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Incest धोबी घाट पर माँ और मैं

Kunal vadhiya

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बात बहुत पुरानी है पर आज आप लोगों के साथ बांटने का मन किया, इसलिये बता रहा हूँ।

हमारा पारिवारिक काम धोबी का था, हम लोग एक छोटे से गाँव में रहते थे और वहाँ गाँव में धोबियों का एक ही घर है इसलिए हम लोगों को ही गाँव के सारे कपड़े साफ करने को मिलते थे।
मेरे परिवार में मैं, मेरी एक बहन और माँ-पिताजी है। गाँव के माहौल में लड़कियों की कम उमर में शादीयाँ हो जाती है। इसलिये जैसे ही मेरी बहन की रजस्वला हुई, उसकी शादी कर दी गई और वो पड़ोस के गाँव में चली गई।

पिछले एक साल से घर में अब मैं, मेरी माँ और बापू के अलावा कोई नहीं बचा था। मेरी उमर मेरी बहन से एक साल कम ही थी, गाँव के स्कूल में ही पढ़ाई-लिखाई चल रही थी। हमारा एक छोटा सा खेत भी था, जिस पर पिताजी काम करते थे और मैंने और माँ ने कपड़े धोने का काम संभाल रखा था।

कुल मिला कर हम बहुत सुखी-संपन्न थे और किसी चीज की दिक्कत नहीं थी। मेरे से पहले कपड़े धोने में, माँ का हाथ मेरी बहन बटाती थी।
मगर अब मैं यह काम करता था हम दोनों माँ-बेटे हफ्ते में दो बार नदी पर जाते थे और धुलाई करते थे।
फिर घर आकर उन कपड़ों की ईस्त्री करके उन्हें गाँव में वापस लौटा कर फिर से पुराने गन्दे कपड़े इकट्ठे कर लेते थे। हर बुधवार और शनिवार को सुबह 9 बजे के समय मैं और माँ एक छोटे से गधे पर, पुराने कपड़े लाद कर नदी की और निकल पड़ते।

हम गाँव के पास बहने वाली नदी में कपड़े ना धोकर गाँव से थोड़ा दूर जाकर सुनसान जगह पर कपड़े धोते थे क्योंकि गाँव के पास वाली
नदी पर साफ पानी भी नहीं मिलता था और डिस्टर्बन्स भी बहुत होता था।

अब मैं जरा अपनी माँ के बारे में बता दूँ। वो 34-35 साल की एक बहुत सुंदर गोरी-चिट्टी औरत है, ज्यादा लंबी तो नहीं परंतु उसकी लंबाई 5’3″ है और मेरी 5’7″ की है।

माँ देखने में बहुत सुंदर है, धोबियों में वैसे भी गोरा रंग और सुंदर होना कोई नई बात नहीं है। माँ के सुंदर होने के कारण गाँव के लोगों की नजर भी उसके ऊपर रहती होगी, ऐसा मैं समझता हूँ।
और शायद इसी कारण से वो कपड़े धोने के लिये सुनसान जगह पर जाना ज्यादा पसंद करती थी।

सबसे आकर्षक उसके मोटे-मोटे चूतड़ और नारियल के जैसे स्तन थे जो ऐसे लगते थे जैसे ब्लाउज़ को फाड़ कर निकल जाएंगे और भाले की तरह से नुकीले थे। उसके चूतड़ भी कम सेक्सी नहीं थे। जब वो चलती थी तो ऐसे मटकते थे कि देखने वाले उसकी हिलती गांड को देख कर हिल जाते थे।

पर उस वक्त मुझे इन बातों का कम ही ज्ञान था।
फिर भी थोड़ा बहुत तो गाँव के लड़कों के साथ रहने के कारण पता चल ही गया था।
और जब भी मैं और माँ कपड़े धोने जाते तो मैं बड़ी खुशी के साथ कपड़े धोने उसके साथ जाता था।

जब माँ कपड़े को नदी के किनारे धोने के लिये बैठती थी, तब वो अपनी साड़ी और पेटिकोट को घुटनों तक ऊपर उठा लेती थी और फिर पीछे एक पत्थर पर बैठ कर आराम से दोनों टांगें फैला कर जैसे औरतें पेशाब करते वक्त करती हैं, कपड़ों को धोती थी।
मैं भी अपनी लुंगी को जांघ तक उठा कर कपड़े धोता रहता था।

इस स्थिति में माँ की गोरी-गोरी टांगें मुझे देखने को मिल जाती थी और उसकी साड़ी भी सिमट कर उसके ब्लाउज़ के बीच में आ जाती थी और उसके मोटे-मोटे चूचों के ब्लाउज़ से दर्शन होते रहते थे। कई बार उसकी साड़ी जांघों के ऊपर तक उठ जाती थी और ऐसे समय, में उसकी गोरी-गोरी, मोटी-मोटी केले के तने जैसी चिकनी जांघों को देख कर मेरा लंड खड़ा हो जाता था।
मेरे मन में कई सवाल उठने लगते, फिर मैं अपना सिर झटक कर काम करने लगता था।

