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#३
दो सखियां आपस में अंतरंग बातें कर रही हैं। एक सखी अपनी दूसरी सखी को बता रही हैं कि कैसे उसने पहली बार अपने सगे भईया का दस अंगुल अंग अपने गहरे रसीले कुंवारे अंग में लिया था जब वो भईया के पास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा देने गई थी। रात में एक ही कमरे में, एक ही बिस्तर पे अपने जवान सगे भईया के साथ पहली बार सोई तो संयम नहीं रख पायी।
सुनिए उस रात की कहानी काव्य के रूप में-
वह रात चांदनी रही सखी, भईया निद्रा में लीन रहे,
आँखों में मेरी पर नींद नहीं, मैंने तो देखे स्वप्न नये,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
सोते भईया के बालों को, हौले - हौले सहलाय दिया,
माथे पर इक चुम्बन लेकर, होठों में होंठ घुसाय दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया के होठों से होंठ मेरे, चिपके जैसे कि चुम्बक हों,
भईया सोये या जाग रहे हैं, अंग पे हाथ फेर अनुमान किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
दस अंगुल का विस्तार निरख, मैं तो हो गई निहाल सखी,
भईया सोये या जाग रहे हैं, अब ये विचार ही मन निकल गया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
अपने स्तन निर्वस्त्र किये, भईया के होठों में सौंप दिए,
गहरी-गरम उनकी सांसों ने, मेरे स्तन स्वतः फुलाय दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया के उभरे चौड़े सीने पर, फिर मैंने जिव्हा सरकाई सखी,
उसके सीने पर होठों से, चुम्बन से कई प्रहार किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया बेसुध से सोये थे, मैंने उनका अंत: - वस्त्र उतार दिया,
दस अंगुल के चितचोर को फिर, मैंने मुख माहि उतार लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मैंने भईया के अंग से फिर, मुँह से खेले कई खेल सखी,
कभी होठों से खींचा उसको, कभी अंग पे जीभ फिराय दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
कभी केले सा होंठस्थ किया, कभी आम सा रस चूस लिया,
कभी जिह्वा से अठखेली की, कभी दाँतों से मृदु दंड दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
होंठ-जिह्वा दोनों संग-संग, इस क्रिया में रत रहे सखी,
जिह्वा-रस में तर अंग से मैंने, स्तनों पे रस का लेप किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मैंने सोचा भईया का अंग, मेरे अंग में कैसे जाता होगा,
कैसे अंग में वह धँसता होगा, कैसे अंग में इतराता होगा,
अपनी मुट्ठी को अंग समझ, मैंने क्या–क्या नहीं अनुमान किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मैं देखत थी, मैं खेलत थी, अंग मुँह के अन्दर सेवत थी,
मेरे मन में ऐसा लोभ हुआ, मैंने उसको पूर्ण कंठस्थ किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया की उँगलियाँ अब मैंने, नितम्बों पे फिरती अनुभव की,
मैं समझ गई अब भईया की, आँखों से उड़ी झूठी निंदिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया ने नितम्ब सहलाये सखी, मेरा पूरा अंग मुट्ठी से सहला दिया,
ख़ुशी से झूमे मेरे अंग ने, द्रव के द्वारों को खोल दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
नितम्बों के मध्य सखी भईया ने, इक रस -भरा चुम्बन टांक दिया,
मेरे मुंह से बस सिसकी निकली, मैंने आनंद अतिरेक प्राप्त किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया ने नितम्बों पर दाँतों से, कई मोहरें सखी उकेर दईं,
मक्खन की ढेली समझ उन्हें, जिह्वा से चाट-चटकार लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
एक बड़े अनोखे अनुभव ने, जीवन में मेरे किलकार किया,
मैं चिहुंकी मेरे अंग फड़के, मैंने उल्लास मय चीत्कार किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
रात्रि के गहन सन्नाटे को, मेरी सिसकारी थी तोड़ रही,
मैं बेसुध सी होकर भईया अंग को, होठों से पकड़ और छोड़ रही,
भईया ने जिह्वा के करतब से, रग-रग में मस्ती घोल दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मैं बेसब्र सी उठी सखी, साजन के अंग पर जा लेटी,
साजन के विपरीत था मुख मेरा, नितम्बों को पकड़ निचोड़ दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मेरा मुख भईया के पंजों पर, स्तन घुटनों पर पड़े सखी,
मेरा अंग विराजा उनके अंग पर, अंग को सांचे में ढाल लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया की कमर के आर - पार, मेरे दो घुटनें आधार बने,
मेरे पंजों ने तो भईया की, तकिया का जैसे काम किया
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मेरे अंग के सब क्रिया कलाप, अब भईया की नज़रों में थे,
