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Incest पाप ने बचाया

Sweet_Sinner

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Index

~~~~ पाप ने बचाया ~~~~

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S_Kumar

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Update-23

कुछ ही पलों में जलती हुई मशाल की जगमगाती रोशनी के साथ बैलगाडी पहाड़ों से भरी हसीन वादियों में प्रवेश कर गयी। बैलगाड़ी में बैठी रजनी, काकी और उदयराज को एक असीम शक्ति, और सुकून का अहसास हुआ, पहाड़ों के बीच होते हुए बैलगाडी एक ऐसे दो बड़े बड़े पहाड़ों के पास पहुँची, वहां पर कुछ आदिवासी घूम रहे थे उनके हाथ में भी मशाले थी। सामने दो पहाड़ों के बीच एक छोटी सी गुफा थी उसके द्वार पर दो आदिवासी पहरा दे रहे थे, आस पास चारों तरफ पहाड़ ही पहाड़ थे जिनमें और भी गुफायें थी।

सुलोचना- पुत्र बैलगाडी रोको, हम पहुँच गए हैं यही वो जगह है, वो सामने की गुफा के अंदर उन महात्मा का वास है।

उदयराज ने बैलगाड़ी रोक दी।

रजनी और काकी चकित होकर देख रहे थे, वहां के वातावरण में एक अजीब ही चुम्बकीय शक्ति थी जो अत्यंत ऊर्जा का अहसास करा रही थी।

सुलोचना बैलगाड़ी से उतरी और लाठी के सहारे उस मुख्य गुफा द्वार तक गयी उसे देखते ही वहां पर पहरा दे रहे आदिवासी ने सुलोचना को झुक कर अभिवादन किया, ये देखकर उदयराज, रजनी और काकी चकित रह गए।

सबको बड़ा गर्व हुआ कि वह एक ऐसे इंसान के साथ हैं जिसकी यहां पर इतनी इज़्ज़त है। उदयराज सुलोचना के प्रति खुद को मन ही मन बहुत आभारी और कृतज्ञ महसूस करने लगा। उसने मन ही मन खुद से ये प्रण किया कि वह जिस भी तरह से सुलोचना के काम आ सकता है जरूर आएगा। सुलोचना के इस तरह निस्वार्थ रूप से उसकी मदद करना उसके दिल को गहराई तक छू गया।

सुलोचना ने उस आदिवासी से कुछ बात की फिर पीछे मुड़कर सबको बैलगाडी से उतरकर आने के लिए कहा।

उदयराज ने बैलगाडी एक पेड़ से बांध दी, सुलोचना के इशारे पर एक आदिवासी ने बैलों के चारे के इंतजाम कर दिया, सबलोग गुफा के द्वार पर गए, आदिवासी ने सबको झुककर अभिवादन किया और सब गुफा के अंदर प्रवेश कर गए।

अंदर जाकर उन्होंने देखा कि कई कक्ष बने हुए थे जिसमें से एक में सुलोचना उन्हें ले गयी और बोली- अभी यहीं बैठो।

गुफा के अंदर काफी बड़े बड़े चट्टानो को काटकर बैठने के लिए और लेटने के लिए बनाया हुआ था, सब बैठ गए, तभी एक आदिवासी उनके लिए बांस की बनी बड़ी गिलास में कुछ पेय पदार्थ पीने के लिए लाया।

उस आदिवासी ने सुलोचना से कुछ कहा फिर सुलोचना ने बोला- लो ये पियो, थकान उतर जाएगी।

सबने दिव्य रस पिया और वाकई में उन्हें पीने के बाद काफी ऊर्जा महसूस हुई, उस वक्त शाम के 7 बज चुके थे, बाहर अंधेरा हो गया था, गुफा के अंदर व बाहर मशाले जल रही थी।

सुलोचना ने एक आदिवासी को कुछ बोलकर अंदर भेजा।

उदयराज- माता ऐसा जान पड़ता है ये लोग आपको बहुत अच्छे से जानते हैं।

