#52
एक एक पल बड़ी बेचैनी संग गुजर रहा था, जब पूरी तरह से लगा की मासी सो चुकी है तो मैंने तलाशी अभियान शुरू किया. मुनीम की तिजोरी पर कोई भी ताला नहीं लगा था, ये हैरान करने वाली बात थी . अन्दर कुछ गड्डी रखी थी, कुछ आभूषण थे पर जो मुझे चाहिए था वैसा कुछ नहीं था. और सवाल भी यही था की अगर यहाँ नहीं तो फिर कहाँ. तसल्ली के लिए मैंने छानबीन कर तो ली थी पर मुझे कुछ नहीं मिला. थक कर मैं कुर्सी पर बैठ गया और सोती हुई नाज को देखने लगा. सच में बहुँत ही खूबसूरत थी वो . पर मेरी आँखों में नींद नहीं थी बिलकुल भी नहीं थी. नजर नाज की ऊपर निचे होती छाती पर जमी हुई थी पिछले कुछ समय में नाज के साथ जो भी सुख मैंने लिया था, चुदाई के जो भी लम्हे जिए थे उन्हें भुलाना कठिन था.
पर बात फिर भी यही थी की वो कागज जो जोगन ने मुझे दिया वो गया तो कहा गया . कोई भी आदमी अपनी कीमती चीज कहाँ रखता है मुनीम की तिजोरी में मेरे मतलब का कुछ भी नहीं था . ओह तेरी, मुझे मेरी भूल का अंदाजा हुआ मेरी तो तलाश ही गलत थी मुनीम नहीं नाज , नाज अपनी सबसे कीमती चीज कहाँ रखेगी , कहाँ छुपा सकती थी ये क्यों नहीं सोच रहा था मैं . यहाँ मन की उलझन और बढ़ने वाली थी क्योंकि कागज उस छिपे हुए घर में नहीं था तो फिर एक ही जगह बचती थी जो इन सबको जोडती थी और वो था मंदिर. मैंने उसी पल मंदिर में जाने का निर्णय लिया . कशमश थी की नाज को अकेला छोड़ कर जाऊ या नहीं. कही उस पर फिर से हमला हो गया तो ? वैसे तो भोर होने में देर ही कितनी थी फिर पिस्ता ने वादा तो क्या था की दिन में वो मेरे साथ होगी मंदिर में . पर दिल बहन के लंड को चैन नहीं था . तो मैंने अपने कदम घर से बहार निकाल ही लिए.
बढती ठण्ड में कदमो से कदम मिलाते हुए जल्दी ही मैं अपनी सांसो को दुरुस्त करते हुए उस खंडहर के सामने खड़ा था जिसने मेरे दिल में सवालो का धुआ उठा रखा था,
“क्या कहानी है तुम्हारी, क्या छिपाया हुआ है तुमने अपने अन्दर ” एक बार फिर मेरी सांसो ने उन खामोश दीवारों से सवाल किया और अपने कदमो को सीढियों से होते हुए ऊपर की तरफ बढ़ा दिया. इस मंदिर की सबसे अजीब बात इसकी ख़ामोशी नहीं थी बल्कि वो शोर था जिसे बस कोई सुनने वाला चाहिए था. और इस रात , मैं अतीत के उस शोर को इतनी शिद्दत से सुनना चाहता था की मेरे आज की फिर कोई परवाह, कोई फ़िक्र ही न रहे. लाला किसी भी कीमत पर इस खंडहर को चाहता था और मेरे पिता इस से अपनी सरपरस्ती कभी छोड़ना नहीं चाहते थे. कोई पहरा नहीं न कोई सुरक्षा कोई भी हां कोई भी कभी भी यहाँ किसी भी वक्त आ जा सकता था तो फिर क्या था यहाँ पर जो होकर भी नहीं था और अगर था तो क्यों था . सोचते हुए मैं हर एक दिवार को महसूस करते हुए इधर उधर घूम रहा था . आसमान में चाँद बादलो से आँख मिचौली खेलने लगा था , बारिश कभी भी हो सकती थी . एक बार दो बार तीन बार मैं जितना देख सकता था तलाश कर सकता था मैने किया पर ये खंडहर जैसे कोई खेल खेल रहा था मुझसे , ये खामोश दीवारे जैसे हंस रही थी मुझ पर .
शायद इसकी ये ख़ामोशी ही वो खासियत थी जिसने मेरे जैसे कितने लोगो की दिलचस्पी का मजाक बनाया हुआ था
“सबसे ज्यादा धोखा इन्सान को कोई देता है तो उसकी आँखे ” अचानक से ही मेरे मन में ये बात आई और मैंने सोचा की ये खंडहर एक धोखा ही तो था . धोखा , हाँ क्योंकि अक्सर वो राज ,राज ही रह जाते है जो आँखों के सामने होते है इस मंदिर की सबसे ख़ास बात थी खंडित मूर्ति , मुझे यहाँ पर जोगन मिली वो भी इस मूर्ति को घूरते हुए , मेरे पिता मिले वो भी इसी मूर्ति को घूरते हुए . मैंने अपना माथा मूर्ति के चरणों में लगाया और गहनता से जांच करने लगा , बारिश अब जोर पकड़ने लगी थी आसमान बिजलियों से भरने लगा था . ऐसा कर्कश शोर , ऐसी चमक की लगे दिन ही निकल आया हो . पर जैसा की शाहरुख़ खान साहब ने कहा था की किसी चीज को शिद्दत से चाहो तो कायनात आपको उस से मिलाने में लग जाती है . आज की रात ये कायनात शायद मेरे लिए ही थी गरजती बिजली की रौशनी में मेरी नजर मूर्ति के दांतों पर पड़ी और मैं समझ गया. मूर्ति का एक दांत अलग सा और जैसे ही मैंने उसे छुआ, हल्का सा दबाव दिया खट की सी आवाज हुई करीब तीन फूट के आसपास फर्श निचे को धंसा और पत्थरों की बनी सीढिया निचे को जाती हुई दिखने लगी. अगर कोई उस समय मेरे होंठो पर आई मुस्कराहट को देख पाता तो समझता की बेंतेहा ख़ुशी किसे कहते है .
