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Horror दहशत

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#2-



रंजन बाबू सुबह आठ बजे ही घर से निकल जाते हैं... नदी के तट तक पहुँचने में पन्द्रह मिनट तो लगना तय है. फ़िर थोड़ी देर किसी नाव का इंतज़ार करते हैं.


अक्सर ही कई नाव नदी किनारे ही मिल जाते हैं पर कई बार ऐसा भी होता है कि सवारियों की तादाद अनुमान से अधिक हो जाने पर नावों में भी तिल भर की जगह नहीं बचती और फ़िर सवार हो चुके सवारियों को नदी के दूसरी ओर छोड़ने के अलावा नाविकों के पास और कोई चारा नहीं रहता... और यही तो इन नाविकों का काम है... रोज़ी रोटी है.



हमेशा की तरह रंजन बाबू पहुंचे तो थे तट पर समय से; परन्तु आज तट पर एक भी नाव नहीं है.. कदाचित आज नदी के उस पार जाने वालों की संख्या बहुत अधिक रही होगी. कुल पन्द्रह नाव हैं जिनमें से ३ नाव मरम्मत के काम के कारण तीन दिन पानी में नहीं उतरेंगे. अब बाकी बचे बारह नाव में से एक भी नाव अभी यहाँ नहीं हैं.



‘उफ्फ्फ़... एक भी नाव नहीं है... पता नहीं कब तक वापस आएगी.. कहीं आज देर न हो जाए.’ रंजन बाबू ने सोचा.



नदी के उस पार से इस पार आने में पन्द्रह से बीस मिनट लगते हैं और फ़िर वापस उस ओर जाने में भी उतना ही समय लगता है. यानि की करीब तीस से चालीस मिनट यूँ ही निकल जाते हैं इधर से उधर होने में.



रंजन बाबू ने अपने पैंट के जेब में रखे एक छोटा सा बीड़ी का बंडल निकाला. उसमेंसे एक बीड़ी निकाली और लाइटर जला कर सुलगाने ही वाले थे कि पीछे से किसी की पदचाप सुनाई दी. जल्दी से पीछे देखा रंजन बाबू ने. सुरेंद्रनाथ चला आ रहा है. हाथ में एक थैली लिए.. सुरेंद्रनाथ जब तक पास आ कर खड़ा होता.. उतनी देर में रंजन बाबू ने बीड़ी सुलगा लिया. सुरेंद्रनाथ पास आ कर कुशल क्षेम पूछता हुआ एक मतलबी मुस्कान मुस्कराया. रंजन बाबू इस मुस्कान का मतलब बहुत अच्छी तरह जानते थे.. जाने भी क्यों न.. आखिर सुरेंद्रनाथ के साथ उनका कोई आज का तो जान पहचान नहीं है. बचपन में साथ खेलते और पढ़ते थे.. कितनी ही शरारतें दोनों ने मिल कर की है. गाँव के लोग दोनों की जोड़ी को अटूट बोलते थें... पर जैसा की सबके साथ होता है.. समय कभी एक सा नहीं रहता..



सुरेंद्रनाथ का परिवार रंजन बाबू की तरह साधन संपन्न नहीं था..वैसे कुछ खास तो रंजन बाबू का भी परिवार नहीं था पर सुरेंद्रनाथ के परिवार से थोड़ी बेहतर स्थिति में था.



आठवीं तक आते आते सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने साफ़ कह दिया की अब उनसे अकेले काम नहीं संभाला जाता.. बेहतर होगा अगर सुरेंद्रनाथ भी उनके काम में हाथ बंटाए. ‘स्कूल से आने के बाद थोड़ी देर काम करेगा.. फ़िर स्कूल की पढ़ाई भी कर लेगा.’ ऐसा कहा था सुरेंद्रनाथ के पिताजी ने.



पर सुरेंद्रनाथ और उनकी माता जी; दोनों जानते थे कि दोनों काम साथ कर पाना ज़्यादा दिन संभव नहीं होगा. शायद उनके पिताजी भी इस बात को समझते थे.. पर क्या करे... सुरेंद्रनाथ और उसके तीन छोटे भाई बहन और माँ बाप... छह लोगों का परिवार एक अकेले के कमाई से तो नहीं चल सकता न..



परिवार की अवस्था और पिताजी के कहा को सिर माथे ले सुरेंद्रनाथ भी जुट गए थे काम पर. हमेशा कुछ न कुछ करते रहते. जहाँ से भी हो, जितना भी हो; काम ज़रूर करते और जितना भी मिलता वो सब घर आ कर अपनी माताजी के हाथ रख देते.



शुरू के कुछ महीने तो किसी तरह स्कूल और काम दोनों को अच्छे से संभाला पर जल्द ही उन्हें इस बात का अच्छे से आभास हो गया कि दोनों नावों पर दोनों पैर रख कर अधिक दिन सवारी नहीं हो सकती और अगर किसी तरह हो जाए तो वह अपने आप में एक बेईमानी होगी, मिथ्याचार होगा. पर काम तो छोड़ा नहीं जा सकता... अगर छोड़ दिया तो जो भी थोड़े बहुत पैसे अधिक आ रहे हैं वो तो छूटेगा ही... साथ ही स्थिति के और अधिक ख़राब होने में अधिक समय नहीं लगेगा. अतः पढ़ाई छोड़ना ही एकमात्र उपाय सूझा.सो सुरेंद्रनाथ ने किया भी.



