही वाला था जयसिंह काका.. बस थोड़ा आराम करने यहां ठहर गया था..
जयसिंह - कोई समस्या है क्या समर.. पिछले 4-5 दिनों से तुम्हे देख रहा हूँ बहुत बुझे बुझे रहते हो..
समर उठते हुए - नहीं काका.. कुछ नहीं.. मैं तो बस यही सोच रहा था कि गजसिंह को कैसे पकड़ा जाए..
जयसिंह - उसकी चिंता तुम छोड़ दो समर.. इस बार उसके लगभग सभी साथी मारे गए है.. अब वो हमले की हिम्मत नहीं करेगा.. मुझे तो बस इस बात का आश्चर्य है कि इतने गुप्त रास्ते के बारे में उसे बताया किसने? जो भी हो.. तुमने अपनी बहादुरी साबित कर दी.. अकेले ही इतने दुश्मनों का खात्मा करना एक वीर योद्धा कि चरम सुक्ति है जिसे तुमने पा लिया है..
समर - आप आराम कीजिये.. अभी आपकी चोट के घाव नहीं भर पाए है.. आपका इतना चलना फिरना ठीक नहीं..
जयसिंह - तुम मेरी चिंता मत करो..
अब तुम जाओ समर..
समर - ठीक है काका..

समर जयसिंह के पास से उठकर अपने घर की तरफ चल देता है और रास्ते में यही सोचता रहता है कि वह घर जाकर अकेला क्या करेगा किस तरह रहेगा अब उसके घर में उसका इंतजार करने के लिए और कोई भी तो नहीं है अगर नियति उसके साथ यह खेल नहीं खेलती और जिस तरह से उसका परिवार पहले था वैसा ही चलता रहता तो कितना अच्छा होता..
समर की मां लता की सच्चाई अगर उससे हमेशा छुपी रहती तो कितना अच्छा होता समर कितनी आसानी से और चैन से जीवन जीता..
समर को लग रहा था कि उसकी मां लता को अपने किये का पछतावा हो रहा होगा औऱ वो शर्म से घर छोड़कर कहीं चली गई होगी, वह अब उससे कभी नहीं मिलेगी.. समर भी अपनी उदासी पर कायम था.. समर को अब लता पर उतना गुस्सा नहीं आ रहा था जितना उसे पहले आ रहा था वह जानता था कि लता ने अपनी जिंदगी बचाने के लिए और अपने जीवन को आसान बनाने के लिए बहुत सारे पाप किए हैं लेकिन उसका असली गुस्सा इस बात पर था कि उसने अपने ही बेटे को मारने की कोशिश की थी.
समर घर जाते हुए रास्ते में यही सोच रहा था कि उसकी मा लता कहां होगी कैसी होगी और किस हाल में होगी.. आखिर वह अकेली जाएगी भी कहां उसके सभी साथियों की मौत हो चुकी है और अब उसके पास कौन सा नया ठोर ठिकाना होगा.. क्या वो वापस अपनी असली जगह चली जाएगी या फिर अब भी कहीं उसका कोई परिचित या कोई साथी बचा होगा जिसके पास लता जाकर शरण लगी..
समर को कहीं ना कहीं अब लता की याद आने लगी थी और वह सोचने लगा था कि क्या वो लता को माफ कर सकता है क्या वो लता था के साथ एक नई शुरुआत कर सकता है और फिर से उसी तरह जिस तरह से वह पहले लता के साथ रहता आया था वापस रह सकता है? समर के दिमाग में बहुत सारी बातें चल रही थी और बहुत सारे ख्याल दौड़ रहे थे ख्यालों से उथल-पुथल होकर उसका सर चकरा रहा था और भारी होने लगा था रास्ते में ही उसने कई बार अपने आप को अलग-अलग बातों में उलझाया हुआ रखा था..

घर पहुंचने में जब कुछ ही फैसला रह गया तब समर यह सोचकर परेशान होने लगा था कि अब उसे कभी अपने घर में उसकी मां लता नजर नहीं आएगी और अब वो कभी लता से नहीं मिल पाएगा इसी के साथ समर लता के साथ बिताये हसीन पलों को और उन यादो को याद कर रहा था जो दोनों ने मां बेटे के तौर पर बिताये थे.. समर को रह रहकर अब लता की याद आने लगी थी और उससे भी ज्यादा समर को अब लता के साथ जंगल पहले सम्भोग का मनोरम दृश्य भी याद आने लगा था जिससे वो कामुकता से भरने लगा था.. समर और लता के बीच बने रिश्ते की नई शुरुआत जंगल के उस जगह से हुई थी जहां लता ने अपने बेटे समर की जान लेने की कोशिश की थी..

समर को लता के बदन का स्पर्श और उसकी कोमलता के साथ-साथ उसके बदन से उठती गंध का भी अहसास होने लगा था.. समर को उस वक़्त गुस्से में कुछ नहीं सुझा तो उसने अपनी माँ लता के साथ सम्भोग कर लिया लेकिन बाद में वही सब उसके दिमाग में चलने लगा.. उसे लगा था की वो लता उर्फ़ लीलावती को सजा दे रहा है मगर जिस तरह लता ने उसके साथ संभोग में भागीदारी निभाई थी उसे लता को किसी बात का पछतावा ना होने का अंदाजा समर को लग चुका था और को जानता था कि लता को उसके साथ संभोग में मजा आया था..

समर लता की तरफ आकर्षित हो चुका था और वह लता को वापस पाना चाहता था लेकिन लता के किए कुकर्मों की वजह से वह लता को ना तो ढूंढने जाने को तैयार था ना उसका मुंह वापस देखने को.. समर ने लता को भूलाने का तय कर लिया और अब आगे से समर ने लता के बारे में और कोई ख्याल नहीं सोचने का भी तय कर लिया..

