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Fantasy दलक्ष

manojmn37

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124
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94
हेल्लो दोस्तों
कैसे हो ?
बहुत दिनों के बाद वापस आया हु,
बहुत से लोग नाराज भी होंगे, की कहानी को अधूरी छोड़ गए, लेकिन क्या करू समय ही ऐसा आ गया था,

हो सके तो माफ़ कर देना दोस्तों



ये मेरी कहानी का दूसरा भाग है "दलक्ष"
इस कहानी का पहला भाग है "वो कौन था" इसको पहले पढ़ लेना नहीं तो ये कहानी "दलक्ष" शुरू शुरू में तो सही लगेगी लेकिन जब आगे बढ़ेगी और character आयेंगे तब कुछ पता नहीं चलेगा
इसी के साथ अगले अपडेट में कहानी को शुरू करता हु
 

manojmn37

Member
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कहानी वाले बाबा



जलते हुए अंगारों को बुझा ही रहा था की एक परछाई दूर से आती हुयी दिखी, केशव ने हाथ से इशारा करते हुए जग्गा को कहा जो अपने चाय की दुकान का सामान समेट ही रहा था “रुक जाते है थोड़ी देर और, लगता है कोई आ रहा है”

ये सुनते ही जग्गा के हाथ जैसे वही जम गए हो, उसकी भी नजर सामने के रास्ते की ओर जा पड़ी ‘हा, कोई तो आ रहा है’ अचानक जग्गा की उन उदासीन आखो में हल्की सी चमक आ गयी ‘लगता है आज थोडा-बहुत पेट भर जायेगा’ ये सोचते हुए जग्गा चाय का सामान वापस सामने रखे तख्ते पर जमाने लगा

यह एक छोटी सी झोपड़ीनुमा चाय की दुकान थी, जो की गाव के एकदम किनारे पर थी ! वैसे तो इस गाव में ३-४ चाय की दुकाने और भी थी लेकिन जग्गा की दुकान गाव के किनारे होने की वजह से बहुत ही कम चलती थी ! यह गाव एक पहाड़ी की चोटी पर आया हुआ था, ऊचाई और ठंडी जगह होने के कारण यहाँ पर बहुत कम ही लोग आ-जा पाते थे, ये भी एक बड़ा कारण था जग्गा की दुकान के ना चलने का !

रात हो चुकी थी, आज भी जग्गा को यही लग रहा था की ये रात भी जैसे-तैसे गुजारनी पड़ेगी, लेकिन आज उसकी नियति को कुछ और ही मंजूर था ! सामने से आ रही परछाई अब धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी, अँधेरे में अभी भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था फिर भी जग्गा को एक बात का तो पूर्णतया यकीन था की आने वाला यात्री उसके यहाँ चाय जरुर पियेगा, क्योकि वातावरण बहुत ही ठंडा था और इस पहाड़ी ठण्ड में चाय का आनंद......आहा

केशव, जो अभी उन अंगारों को वापस सही कर अलाव जलाने की कोशिश कर ही रहा था, तभी उस ठण्ड को चीरती हुयी उसके कानो में एक ध्वनि गूंजी –“दलक्ष”

उच्चारण एकदम साफ़ था, आवाज तीखी तो थी लेकिन कठोर नहीं थी, मृदु थी जैसे कि किसी ने शहद को अपनी अंगुली से चीर दिया हो !

“क्या ?” – दोनों एक साथ बोल पड़ते है

“दलक्ष, यही नाम है न इस गाव का ?”

अब तक वो यात्री अलाव की रोशनी में आ चूका था, केशव और जग्गा दोनों उसकी तरफ देखते है, ये एक बुढा व्यक्ति था जिसने एक काला कम्बल ओढ रखा था और चेहरा उसका दाढ़ी-मुछो से ढका रखा था, सर पर बड़ी-बड़ी जटाये सलीके से बांध रखी थी, ललाट पर एक सफ़ेद तिलक लगा रखा था

“हा, हा यही गाव है” कहते हुए जग्गा जल्दी से एक पुरानी चारपाई को उस अलाव के किनारे बिछा देता है और अपने गमछे से साफ़ कहते हए कहता है “आइये, बैठिये थोडा ताप लीजिये”

आम बोलचाल में सभी इस गाव को ‘दलख’ ही बोलते है, इसी कारण दोनों को थोडा अचुम्भा हुआ लेकिन इस गाव का असल नाम ‘दलक्ष’ ही था – पहाड़ी की चोटी पर बसा हुआ एक छोटा-सा सुन्दर गाव !