पन्द्रह साल गुज़र गए.... आज इनके खुद के पास रोज़मर्रा की ज़रूरतों वाली एक छोटी सी दुकान और दो नावें हैं.



दुकान पर कभी सुरेंद्रनाथ स्वयं तो कभी उनकी धर्मपत्नी बैठती हैं और दोनों नाव सवारियों को नदी को पार करने के काम में आती हैं. उन नावों के लिए गाँव के ही दो लड़कों को नाविक रखा हुआ है सुरेंद्रनाथ ने. कुल मिलाकर सुरेंद्रनाथ के कर्मठता और सूझबूझ के कारण कमाई अच्छी होती है और घर की स्थिति भी काफ़ी सुधर गई है.



पर एक बात जो आज तक सुरेंद्रनाथ में नहीं बदला है वो है उसका हर बात में ज़रुरत से ज़्यादा जिज्ञासु होना. जब तक किसी बात के तह तक न पहुँच जाए तब तक उसे शांति नहीं होती, चैन नहीं मिलता.



सुरेंद्रनाथ के इसी आदत की कुछ लोग प्रशंसा करते तो कई लोग बुराई करते नहीं थकते. कारण था, अपनी इसी जिज्ञासु प्रवृति के कारण कई बार सुरेंद्रनाथ का दूसरों की निजी ज़िंदगी और मामलों में व्यर्थ का टांग अड़ा देना.



बचपन का यार होने के नाते रंजन बाबू सुरेंद्रनाथ के इस आदत से बहुत भली प्रकार से परिचित थे... अतः वो सुरेंद्रनाथ से ऐसी किसी भी विषय पर बात करने से कतराते थे जो कहीं न कहीं आगे जा कर उनके व्यक्तिगत या पारिवारिक जीवन को लेकर सुरेंद्रनाथ के मन में संशय का बीज बो जाए और वो भी अपने प्रश्नों की प्यास के तृप्त न होने तक इधर उधर हाथ पाँव मारता रहे.



रंजन बाबू ने पॉकेट से बंडल को दुबारा निकाल कर एक बीड़ी निकाली और सुरेंद्रनाथ के हवाले कर दिया.



सुरेंद्रनाथ की मुस्कान और भी बड़ी हो गई. सुबह सुबह ही किसी से मुफ्त का कुछ मिल जाए तो कदाचित हर किसी का मन प्रफुल्लित हो ही जाता है एवं मानव स्वभाव से ऐसा होना स्वाभाविक ही है.



अपने कुरते के जेब से एक छोटी माचिस की डिबिया निकालते हुए बीड़ी को होंठों के एक कोने में दबाए रख सुरेंद्रनाथ दबी आवाज़ में बोला,


“और... भई रंजन बाबू... सब कुशल मंगल?”



नदी की ओर देखते हुए रंजन बाबू बेफ़िक्री में धुआँ उड़ाते हुए बोले, “हाँ सुरेंद्र... ऊपरवाले की दया से सब कुशल मंगल है.. अपनी सुनाओ... कैसी कट रही है ज़िंदगी..?”



बीड़ी सुलगाने के साथ ही एक अच्छे खासे परिमाण में धुआँ छोड़ता हुआ सुरेंद्रनाथ बोला, “ज़िंदगी का क्या है रंजन... कैसी भी हो काटनी - गुजारनी तो पड़ती ही है. खैर, मेरे मामले में भी कह सकते हो कि ऊपरवाले की कृपा है.”



रंजन बाबू एक आत्मीयता वाली हल्की सी मुस्कान लिए बोले, “बढ़िया... बहुत बढ़िया.”



“बार बार नदी की ओर क्या देख रहे हो रंजन... उस ओर जाना है क्या?... ओह, समझा समझा.. ऑफिस के लिए निकले हो.”



“हाँ. रोज़ इसी समय आता हूँ तट पर... हमेशा एक न एक नाव मिल ही जाती है... पर आज देखो... खड़े खड़े ही दस से पन्द्रह मिनट हो गए पर नाव एक भी नहीं दिखी.”



“अरे होता है ऐसा कभी कभी. थोड़ा और रुको.. आ जाएगी एक न एक. (थोड़ा रुक कर) ... तुम्हारा ऑफिस का समय थोड़ा और पहले होता तो मैं अपने नाव से ही तुम्हें नदी पार करवा देता... रोज़.”



एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए रंजन बाबू ने धीरे से कहा, “आधे घंटे के बाद मेरी घरवाली भी इधर से ही जाएगी.”



