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Fantasy दलक्ष

manojmn37

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खंड ४

कृतिका



आज से कोई ६०-७० वर्ष पहले की बात रही होगी ये

एक गाव था,

बहुत ही खुबसूरत गाव,

एक पहाड़ी की चोटी पर बसा,

बहुत ही रमणीय स्थान,

वहा का वातावरण,

बहुत ही वनस्पतियों और झीलों से सुसज्जित रहता था,

उस ठन्डे प्रदेश में बहुत ही तालाब थे,

गर्म पानी के तालाब,

इसी कारण,

वह क्षेत्र काफी भरा-भरा रहता था,

सुदूर कोनो से पशु-पक्षी,

वहा की प्राकृतिक सम्पदा का आनंद लेने वहा आते थे,

और समय पूरा होते ही,

अगले वर्ष की प्रतीक्षा करते थे,

गाव में सभी लोग ज्यादातर खेती ही करते थे,

वनस्पतियों से भरपूर,

और प्राकृतिक अनुकूलन के कारण,

वहा केसर बहुत हुआ करती थी,

बहुत ही मशहूर हुआ करती थी वहा की केसर,

दूर-दराज से लोग,

सिर्फ केसर के कारण ही उस दुर्गम चोटी पर आते थे,

और उसी के कारण यहाँ के लोगो का जीवन-यापन चलता था,

अधिकतर लोग वहा किसान ही थे,

और उन में से एक था मनावर,

बहुत ही सरल था वो,

काफी बुड्ढा हो चूका था,

पत्नी को गए बहुत समय हो चूका था,

दो संताने थी उसकी,

एक बेटा और एक बेटी,

बेटा बड़ा था,

इवान

विवाह हो चूका था उसका,

और उसके एक संतान भी थी,

बेटी कोई होगी उस समय वो 19-20 बरस की,

कृतिका नाम था उसका,

बहुत ही चंचल थी वो,

बहुत ही सुन्दर

यौवन उसका काफी मेहरबान था उस पर,

रचयिता ने काफी समय दिया था उसकी देह को अलंकृत करने में,

लेकिन उससे भी सरल था उसका मन,

दिन भर अपनी सहेलियों के साथ हसी-ठिठोली किया करती थी,

काम में अपने पिता और भाई का हाथ बँटाया करती थी,

बहुत ही लाडली थी वो अपने परिवार में,

अब बुड्ढे बाप को बेटी के हाथ पीले करने की अंतिम इच्छा थी,

लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था,

काल का ग्रास हो लिया मनावर,

अब परिवार की सारी जिम्मेदारी उसके बेटे इवान पर आ चुकी थी,

इवान बड़ा था,

समझदार था,

मस्तिस्क परिपक्कव था उसका,

जीवन चक्र की समझ थी उसको,

लेकिन उसकी बेटी,

कृतिका,

बहुत प्रेम करती थी अपने पिता से,

अभी छोटी थी वो,

उसका मस्तिस्क अपने पिता की मृत्यु को अपना नहीं सका,

अब,

उदास रहने लगी वो,

समय ढलने लगा,

काम में मन नहीं लगता था उसका,

सहेलिय अब उसको रास नहीं आती थी,

खाना अंग नहीं लगता था उसको,

ये देख अब चिंता हुई उसके बड़े भाई को,

पिता के जाने का दुःख उसको भी था,

लेकिन जिम्मेदारिया थी उस पर,

पुरे परिवार की जिम्मेदारी,

कठोर तो होना ही था उसको,

प्रकृति ने पुरुष को कठोरता शायद इसीलिए दी है,

ताकी विपत्तियों में वो नेतृत्व कर सके सभी का,

इसीलिए नहीं की सभी को रोंदता चला जाये,

अपने स्वार्थ के लिए !