मैं और माँ कपड़ों की सफाई के साथ-साथ तरह-तरह की गाँव भर की बातें भी करते जाते। कई बार हमें उस सुनसान जगह पर ऐसा
कुछ दिख जाता था जिसको देख कर हम दोनों एक दूसरे से बात करते, कपड़े धोने के बाद हम वहीं पर नहाते थे और फिर साथ लाया हुआ खाना खा नदी किनारे सुखाये हुए कपड़े को इकट्ठा करके घर वापस लौट जाते थे।
मैं तो खैर लुंगी पहन कर नदी के अंदर कमर तक पानी में नहाता था, मगर माँ नदी के किनारे ही बैठ कर नहाती थी।

नहाने के लिये माँ सबसे पहले अपनी साड़ी उतारती थी, फिर अपने पेटिकोट के नाड़े को खोल कर पेटिकोट ऊपर को सरका कर अपने दांत से पकड़ लेती थी।
इस तरीके से उसकी पीठ तो दिखती थी मगर आगे से ब्लाउज़ पूरा ढक जाता था। फिर वो पेटिकोट को दांत से पकड़े हुए ही अंदर हाथ
डाल कर अपने ब्लाउज़ को खोल कर उतारती थी और फिर पेटिकोट को छाती के ऊपर बांध देती थी, जिससे उसके चूचे पूरी तरह से पेटिकोट से ढक जाते थे, कुछ भी नजर नहीं आता था और घुटनों तक पूरा बदन ढक जाता था।
फिर वो वहीं पर नदी के किनारे बैठ कर एक बड़े से जग से पानी भर-भर के पहले अपने पूरे बदन को रगड़-रगड़ कर साफ करती थी और साबुन लगाती थी, फिर नदी में उतर कर नहाती थी।

माँ की देखा-देखी मैंने भी पहले नदी के किनारे बैठ कर अपने बदन को साफ करना शुरु कर दिया, फिर मैं नदी में डुबकी लगा कर नहाने लगा। मैं जब साबुन लगाता तो अपने हाथों को अपनी लुंगी में घुसा कर पूरे लंड और गांड पर चारो तरफ घुमा घुमा के साबुन लगा के सफाई करता था क्योंकि मैं भी माँ की तरह बहुत सफाई पसंद था।
जब मैं ऐसा कर रहा होता तो मैंने कई बार देखा कि माँ बड़ी गौर से मुझे देखती रहती थी और अपने पैर की एड़ियाँ पत्थर पर धीरे-धीरे
रगड़ कर साफ करती होती।


मैं सोचता था, वो शायद इसलिये देखती है कि मैं ठीक से सफाई करता हूँ या नहीं। इसलिये मैं भी बड़े आराम से खूब दिखा दिखा कर साबुन लगाता था कि कहीं डांट ना सुनने को मिल जाये कि ठीक से साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखता हूँ मैं।
मैं अपनी लुंगी के भीतर पूरा हाथ डाल कर अपने लौड़े को अच्छे तरीके से साफ करता था। इस काम में मैंने गौर किया कि कई बार
मेरी लुंगी भी इधर-उधर हो जाती थी जिससे माँ को मेरे लंड की एक-आध झलक भी दिख जाती थी।

जब पहली बार ऐसा हुआ तो मुझे लगा कि शायद माँ डांटेगी मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। तब मैं निश्चिंत हो गया और मजे से अपना पूरा ध्यान साफ सफाई पर लगाने लगा।
माँ की सुंदरता देख कर मेरा भी मन कई बार ललचा जाता था और मैं भी चाहता था कि मैं उसे सफाई करते हुए देखूँ पर वो ज्यादा कुछ देखने नहीं देती थी और घुटनों तक की सफाई करती थी और फिर बड़ी सावधानी से अपने हाथों को अपने पेटिकोट के अंदर ले जा कर अपनी छाती की सफाई करती।

जैसे ही मैं उसकी ओर देखता तो वो अपना हाथ छाती में से निकाल कर अपने हाथों की सफाई में जुट जाती थी।
इसलिये मैं कुछ नहीं देख पाता था और चूँकि वो घुटनों को मोड़ कर अपनी छाती से सटाये हुए होती थी इसलिये पेटिकोट के ऊपर से
छाती की झलक मिलनी चाहिए, वो भी नहीं मिल पाती थी।

इसी तरह जब वो अपने पेटिकोट के अंदर हाथ घुसा कर अपनी जांघों और उसके बीच की सफाई करती थी, यह ध्यान रखती कि मैं उसे देख रहा हूँ या नहीं।
जैसे ही मैं उसकी ओर घूमता, वो झट से अपना हाथ निकाल लेती थी और अपने बदन पर पानी डालने लगती थी।
मैं मन-मसोस के रह जाता था।

एक दिन सफाई करते-करते माँ का ध्यान शायद मेरी तरफ से हट गया था और बड़े आराम से अपने पेटिकोट को अपने जांघों तक
उठा कर सफाई कर रही थी।
उसकी गोरी, चिकनी जांघों को देख कर मेरा लंड खड़ा होने लगा और मैं, जो कि उस वक्त अपनी लुंगी को ढीला करके अपने हाथों को लुंगी के अंदर डाल कर अपने लंड की सफाई कर रहा था, धीरे-धीरे अपने लंड को मसलने लगा।
तभी अचानक माँ की नजर मेरे ऊपर गई और उसने अपना हाथ निकाल लिया और अपने बदन पर पानी डालती हुई बोली- क्या कर रहा है? जल्दी से नहा के काम खत्म कर!


