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अध्याय ३(भाग -१)
पाँकेटमनी
अभिमन्यु- “क्या है मोम, मै सो रहा हुँ यार…” अभिमन्यु नींद मे कसमसाते हुए बोला, वाकई वह बहुत गहरी नींद में था। वैशाली- “यार के बच्चे, दरवाजा खोलो। मुझे तुमसे बात करनी है…” जवाब में वैशाली चिल्लाकर बोली और अपनी उसी चिल्लाहट की आड़ मे हल्के हाथों से दरवाज का नाब घुमा देती ह।
अभिमन्यु- “बाद में मम्मी, बाद में…” अभिमन्यु पुनः कसमसाया। वैशाली- “मैने कहा ना मुझे तुमसे बात करनी है। अभी, इसी वक्त खोलो दरवाजा…” वैशाली ने सहसा क्रोधित होने का नाटक किया और जिसके असर से अभिमन्यु तुंरत ही उठकर बैठ गया। अभीमन्यु- “खोलता हुँ, खोलता हूँ…” एक लबी जम्हाई लेते हुए वह बिस्तर से नीच उतरकर अपने-टेढ़े कदमों से दरवाजे के समीप आने लगा। तभी वैशाली भी फर्श से उठकर खड़ी हो जाती है।
अभिमन्यु- “दरवाजा शायद बाहर से लाक है माू्ँ…” वह दरवाजा खीचने का प्रयास करते हुए बोला। वैशाली- “मैंने ही लाक किया था बाहर से…” वैशाली जवाब में बोली। अभिमन्यु- “क्यों? फिर क्यों नींद खराब की मेरी, जब दरवाजा खोलना ही नहीं था?” फौरन अभिमन्यु ने चिढ़ते हुए पूछा। वैशाली- “भाई तुम्हारा क्या भरोसा, अंदर किस हाल में हो? कपड़े तो पहने है ना तुमने या फिर नंगे हो?” वैशाली ने अपनी रोके ना रुकने वाली हंसी को काबू मे करने की कोशिश करते हुए पूछा।
यकीनन अब ठरक उसके सिर चढ़कर बोल रही थी। “नंगा…” अपनी माँ के इस अजीब से प्रश्न पर अभिमन्यु जैसे चौंक सा जाता है, उसके हैरत से खुल चुके मुँह से मात्र इतना ही बाहर आ सका। वैशाली- “अरे दिन मे तुम कुछ नग्नता वग्नता की बात कर रहे थे ना, तो मुझे लगा कि तुम कही… …” वैशाली ने अपने कथन को अधूरा छोड़ते हुए कहा। वैशाली- “खोलू दरवाजा? सच में नंगे नहीं हो ना?” उसने पिछले कथन में जोड़ा और बेटे के जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर ही झटके से दरवाजा खोल देती है।
वैशाली- “हाय… अपनी मा की कच्छी का यह क्या हाल कर दिया तुमने? पापी…” दरवाजा खुलते ही वैशाली की नजर सर्वप्रथम नीचे फर्श पर पडी अपनी कच्छी पर गई तो उसने तत्काल अपने मुँह पर हाथ रखकर आश्चर्य से भरने का नाटक करते हुए पूछा।
वह जानबूझ कर ‘पैंटी’ की जगह पूरे देशी शब्द ‘कच्छी’ का इश्तेमाल करती है और साथ ही उसने कच्छी शब्द के संग ‘माँ शब्द को भी जानकर जोड़ा था।
कुछ नीद की खुमारी और कुछ अपनी माँ के प्रश्नों से हतप्रभ हुए अभिमन्यु का ध्यान फर्श पर पहले से पड़े वैशाली की कच्छी पर नहीं जा सका था, और अपनी माँ के तात्कालिक प्रश्न को सुनकर तो मानो जैसे उसकी सांस ही गले में अटक जाती है। अभिमन्यु- “वो माँ… वो मैं…” जवाब देते हुए वह मिमियाने लगता है, उसका गला चिपक चुका था। वैशाली- “एक तो तुमने माँ की कच्छी चुराई, दूसरे उससे मजे किए और जब मजा पूरा हो गया तो आखिर मे दुत्कारकर उसे फर्श पर फेंक दिया।