वो बुड्ढा यात्री उस चारपाई पर बैठ जाता है, और अपने कम्बल में हाथ डालकर एक मिट्टी की छोटी सी चिलम निकालकर उसे सही करने लगता है

उस ठंडी शांति को तोड़ते हुए जग्गा बोल पड़ता है “थोड़ी चाय बना दू बाबूजी आपके लिए ?”

बिना उसकी ओर देखते हुए अपनी चिलम को ठीक करते हुए वो बुड्ढा यात्री ‘हां’ में सिर हिला देता है, इशारा पाकर जग्गा जल्दी से वापस चाय के लिए चूल्हा तैयार करने लगता है

थोड़ी देर तक चिलम को सही करने के बाद वो उसके सामने जल रहे अलाव से चिलम को जलाने लगता है, अभी तक किसी के कुछ ना बोलते हुए केशव चुप्पी तोड़ते हुए कहता है “इतनी रात किसके घर आये हो बाबूजी ?”

“किसी के भी घर नहीं जाना” चिलम का एक कश खीचते हुए आराम से वो बोलता है !

“तो फिर बाबूजी” केशव पूछ पड़ता है “आप यहाँ के तो नहीं लगते”

“यहाँ पर कोई रहता है जिससे मिलना था” गाव की तरफ़ देखते हुए वो बुड्ढा यात्री बोलता है !

“किस-से मिलना था बाबूजी ?” इस बार जग्गा पूछ पड़ता है

वो बुड्ढा यात्री अभी भी गाव की तरफ़ ही देख रहा था, जैसे उसने जग्गा की बात सुनी ही ना हो !

इस बार सामने बैठे केशव ने थोड़ी ऊची आवाज में पूछा “बाबूजी, ओ बाबूजी किस से मिलना था ?”

ध्यान भंग हुआ उस बुड्ढे यात्री का, चिलम से एक और कश खीचा और बोला “कामरू अभी भी यही रहता है क्या ?”

“कौन कामरू ?”

“अरे वही, जिसका बाप गायब हो गया था” वो बुड्ढा यात्री बिना किसी हिचक के बोल पड़ता है !

केशव को अभी-भी समझ नहीं आ रहा था की वो बुड्ढा किसके बारे में बात है, तभी वो जग्गा को इशारे से उसके बारे में पूछता है

“क्या आप मुखियाजी के पिता के बारे में बात कर रहे है” जग्गा बोलता है

इस बार वो बुड्ढा यात्री जग्गा की तरफ मुह करके पूछता है “क्या उसी का नाम कामरू है ?”

“हा, जब में छोटा था तब मेरे पिता उन्ही को कामरू चाचा कहकर पुकारते थे” जग्गा फिर से बोलता है

“क्या तुम उसे यहाँ बुला सकते हो” बुड्ढा यात्री पूछता है

“माफ़ करना बाबूजी, अब वो बहुत बीमार रहते है मुझे नहीं लगता की वो चलकर यहाँ तक आ सकते है” जग्गा बोलता है

“आप उन्ही के घर क्यों नहीं चले जाते है” बीच में ही केशव उन दोनों की बात को बीच में ही काटते हुए बोलता है !

अचानक वो बुड्ढा यात्री जैसे क्रोधित हो गया हो, उसकी आखे मानो बड़ी हो गयी और एक आदेशपूर्ण, प्रबल आवाज के साथ बोल पड़ता है

“तुम जाओ अभी, इसी वक्त और कहना की ‘कहानी वाले बाबा’ बुला रहे है”

ये आवाज इतनी प्रबल थी की जग्गा और केशव की आत्मा तक काप गयी, सामने जल रहे अलाव का ताप मानो एक क्षण के लिए ठंडा हो गया था, इस बुड्ढे यात्री के अचानक इस प्रकार के व्यव्हार को देख कर केशव मना नहीं कर सका और गाव की और मुड पड़ा !