मेरे तो होश ही उड़ गये और मैं जल्दी से नदी में जाने के लिये उठ कर खड़ा हो गया, पर मुझे इस बात का तो ध्यान ही नहीं रहा
कि मेरी लुंगी तो खुली हुई है और मेरी लुंगी सरसराते हुए नीचे गिर गई। मेरा पूरा बदन नंगा हो गया और मेरा 8 ईंच का लंड जो पूरी तरह से खड़ा था, धूप की रोशनी में नजर आने लगा।
मैंने देखा कि माँ एक पल के लिये चकित होकर मेरे पूरे बदन और नंगे लंड की ओर देखती रह गई।

मैंने जल्दी से अपनी लुंगी उठाइ और चुपचाप पानी में घुस गया।
मुझे बड़ा डर लग रहा था कि अब क्या होगा, अब तो पक्की डांट पड़ेगी।
मैंने कनखियों से माँ की ओर देखा तो पाया कि वो अपने सिर को नीचे किये हल्के-हल्के मुस्कुरा रही है और अपने पैरों पर अपने हाथ चला कर सफाई कर रही है।
मैंने राहत की सांस ली और चुप-चाप नहाने लगा।

उस दिन हम ज्यादातर चुप-चाप ही रहे। घर वापस लौटते वक्त भी माँ ज्यादा नहीं बोली।
दूसरे दिन से मैंने देखा की माँ, मेरे साथ कुछ ज्यादा ही खुल कर हंसी मजाक करती रहती थी, और हमारे बीच दोहरे अर्थो में भी बातें होने लगी थी।
पता नहीं माँ को पता था या नहीं पर मुझे बड़ा मजा आ रहा था।

मैं जब भी किसी के घर से कपड़े लेकर वापस लौटता तो माँ बोलती- क्यों, रधिया के कपड़े भी लाया है धोने के लिये क्या?
तो मैं बोलता- हां!
इस पर वो बोलती- ठीक है, तू धोना उसके कपड़े… बड़ा गन्दा करती है। उसकी सलवार तो मुझसे धोई नहीं जाती।
फिर पूछती थी- अंदर के कपड़े भी धोने के लिये दिये हैं क्या?
अंदर के कपड़ों से उसका मतलब पेन्टी और ब्रा या फिर अंगिया से होता था, मैं कहता- नहीं!
तो इस पर हंसने लगती और कहती- ती लड़का है ना, शायद इसलिये तुझे नहीं दिये होंगे, देख अगली बार जब मैं माँगने जाऊँगी तो जरूर देगी।

फिर अगली बार जब वो कपड़े लाने जाती तो सच-मुच में वो उसकी पेन्टी और अंगिया ले के आती थी और बोलती- देख, मैं ना कहती थी कि वो तुझे नहीं देगी और मुझे दे देगी, तू लड़का है ना, तेरे को देने में शरमाती होगी, फिर तू तो अब जवान भी हो गया है।

मैं अन्जान बना पूछता कि क्या देने में शरमाती है रधिया?
तो मुझे उसकी पेन्टी और ब्रा या अंगिया फैला कर दिखाती और मुस्कुराते हुए बोलती- ले, खुद ही देख ले।
इस पर मैं शरमा जाता और कनखियों से देख कर मुंह घुमा लेता तो, वो बोलती- अरे, शरमाता क्यों है? ये भी तेरे को ही धोने पड़ेंगे। कह कर हंसने लगती।

हालांकि, सच में ऐसा कुछ नहीं होता और ज्यादातर मर्दों के कपड़े मैं और औरतों के माँ ही धोया करती थी। क्योंकि उसमें ज्यादा मेहनत लगती थी।

पर पता नहीं क्यों माँ अब कुछ दिनों से इस तरह की बातों में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगी थी। मैं भी चुपचाप उसकी बातें सुनता रहता और मजे से जवाब देता रहता था।

जब हम नदी पर कपड़े धोने जाते तब भी मैं देखता था कि माँ अब पहले से थोड़ी ज्यादा खुले तौर पर पेश आती थी। पहले वो मेरी तरफ पीठ करके अपने ब्लाउज़ को खोलती थी और पेटिकोट को अपनी छाती पर बांधने के बाद ही मेरी तरफ घूमती थी। पर अब वो इस पर ध्यान नहीं देती और मेरी तरफ घूम कर अपने ब्लाउज़ को खोलती और मेरे ही सामने बैठ कर मेरे साथ ही नहाने लगती।
जबकि पहले वो मेरे नहाने तक इन्तजार करती थी और जब मैं थोड़ा दूर जाकर बैठ जाता, तब पूरा नहाती थी।

मेरे नहाते वक्त उसका मुझे घूरना बदस्तूर जारी था। मुझ में भी अब हिम्मत आ गई थी और मैं भी जब वो अपनी छातियों की सफाई कर रही होती तो उसे घूर कर देखता रहता।
माँ भी मजे से अपने पेटिकोट को जांघों तक उठा कर एक पत्थर पर बैठ जाती और साबुन लगाती, और ऐसे दिखावा करती जैसे मुझे देख ही नहीं रही है।