समर घर की चौखट पर आ पहुंचा और दरवाजा खोलते हुए अंदर घुसा तो उसने देखा कि लता आँगन में पानी का बर्तन लिये खड़ी थी औऱ उसीको देखे जा रही थी.. जब समर आँगन में आया तो लता ने पानी देते हुए कहा..
लता - 5 दिनों से यहां तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ.. जागीरदार से ऐसी भी क्या निष्ठा औऱ जुड़ाव की घर आने की याद ही नहीं रही..
समर पानी का बर्तन लेकर फेंकते हुए - कहा था वापस अपना मुख मत दिखलाना.. क्यों आई हो तुम यहां?
लता प्यार समर के करीब आते हुए - सजा लेने.. मैं जानती हूँ मेरा कार्य क्षमा के योग्य नहीं है लेकिन तुम अपनी माँ को उसके कार्य की जो सजा देना चाहो, मुझे मंज़ूर है..
समर गुस्से में - अपने बेटे की जान लेने की कोशिश करने वाली माँ नहीं होती लीलावती.. अपना ये ढोंग मेरे आगे मत करो.. अगर तुम यहां से नहीं जाती तो मैं ही चला जाता हूँ..
यह कहकर जैसे ही समर घर के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा लीलावती भाग कर दरवाजा बंद करते हुए दरवाजे से चिपक गई औऱ समर से बोली - ऐसा मत कहो समर.. तुम्हारी माँ अब बदल चुकी है.. चाहे जो इंतिहान ले लो.. तुम कहो तो मैं ही बीरेंद्र सिंह को अपना सच बता दूंगी.. फिर मुझे जो सजा मिले मंज़ूर है.. लेकिन तुम इस तरह मुझे मत धुतकारो..

लता के भागने और दीवार से चिपकने के बीच उसकी ओढ़नी उसके माथे से और उसके आंचल से सरक गई थी जिससे उसके बदन के सुडोल उन्नत उभार, चिकनी नाभी औऱ गर्दन के आसपास लटकती जुल्फे दिख गई औऱ समर के तन बदन में फिर से लता को पाने की लहर दौड़ गई.. समर एक टक लता के बदन को देखने लगा औऱ लता को भी इस बात की खबर थी की समर उसपर मोहित होने लगा है..

लता - मेरा मरना अगर लिखा है तो मैं तुम्हारे हाथों से मरना पसंद करुँगी समर.. तुम ही मेरी जान लेलो.. अगर उससे मुझे माफ़ी मिलती है तो मुझे प्रसन्नता होगी..
समर अपना ध्यान लता के बदन से हटाते हुए - मेरे मार्ग से हटो लीलावती.. मैं तुम्हे औऱ नहीं देखना चाहता..
लता समर को देखकर अपनी चोली उतारते हुए - देखना तो तू चाहता है समर.. आज मैं खुलके दिखा देती हूँ..
लता अपनी चोली उतारकार समर के करीब आती है औऱ उसे अपनी बाहों में भरते हुए उसके होंठों पर अपने होंठ लगा देती है औऱ समर भी लता के प्रभाव में बहक जाता है..

समर के मन में लता को पाने की दबी हुई इच्छा उसके बाहर आ जाती है और वह अपनी लीलावती की कमर में हाथ डालकर उसे अपने करीब खींचते हुए उठा लेता है और भीतर ले जाकर बिछोने पर पटक देता है..
समर लता के ऊपर आ जाता है और लता भी समर को अपने ऊपर खींच कर लेटा लेती है और उसके मुख से अपने मुख को लगाकर चुंबन शुरू कर देती है दोनों एक दूसरे को भी बेतहाशा चूमते हैं इस तरह की जैसे एक दूसरे को खा जाने की नियत रखते हो.. दोनों के मन में एक दूसरे को पाने की चाहत भरी हुई थी और इसी चाहत का असर था जो दोनों को अब एक दूसरे पर दिखाई दे रहा था दोनों ही एक दूसरे को अपनी अपनी बाहों में जकड़ कर ऐसे चूम रहे थे जैसे दोनों पिछले जन्म के बिछड़े प्रेमी हो..

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दोनों के बीच मां बेटे का रिश्ता समाप्त हो चुका था और अब जो रिश्ता बन चुका था वह एक प्रेमी और प्रेमिका का था जो एक घर में एक कमरे में एक बिछोने में एक दूसरे को अपने-अपने बदन की नुमाइश करते हुए जकड़े हुए थे..
लता ने बिना चुंबन को तोड़े हुए समर के बदन से उसके वस्त्र उतार फेक और अपना घाघरा भी खोलकर नीचे सरकार दिया जिससे दोनों अपनी प्राकृतिक अवस्था में आ गए..

दोनों के मिलन की संक्रमानता पूरे कमरे में फैल रही थी और जिससे पूरा घर मादकता के वातावरण से भरा जा रहा था.. कभी लता समीर को अपने ऊपर खींचकर चूमती तो कभी समर लता को अपने ऊपर खींचकर चूमता.. दोनों एक दूसरे को चूमते हुए अब होठों के आसपास और गर्दन के हिस्से को भी चूमने लगे थे और समर जैसे कामुकता के शिखर पर पहुंचकर अपनी जीभ औऱ होंठ से लता के चेहरे और गर्दन को चूमता हुआ चाटने लगा था..

लता से भी अब ना रहा गया औऱ वो समर का लंड पकड़कर अपनी चुत में घुसाती हुई गांड उठा उठा के चुदवाने लगी.. अपनी माँ की काम कला से प्रभावित समर भी लता की चुत को अपने लंड से जोर जोर से पीटने लगा.. चुदाई की आवाजे चारो तरफ फैलने लगी थी..

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समर ने अपनी मां के चेहरे पर काम के प्रभाव में आ रहे ऐसे हाव भाव देखे की समर लीलावती पर पूरी तरह से मोहित हो गया और अब समर का दिल लीलावती पर पूरी तरह से आ गया..

समर ने लीलावती की चुत से लंड निकालकर उसे पलटने को कहा औऱ लीलावती ने बिना कुछ कहे पलटकर समर को देखते हुए एक हाथ से अपनी गांड खोलकर समर के आगे परोस दी.. समर ने लीलावती के चेहरे को देखते हुए उसकी चुत में वापस लंड पेल दिया औऱ लीलावती के बाल पकड़ कर चोदने लगा.. इस बार लीलावती की चुदाई के शोर में लीलावती की कामनीय सिस्कारी भी शामिल थी..

समर पीछे से अपनी मां लीलावती की ले रहा था और लीलावती अपने बेटे समर को पीछे से दे रही थी.. दोनों के मन में आपस में एक दूसरे के प्रति प्रेम लगाव आकर्षक और मोह वापस आ चुका था मगर उसने अब माँ बेटे का रूप ना लेकर एक प्रेमी और प्रेमिका का रूप लिया था..