रंजन बाबू के मुँह से ‘घरवाली’ शब्द सुनते ही सुरेंद्रनाथ पल भर के लिए बीड़ी पीना ही भूल गया. आँखों के सामने रंजन बाबू की ख़ूबसूरत लुगाई का खूबसूरत चेहरा और उसके समतल पेट की गोल नाभि छा गए.



8 साल पहले जिस दिन रंजन बाबू की शादी हुई थी... सुरेंद्रनाथ भी कई बारातियों में से एक था... और उस दिन गाँव के कई बड़े बुजुर्गों को यह कहते सुना था कि ‘रंजनकी जैसी लुगाई बहुत किस्मत वालों को ही मिलती है.’



उस दिन तो सुरेंद्रनाथ ने ऐसी बातों को नार्मल समझ कर एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया था.. पर रिसेप्शन के दिन रंजन के पारिवारिक नियमों के अंतर्गत जब सभी अतिथियों को उनके थाली में घर की नववधू थोड़ा थोड़ा कर भोजन परोस रही थी तब सुरेंद्रनाथ ने उस सुंदर से मुख को देखा था बहुत पास से... एक तो पहले से ही इतनी सुंदर और ऊपर से मेकअप ने रंजनकी दुल्हन को पूनम की चाँद से भी कहीं अधिक सुंदर बना दिया था. और फ़िर जब हवा के झोंके से दुल्हन का साड़ी पेट पर से थोड़ा हट गया था तब उस समतल, चिकने सपाट पेट पर वो सुंदर गोल गहरी नाभि तो बस; जैसे सुरेंद्रनाथ का साँस ही रुकवा दिया था. किसी की नाभि तक भी इतनी सुंदर, नयनाभिराम हो सकती है ये उस दिन सुरेंद्रनाथ को पता चला था.



सबको थोड़ा थोड़ा कर परोसते हुए जब दुल्हन सुरेंद्रनाथ के सामने आई तब रंजन ने ख़ुशी ख़ुशी अपनी दुल्हन का सुरेंद्रनाथ के साथ परिचय करवाया था...



सुरेंद्रनाथ को अपने पति का बचपन का दोस्त जान कर दुल्हन ने होंठों पर एक बड़ी सी मुस्कान लिए हाथ जोड़ कर सुरेंद्रनाथ का अभिवादन की.


सुरेंद्रनाथ ने भी हाथ जोड़ कर प्रत्युत्तर दिया. ऐसा करते समय उसका ध्यान दुल्हन के होंठों की ओर गया.. ‘आह!’ कर उठा उसका मन...



होंठों के बीच से झाँकते दुल्हन के सफ़ेद दांत सफ़ेद मोतियों के भांति लग रहे थे. उस दिन सुरेंद्रनाथ को इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था कि केवल यौनांग नहीं; अपितु कई और अंग भी ऐसे होते हैं जो अलग प्रकार के अथवा यौन सुख जैसा ही सुख दे सकते हैं.



“अरे वो देखो... एक नाव आ रही है!” इस आवाज़ से सुरेंद्रनाथ का ध्यान टूटा.. रंजन बाबू की लुगाई के बारे में सोचते सोचते सुरेंद्रनाथ ऐसा खो गया था कि १-२ मिनट उसे लग गए अपने वास्तविक स्थिति को समझने में.



अपने बगल में रंजन बाबू को न पा कर जल्दी नज़रें दौड़ाई उसने. देखा की रंजन बाबू ‘नाव आई नाव आई’ कहते हुए ख़ुशी से नदी की ओर भागे जा रहे हैं.



नाव में बैठना रंजन को बचपन से ही बहुत अच्छा लगता रहा है. नाव देखते ही रंजन बाबू ख़ुशी से उछलने नाचने लगते थे और आज भी यही कर रहे हैं.



रंजन की इस हरकत को देख कर सुरेंद्रनाथ मुस्कराया. पर तभी, क्षण भर में ही सुरेंद्रनाथ के होंठों पर से मुस्कान गायब हो गई... ‘अरे ये क्या... रंजन तो दक्षिण दिशा की ओर जा रहा है! उस दिशा में...तो... उफ्फ्फ़...’


ज़्यादा न सोचा गया सुरेंद्रनाथ से.. ‘रंजन...ओ रंजन....’ चिल्लाते हुए रंजन बाबू के पीछे दौड़ पड़े सुरेंद्रनाथ.
 
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आज दिन भर स्कूल में बहुत व्यस्त रही सुचित्रा. कक्षा ३ से ६ तक के बच्चों का वीकली टेस्ट था. सभी कक्षाओं में हिंदी, अंग्रेज़ी और पर्यावरण विज्ञान पढ़ाती है वो. छोटे बच्चों को पढ़ाने में बहुत दक्ष है एवं कड़ी अनुशासन में भी रखना जानती है. लगातार पाँच घंटे से टेस्ट लेते लेते थक गई है बेचारी इसलिए कक्षा ३ में कुर्सी पर बैठ कर सुस्ता भी रही है और टेबल पर रजिस्टर रख कर बच्चों की उपस्थिति का अवलोकन कर रही है... बच्चे चुपचाप सुचित्रा द्वारा दिए गए टास्क को बनाने में लगे हैं...