उस बुड्ढे यात्री ने वापस अपनी चिलम सही की और वापस कश लेने लगा, इस तरह के बर्ताव के कारण जग्गा और उससे कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं कर सका और जल्दी से अपने कांपते हाथो से एक छोटी गिलास में चाय भरकर उसको दे दी !

 

ashish_1982_in

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हेल्लो दोस्तों
कैसे हो ?
बहुत दिनों के बाद वापस आया हु,
बहुत से लोग नाराज भी होंगे, की कहानी को अधूरी छोड़ गए, लेकिन क्या करू समय ही ऐसा आ गया था,

हो सके तो माफ़ कर देना दोस्तों



ये मेरी कहानी का दूसरा भाग है "दलक्ष"
इस कहानी का पहला भाग है "वो कौन था" इसको पहले पढ़ लेना नहीं तो ये कहानी "दलक्ष" शुरू शुरू में तो सही लगेगी लेकिन जब आगे बढ़ेगी और character आयेंगे तब कुछ पता नहीं चलेगा
इसी के साथ अगले अपडेट में कहानी को शुरू करता हु
welcome back brother And congratulations for new story
 
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ashish_1982_in

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कहानी वाले बाबा



जलते हुए अंगारों को बुझा ही रहा था की एक परछाई दूर से आती हुयी दिखी, केशव ने हाथ से इशारा करते हुए जग्गा को कहा जो अपने चाय की दुकान का सामान समेट ही रहा था “रुक जाते है थोड़ी देर और, लगता है कोई आ रहा है”

ये सुनते ही जग्गा के हाथ जैसे वही जम गए हो, उसकी भी नजर सामने के रास्ते की ओर जा पड़ी ‘हा, कोई तो आ रहा है’ अचानक जग्गा की उन उदासीन आखो में हल्की सी चमक आ गयी ‘लगता है आज थोडा-बहुत पेट भर जायेगा’ ये सोचते हुए जग्गा चाय का सामान वापस सामने रखे तख्ते पर जमाने लगा

यह एक छोटी सी झोपड़ीनुमा चाय की दुकान थी, जो की गाव के एकदम किनारे पर थी ! वैसे तो इस गाव में ३-४ चाय की दुकाने और भी थी लेकिन जग्गा की दुकान गाव के किनारे होने की वजह से बहुत ही कम चलती थी ! यह गाव एक पहाड़ी की चोटी पर आया हुआ था, ऊचाई और ठंडी जगह होने के कारण यहाँ पर बहुत कम ही लोग आ-जा पाते थे, ये भी एक बड़ा कारण था जग्गा की दुकान के ना चलने का !

रात हो चुकी थी, आज भी जग्गा को यही लग रहा था की ये रात भी जैसे-तैसे गुजारनी पड़ेगी, लेकिन आज उसकी नियति को कुछ और ही मंजूर था ! सामने से आ रही परछाई अब धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी, अँधेरे में अभी भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था फिर भी जग्गा को एक बात का तो पूर्णतया यकीन था की आने वाला यात्री उसके यहाँ चाय जरुर पियेगा, क्योकि वातावरण बहुत ही ठंडा था और इस पहाड़ी ठण्ड में चाय का आनंद......आहा

केशव, जो अभी उन अंगारों को वापस सही कर अलाव जलाने की कोशिश कर ही रहा था, तभी उस ठण्ड को चीरती हुयी उसके कानो में एक ध्वनि गूंजी –“दलक्ष”

उच्चारण एकदम साफ़ था, आवाज तीखी तो थी लेकिन कठोर नहीं थी, मृदु थी जैसे कि किसी ने शहद को अपनी अंगुली से चीर दिया हो !

“क्या ?” – दोनों एक साथ बोल पड़ते है

“दलक्ष, यही नाम है न इस गाव का ?”

अब तक वो यात्री अलाव की रोशनी में आ चूका था, केशव और जग्गा दोनों उसकी तरफ देखते है, ये एक बुढा व्यक्ति था जिसने एक काला कम्बल ओढ रखा था और चेहरा उसका दाढ़ी-मुछो से ढका रखा था, सर पर बड़ी-बड़ी जटाये सलीके से बांध रखी थी, ललाट पर एक सफ़ेद तिलक लगा रखा था

“हा, हा यही गाव है” कहते हुए जग्गा जल्दी से एक पुरानी चारपाई को उस अलाव के किनारे बिछा देता है और अपने गमछे से साफ़ कहते हए कहता है “आइये, बैठिये थोडा ताप लीजिये”

आम बोलचाल में सभी इस गाव को ‘दलख’ ही बोलते है, इसी कारण दोनों को थोडा अचुम्भा हुआ लेकिन इस गाव का असल नाम ‘दलक्ष’ ही था – पहाड़ी की चोटी पर बसा हुआ एक छोटा-सा सुन्दर गाव !

