- 87
- 275
- 54
#2-
रंजन बाबू सुबह आठ बजे ही घर से निकल जाते हैं... नदी के तट तक पहुँचने में पन्द्रह मिनट तो लगना तय है. फ़िर थोड़ी देर किसी नाव का इंतज़ार करते हैं.
अक्सर ही कई नाव नदी किनारे ही मिल जाते हैं पर कई बार ऐसा भी होता है कि सवारियों की तादाद अनुमान से अधिक हो जाने पर नावों में भी तिल भर की जगह नहीं बचती और फ़िर सवार हो चुके सवारियों को नदी के दूसरी ओर छोड़ने के अलावा नाविकों के पास और कोई चारा नहीं रहता... और यही तो इन नाविकों का काम है... रोज़ी रोटी है.
हमेशा की तरह रंजन बाबू पहुंचे तो थे तट पर समय से; परन्तु आज तट पर एक भी नाव नहीं है.. कदाचित आज नदी के उस पार जाने वालों की संख्या बहुत अधिक रही होगी. कुल पन्द्रह नाव हैं जिनमें से ३ नाव मरम्मत के काम के कारण तीन दिन पानी में नहीं उतरेंगे. अब बाकी बचे बारह नाव में से एक भी नाव अभी यहाँ नहीं हैं.
‘उफ्फ्फ़... एक भी नाव नहीं है... पता नहीं कब तक वापस आएगी.. कहीं आज देर न हो जाए.’ रंजन बाबू ने सोचा.
नदी के उस पार से इस पार आने में पन्द्रह से बीस मिनट लगते हैं और फ़िर वापस उस ओर जाने में भी उतना ही समय लगता है. यानि की करीब तीस से चालीस मिनट यूँ ही निकल जाते हैं इधर से उधर होने में.
रंजन बाबू ने अपने पैंट के जेब में रखे एक छोटा सा बीड़ी का बंडल निकाला. उसमेंसे एक बीड़ी निकाली और लाइटर जला कर सुलगाने ही वाले थे कि पीछे से किसी की पदचाप सुनाई दी. जल्दी से पीछे देखा रंजन बाबू ने. सुरेंद्रनाथ चला आ रहा है. हाथ में एक थैली लिए.. सुरेंद्रनाथ जब तक पास आ कर खड़ा होता.. उतनी देर में रंजन बाबू ने बीड़ी सुलगा लिया. सुरेंद्रनाथ पास आ कर कुशल क्षेम पूछता हुआ एक मतलबी मुस्कान मुस्कराया. रंजन बाबू इस मुस्कान का मतलब बहुत अच्छी तरह जानते थे.. जाने भी क्यों न.. आखिर सुरेंद्रनाथ के साथ उनका कोई आज का तो जान पहचान नहीं है. बचपन में साथ खेलते और पढ़ते थे.. कितनी ही शरारतें दोनों ने मिल कर की है. गाँव के लोग दोनों की जोड़ी को अटूट बोलते थें... पर जैसा की सबके साथ होता है.. समय कभी एक सा नहीं रहता..
सुरेंद्रनाथ का परिवार रंजन बाबू की तरह साधन संपन्न नहीं था..वैसे कुछ खास तो रंजन बाबू का भी परिवार नहीं था पर सुरेंद्रनाथ के परिवार से थोड़ी बेहतर स्थिति में था.
आठवीं तक आते आते सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने साफ़ कह दिया की अब उनसे अकेले काम नहीं संभाला जाता.. बेहतर होगा अगर सुरेंद्रनाथ भी उनके काम में हाथ बंटाए. ‘स्कूल से आने के बाद थोड़ी देर काम करेगा.. फ़िर स्कूल की पढ़ाई भी कर लेगा.’ ऐसा कहा था सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने.
पर सुरेंद्रनाथ और उनकी माता जी; दोनों जानते थे कि दोनों काम साथ कर पाना ज़्यादा दिन संभव नहीं होगा. शायद उनके पिताजी भी इस बात को समझते थे.. पर क्या करे... सुरेंद्रनाथ और उसके तीन छोटे भाई बहन और माँ बाप... छह लोगों का परिवार एक अकेले के कमाई से तो नहीं चल सकता न..