रजिस्टर चेक करते करते अचानक से सुचित्रा को आज सुबह घटी घटना याद आ गई..



सुबह जिस तरह से उसका गोपाल दूधवाले से आमना सामना हुआ, उसकी देह को देख कर गोपाल जिस तरह से मोहित हो गया था एवं उसके चेहरे के जो हाव भाव हो गए थे... सब याद आते ही सुचित्रा के दिल में एक गुदगुदी हो गई.वो मन ही मन मुस्करा उठी.



मुस्कराने का एक कारण ये भी था कि गोपाल की नज़रों ने उसके देह और मन में कामोत्तेजना की एक धीमी आँच प्रज्ज्वलित कर दी थी... जैसे जैसे गोपाल की नज़रें सुचित्रा के बदन पर जमते जा रहे थे वैसे वैसे शर्मो ह्या के साथ साथ थोड़ी थोड़ी कर के काम वासना का भी संचार होने लग रहा था सुचित्रा में. ब्रा विहीन ब्लाउज के अंदर उसके स्तनाग्र धीरे धीरे सख्त हो उठे थे जिस वजह से ब्लाउज पर उनकी छाप से बनने लगी थी और यह चीज़ गोपाल की नज़रों से छुपी न रह सकी थी.



उसके ब्लाउज पर स्तनाग्र वाले स्थान को देख आकर जिस तरह से गोपाल ने अविश्वास के साथ ज़ोर से थूक निगला था उससे तो सुचित्रा लगभग हँस ही पड़ी थी.



गोपाल के चले जाने के बाद सुचित्रा दूध के बर्तन को रसोई में सही जगह रखने के बाद सीधे अपने कमरे में गई और जा कर खड़ी हो गई थी ड्रेसिंग टेबल के सामने. आदमकद दर्पण के सामने खड़ी हो कर अपने जिस्म को स्वयं ही बड़े मनमोहक ढंग से निहारने लगी थी. गोपाल की दृष्टि ने जो आँच लगाया था सुचित्रा के अंदर; उसे अब धीरे धीरे कई महीनों की यौन तृष्णा हवा देने लगी थी.



सुचित्रा की बढ़ी हुई धड़कन बीच बीच में एक बार के लिए धौंकनी की तरह तेज़ हो जाती और फ़िर कम होती जाती.



‘टन टन टन टन टन!!!’



स्कूल की घंटी बजी... और इसी के साथ रंगीले मनोरम सपनों से एक झटके में बाहर आ जाना पड़ा उसे.



बच्चों को विदा कर, साथी शिक्षक-शिक्षिकाओं से विदा ले कर सुचित्रा चल पड़ी अपने घर की ओर... अर्थात् नदी की ओर... मतलब यह कि घर पहुँचने के लिए उसे पहले नदी को पार करना पड़ेगा और फ़िर यही कोई पन्द्रह बीस मिनट चलने के बाद ही सीधे अपने घर पहुँचेगी.



नदी तट पर पहुँचने के साथ ही उसे नाव भी मिल गई. नाव में ही उसे अपने घर के पास ही रहने वाली एक औरत मिल गई.. दुर्गा.. दुर्गा नाम है उसका. सुचित्रा के घर से दो घर आगे रहती है. कई दिनों से एक ही रट लगाए रखी है की उसे भी कहीं छोटी मोटी सी नौकरी करनी है और स्कूल से बढ़िया जगह और कौन हो सकती है... इसलिए सुचित्रा के पीछे पड़ी रहती है हमेशा... ताकि वो अपने स्कूल में बात करके दुर्गा के लिए कुछ कर दे.



नाव में दोनों साथ ही बैठी इधर उधर की बातें कर रही हैं... नाव नदी के दूसरे तट के पास पहुँचने के बहुत पहले ही अचानक से धीरे हो गई और धीरे धीरे ही जिस रास्ते चल रही थी उससे परे हट गई. इस बात पे सुचित्रा का ध्यान गया.. हालाँकि ऐसा वो अपने शादी हो कर यहाँ आने के बाद से ही ऐसा होता हुआ देख रही है पर कभी इस विषय पर बात नहीं कर पाई. जिस किसी से भी बात करना चाही; उसने या तो बात को जल्दी से रफ़ा दफ़ा कर दिया या फ़िर आधा अधूरा ही बताया.



सुचित्रा के मन में अचानक से एक बेचैनी सी होने लगी. उसे ऐसा लगने लगा की आज उसे ये बात जानना ही होगा कि सच क्या है...? क्या बातें होती हैं नदी को लेकर...? लोग क्यों भयभीत होते हैं इस नदी के दक्षिण दिशा को लेकर?



वो इधर उधर देखी..बगल में ही दुर्गा एक पत्रिका पढ़ने में मग्न थी. सुचित्रा को दुर्गा से बढ़िया कोई और न सूझा जो इस विषय पर उससे बात करे. कोहनी से ज़रा सा धक्का दे कर दुर्गा से पूछी,



“ए.. क्या पढ़ रही है?”