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लीलावती झड़ चुकी थी मगर समर अब झड़ने वाला था और लीलावती घोड़ी बनाकर समर के आगे ऐसे चुदवा रही थी जैसे वो उसकी माँ नहीं कोई औऱ हो.. समर लीलावती की चुत में झड़ गया औऱ उसीके ऊपर गिर गया..

लीलावती समर के नीचे से निकलते हुए - तुझे भूक लगी होगी ना समर.. मैं भोजन पका देती हूँ..
समर ताने मारता हुआ - ज़हर तो नहीं मिलाओगी लीलावती?
लीलावती अपना घाघरा उठाते हुए - अब भी रूठें हुए हो अपनी माँ से.. सजा देना चाहते हो..
समर लीलावती का घाघरा छीनकर - सजा तो पूरी रात मिलेगी.. अभी जा पका दे भोजन.. औऱ ये वस्त्र रहने दे.. जब उतारने ही है तो पहनने की क्या आवश्यकता?
लीलावती हसते हुए चले जाती है..

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sunoanuj

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Bahut hee jabardast update diya hai 👏🏻👏🏻👏🏻
 

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Update 38

क्या हुआ बैरागी?
कुछ नहीं हुकुम.. बस आपके भय का निवारण होने ही वाला है.. आज आपको आपके भय से मुक्ति दिलाने के लिए मैं उस औषधि को तैयार कर दूंगा जिससे आपका भय समाप्त हो जाएगा..
ये तो बहुत अच्छी बात बताई तुमने बैरागी.. आखिकार मैं अपने भय औऱ पीड़ा से मुक्त हो ही जाऊँगा.. मैं बहुत खुश हूँ बैरागी.. मैं तुझे ये सारे पौधे औऱ औषधिया इस जगह के साथ देता हूँ तू जो चाहे कर मगर मुझे आज मेरा माँगा हुआ उपहार बनाकर दे दे..
आप निश्चिन्त रहिये हुकुम अभी रात के भोजन के साथ आपको उस औषधि का भी सेवन करना होगा.. मैं उसे बनाकर आपकी सेवा में प्रस्तुत कर दूंगा..

बैरागी ने औषधि का निर्माण कर दिया और उसे वीरेंद्र सिंह को खिलाने के लिए रात के खाने के साथ पेश कर दिया जिसे वीरेंद्र सिंह खाता हुआ बड़े चाव से अपने ख्यालों में गुम हो गया और अब उसे किसी बात का और कोई भय नहीं रहा अब वह हमेशा के लिए जीवित रहेगा और अपने जीवन को यूं ही राज करते हुए बरकरार रखेगा..

बैरागी ने औषधि बनाने के बाद वीरेंद्र सिंह को खिला दी थी और अब वह वीरेंद्र सिंह के महल में ही औषधालय में रहकर नई नई औषधि का निर्माण कर लोगों के रोगों का और कष्ट का निवारण करने लगा था वह कई रोगों का उपचार मात्रा देखने से ही कर देता और उसका नुस्खा सुझा देता..
बैरागी दिन ब दिन बहुत ही गुणी औऱ प्रसिद्ध होने लगा था. इसी के साथ उसका मेलझोल वीरेंद्र सिंह की धर्मपत्नी सुजाता से बढ़ने लगा था सुजाता और बैरागी एक साथ मिलकर कई बार घंटे तक लंबी-लंबी बातें करते और अपने बारे में और दूसरे के बारे में यानी एक दूसरे के बारे में नई-नई बातें जानते और पूछते हैं दोनों का मेल मिलाप इस कदर पड़ चुका था कि दोनों के मन में अब एक दूसरे के प्रति आकर्षण जागने लगा था महीनों गुजर गए थे और अब बैरागी और सुजाता का यह प्रेम संवाद अब वास्तविक प्रेम का रूप लेने लगा था बैरागी के मन में अभी भी मृदुला के लिए अकूत प्रेम था जो उसे सुजाता से प्रेम करने से रोक रहा था.

मगर अब सुजाता बैरागी के बिना एक पल भी जीने को तैयार नहीं थी वह चाहती थी कि बैरागी उसे अपना ले और वीरेंद्र सिंह की पीठ पीछे बैरागी और वह एक साथ संबंध बनाकर खुशी से जीवन जी सके और यह बात किसी और के सामने प्रकट नहीं हो.. जिसके लिए बैरागी कभी भी तैयार नहीं था..

समर भी पहरेदारी करते हुए रुकमा के प्यार में पड़ ही चुका था रुक्मा उसे अपने हुस्न और बातों से इस कदर अपने प्यार में उलझा लिया कि वह अब रुकमा के साथ प्रेम के मीठे बोल बोलने लगा था और उसके साथ जीवन बिताने को लालायता मगर घर पर समर का संबंध लीलावती से भी मधुरता था.. वह हर रात लीलावती को अपनी अर्धांगिनी की तरह ही प्यार करता और अब दोनों उसे घर में मां और बेटे की जगह पति और पत्नी की तरह रहने लगे थे..

लीलावती अपनी कोमकला से समर को मोहित कर चुकी थी और हर रात समर की भूख के साथ उसके बदन की भूख को भी ठंडा करती थी उनका प्रेम एक नया मोड़ ले चुका था..
लीलावती औऱ समर जब भी घर में होते दोनों के बदन पर एक भी कपड़ा नहीं होता और दोनों घर के भीतर नंगे ही एक दूसरे के बदन से लिपट मिलते..


वीरेंद्र सिंह औषधि का सेवन करके अब अपने आप को एक अजीत योद्धा समझता था जिसे कोई जीत नहीं सकता था उसने जयसिंह की मदद से अब जागीर के आसपास की जगह भी अपना अधिकार करना शुरू कर दिया था और वह बहुत गर्व से शासन करने लगा था उसे अब अपने घर परिवार की चिंता न होकर अपने साम्राज्य की चिंता ज्यादा होने लगी थी और उसकी वह और पीड़ा समाप्त हो चुकी थी वह बैरागी का सम्मान करता था मगर अब बैरागी उसकी आंखों में चुभने लगा था जिस तरह से बैरागी और सुजाता के बीच नजदीकी बढ़ने लगी थी वीरेंद्र सिंह की नजर उन पर बनी हुई थी वीरेंद्र सिंह सुजाता और वह बैरागी को अपने सामने ही कई बार लंबी-लंबी वार्तालाप करते हुए देखा तो जलन से सिकुड़ जाता और सोचता कि सुजाता उसकी पत्नी होकर एक नीचे कुल के लड़के के साथ इतनी लंबी लंबी बातें क्यों कर रही है और क्यों वह उसके काम में अब उसकी सहायता कर रही है सुजाता का स्वभाव और व्यवहार वीरेंद्र सिंह की तुलना में अब बैरागी के साथ बहुत ही मधुर और शालीन हो चुका था..

