Update- 42
इत्तेफ़ाक़ देखो उजाला होने के ठीक आधे घंटे पहले बिजली कड़की और रजनी की आंख खुल गयी, नियति आज बहुत प्रसन्न थी मानो उसी ने बिजली कड़काकर उन्हें जगाने की कोशिश की हो, बारिश थम तो गयी थी पर ऐसा लग रहा था कि महापाप का शुभ आरंभ होने की खुशी में आज मेघा पूरे दिन ही बरसेंगे। बरसों से चली आ रही जकड़न आज टूट चुकी थी, जंजीर आज टूट चुकी थी, एक नया सवेरा हो चुका था।
रजनी ने आंखें खोली तो उसकी आंखें कच्ची नींद में उठ जाने की वजह से काफी लाल थी, उसने आंखें मली और एक नज़र अपने बाबू पर डाला और बीती रात को क्या क्या हुआ ये सोचते हुए मुस्कुरा दी, उसने अपना चेहरा आगे कर अपने बाबू को धीरे से चूम लिया और धीरे से बोली- उठो बाबू सवेरा होने वाला है, उठो मेरे सैयां, इससे पहले की इधर कोई आ जाये चलो घर चलें।
रजनी के मीठे चुम्बन और नशीली आवाज से उदयराज की भी आंखें खुली तो उसने अपनी बेटी को बड़े प्यार से देखा जो उनकी आंखों में ही देखने की कोशिश कर रही थी क्योंकि अंधेरा अब भी था तो ज्यादा कुछ दिख नही रहा था, उदयराज ने रजनी को अपने ऊपर लेकर बाहों में भरकर चूम लिया, रजनी सिरह उठी और अपने बाबू की बाहों में समा गई, दोनों पूर्ण निवस्त्र थे, बस ऊपर से रजनी की साड़ी ओढ़ रखी थी वो भी इधर उधर से खुल ही गयी थी सोते वक्त।
रजनी- बाबू, अब उठो नही तो देर हो जाएगी, कोई भी इस तरफ आ सकता है।
उदयराज- हाँ, बेटी, चलो
रजनी उठी और एक अंगडाई ली, उदयराज ने लेटे लेटे अपनी बेटी को पहले तो अंगडाई लेते हुए देखता रहा फिर उठकर उसकी पीठ पर दो चार चुम्बन अंकित कर दिए, रजनी फिर सिसक गयी पर उदयराज आगे नही बढ़ा, अगर बढ़ता तो देर हो जाती, वो और रजनी जल्दी से उठे और अपने अपने कपड़े अंधेरे में पहने, हल्के बादल गरज रहे थे, बारिश फिर होने वाली थी।
रजनी- बाबू आपका अंगौछा, खेत में ही रह गया न, और डलिया और तेल भी।
उदयराज- हां, बेटी तू यहीं बैठ मैं लेकर आता हूँ।
उदयराज जल्दी से गया और खेत के पानी में तैर रहा अपना अंगौछा, डलिया और तेल की शीशी उठा लाया।
अब हल्का हल्का रोशनी होनी शुरू हो चुकी थी, हालांकि बादल छाए होने की वजह से सूरज की रोशनी खुलकर नही आई थी पर अंधकार मिटना शुरू हो चुका था।
उदयराज और रजनी ने एक दूसरे को देखा तो रजनी शर्मा गयी और उदयराज ने अपनी बेटी की इस अदा पर उसको अपनी बाहों में भर लिया।
उदयराज- थक गई न
रजनी ने शर्मा कर हाँ में सर हिलाया फिर पूछा- आप नही थके क्या बाबू?