वो बुड्ढा यात्री उस चारपाई पर बैठ जाता है, और अपने कम्बल में हाथ डालकर एक मिट्टी की छोटी सी चिलम निकालकर उसे सही करने लगता है

उस ठंडी शांति को तोड़ते हुए जग्गा बोल पड़ता है “थोड़ी चाय बना दू बाबूजी आपके लिए ?”

बिना उसकी ओर देखते हुए अपनी चिलम को ठीक करते हुए वो बुड्ढा यात्री ‘हां’ में सिर हिला देता है, इशारा पाकर जग्गा जल्दी से वापस चाय के लिए चूल्हा तैयार करने लगता है

थोड़ी देर तक चिलम को सही करने के बाद वो उसके सामने जल रहे अलाव से चिलम को जलाने लगता है, अभी तक किसी के कुछ ना बोलते हुए केशव चुप्पी तोड़ते हुए कहता है “इतनी रात किसके घर आये हो बाबूजी ?”

“किसी के भी घर नहीं जाना” चिलम का एक कश खीचते हुए आराम से वो बोलता है !

“तो फिर बाबूजी” केशव पूछ पड़ता है “आप यहाँ के तो नहीं लगते”

“यहाँ पर कोई रहता है जिससे मिलना था” गाव की तरफ़ देखते हुए वो बुड्ढा यात्री बोलता है !

“किस-से मिलना था बाबूजी ?” इस बार जग्गा पूछ पड़ता है

वो बुड्ढा यात्री अभी भी गाव की तरफ़ ही देख रहा था, जैसे उसने जग्गा की बात सुनी ही ना हो !

इस बार सामने बैठे केशव ने थोड़ी ऊची आवाज में पूछा “बाबूजी, ओ बाबूजी किस से मिलना था ?”

ध्यान भंग हुआ उस बुड्ढे यात्री का, चिलम से एक और कश खीचा और बोला “कामरू अभी भी यही रहता है क्या ?”

“कौन कामरू ?”

“अरे वही, जिसका बाप गायब हो गया था” वो बुड्ढा यात्री बिना किसी हिचक के बोल पड़ता है !

केशव को अभी-भी समझ नहीं आ रहा था की वो बुड्ढा किसके बारे में बात है, तभी वो जग्गा को इशारे से उसके बारे में पूछता है

“क्या आप मुखियाजी के पिता के बारे में बात कर रहे है” जग्गा बोलता है

इस बार वो बुड्ढा यात्री जग्गा की तरफ मुह करके पूछता है “क्या उसी का नाम कामरू है ?”

“हा, जब में छोटा था तब मेरे पिता उन्ही को कामरू चाचा कहकर पुकारते थे” जग्गा फिर से बोलता है

“क्या तुम उसे यहाँ बुला सकते हो” बुड्ढा यात्री पूछता है

“माफ़ करना बाबूजी, अब वो बहुत बीमार रहते है मुझे नहीं लगता की वो चलकर यहाँ तक आ सकते है” जग्गा बोलता है

“आप उन्ही के घर क्यों नहीं चले जाते है” बीच में ही केशव उन दोनों की बात को बीच में ही काटते हुए बोलता है !

अचानक वो बुड्ढा यात्री जैसे क्रोधित हो गया हो, उसकी आखे मानो बड़ी हो गयी और एक आदेशपूर्ण, प्रबल आवाज के साथ बोल पड़ता है

“तुम जाओ अभी, इसी वक्त और कहना की ‘कहानी वाले बाबा’ बुला रहे है”

ये आवाज इतनी प्रबल थी की जग्गा और केशव की आत्मा तक काप गयी, सामने जल रहे अलाव का ताप मानो एक क्षण के लिए ठंडा हो गया था, इस बुड्ढे यात्री के अचानक इस प्रकार के व्यव्हार को देख कर केशव मना नहीं कर सका और गाव की और मुड पड़ा !

