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प्रीत भाई लौट आये हैंकबीर किरदार है लेकिन कुंदन emotion
और आयत जैसी प्रेमिका भी शायद फिर से किसी कहानी में आए।
इतने वर्ष बीत गए प्रीत की रीत को खत्म हुए फिर भी उसके लेवल की कहानी शायद ही आई हो।
प्रीत भाई लौट आये हैंकबीर किरदार है लेकिन कुंदन emotion
और आयत जैसी प्रेमिका भी शायद फिर से किसी कहानी में आए।
इतने वर्ष बीत गए प्रीत की रीत को खत्म हुए फिर भी उसके लेवल की कहानी शायद ही आई हो।
laajawaab update bhai#17
“पैसे नहीं तो क्या ” पिताजी के सामान को खंगालते हुए मैं बस ये ही सोचता रहा .पिताजी की तमाम किताबे उल्ट-पलट दी पर कुछ नहीं मिला. मैंने कल दिन में जंगल में ही खोजबीन का निर्णय लिया. सुबह सुबह ही मैं शिवाले पहुँच गया . ये कहानी शुरू ही नहीं होती अगर इस शिवाले से प्रेम नहीं होता. जब से होश संभाला था या तो ये था या मैं था ,मेरी भोर यहाँ जल चढाने से शुरू होती मेरी शाम यहाँ माथा टेकने से ख़तम होती, इसने मेरी ख़ुशी भी देखि थी इसने मेरा दर्द भी देखा था . शिवाले की चोखट पर बैठे मैं सामने उस सजे धजे घर को देख रहा था जहाँ दो दिन बाद शादी थी. परिवार के रंडी-रोने साले ख़त्म ही नहीं हो रहे थे , कल रात भाभी को तड़पते देखा पर बहन की लौड़ी वहां रहेगी नहीं. ये किस किस्म का प्यार था इन चुतिया लोगो का की ये साथ भी नहीं रह रहे थे , अलग भी ना हो सके.
सामने से आती निशा को जो देखा , दिल धड़क सा उठा. बरसो पहले उसे ऐसे ही तो देखा था . इसी चोखट पर एक हाथ में लोटा लिए और दुसरे हाथ से जुल्फों को संवारते हुए. सरकारी स्कूल में पढने वाले सब इसी शिवाले में जल चढ़ा कर आगे बढ़ते थे . इस चोखट पर बैठा था मैं . मुस्कुराते हुए निशा अन्दर गयी मैंने दिल को थाम लिया .
“क्या सोचने लगे कबीर ” मेरी पीठ से पीठ लगा कर बैठते हुए पुछा उसने .
मैं- बरसो पहले किसी को यूँ ही देखा था
निशा- देखा क्या था घूर ही रहे थे तुम
मैं- निहार रहा था मैं सरकार
निशा- बड़ी गहरी उतरी तुम्हारी निगाहे दिल में , फिर मैं , मैं नहीं रही .
मैं-कभी कभी सोचता हूँ जिन्दगी तो तभी जी ली मैंने अभी तो बस सांसे चल रही है .
निशा- तो फिर से जिए वो जिन्दगी
मैं- तू साथ है तो जी ही लेंगे.
निशा- कभी कभी मन करता है वो दिन लौट आये , साइकिल उठा कर चल दू उस पगडण्डी पर .
मैं- उसमे क्या है , तू कहे तो चलते है खेतो की तरफ
निशा- वहां से एक रास्ता मेरे घर की तरफ भी जाता है कबीर .
मैं- घर तो घर होता है सरकार, हम चाहे कहीं भी चले जाये हमारे सीनों में घर हमेशा ही रहेगा.
निशा- वक्त आगे बढ़ गया हम वहीँ पर रह गए.
मैं- खेतो पर जाना होगा मुझे, हो सके तो तू दोपहर का खाना लेकर उधर ही आ जाना.
निशा- वहां क्या करेगा तू
मैं- बताया था न तुझे खेतो की हालात ठीक कर रहा हूँ
निशा- ठीक है ,एक बार शहर जाउंगी. फिर खेतो पर आती हु.
थोडा वक्त और उस से बाते करने के बाद मैं खेतो पर आ गया. खेत तो बहाना थे मुझे जंगल में जाना था . बाड को पार करके एक बार फिर मैं झोपडी तक आ पहुंचा था.
“पैसा नहीं तो क्या , पैसा किसे चाहिए था ” इस सवाल ने मुझे पागल किये हुए था. जर, जोरू और जमीन इसके सिवा आखिर क्या हो सकता था . तीनो ही चीजे तो मोजूद थी इस घर की बर्बादी में फिर और क्या बचता था . घूमते घूमते मैं खान की तरफ आ गया , बड़े बड़े पत्थर बिखरे पड़े थे. ख़ामोशी पसरी पड़ी थी. बारिश के मौसम की वजह से उमस बनी पड़ी थी. थोडा सा रास्ता बनाते हुए मैं खान के मुहाने की तरफ चल दिया. पत्थरों और प्रकृति का अद्भुद संगम , झाड़ियो को हटाते हुए मैं मुहाने तक पहुंचा, गहराई के कारण बारिश का पानी जमा हो गया था , उसी के बीच से होते हुए मैं अन्दर की तरफ चला. मार्बल की खुशबु , कुछ सीलन और बरसात का असर . जैसे जैसे मैं अन्दर की तरफ जा रहा था अँधेरा बढ़ने लगा था. पत्थर काटने के औज़ार पड़े देखे मैंने. जब तक की सब कुछ दिखाई देना बंद नहीं हो गया मैं चलता रहा .
“टप टप ” कही से पानी रिस रहा था . खान बहुत ही शांत थी , अक्सर ऐसी जगहों पर शराबी , जुआरी लोग अपना अड्डा बना लेते है पर ये धारणा जम नहीं रही थी जंगल के इस हिस्से में लोगो की आवाजाही ना के बराबर थी . ना ही जंगली जानवरों ने इधर आशियाँ बनाया था जबकि जानवर लोगो को और क्या ही चाहिए. खैर, कब तक रहता उधर , बाहर तो आना ही था.