वाह र मर्द, तुम सब एक जैसे होत हो…” वैशाली मन मसोसने का अभिनय करते हुए बोली और एक लबी ‘आह्ह’ भरकर कमरे से बाहर जाने लगी। वहीं अभिमन्यु ठगा सा, एकटक फर्श पर पड़े अपनी माँ की कच्छी को ही देखे जा रहा था, चाहता तो था की वैशाली को बीती सत्यता से परिचित करवा दे, मगर शर्मवश वह ऐसा कर नहीं पाता। वैशाली- “खाना लगा रही हूँ, फ्रेश होकर सीधे बाहर आओ और हाूँ… जाओ माफ किया…” वैशाली कमरे से बाहर जाते-जाते बोली। अभिमन्यु न फौरन अपना सिर उठाकर उसके चेहरे को देखा, पल भर को मुश्कराकर वह तेजी से आगे बढ़ गई थी।
कुछ आधे घंटे पश्चात दोनों माँ-बेटे हाल की डाइनिंग टेबल पर साथ बैठकर खाना खा रहे थे। हमेशा बकबक, हो-हल्ला करने वाले अभिमन्यु को यूँ चुपचाप खाना खाते देखकर वैशाली को दुख हआ। खाने को खान की तरह खाता तब भी ठीक था, वह तो जैसे खाना चुंग रहा था। वैशाली- “अभिमन्यु…” जब हाल में पसरा मानवीय सन्नाटा वैशाली के बस से बाहर हो गया, तब वह स्वयं ही उस सन्नाट को भंग करते हुए बेटे को पुकारती हूँ। “ह…” जवाब में अभिमन्यु अपना मुँह तक खोलना पसंद नही करता, अपने गले के स्वर से बस इतना ही गनगनाकर वह अपनी माँ के चहरे को देखने लगता है।
उसे एकाएक अचरज तब हुआ जब हैरत से बंद होती जाती उसकी आखों मे झाकते हुए वैशाली अपने बाँए हाथ की उगलियों की मुँह से अचानक अपनी मैक्सी के ऊपरी बटन को खोलने लगती है। पहले उसने एक बटन खोला, तत्पश्चात दूसरै को खोलन लगी। अभिमन्यु की नंगी बंद देखकर वैशाली को कुछ सतोष हआ। संतोष इसलिए नही कि उस अपने बेटे की परेशानी, घबराहट, उसकी मायेसी से कोई अतिरिक्त खुशी मिल रही थी। बल्कि इसलिए कि उसे प्रत्यक्ष प्रमाण मिल चुका था कि उसके बेटे की नजरों मे उसकी इज्जत अब भी बरकरार थी। वह तो हालात का खैल था जो एक ही वक्त में दोनों माँ-बेटे एक साथ बेशर्म बन गए थे।
अपनी मैक्सी के दूसरे बटन को खोलते समय वैशाली ने यह भी स्पष्ट देखा की भले ही अभिमन्यु ने तुरंत अपनी आँखे अपनी माँ से हटाकर विपरीत दिशा मे मोड़ दी थीं, मगर उनकी किनारों से अब भी वह उसकी उंगलीयों की हरकत पर ही गौर फरमा रहा था।
मैक्सी के दूसर बटन के खुलते ही वैशाली अपनै उसी बाए हाथ की उगलिया हौल-हौले अपने मम्मों के ऊपरी फलाव पर रगड़ते हुए पहले उन्हे अपनी मैक्सी और फिर सीधे अपनी ब्रा के दाहिने कप के भीतर घुसा देती है। वैशाली- “तुम्हारी पाँकेटमनी…” वैशाली बेटे का ध्यान अपनी ओर खीचते हुए बोली। मगर अपना बाए हाथ उसने अब तक अपनी ब्रा से बाहर नहीं निकाला था।
दोनों माँ-बेटे की आँख आपस मे जुड़ चुकी थी और फिर कुछ ऐसा जताते हुए कि उसकी ब्रा बहुत तंग है, वह अजीब सा आड़ा-टेढ़ा मुँह बनाने लगती है। वैशाली- “वो काफी दिनों से शापिंग नही की ना तो थोड़े साइज इश्यू है…” वैशाली अपनी हरकत के समर्थन में बोली- “मेरी कच्छियों का भी यही हाल है…” मायूसी से उसने पिछले कथन मे जोड़ा। अभिमन्यु- “कोई बात नहीं मोम, और वैसे भी मुझे पाकेटमनी नही चाहिए, मेरी पनिशमेट अभी पूरी नही हुई…” अपने ठीक सामने बैठी अपनी माँ को उसकी तंग ब्रा से जूझते
देखकर अभिमन्यु हौले से बुदबुदाया।