सुजाता के मन में बैरागी के प्रति एक अलग प्रेम का भी उद्धव हो चुका था जिसे वह मन ही मन बैरागी को बटा कर उसका प्रेम पाना चाहती थी और उसके साथ नया रिश्ता कायम करना चाहती थी मगर बैरागी इसके के लिए कते भी तैयार नहीं था.. मगर सुजाता ने इतना जरूर कर दिया था कि अब बैरागी मृदुला को याद करता था मगर फिर से प्रेम के बंधन में बंधने को भी आतुर होने लगा था..

**********

वीरेंद्र सिंह की नजर सुजाता पर थी मगर उसे क्या पता था कि उसकी बेटी राजकुमारी रुकमा एक सिपाही के प्रेम में पड़ी हुई है और वह उसके साथ अब अकेले मिलने भी मिलने लगी है..

वीरेंद्र सिंह के सिपाही जो उसके गुप्तचर थे उन्होंने वीरेंद्र सिंह को सुजाता और बैरागी के पनपते प्रेम और रुकमा और समर के पनपते हुए प्रेम के बारे में अवगत करवाया तो वीरेंद्र सिंह गुस्से से भरकर अपने सिंहासन से खड़ा हुआ और अपनी तलवार लेकर समर की तरफ चलता हुआ क्रोध से भर गया और सोचने लगा कि आज वह समर की जान ले लेगा और उसे बैरागी को भी यहां से निकल बाहर करेगा यह सोचते हुए वीरेंद्र सिंह जा ही रहा था कि उसे किसी गुप्तचर के आने की सूचना हुई..

गुप्तचर ने वीरेंद्र सिंह को बताया कि बैरागी और सुजाता औषधालय में एकांत में कुछ निजी पर गुजर रहे हैं और अब उनके बीच में जो फासला होना चाहिए था वह समाप्त हो चुका है. वीरेंद्र सिंह और गुस्से से भर गया और उसने फिर समर का ख्याल छोड़कर पहले बैरागी से निपटने का फैसला किया और बैरागी की तरफ चलने लगा वीरेंद्र सिंह औषधि में जैसे ही पहुंचा उसने देखा कि सुजाता और बैरागी के मध्य चुंबन हो रहा है..

दोनों के बीच उम्र का फैसला था मगर मन का फैसला मिट चुका था दोनों एक दूसरे को प्रेम करने लगे थे और इसी प्रेम का यह नतीजा था कि बैरागी और सुजाता ने एक दूसरे के होठों को आपस में मिल लिया था और दोनों एक दूसरे को प्रेम से चूमने लगे थे वीरेंद्र सिंह ने जैसे ही उनका चुंबन देखा वह गुस्से से चिल्लाता हुआ बैरागी की तरफ बड़ा और अपनी तलवार से बैरागी पर प्रहार करने लगा बैरागी वीरेंद्र सिंह के प्रहार से बच गया और उसे विनती करते हुए बोला कि मुझे माफ कर दो हुकुम मैं आपका दोषी हूं किंतु मैं रानी मां से प्रेम करने लगा हूं आप मेरी इस गलती को क्षमा कर दो... मगर वीरेंद्र सिंह गुस्से में था उसने बैरागी की एक बात नहीं मानी और उस पर दूसरा प्रहार किया जिससे भी बैरागी ने खुद को बचा लिया और फिर अपने गले में बंधा हुआ ताबीज उतरते हुए कहा कि हुकुम मुझे यह ताबीज उतार लेने दो लेकिन इस बार वीरेंद्र सिंह ने इतना सटीक और सीधा वार किया कि बैरागी के ताबिज़ उतारने से पहले ही उसका गला तलवार से एक ही झटके में अलग हो गया..

जैसे ही बैरागी की गर्दन कटी उसके खून से बहती हुई रक्त ने परछाई का रूप ले लिया जो वीरेंद्र सिंह की तरफ अपने विकराल स्वरूप को लेकर वीरेंद्र सिंह को मारने बढ़ी और उसे मारने वाली थी कि सुजाता बीच में आ गई और सुजाता ने परछाई से वीरेंद्र सिंह को बचाते हुआ अपनी जान दे दी.. वीरेंद्र सिंह की जगह परछाई सुजाता पर आ बड़ी और सुजाता की जान चली गई.. वीरेंद्र सिंह ने जब ऐसा होते देखा उसकी आंखों ने इस दृश्य पर विश्वास नहीं किया और वह सोचने लगा कि बैरागी ने आखिर ऐसा क्या ताबीज़ पहना था और क्यों यह परछाई उसके शरीर से निकालकर उसकी तरफ बड़ी थी लेकिन इसी के साथ अब उसे सुजाता के मरने का बहुत दुख हो रहा था और वह विलाप करते हुए जोर-जोर से सुजाता को देखकर रोने लगा और उसे अपनी गोद में उठाकर दहाड़े मारता हुआ चीखता हुआ रोने लगा...

सिपाहियों ने आकर जब यह हाल देखा तो वह वीरेंद्र सिंह को समझाते हुए उठाने लगे जयसिंह ने वीरेंद्र सिंह को संभालते हुए सारी परिस्थितियों समझी और फिर परिस्थितियों को समझने के बाद वीरेंद्र सिंह को वहां से ले जाकर एक कक्ष में बैठा दिया और बैरागी की लाश को वहां से ले जाकर महल से थोड़ा दूर ही पीछे एक खाली जगह में दफना दिया.. इसी के साथ में सुजाता का भी पूरी रीती और नीति के अनुसार क्रियाकर्म करते हुए अंतिम विदाई दी..