सुलोचना- हां बिल्कुल, इन लोगों के साथ मैं कुछ महीने रही हूं जब मैं मन्त्र सीख रही थी। ये लोग मुझे बहुत इज़्ज़त देते हैं और बात मानते हैं।

काकी- हां वो तो दिख ही रहा है बहन, पर मान लो आप हमारे साथ न होती तो हम कैसे इनकी भाषा समझते और कैसे आगे बढ़ते। आप तो जैसे वरदान बनकर आयी हैं हमारे लिए।

सुलोचना- नही बहन ये तो मेरा फ़र्ज़ है, अपनी प्रतिज्ञा से मैं बंधी हूँ, जन मानस की सेवा करना ही मेरा धर्म है, इसलिए ही मैंने अपने पति की अधूरी इच्छा को पूरा करने के लिए ये सब सीखा और कई वर्षों से मैं यही कर रही हूँ। अच्छा बहन क्या घर से घर का कुछ चावल लायी हो हमे हवन में उसकी जरूरत पड़ेगी।

उदयराज- हां माता हम घर से कुछ अनाज लाये थे, उसमे चावल भी है।

सुलोचना- ठीक है वो निकाल कर थोड़ा सा एक पोटली में ले लो।

काकी ने वैसा ही किया।

तभी वह आदिवासी आया और उसने सुलोचना से कुछ कहा।

सुलोचना- आओ चलो अब मेरे साथ।

सब सुलोचना के पीछे चल दिये, वो गुफा के अंदर आगे आगे लाठी लिए चल रही थी और उसके पीछे काकी और फिर रजनी और सबसे पीछे उदयराज।

गुफा के अंदर एक छोटी सुरंग थी वो लोग उसी में से आगे बढ़ रहे थे, ये सुरंग अंदर ही अंदर एक बड़ी सी गुफा में जा कर मिलती थी उस गुफा के चारो तरफ भी कई छोटे कक्ष बनाये गए थे।

आखिर वो उस गुफा तक पहुचे जहां वह महात्मा विराजमान थे। उनकी आभा देखते ही बनती थी, उनके अगल बगल एक आदिवासी सेवक और एक सेविका खड़ी थी जो उन्हें मोरपंख से बने पंखे से हवा कर रहे थे। उस गुफा में कई तरह की जड़ीबूटियां, फूल और सुगंधित मालाएं लगी थी। महात्मा के ठीक सामने एक छोटा सा हवन कुंड था, दीवारों पर मशालें जल रही थी लेकिन धुवां नाममात्र भी नही था।

सुलोचना ने उनको प्रणाम किया साथ ही उदयराज और रजनी तथा काकी ने भी प्रणाम किया। सब महाराज के सामने बैठ गए।

महात्मा सुलोचना को देखते ही बोले- आओ पुत्री, कैसी हो?

सुलोचना- महात्मन मैं ठीक हूँ। आपकी कृपा है।

महात्मा- जीती रहो पुत्री।

महाराज ने उदयराज के ऊपर दृष्टि डाली कुछ पल उसे देखा फिर आंखें बंद की, कुछ मंत्र बोले और फिर आंखें खोल कर बोले- विक्रमपुर के मुखिया उदयराज सिंह!, बोलो पुत्र इस वीरान घने जंगल में अपनी पुत्री के साथ कैसे आना हुआ, क्या कष्ट है?

सुलोचना को छोड़कर सब भौचक्के रह गए, क्योंकि सुलोचना उनकी महिमा जानती थी, उदयराज का मुँह खुला का खुला रह गया यह सोचकर कि बिना बताये मंत्रों की शक्ति से ही महात्मा ने उसका नाम, गांव, संबंध सब जान लिया, वह बहुत प्रभावित हुआ, वह समझ गया कि अब उसकी समस्या का समाधान मिल जाएगा। इतना दिव्य महात्मा उसने आज तक नही देखा था और बोली उनकी कितनी सरल है, न कोई घमंड न कोई गुरूर। यही सही सच्चे महात्मा का व्यक्तित्व होता है।

वह हाँथ जोड़कर बोला- महात्मा, ये हमारा सौभाग्य है कि माता सुलोचना की कृपा से आज हमे आपके दर्शन मिले। आपने अपनी शक्ति से स्वयं ही मेरा नाम और गांव जान लिया।

महात्मा- जीते रहो पुत्र, सब ईश्वर की शक्ति और उन्ही की माया है, बताओ क्या कष्ट है?