वैशाली की लाल ब्रा उसकी बेवजह की खींचा-तानी के कारि उसकी मैक्सी के खुले गले से बाहर निकल आई थी और उसके गोल-मटोल मम्मों का प्रभावशाली ऊपरी उभार अभिमन्यु को तत्काल उत्तेजना से भरने लगा था। अपनी माँ की बोली मे आए खुलपने से भी वह थोड़ा सकते मे था। वैशाली- “बस हो गया। हाँ ये लो, पर सात हजार है…” वैशाली नोटों के बंडल को बेटे की ओर बढ़त हुए बोली। मगर अपने
पिछल कथन पर अटल अभिमन्यु फौरन ना के इशार मे अपना सिर हिला देता है।
वैशाली- “पनिशमेंट जारी थी और जारी ही रहेगी, पाकेटमनी तुम अपने पास रख सकते हो, पर तुम्हारा घर से बाहर आना-जाना बंद ही रहेगा…” रूपयों का बंडल टेबल पर उसके सामने रखते हुए बोली। अभिमन्यु- “थैंक्स मोम, खाली जेब मुझे कैसा महसूस हो रहा था मै ही जानता हुँ…” अभिमन्यु तुरंत बंडल पर झपटते हुए बोला। बिन पैसों के एक जवान लड़के की कैसी हालत होती है? स्वयं वैशाली को भी प्रत्यक्ष समझ में आ गया। अपने दोनों हाथ कैची के आकार मे ढालकर वह उन्हे अपनी अधखली छाती के इि-धगिा लपेटकर बैठ गई थी, जिसका दबाव उसक पुष्ट मम्मों के निचल भाग पर हो रहा था।
अकस्मात उसके मम्मों का ऊपरी उभार पहले से अधिक नुमाइश हो गया, जिसके नतीजतन एसी की मनभावन ठंडक वह अपने तेजी से ऐंठते जा रहे निप्पलों पर भी साफ महसूस करने लगी थी। वैशाली- “मुझे लगता है की तुम्हे मुझेसे माफी मागनी चाहिए, आखिरकार यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं की तुमने बहाने से उसके घर जाकर जानबूझ कर उसकी कच्छी को चुराया था…” अपने बेटे की चोर नजरों को बरबस अपने अधनंगे मम्मों पर गोते देखकर वैशाली बोली।
पाँकेटमनी
अभिमन्यु- “क्या है मोम, मै सो रहा हुँ यार…” अभिमन्यु नींद मे कसमसाते हुए बोला, वाकई वह बहुत गहरी नींद में था। वैशाली- “यार के बच्चे, दरवाजा खोलो। मुझे तुमसे बात करनी है…” जवाब में वैशाली चिल्लाकर बोली और अपनी उसी चिल्लाहट की आड़ मे हल्के हाथों से दरवाज का नाब घुमा देती ह।
अभिमन्यु- “बाद में मम्मी, बाद में…” अभिमन्यु पुनः कसमसाया। वैशाली- “मैने कहा ना मुझे तुमसे बात करनी है। अभी, इसी वक्त खोलो दरवाजा…” वैशाली ने सहसा क्रोधित होने का नाटक किया और जिसके असर से अभिमन्यु तुंरत ही उठकर बैठ गया। अभीमन्यु- “खोलता हुँ, खोलता हूँ…” एक लबी जम्हाई लेते हुए वह बिस्तर से नीच उतरकर अपने-टेढ़े कदमों से दरवाजे के समीप आने लगा। तभी वैशाली भी फर्श से उठकर खड़ी हो जाती है।
अभिमन्यु- “दरवाजा शायद बाहर से लाक है माू्ँ…” वह दरवाजा खीचने का प्रयास करते हुए बोला। वैशाली- “मैंने ही लाक किया था बाहर से…” वैशाली जवाब में बोली। अभिमन्यु- “क्यों? फिर क्यों नींद खराब की मेरी, जब दरवाजा खोलना ही नहीं था?” फौरन अभिमन्यु ने चिढ़ते हुए पूछा। वैशाली- “भाई तुम्हारा क्या भरोसा, अंदर किस हाल में हो? कपड़े तो पहने है ना तुमने या फिर नंगे हो?” वैशाली ने अपनी रोके ना रुकने वाली हंसी को काबू मे करने की कोशिश करते हुए पूछा।