“कुछ नहीं दीदी.. बस यह फ़िल्मी पत्रिका पढ़ रही हूँ... घर में बैठे बैठे बोर हो जाती हूँ न.. इसलिए आज घर से ये सोच कर ही निकली थी कि शहर वाले मार्किट से तीन – चार किताबें खरीदनी ही खरीदनी है... कुल पाँच खरीद ली.. ही ही...” बोल कर शरारत से खिलखिला उठी दुर्गा.



सुचित्रा भी बिना मुस्कराए न रह पाई. दुर्गा की यही एक बात उसे बहुत भाती है. शादी हुए कितने साल हो गए पर बचपना अब तक नहीं गया उसका. पता नहीं पति से सहवास करते समय क्या करती होगी..!!



‘सहवास’ शब्द मन में आते ही सुचित्रा शर्मा गई. ‘हाय... ये कैसे कैसे शब्द आ रहे हैं दिमाग में... छी...’ मन ही मन सोची.



“क्यों दीदी.. तुम्हें भी पढ़ना है क्या.. पढ़ना है तो बोलो... अभी एक देती हूँ.” सुचित्रा को चुप देख दुर्गा पूछी.



दुर्गा के सवाल से सुचित्रा अपने विचारों से बाहर आई.. “नहीं दुर्गा.. पढ़ना नहीं है.. कुछ पूछना है..”



“हाँ पूछो.” “वादा कर मैं जो भी पूछूँगी वो तू ज़रूर बताओगी...?”



“बिल्कुल दीदी... बिल्कुल बताऊँगी... पक्का.. वादा..”“और किसी को बताओगी नहीं कि मैंने तुमसे कभी कुछ पूछा और तुमने मुझे उसका जवाब दिया था... यहाँ तक की मेरे पति को भी नहीं.”



सुचित्रा के इस बात पे दुर्गा सशंकित हो गई. थोड़ा रुक कर सोची... कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी उसकी नज़र नदी के दक्षिण दिशा की ओर चली गई.. और मानो उसे अपने आप ही जवाब मिल गया की सुचित्रा उससे क्या पूछना चाहती है... उसने तुरंत ही अपना निर्णय सुना दिया,



“देखो दी, अगर और कुछ पूछना चाहती हो तो ठीक है.. पर अगर इस दक्षिण दिशा के बारे में कुछ पूछना है तो पहले ही बता देती हूँ की मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है.. माफ़ करो.” कह कर दूसरी तरफ़ थोड़ा सा घूम कर पत्रिका को दुबारा पढ़ने लगी.



सुचित्रा को दुर्गा के इस तरह मना कर देने पर बुरा लगा. कुछ पल सोच कर उसने भी अपना निर्णय सुना दिया,


“ठीक है... मैं तुमसे कुछ पूछना और जानना चाहती थी इस भरोसे के साथ कि तुम ही एकमात्र मेरी वो करीबी हो जो सब खुल कर बताओगी.. पर नहीं.. तुमसे इतना सा भी नहीं हुआ.. कोई बात नहीं... तुम इतना छोटा सा काम नहीं कर सकती तो मैं भी भला स्कूल में तुम्हारी नौकरी की बात करने जैसी भारी काम कैसे कर पाऊँगी... ना बाबा.. माफ़ करो.” कह कर सुचित्रा भी मुँह फूला कर दिखावटी गुस्सा करते हुए दूसरी तरफ़ घूम कर बैठ गई.



सुचित्रा के इस बात पे तो जैसे दुर्गा को काठ मार गया. ‘हे भगवान... ये मैं क्या सुन रही हूँ... सुचित्रा दी मेरा काम नहीं कर देगी.. बस इतनी सी बात के लिए कि मैं उन्हें नदी के दक्षिण दिशा के बारे में बताने से मना कर दिया... उफ्फ्फ़... क्या करूँ.. वैसे बात तो सही है... ये पूछेंगी... और मैं बताऊँगी... छोटा सा ही तो काम है.. और वैसे भी दीदी कितनी हेल्पफूल है... मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए.’ ऐसा सोच कर दुर्गा सुचित्रा की बायीं बाँह हल्के से पकड़ कर बोली,



“सॉरी दी.. दरअसल ये बात ही ऐसी है की बोलना तो छोड़ो... सोच कर ही जी घबराने लगता है.. तुम पूछो दी.. क्या क्या पूछना है?”



सुचित्रा पलट कर दुर्गा को देखी... मुस्कराई.. बोली, “ज़्यादा कुछ नहीं.. बस, इस नदी और इसके दक्षिण दिशा को लेकर यहाँ के लोगों के मन में जो आतंक है.. उसके बारे में जानना है.”



दुर्गा धीरे से बोली, “ठीक है दी.. पर मेरी भी एक शर्त है...”


“क्या?


”“वादा करो की तुम किसी को भी नहीं बताओगी कि मैंने तुम्हें इस नदी और इसके दक्षिण दिशा के बारे में कुछ भी बताया है.”