उसके दोनों घुटने मुड़े हुए होते थे और एक पैर थोड़ा पहले आगे पसारती और उस पर पूरा जांघों तक साबुन लगाती थी, फिर पहले पैर को मोड़ कर दूसरे पैर को फैला कर साबुन लगाती। पूरा अंदर तक साबुन लगाने के लिये वो अपने घुटने मोड़े रखती और अपने बांये हाथ से अपने पेटिकोट को थोड़ा उठा के, या अलग कर के दाहिने हाथ को अंदर डाल के साबुन लगाती।

मैं चूंकि थोड़ी दूर उसके बगल में बैठा होता, इसलिये मुझे पेटिकोट के अंदर का नजारा तो नहीं मिलता था। जिसके कारण से मैं मन मसोस के रह जाता था कि काश मैं सामने होता।
पर इतने में ही मुझे गजब का मजा आ जाता था, उसकी नंगी, चिकनी चिकनी जांघें ऊपर तक दिख जाती थी।

माँ अपने हाथ से साबुन लगाने के बाद बड़े मग को उठा के उसका पानी सीधे अपने पेटिकोट के अंदर डाल देती और दूसरे हाथ से साथ ही साथ रगड़ती भी रहती थी।
यह इतना जबरदस्त नज़ारा होता था कि मेरा तो लंड खड़ा होकर फुफकारने लगता और मैं वहीं नहाते-नहाते अपने लंड को मसलने लगता।

जब मेरे से बरदाश्त नहीं होता तो मैं सीधा नदी में कमर तक पानी में उतर जाता और पानी के अंदर हाथ से अपने लंड को पकड़ कर खड़ा हो जाता और माँ की तरफ घूम जाता।
जब वो मुझे पानी में इस तरह से उसकी तरफ घूम कर नहाते देखती तो मुस्कुरा के मेरी तरफ देखती हुई बोलती- ज्यादा दूर मत जाना, किनारे पर ही नहा ले, आगे पानी बहुत गहरा है।

मैं कुछ नहीं बोलता और अपने हाथों से अपने लंड को मसलते हुए नहाने का दिखावा करता रहता।

इधर माँ मेरी तरफ देखती हुई अपने हाथों को ऊपर उठा-उठा के अपनी कांख की सफाई करती, कभी अपने हाथों को अपने पेटिकोट में घुसा कर छाती को साफ करती, कभी जांघों के बीच हाथ घुसा के खूब तेजी से हाथ चलाने लगती… दूर से कोई देखे तो ऐसा लगेगा कि मुठ मार रही है, और शायद मारती भी होगी।

कभी कभी वो भी खड़ी होकर नदी में उतर जाती और ऐसे में उसका पेटिकोट, जो उसके बदन से चिपका हुआ होता था, गीला होने के कारण मेरी हालत और ज्यादा खराब कर देता था।

पेटिकोट चिपकने के कारण उसकी बड़ी-बड़ी चूचियाँ नुमाया हो जाती थी। कपड़े के ऊपर से उसके बड़े-बड़े, मोटे-मोटे निप्पल तक दीखने लगते थे।
पेटिकोट उसके चूतड़ों से चिपक कर उसकी गांड की दरार में फंसा हुआ होता था और उसके बड़े-बड़े चूतड़ साफ-साफ दिखाई देते रहते थे।

वो भी कमर तक पानी में मेरे ठीक सामने आकर खड़ी होकर डुबकी लगाने लगती और मुझे अपने चूचियों का नजारा करवाती जाती।
मैं तो वहीं नदी में ही लंड मसल के मुठ मार लेता था, हालांकि मुठ मारना मेरी आदत नहीं थी।

घर पर मैं यह काम कभी नहीं करता था, पर जब से माँ के स्वभाव में परिवर्तन आया था, नदी पर मेरी हालत ऐसी हो जाती थी कि मैं मजबूर हो जाता था।
अब तो घर पर मैं जब भी इस्तरी करने बैठता, तो मुझे बोलती- देख, ध्यान से इस्तरी करियो। पिछली बार श्यामा बोल रही थी कि उसके ब्लाउज़ ठीक से इस्तरी नहीं थे।

मैं भी बोल पड़ता- ठीक है, कर दूँगा। इतना छोटा-सा ब्लाउज़ तो पहनती है, ढंग से इस्तरी भी नहीं हो पाती। पता नहीं कैसे काम चलाती है, इतने छोटे से ब्लाउज़ में?
 
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बहुत बढ़िया कहानी है। लेकिन है बहुत पुरानी ।
 
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Kunal vadhiya

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घर पर मैं जब भी इस्तरी करने बैठता, तो मुझे बोलती- देख, ध्यान से इस्तरी करियो। पिछली बार श्यामा बोल रही थी कि उसके ब्लाउज़ ठीक से इस्तरी नहीं थे।

मैं भी बोल पड़ता- ठीक है, कर दूँगा। इतना छोटा-सा ब्लाउज़ तो पहनती है, ढंग से इस्तरी भी नहीं हो पाती। पता नहीं कैसे काम चलाती है, इतने छोटे से ब्लाउज़ में?