परिवार की अवस्था और पिताजी के कहा को सिर माथे ले सुरेंद्रनाथ भी जुट गए थे काम पर. हमेशा कुछ न कुछ करते रहते. जहाँ से भी हो, जितना भी हो; काम ज़रूर करते और जितना भी मिलता वो सब घर आ कर अपनी माताजी के हाथ रख देते.
शुरू के कुछ महीने तो किसी तरह स्कूल और काम दोनों को अच्छे से संभाला पर जल्द ही उन्हें इस बात का अच्छे से आभास हो गया कि दोनों नावों पर दोनों पैर रख कर अधिक दिन सवारी नहीं हो सकती और अगर किसी तरह हो जाए तो वह अपने आप में एक बेईमानी होगी, मिथ्याचार होगा. पर काम तो छोड़ा नहीं जा सकता... अगर छोड़ दिया तो जो भी थोड़े बहुत पैसे अधिक आ रहे हैं वो तो छूटेगा ही... साथ ही स्थिति के और अधिक ख़राब होने में अधिक समय नहीं लगेगा. अतः पढ़ाई छोड़ना ही एकमात्र उपाय सूझा.सो सुरेंद्रनाथ ने किया भी.
पन्द्रह साल गुज़र गए.... आज इनके खुद के पास रोज़मर्रा की ज़रूरतों वाली एक छोटी सी दुकान और दो नावें हैं.
दुकान पर कभी सुरेंद्रनाथ स्वयं तो कभी उनकी धर्मपत्नी बैठती हैं और दोनों नाव सवारियों को नदी को पार करने के काम में आती हैं. उन नावों के लिए गाँव के ही दो लड़कों को नाविक रखा हुआ है सुरेंद्रनाथ ने. कुल मिलाकर सुरेंद्रनाथ के कर्मठता और सूझबूझ के कारण कमाई अच्छी होती है और घर की स्थिति भी काफ़ी सुधर गई है.
पर एक बात जो आज तक सुरेंद्रनाथ में नहीं बदला है वो है उसका हर बात में ज़रुरत से ज़्यादा जिज्ञासु होना. जब तक किसी बात के तह तक न पहुँच जाए तब तक उसे शांति नहीं होती, चैन नहीं मिलता.
सुरेंद्रनाथ के इसी आदत की कुछ लोग प्रशंसा करते तो कई लोग बुराई करते नहीं थकते. कारण था, अपनी इसी जिज्ञासु प्रवृति के कारण कई बार सुरेंद्रनाथ का दूसरों की निजी ज़िंदगी और मामलों में व्यर्थ का टांग अड़ा देना.
बचपन का यार होने के नाते रंजन बाबू सुरेंद्रनाथ के इस आदत से बहुत भली प्रकार से परिचित थे... अतः वो सुरेंद्रनाथ से ऐसी किसी भी विषय पर बात करने से कतराते थे जो कहीं न कहीं आगे जा कर उनके व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन को लेकर सुरेंद्रनाथ के मन में संशय का बीज बो जाए और वो भी अपने प्रश्नों की प्यास के तृप्त न होने तक इधर उधर हाथ पाँव मारता रहे.
रंजन बाबू ने पॉकेट से बंडल को दुबारा निकाल कर एक बीड़ी निकाली और सुरेंद्रनाथ के हवाले कर दिया.
सुरेंद्रनाथ की मुस्कान और भी बड़ी हो गई. सुबह सुबह ही किसी से मुफ्त का कुछ मिल जाए तो कदाचित हर किसी का मन प्रफुल्लित हो ही जाता है एवं मानव स्वभाव से ऐसा होना स्वाभाविक ही है.
अपने कुरते के जेब से एक छोटी माचिस की डिबिया निकालते हुए बीड़ी को होंठों के एक कोने में दबाए रख सुरेंद्रनाथ दबी आवाज़ में बोला,
“और... भई रंजन बाबू... सब कुशल मंगल?”