“ठीक है.. वादा करती हूँ की कभी किसी को नहीं बताऊँगी... और वैसे भी, तू ही सोच.. किसी को ये बता कर मुझे किसी झमेले में फँसना है क्या?” सुचित्रा होंठों पर विजयी मुस्कान लिए बोली.



दुर्गा एक गहरी साँस ले कर बोलना शुरू की, “दीदी, बात है तो छोटी सी... पर है खतरनाक.. कई साल पुरानी बात है. तब हमारा ये गाँव था तो सही पर.. उस समय ये गाँव कम और जंगल का एक विशाल टापू सा लगता था. आज ही की तरह उस समय भी गाँव के लोग काफ़ी मिलनसार और एक दूसरे की मदद को हमेशा तैयार रहने वाले थे. पैसे वाले हो या गरीब, बहुत अच्छी सद्भावना थी लोगों में. बहुत ही अच्छा वातावरण हुआ करता था. इसी गाँव का एक लड़का इसी गाँव की ही एक लड़की के प्यार में पड़ गया. लड़की पैसे वाली थी... लड़का गरीब तो न था पर लड़की जैसा पैसा वाला भी नहीं था. खैर, इधर लड़की भी उसको चाहने लगी थी. दोनों अक्सर चोरी छिपे मिला करते थे. धीरे धीरे दोनों एक दूसरे के बहुत घनिष्ठ हो गए. बहुत करीबी हो गए एक दूसरे के. एक दिन गाँव वालों ने दोनों को रंगे हाथ आपत्तिजनक अवस्था में पकड़ लिया. पंचायत बैठी. गाँव के वरिष्ठ और गणमान्य लोग भी थे सभा में. लड़के और लड़की को बहुत खरी खोटी सुनाई गई. दोनों को ही गाँव और उनके परिवारों के संस्कार आदि की घुट्टी पिलाई गई. चूँकि इस तरह की ये पहली घटना थी गाँव के इतिहास में; इसलिए इस बात पे की आज के बाद दोनों एक दूसरे से कभी नहीं मिलेंगे, एक दूसरे की शक्ल तक नहीं देखेंगे... दोनों को छोड़ दिया गया. साथ में ये भी घोषणा कर दी गई भरी सभा में की यदि भविष्य में ऐसी घटना की पुनरावृत्ति होती है तो चाहे वो कोई भी हो... उसे कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी. दया और माफ़ी की कोई गुंजाइश नहीं होगी.”