उदयराज- रात भर मक्ख़न खाया है, मक्ख़न खाने से तो और ताकत आती है तो थकूंगा कैसे? हम्म
रजनी ने शर्माते हुए एक हल्का मुक्का अपने बाबू की पीठ पर मारा- बदमाश! बाबू, बहुत बदमाश बाबू हो आप, मेरा तो सारा मक्ख़न खा गए आप एक ही रात में (रजनी ने शरारत से कहा)
उदयराज- अभी सारा कहाँ खाया मेरी बेटी, अभी तो बस आगे की रसोई में रखा मक्ख़न खाया है। पीछे वाली रसोई को तो अभी ठीक से देखा भी नही। (ऐसा कहते हुए उदयराज ने रजनी के भारी नितम्ब साड़ी के ऊपर से दबा दिए)
रजनी अपने बाबू की बात का अर्थ समझते ही फिर शर्मा गयी, एक मुक्का और पीठ पर मारा- गन्दू, गन्दू बाबू, बदमाश! अच्छे बच्चे सिर्फ आगे की रसोई में घुस के खाना खाते है।
उदयराज- वो तो मैं खा चुका हूं न मेरी रानी बेटी, अभी तो आगे की रसोई में खाना खत्म।
रजनी- हां तो और बन रहा है न मेरे बाबू, जैसे ही पक जाएगा मैं अपने बाबू को खुद ही खिलाऊंगी। मेरे बाबू पीछे की रसोई न खाली देखने में बड़ी है, कुछ नही है उसमे और उसका तो दरवाजा भी बहुत छोटा है बाबू, कैसे जाओगे आप अंदर? (रजनी ने अपने बाबू को चिढ़ाते हुए कहा)
उदयराज- दरवाजा तो आगे वाली रसोई का भी छोटा ही था न मेरी रानी, कैसे मैंने तुम्हारी मदद से तीन बार अंदर जा के खूब मक्ख़न खाया, वैसे ही तुम अगर पीछे वाली रसोई का ताला तोड़ने में मदद करो तो हम दोनों मिलकर उसमे रखे असीम आनंद को लूटेंगे, और रही बात दरवाजे की तो उसकी फिक्र तुम न करो मेरी बिटिया रानी, क्या मुझे मेरी अपनी पीछे वाली रसोई में जाने का हक़ नही? (उदयराज ने ये बात रजनी के नितम्ब को सहलाते हुए कहा)
रजनी शर्माते हुए- ऐसे क्यों बोल रहे हैं मेरे बाबू, मेरा तो तन मन सबकुछ आपका है, मैं तो बस मजाक कर रही थी, मैं तो अपने बाबू को हर चीज़ का सुख दूंगी, जो उनको चाहिए।
उदयराज ने रजनी को और भी कस के गले लगा लिया- ओह मेरी बेटी, मैं कितना भाग्यशाली हूँ जो मुझे तुम जैसी बेटी मिली, जो मुझे इतना प्यार करती है।
रजनी- भाग्यशाली तो मैं भी हूँ बाबू, जो मुझे ऐसे बाबू मिले जिन्होंने मुझे इतना प्यार दिया कि मेरा तन और मन दोनों तृप्त हो गए।
उदयराज- आगे वाली रसोई में खाना दुबारा कब तक तैयार हो जाएगा? (उदयराज ने रजनी से वसनात्मय होते हुए कहा)
रजनी शर्माते हुए- हाहाहाहायययय .....बाबू! जल्द ही हो जाएगा बाबू, जैसे ही होगा मैं आपको इशारा कर दूंगी, तब तक आप पीछे वाली रसोई का ताला तोड़कर उसमे घुसकर असीम आनंद ले लेना।
उदयराज- सच्ची
रजनी- मुच्ची, मेरे बाबू सच्ची मुच्ची। पर पीछे वाली रसोई में डाका दिन में डालोगे तो और भी मजा आएगा, वो कहावत है न "दिन दहाड़े डाका डालना" (रजनी ने अपने मन की बात कही)
उदयराज- दिन में, मतलब मैं समझा नही।
रजनी- अरे मेरे बुद्धू सजना, मेरे बाबू, अपनी बेटी की पीछे वाली रसोई में डाका डालना है तो दिन में डालना, क्योंकि रात को तो आगे वाली रसोई में खाना खाया था न।
उदयराज- हाँ तो ठीक है, जैसी मेरी बेटी की इच्छा, पर कहाँ किस जगह, किस कमरे में, क्योंकि दिन में तो काकी भी रहेंगी न।
रजनी तपाक से- बाहर पेड़ के नीचे
उदयराज सन्न होते हुए- बाहर।
रजनी- हाँ मेरे बाबू बाहर।
उदयराज एक पल के लिए रजनी के साहस को देखता रह गया कि रजनी क्या बोल रही है, उसके अंदर ये कैसा रोमांच आ गया है वो किस तरह का रोमांच लेना चाहती है, मन में तो उसके भी गुदगुदी सी हुई कि दिन में ही, किसी ने देख लिया तो, फिर उसने सोचा कि छोरी छिपे कितना रोमांच आएगा जरूर इसी रोमांच को महसूस करने के लिए रजनी ये चाह रही है।