खेतो पर आकर सोचा की थोड़ी और सफाई कर ली जाए. एक बार फिर गोडी लगाने का काम शुरू कर दिया. ना लायक परिवार की वजह से इतनी उपजाऊ जमीन की माँ चुद गयी थी. दिन ढलने को था निशा शायद भूल ही गयी थी. मैंने ट्रेक्टर छोड़ा और नहाने का सोचा . टीनो के निचे मैंने चारपाई पर अपने कपडे रखे और चला ही था की तभी मेरे पैर में कुछ चुभा. गाली देते हुए मैंने पैर को ऊपर करके देखा तो वो काँटा तो हरगिज नहीं था . बेख्याली में मैंने उस टुकड़े को फेंका , नहा ही रहा था की निशा आ गयी.
“सॉरी, यार. थोडा देर हो गयी, शहर में ज्यादा समय लग गया फिर सोचा तेरी पसंद का कुछ बना लू ” उसने कहा
मैं- तेरी पसंद तो सिर्फ तुम हो सरकार.
निशा- हर टाइम आशिकी ठीक नहीं
मैं- ला परोस दे फिर.
निशा- देख तो ले पहले क्या लाई हु
मैं- दाल चूरमा ही लाइ होगी
निशा- तुझे ना जाने कैसे मालूम हो जाता है हमेशा
मैं- दुनिया में बस दो लोगो के हाथ का चूरमा पसंद रहा है एक तेरा और एक माँ का .
माँ का जिक्र होते ही दिल ने एक आह भरी.
“खेतो का तो हाल बुरा है ” उसने दाल देते हुए कहा.
मैं- इन्ही खेतो में तेरे संग वक्त बिताया था तब क्या था अब क्या हो गया है.
निशा- कोई ना, फिर करेंगे मेहनत .
स्कूल टाइम में निशा इसी रस्ते से आती थी पढने के लिए . कभी खेतो पर मिलते कभी उस चबूतरे पर बैठते. चूरमा अक्सर ही लाती थी वो मेरे लिए.
“भाभी मिली थी आज मुझे ” निशा ने कहा
मैं- क्या बोली
निशा- हाल चाल पूछ रही थी .
मैं- कुछ और नहीं कहा
निशा- पुछा न कबीर कब तक रुकेगा गाँव में
मैं- तुमने क्या कहा
निशा- मैंने कहा पता नहीं उसकी मर्जी है रुके तो रुके ना भी रुके.
मैं- तुम्हे कहना चाहिए था की मिल ले वो मुझसे
निशा- कहा न मैंने. फिर वो टालने लगी. भाभी के हाव भाव अजीब से लगे मुझे
मैं- कैसे
निशा- कबीर, मैं तुम्हारे परिवार में हर किसी को जानती हु. वो भाभी ही थी जिनको सबसे पहले अपने इश्क के बारे में मालूम हुआ . भाभी के व्यवहार में नकलीपन सा लगा मुझे. खोखली बाते
मैं- वक्त बदल गया है
निशा- माना , पर इतना भी नहीं बदला की लोग आँखे चुरा ले कुछ तो हुआ है परिवार में जो मैं नहीं जानती . बताओ कबीर .
मैं- मुझे क्या मालूम
निशा- कबीर पुलिसवाली हु मैं. आदमी यु पहचान लेती हु. और ये तो अपने परिवार की बात है . लोग अक्सर अलग होते है परिवारों में , मैंने बहुत लोगो को देखा है परिवार में लड़ते-झगड़ते हुए बंटवारे के लिए. हिस्सों के लिए पर ये तुम्हारा कैसा परिवार है जो अलग हो गया, एक दुसरे को देखना तक नहीं चाहते और मजे की बात ये है की किसी को कोई लालच नहीं है.
निशा ने मेरी दुखती रग पकड़ ली थी और मेरे पास कोई जवाब नहीं था.........
बहुत ही शानदार लाजवाब और एक अद्भुत मनमोहक अपडेट हैं भाई मजा आ गया#17
“पैसे नहीं तो क्या ” पिताजी के सामान को खंगालते हुए मैं बस ये ही सोचता रहा .पिताजी की तमाम किताबे उल्ट-पलट दी पर कुछ नहीं मिला. मैंने कल दिन में जंगल में ही खोजबीन का निर्णय लिया. सुबह सुबह ही मैं शिवाले पहुँच गया . ये कहानी शुरू ही नहीं होती अगर इस शिवाले से प्रेम नहीं होता. जब से होश संभाला था या तो ये था या मैं था ,मेरी भोर यहाँ जल चढाने से शुरू होती मेरी शाम यहाँ माथा टेकने से ख़तम होती, इसने मेरी ख़ुशी भी देखि थी इसने मेरा दर्द भी देखा था . शिवाले की चोखट पर बैठे मैं सामने उस सजे धजे घर को देख रहा था जहाँ दो दिन बाद शादी थी. परिवार के रंडी-रोने साले ख़त्म ही नहीं हो रहे थे , कल रात भाभी को तड़पते देखा पर बहन की लौड़ी वहां रहेगी नहीं. ये किस किस्म का प्यार था इन चुतिया लोगो का की ये साथ भी नहीं रह रहे थे , अलग भी ना हो सके.
सामने से आती निशा को जो देखा , दिल धड़क सा उठा. बरसो पहले उसे ऐसे ही तो देखा था . इसी चोखट पर एक हाथ में लोटा लिए और दुसरे हाथ से जुल्फों को संवारते हुए. सरकारी स्कूल में पढने वाले सब इसी शिवाले में जल चढ़ा कर आगे बढ़ते थे . इस चोखट पर बैठा था मैं . मुस्कुराते हुए निशा अन्दर गयी मैंने दिल को थाम लिया .