तो माँ बोलती- अरे, उसकी छातियाँ ज्यादा बड़ी थोड़े ही हैं, जो वो बड़ा ब्लाउज़ पहनेगी, हाँ उसकी सास के ब्लाउज़ बहुत बड़े-बड़े हैं।
बुढ़िया की छाती पहाड़ जैसी है।
कह कर माँ हंसने लगती।
फिर मेरे से बोलती- तू सबके ब्लाउज़ की लंबाई-चौड़ाई देखता रहता है क्या? या फिर इस्तरी करता है?

मैं क्या बोलता, चुपचाप सिर झुका कर इस्तरी करते हुए धीरे से बोलता- अरे, देखता कौन है, नजर चली जाती है बस।
इस्तरी करते-करते मेरा पूरा बदन पसीने से नहा जाता था। मैं केवल लुंगी पहने इस्तरी कर रहा होता था, माँ मुझे पसीने से नहाये हुए देख कर बोलती- छोड़ अब तू कुछ आराम कर ले, तब तक मैं इस्तरी करती हूँ।

माँ यह काम करने लगती।
थोड़ी ही देर में उसके माथे से भी पसीना चूने लगता और वो अपनी साड़ी खोल कर एक ओर फेंक देती और बोलती- बड़ी गरमी है रे, पता नहीं तू कैसे कर लेता है, इतने कपड़ों की इस्तरी? मेरे से तो यह गरमी बरदाश्त नहीं होती।

इस पर मैं वहीं पास बैठा उसके नंगे पेट, गहरी नाभि और मोटे चूचों को देखता हुआ बोलता- ठंडी कर दूँ तुझे?
‘कैसे करेगा ठंडी?’
‘डण्डे वाले पंखे से… मैं तुझे पंखा झाल देता हूँ, फेन चलाने पर तो इस्तरी ही ठंडी पड़ जायेगी।’
‘रहने दे, तेरे डण्डे वाले पंखे से भी कुछ नहीं होगा, छोटा-सा तो पंखा है तेरा।’

कह कर अपने हाथ ऊपर उठा कर, माथे पर छलक आये पसीने को पोंछती तो मैं देखता कि उसकी कांख पसीने से पूरी भीग गई है, और उसकी गरदन से बहता हुआ पसीना उसके ब्लाउज़ के अंदर, उसकी दोनों चूचियों के बीच की घाटी में जाकर उसके ब्लाउज़ को
भीगा रहा होता।
घर के अंदर, वैसे भी वो ब्रा तो कभी पहनती नहीं थी, इस कारण से उसके पतले ब्लाउज़ को पसीना पूरी तरह से भीगा देता था और उसकी चूचियां उसके ब्लाउज़ के ऊपर से नजर आती थी।

कई बार जब वो हल्के रंग का ब्लाउज़ पहनी होती तो उसके मोटे- मोटे भूरे रंग के निप्पल नजर आने लगते। यह देख कर मेरा लंड खड़ा होने लगता था।
कभी-कभी वो इस्तरी को एक तरफ रख कर अपने पेटिकोट को उठा कर पसीना पोंछने के लिये अपने सिर तक ले जाती और मैं ऐसे ही मौके के इन्तजार में बैठा रहता था क्योंकि इस वक्त उसकी आंखें तो पेटिकोट से ढक जाती थी, पर पेटिकोट ऊपर उठने के कारण उसकी टांगें पूरी जांघ तक नंगी हो जाती थी और मैं बिना अपनी नजरों को चुराये उसकी गोरी- चिट्टी, मखमली जांघों को तो जी भर के देखता था।

माँ अपने चेहरे का पसीना अपनी आंखें बन्द करके पूरे आराम से पोंछती थी और मुझे उसके मोटे कदली के खम्भे जैसी जांघों का पूरा नजारा दिखाती थी।
गाँव में औरतें साधारणतया पेन्टी नहीं पहनती हैं, कई बार ऐसा हुआ कि मुझे उसके झांटों की हल्की सी झलक देखने को मिल जाती। जब वो पसीना पोंछ के अपना पेटिकोट नीचे करती, तब तक मेरा काम हो चुका होता और मेरे से बरदाश्त करना संभव नहीं हो पाता, मैं
जल्दी से घर के पिछवाड़े की तरफ भाग जाता, अपने लंड के खड़ेपन को थोड़ा ठंडा करने के लिये।
जब मेरा लंड डाउन हो जाता, तब मैं वापस आ जाता।

माँ पूछती- कहाँ गया था?
तो मैं बोलता- थोड़ी ठंडी हवा खाने… बड़ी गरमी लग रही थी।
‘ठीक किया, बदन को हवा लगाते रहना चाहिये, फिर तू तो अभी बड़ा हो रहा है, तुझे और ज्यादा गरमी लगती होगी।’
‘हाँ, तुझे भी तो गरमी लग रही होगी माँ? जा तू भी बाहर घूम कर आ जा। थोड़ी गरमी शांत हो जायेगी।’
और उसके हाथ से इस्तरी ले लेता।