वीरेंद्र सिंह को अपनी हालत पर बहुत रोना आ रहा था उसकी की गई गलती अब उसे पछतावा दे रही थी और उसे बहुत पछतावा हो रहा था वीरेंद्र सिंह के हाथ में अब कुछ भी नहीं बचा था..

वीरेंद्र सिंह ने इसी के साथ में अपने गुस्से में एक औऱ निर्णय लिया औऱ समर को खत्म कर देने के लिए काफी सारे सिपाही उसके घर पर भेजें और जब समर अपनी मां लीलावती के साथ घर पर था तब वीरेंद्र सिंह के सिपाहियों ने उसके घर पर आक्रमण कर दिया और समर के साथ लीलावती को भी मौत के घाट उतार दिया..
समर और लीलावती अपनी मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे. समर की खबर सुनकर रुक्मा ने भी आत्महत्या कर ली और उसका प्रेम अधूरा ही रह गया..

वीरेंद्र सिंह ने जब रुक्मा की खबर सुनी तो वो पूरी तरह से पत्थर दिल बन गया औऱ अब उसने अकेले ही जागीर पर शासन करने का निर्णय लिया और केवल अपने विश्वासपात्र सैनिकों को अपने करीब रखने लगा उसने जागीर के आसपास के इलाकों पर अपना कब्जा कर लिया और आसपास की जगीर भी जीत ली जिससे उसका कद और बढ़ चुका था..

वीरेंद्र सिंह अपने महल में आराम से शासन कर रहा था और अब उसने अकेले ही जीवन बिताने का फैसला कर लिया इसी के साथ वह अब नए-नए शौक पलने लगा था उसने वेश्याओं का सहारा लेकर सुजाता को बुलाने का निर्णय किया. इसी के साथ वह भोग विलास में जुट गया था वह अपने जीवन का पूरा आनंद लेना चाहता था इसलिए वह किसी और की परवाह किए बिना अपने ही बारे में सोचने लगा था और उसको अब सुजाता और अपनी पुत्री जो आत्महत्या करके मर चुकी थी उसके भी याद नहीं रही थी..

वीरेंद्र सिंह अब सत्ता के नशे में इतना चूर हो चुका था कि उसे और किसी की परवाह नहीं थी वह आसपास की जगीरो को जीत कर उन पर शासन करने में और भोग विलास करने में ही अपने दिन गुजरने लगा था वह अपनी सत्ता और बढ़ाना चाहता था और शासन बढाकर रियासत पर कब्जा करना चाहता था उसने आसपास और जागीर को जीत लिया था.. आसपास की 8 जागीर को जीतकर वीरेंद्र सिंह अब रियासत पर आक्रमण करने का प्लान बना रहा था और ऐसा ही वह करना चाहता था वीरेंद्र सिंह के मोसेरे भाई जो रियासत के राजा थे उनको वीरेंद्र सिंह का डर सताने लगा था और वह सोचने लगे थे कि वीरेंद्र सिंह रियासत पर कभी भी आक्रमण करके उनको गद्दी से हटा देगा और खुद अब रियासत पर शासन करके पूरी रियासत पर कब्जा जमा लगा..

वीरेंद्र सिंह भी इसी प्रयास में लगा हुआ था. उसने भोग विलास करते हुए और अपने शौक पूरे करते हुए जयसिंह से कहकर सेना को तैयार कर लिया था और अब वह रियासत पर आक्रमण करने ही वाला था..

वीरेंद्र सिंह की शक्तियां बढ़ गई थी उसने द्वन्द युद्ध में कई जागीरदारों को और सरदारों को मार गिराया था जिससे सारे जगह उसकी वाहवाही और बलवान होने की चर्चा थी.. वीरेंद्र सिंह अपनी सेना तैयार करके रियासत पर आक्रमण करने वाला था लेकिन उससे एक रात पहले वह हुआ जो होने की कल्पना किसी ने भी नहीं की थी और ना ही वीरेंद्र सिंह को इस बात का अंदाजा था कि ऐसा उसके साथ हो सकता है और कोई ऐसा भी है जो उसे कीड़ो की मरने के लिए छोड़ सकता है..

मृदुला को अपनी पुत्री मानकर पालने वाला आदमी जिसका नाम जोगी था वापस आ चुका था उसकी सिद्धियां पूरी हो चुकी थी और उसके साथ उसका शेर बालम भी जंगल में उसी जगह आ चुके थे जहां से वह मृदुला और बैरागी को छोड़कर गया था..
जोगी ने जब वापस वहां आकर स्थिति देखी तो पाया कि अब वहां कोई नहीं था और वहा जो कुटिया थी वह भी अब पुरानी सी हो गई थी.. किसी के नहीं रहने से वहां की हालत अब जंगल के बाकी हिस्सों जैसे ही हो गई थी.. आदमी ने जब कुटिया के पास बना हुआ कब्रनुमा खड्डे को देखा तो उसे अंदाजा हुआ कि कुछ ना कुछ अनहोनी जरूर हुई है उसने खड्डे को खोदना शुरू किया और जब उसने खड़े को खुदा तो उसमें मृदुल को पाया.. आदमी का मन इतना हताश निराश और दुखी पीड़ा से भर गया कि उसकी चीख से जंगल की सारी हवाएं ठहर गई और परिंदे पेड़ों से उड़ कर आकाश में इस तरह लहरा गए कि मानो कोई अनहोनी होने ही वाली हो..

जोगी ने मृदुल के सर पर हाथ रखकर उसके पीछे जो कुछ हुआ उसकी सारी कहानी जान ली और उसे पता चल गया कि उसकी जान कैसे गई है..

जोगी ने बैरागी से मिलने की ठानी और वह मृदुला को वापस वही उस कब्र में दफनाकर वहां से चला गया और जाते हुए लोगों से बैरागी के बारे में पूछने लगा पूछते पूछते उसे एक आदमी ने बताया कि उसने बैरागी को जागीरदार वीरेंद्र सिंह के महल में देखा था जहां वह कुछ महीने रहा था..
लोगों ने आदमी को बताया कि कैसे बैरागी ने नए-नए लोगों का उपचार करके लोगों को ठीक किया और उसकी प्रसिद्धि पूरी जागीर में इस तरफ फैली जैसे घास में आग फैल जाती है मगर एक दिन अचानक उसकी कोई खैर खबर नहीं मिली.. जोगी ने जब आगे पूछा तो लोगों ने उसे बताया कि उन्होंने अफवाह सुनी है कि वीरेंद्र सिंह ने बैरागी को मार कर महल के बाहर पीछे वाले खाली जगह में दफना दिया है..