अंग को अंग से सख्ती से जकड़, चहुँ ओर से नितम्ब हिलोर दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
कभी इस चक्कर कभी उस चक्कर, मेरे नितम्ब थे डोल रहे,
भईया ने उँगलियों से उकसाया, कभी उन पे कचोटी काट लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
बड़ी बेसब्री से अंग मेरा, स्तम्भ पे चढ़ता और उतरता था,
जितनी तेजी से चढ़ता था, उतना ही तीव्र उतरता था,
मेरे अंग ने उनके अंग की, लम्बाई-चौड़ाई नाप लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया ने अपनी आँखों से, देखे मेरे सब स्पंदन,
उसने देखा रस में डूबे, अंगों का गतिमय आलिंगन,
उसने नितम्ब पर थाप दिया, मैंने स्पंदन पुरजोर किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
श्रम के मारे मेरा शरीर, श्रम के कण से था भीग गया,
मेरा उद्वेलित अंग उनके अंग पर, कितने ही मील चढ़-उतर गया,
स्तम्भ पे कुशल कोई नट जैसा, मेरे अंग ने था अठखेल किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
आह बहना, ओह भईया, सीत्कार सिवा, हमरे मुख में कोई शब्द न थे,
मैं जितनी थी बेसब्र सखी, भईया भी कम बेसब्र न थे,
भईया के अंग ने मेरे अंग में, कई शब्दों का स्वर खोल दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मेरा अंग तो उसके अंग को, समां लेने को बेसब्र रहा,
ऐसी आवाजें आती थी, जैसे भूखा भोजन खा रहा,
भईया ने अपने अंगूठे को, नितम्बों के मध्य लगाय दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
अंग का घर्षण था अंग के संग, अंगूठे का मध्य नितम्बों पर,
उसका सुख था अन्दर-अन्दर, इसका सुख था बाहर-बाहर,
मैं सर्वत्र आनंद से घिरी सखी, सुख काम-शिखर तक पहुँच गया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
अंगों की क्षुधा बढती ही गई, संग स्पंदन भी बढ़े सखी,
पल भर में ऐसी बारिश हुई, शीतल हो गई तपती धरती,
भईया के अंग ने मेरे अंग में, तृप्ति के बांध को तोड़ दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया उठाकर मुझे सखी, अपने सीने से लगा लिये,
और हंसकर बोले वो मुझसे, आज मेरी प्यारी बहना- 'अनुपम सुख हमने प्राप्त किया,'
मैंने सहमति की मुस्कान लिए, होठों से होंठ मिलाय लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।।
दो सखियां आपस में अंतरंग बातें कर रही हैं। एक सखी अपनी दूसरी सखी को बता रही हैं कि कैसे उसने पहली बार अपने सगे भईया का दस अंगुल अंग अपने गहरे रसीले कुंवारे अंग में लिया था जब वो भईया के पास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा देने गई थी। रात में एक ही कमरे में, एक ही बिस्तर पे अपने जवान सगे भईया के साथ पहली बार सोई तो संयम नहीं रख पायी।
सुनिए उस रात की कहानी काव्य के रूप में-
वह रात चांदनी रही सखी, भईया निद्रा में लीन रहे,
आँखों में मेरी पर नींद नहीं, मैंने तो देखे स्वप्न नये,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
सोते भईया के बालों को, हौले - हौले सहलाय दिया,
माथे पर इक चुम्बन लेकर, होठों में होंठ घुसाय दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया के होठों से होंठ मेरे, चिपके जैसे कि चुम्बक हों,
भईया सोये या जाग रहे हैं, अंग पे हाथ फेर अनुमान किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
दस अंगुल का विस्तार निरख, मैं तो हो गई निहाल सखी,
भईया सोये या जाग रहे हैं, अब ये विचार ही मन निकल गया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
अपने स्तन निर्वस्त्र किये, भईया के होठों में सौंप दिए,
गहरी-गरम उनकी सांसों ने, मेरे स्तन स्वतः फुलाय दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया के उभरे चौड़े सीने पर, फिर मैंने जिव्हा सरकाई सखी,
उसके सीने पर होठों से, चुम्बन से कई प्रहार किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया बेसुध से सोये थे, मैंने उनका अंत: - वस्त्र उतार दिया,
दस अंगुल के चितचोर को फिर, मैंने मुख माहि उतार लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मैंने भईया के अंग से फिर, मुँह से खेले कई खेल सखी,
कभी होठों से खींचा उसको, कभी अंग पे जीभ फिराय दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
कभी केले सा होंठस्थ किया, कभी आम सा रस चूस लिया,
कभी जिह्वा से अठखेली की, कभी दाँतों से मृदु दंड दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
होंठ-जिह्वा दोनों संग-संग, इस क्रिया में रत रहे सखी,