“क्या सोचने लगे कबीर ” मेरी पीठ से पीठ लगा कर बैठते हुए पुछा उसने .
मैं- बरसो पहले किसी को यूँ ही देखा था
निशा- देखा क्या था घूर ही रहे थे तुम
मैं- निहार रहा था मैं सरकार
निशा- बड़ी गहरी उतरी तुम्हारी निगाहे दिल में , फिर मैं , मैं नहीं रही .
मैं-कभी कभी सोचता हूँ जिन्दगी तो तभी जी ली मैंने अभी तो बस सांसे चल रही है .
निशा- तो फिर से जिए वो जिन्दगी
मैं- तू साथ है तो जी ही लेंगे.
निशा- कभी कभी मन करता है वो दिन लौट आये , साइकिल उठा कर चल दू उस पगडण्डी पर .
मैं- उसमे क्या है , तू कहे तो चलते है खेतो की तरफ
निशा- वहां से एक रास्ता मेरे घर की तरफ भी जाता है कबीर .
मैं- घर तो घर होता है सरकार, हम चाहे कहीं भी चले जाये हमारे सीनों में घर हमेशा ही रहेगा.
निशा- वक्त आगे बढ़ गया हम वहीँ पर रह गए.
मैं- खेतो पर जाना होगा मुझे, हो सके तो तू दोपहर का खाना लेकर उधर ही आ जाना.
निशा- वहां क्या करेगा तू
मैं- बताया था न तुझे खेतो की हालात ठीक कर रहा हूँ
निशा- ठीक है ,एक बार शहर जाउंगी. फिर खेतो पर आती हु.
थोडा वक्त और उस से बाते करने के बाद मैं खेतो पर आ गया. खेत तो बहाना थे मुझे जंगल में जाना था . बाड को पार करके एक बार फिर मैं झोपडी तक आ पहुंचा था.
“पैसा नहीं तो क्या , पैसा किसे चाहिए था ” इस सवाल ने मुझे पागल किये हुए था. जर, जोरू और जमीन इसके सिवा आखिर क्या हो सकता था . तीनो ही चीजे तो मोजूद थी इस घर की बर्बादी में फिर और क्या बचता था . घूमते घूमते मैं खान की तरफ आ गया , बड़े बड़े पत्थर बिखरे पड़े थे. ख़ामोशी पसरी पड़ी थी. बारिश के मौसम की वजह से उमस बनी पड़ी थी. थोडा सा रास्ता बनाते हुए मैं खान के मुहाने की तरफ चल दिया. पत्थरों और प्रकृति का अद्भुद संगम , झाड़ियो को हटाते हुए मैं मुहाने तक पहुंचा, गहराई के कारण बारिश का पानी जमा हो गया था , उसी के बीच से होते हुए मैं अन्दर की तरफ चला. मार्बल की खुशबु , कुछ सीलन और बरसात का असर . जैसे जैसे मैं अन्दर की तरफ जा रहा था अँधेरा बढ़ने लगा था. पत्थर काटने के औज़ार पड़े देखे मैंने. जब तक की सब कुछ दिखाई देना बंद नहीं हो गया मैं चलता रहा .
“टप टप ” कही से पानी रिस रहा था . खान बहुत ही शांत थी , अक्सर ऐसी जगहों पर शराबी , जुआरी लोग अपना अड्डा बना लेते है पर ये धारणा जम नहीं रही थी जंगल के इस हिस्से में लोगो की आवाजाही ना के बराबर थी . ना ही जंगली जानवरों ने इधर आशियाँ बनाया था जबकि जानवर लोगो को और क्या ही चाहिए. खैर, कब तक रहता उधर , बाहर तो आना ही था.
खेतो पर आकर सोचा की थोड़ी और सफाई कर ली जाए. एक बार फिर गोडी लगाने का काम शुरू कर दिया. ना लायक परिवार की वजह से इतनी उपजाऊ जमीन की माँ चुद गयी थी. दिन ढलने को था निशा शायद भूल ही गयी थी. मैंने ट्रेक्टर छोड़ा और नहाने का सोचा . टीनो के निचे मैंने चारपाई पर अपने कपडे रखे और चला ही था की तभी मेरे पैर में कुछ चुभा. गाली देते हुए मैंने पैर को ऊपर करके देखा तो वो काँटा तो हरगिज नहीं था . बेख्याली में मैंने उस टुकड़े को फेंका , नहा ही रहा था की निशा आ गयी.
“सॉरी, यार. थोडा देर हो गयी, शहर में ज्यादा समय लग गया फिर सोचा तेरी पसंद का कुछ बना लू ” उसने कहा
मैं- तेरी पसंद तो सिर्फ तुम हो सरकार.
निशा- हर टाइम आशिकी ठीक नहीं
मैं- ला परोस दे फिर.
निशा- देख तो ले पहले क्या लाई हु
मैं- दाल चूरमा ही लाइ होगी
निशा- तुझे ना जाने कैसे मालूम हो जाता है हमेशा
मैं- दुनिया में बस दो लोगो के हाथ का चूरमा पसंद रहा है एक तेरा और एक माँ का .
माँ का जिक्र होते ही दिल ने एक आह भरी.
“खेतो का तो हाल बुरा है ” उसने दाल देते हुए कहा.
मैं- इन्ही खेतो में तेरे संग वक्त बिताया था तब क्या था अब क्या हो गया है.
निशा- कोई ना, फिर करेंगे मेहनत .
स्कूल टाइम में निशा इसी रस्ते से आती थी पढने के लिए . कभी खेतो पर मिलते कभी उस चबूतरे पर बैठते. चूरमा अक्सर ही लाती थी वो मेरे लिए.
“भाभी मिली थी आज मुझे ” निशा ने कहा
मैं- क्या बोली
निशा- हाल चाल पूछ रही थी .