आदमी को पहले ही क्रोध की अग्नि ने प्रज्वलित कर रखा था और बैरागी की खबर सुनकर वह और ज्यादा गुस्से से भर गया उसने महल के पीछे वाली खाली जगह पर जाकर बैरागी को कब्र से निकाल कर उसके सर पर हाथ रखा और उसके साथ हुई हर घटना को जान लिया जैसे ही उसने इस बात को जाना कि वीरेंद्र सिंह ने बैरागी को मारा है वह गुस्से से तिलमिला उठा..
जोगी मृदुला को बेटी मानता था और बेटी के पति को अपना बेटा.. और दोनों की मौत पर आदमी इतना गुस्से से भरा हुआ था कि उसने सारा गुस्सा वीरेंद्र सिंह और उसकी जागीर पर निकलने का तय कर लिया..

वीरेंद्र सिंह जिस सुबह रियासत पर हमला करने के लिए निकलने वाला था उसी सुबह जोगी ने वीरेंद्र सिंह को मारने के लिए उसपर चढ़ाई शुरू कर दी..
जोगी के रास्ते में जितने भी लोग आए जितने भी सैनिक आए जितने भी योद्धा है सभी जोगी के शेर बालम के द्वारा मारे गए..
जब जोगी के सामने एक सेना की एक टुकड़ी खड़ी हुई सी आई तो जोगी ने गुस्से से अपने पैर से ठोकर जमीन पर मारी और उनकी तरफ मिट्टी उड़ा दी.. आदमी की ठोकर मारने से उड़ी हुई मिट्टी का एक एक कण एक-एक परछाई में बदल गया और उन परछाईयों ने सामने खड़ी हुई संपूर्ण सेना की टुकड़ी को पलक झपकते ही एक ही बार में मार दिया..

जोगी को ऐसा करते देखकर बाकी लोग भय से भरकर भागने लगे और सोचने लगे कि वह कौन है और क्यों वीरेंद्र सिंह को मारना चाहता है.. महल औऱ आस पास के लोग जोगी से डरकर भाग निकले औऱ सब के सब जागीर छोड़कर भाग गए..

एक बार में सारी सेना को मारने के बाद में जोगी आगे बढ़ा और महल के भीतर घुस गया...

वीरेंद्र सिंह अपने भोग विलास में डूबा हुआ था कि उसे किसी भागते हुए सैनिक ने आकर इसकी सूचना दी कि किसी आदमी ने उसके सभी सैनिक और पूरी सेना को एक बार में मार दिया है और ऐसा लग रहा है कि वो आदमी उसे भी मार डालेगा..

वीरेंद्र सिंह वैश्याओ के पास से उठ खड़ा हुआ औऱ कश से बाहर निकला उसने देखा की सभी लोग अपनी जान बचाकार भाग रहे है.. अमर होने के नशे में चूर वीरेंद्र सिंह तलवार लेकर उस आदमी की तरफ बढ़ गया..
जोगी ने जैसे ही वीरेंद्र सिंह को देखा उसने वीरेंद्र सिंह के पैरों को किसी मन्त्र की सहायता से वही जकड़ दिया जहा वो खड़ा था..

जोगी वीरेंद्र सिंह के पास आया और उसे घूर कर देखने लगा.. जोगी ने वीरेंद्र सिंह से कहा कि उसने बैरागी को मार कर अच्छा नहीं किया.. वीरेंद्र सिंह ने आदमी का जवाब देते हुए कहा.. कि वह अमर है उसे कोई नहीं मार सकता..
जोगी ने वीरेंद्र सिंह से कहा कि वह उसे मारने नहीं आया बल्कि वह उसे जिंदा रखकर उसके जीवन को जहाँन्नुम बनाने आया है और उसे उसके किए हुए पापों की सजा देने आया है..
आज तक वीरेंद्र सिंह को मरने का डर था अब उसे जीने का डर लगेगा वह मौत को पाना चाहेगा मगर मौत उसे कभी हासिल नहीं होगी और वह कभी मर नहीं पाएगा.. इसी के साथ ही उसका जीवन अब इतना बड़ा और पीड़ादायक हो जाएगा कि उसे हर दिन एक साल के बराबर लगेगा..

वीरेंद्र सिंह को आदमी की बातें सुनकर अजीब लग रहा था और वह सोच रहा था कि यह आदमी कैसे उसके जीवन को नर्क बना सकता है और कैसे उसके वरदान को अभिशाप में बदल सकता है..
वीरेंद्र सिंह के वापस जवाब न देने पर आदमी ने कहा कि उसने प्रकृति के नियम से छेड़छाड़ कि है जो कि उसके दुखों का कारण बनेगा और उसके किए हुए पाप उसके साथ ही रहेंगे..

जोगी का किया विध्वंस इतना भीषण था की जागीर के सभी लोग अपनी जान बचाकर निकले थे महल सुनसान पड़ा हुआ था जहां बस अब एक वीरेंद्र सिंह खड़ा हुआ था और सामने जोगी जिसे अब और कोई धुन सवार नहीं थी..

जोगी ने बैरागी के शरीर के साथ क्रिया करके बैरागी की आत्मा को वीरेंद्र सिंह के ऊपर छोड़ दिया और उसे पाबंद कर दिया कि वह वीरेंद्र सिंह को कभी चैन से सोने और चैन से रहने नहीं देगा..

इसी के साथ ही जोगी ने वीरेंद्र सिंह को भी अपने ज्ञान कला और सिद्धि के माध्यम से औषधि को निषफल किये बिना ही जीने के लिए बाध्य कर दिया.. आदमी ने वीरेंद्र सिंह की दुर्गति करने के लिए उस पर जो सिद्धियों का उपयोग किया उससे अब वीरेंद्र सिंह ना ठीक से खा सकता था ना ही सो सकता था ना ही भोग विलास कर सकता था उसकी उम्र भी अब उसके मृत्यु के समय वाली अवस्था में आ गई थी..