अब बहुत ही व्याकुल रहने लगा उसका बड़ा भाई,

कृतिका के लिए,

एक सलाह दी उसकी पत्नी ने उसे,

की ब्याह करा दिया जाए कृतिका का,

ताकि मन लगा रहे उसका,

ये बात जची उसको,

अब विवाह की बात चलने लगी उसकी,

बहुत से लोग आये,

गए,

लेकिन कृतिका को कुछ नहीं जचता था,

यु ही समय बीतता रहा,

उन दिनों केसर के खिलने का समय हो रहा था,

पूरी चोटी केसर की खुशबु से नहला रही थी,

“इतना कहते ही वो बुड्ढा यात्री कहते हुए रुक जाता है, और आखे बंद कर उस खुशबु का अहसास लेने लगता है, अचानक जग्गा के नथुने खुशबु से भर जाते है, और वो भी उस केसर की खुशबु में मग्न हो जाता है, कामरू की तो आखे बंद थी जैसे मानो वो उस क्षण में खो सा गया था, थोड़ी देर ऐसे ही सब चुप रहे, उस बुड्ढे यात्री की आखे अभी भी बंद थी, तभी जग्गा बोल पड़ता है ‘आगे क्या हुआ बाबा’ अब उसकी बोली में एक अधीरता थी, उस बुड्ढे यात्री ने आखे खोली और मुस्कुराते हुए एक चिलम का कश लिया और कहने लगा”

गाव में एक मंदिर था,

केसर की खेती पकने पर सभी गाव वाले उस मंदिर में भोग चढाते थे,

ये एक त्यौहार जैसा ही था,

पुरे चार दिन चलता था ये उत्सव,

सारे गाव वाले उस उत्सव में शामिल होते,

और पुरे चार दिनों तक उस मंदिर के देवता को प्रसन्न करते,

इन चारो दिनों सामूहिक खाना होता,

नाच-गान होता था,

बड़े ही आनंद से मनता था ये त्यौहार,

इस मंदिर के बारे में,

गाव के कुछ बुड्ढो-बुजुर्गो का यह मानना था की

पहले यहाँ गन्धर्व रहा करते थे,

और उन्ही के कारण,

यहाँ पर अति-उन्नत किस्म की केसर उगा करती थी,

लेकिन धीरे-धीरे यहाँ लोग आते गए,

और गन्धर्व कम होते गए,

और धीरे-धीरे यहाँ गाव बस गया,

लेकिन लोगो के अधिक आवागमन होने के कारण,

गन्धर्वो के अपने आनंद में दखल होने लगी,

और वे इस चोटी को छोड़कर चले गए,

उनके जाने के साथ ही केसर भी कम होता गया,

और लोग दुखी होने लगे,

कुछ मनुष्यो के स्वार्थ और अधिक पाने की लालसा में,

उस परमात्मा का सृजन रुष्ट होने लगता है,

लेकिन उन थोड़ो की खातिर सभी को,

परेशानिया और कष्ट झेलने पड़ते है,

लेकिन,

प्रकृति बहुत ही न्यायपूर्ण और दयावान है,

जिसने एक बूंद भी बिना किसी कारण खोया है,

उसे पूरा सागर से भर देती है,

और,

जिसने एक तिनका भी बिना किसी कारण पाया है,

उसे पूरा रिक्त कर देती है,

हा,

उसके न्याय में थोडा विलम्ब हो सकता है,

लेकिन,

अन्याय कभी नहीं करती है,

और उसके इसी विलम्ब के कारण,

कई लोग बुरे कर्म करते रहते है,

लेकिन अंत में सबको पछताना पड़ता है !

तभी किसी ने सलाह दी की,

क्यों ना गन्धर्वो के लिए एक मंदिर बना लिया जाये,

और उनको प्रसन्न करने के लिए उत्सव मनाया जाये,

लोगो ने ऐसा ही किया,

और देखते ही देखते केसर वापस आने लगी,

और तब से अब तक,

यही परंपरा चली आ रही है,

गाव के सभी लोग इस उत्सव में भाग लेते,

और इन चार दिनों,

गन्धर्वो को प्रसन्न करते,

और उनका धन्यवाद करते !



2 साल हो चुके थे,

कृतिका के पिता की मृत्यु हुए,

समय ने कृतिका के मन के घावो को सुखा दिए थे,

लेकिन भरे नहीं थे,

अब कृतिका ज्यादा किसी से बोलती नहीं थी,

अब वो उसका हसी से बाते करना,

दुसरो से रूठना,

सखियों के साथ घूमना,

सब जैसे काल ने अपने अन्दर पचा लिया हो,

समय बहुत ही बड़ा गुरु होता है,

वह हर किसी को,

वो सब कुछ सिखा देता है,

जो उसको सिखना चाहिए होता है,

समय की शिक्षा से कोई नहीं बच पाया,

और जो उसकी परीक्षा में असफल हुआ,

वो मनुष्यता की कोटि से नीचे गिर गया,

और उसको वापस ऊपर उठने में,

और भी कठिन परीक्षाए देनी पड़ती है !