मैं- कुछ और नहीं कहा
निशा- पुछा न कबीर कब तक रुकेगा गाँव में
मैं- तुमने क्या कहा
निशा- मैंने कहा पता नहीं उसकी मर्जी है रुके तो रुके ना भी रुके.
मैं- तुम्हे कहना चाहिए था की मिल ले वो मुझसे
निशा- कहा न मैंने. फिर वो टालने लगी. भाभी के हाव भाव अजीब से लगे मुझे
मैं- कैसे
निशा- कबीर, मैं तुम्हारे परिवार में हर किसी को जानती हु. वो भाभी ही थी जिनको सबसे पहले अपने इश्क के बारे में मालूम हुआ . भाभी के व्यवहार में नकलीपन सा लगा मुझे. खोखली बाते
मैं- वक्त बदल गया है
निशा- माना , पर इतना भी नहीं बदला की लोग आँखे चुरा ले कुछ तो हुआ है परिवार में जो मैं नहीं जानती . बताओ कबीर .
मैं- मुझे क्या मालूम
निशा- कबीर पुलिसवाली हु मैं. आदमी यु पहचान लेती हु. और ये तो अपने परिवार की बात है . लोग अक्सर अलग होते है परिवारों में , मैंने बहुत लोगो को देखा है परिवार में लड़ते-झगड़ते हुए बंटवारे के लिए. हिस्सों के लिए पर ये तुम्हारा कैसा परिवार है जो अलग हो गया, एक दुसरे को देखना तक नहीं चाहते और मजे की बात ये है की किसी को कोई लालच नहीं है.
निशा ने मेरी दुखती रग पकड़ ली थी और मेरे पास कोई जवाब नहीं था.........
Bahut hi badhiya update diya hai HalfbludPrince bhai....#17
“पैसे नहीं तो क्या ” पिताजी के सामान को खंगालते हुए मैं बस ये ही सोचता रहा .पिताजी की तमाम किताबे उल्ट-पलट दी पर कुछ नहीं मिला. मैंने कल दिन में जंगल में ही खोजबीन का निर्णय लिया. सुबह सुबह ही मैं शिवाले पहुँच गया . ये कहानी शुरू ही नहीं होती अगर इस शिवाले से प्रेम नहीं होता. जब से होश संभाला था या तो ये था या मैं था ,मेरी भोर यहाँ जल चढाने से शुरू होती मेरी शाम यहाँ माथा टेकने से ख़तम होती, इसने मेरी ख़ुशी भी देखि थी इसने मेरा दर्द भी देखा था . शिवाले की चोखट पर बैठे मैं सामने उस सजे धजे घर को देख रहा था जहाँ दो दिन बाद शादी थी. परिवार के रंडी-रोने साले ख़त्म ही नहीं हो रहे थे , कल रात भाभी को तड़पते देखा पर बहन की लौड़ी वहां रहेगी नहीं. ये किस किस्म का प्यार था इन चुतिया लोगो का की ये साथ भी नहीं रह रहे थे , अलग भी ना हो सके.
सामने से आती निशा को जो देखा , दिल धड़क सा उठा. बरसो पहले उसे ऐसे ही तो देखा था . इसी चोखट पर एक हाथ में लोटा लिए और दुसरे हाथ से जुल्फों को संवारते हुए. सरकारी स्कूल में पढने वाले सब इसी शिवाले में जल चढ़ा कर आगे बढ़ते थे . इस चोखट पर बैठा था मैं . मुस्कुराते हुए निशा अन्दर गयी मैंने दिल को थाम लिया .
“क्या सोचने लगे कबीर ” मेरी पीठ से पीठ लगा कर बैठते हुए पुछा उसने .
मैं- बरसो पहले किसी को यूँ ही देखा था
निशा- देखा क्या था घूर ही रहे थे तुम
मैं- निहार रहा था मैं सरकार
निशा- बड़ी गहरी उतरी तुम्हारी निगाहे दिल में , फिर मैं , मैं नहीं रही .
मैं-कभी कभी सोचता हूँ जिन्दगी तो तभी जी ली मैंने अभी तो बस सांसे चल रही है .
निशा- तो फिर से जिए वो जिन्दगी
मैं- तू साथ है तो जी ही लेंगे.
निशा- कभी कभी मन करता है वो दिन लौट आये , साइकिल उठा कर चल दू उस पगडण्डी पर .
मैं- उसमे क्या है , तू कहे तो चलते है खेतो की तरफ
निशा- वहां से एक रास्ता मेरे घर की तरफ भी जाता है कबीर .
मैं- घर तो घर होता है सरकार, हम चाहे कहीं भी चले जाये हमारे सीनों में घर हमेशा ही रहेगा.
निशा- वक्त आगे बढ़ गया हम वहीँ पर रह गए.
मैं- खेतो पर जाना होगा मुझे, हो सके तो तू दोपहर का खाना लेकर उधर ही आ जाना.
निशा- वहां क्या करेगा तू
मैं- बताया था न तुझे खेतो की हालात ठीक कर रहा हूँ
निशा- ठीक है ,एक बार शहर जाउंगी. फिर खेतो पर आती हु.
थोडा वक्त और उस से बाते करने के बाद मैं खेतो पर आ गया. खेत तो बहाना थे मुझे जंगल में जाना था . बाड को पार करके एक बार फिर मैं झोपडी तक आ पहुंचा था.
“पैसा नहीं तो क्या , पैसा किसे चाहिए था ” इस सवाल ने मुझे पागल किये हुए था. जर, जोरू और जमीन इसके सिवा आखिर क्या हो सकता था . तीनो ही चीजे तो मोजूद थी इस घर की बर्बादी में फिर और क्या बचता था . घूमते घूमते मैं खान की तरफ आ गया , बड़े बड़े पत्थर बिखरे पड़े थे. ख़ामोशी पसरी पड़ी थी. बारिश के मौसम की वजह से उमस बनी पड़ी थी. थोडा सा रास्ता बनाते हुए मैं खान के मुहाने की तरफ चल दिया. पत्थरों और प्रकृति का अद्भुद संगम , झाड़ियो को हटाते हुए मैं मुहाने तक पहुंचा, गहराई के कारण बारिश का पानी जमा हो गया था , उसी के बीच से होते हुए मैं अन्दर की तरफ चला. मार्बल की खुशबु , कुछ सीलन और बरसात का असर . जैसे जैसे मैं अन्दर की तरफ जा रहा था अँधेरा बढ़ने लगा था. पत्थर काटने के औज़ार पड़े देखे मैंने. जब तक की सब कुछ दिखाई देना बंद नहीं हो गया मैं चलता रहा .