नदी की ओर देखते हुए रंजन बाबू बेफ़िक्री में धुआँ उड़ाते हुए बोले, “हाँ सुरेंद्र... ऊपरवाले की दया से सब कुशल मंगल है.. अपनी सुनाओ... कैसी कट रही है ज़िंदगी..?”
बीड़ी सुलगाने के साथ ही एक अच्छे खासे परिमाण में धुआँ छोड़ता हुआ सुरेंद्रनाथ बोला, “ज़िंदगी का क्या है रंजन... कैसी भी हो काटनी - गुजारनी तो पड़ती ही है. खैर, मेरे मामले में भी कह सकते हो कि ऊपरवाले की कृपा है.”
रंजन बाबू एक आत्मीयता वाली हल्की सी मुस्कान लिए बोले, “बढ़िया... बहुत बढ़िया.”
“बार बार नदी की ओर क्या देख रहे हो रंजन... उस ओर जाना है क्या?... ओह, समझा समझा.. ऑफिस के लिए निकले हो.”
“हाँ. रोज़ इसी समय आता हूँ तट पर... हमेशा एक न एक नाव मिल ही जाती है... पर आज देखो... खड़े खड़े ही दस से पन्द्रह मिनट हो गए पर नाव एक भी नहीं दिखी.”
“अरे होता है ऐसा कभी कभी. थोड़ा और रुको.. आ जाएगी एक न एक. (थोड़ा रुक कर) ... तुम्हारा ऑफिस का समय थोड़ा और पहले होता तो मैं अपने नाव से ही तुम्हें नदी पार करवा देता... रोज़.”
एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए रंजन बाबू ने धीरे से कहा, “आधे घंटे के बाद मेरी घरवाली भी इधर से ही जाएगी.”
रंजन बाबू के मुँह से ‘घरवाली’ शब्द सुनते ही सुरेंद्रनाथ पल भर के लिए बीड़ी पीना ही भूल गया. आँखों के सामने रंजन बाबू की ख़ूबसूरत लुगाई का खूबसूरत चेहरा और उसके समतल पेट की गोल नाभि छा गए.
8 साल पहले जिस दिन रंजन बाबू की शादी हुई थी... सुरेंद्रनाथ भी कई बारातियों में से एक था... और उस दिन गाँव के कई बड़े बुजुर्गों को यह कहते सुना था कि ‘रंजनकी जैसी लुगाई बहुत किस्मत वालों को ही मिलती है.’
उस दिन तो सुरेंद्रनाथ ने ऐसी बातों को नार्मल समझ कर एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया था.. पर रिसेप्शन के दिन रंजन के पारिवारिक नियमों के अंतर्गत जब सभी अतिथियों को उनके थाली में घर की नववधू थोड़ा थोड़ा कर भोजन परोस रही थी तब सुरेंद्रनाथ ने उस सुंदर से मुख को देखा था बहुत पास से... एक तो पहले से ही इतनी सुंदर और ऊपर से मेकअप ने रंजनकी दुल्हन को पूनम की चाँद से भी कहीं अधिक सुंदर बना दिया था. और फ़िर जब हवा के झोंके से दुल्हन का साड़ी पेट पर से थोड़ा हट गया था तब उस समतल, चिकने सपाट पेट पर वो सुंदर गोल गहरी नाभि तो बस; जैसे सुरेंद्रनाथ का साँस ही रुकवा दिया था. किसी की नाभि तक भी इतनी सुंदर, नयनाभिराम हो सकती है ये उस दिन सुरेंद्रनाथ को पता चला था.
सबको थोड़ा थोड़ा कर परोसते हुए जब दुल्हन सुरेंद्रनाथ के सामने आई तब रंजन ने ख़ुशी ख़ुशी अपनी दुल्हन का सुरेंद्रनाथ के साथ परिचय करवाया था...
सुरेंद्रनाथ को अपने पति का बचपन का दोस्त जान कर दुल्हन ने होंठों पर एक बड़ी सी मुस्कान लिए हाथ जोड़ कर सुरेंद्रनाथ का अभिवादन की.