उत्सव का पहला दिन था,

सभी लोग हसी-उल्ल्हास लिए,

उत्सव में शामिल थे,

सिर्फ

कृतिका को छोड़ कर !

 

ashish_1982_in

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खंड ४

कृतिका



आज से कोई ६०-७० वर्ष पहले की बात रही होगी ये

एक गाव था,

बहुत ही खुबसूरत गाव,

एक पहाड़ी की चोटी पर बसा,

बहुत ही रमणीय स्थान,

वहा का वातावरण,

बहुत ही वनस्पतियों और झीलों से सुसज्जित रहता था,

उस ठन्डे प्रदेश में बहुत ही तालाब थे,

गर्म पानी के तालाब,

इसी कारण,

वह क्षेत्र काफी भरा-भरा रहता था,

सुदूर कोनो से पशु-पक्षी,

वहा की प्राकृतिक सम्पदा का आनंद लेने वहा आते थे,

और समय पूरा होते ही,

अगले वर्ष की प्रतीक्षा करते थे,

गाव में सभी लोग ज्यादातर खेती ही करते थे,

वनस्पतियों से भरपूर,

और प्राकृतिक अनुकूलन के कारण,

वहा केसर बहुत हुआ करती थी,

बहुत ही मशहूर हुआ करती थी वहा की केसर,

दूर-दराज से लोग,

सिर्फ केसर के कारण ही उस दुर्गम चोटी पर आते थे,

और उसी के कारण यहाँ के लोगो का जीवन-यापन चलता था,

अधिकतर लोग वहा किसान ही थे,

और उन में से एक था मनावर,

बहुत ही सरल था वो,

काफी बुड्ढा हो चूका था,

पत्नी को गए बहुत समय हो चूका था,

दो संताने थी उसकी,

एक बेटा और एक बेटी,

बेटा बड़ा था,

इवान

विवाह हो चूका था उसका,

और उसके एक संतान भी थी,

बेटी कोई होगी उस समय वो 19-20 बरस की,

कृतिका नाम था उसका,

बहुत ही चंचल थी वो,

बहुत ही सुन्दर

यौवन उसका काफी मेहरबान था उस पर,

रचयिता ने काफी समय दिया था उसकी देह को अलंकृत करने में,

लेकिन उससे भी सरल था उसका मन,

दिन भर अपनी सहेलियों के साथ हसी-ठिठोली किया करती थी,

काम में अपने पिता और भाई का हाथ बँटाया करती थी,

बहुत ही लाडली थी वो अपने परिवार में,

अब बुड्ढे बाप को बेटी के हाथ पीले करने की अंतिम इच्छा थी,

लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था,

काल का ग्रास हो लिया मनावर,

अब परिवार की सारी जिम्मेदारी उसके बेटे इवान पर आ चुकी थी,

इवान बड़ा था,

समझदार था,

मस्तिस्क परिपक्कव था उसका,

जीवन चक्र की समझ थी उसको,

लेकिन उसकी बेटी,

कृतिका,

बहुत प्रेम करती थी अपने पिता से,

अभी छोटी थी वो,

उसका मस्तिस्क अपने पिता की मृत्यु को अपना नहीं सका,

अब,

उदास रहने लगी वो,

समय ढलने लगा,

काम में मन नहीं लगता था उसका,

सहेलिय अब उसको रास नहीं आती थी,

खाना अंग नहीं लगता था उसको,

ये देख अब चिंता हुई उसके बड़े भाई को,

पिता के जाने का दुःख उसको भी था,

लेकिन जिम्मेदारिया थी उस पर,

पुरे परिवार की जिम्मेदारी,

कठोर तो होना ही था उसको,

प्रकृति ने पुरुष को कठोरता शायद इसीलिए दी है,

ताकी विपत्तियों में वो नेतृत्व कर सके सभी का,

इसीलिए नहीं की सभी को रोंदता चला जाये,

अपने स्वार्थ के लिए !