जिह्वा-रस में तर अंग से मैंने, स्तनों पे रस का लेप किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मैंने सोचा भईया का अंग, मेरे अंग में कैसे जाता होगा,
कैसे अंग में वह धँसता होगा, कैसे अंग में इतराता होगा,
अपनी मुट्ठी को अंग समझ, मैंने क्या–क्या नहीं अनुमान किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मैं देखत थी, मैं खेलत थी, अंग मुँह के अन्दर सेवत थी,
मेरे मन में ऐसा लोभ हुआ, मैंने उसको पूर्ण कंठस्थ किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया की उँगलियाँ अब मैंने, नितम्बों पे फिरती अनुभव की,
मैं समझ गई अब भईया की, आँखों से उड़ी झूठी निंदिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया ने नितम्ब सहलाये सखी, मेरा पूरा अंग मुट्ठी से सहला दिया,
ख़ुशी से झूमे मेरे अंग ने, द्रव के द्वारों को खोल दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
नितम्बों के मध्य सखी भईया ने, इक रस -भरा चुम्बन टांक दिया,
मेरे मुंह से बस सिसकी निकली, मैंने आनंद अतिरेक प्राप्त किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया ने नितम्बों पर दाँतों से, कई मोहरें सखी उकेर दईं,
मक्खन की ढेली समझ उन्हें, जिह्वा से चाट-चटकार लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
एक बड़े अनोखे अनुभव ने, जीवन में मेरे किलकार किया,
मैं चिहुंकी मेरे अंग फड़के, मैंने उल्लास मय चीत्कार किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
रात्रि के गहन सन्नाटे को, मेरी सिसकारी थी तोड़ रही,
मैं बेसुध सी होकर भईया अंग को, होठों से पकड़ और छोड़ रही,
भईया ने जिह्वा के करतब से, रग-रग में मस्ती घोल दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मैं बेसब्र सी उठी सखी, साजन के अंग पर जा लेटी,
साजन के विपरीत था मुख मेरा, नितम्बों को पकड़ निचोड़ दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मेरा मुख भईया के पंजों पर, स्तन घुटनों पर पड़े सखी,
मेरा अंग विराजा उनके अंग पर, अंग को सांचे में ढाल लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया की कमर के आर - पार, मेरे दो घुटनें आधार बने,
मेरे पंजों ने तो भईया की, तकिया का जैसे काम किया
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मेरे अंग के सब क्रिया कलाप, अब भईया की नज़रों में थे,
अंग को अंग से सख्ती से जकड़, चहुँ ओर से नितम्ब हिलोर दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
कभी इस चक्कर कभी उस चक्कर, मेरे नितम्ब थे डोल रहे,
भईया ने उँगलियों से उकसाया, कभी उन पे कचोटी काट लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
बड़ी बेसब्री से अंग मेरा, स्तम्भ पे चढ़ता और उतरता था,
जितनी तेजी से चढ़ता था, उतना ही तीव्र उतरता था,
मेरे अंग ने उनके अंग की, लम्बाई-चौड़ाई नाप लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया ने अपनी आँखों से, देखे मेरे सब स्पंदन,
उसने देखा रस में डूबे, अंगों का गतिमय आलिंगन,
उसने नितम्ब पर थाप दिया, मैंने स्पंदन पुरजोर किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
श्रम के मारे मेरा शरीर, श्रम के कण से था भीग गया,
मेरा उद्वेलित अंग उनके अंग पर, कितने ही मील चढ़-उतर गया,
स्तम्भ पे कुशल कोई नट जैसा, मेरे अंग ने था अठखेल किया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
आह बहना, ओह भईया, सीत्कार सिवा, हमरे मुख में कोई शब्द न थे,
मैं जितनी थी बेसब्र सखी, भईया भी कम बेसब्र न थे,
भईया के अंग ने मेरे अंग में, कई शब्दों का स्वर खोल दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
मेरा अंग तो उसके अंग को, समां लेने को बेसब्र रहा,
ऐसी आवाजें आती थी, जैसे भूखा भोजन खा रहा,
भईया ने अपने अंगूठे को, नितम्बों के मध्य लगाय दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
अंग का घर्षण था अंग के संग, अंगूठे का मध्य नितम्बों पर,
उसका सुख था अन्दर-अन्दर, इसका सुख था बाहर-बाहर,
मैं सर्वत्र आनंद से घिरी सखी, सुख काम-शिखर तक पहुँच गया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
अंगों की क्षुधा बढती ही गई, संग स्पंदन भी बढ़े सखी,
पल भर में ऐसी बारिश हुई, शीतल हो गई तपती धरती,
भईया के अंग ने मेरे अंग में, तृप्ति के बांध को तोड़ दिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।
भईया उठाकर मुझे सखी, अपने सीने से लगा लिये,
और हंसकर बोले वो मुझसे, आज मेरी प्यारी बहना- 'अनुपम सुख हमने प्राप्त किया,'
मैंने सहमति की मुस्कान लिए, होठों से होंठ मिलाय लिया,
उस रात की बात न पूँछ सखी, जब भईया ने खोली अँगिया।।