पर वो बाहर नहीं जाती और वहीं पर एक तरफ मूढे पर बैठ जाती, अपने पैर घुटनों के पास से मोड़ कर और अपने पेटिकोट को घुटनों तक उठा कर बीच में समेट लेती। माँ जब भी इस तरीके से बैठती थी तो मेरा इस्तरी करना मुश्किल हो जाता था।
उसके इस तरह बैठने से उसकी घुटनों से ऊपर तक की जांघें और दीखने लगती थी।

‘अरे नहीं रे, रहने दे मेरी तो आदत हो गई है गरमी बरदाश्त करने की।’
‘क्यों बरदाश्त करती है? गरमी दिमाग पर चढ़ जायेगी, जा बाहर घूम के आ जा। ठीक हो जायेगा।’
‘जाने दे, तू अपना काम कर, यह गरमी ऐसे नहीं शान्त होने वाली। तेरा बापू अगर समझदार होता तो गरमी लगती ही नहीं, पर उसे क्या, वो तो कहीं देसी पी के सोया पड़ा होगा। शाम होने को आई मगर अभी तक नहीं आया।’

‘अरे, तो इस में बापू की क्या गलती है? मौसम ही गरमी का है, गरमी तो लगेगी ही।’
‘अब मैं तुझे कैसे समझाऊँ कि उसकी क्या गलती है? काश तू थोड़ा समझदार होता।’
कह कर माँ उठ कर खाना बनाने चल देती।

मैं भी सोच में पड़ा हुआ रह जाता कि आखिर माँ चाहती क्या है?
रात में जब खाना खाने का वक्त होता तो मैं नहा-धोकर रसोई में आ जाता खाना खाने के लिये। माँ भी वहीं बैठ के मुझे गरम-गरम रोटियां सेक देती और हम खाते रहते।
इस समय भी वो पेटिकोट और ब्लाउज़ में ही होती थी क्योंकि रसोई में गरमी होती थी और उसने एक छोटा-सा पल्लू अपने कंधों पर डाल रखा होता, उसी से अपने माथे का पसीना पोंछती रहती और खाना खिलाती जाती थी मुझे।

हम दोनों साथ में बातें भी कर रहे होते।
मैं मजाक करते हुए बोलता- सच में माँ, तुम तो गरम स्त्री हो।
वो पहले तो कुछ समझ नहीं पाती, फिर जब उसकी समझ में आता कि मैं आयरन-इस्तरी न कह के, उसे स्त्री कह रहा हूँ तो वो हंसने
लगती और कहती- हाँ, मैं गर्म इस्तरी हूँ।
और अपना चेहरा आगे करके बोलती- देख कितना पसीना आ रहा है, मेरी गरमी दूर कर दे।
‘मैं तुझे एक बात बोलूँ, तू गरम चीज मत खाया कर, ठंडी चीजें खाया कर।’
‘अच्छा, कौन सी ठंडी चीजें मैं खाऊँ कि मेरी गरमी दूर हो जायेगी?’
‘केले और बैंगन की सब्जियाँ खाया कर।’

इस पर माँ का चेहरा लाल हो जाता था और वो सिर झुका लेती और धीरे से बोलती- अरे केले और बैंगन की सब्जी तो मुझे भी अच्छी
लगती है, पर कोई लाने वाला भी तो हो, तेरा बापू तो ये सब्जियाँ लाने से रहा, ना तो उसे केले पसंद हैं, ना ही उसे बैंगन।
‘तू फिकर मत कर, मैं ला दूँगा तेरे लिये।’
‘हाय, बड़ा अच्छा बेटा है, माँ का कितना ध्यान रखता है।’
मैं खाना खत्म करते हुए बोलता- चल, अब खाना तो हो गया खत्म, तू भी जा के नहा ले और खाना खा ले।
‘अरे नहीं, अभी तो तेरा बापू देशी चढ़ा कर आता होगा। उसको खिला दूँगी, तब खाऊँगी, तब तक नहा लूँ… तू जा और जाकर सो जा, कल नदी पर भी जाना है।’

मुझे भी ध्यान आ गया कि हाँ, कल तो नदी पर भी जाना है। मैं छत पर चला गया। गरमियों में हम तीनों लोग छत पर ही सोया करते थे। ठंडी ठंडी हवा बह रही थी, मैं बिस्तर पर लेट गया और अपने हाथों से लंड मसलते हुए माँ के खूबसूरत बदन के ख्यालों में खोया हुआ सपने देखने लगा और कल कैसे उसके बदन को ज्यादा से ज्यादा निहारुँगा, यह सोचता हुआ कब सो गया, मुझे पता ही
नहीं लगा।
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Thanks
Aakash...?
 