यकीनन अब ठरक उसके सिर चढ़कर बोल रही थी। “नंगा…” अपनी माँ के इस अजीब से प्रश्न पर अभिमन्यु जैसे चौंक सा जाता है, उसके हैरत से खुल चुके मुँह से मात्र इतना ही बाहर आ सका। वैशाली- “अरे दिन मे तुम कुछ नग्नता वग्नता की बात कर रहे थे ना, तो मुझे लगा कि तुम कही… …” वैशाली ने अपने कथन को अधूरा छोड़ते हुए कहा। वैशाली- “खोलू दरवाजा? सच में नंगे नहीं हो ना?” उसने पिछले कथन में जोड़ा और बेटे के जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर ही झटके से दरवाजा खोल देती है।
वैशाली- “हाय… अपनी मा की कच्छी का यह क्या हाल कर दिया तुमने? पापी…” दरवाजा खुलते ही वैशाली की नजर सर्वप्रथम नीचे फर्श पर पडी अपनी कच्छी पर गई तो उसने तत्काल अपने मुँह पर हाथ रखकर आश्चर्य से भरने का नाटक करते हुए पूछा।
वह जानबूझ कर ‘पैंटी’ की जगह पूरे देशी शब्द ‘कच्छी’ का इश्तेमाल करती है और साथ ही उसने कच्छी शब्द के संग ‘माँ शब्द को भी जानकर जोड़ा था।
कुछ नीद की खुमारी और कुछ अपनी माँ के प्रश्नों से हतप्रभ हुए अभिमन्यु का ध्यान फर्श पर पहले से पड़े वैशाली की कच्छी पर नहीं जा सका था, और अपनी माँ के तात्कालिक प्रश्न को सुनकर तो मानो जैसे उसकी सांस ही गले में अटक जाती है। अभिमन्यु- “वो माँ… वो मैं…” जवाब देते हुए वह मिमियाने लगता है, उसका गला चिपक चुका था। वैशाली- “एक तो तुमने माँ की कच्छी चुराई, दूसरे उससे मजे किए और जब मजा पूरा हो गया तो आखिर मे दुत्कारकर उसे फर्श पर फेंक दिया।
वाह र मर्द, तुम सब एक जैसे होत हो…” वैशाली मन मसोसने का अभिनय करते हुए बोली और एक लबी ‘आह्ह’ भरकर कमरे से बाहर जाने लगी। वहीं अभिमन्यु ठगा सा, एकटक फर्श पर पड़े अपनी माँ की कच्छी को ही देखे जा रहा था, चाहता तो था की वैशाली को बीती सत्यता से परिचित करवा दे, मगर शर्मवश वह ऐसा कर नहीं पाता। वैशाली- “खाना लगा रही हूँ, फ्रेश होकर सीधे बाहर आओ और हाूँ… जाओ माफ किया…” वैशाली कमरे से बाहर जाते-जाते बोली। अभिमन्यु न फौरन अपना सिर उठाकर उसके चेहरे को देखा, पल भर को मुश्कराकर वह तेजी से आगे बढ़ गई थी।
कुछ आधे घंटे पश्चात दोनों माँ-बेटे हाल की डाइनिंग टेबल पर साथ बैठकर खाना खा रहे थे। हमेशा बकबक, हो-हल्ला करने वाले अभिमन्यु को यूँ चुपचाप खाना खाते देखकर वैशाली को दुख हआ। खाने को खान की तरह खाता तब भी ठीक था, वह तो जैसे खाना चुंग रहा था। वैशाली- “अभिमन्यु…” जब हाल में पसरा मानवीय सन्नाटा वैशाली के बस से बाहर हो गया, तब वह स्वयं ही उस सन्नाट को भंग करते हुए बेटे को पुकारती हूँ। “ह…” जवाब में अभिमन्यु अपना मुँह तक खोलना पसंद नही करता, अपने गले के स्वर से बस इतना ही गनगनाकर वह अपनी माँ के चहरे को देखने लगता है।
उसे एकाएक अचरज तब हुआ जब हैरत से बंद होती जाती उसकी आखों मे झाकते हुए वैशाली अपने बाँए हाथ की उगलियों की मुँह से अचानक अपनी मैक्सी के ऊपरी बटन को खोलने लगती है। पहले उसने एक बटन खोला, तत्पश्चात दूसरै को खोलन लगी। अभिमन्यु की नंगी बंद देखकर वैशाली को कुछ सतोष हआ। संतोष इसलिए नही कि उस अपने बेटे की परेशानी, घबराहट, उसकी मायेसी से कोई अतिरिक्त खुशी मिल रही थी। बल्कि इसलिए कि उसे प्रत्यक्ष प्रमाण मिल चुका था कि उसके बेटे की नजरों मे उसकी इज्जत अब भी बरकरार थी। वह तो हालात का खैल था जो एक ही वक्त में दोनों माँ-बेटे एक साथ बेशर्म बन गए थे।