उदयराज- बाहर कहा, जब तुम इतना कह रही हो तो कोई जगह भी सोची होगी तुमने जरूर, मेरी जान।
रजनी- हाँ सोची है न मेरे राजा जी, दालान के बग़ल में जो अमरूद का पेड़ है उसके नीचे खाट बिछा के, वही पीछे वाली रसोई का खाना परोसुंगी अपने बाबू को।
उदयराज- और काकी आ गयी तो, या किसी ने देख लिया तो, अनर्थ हो जाएगा
रजनी- अब ये तो हमारी काबिलियत पर है बाबू की हम सबकी नजर बचा कर कैसे रोमांच का रसपान करें, और मुझे नही लगता कि मेरे बाबू इस बात से डरते होंगे।
उदयराज- वो तो अब वक्त ही बताएगा, चल अब (ऐसा कहते हुए उदयराज ने अपनी बेटी को बाहों में उठा लिया)
राजनी- ऊई मां, बाबू आप भी तो थक गए हो न, रहने दो मैं चल लूँगी धीरे धीरे।
उदयराज- अपनी रानी बेटी को अब मैं पैदल नही चलने दूंगा, जो मुझे मक्ख़न खिलाये उसको मैं भला पैदल चलने दूंगा।
रजनी खिलखिला कर हंस दी- अच्छा तो इतनी मेहनत मक्ख़न के लिए हो रही है।
उदयराज- हाँ और क्या, सेवा करेंगे तभी तो मेवा मिलेगा खाने को।
रजनी- बेटी का मेवा, सगी बेटी का
उदयराज- हां सगी बेटी का
रजनी फिर खिलखिलाकर हंस दी- बदमाश! बाबू, कोई सुन लेगा।
उदयराज- अभी तो हल्का हल्का अंधेरा है, अभी इस तरफ कोई नही आएगा, तब तक हम पहुँच जाएंगे, देखो बादल भी फिर से कितने छा गए हैं, लगता है आज बारिश ही होगी पूरे दिन।
उदयराज अपनी बेटी को बाहों में लिये कंधों पे उठाये अंधेरे में चल दिया अपने घर की ओर।
उदयराज और रजनी ऐसे ही बातें करते हुए घर के पास बाग तक पहुँच गए तो उदयराज ने रजनी को उतार दिया और रजनी अपने भारी नितम्ब को मटकाते हुए आगे आगे चलने लगी, अब उजाला हो चुका था।
रजनी और उदयराज के घर पहुचते ही काकी ने उन्हें देखा तो मुस्कुरा पड़ी और बोली- अरे मेरे बच्चों भीगे तो नही, सारी रात बारिश हुई आज तो और देखो अब भी बदल छाए है लगता है दिन भर बरसेंगे।
रजनी- हाँ काकी, बारिश की वजह से कुछ देर वहीं रुकना पड़ा, फिर आंख लग गयी और वहीं सो गए, गुड़िया रोई तो नही रात में।
काकी- नही, लेकिन अब उसको भूख लगी है जोर से, ले दूध पिला दे, तब तक मैं तुम दोनों के लिए नाश्ता बनाती हूँ।
रजनी- काकी रुको जरा मेरे कपड़े गीले हैं, मैं जरा बदल लूं।
काकी- हाँ जरूर, उदयराज तू भी कपड़े बदल ले
उदयराज और रजनी ने अपने कपड़े बदले, काकी रसोई में चली गयी नाश्ता बनाने, रजनी ने अपने बाबू को मुस्कुराकर दिखाते हुए अपना ब्लॉउज खोल के दायीं चूची निकाली और बच्ची के मुँह में डाल दी, उदयराज कुछ देर अपनी बेटी की मोटी सी गोल चूची देखता रहा फिर उसने इशारे से उसको ढक लेने के लिए कहा क्योंकि बच्ची दूध पी रही थी,रजनी ने आँचल से स्तन को ढक लिया।
उदयराज उठा और घर का काम करने लगा, जानवरों को चारा दिया और फिर जाकर नहाया, रजनी भी नहा धोकर फ्रेश हो गयी और सबने मिलकर नाश्ता किया।
काकी- मुझे मालूम है की रात भर तुम लोग बारिश की वजह से जागे हो तो जाकर आराम कर लो।
रजनी- जी काकी, लेकिन खाना आप मत बनाना मैं दिन में बनाउंगी, आप परेशान मत होना।
काकी- ठीक है बेटी तू पहले सो ले जा के ठीक से।
रजनी घर में सोने चली गयी, उदयराज भी बरामदे में लेटकर सो गया, काकी बच्ची को खिलाने लगी, बादल एक बार फिर बरसने लगे। काकी मन ही मन मुस्कुरा रही थी।