सुरेंद्रनाथ ने भी हाथ जोड़ कर प्रत्युत्तर दिया. ऐसा करते समय उसका ध्यान दुल्हन के होंठों की ओर गया.. ‘आह!’ कर उठा उसका मन...
होंठों के बीच से झाँकते दुल्हन के सफ़ेद दांत सफ़ेद मोतियों के भांति लग रहे थे. उस दिन सुरेंद्रनाथ को इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था कि केवल यौनांग नहीं; अपितु कई और अंग भी ऐसे होते हैं जो अलग प्रकार के अथवा यौन सुख जैसा ही सुख दे सकते हैं.
“अरे वो देखो... एक नाव आ रही है!” इस आवाज़ से सुरेंद्रनाथ का ध्यान टूटा.. रंजन बाबू की लुगाई के बारे में सोचते सोचते सुरेंद्रनाथ ऐसा खो गया था कि १-२ मिनट उसे लग गए अपने वास्तविक स्थिति को समझने में.
अपने बगल में रंजन बाबू को न पा कर जल्दी नज़रें दौड़ाई उसने. देखा की रंजन बाबू ‘नाव आई नाव आई’ कहते हुए ख़ुशी से नदी की ओर भागे जा रहे हैं.
नाव में बैठना रंजन को बचपन से ही बहुत अच्छा लगता रहा है. नाव देखते ही रंजन बाबू ख़ुशी से उछलने नाचने लगते थे और आज भी यही कर रहे हैं.
रंजन की इस हरकत को देख कर सुरेंद्रनाथ मुस्कराया. पर तभी, क्षण भर में ही सुरेंद्रनाथ के होंठों पर से मुस्कान गायब हो गई... ‘अरे ये क्या... रंजन तो दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है! उस दिशा में...तो... उफ्फ्फ़...’
ज़्यादा न सोचा गया सुरेंद्रनाथ से.. ‘रंजन...ओ रंजन....’ चिल्लाते हुए रंजन बाबू के पीछे दौड़ पड़े सुरेंद्रनाथ.
रंजन बाबू सुबह आठ बजे ही घर से निकल जाते हैं... नदी के तट तक पहुँचने में पन्द्रह मिनट तो लगना तय है. फ़िर थोड़ी देर किसी नाव का इंतज़ार करते हैं.
अक्सर ही कई नाव नदी किनारे ही मिल जाते हैं पर कई बार ऐसा भी होता है कि सवारियों की तादाद अनुमान से अधिक हो जाने पर नावों में भी तिल भर की जगह नहीं बचती और फ़िर सवार हो चुके सवारियों को नदी के दूसरी ओर छोड़ने के अलावा नाविकों के पास और कोई चारा नहीं रहता... और यही तो इन नाविकों का काम है... रोज़ी रोटी है.
हमेशा की तरह रंजन बाबू पहुंचे तो थे तट पर समय से; परन्तु आज तट पर एक भी नाव नहीं है.. कदाचित आज नदी के उस पार जाने वालों की संख्या बहुत अधिक रही होगी. कुल पन्द्रह नाव हैं जिनमें से ३ नाव मरम्मत के काम के कारण तीन दिन पानी में नहीं उतरेंगे. अब बाकी बचे बारह नाव में से एक भी नाव अभी यहाँ नहीं हैं.
‘उफ्फ्फ़... एक भी नाव नहीं है... पता नहीं कब तक वापस आएगी.. कहीं आज देर न हो जाए.’ रंजन बाबू ने सोचा.
नदी के उस पार से इस पार आने में पन्द्रह से बीस मिनट लगते हैं और फ़िर वापस उस ओर जाने में भी उतना ही समय लगता है. यानि की करीब तीस से चालीस मिनट यूँ ही निकल जाते हैं इधर से उधर होने में.