अपनी मैक्सी के दूसरे बटन को खोलते समय वैशाली ने यह भी स्पष्ट देखा की भले ही अभिमन्यु ने तुरंत अपनी आँखे अपनी माँ से हटाकर विपरीत दिशा मे मोड़ दी थीं, मगर उनकी किनारों से अब भी वह उसकी उंगलीयों की हरकत पर ही गौर फरमा रहा था।
मैक्सी के दूसर बटन के खुलते ही वैशाली अपनै उसी बाए हाथ की उगलिया हौल-हौले अपने मम्मों के ऊपरी फलाव पर रगड़ते हुए पहले उन्हे अपनी मैक्सी और फिर सीधे अपनी ब्रा के दाहिने कप के भीतर घुसा देती है। वैशाली- “तुम्हारी पाँकेटमनी…” वैशाली बेटे का ध्यान अपनी ओर खीचते हुए बोली। मगर अपना बाए हाथ उसने अब तक अपनी ब्रा से बाहर नहीं निकाला था।
दोनों माँ-बेटे की आँख आपस मे जुड़ चुकी थी और फिर कुछ ऐसा जताते हुए कि उसकी ब्रा बहुत तंग है, वह अजीब सा आड़ा-टेढ़ा मुँह बनाने लगती है। वैशाली- “वो काफी दिनों से शापिंग नही की ना तो थोड़े साइज इश्यू है…” वैशाली अपनी हरकत के समर्थन में बोली- “मेरी कच्छियों का भी यही हाल है…” मायूसी से उसने पिछले कथन मे जोड़ा। अभिमन्यु- “कोई बात नहीं मोम, और वैसे भी मुझे पाकेटमनी नही चाहिए, मेरी पनिशमेट अभी पूरी नही हुई…” अपने ठीक सामने बैठी अपनी माँ को उसकी तंग ब्रा से जूझते
देखकर अभिमन्यु हौले से बुदबुदाया।
वैशाली की लाल ब्रा उसकी बेवजह की खींचा-तानी के कारि उसकी मैक्सी के खुले गले से बाहर निकल आई थी और उसके गोल-मटोल मम्मों का प्रभावशाली ऊपरी उभार अभिमन्यु को तत्काल उत्तेजना से भरने लगा था। अपनी माँ की बोली मे आए खुलपने से भी वह थोड़ा सकते मे था। वैशाली- “बस हो गया। हाँ ये लो, पर सात हजार है…” वैशाली नोटों के बंडल को बेटे की ओर बढ़त हुए बोली। मगर अपने
पिछल कथन पर अटल अभिमन्यु फौरन ना के इशार मे अपना सिर हिला देता है।
वैशाली- “पनिशमेंट जारी थी और जारी ही रहेगी, पाकेटमनी तुम अपने पास रख सकते हो, पर तुम्हारा घर से बाहर आना-जाना बंद ही रहेगा…” रूपयों का बंडल टेबल पर उसके सामने रखते हुए बोली। अभिमन्यु- “थैंक्स मोम, खाली जेब मुझे कैसा महसूस हो रहा था मै ही जानता हुँ…” अभिमन्यु तुरंत बंडल पर झपटते हुए बोला। बिन पैसों के एक जवान लड़के की कैसी हालत होती है? स्वयं वैशाली को भी प्रत्यक्ष समझ में आ गया। अपने दोनों हाथ कैची के आकार मे ढालकर वह उन्हे अपनी अधखली छाती के इि-धगिा लपेटकर बैठ गई थी, जिसका दबाव उसक पुष्ट मम्मों के निचल भाग पर हो रहा था।
अकस्मात उसके मम्मों का ऊपरी उभार पहले से अधिक नुमाइश हो गया, जिसके नतीजतन एसी की मनभावन ठंडक वह अपने तेजी से ऐंठते जा रहे निप्पलों पर भी साफ महसूस करने लगी थी। वैशाली- “मुझे लगता है की तुम्हे मुझेसे माफी मागनी चाहिए, आखिरकार यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं की तुमने बहाने से उसके घर जाकर जानबूझ कर उसकी कच्छी को चुराया था…” अपने बेटे की चोर नजरों को बरबस अपने अधनंगे मम्मों पर गोते देखकर वैशाली बोली।