उदयराज- महात्मा, विक्रमपुर गांव में कई पीढियों से एक ऐसी समस्या चली आ रही है जिसका हल न तो हमारे पूर्वज खोज पाए और न ही हम, हमारे गांव की जनसंख्या पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ने की बजाय घट रही है, कई सौ सालों पहले जहां 1000-2000 घर थे आज वो सिमटकर 100-200 ही रह गए हैं, जन्मदर और मृत्युदर में बहुत ही बड़ा अंतर आ गया है, बच्चे जल्दी नही होते है और होते भी हैं तो ज्यादातर कम उम्र में ही खत्म हो जाते हैं।

उदयराज ने आगे कहा- लोग बीमार पड़ते है, इलाज़ कराओ तो मर्ज का पता ही नही लगता और कुछ दिन बाद मौत हो जाती है, धीरे धीरे करके कितने परिवार पूरे के पूरे साफ हो गए उनका अब नामो निशान नही, हर मौजूदा परिवार में लोगों ने अपनो को खोया है और जो परिवार पूरे के पूरे साफ हो गए वो तो हो ही गए। मैन खुद अपनी पत्नी और बेटे को खोया है, ये मेरे साथ मेरी काकी हैं जिन्होंने अपने पति और बेटे को खोया है, महात्मा जी अगर किसी मर्ज का पता हो तो समस्या का हल निकले पर यहां तो कुछ पता ही नही चलता। इस तरीके से तो एक दिन ऐसा आएगा कि हमारा और हमारे कुल का ही नामो निशान मिट जाएगा, कोई बचेगा ही नही। आखिर हमने किसी का क्या बिगाड़ा है

जबकि हम और हमारे कुल के लोग निहायत ही सीधे साधे हैं, न किसी से कोई बैर न किसी से कोई झगड़ा, कभी किसी का अहित नही सोचते, किसी के साथ ग़लत नही करते, ऐसा कोई काम नही करते जिससे किसी का दिल भी दुखे, और ये आज से नही पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। बहुत ईमानदार, शरीफ, भोले भाले सच्चे लोग हैं हमारे कुल में, हमारे गांव में।

बाहरी दुनियां में देखो, कितना अधर्म, कुकर्म, अनैतिक कार्य, कितना ही गलत-गलत काम होता है पर मजाल क्या है हमारे यहां कभी ऐसा कुछ हुआ हो, गलत हम सोच ही नही सकते और न कर सकते हैं, यही हमारी रीति है यही हमारा स्वभाव है और यही हमारी पहचान और मूल है। जो मान मर्यादा हमारे पूर्वजों द्वारा बनाई गई है उसकी लाज का पालन आज भी हमारे कुल का एक एक शख्स कर रहा है और करता रहेगा।

बाहरी दुनियां से तो हमने अपने आप को पीढ़ियों से ही अलग कर रखा है ताकि हमारे कुल के लोगों पर कभी पाप, कुकर्म, अनैतिक, गलत काम, अधर्म की छाया भी न पड़े, और हमे मोक्ष प्राप्त हो।

महात्मा जी, सुलोचना, रजनी, और काकी सब ध्यान से सुन रहे थे।

उदयराज ने आगे कहा
 
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Update-23

कुछ ही पलों में जलती हुई मशाल की जगमगाती रोशनी के साथ बैलगाडी पहाड़ों से भरी हसीन वादियों में प्रवेश कर गयी। बैलगाड़ी में बैठी रजनी, काकी और उदयराज को एक असीम शक्ति, और सुकून का अहसास हुआ, पहाड़ों के बीच होते हुए बैलगाडी एक ऐसे दो बड़े बड़े पहाड़ों के पास पहुँची, वहां पर कुछ आदिवासी घूम रहे थे उनके हाथ में भी मशाले थी। सामने दो पहाड़ों के बीच एक छोटी सी गुफा थी उसके द्वार पर दो आदिवासी पहरा दे रहे थे, आस पास चारों तरफ पहाड़ ही पहाड़ थे जिनमें और भी गुफायें थी।

सुलोचना- पुत्र बैलगाडी रोको, हम पहुँच गए हैं यही वो जगह है, वो सामने की गुफा के अंदर उन महात्मा का वास है।

उदयराज ने बैलगाड़ी रोक दी।

रजनी और काकी चकित होकर देख रहे थे, वहां के वातावरण में एक अजीब ही चुम्बकीय शक्ति थी जो अत्यंत ऊर्जा का अहसास करा रही थी।

सुलोचना बैलगाड़ी से उतरी और लाठी के सहारे उस मुख्य गुफा द्वार तक गयी उसे देखते ही वहां पर पहरा दे रहे आदिवासी ने सुलोचना को झुक कर अभिवादन किया, ये देखकर उदयराज, रजनी और काकी चकित रह गए।