रंजन बाबू ने अपने पैंट के जेब में रखे एक छोटा सा बीड़ी का बंडल निकाला. उसमेंसे एक बीड़ी निकाली और लाइटर जला कर सुलगाने ही वाले थे कि पीछे से किसी की पदचाप सुनाई दी. जल्दी से पीछे देखा रंजन बाबू ने. सुरेंद्रनाथ चला आ रहा है. हाथ में एक थैली लिए.. सुरेंद्रनाथ जब तक पास आ कर खड़ा होता.. उतनी देर में रंजन बाबू ने बीड़ी सुलगा लिया. सुरेंद्रनाथ पास आ कर कुशल क्षेम पूछता हुआ एक मतलबी मुस्कान मुस्कराया. रंजन बाबू इस मुस्कान का मतलब बहुत अच्छी तरह जानते थे.. जाने भी क्यों न.. आखिर सुरेंद्रनाथ के साथ उनका कोई आज का तो जान पहचान नहीं है. बचपन में साथ खेलते और पढ़ते थे.. कितनी ही शरारतें दोनों ने मिल कर की है. गाँव के लोग दोनों की जोड़ी को अटूट बोलते थें... पर जैसा की सबके साथ होता है.. समय कभी एक सा नहीं रहता..
सुरेंद्रनाथ का परिवार रंजन बाबू की तरह साधन संपन्न नहीं था..वैसे कुछ खास तो रंजन बाबू का भी परिवार नहीं था पर सुरेंद्रनाथ के परिवार से थोड़ी बेहतर स्थिति में था.
आठवीं तक आते आते सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने साफ़ कह दिया की अब उनसे अकेले काम नहीं संभाला जाता.. बेहतर होगा अगर सुरेंद्रनाथ भी उनके काम में हाथ बंटाए. ‘स्कूल से आने के बाद थोड़ी देर काम करेगा.. फ़िर स्कूल की पढ़ाई भी कर लेगा.’ ऐसा कहा था सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने.
पर सुरेंद्रनाथ और उनकी माता जी; दोनों जानते थे कि दोनों काम साथ कर पाना ज़्यादा दिन संभव नहीं होगा. शायद उनके पिताजी भी इस बात को समझते थे.. पर क्या करे... सुरेंद्रनाथ और उसके तीन छोटे भाई बहन और माँ बाप... छह लोगों का परिवार एक अकेले के कमाई से तो नहीं चल सकता न..
परिवार की अवस्था और पिताजी के कहा को सिर माथे ले सुरेंद्रनाथ भी जुट गए थे काम पर. हमेशा कुछ न कुछ करते रहते. जहाँ से भी हो, जितना भी हो; काम ज़रूर करते और जितना भी मिलता वो सब घर आ कर अपनी माताजी के हाथ रख देते.
शुरू के कुछ महीने तो किसी तरह स्कूल और काम दोनों को अच्छे से संभाला पर जल्द ही उन्हें इस बात का अच्छे से आभास हो गया कि दोनों नावों पर दोनों पैर रख कर अधिक दिन सवारी नहीं हो सकती और अगर किसी तरह हो जाए तो वह अपने आप में एक बेईमानी होगी, मिथ्याचार होगा. पर काम तो छोड़ा नहीं जा सकता... अगर छोड़ दिया तो जो भी थोड़े बहुत पैसे अधिक आ रहे हैं वो तो छूटेगा ही... साथ ही स्थिति के और अधिक ख़राब होने में अधिक समय नहीं लगेगा. अतः पढ़ाई छोड़ना ही एकमात्र उपाय सूझा.सो सुरेंद्रनाथ ने किया भी.
पन्द्रह साल गुज़र गए.... आज इनके खुद के पास रोज़मर्रा की ज़रूरतों वाली एक छोटी सी दुकान और दो नावें हैं.
दुकान पर कभी सुरेंद्रनाथ स्वयं तो कभी उनकी धर्मपत्नी बैठती हैं और दोनों नाव सवारियों को नदी को पार करने के काम में आती हैं. उन नावों के लिए गाँव के ही दो लड़कों को नाविक रखा हुआ है सुरेंद्रनाथ ने. कुल मिलाकर सुरेंद्रनाथ के कर्मठता और सूझबूझ के कारण कमाई अच्छी होती है और घर की स्थिति भी काफ़ी सुधर गई है.