अब बहुत ही व्याकुल रहने लगा उसका बड़ा भाई,

कृतिका के लिए,

एक सलाह दी उसकी पत्नी ने उसे,

की ब्याह करा दिया जाए कृतिका का,

ताकि मन लगा रहे उसका,

ये बात जची उसको,

अब विवाह की बात चलने लगी उसकी,

बहुत से लोग आये,

गए,

लेकिन कृतिका को कुछ नहीं जचता था,

यु ही समय बीतता रहा,

उन दिनों केसर के खिलने का समय हो रहा था,

पूरी चोटी केसर की खुशबु से नहला रही थी,

“इतना कहते ही वो बुड्ढा यात्री कहते हुए रुक जाता है, और आखे बंद कर उस खुशबु का अहसास लेने लगता है, अचानक जग्गा के नथुने खुशबु से भर जाते है, और वो भी उस केसर की खुशबु में मग्न हो जाता है, कामरू की तो आखे बंद थी जैसे मानो वो उस क्षण में खो सा गया था, थोड़ी देर ऐसे ही सब चुप रहे, उस बुड्ढे यात्री की आखे अभी भी बंद थी, तभी जग्गा बोल पड़ता है ‘आगे क्या हुआ बाबा’ अब उसकी बोली में एक अधीरता थी, उस बुड्ढे यात्री ने आखे खोली और मुस्कुराते हुए एक चिलम का कश लिया और कहने लगा”

गाव में एक मंदिर था,

केसर की खेती पकने पर सभी गाव वाले उस मंदिर में भोग चढाते थे,

ये एक त्यौहार जैसा ही था,

पुरे चार दिन चलता था ये उत्सव,

सारे गाव वाले उस उत्सव में शामिल होते,

और पुरे चार दिनों तक उस मंदिर के देवता को प्रसन्न करते,

इन चारो दिनों सामूहिक खाना होता,

नाच-गान होता था,

बड़े ही आनंद से मनता था ये त्यौहार,

इस मंदिर के बारे में,

गाव के कुछ बुड्ढो-बुजुर्गो का यह मानना था की

पहले यहाँ गन्धर्व रहा करते थे,

और उन्ही के कारण,

यहाँ पर अति-उन्नत किस्म की केसर उगा करती थी,

लेकिन धीरे-धीरे यहाँ लोग आते गए,

और गन्धर्व कम होते गए,

और धीरे-धीरे यहाँ गाव बस गया,

लेकिन लोगो के अधिक आवागमन होने के कारण,

गन्धर्वो के अपने आनंद में दखल होने लगी,

और वे इस चोटी को छोड़कर चले गए,

उनके जाने के साथ ही केसर भी कम होता गया,

और लोग दुखी होने लगे,

कुछ मनुष्यो के स्वार्थ और अधिक पाने की लालसा में,

उस परमात्मा का सृजन रुष्ट होने लगता है,

लेकिन उन थोड़ो की खातिर सभी को,

परेशानिया और कष्ट झेलने पड़ते है,

लेकिन,

प्रकृति बहुत ही न्यायपूर्ण और दयावान है,

जिसने एक बूंद भी बिना किसी कारण खोया है,

उसे पूरा सागर से भर देती है,

और,

जिसने एक तिनका भी बिना किसी कारण पाया है,

उसे पूरा रिक्त कर देती है,

हा,

उसके न्याय में थोडा विलम्ब हो सकता है,

लेकिन,

अन्याय कभी नहीं करती है,

और उसके इसी विलम्ब के कारण,

कई लोग बुरे कर्म करते रहते है,

लेकिन अंत में सबको पछताना पड़ता है !

तभी किसी ने सलाह दी की,

क्यों ना गन्धर्वो के लिए एक मंदिर बना लिया जाये,

और उनको प्रसन्न करने के लिए उत्सव मनाया जाये,

लोगो ने ऐसा ही किया,

और देखते ही देखते केसर वापस आने लगी,

और तब से अब तक,

यही परंपरा चली आ रही है,

गाव के सभी लोग इस उत्सव में भाग लेते,

और इन चार दिनों,

गन्धर्वो को प्रसन्न करते,

और उनका धन्यवाद करते !