सबको बड़ा गर्व हुआ कि वह एक ऐसे इंसान के साथ हैं जिसकी यहां पर इतनी इज़्ज़त है। उदयराज सुलोचना के प्रति खुद को मन ही मन बहुत आभारी और कृतज्ञ महसूस करने लगा। उसने मन ही मन खुद से ये प्रण किया कि वह जिस भी तरह से सुलोचना के काम आ सकता है जरूर आएगा। सुलोचना के इस तरह निस्वार्थ रूप से उसकी मदद करना उसके दिल को गहराई तक छू गया।

सुलोचना ने उस आदिवासी से कुछ बात की फिर पीछे मुड़कर सबको बैलगाडी से उतरकर आने के लिए कहा।

उदयराज ने बैलगाडी एक पेड़ से बांध दी, सुलोचना के इशारे पर एक आदिवासी ने बैलों के चारे के इंतजाम कर दिया, सबलोग गुफा के द्वार पर गए, आदिवासी ने सबको झुककर अभिवादन किया और सब गुफा के अंदर प्रवेश कर गए।

अंदर जाकर उन्होंने देखा कि कई कक्ष बने हुए थे जिसमें से एक में सुलोचना उन्हें ले गयी और बोली- अभी यहीं बैठो।

गुफा के अंदर काफी बड़े बड़े चट्टानो को काटकर बैठने के लिए और लेटने के लिए बनाया हुआ था, सब बैठ गए, तभी एक आदिवासी उनके लिए बांस की बनी बड़ी गिलास में कुछ पेय पदार्थ पीने के लिए लाया।

उस आदिवासी ने सुलोचना से कुछ कहा फिर सुलोचना ने बोला- लो ये पियो, थकान उतर जाएगी।

सबने दिव्य रस पिया और वाकई में उन्हें पीने के बाद काफी ऊर्जा महसूस हुई, उस वक्त शाम के 7 बज चुके थे, बाहर अंधेरा हो गया था, गुफा के अंदर व बाहर मशाले जल रही थी।

सुलोचना ने एक आदिवासी को कुछ बोलकर अंदर भेजा।

उदयराज- माता ऐसा जान पड़ता है ये लोग आपको बहुत अच्छे से जानते हैं।

सुलोचना- हां बिल्कुल, इन लोगों के साथ मैं कुछ महीने रही हूं जब मैं मन्त्र सीख रही थी। ये लोग मुझे बहुत इज़्ज़त देते हैं और बात मानते हैं।

काकी- हां वो तो दिख ही रहा है बहन, पर मान लो आप हमारे साथ न होती तो हम कैसे इनकी भाषा समझते और कैसे आगे बढ़ते। आप तो जैसे वरदान बनकर आयी हैं हमारे लिए।

सुलोचना- नही बहन ये तो मेरा फ़र्ज़ है, अपनी प्रतिज्ञा से मैं बंधी हूँ, जन मानस की सेवा करना ही मेरा धर्म है, इसलिए ही मैंने अपने पति की अधूरी इच्छा को पूरा करने के लिए ये सब सीखा और कई वर्षों से मैं यही कर रही हूँ। अच्छा बहन क्या घर से घर का कुछ चावल लायी हो हमे हवन में उसकी जरूरत पड़ेगी।

उदयराज- हां माता हम घर से कुछ अनाज लाये थे, उसमे चावल भी है।

सुलोचना- ठीक है वो निकाल कर थोड़ा सा एक पोटली में ले लो।

काकी ने वैसा ही किया।

तभी वह आदिवासी आया और उसने सुलोचना से कुछ कहा।

सुलोचना- आओ चलो अब मेरे साथ।

सब सुलोचना के पीछे चल दिये, वो गुफा के अंदर आगे आगे लाठी लिए चल रही थी और उसके पीछे काकी और फिर रजनी और सबसे पीछे उदयराज।

गुफा के अंदर एक छोटी सुरंग थी वो लोग उसी में से आगे बढ़ रहे थे, ये सुरंग अंदर ही अंदर एक बड़ी सी गुफा में जा कर मिलती थी उस गुफा के चारो तरफ भी कई छोटे कक्ष बनाये गए थे।

आखिर वो उस गुफा तक पहुचे जहां वह महात्मा विराजमान थे। उनकी आभा देखते ही बनती थी, उनके अगल बगल एक आदिवासी सेवक और एक सेविका खड़ी थी जो उन्हें मोरपंख से बने पंखे से हवा कर रहे थे। उस गुफा में कई तरह की जड़ीबूटियां, फूल और सुगंधित मालाएं लगी थी। महात्मा के ठीक सामने एक छोटा सा हवन कुंड था, दीवारों पर मशालें जल रही थी लेकिन धुवां नाममात्र भी नही था।

सुलोचना ने उनको प्रणाम किया साथ ही उदयराज और रजनी तथा काकी ने भी प्रणाम किया। सब महाराज के सामने बैठ गए।

महात्मा सुलोचना को देखते ही बोले- आओ पुत्री, कैसी हो?