पर एक बात जो आज तक सुरेंद्रनाथ में नहीं बदला है वो है उसका हर बात में ज़रुरत से ज़्यादा जिज्ञासु होना. जब तक किसी बात के तह तक न पहुँच जाए तब तक उसे शांति नहीं होती, चैन नहीं मिलता.
सुरेंद्रनाथ के इसी आदत की कुछ लोग प्रशंसा करते तो कई लोग बुराई करते नहीं थकते. कारण था, अपनी इसी जिज्ञासु प्रवृति के कारण कई बार सुरेंद्रनाथ का दूसरों की निजी ज़िंदगी और मामलों में व्यर्थ का टांग अड़ा देना.
बचपन का यार होने के नाते रंजन बाबू सुरेंद्रनाथ के इस आदत से बहुत भली प्रकार से परिचित थे... अतः वो सुरेंद्रनाथ से ऐसी किसी भी विषय पर बात करने से कतराते थे जो कहीं न कहीं आगे जा कर उनके व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन को लेकर सुरेंद्रनाथ के मन में संशय का बीज बो जाए और वो भी अपने प्रश्नों की प्यास के तृप्त न होने तक इधर उधर हाथ पाँव मारता रहे.
रंजन बाबू ने पॉकेट से बंडल को दुबारा निकाल कर एक बीड़ी निकाली और सुरेंद्रनाथ के हवाले कर दिया.
सुरेंद्रनाथ की मुस्कान और भी बड़ी हो गई. सुबह सुबह ही किसी से मुफ्त का कुछ मिल जाए तो कदाचित हर किसी का मन प्रफुल्लित हो ही जाता है एवं मानव स्वभाव से ऐसा होना स्वाभाविक ही है.
अपने कुरते के जेब से एक छोटी माचिस की डिबिया निकालते हुए बीड़ी को होंठों के एक कोने में दबाए रख सुरेंद्रनाथ दबी आवाज़ में बोला,
“और... भई रंजन बाबू... सब कुशल मंगल?”
नदी की ओर देखते हुए रंजन बाबू बेफ़िक्री में धुआँ उड़ाते हुए बोले, “हाँ सुरेंद्र... ऊपरवाले की दया से सब कुशल मंगल है.. अपनी सुनाओ... कैसी कट रही है ज़िंदगी..?”
बीड़ी सुलगाने के साथ ही एक अच्छे खासे परिमाण में धुआँ छोड़ता हुआ सुरेंद्रनाथ बोला, “ज़िंदगी का क्या है रंजन... कैसी भी हो काटनी - गुजारनी तो पड़ती ही है. खैर, मेरे मामले में भी कह सकते हो कि ऊपरवाले की कृपा है.”
रंजन बाबू एक आत्मीयता वाली हल्की सी मुस्कान लिए बोले, “बढ़िया... बहुत बढ़िया.”
“बार बार नदी की ओर क्या देख रहे हो रंजन... उस ओर जाना है क्या?... ओह, समझा समझा.. ऑफिस के लिए निकले हो.”
“हाँ. रोज़ इसी समय आता हूँ तट पर... हमेशा एक न एक नाव मिल ही जाती है... पर आज देखो... खड़े खड़े ही दस से पन्द्रह मिनट हो गए पर नाव एक भी नहीं दिखी.”
“अरे होता है ऐसा कभी कभी. थोड़ा और रुको.. आ जाएगी एक न एक. (थोड़ा रुक कर) ... तुम्हारा ऑफिस का समय थोड़ा और पहले होता तो मैं अपने नाव से ही तुम्हें नदी पार करवा देता... रोज़.”
एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए रंजन बाबू ने धीरे से कहा, “आधे घंटे के बाद मेरी घरवाली भी इधर से ही जाएगी.”
रंजन बाबू के मुँह से ‘घरवाली’ शब्द सुनते ही सुरेंद्रनाथ पल भर के लिए बीड़ी पीना ही भूल गया. आँखों के सामने रंजन बाबू की ख़ूबसूरत लुगाई का खूबसूरत चेहरा और उसके समतल पेट की गोल नाभि छा गए.