“टप टप ” कही से पानी रिस रहा था . खान बहुत ही शांत थी , अक्सर ऐसी जगहों पर शराबी , जुआरी लोग अपना अड्डा बना लेते है पर ये धारणा जम नहीं रही थी जंगल के इस हिस्से में लोगो की आवाजाही ना के बराबर थी . ना ही जंगली जानवरों ने इधर आशियाँ बनाया था जबकि जानवर लोगो को और क्या ही चाहिए. खैर, कब तक रहता उधर , बाहर तो आना ही था.
खेतो पर आकर सोचा की थोड़ी और सफाई कर ली जाए. एक बार फिर गोडी लगाने का काम शुरू कर दिया. ना लायक परिवार की वजह से इतनी उपजाऊ जमीन की माँ चुद गयी थी. दिन ढलने को था निशा शायद भूल ही गयी थी. मैंने ट्रेक्टर छोड़ा और नहाने का सोचा . टीनो के निचे मैंने चारपाई पर अपने कपडे रखे और चला ही था की तभी मेरे पैर में कुछ चुभा. गाली देते हुए मैंने पैर को ऊपर करके देखा तो वो काँटा तो हरगिज नहीं था . बेख्याली में मैंने उस टुकड़े को फेंका , नहा ही रहा था की निशा आ गयी.
“सॉरी, यार. थोडा देर हो गयी, शहर में ज्यादा समय लग गया फिर सोचा तेरी पसंद का कुछ बना लू ” उसने कहा
मैं- तेरी पसंद तो सिर्फ तुम हो सरकार.
निशा- हर टाइम आशिकी ठीक नहीं
मैं- ला परोस दे फिर.
निशा- देख तो ले पहले क्या लाई हु
मैं- दाल चूरमा ही लाइ होगी
निशा- तुझे ना जाने कैसे मालूम हो जाता है हमेशा
मैं- दुनिया में बस दो लोगो के हाथ का चूरमा पसंद रहा है एक तेरा और एक माँ का .
माँ का जिक्र होते ही दिल ने एक आह भरी.
“खेतो का तो हाल बुरा है ” उसने दाल देते हुए कहा.
मैं- इन्ही खेतो में तेरे संग वक्त बिताया था तब क्या था अब क्या हो गया है.
निशा- कोई ना, फिर करेंगे मेहनत .
स्कूल टाइम में निशा इसी रस्ते से आती थी पढने के लिए . कभी खेतो पर मिलते कभी उस चबूतरे पर बैठते. चूरमा अक्सर ही लाती थी वो मेरे लिए.
“भाभी मिली थी आज मुझे ” निशा ने कहा
मैं- क्या बोली
निशा- हाल चाल पूछ रही थी .
मैं- कुछ और नहीं कहा
निशा- पुछा न कबीर कब तक रुकेगा गाँव में
मैं- तुमने क्या कहा
निशा- मैंने कहा पता नहीं उसकी मर्जी है रुके तो रुके ना भी रुके.
मैं- तुम्हे कहना चाहिए था की मिल ले वो मुझसे
निशा- कहा न मैंने. फिर वो टालने लगी. भाभी के हाव भाव अजीब से लगे मुझे
मैं- कैसे
निशा- कबीर, मैं तुम्हारे परिवार में हर किसी को जानती हु. वो भाभी ही थी जिनको सबसे पहले अपने इश्क के बारे में मालूम हुआ . भाभी के व्यवहार में नकलीपन सा लगा मुझे. खोखली बाते
मैं- वक्त बदल गया है
निशा- माना , पर इतना भी नहीं बदला की लोग आँखे चुरा ले कुछ तो हुआ है परिवार में जो मैं नहीं जानती . बताओ कबीर .
मैं- मुझे क्या मालूम
निशा- कबीर पुलिसवाली हु मैं. आदमी यु पहचान लेती हु. और ये तो अपने परिवार की बात है . लोग अक्सर अलग होते है परिवारों में , मैंने बहुत लोगो को देखा है परिवार में लड़ते-झगड़ते हुए बंटवारे के लिए. हिस्सों के लिए पर ये तुम्हारा कैसा परिवार है जो अलग हो गया, एक दुसरे को देखना तक नहीं चाहते और मजे की बात ये है की किसी को कोई लालच नहीं है.
निशा ने मेरी दुखती रग पकड़ ली थी और मेरे पास कोई जवाब नहीं था.........
To Fir Bat Wahi Hai, Ki Kaun Si Chij Ke Chakkar Me Itna Chutiyapa Huwa Hai !#17
“पैसे नहीं तो क्या ” पिताजी के सामान को खंगालते हुए मैं बस ये ही सोचता रहा .पिताजी की तमाम किताबे उल्ट-पलट दी पर कुछ नहीं मिला. मैंने कल दिन में जंगल में ही खोजबीन का निर्णय लिया. सुबह सुबह ही मैं शिवाले पहुँच गया . ये कहानी शुरू ही नहीं होती अगर इस शिवाले से प्रेम नहीं होता. जब से होश संभाला था या तो ये था या मैं था ,मेरी भोर यहाँ जल चढाने से शुरू होती मेरी शाम यहाँ माथा टेकने से ख़तम होती, इसने मेरी ख़ुशी भी देखि थी इसने मेरा दर्द भी देखा था . शिवाले की चोखट पर बैठे मैं सामने उस सजे धजे घर को देख रहा था जहाँ दो दिन बाद शादी थी. परिवार के रंडी-रोने साले ख़त्म ही नहीं हो रहे थे , कल रात भाभी को तड़पते देखा पर बहन की लौड़ी वहां रहेगी नहीं. ये किस किस्म का प्यार था इन चुतिया लोगो का की ये साथ भी नहीं रह रहे थे , अलग भी ना हो सके.