सुलोचना- महात्मन मैं ठीक हूँ। आपकी कृपा है।

महात्मा- जीती रहो पुत्री।

महाराज ने उदयराज के ऊपर दृष्टि डाली कुछ पल उसे देखा फिर आंखें बंद की, कुछ मंत्र बोले और फिर आंखें खोल कर बोले- विक्रमपुर के मुखिया उदयराज सिंह!, बोलो पुत्र इस वीरान घने जंगल में अपनी पुत्री के साथ कैसे आना हुआ, क्या कष्ट है?

सुलोचना को छोड़कर सब भौचक्के रह गए, क्योंकि सुलोचना उनकी महिमा जानती थी, उदयराज का मुँह खुला का खुला रह गया यह सोचकर कि बिना बताये मंत्रों की शक्ति से ही महात्मा ने उसका नाम, गांव, संबंध सब जान लिया, वह बहुत प्रभावित हुआ, वह समझ गया कि अब उसकी समस्या का समाधान मिल जाएगा। इतना दिव्य महात्मा उसने आज तक नही देखा था और बोली उनकी कितनी सरल है, न कोई घमंड न कोई गुरूर। यही सही सच्चे महात्मा का व्यक्तित्व होता है।

वह हाँथ जोड़कर बोला- महात्मा, ये हमारा सौभाग्य है कि माता सुलोचना की कृपा से आज हमे आपके दर्शन मिले। आपने अपनी शक्ति से स्वयं ही मेरा नाम और गांव जान लिया।

महात्मा- जीते रहो पुत्र, सब ईश्वर की शक्ति और उन्ही की माया है, बताओ क्या कष्ट है?

उदयराज- महात्मा, विक्रमपुर गांव में कई पीढियों से एक ऐसी समस्या चली आ रही है जिसका हल न तो हमारे पूर्वज खोज पाए और न ही हम, हमारे गांव की जनसंख्या पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ने की बजाय घट रही है, कई सौ सालों पहले जहां 1000-2000 घर थे आज वो सिमटकर 100-200 ही रह गए हैं, जन्मदर और मृत्युदर में बहुत ही बड़ा अंतर आ गया है, बच्चे जल्दी नही होते है और होते भी हैं तो ज्यादातर कम उम्र में ही खत्म हो जाते हैं।

उदयराज ने आगे कहा- लोग बीमार पड़ते है, इलाज़ कराओ तो मर्ज का पता ही नही लगता और कुछ दिन बाद मौत हो जाती है, धीरे धीरे करके कितने परिवार पूरे के पूरे साफ हो गए उनका अब नामो निशान नही, हर मौजूदा परिवार में लोगों ने अपनो को खोया है और जो परिवार पूरे के पूरे साफ हो गए वो तो हो ही गए। मैन खुद अपनी पत्नी और बेटे को खोया है, ये मेरे साथ मेरी काकी हैं जिन्होंने अपने पति और बेटे को खोया है, महात्मा जी अगर किसी मर्ज का पता हो तो समस्या का हल निकले पर यहां तो कुछ पता ही नही चलता। इस तरीके से तो एक दिन ऐसा आएगा कि हमारा और हमारे कुल का ही नामो निशान मिट जाएगा, कोई बचेगा ही नही। आखिर हमने किसी का क्या बिगाड़ा है

जबकि हम और हमारे कुल के लोग निहायत ही सीधे साधे हैं, न किसी से कोई बैर न किसी से कोई झगड़ा, कभी किसी का अहित नही सोचते, किसी के साथ ग़लत नही करते, ऐसा कोई काम नही करते जिससे किसी का दिल भी दुखे, और ये आज से नही पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है। बहुत ईमानदार, शरीफ, भोले भाले सच्चे लोग हैं हमारे कुल में, हमारे गांव में।

बाहरी दुनियां में देखो, कितना अधर्म, कुकर्म, अनैतिक कार्य, कितना ही गलत-गलत काम होता है पर मजाल क्या है हमारे यहां कभी ऐसा कुछ हुआ हो, गलत हम सोच ही नही सकते और न कर सकते हैं, यही हमारी रीति है यही हमारा स्वभाव है और यही हमारी पहचान और मूल है। जो मान मर्यादा हमारे पूर्वजों द्वारा बनाई गई है उसकी लाज का पालन आज भी हमारे कुल का एक एक शख्स कर रहा है और करता रहेगा।