“फ़िर?” दुर्गा को एक क्षण के लिए चुप होती देख सुचित्रा व्यग्रता से पूछ उठी.“



फ़िर काफ़ी दिनों तक दोनों ने एक दूसरे को देखा तक नहीं.. दोनों के आपस में मिलने, भेंट करने वाली जैसी कोई बात गाँव वालों के नज़रों में नहीं आई. धीरे धीरे गाँव वाले इस बात को भूल गए. उन्होंने यही सोचा होगा कि शायद दोनों सुधर गए होंगे. पर वास्तविकता कुछ और थी. वह लड़का उस लड़की से मिलता रह रहा था. कैसे... यह किसी को पता नहीं चला. एक दिन अचानक लड़की के घर में कोहराम मच गया. सुबह से लड़की घर से गायब थी... लड़की को सुबह सबसे पहले उठ जाने की आदत थी. उस दिन जब काफ़ी देर बाद भी अपने कमरे से नहीं निकली तो उसकी माँ ने लड़की को जगाने के लिए उसके कमरे के दरवाज़े पर कई बार दस्तक दी थी... पर जब काफ़ी देर तक दस्तक और आवाज़ देने के बाद भी अंदर से कोई जवाब जब न आया तब उसकी माँ ने शोर मचाया. घर के मर्द जब दरवाज़ा तोड़ कर अंदर घुसे तब कमरे से लड़की नदारद थी. बात फैलते देर नहीं लगी. लड़की की खोज शुरू हो गई. उस लड़की से संबंधित हर उस स्थान को तलाशा गया जहाँ उसके होने की सम्भावना हो सकती थी. जब काफ़ी खोजबीन के बाद भी लड़की का पता न चला तब लड़की के घर वाले एवं गाँव वालों ने लड़के से पूछना ज़रूरी समझा. हालाँकि लड़की के गायब होते ही लड़के के घर में छापा पड़ चुका था... लड़का भी घर से गायब था. लड़की के माँ बाप से कड़ाई से पूछताछ करने पर पता चला था कि लड़का अहले सुबह ही पास के गाँव अपने दोस्त के यहाँ गया था... उसके साथ मिलकर फसलों की देख रेख करने. गाँव वाले उस बगल वाले गाँव जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक हल्ला हुआ की कुछ ही देर पहले इसी गाँव के ही मंदिर में से लड़का लड़की को निकलते हुए देखा गया है. संभवतः दोनों ने शादी कर ली है. शादी कर लेने वाली बात सुन कर लड़की के घर वाले गुस्से से तमतमा गए और गाँव वालों को साथ ले कर चल दिए मंदिर की ओर. पुजारी से तो कुछ खास पता न चल सका पर मंदिर से दस कदम दूर स्थित एक चाय दुकान के आदमी ने बताया की एक लड़का और लड़की को मंदिर की ही कच्ची सड़क से नीचे उतर कर दक्षिण की ओर जाते देखा था. लड़की दुल्हन के जोड़े में थी. तुरंत ही उस जगह का पता लग गया जहाँ वे दोनों उपस्थित थे. एक पुराना घर था. वर्षों से वहाँ किसी का आना जाना नहीं था. सबने बाहर से देखा की उसी घर के एक कमरे में मद्धिम बत्ती जल रही है.. रोशनी बस इतनी सी ही थी की उस कमरे में मौजूद आदमी किसी तरह अपने आस पास देख सके. लड़की के घर वालों ने गाँव वालों को बाहर ही रहने का इशारा किया और खुद चुपचाप उस कमरे की ओर बढ़े. दरवाज़े के पास पहुँच कर एक साथ मिलकर दरवाज़े पर ज़ोर लगाया और तोड़ दिया.. वर्षों पुराना बुरी तरह जर्ज़र हो चुका दरवाज़ा दो ही लात में टूट गया. अंदर वाकई में वे ही दोनों उपस्थित थे.... और.... बेहद आपत्तिजनक अवस्था में थे... दोनों को ऐसी हालत में देख कर लड़की के घर वालों का पारा चढ़ गया और वहीँ लड़के को पटक पटक कर पीटने लगे. लड़की विरोध करना चाही पर चाह कर भी कर न पाई. वो बेचारी खुद अपनी वर्तमान स्थिति के कारण शर्मसार थी. घर की महिलाओं ने भी उस लड़की को वहीँ जमकर खरी खोटी सुनाना शुरू कर दिया और साथ ही पाँच – छह हाथ भी जमा दिए. अब तक गाँव वाले भी वहाँ आ चुके थे और लड़की के घर वालों के साथ मिलकर उस लड़के को कूटने लगे. इस पूरे हो - हंगामे के बीच लड़की को किसी तरह से मौका मिला और मौके का फ़ायदा उठाते हुए टूटी हुई खिड़की से छलांग लगा कर भाग निकली. लड़की को अँधेरे में बाहर भागते देख घर वालों के होश उड़ गए और वो भी उस लड़की के पीछे चीखते चिल्लाते हुए भागने लगे. कुछ मिनटों के लिए सबका ध्यान लड़की की ओर गया और इसी बात का फ़ायदा उठा कर लड़का भी किसी तरह वहाँ से निकल भागा. दोनों दो विपरीत दिशा में भाग रहे थे. इसलिए कुछ गाँव वाले लड़की के घर वालों के साथ हो लिए और बाकी उस लड़के को पकड़ने उसके पीछे भागे.” इतना कह कर दुर्गा चुप हुई.. अपने हैण्ड बैग से पानी की बोतल निकाली और इधर उधर देखते हुए थोड़ा थोड़ा कर पीने लगी.



सुचित्रा से ज़रा सी देरी सही न गई और व्यग्रता से पूछने लगी, “अरे आगे बोल न... आगे क्या हुआ..? दोनों पकड़े गए? पकड़ कर क्या किया गया उन दोनों के साथ?”



बोतल को वापस बैग में भरते हुए दुर्गा बोली, “नहीं दी, पकड़े नहीं गए... कहते हैं कि गाँव वालों के प्रचंड गुस्से से बुरी तरह डर कर अपने होशोहवास खो कर बेतहाशा इधर उधर भागता हुआ वह लड़का अपनी जान बचाने के लिए नदी में कूद गया... काफ़ी दूर तक हाथ पाँव मारते हुए तैरते हुए निकल गया... इधर गाँव वाले भी कुछ कम न थे.. जल्द से जल्द पास ही लगी कुछ नावों को लिया और उनपे सवार हो कर लड़के के पीछे लग गए. अपने को घिरता देख कर लड़का नदी के दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गया. उन दिनों पिछले एक सप्ताह से काफ़ी बारिश हो रही थी. सावन का महीना हो या भारी वर्षा वाले दिन... इस नदी का दक्षिण दिशा हमेशा से ही कुछ अधिक ही गहरा हो जाता है.. ऐसा और कहीं होता है की नहीं ये पता नहीं दी, पर यहाँ... इस नदी में ऐसा ही होता आ रहा है न जाने कब से... लड़का दक्षिण दिशा में थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि गहराई ने उसे अपने में समेट लिया. लड़का चीखता चिल्लाता रहा... हाथ जोड़ता रहा... गाँव वालों की ओर ... की उसे बचा ले... लेकिन गाँव वाले तो खुद ही दूर थे उससे... जब तक उस क्षेत्र विशेष तक पहुँचते... लड़का गहराई में समा गया था... हमेशा के लिए.”



“और लड़की का क्या हुआ?”



“उस दिन अँधेरे का लाभ उठा कर वह कहाँ चली गई थी किसी को पता नहीं चला था.. हालाँकि खोजना बदस्तूर जारी था... दो दिन बाद पास ही के एक जंगल में; एक पेड़ की ऊँची डाली पर से लड़की का शव बरामद हुआ था...फाँसी लगा ली थी... बेचारी... न घर की रही थी न घाट की...”