2 साल हो चुके थे,

कृतिका के पिता की मृत्यु हुए,

समय ने कृतिका के मन के घावो को सुखा दिए थे,

लेकिन भरे नहीं थे,

अब कृतिका ज्यादा किसी से बोलती नहीं थी,

अब वो उसका हसी से बाते करना,

दुसरो से रूठना,

सखियों के साथ घूमना,

सब जैसे काल ने अपने अन्दर पचा लिया हो,

समय बहुत ही बड़ा गुरु होता है,

वह हर किसी को,

वो सब कुछ सिखा देता है,

जो उसको सिखना चाहिए होता है,

समय की शिक्षा से कोई नहीं बच पाया,

और जो उसकी परीक्षा में असफल हुआ,

वो मनुष्यता की कोटि से नीचे गिर गया,

और उसको वापस ऊपर उठने में,

और भी कठिन परीक्षाए देनी पड़ती है !

उत्सव का पहला दिन था,

सभी लोग हसी-उल्ल्हास लिए,

उत्सव में शामिल थे,

सिर्फ

कृतिका को छोड़ कर !
nice update waiting for next update
 

manojmn37

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खंड ५

चोमोलुंगमा



कृतिका आज पहाड़ी की दुर्गम चोटी की ओर टहल रही थी,

उत्सव से दूर,

बहुत दूर थी वह |

आजकल उसको एकांत में रहना अच्छा लगता था,

या यु कहो की उसने एकांत को चुन लिया था,

शायद इसीलिए की वह नहीं चाहती थी की वापस उससे कोई दूर हो जाये,

जिसे वो अपना कह सके |

शायद इसीलिए, वो किसी से ज्यादा बोलती नहीं थी, किसी से लगाव नहीं रखती थी, भविष्य से डर लगने लगा था उसको अब | इसी कारण सब छोड़ दिया था उसने, अपने मन को मार लिया था, वापस किसी के दूर होने के भय से, अपने भाई से दूर होने के भय से |

बहुत प्रेम करती थी वो अपने भाई से,

अपने पिता का आयना दिखता था उसके भाई में उसे,

उसके पिता की तरह वह भी उससे दूर ना हो जाये,

इसीलिए,

शायद,

इसीलिए,

वो समय आने से पहले ही अलग होना चाहती थी,

ताकि पीड़ा ना हो,

कुछ कम हो |

अपने ही खयालो में खोई हुई कृतिका आज कुछ ज्यादा ही दूर चली गई थी,

उसे भी भान नहीं था की कितनी देर से चल रही है वो |

थोड़ी दूर आगे एक छोटा सा तालाब दिखा उसको,

गर्म पानी का तालाब,

बैठ गई वो वही पर एक पेड़ से पीठ टिका कर |

बहुत ही शांत था वातावरण वहा का,

बस एक ही ध्वनि गूंज रही थी,

और वो थी,

कंकड़ के एक एक करके पानी में गिरने की,

कृतिका,

जो बैठी थी पेड़ के नीचे,

एक-एक करके कंकड़ फेक रही थी उस तालाब में,

मन बहलाने के लिए |

उस शांत वातावरण में,

कंकड़ के पानी में गिरने की ध्वनि बहुत ही मधुर लग रही थी,

जैसे की गर्भ में किसी नव जीवन का स्फुरण हो रहा हो |

लेकिन,

कोई था,

कोई था वहा,

जिसको ये मधुर ध्वनि दखल दे रही थी,

उस तालाब से,

कुछ ही पाँव की दूरी पर,

कोई बैठा था वहा,

ध्यान लगाये,

आखे खोली उसने,

लाल आखे,

गुस्सा हो लिया वो,

उठा,

वो उठा वहा से,

और चल दिया उस आवाज की तरफ |

लेकिन ये क्या ?,

जैसे ही वो पंहुचा तालाब के निकट,

पैर जम गए उसके,

एक ही पल में पसीना-पसीना हो लिया वो,

भय ने उसकी आत्मा को जकड लिया हो वही पर,

उसके मुह से बस एक ही शब्द निकला उसके,

या यु कहो की,

उस ठन्डे वातावरण में बस हवा ही निकली मुह से - “चोमोलुंगमा”