जोगी ने वीरेंद्र सिंह ऐसी दुर्गति की जो वह सपने में भी नहीं सोच सकता था.. वीरेंद्र सिंह अब अपनी उम्र की 11 गुनी लम्बी जिंदगी जीने वाला था.. मगर जिंदा रहने के लिए ना वो कुछ अच्छा खा सकता था.. ना ही भोगविलास कर सकता था.. ना किसी महल में रह सकता था ना ही उसे पूरी नींद आ सकती थी.. ऊपर से उसके सर पर अब बैरागी का भूत भी बैठ गया था जो अक्सर उसे उसकी नींद से जगा देता उसे चैन से सोने नहीं देता.. ना ही उसे चैन से खाने देता.. वीरेंद्र सिंह कोई भी चीज खाता तो रख बन जाती है उसे सड़ा गला ही खाना पड़ता और उसे अब इस तरह जीना पड़ता है जैसे कोई बेसहारा बेबस लाचार तड़पकर जीता है..

वीरेंद्र सिंह ने इस बंधन को खोलने के लिए और इस बंधन से मुक्ति पाने के लिए बड़े से बड़े सिद्ध ज्ञानी पुरुष की शरण में जाकर सिद्धियां और ज्ञान हासिल करने की ठान ली और आसपास जितने भी महापुरुष और महासाधु लोग थे उनकी शरण में जाकर इस बंधन से आजाद होने का उपाय करने लगा लेकिन उसे कहीं भी इसका उपाय नहीं मिला..

वीरेंद्र सिंह जागीर के बाहर भी दूर दूर तक जाकर वापस आ गया.. बहुत सी सिद्धियां और ज्ञान हासिल किये जो समय के साथ उसके साथ ही रहे..
वीरेंद्र सिंह के साथ बैरागी की आत्मा होने के कारण बैरागी को भी उन ज्ञान की प्राप्ति हुई और वह वीरेंद्र सिंह के साथ-साथ सभी संतो महापुरुषों और सिद्ध बाबोओ और शानो तांत्रिको के चरणों में बैठकर वीरेंद्र सिंह के साथ ही ज्ञान प्राप्त कर रहा था.. इसी के साथ वह वीरेंद्र सिंह को कभी चैन से नहीं रहने दे रहा था वीरेंद्र सिंह अब मौत को तरस रहा था..

वीरेंद्र सिंह को जिंदगी का भय लगने लगा था और वह इसी तरह अपने दिन गुजरने लगा था.. देखते ही देखते दिन गुजरने लगे और फिर महीने साल बीतने लगे साल दर साल बीतने के बाद में बैरागी और वीरेंद्र सिंह साथ में ही रहे..

आखिर में बैरागी ने ही वीरेंद्र सिंह पर तरस खाकर उसे उसकी मुक्ति का राज़ बताया औऱ कहा की यदि कोई उसी जड़ी बूटी को जो बैरागी ने बनाई थी लाकर आपको खिला दे तो वीरेंद्र सिंह की मुक्ति हो जायेगी.. औऱ वीरेंद्र सिंह की मृत्यु के साथ बैरागी भी मुक्त हो जाएगा..

गौतम ये सब सपने में देखकर देखकर सुबह उठा तो उसने सपने के बारे में देर तक सोचा.. उसे समझ नहीं आ रहा था की उसे एक ही कहानी से जुड़े हुए सपने बार बार क्यों आ रहे है?
आज गौतम सुमन के साथ वापस आने वाला था सो उसने वापस सपने के बारे में सोचना छोड़कर नहाने का सोचा औऱ तैयार होकर गायत्री कोमल आरती शबनम सब से मिलकर वापस आने के लिए सुमन के साथ निकल पड़ा..

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प्रणाम बड़े बाबा जी...
किशोर.. तू इस वक़्त यहां? अभी तो सांझ होने में समय है फिर अचानक आने का कारण?
किशोर - बड़े बाबाजी.. बाबाजी के आश्रम में एक आदमी अपनी अंतिम साँसे ले रहा है अजीब रोग हो उसे उसके रोग के उपचार हेतु युक्ति पूछने को भिजवाया है..कहा है यदि आप आज्ञा दे तो बाबाजी आपके पास इसी समय आने को आतुर है..
बड़े बाबाजी - इस वक़्त? जानते नहीं एकान्त में हम अपने साथ समय व्यतीत कर रहे है.. विरम से कह देना अगली बार हम उसे बुलाएंगे.. तब तक वो किसी औऱ को हमारे पास ना भेजे.. किशोर.. तुमको भी नहीं..
किशोर - जो आदेश बड़े बाबाजी.. किशोर जाने लगता है तभी बैरागी वीरेंद्र से कहता है..

बैरागी - मरने वाले के प्राण अगर बच सकते है तो उसे बचाने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए हुकुम.. जीवन अनमोल है उसकी सही कीमत मरने से पहले ही समझ आती है.. जब सारा जीवन आँखों के सामने आता है औऱ जीवन में किये अपने सही गलत कामो का तुलनात्मक अध्ययन होता है..
बड़े बाबाजी उफ़ वीरेंद्र सिंह - तू कहना क्या चाहता है बैरागी कि मुझे उस मरते हुए आदमी के जीवन की रक्षा करनी चाहिए? अरे प्रतिदिन सेकड़ो मनुष्य अपने प्राण त्याग कर इस दुनिया से अगले आयाम में चले जाते है.. वो भी यहां से वहा चला जाएगा तो क्या हो जाएगा?
बैरागी - प्रतिदिन मरने वाले सैकड़ो लोगो कि किस्मत में बचना नहीं लिखा होता हुकुम.. उनकी मृत्यु उनकी नियति है मगर जिसके प्राण बच सकते है औऱ आपके करण जा रहे है उसका मरना आपकी हठधर्मिता..
बड़े बाबाजी उफ़ वीरेंद्र सिंह - समझ गया बैरागी.. तू सही कहता है.. मेरे ही समझने का फेर था..

बड़े बाबाजी किशोर को बुलाते है औऱ बाबाजी उर्फ़ विरम तक ये सन्देश पहूँचवाते है की उस रोगी को उनके पास लाया जाए..