बाहरी दुनियां से तो हमने अपने आप को पीढ़ियों से ही अलग कर रखा है ताकि हमारे कुल के लोगों पर कभी पाप, कुकर्म, अनैतिक, गलत काम, अधर्म की छाया भी न पड़े, और हमे मोक्ष प्राप्त हो।

महात्मा जी, सुलोचना, रजनी, और काकी सब ध्यान से सुन रहे थे।

उदयराज ने आगे कहा
Nice update
 
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aman rathore

Enigma ke pankhe
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"रजनी", "ओ रजनी बिटिया" जरा एक लोटा पानी ला, जोर की प्यास लगी है", - गांव का मुखिया उदयराज अपने सिर से गेहूं का बोझ जमीन पर गिराकर, अंगौछे से अपना पसीना पोछते हुए अपनी बिटिया को आवाज लगते हुए बोला।

रजनी- "लायी बाबू"


(Hello दोस्तों मैं हूँ S_Kumar, यह मेरी पहली कहानी है, आप लोगों की तरह कहानियों का शौकीन मैं भी हूँ, काफी दिनों से कहानियां पढ़ता चला आ रहा हूँ। आज सोचा क्यों न मैं भी एक कहानी लिखूं।

मैं कोई professional writer नही हूँ और न ही मैंने कभी कोई कहानी लिखी है, तो अगर कोई गलती हो तो माफ कीजियेगा और अगर अच्छी लगे या न भी लगे तो भी comment कीजियेगा।

यह कहानी हिंदी font में होगी जिसकी एक छोटी सी झलक आप लोग शुरू में ही देख चुके हैं, और हां यह कहानी पारिवारिक संबंधों पर आधारित है तो जिसको भी ऐसी कहानियां नही पसंद वो कृपया न पढ़ें। यह कहानी सामाजिक नियमों के खिलाफ है, पारिवारिक रिश्तों पर आधारित है, यह पुर्ण रूप से काल्पनिक है वास्तविकता से इसका कहीं कोई संबंध नही, अगर कहीं कोई संबंध पाया गया तो वह बस एक संयोग ही होगा। इस कहानी में बताए गए कोई भी तंत्र मंत्र या टोना टोटका या कोई विधि बस एक कल्पना हैं वास्तविकता से इसका कोई संबंध नही।

इस कहानी का update मैं 2 या 3 दिन के अंतराल पे दूंगा अगर कोई जरूरी काम या किसी और चीज़ में busy न हुआ तो, और अगर हुआ तो ये अंतराल और भी बढ़ सकता है और इसके लिए भी मुझे माफ़ कीजियेगा।)

तो चलिए फिर कहानी को आगे बढाते हैं---

Update-1

बात बहुत पहले की है उत्तर प्रदेश में कहीं दूर-दराज एक बहुत ही पिछड़ा हुआ गांव था-विक्रमपुर। बहुत ही पिछड़ा हुआ इशलिये क्योंकि यह एक बहुत बड़ी नदी के दूसरी तरफ था। शहर से इसका कोई खास लेना देना नही था। कुल मिलाकर 100-200 घर होंगे वो भी काफी दूर-दूर थे।

नदी के किनारे होने की वजह से गांव बहुत ही हरा भरा था। यह गांव बहुत बड़े जंगल से चारों तरफ से घिरा हुआ था। यह गांव कई दशकों पहले और भी बड़ा हुआ करता था, आज जो इस गांव में सिर्फ 100-200 घर है वहीं एक वक्त इस गांव में 1000-1500 घर हुआ करते थे, जो कि आज के वक्त में सिमटकर केवल 100-200 घर ही रह गए थे।

लेकिन ऐसा क्यों? आखिर क्या ऐसा हो रहा था
इस गांव में जो परिवार के परिवार धीरे धीरे खत्म हो रहे थे। बहुत तेजी से नही बल्कि बहुत धीरे धीरे, एक बार को अचानक से देखने में नही लगेगा परंतु जब कोई गांव का बाहरी इंसान गौर से इस गांव की दशकों पुरानी हिस्ट्री से दूसरी जगहों की तुलना करता तो वो भी सोच में पड़ जाता कि आखिर ऐसा क्यों?