अचानक,

छुप लिया वो,

छुप लिया,

वही एक झाड़ी में पीछे,

विश्वास नहीं हो रहा था उसको अपनी आखो पर,

कई जन्मो की तपस्या के बाद भी,

यह देखना संभव नहीं था उसके लिए,

कही ये कोई भ्रम तो नहीं उसका,

शंका जन्मी उसके मन में,

मंत्र से पोषित की अपनी आखो को,

और वापस देखा सामने,

नहीं,

कोई भ्रम नहीं,

कोई भ्रम नहीं था ये,

अब सयंत किया उसने अपने आप को,

लेकिन मन में एक प्रश्न अभी थी उस समय उसको,

चोमोलुंगमा यहाँ पर,

और वो भी मनुष्य देह में,

अब चौकन्ना हुआ वो,

आसपास नजर दौड़ाई उसने,

कोई नहीं,

कोई नहीं था उसके आसपास,

कोई रक्षक नहीं था उसके साथ,

लेकिन पूरी तरह से पुष्टि करना चाहता था वो,

इस क्षण,

एक भाग के हजारवे हिस्सा का भी खतरा मोल नहीं लेना चाहता था वो,

अब उसने दशांश मंत्र को जाग्रत किया,

पोषित किया उसको अपनी आखो पर,

अब देख घुमाई उसने सभी दिशाओ में,

नहीं,

कोई रक्षक नहीं था,

और ना कोई अन्य शक्ति थी वहा पर,

उसकी रक्षा के लिए,

अब वो जिज्ञासु हो उठा,

आखिर ये कैसे संभव है ?

कैसे ?

उसने निर्णय लिया ये जानने का,

अब झाँका उसने कृतिका के “भुत” में,

देख लिया उसने,

सब-कुछ,

जिससे अब-तक,

स्वयं कृतिका भी अनजान थी अपने भुत से,

लेकिन उस झाड़ी के पीछे छिपे अमान ने,

देख लिया सब कुछ,

सब कुछ जान लिया था उस “वचन” के बारे में,

अब जो थोड़ी देर पहले अमान के मन में जिज्ञासा जन्मी थी, लालसा का रूप ले लिया उसने,

लालसा,

सब कुछ पाने की लालसा,

समय से पहले ही सब कुछ पाने की लालसा,

मनुष्य बहुत ही अजीब है, हर क्षण उसके मन में अनेको तृषणाये उपन्न होती रहती है और हर पल बदलती रहती है, और इन्ही बेलगाम तृषणाओ के कारण वह निरंतर गर्त में जाता रहता है, काल्पनिक लक्ष्यों की ओर भटकता रहता है, इसी वजह से तृष्णा पर विवेक की लगाम बहुत ही आवश्यक है, वर्ना भटकाव निश्चित है

लेकिन उस समय,

अमान के विवेक रूपी लगाम को लालसा ने अपने पैरो तले कुचल दिया था,

लालसा ने उसके सामने काल्पनिक सपने रख दिए थे,

पथ-भ्रष्ट हुआ अब वो,

चल पड़ा वो उस “वचन” की बाधा बनने में,

भाग चला वो अब वापस पीछे की ओर,

और ढूंढने लगा कुछ,

बहुत जल्दी थी उसको अब,

समय नहीं गवाना चाहता था वो,

मिल गया उसको,

एक काष्ठ दंड,

तोड़ लिया उसने एक पेड़ से,

और अभिमंत्रित किया,

प्रवंग मंत्र से पोषित कर,

कर दिया पाश को तैयार,

अब बस जाल के फैकने की ही देर थी,

हो लिया वापस,

उस तालाब की ओर,

सभी बात से अनजान,

कृतिका अभी-भी वही बैठी थी,

उसको कुछ सुनाई दिया,

तालाब के उस ओर,

देखा उसने उस तरफ,

दुबला-पतला,

सूखे हाड-मॉस सा व्यक्ति निकला झाड़ियो के पीछे से,

अब थोड़ी डरी वो,

स्वाभाविक भी था उसका डरना उस समय,

खडी हुई वो,

जैसे ही वो कुछ सोंच पाती,

फेक दिया अमान ने काष्ठ दंड उसके तरफ,

एक चीख पुरे उस सुनसान वातावरण में फ़ैल गयी,

जैसे उस काष्ठ-दंड ने पूरी प्राण-उर्जा सोख ली हो उसकी,

कुछ क्षण बाद,

सब शांत,

अब शांत हुआ सब-कुछ,

बस अब निर्जीव काया पड़ी थी उस तालाब के किनारे,

अब सुनसान हुआ वापस |

 
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