उस बुड्ढे यात्री ने वापस अपनी चिलम सही की और वापस कश लेने लगा, इस तरह के बर्ताव के कारण जग्गा और उससे कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं कर सका और जल्दी से अपने कांपते हाथो से एक छोटी गिलास में चाय भरकर उसको दे दी !
fantastic update bhai
 

manojmn37

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Pahla aur dusra part kya pura connected hai ya kewal wahan ke patr iss kahani me aayenge
दोनों पार्ट कनेक्टेड है वर्ना 5th/6th अपडेट के बाद कहानी समझ में नहीं आएगी
 

Naik

Well-Known Member
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कहानी वाले बाबा



जलते हुए अंगारों को बुझा ही रहा था की एक परछाई दूर से आती हुयी दिखी, केशव ने हाथ से इशारा करते हुए जग्गा को कहा जो अपने चाय की दुकान का सामान समेट ही रहा था “रुक जाते है थोड़ी देर और, लगता है कोई आ रहा है”

ये सुनते ही जग्गा के हाथ जैसे वही जम गए हो, उसकी भी नजर सामने के रास्ते की ओर जा पड़ी ‘हा, कोई तो आ रहा है’ अचानक जग्गा की उन उदासीन आखो में हल्की सी चमक आ गयी ‘लगता है आज थोडा-बहुत पेट भर जायेगा’ ये सोचते हुए जग्गा चाय का सामान वापस सामने रखे तख्ते पर जमाने लगा

यह एक छोटी सी झोपड़ीनुमा चाय की दुकान थी, जो की गाव के एकदम किनारे पर थी ! वैसे तो इस गाव में ३-४ चाय की दुकाने और भी थी लेकिन जग्गा की दुकान गाव के किनारे होने की वजह से बहुत ही कम चलती थी ! यह गाव एक पहाड़ी की चोटी पर आया हुआ था, ऊचाई और ठंडी जगह होने के कारण यहाँ पर बहुत कम ही लोग आ-जा पाते थे, ये भी एक बड़ा कारण था जग्गा की दुकान के ना चलने का !

रात हो चुकी थी, आज भी जग्गा को यही लग रहा था की ये रात भी जैसे-तैसे गुजारनी पड़ेगी, लेकिन आज उसकी नियति को कुछ और ही मंजूर था ! सामने से आ रही परछाई अब धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी, अँधेरे में अभी भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था फिर भी जग्गा को एक बात का तो पूर्णतया यकीन था की आने वाला यात्री उसके यहाँ चाय जरुर पियेगा, क्योकि वातावरण बहुत ही ठंडा था और इस पहाड़ी ठण्ड में चाय का आनंद......आहा

केशव, जो अभी उन अंगारों को वापस सही कर अलाव जलाने की कोशिश कर ही रहा था, तभी उस ठण्ड को चीरती हुयी उसके कानो में एक ध्वनि गूंजी –“दलक्ष”

उच्चारण एकदम साफ़ था, आवाज तीखी तो थी लेकिन कठोर नहीं थी, मृदु थी जैसे कि किसी ने शहद को अपनी अंगुली से चीर दिया हो !

“क्या ?” – दोनों एक साथ बोल पड़ते है

“दलक्ष, यही नाम है न इस गाव का ?”

अब तक वो यात्री अलाव की रोशनी में आ चूका था, केशव और जग्गा दोनों उसकी तरफ देखते है, ये एक बुढा व्यक्ति था जिसने एक काला कम्बल ओढ रखा था और चेहरा उसका दाढ़ी-मुछो से ढका रखा था, सर पर बड़ी-बड़ी जटाये सलीके से बांध रखी थी, ललाट पर एक सफ़ेद तिलक लगा रखा था

“हा, हा यही गाव है” कहते हुए जग्गा जल्दी से एक पुरानी चारपाई को उस अलाव के किनारे बिछा देता है और अपने गमछे से साफ़ कहते हए कहता है “आइये, बैठिये थोडा ताप लीजिये”

आम बोलचाल में सभी इस गाव को ‘दलख’ ही बोलते है, इसी कारण दोनों को थोडा अचुम्भा हुआ लेकिन इस गाव का असल नाम ‘दलक्ष’ ही था – पहाड़ी की चोटी पर बसा हुआ एक छोटा-सा सुन्दर गाव !