विरम उर्फ़ बड़े बाबाजी किशोर औऱ कुछ अन्य लोगों के साथ उस आदमी को बड़े बाबाजी की कुटीया के बाहर लाकर जंजीर से बाँध देते है..
बड़े बाबाजी कुटीया से बाहर आकर रोगी को देखते हुए - क्या हुआ है इसे?
बाबाजी बाकी लोगों को जाने का इशारा करते हुए - गुरुदेव कोई साया लगता है.. मैंने बहुत कोशिश की समझने की मगर समझ नहीं पाया.. इसलिए किशोर को आपके पास भेजा.. इसकी पत्नी औऱ एक बच्ची भी है जो ऊपर आश्रम में रोती हुई मुझसे इसके ठीक होने का गुहार लगा रही है.. अब ये आपकी शरण में है गुरुदेव.. आप इसका उद्धार करें...

बड़े बाबाजी उस आदमी को देखते हुए - साया तो जरूर है.. पर कोनसा? ये समझने में मैं चूक रहा हूँ विरम.. इसकी दशा किसी जंगल के उजड़े हुए बरगद की तरह है औऱ आँखे किसी बांधे हुए तीलीस्म की तरह.. मैं दोनों में अंतर समझने में चूक रहा हूँ..
विरम - अब आप ही आखिरी उम्मीद है गुरुदेव.. आप ही तय करें..
बड़े बाबाजी बैरागी की तरफ देखकर - क्या लगता है?
बैरागी - समझने का फेर तो आपसे पहले भी हो चूका है हुकुम.. मगर इस बार में आपकी मदद किये देता हूँ.. इसके गले के नीचे सीने से ऊपर तीलीस्म की निशानी है.. ये किसी का बाँधा हुआ तीलीस्म है हुकुम..
बड़े बाबाजी बैरागी की बात सुनकर उस रोगी के सर के बाल पकड़ कर उसके मुंह में मिट्टी के कुछ कण डालकर सर पर अपने हाथ में पानी लेकर छिड़काव करते है औऱ उस रोगी का बंधा हुआ तीलीस्म खोल देते है जिससे वो रोगी उस बांधे हुए तीलीस्म से आजाद हो जाता है..

विरम उर्फ़ बाबाजी उस रोगी को संभालते हुए - गुरुदेव ये क्या हो रहा है?
बडेबाबाज़ी उर्फ़ विरम - तेरा रोगी तीलीस्म से आजाद हो रहा है विरम.. इसे ले जा.. औऱ 3 दिन तक पीपल के पेड़ की छाया से भी दूर रख..
विरम उर्फ़ बाबाजी - जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव..
किशोर - आज्ञा बड़े बाबाजी..

विरम उर्फ़ बाबाजी किशोर के साथ उस रोगी को उन आदमियों की मदद से वापस ऊपर आश्रम में ले आता है औऱ उसकी बीवी औऱ बच्ची को 3 दिनों तक उस आदमी को पीपल से दूर रखने की सलाह देता हुआ उसी आश्रम में रहने का सुझाव देता है जिस पर सब राजी हो जाते है...

सबके जाने के बाद वीरेंद्र सिंह बैरागी से पूछता है - मुझसे पहले कब समझने में चूक हुई बैरागी? मैंने तो अब तक सब सटीक ही अनुमान लगाया है..
बैरागी - सबसे जरुरी अनुमान ही अगर गलत लग जाए तो पुरे इतिहास का क्या महत्त्व रह जाएगा हुकुम...
बड़े बाबाजी - मैं समझा नहीं बैरागी?
बैरागी - आपने उस लड़के का पिछला जन्म देखा था याद है आपको..
बड़े बाबाजी - कौन गौतम?
बैरागी - हाँ हुकुम..
बड़े बाबाजी - तो? उसमे क्या गलत अनुमान लगाया मैंने बैरागी? गौतम अपने पिछले जन्म में धुपसिंह का बेटा समर ही तो है..
बैरागी - नहीं हुकुम.. गौतम अपने पहले जन्म में अपने धुपसिंह का असली बेटा था.. समर तो गज सिंह औऱ लीलावती की संतान थी..
बड़े बाबाजी हैरानी से - मतलब धुपसिंह का समर के अलावा भी एक बेटा है.. मुझसे इतना बड़ी गलती हो गई?
बैरागी - अब आपने बिलकुल सही अनुमान लगाया हुकुम.. जो कीच आपने इतने बर्षो में सीधा है मैंने भी सीखा है हुकुम.. जिस तरह आपने ध्यान लगाकर गौतम का पुराना जन्म देखने की नाकाम कोशिश की है.. मैंने भी आपका पूरा इतिहास देखा है...याद है एक बार आप माघ की रात में जंगल से गुजर रहे थे औऱ आपके पीछे जयसिंह औऱ धुपसिंह के साथ कई औऱ सैनिक भी थे.. उस वक़्त आपके पिता कुशल सिंह जागीरदार हुआ करते थे..
बड़े बाबाजी - याद है.. हमने जंगल के बीच दरिया किनारे जमाव डाला था...
बैरागी - हाँ हुकुम.. उस वक़्त जमाव के करीब बनजारों औऱ अन्य काबिलो की बस्तीया भी आबाद थी जहा रात को अपना मन बहलाने धुपसिंह औऱ उसके साथ कई सैनिक गए थे..
बड़े बाबाजी - तो इसमें क्या बड़ी बात है बैरागी.. ये तो कई बार होता आया है.. जंगल से गुजरते वक़्त कबिलो की औरतों से सैनिक सम्बन्ध बनाते ही रहते है..
बैरागी - मगर प्यार नहीं करते हुकुम.. धुपसिंह ने यही किया.. काबिले में ना जाकर बंजारों की बस्ती में चला गया औऱ एक बंजारन से प्रेम कर बैठा.. उस प्रेम का परिणाम ये हुआ कि एक लड़के का जन्म हुआ.. जो धुपसिंह की असली संतान थी औऱ गौतम का पिछला जन्म भी..
बड़े बाबाजी - बैरागी इतनी बड़ी भूल.. मैं कैसे इतनी बड़ी भूल कर सकता हूँ? मेरा मस्तिक गौतम के मिलने के बाद बहुत विचलित रहने लगा है.. मैं ध्यान भी नहीं कर पा रहा हूँ..
बैरागी - आज तृत्या है हुकुम.. मेरा प्रभाव आप पर कमजोर है.. आप थोड़ा आराम कर लीजिये..

बड़े बाबाजी कूटया में जाकर चटाई पर लेटते हुए सो जाते है...

 
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