“ओह!”



पूरी कहानी को सुन कर सुचित्रा का मन उदास हो गया. दोनों लड़के लड़की की मौत जिस प्रकार हुई... उसे जान कर सुचित्रा का मन रुआंसा हो गया... उसके कान और कुछ सुनना नहीं चाहते थे.. पर मन जानता था कि अभी कुछ और जानना शेष रह गया है...



“पर.. दक्षिण दिशा से डरने का कारण क्या हुआ दुर्गा... यही की वो लड़का उस दिन वहाँ डूब कर मर गया था...? इसलिए लोग उस तरफ़ से नहीं जाते की कहीं उनकी भी हालत उस लड़के जैसी न हो जाए.. अंधविश्वास?”



सुचित्रा के इस सवाल पर दुर्गा ने उसे पैनी नज़रों से देखा... मानो समझ नहीं पाई की सुचित्रा केवल प्रश्न कर रही है या प्रश्न के आड़ में कटाक्ष...?



कुछ क्षण चुप रह कर बोली, “नहीं दी.. अंधविश्वास नहीं.. वास्तविकता है.” “क्या वास्तविकता है?”



“जिस दिन वो लड़का उस दिशा में उस विशेष जगह डूबा था.. उसके सप्ताह भर बाद से ही उस दिशा में उसी विशेष जगह और उसके आस पास निरंतर दुर्घटनाओं का एक सिलसिला शुरू हो गया... नावें डूबने लगीं... लोग मरने लगे... कई के शव मिलते तो कई के नहीं... उस हादसे वाले दिन के बाद अगले लगातार दो महीने में पचास से ज़्यादा लोगों की या तो मृत्यु हो गई... या फ़िर... गायब ही हो गए... जो गायब हो गए.. उनका कभी कुछ पता नहीं चला..”



नाव अब तक किनारे पर लग चुकी थी; इसलिए अपनी बात को अधूरी छोड़ते हुए दुर्गा उठ गई... दुर्गा और सुचित्रा के साथ साथ नाव में जितने लोग सवार थे वे सब भी उतर गए.. वैसे कुछ खास नहीं थे.. उन दोनों और नाविक को मिला कर कुल सात जन थे नाव पर... चूँकि दोनों काफ़ी धीमे स्वर में बात कर रही थीं इसलिए और कोई उन दोनों के बीच हो रही बातों को सुन नहीं पाया..घर की ओर चलते हुए रास्ते में दुर्गा ने कहा,



“एक और बात है दी; नाव में चाहे एक ही महिला क्यों न हो... नाव उस दिशा से और भी अधिक दूरी बना कर अपने गन्तव्य की ओर जाते हैं... महिलाओं को विशेष रूप से उस दिशा से दूर रखा जाता है.”



सुचित्रा अचरज भरे स्वर में पूछी, “ऐसा क्यों?”



“क्योंकि आज तक जितनी भी महिलाओं की उस दिशा में उस जगह में डूबने से मृत्यु हुई है... उनके शव तो अवश्य मिले हैं... पर जब डॉक्टरी जाँच की गई तो पता चला है कि उस महिला से जी भर कर दरिंदगी की गई है... जम कर शोषण किया गया है उसका... ऐसा समझो की बिना चबाए उस महिला के जिस्म को हर जगह से खा लिया गया है.”



भय से सुचित्रा का चेहरा फक पड़ गया... धीरे से बोली,“तुम्हारा मतलब...र... रेप?”



“हाँ दी.” दुर्गा ने छोटा सा जवाब दिया.



फ़िर पूरे रास्ते चलते हुए दोनों में से किसी ने भी एक दूसरे से कुछ नहीं कहा.



लेकिन इधर दोनों को ही पता नहीं था कि नदी से लेकर किनारे तक और फ़िर किनारे से लेकर उनके घर तक कोई उन्हें लगातार देख रहा था..!
 

The Immortal

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Well iske baare mein thoda aapko bata dun ye ek short story contest hai jisme aap kisi bhi prefix ki short story post kar sakte ho, jo minimum 700 words and maximum 7000 words tak ho sakti hai. Isliye main aapko invitation deta hun ki aap is contest mein apne khayaalon ko shabdon kaa roop dekar isme apni stories daalein jisko poora XForum dekhega, Ye ek bahot accha kadam hoga aapke or aapki stories ke liye kyunki USC ki stories ko poore XForum ke readers read karte hain.. . Isliye hum aapse USC ke liye ek chhoti kahani likhne ka anurodh karte hain.

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Aur haan! Kahani ko sirf ek hi post mein post kiya jaana chahiye. Kyunki ye ek short story contest hai jiska matlab hai ki hum kewal chhoti kahaniyon ki ummeed kar rahe hain. Isliye apni kahani ko kayi post / bhaagon mein post karne ki anumati nahi hai. Agar koi bhi issue ho toh aap kisi bhi staff member ko Message kar sakte hain.


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