माना कि मौत हर जगह होती है, जो इस दुनियां में आया है उसे जाना ही है, लेकिन हर जगह एक balance maintain है। लोग मर रहे हैं तो बच्चे पैदा भी हो रहे हैं। एक पीढ़ी गुजर रही है तो नई पीढ़ी आ भी रही है।

परंतु इस गांव में मृत्यु दर बहुत ज्यादा थी और जन्म दर नाम मात्र।

देखने में लोग बिकुल स्वस्थ रहते, न जाने कब कैसे धीरे धीरे बीमार पड़ते और चले जाते, इस गांव के लोग जब बाहरी दुनिया में इलाज कराने जाते तो report में कहीं कुछ नही आता। वैसे तो जल्दी इलाज़ के लिए जाते नही थे क्योंकि इस गांव के लोग थे- रूढ़िवादी, अन्धविश्वासी और वो झाड़ फूंक, में ज्यादा विश्वास रखते थे।

इस गांव के लोगों ने जानबूझ के भी अपने आप को दीन दुनियां से अलग कर रखा था। इसका पहला कारण तो ये ही था कि यह गांव चारों तरफ जंगल से घिरा हुआ था, नदी के दूसरी छोर पर था और.....और... इस गांव के लोगों को सबसे ज्यादा नफरत थी- गलत चीजों से, जैसे- गलत काम करना, झूठ बोलना, किसी का दिल दुखाना, बेईमानी करना, कोई भी गलत काम, गलत सोच, गलत विचार, भावना किसी के मन में नही थी, जैसे कोई जानता ही नही था इन सब चीजों को। यही main वजह थी जो इस गांव के लोग बाहरी दुनिया से ज्यादा मेल जोल नही रखना चाहते थे क्योंकि उस गांव के अलावा हर जगह गलत चीज़ें थी, गलत काम था, गलत सोच थी, गलत भावना थी। यूँ समझ लीजिये हर जगह कलयुग था और इस गांव में सतयुग था।

लेकिन सोचने वाली बात ये है कि ऐसा गांव में क्या था कि परिवार के परिवार धीरे धीरे खत्म हो रहे थे, न कोई महामारी, न कोई रोग, न कोई आक्रमण, न कोई दंगा फसाद, फिर ऐसा क्या था? ऐसा नही है कि गांव के लोग इससे अनजान थे वो जानते थे कि कुछ तो इस गांव में गड़बड़ है, परंतु उनके पास इसका कोई इलाज नही था, उनके पास कोई रास्ता नही था इससे बाहर निकलने का, इसलिये गांव के लोगों के मन में कहीं न कहीं किसी कोने में एक उदासी सी रहती थी।

परंतु ऐसा क्या था, जिसकी वजह से ऐसा हो रहा था, वो आपको आगे इस कहानी में पता चलेगा---


Update-2

दोस्तों यह कहानी दो मुख्य किरदार के इर्द गिर्द ही रहेगी, कहानी में कुछ और किरदार भी आएंगे आगे चलकर, कहानी का हीरो गांव का मुखिया ही है।

कहानी के मुख्य पात्र-

उदयराज
- उदयराज विक्रमपुर गांव का मुखिया है, उसकी उम्र 44 वर्ष है, वह बहुत ही नेकदिल और ईमानदार इंसान है। 20 वर्ष की उम्र में ही उसकी शादी विमला से हो गयी थी, जो अब इस दुनियां में नही है।
विमला से उसके 2 बच्चे हुए, 1 लड़का और 1 लड़की, जब वह 22 वर्ष का था तब लड़का पैदा हुआ जिसका नाम अमन रखा गया था, जो अभी 7 वर्ष पहले इस दुनिया से चला गया उसी रहस्यमयी वजह से जो गांव में थी। उदयराज जब 23 वर्ष का था तब विमला को 1 बेटी पैदा हुई जिसका नाम रजनी रखा गया। रजनी अमन से एक वर्ष छोटी थी।

इस वक्त वो अपनी बेटी के साथ ही रहता है करीब कुछ सालों से।

उदयराज गांव का मुखिया तो था ही साथ ही साथ वह एक तजुर्बेदार किसान भी था, खेतों में खुद ही सारा काम संभालने की वजह से उसका शरीर काफी बलिष्ट था, कद काठी ऊंची थी, रंग थोड़ा सांवला था, धूप में अक्सर कड़ी मेहनत करने की वजह से भी हो गया था।

उदयराज को खेती करना बहुत पसंद था, खेतों में वो अकेला ही लगा रहता था, लोग कहते भी थे कि उदयराज कुछ आदमी वगैरह रख लिया करो काम में मदद हो जाया करेगी तो वो कहता कि इतना तो मैं अकेले ही कर लूंगा, जब मुझे लगेगा कि काम बस के बाहर है तो रख लूंगा।