जैसे जैसे मैं सीढिया उतर रहा था अँधेरा कम होते जा रहा था और जल्दी ही मैं मंदिर के निचे बने उस कमरे में था जहाँ पर रौशनी थी , चिमनिया जल रही थी और मेरे सामने ठीक सामने नाज मोजूद थी .
“हैरान हो मुझे देख कर ” नाज बोली
मैं- तुम्हे तो सोती हुई छोड़ आया था मैं
नाज- हम जैसो के नसीब में चैन कहा वो भी इन हालातो में जब तुम मान ही नहीं रहे हो
नाज चलते हुए उस बड़े अलाब के पास गयी और अपने ब्लाउज से वो ही कागज निकाल लिया जो मुझे जोगन ने दिया था .
मैं- तुम्हे ये नहीं चुराना चाहिए था .
नाज- क्या करे बरखुरदार . हमारी जिन्दगी में जो भी थोडा सकून था वो तुम ख़तम करने को आमादा हो करे तो क्या करे. तुमसे कुछ कह नहीं सकती , तुम्हे कुछ बता नहीं सकती . इधर कुआ तो उधर खाई जायेया तो कहा जाये मैं और मेरा मासूम दिल .
मैं- अक्सर दिल के बोझ क किसी को बताने से बोझ हल्का हो जाता है
नाज- उफ़ ये किताबी बाते
मैं- फिलहाल तो मुझे वो कागज चाहिए
नाज ने मेरी तरफ देखा और बड़ी ही मासूमियत से वो कागज आग के हवाले कर दिया.
“किसी और की ये हरकत होती तो मासी मैं इसी आग में जला देता उसे “मैंने गुस्से से कहा
”किसी और ने यहाँ आने की गुस्ताखी की होती तो मैं भी उसे अब तक इस आग में जला चुकी होती “ पहली बार मैंने नाज के एक नए रूप को देखा
“क्या लिखा था उसमे ” मैंने गुस्से से पुछा
नाज- बिखरता हुआ घर लिखा था उस कागज में
मैं- तुम्हे क्या लगता है की इस कागज जो जलाने से तुम मुझे रोक पाओगी . जिसने कागज दिया मैं उस से ही पूछ लूँगा.
नाज- बेशक हक़ है तुम्हे .पर मैं अपने बेटे को फिर से उसकी भलाई के लिए ही सलाह दूंगी की दूर रहो .
इधर उधर चलते हुए मैं बस उस कमरे को ही देख रहा था और नाज शायद नहीं चाहती थी . सामने की दीवार पर कुछ तस्वीरे थी जिन्हें धुल ने ढक लिया था . एक कोने में कुछ अलमारिया थी .
“तो ये कमरा ही वो दिलचस्प वजह है जो इस मंदिर को ख़ास बनाता है ” मैंने कहा
नाज- हाँ भी और ना भी . मंदिर कभी दिलचस्प नहीं था कोई तवज्जो नहीं देता था इसे कभी भी नहीं . पर ये कमरा ख़ास था सबसे अनोखा सबसे छिपा हुआ.
इसके आगे नाज कुछ नहीं बोल पाई. उसके शब्द चीख में बदल गए नाज की पीठ में चाकू धंस चूका था . मेरी नजर सीढियों पर गयी तो वहां पर एक साया था जो वापिस मुड रहा था . बिना नाज की परवाह किये मैं उस साये के पीछे भागा और जब तक मैं आँगन में आया वो साया गायब था .
“आज नहीं ” मैंने दांत चबाते हुए कहा और बिजिली की रौशनी में मुझे वो साया भागते हुए दिखा मैं उसके पीछे हो लिया. आज चाहे जो हो जाये पर आज की रात जैसा मैंने पहले भी कहा मेरे साथ थी . वो साया मुझे छकाते हुए जंगल में इधर उधर भाग रहा था मेरी सांसे जवाब देने लगी थी पर आज हार नहीं माननी थी . एक पल फिर ऐसा आया की वो मुझसे बस कुछ ही दूर था पर हाथ डालने से पहले ही वो छका गया. मैंने एक लकड़ी का टुकड़ा उसकी तरफ फेंका जो किस्माट्स इ उसके पैरो पर लगा. कुछ देर के लिए वो लडखडाया और मैंने धर लिया उसे.
“आज नहीं , बस बहुत हुआ बहुत दौड़ लिए अब और नहीं ” मैंने कहा और उसके नकाब को खींच लिया. ....................