सामने से आती निशा को जो देखा , दिल धड़क सा उठा. बरसो पहले उसे ऐसे ही तो देखा था . इसी चोखट पर एक हाथ में लोटा लिए और दुसरे हाथ से जुल्फों को संवारते हुए. सरकारी स्कूल में पढने वाले सब इसी शिवाले में जल चढ़ा कर आगे बढ़ते थे . इस चोखट पर बैठा था मैं . मुस्कुराते हुए निशा अन्दर गयी मैंने दिल को थाम लिया .
“क्या सोचने लगे कबीर ” मेरी पीठ से पीठ लगा कर बैठते हुए पुछा उसने .
मैं- बरसो पहले किसी को यूँ ही देखा था
निशा- देखा क्या था घूर ही रहे थे तुम
मैं- निहार रहा था मैं सरकार
निशा- बड़ी गहरी उतरी तुम्हारी निगाहे दिल में , फिर मैं , मैं नहीं रही .
मैं-कभी कभी सोचता हूँ जिन्दगी तो तभी जी ली मैंने अभी तो बस सांसे चल रही है .
निशा- तो फिर से जिए वो जिन्दगी
मैं- तू साथ है तो जी ही लेंगे.
निशा- कभी कभी मन करता है वो दिन लौट आये , साइकिल उठा कर चल दू उस पगडण्डी पर .
मैं- उसमे क्या है , तू कहे तो चलते है खेतो की तरफ
निशा- वहां से एक रास्ता मेरे घर की तरफ भी जाता है कबीर .
मैं- घर तो घर होता है सरकार, हम चाहे कहीं भी चले जाये हमारे सीनों में घर हमेशा ही रहेगा.
निशा- वक्त आगे बढ़ गया हम वहीँ पर रह गए.
मैं- खेतो पर जाना होगा मुझे, हो सके तो तू दोपहर का खाना लेकर उधर ही आ जाना.
निशा- वहां क्या करेगा तू
मैं- बताया था न तुझे खेतो की हालात ठीक कर रहा हूँ
निशा- ठीक है ,एक बार शहर जाउंगी. फिर खेतो पर आती हु.
थोडा वक्त और उस से बाते करने के बाद मैं खेतो पर आ गया. खेत तो बहाना थे मुझे जंगल में जाना था . बाड को पार करके एक बार फिर मैं झोपडी तक आ पहुंचा था.
“पैसा नहीं तो क्या , पैसा किसे चाहिए था ” इस सवाल ने मुझे पागल किये हुए था. जर, जोरू और जमीन इसके सिवा आखिर क्या हो सकता था . तीनो ही चीजे तो मोजूद थी इस घर की बर्बादी में फिर और क्या बचता था . घूमते घूमते मैं खान की तरफ आ गया , बड़े बड़े पत्थर बिखरे पड़े थे. ख़ामोशी पसरी पड़ी थी. बारिश के मौसम की वजह से उमस बनी पड़ी थी. थोडा सा रास्ता बनाते हुए मैं खान के मुहाने की तरफ चल दिया. पत्थरों और प्रकृति का अद्भुद संगम , झाड़ियो को हटाते हुए मैं मुहाने तक पहुंचा, गहराई के कारण बारिश का पानी जमा हो गया था , उसी के बीच से होते हुए मैं अन्दर की तरफ चला. मार्बल की खुशबु , कुछ सीलन और बरसात का असर . जैसे जैसे मैं अन्दर की तरफ जा रहा था अँधेरा बढ़ने लगा था. पत्थर काटने के औज़ार पड़े देखे मैंने. जब तक की सब कुछ दिखाई देना बंद नहीं हो गया मैं चलता रहा .
“टप टप ” कही से पानी रिस रहा था . खान बहुत ही शांत थी , अक्सर ऐसी जगहों पर शराबी , जुआरी लोग अपना अड्डा बना लेते है पर ये धारणा जम नहीं रही थी जंगल के इस हिस्से में लोगो की आवाजाही ना के बराबर थी . ना ही जंगली जानवरों ने इधर आशियाँ बनाया था जबकि जानवर लोगो को और क्या ही चाहिए. खैर, कब तक रहता उधर , बाहर तो आना ही था.
खेतो पर आकर सोचा की थोड़ी और सफाई कर ली जाए. एक बार फिर गोडी लगाने का काम शुरू कर दिया. ना लायक परिवार की वजह से इतनी उपजाऊ जमीन की माँ चुद गयी थी. दिन ढलने को था निशा शायद भूल ही गयी थी. मैंने ट्रेक्टर छोड़ा और नहाने का सोचा . टीनो के निचे मैंने चारपाई पर अपने कपडे रखे और चला ही था की तभी मेरे पैर में कुछ चुभा. गाली देते हुए मैंने पैर को ऊपर करके देखा तो वो काँटा तो हरगिज नहीं था . बेख्याली में मैंने उस टुकड़े को फेंका , नहा ही रहा था की निशा आ गयी.
“सॉरी, यार. थोडा देर हो गयी, शहर में ज्यादा समय लग गया फिर सोचा तेरी पसंद का कुछ बना लू ” उसने कहा
मैं- तेरी पसंद तो सिर्फ तुम हो सरकार.
निशा- हर टाइम आशिकी ठीक नहीं
मैं- ला परोस दे फिर.