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Kunal vadhiya

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सुबह की पहली किरण के साथ जब मेरी नींद खुली तो देखा कि एक तरफ बापू अभी भी लुढ़का हुआ है और माँ शायद पहले ही उठ कर जा चुकी थी।
मैं भी जल्दी से नीचे पहुँचा तो देखा कि माँ बाथरुम से आकर हेन्डपम्प पर अपने हाथ-पैर धो रही थी, मुझे देखते ही बोली- चल जल्दी से तैयार हो जा, मैं खाना बना लेती हूँ, फिर जल्दी से नदी पर निकल जायेंगे, तेरे बापू को भी आज शहर जाना है बीज लाने, मैं उसको भी उठा देती हूँ।

थोड़ी देर में जब मैं वापस आया तो देखा कि बापू भी उठ चुका था और वो बाथरूम जाने की तैयारी में था। मैं भी अपने काम में लग
गया और सारे कपड़ों के गट्ठर बना के तैयार कर दिया।
थोड़ी देर में हम सब लोग तैयार हो गये, घर को ताला लगाने के बाद बापू बस पकड़ने के लिये चल दिया और हम दोनों नदी की ओर!
मैंने माँ से पूछा- बापू कब तक आएँगे?
तो वो बोली- क्या पता, कब आयेगा? मुझे तो बोला है कि कल आ जाऊँगा, पर कोई भरोसा है तेरे बापू का? चार दिन भी लगा देगा।

हम लोग नदी पर पहुंच गये और फिर अपने काम में लग गये, कपड़ों की सफाई के बाद मैंने उन्हें एक तरफ सूखने के लिये डाल दिये
और फिर हम दोनों ने नहाने की तैयारी शुरु कर दी।
माँ ने भी अपनी साड़ी उतार कर पहले उसको धोया फिर हर बार की तरह अपने पेटिकोट को ऊपर चढ़ा कर अपना ब्लाउज़ निकाला, फिर उसको धोया और फिर अपने बदन को रगड़ रगड़ कर नहाने लगी।

मैं भी बगल में बैठा उसको निहारते हुए नहाता रहा।
बेख्याली में एक दो बार तो मेरी लुंगी भी मेरे बदन पर से हट गई थी पर अब तो ये बहुत बार हो चुका था इसलिये मैंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
हर बार की तरह माँ ने भी अपने हाथों को पेटिकोट के अन्दर डाल कर खूब रगड़ रगड़ कर नहाना चालू रखा।
थोड़ी देर बाद मैं नदी में उतर गया।
माँ ने भी नदी में उतर के एक दो डुबकियां लगाई और फिर हम दोनों बाहर आ गये।
मैंने अपने कपड़े बदल लिये और पजामा और कुर्ता पहन लिया।
माँ ने भी पहले अपने बदन को तौलिये से सुखाया, फिर अपने पेटिकोट के इजारबंध को जिसको वो छाती पर बांध कर रखती थी, पर से खोल लिया और अपने दांतों से पेटिकोट को पकड़ लिया, यह उसका हमेशा का काम था, मैं उसको पत्थर पर बैठ कर एक-टक देखे जा रहा था।
इस प्रकार उसके दोनों हाथ फ्री हो गये थे।

अब सूखे ब्लाउज़ को पहनने के लिये पहले उसने अपना बांया हाथ उसमें घुसाया, फिर जैसे ही वो अपना दाहिना हाथ ब्लाउज़ में घुसाने जा रही थी कि पता नहीं क्या हुआ, उसके दांतों से उसका पेटिकोट छुट गया और सीधे सरसराते हुए नीचे गिर गया।और उसका पूरा का पूरा नंगा बदन एक पल के लिये मेरी आंखों के सामने दिखने लगा।
उसकी बड़ी-बड़ी चूचियाँ जिन्हे मैंने अब तक कपड़ों के ऊपर से ही देखा था, उसके भारी भारी चूतड़ उसकी मोटी-मोटी जांघें और झांट के बाल सब एक पल के लिये मेरी आंखों के सामने नंगे हो गये।

पेटिकोट के नीचे गिरते ही उसके साथ ही माँ भी हय करते हुई तेजी के साथ नीचे बैठ गई। मैं आंखें फाड़-फाड़ के देखते हुए गूंगे की तरह वहीं पर खड़ा रह गया।
माँ नीचे बैठ कर अपने पेटिकोट को फिर से समेटती हुई बोली- ध्यान ही नहीं रहा। मैं तुझे कुछ बोलना चाहती थी और यह पेटिकोट दांतों से छुट गया।
मैं कुछ नहीं बोला।

माँ फिर से खड़ी हो गई और अपने ब्लाउज़ को पहनने लगी। फिर उसने अपने पेटिकोट को नीचे किया और बांध लिया, फिर साड़ी पहन कर वो वहीं बैठ के अपने भीगे पेटिकोट को धो करके तैयार हो गई।
फिर हम दोनों खाना खाने लगे, खाना खाने के बाद हम वहीं पेड़ की छांव में बैठ कर आराम करने लगे।

जगह सुनसान थी, ठंडी हवा बह रही थी, मैं पेड़ के नीचे लेटे हुए माँ की तरफ घूमा तो वो भी मेरी तरफ घूमी।
इस वक्त उसके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट पसरी हुई थी।
मैंने पूछा- माँ, क्यों हंस रही हो?
तो वो बोली- मैं कहाँ हंस रही हूँ?
‘झूठ मत बोलो, तुम मुस्कुरा रही हो।’
‘क्या करूँ? अब हंसने पर भी कोई रोक है क्या?’
‘नहीं, मैं तो ऐसे ही पूछ रहा था। नहीं बताना है तो मत बताओ।’
‘अरे, इतनी अच्छी ठंडी हवा बह रही है, चेहरे पर तो मुस्कान आयेगी ही।’

‘हाँ, आज गरम स्त्री (औरत) की सारी गरमी जो निकल जायेगी।’
‘क्या मतलब, इस्तरी (आयरन) की गरमी कैसे निकल जायेगी? यहाँ पर तो कहीं इस्तरी नहीं है।’
‘अरे माँ, तुम भी तो स्त्री (औरत) हो, मेरा मतलब इस्तरी माने औरत से था।’
‘चल हट बदमाश, बड़ा शैतान हो गया है। मुझे क्या पता था कि तू इस्तरी माने औरत की बात कर रहा है?’