खेतीबाड़ी में ज्यादा वक्त देने से वो मुखिया का काम कम ही संभाल पाता था, परंतु उसका स्वभाव अत्यंत सरल और अच्छा होने की वजह से खुद गांव वालों ने उससे कहा रखा था कि "मुखिया तो हमारे तुम ही होगे उदयराज, भले ही तुम मुखिया का सारा काम अपने परम मित्र बिरजू से कराओ, पर मुखिया तो तुम ही हो"

उदयराज भी गांववालों से इतना सम्मान मिलने पर उनका दिल नही दुखाना चाहता था इसलिये वह गांव का मुखिया बना हुआ था पर ज्यादातर काम उसका मित्र बिरजू ही देखता था।


रजनी- रजनी की उम्र 21 वर्ष थी, उसका विवाह हो चुका था उसकी एक छोटी बेटी भी थी (ये बहुत भाग्य की बात थी क्योंकि गांव में बच्चे बहुत मुश्किल से हो रहे थे)।
रजनी अपनी माँ की तरह काफी गोरी थी। बला की खूबसूरत, कद काठी में सुडौल थी, भरा पूरा यौवन था उसका, बड़े बड़े स्तन, चौड़े और भारी नितम्ब, वो एक अत्यंत मादक जिस्म की मालकिन थी, उसकी चाल तो अलग ही कहर ढाती थी। पर उस गांव में कोई भी मर्द या लड़का कभी भी किसी परायी लड़की या स्त्री को बुरी नज़र से नही देखता था और न ही कभी कोई ऐसा विचार अपने मन में लाता था, जैसे ये सब गलत विचार उन्हें पता ही नही था। इतने शरीफ थे इस गांव के लोग।

जो स्त्री विधवा होती थी या अपने पति से किसी भी वजह से दूर रहती थी और जो पुरुष विदुर होते थे जिनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी होती थी वो कामाग्नि में जल जल कर जीवन बिता देते थे पर कभी परायी स्त्री या पुरुष को कभी गंदी या गलत निगाह से नही देखते थे।

रजनी का पति थोड़ा सनकी था और शारीरिक रूप से रजनी से कमजोर था, उसे स्त्री में कोई खास रुचि नही रहती थी, न ही उसे सेक्स पसंद था, उसके अंदर बहुत बचपना था, शादी के इतने साल बाद तक भी कभी ऐसा नही हुआ कि उसने रजनी को सेक्स में चरमसुख दिया हो, यौनसुख के लिए रजनी हमेशा ही प्यासी रहती थी, पर क्या करे स्त्री थी कुछ कह भी नही सकती थी लोक लाज की वजह से। इस वजह से उसका पति उसकी नज़रों में उतरता चला गया, पर ऐसा नही था कि वो अपने पति की इज़्ज़त नही करती थी बस ये था कि वो ये उम्मीद छोड़ चुकी थी की उसका पति कभी बिस्तर पे उससे रगड़ रगड़ के संभोग करेगा, जिससे वो सन्तुष्ट हो सकेगी। क्योंकि वह अब यह जान चुकी थी कि उसके पति में इतनी ताकत ही नही थी कि वो उस जैसी सुडौल और भरे जिस्म वाली औरत की प्यास बुझा सके।

उसकी यौवन की रसीली गहराइयों के आखिरी छोर तक उसका पति न तो अभी तक पहुच पाया था और न ही कभी पहुंच पायेगा ये वो जानती थी, उसकी पूरी गहराई को नापने के लिए एक बलिष्ट मर्द की जरूरत थी, और वो कभी भी किसी भी कीमत पर पराये मर्द के बारे में सोच भी नही सकती थी, या यूं मान लो उसे पता ही नही था कि व्यभिचार भी कोई चीज़ होती है। इसलिए वो अब इसको अपना भाग्य मानकर कामाग्नि में जल रही थी।

पर रजनी थी बहुत हंसमुख और चंचल स्वभाव की। एक बेटी हो जाने के बाद भी उसका बचपना नही गया था।

(रजनी के पति और उसके ससुराल के बारे मे और अन्य पात्र के बारे में विस्तार से अगले अपडेट में)
:superb: :good: amazing update hai bhai,
starting bahot hi shandaar hai,
Ab dekhte hain ki aage kya hota hai
 
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