8 साल पहले जिस दिन रंजन बाबू की शादी हुई थी... सुरेंद्रनाथ भी कई बारातियों में से एक था... और उस दिन गाँव के कई बड़े बुजुर्गों को यह कहते सुना था कि ‘रंजनकी जैसी लुगाई बहुत किस्मत वालों को ही मिलती है.’
उस दिन तो सुरेंद्रनाथ ने ऐसी बातों को नार्मल समझ कर एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया था.. पर रिसेप्शन के दिन रंजन के पारिवारिक नियमों के अंतर्गत जब सभी अतिथियों को उनके थाली में घर की नववधू थोड़ा थोड़ा कर भोजन परोस रही थी तब सुरेंद्रनाथ ने उस सुंदर से मुख को देखा था बहुत पास से... एक तो पहले से ही इतनी सुंदर और ऊपर से मेकअप ने रंजनकी दुल्हन को पूनम की चाँद से भी कहीं अधिक सुंदर बना दिया था. और फ़िर जब हवा के झोंके से दुल्हन का साड़ी पेट पर से थोड़ा हट गया था तब उस समतल, चिकने सपाट पेट पर वो सुंदर गोल गहरी नाभि तो बस; जैसे सुरेंद्रनाथ का साँस ही रुकवा दिया था. किसी की नाभि तक भी इतनी सुंदर, नयनाभिराम हो सकती है ये उस दिन सुरेंद्रनाथ को पता चला था.
सबको थोड़ा थोड़ा कर परोसते हुए जब दुल्हन सुरेंद्रनाथ के सामने आई तब रंजन ने ख़ुशी ख़ुशी अपनी दुल्हन का सुरेंद्रनाथ के साथ परिचय करवाया था...
सुरेंद्रनाथ को अपने पति का बचपन का दोस्त जान कर दुल्हन ने होंठों पर एक बड़ी सी मुस्कान लिए हाथ जोड़ कर सुरेंद्रनाथ का अभिवादन की.
सुरेंद्रनाथ ने भी हाथ जोड़ कर प्रत्युत्तर दिया. ऐसा करते समय उसका ध्यान दुल्हन के होंठों की ओर गया.. ‘आह!’ कर उठा उसका मन...
होंठों के बीच से झाँकते दुल्हन के सफ़ेद दांत सफ़ेद मोतियों के भांति लग रहे थे. उस दिन सुरेंद्रनाथ को इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था कि केवल यौनांग नहीं; अपितु कई और अंग भी ऐसे होते हैं जो अलग प्रकार के अथवा यौन सुख जैसा ही सुख दे सकते हैं.
“अरे वो देखो... एक नाव आ रही है!” इस आवाज़ से सुरेंद्रनाथ का ध्यान टूटा.. रंजन बाबू की लुगाई के बारे में सोचते सोचते सुरेंद्रनाथ ऐसा खो गया था कि १-२ मिनट उसे लग गए अपने वास्तविक स्थिति को समझने में.
अपने बगल में रंजन बाबू को न पा कर जल्दी नज़रें दौड़ाई उसने. देखा की रंजन बाबू ‘नाव आई नाव आई’ कहते हुए ख़ुशी से नदी की ओर भागे जा रहे हैं.
नाव में बैठना रंजन को बचपन से ही बहुत अच्छा लगता रहा है. नाव देखते ही रंजन बाबू ख़ुशी से उछलने नाचने लगते थे और आज भी यही कर रहे हैं.
रंजन की इस हरकत को देख कर सुरेंद्रनाथ मुस्कराया. पर तभी, क्षण भर में ही सुरेंद्रनाथ के होंठों पर से मुस्कान गायब हो गई... ‘अरे ये क्या... रंजन तो दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है! उस दिशा में...तो... उफ्फ्फ़...’
ज़्यादा न सोचा गया सुरेंद्रनाथ से.. ‘रंजन...ओ रंजन....’ चिल्लाते हुए रंजन बाबू के पीछे दौड़ पड़े सुरेंद्रनाथ.