निशा- देख तो ले पहले क्या लाई हु
मैं- दाल चूरमा ही लाइ होगी
निशा- तुझे ना जाने कैसे मालूम हो जाता है हमेशा
मैं- दुनिया में बस दो लोगो के हाथ का चूरमा पसंद रहा है एक तेरा और एक माँ का .
माँ का जिक्र होते ही दिल ने एक आह भरी.
“खेतो का तो हाल बुरा है ” उसने दाल देते हुए कहा.
मैं- इन्ही खेतो में तेरे संग वक्त बिताया था तब क्या था अब क्या हो गया है.
निशा- कोई ना, फिर करेंगे मेहनत .
स्कूल टाइम में निशा इसी रस्ते से आती थी पढने के लिए . कभी खेतो पर मिलते कभी उस चबूतरे पर बैठते. चूरमा अक्सर ही लाती थी वो मेरे लिए.
“भाभी मिली थी आज मुझे ” निशा ने कहा
मैं- क्या बोली
निशा- हाल चाल पूछ रही थी .
मैं- कुछ और नहीं कहा
निशा- पुछा न कबीर कब तक रुकेगा गाँव में
मैं- तुमने क्या कहा
निशा- मैंने कहा पता नहीं उसकी मर्जी है रुके तो रुके ना भी रुके.
मैं- तुम्हे कहना चाहिए था की मिल ले वो मुझसे
निशा- कहा न मैंने. फिर वो टालने लगी. भाभी के हाव भाव अजीब से लगे मुझे
मैं- कैसे
निशा- कबीर, मैं तुम्हारे परिवार में हर किसी को जानती हु. वो भाभी ही थी जिनको सबसे पहले अपने इश्क के बारे में मालूम हुआ . भाभी के व्यवहार में नकलीपन सा लगा मुझे. खोखली बाते
मैं- वक्त बदल गया है
निशा- माना , पर इतना भी नहीं बदला की लोग आँखे चुरा ले कुछ तो हुआ है परिवार में जो मैं नहीं जानती . बताओ कबीर .
मैं- मुझे क्या मालूम
निशा- कबीर पुलिसवाली हु मैं. आदमी यु पहचान लेती हु. और ये तो अपने परिवार की बात है . लोग अक्सर अलग होते है परिवारों में , मैंने बहुत लोगो को देखा है परिवार में लड़ते-झगड़ते हुए बंटवारे के लिए. हिस्सों के लिए पर ये तुम्हारा कैसा परिवार है जो अलग हो गया, एक दुसरे को देखना तक नहीं चाहते और मजे की बात ये है की किसी को कोई लालच नहीं है.
निशा ने मेरी दुखती रग पकड़ ली थी और मेरे पास कोई जवाब नहीं था.........
Nice update....#17
“पैसे नहीं तो क्या ” पिताजी के सामान को खंगालते हुए मैं बस ये ही सोचता रहा .पिताजी की तमाम किताबे उल्ट-पलट दी पर कुछ नहीं मिला. मैंने कल दिन में जंगल में ही खोजबीन का निर्णय लिया. सुबह सुबह ही मैं शिवाले पहुँच गया . ये कहानी शुरू ही नहीं होती अगर इस शिवाले से प्रेम नहीं होता. जब से होश संभाला था या तो ये था या मैं था ,मेरी भोर यहाँ जल चढाने से शुरू होती मेरी शाम यहाँ माथा टेकने से ख़तम होती, इसने मेरी ख़ुशी भी देखि थी इसने मेरा दर्द भी देखा था . शिवाले की चोखट पर बैठे मैं सामने उस सजे धजे घर को देख रहा था जहाँ दो दिन बाद शादी थी. परिवार के रंडी-रोने साले ख़त्म ही नहीं हो रहे थे , कल रात भाभी को तड़पते देखा पर बहन की लौड़ी वहां रहेगी नहीं. ये किस किस्म का प्यार था इन चुतिया लोगो का की ये साथ भी नहीं रह रहे थे , अलग भी ना हो सके.
सामने से आती निशा को जो देखा , दिल धड़क सा उठा. बरसो पहले उसे ऐसे ही तो देखा था . इसी चोखट पर एक हाथ में लोटा लिए और दुसरे हाथ से जुल्फों को संवारते हुए. सरकारी स्कूल में पढने वाले सब इसी शिवाले में जल चढ़ा कर आगे बढ़ते थे . इस चोखट पर बैठा था मैं . मुस्कुराते हुए निशा अन्दर गयी मैंने दिल को थाम लिया .
“क्या सोचने लगे कबीर ” मेरी पीठ से पीठ लगा कर बैठते हुए पुछा उसने .
मैं- बरसो पहले किसी को यूँ ही देखा था
निशा- देखा क्या था घूर ही रहे थे तुम
मैं- निहार रहा था मैं सरकार
निशा- बड़ी गहरी उतरी तुम्हारी निगाहे दिल में , फिर मैं , मैं नहीं रही .
मैं-कभी कभी सोचता हूँ जिन्दगी तो तभी जी ली मैंने अभी तो बस सांसे चल रही है .
निशा- तो फिर से जिए वो जिन्दगी
मैं- तू साथ है तो जी ही लेंगे.
निशा- कभी कभी मन करता है वो दिन लौट आये , साइकिल उठा कर चल दू उस पगडण्डी पर .
मैं- उसमे क्या है , तू कहे तो चलते है खेतो की तरफ
निशा- वहां से एक रास्ता मेरे घर की तरफ भी जाता है कबीर .
मैं- घर तो घर होता है सरकार, हम चाहे कहीं भी चले जाये हमारे सीनों में घर हमेशा ही रहेगा.
निशा- वक्त आगे बढ़ गया हम वहीँ पर रह गए.
मैं- खेतो पर जाना होगा मुझे, हो सके तो तू दोपहर का खाना लेकर उधर ही आ जाना.
निशा- वहां क्या करेगा तू
मैं- बताया था न तुझे खेतो की हालात ठीक कर रहा हूँ
निशा- ठीक है ,एक बार शहर जाउंगी. फिर खेतो पर आती हु.