‘चलो, अब पता चल गया ना?’
‘हाँ, चल गया। पर सच में यहाँ पेड़ की छांव में कितना अच्छा लग रहा है। ठंडी-ठंडी हवा चल रही है और आज तो मैं पूरी हवा खा ही
चुकी हूँ।’ माँ बोली।
‘पूरी हवा खा चुकी है, वो कैसे?’
‘मैं पूरी नन्गी जो हो गई थी।’

फिर बोली- हाय, तुझे मुझे ऐसे नहीं देखना चाहिए था?
‘क्यों नहीं देखना चाहिए था?
‘अरे बेवकूफ, इतना भी नहीं समझता, एक माँ को उसके बेटे के सामने नंगा नहीं होना चाहिए था।’
‘कहाँ नंगी हुई थी, तुम? बस एक सेकन्ड के लिये तो तुम्हारा पेटिकोट नीचे गिर गया था।’
हालांकि, वही एक सेकन्ड मुझे एक घन्टे के बराबर लग रहा था।

‘हाँ, फिर भी मुझे नंगी नहीं होना चाहिए था। कोई जानेगा तो क्या कहेगा कि मैं अपने बेटे के सामने नन्गी हो गई थी।’
‘कौन जानेगा? यहाँ पर तो कोई था भी नहीं। तू बेकार में क्यों परेशान हो रही है?’
‘अरे नहीं, फिर भी कोई जान गया तो।’
फिर कुछ सोचती हुई बोली- अगर कोई नहीं जानेगा तो क्या तू मुझे नंगी देखेगा?

मैं और माँ दोनों एक दूसरे के आमने-सामने एक सूखी चादर पर सुनसान जगह पर पेड़ के नीचे एक दूसरे की ओर मुंह करके लेटे हुए थे और माँ की साड़ी उसके छाती पर से ढलक गई थी।
माँ के मुंह से यह बात सुन कर मैं खामोश रह गया और मेरी सांसें तेज चलने लगी।
माँ ने मेरी ओर देखते हुए पूछा- क्या हुआ?
मैंने कोई जवाब नहीं दिया और हल्के से मुस्कुराते हुए उसकी छातियों की तरफ देखने लगा जो उसकी तेज चलती सांसों के साथ ऊपर नीचे हो रही थी।

वो मेरी तरफ देखते हुए बोली- क्या हुआ? मेरी बात का जवाब दे ना। अगर कोई जानेगा नहीं तो क्या तू मुझे नंगी देख लेगा?

इस पर मेरे मुंह से कुछ नहीं निकला और मैंने अपना सिर नीचे कर लिया, माँ ने मेरी ठुड्डी पकड़ कर ऊपर उठाते हुए मेरी आँखों
में झांकते हुए पूछा- क्या हुआ रे? बोल ना, क्या तू मुझे नंगी देख लेगा, जैसे तूने आज देखा है?
मैंने कहा- हाय माँ, मैं क्या बोलूँ?
मेरा तो गला सूख रहा था, माँ ने मेरे हाथ को अपने हाथों में ले लिया और कहा- इसका मतलब तू मुझे नंगी नहीं देख सकता, है ना?

मेरे मुंह से निकल गया- हाय माँ, छोड़ो ना!
मैं हकलाते हुए बोला- नहीं माँ, ऐसा नहीं है।
‘तो फिर क्या है? तू अपनी माँ को नंगी देख लेगा क्या?’
‘हाय, मैं क्या कर सकता था? वो तो तुम्हारा पेटिकोट नीचे गिर गया, तब मुझे नंगा दिख गया। नहीं तो मैं कैसे देख पाता?’

‘वो तो मैं समझ गई, पर उस वक्त तुझे देख कर मुझे ऐसा लगा, जैसे कि तू मुझे घूर रहा है… इसलिये पूछा।’
‘हाय माँ, ऐसा नहीं है। मैंने तुम्हें बताया ना, तुम्हें बस ऐसा लगा होगा।’
‘इसका मतलब तुझे अच्छा नहीं लगा था ना?’
‘हाय माँ, छोड़ो…’ मैं हाथ छुड़ाते हुए अपने चेहरे को छुपाते हुए बोला।

माँ ने मेरा हाथ नहीं छोड़ा और बोली- सच सच बोल, शरमाता क्यों है?
मेरे मुंह से निकल गया- हाँ, अच्छा लगा था।

कहानी जारी रहेगी।.......
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Thanks
Aakash...?
 
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