वो बुड्ढा यात्री उस चारपाई पर बैठ जाता है, और अपने कम्बल में हाथ डालकर एक मिट्टी की छोटी सी चिलम निकालकर उसे सही करने लगता है

उस ठंडी शांति को तोड़ते हुए जग्गा बोल पड़ता है “थोड़ी चाय बना दू बाबूजी आपके लिए ?”

बिना उसकी ओर देखते हुए अपनी चिलम को ठीक करते हुए वो बुड्ढा यात्री ‘हां’ में सिर हिला देता है, इशारा पाकर जग्गा जल्दी से वापस चाय के लिए चूल्हा तैयार करने लगता है

थोड़ी देर तक चिलम को सही करने के बाद वो उसके सामने जल रहे अलाव से चिलम को जलाने लगता है, अभी तक किसी के कुछ ना बोलते हुए केशव चुप्पी तोड़ते हुए कहता है “इतनी रात किसके घर आये हो बाबूजी ?”

“किसी के भी घर नहीं जाना” चिलम का एक कश खीचते हुए आराम से वो बोलता है !

“तो फिर बाबूजी” केशव पूछ पड़ता है “आप यहाँ के तो नहीं लगते”

“यहाँ पर कोई रहता है जिससे मिलना था” गाव की तरफ़ देखते हुए वो बुड्ढा यात्री बोलता है !

“किस-से मिलना था बाबूजी ?” इस बार जग्गा पूछ पड़ता है

वो बुड्ढा यात्री अभी भी गाव की तरफ़ ही देख रहा था, जैसे उसने जग्गा की बात सुनी ही ना हो !

इस बार सामने बैठे केशव ने थोड़ी ऊची आवाज में पूछा “बाबूजी, ओ बाबूजी किस से मिलना था ?”

ध्यान भंग हुआ उस बुड्ढे यात्री का, चिलम से एक और कश खीचा और बोला “कामरू अभी भी यही रहता है क्या ?”

“कौन कामरू ?”

“अरे वही, जिसका बाप गायब हो गया था” वो बुड्ढा यात्री बिना किसी हिचक के बोल पड़ता है !

केशव को अभी-भी समझ नहीं आ रहा था की वो बुड्ढा किसके बारे में बात है, तभी वो जग्गा को इशारे से उसके बारे में पूछता है

“क्या आप मुखियाजी के पिता के बारे में बात कर रहे है” जग्गा बोलता है

इस बार वो बुड्ढा यात्री जग्गा की तरफ मुह करके पूछता है “क्या उसी का नाम कामरू है ?”

“हा, जब में छोटा था तब मेरे पिता उन्ही को कामरू चाचा कहकर पुकारते थे” जग्गा फिर से बोलता है

“क्या तुम उसे यहाँ बुला सकते हो” बुड्ढा यात्री पूछता है

“माफ़ करना बाबूजी, अब वो बहुत बीमार रहते है मुझे नहीं लगता की वो चलकर यहाँ तक आ सकते है” जग्गा बोलता है

“आप उन्ही के घर क्यों नहीं चले जाते है” बीच में ही केशव उन दोनों की बात को बीच में ही काटते हुए बोलता है !

अचानक वो बुड्ढा यात्री जैसे क्रोधित हो गया हो, उसकी आखे मानो बड़ी हो गयी और एक आदेशपूर्ण, प्रबल आवाज के साथ बोल पड़ता है

“तुम जाओ अभी, इसी वक्त और कहना की ‘कहानी वाले बाबा’ बुला रहे है”

ये आवाज इतनी प्रबल थी की जग्गा और केशव की आत्मा तक काप गयी, सामने जल रहे अलाव का ताप मानो एक क्षण के लिए ठंडा हो गया था, इस बुड्ढे यात्री के अचानक इस प्रकार के व्यव्हार को देख कर केशव मना नहीं कर सका और गाव की और मुड पड़ा !

उस बुड्ढे यात्री ने वापस अपनी चिलम सही की और वापस कश लेने लगा, इस तरह के बर्ताव के कारण जग्गा और उससे कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं कर सका और जल्दी से अपने कांपते हाथो से एक छोटी गिलास में चाय भरकर उसको दे दी !
Bahot badhiya shaandaar update bhai
 
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