थोडा वक्त और उस से बाते करने के बाद मैं खेतो पर आ गया. खेत तो बहाना थे मुझे जंगल में जाना था . बाड को पार करके एक बार फिर मैं झोपडी तक आ पहुंचा था.
“पैसा नहीं तो क्या , पैसा किसे चाहिए था ” इस सवाल ने मुझे पागल किये हुए था. जर, जोरू और जमीन इसके सिवा आखिर क्या हो सकता था . तीनो ही चीजे तो मोजूद थी इस घर की बर्बादी में फिर और क्या बचता था . घूमते घूमते मैं खान की तरफ आ गया , बड़े बड़े पत्थर बिखरे पड़े थे. ख़ामोशी पसरी पड़ी थी. बारिश के मौसम की वजह से उमस बनी पड़ी थी. थोडा सा रास्ता बनाते हुए मैं खान के मुहाने की तरफ चल दिया. पत्थरों और प्रकृति का अद्भुद संगम , झाड़ियो को हटाते हुए मैं मुहाने तक पहुंचा, गहराई के कारण बारिश का पानी जमा हो गया था , उसी के बीच से होते हुए मैं अन्दर की तरफ चला. मार्बल की खुशबु , कुछ सीलन और बरसात का असर . जैसे जैसे मैं अन्दर की तरफ जा रहा था अँधेरा बढ़ने लगा था. पत्थर काटने के औज़ार पड़े देखे मैंने. जब तक की सब कुछ दिखाई देना बंद नहीं हो गया मैं चलता रहा .
“टप टप ” कही से पानी रिस रहा था . खान बहुत ही शांत थी , अक्सर ऐसी जगहों पर शराबी , जुआरी लोग अपना अड्डा बना लेते है पर ये धारणा जम नहीं रही थी जंगल के इस हिस्से में लोगो की आवाजाही ना के बराबर थी . ना ही जंगली जानवरों ने इधर आशियाँ बनाया था जबकि जानवर लोगो को और क्या ही चाहिए. खैर, कब तक रहता उधर , बाहर तो आना ही था.
खेतो पर आकर सोचा की थोड़ी और सफाई कर ली जाए. एक बार फिर गोडी लगाने का काम शुरू कर दिया. ना लायक परिवार की वजह से इतनी उपजाऊ जमीन की माँ चुद गयी थी. दिन ढलने को था निशा शायद भूल ही गयी थी. मैंने ट्रेक्टर छोड़ा और नहाने का सोचा . टीनो के निचे मैंने चारपाई पर अपने कपडे रखे और चला ही था की तभी मेरे पैर में कुछ चुभा. गाली देते हुए मैंने पैर को ऊपर करके देखा तो वो काँटा तो हरगिज नहीं था . बेख्याली में मैंने उस टुकड़े को फेंका , नहा ही रहा था की निशा आ गयी.
“सॉरी, यार. थोडा देर हो गयी, शहर में ज्यादा समय लग गया फिर सोचा तेरी पसंद का कुछ बना लू ” उसने कहा
मैं- तेरी पसंद तो सिर्फ तुम हो सरकार.
निशा- हर टाइम आशिकी ठीक नहीं
मैं- ला परोस दे फिर.
निशा- देख तो ले पहले क्या लाई हु
मैं- दाल चूरमा ही लाइ होगी
निशा- तुझे ना जाने कैसे मालूम हो जाता है हमेशा
मैं- दुनिया में बस दो लोगो के हाथ का चूरमा पसंद रहा है एक तेरा और एक माँ का .
माँ का जिक्र होते ही दिल ने एक आह भरी.
“खेतो का तो हाल बुरा है ” उसने दाल देते हुए कहा.
मैं- इन्ही खेतो में तेरे संग वक्त बिताया था तब क्या था अब क्या हो गया है.
निशा- कोई ना, फिर करेंगे मेहनत .
स्कूल टाइम में निशा इसी रस्ते से आती थी पढने के लिए . कभी खेतो पर मिलते कभी उस चबूतरे पर बैठते. चूरमा अक्सर ही लाती थी वो मेरे लिए.
“भाभी मिली थी आज मुझे ” निशा ने कहा
मैं- क्या बोली
निशा- हाल चाल पूछ रही थी .
मैं- कुछ और नहीं कहा
निशा- पुछा न कबीर कब तक रुकेगा गाँव में
मैं- तुमने क्या कहा
निशा- मैंने कहा पता नहीं उसकी मर्जी है रुके तो रुके ना भी रुके.
मैं- तुम्हे कहना चाहिए था की मिल ले वो मुझसे
निशा- कहा न मैंने. फिर वो टालने लगी. भाभी के हाव भाव अजीब से लगे मुझे
मैं- कैसे
निशा- कबीर, मैं तुम्हारे परिवार में हर किसी को जानती हु. वो भाभी ही थी जिनको सबसे पहले अपने इश्क के बारे में मालूम हुआ . भाभी के व्यवहार में नकलीपन सा लगा मुझे. खोखली बाते
मैं- वक्त बदल गया है
निशा- माना , पर इतना भी नहीं बदला की लोग आँखे चुरा ले कुछ तो हुआ है परिवार में जो मैं नहीं जानती . बताओ कबीर .
मैं- मुझे क्या मालूम
निशा- कबीर पुलिसवाली हु मैं. आदमी यु पहचान लेती हु. और ये तो अपने परिवार की बात है . लोग अक्सर अलग होते है परिवारों में , मैंने बहुत लोगो को देखा है परिवार में लड़ते-झगड़ते हुए बंटवारे के लिए. हिस्सों के लिए पर ये तुम्हारा कैसा परिवार है जो अलग हो गया, एक दुसरे को देखना तक नहीं चाहते और मजे की बात ये है की किसी को कोई लालच नहीं है.
निशा ने मेरी दुखती रग पकड़ ली थी और मेरे पास कोई जवाब नहीं था.........