Update- 62
बिरजू बाहर जाकर- बेटा, अगर मन है तो चलो थोड़ा हमारे खेत की तरफ घूम फिर आओ।
(महेन्द्र का मन तो नही था वो तो नीलम के पास वक्त बिताना चाहता था, पर मायके में कहे कैसे)
दबे मन से महेन्द्र बोला- हाँ पिताजी चलिए, मैं भी यहां अकेले बैठे बैठे क्या करूँगा, वैसे पिताजी शाम तक मुझे वापिस जाना होगा, शाम तक आ जाएंगे न
(वापिस जाने की भी बात महेन्द्र ने ऊपरी मन से कही थी, अब खुद ये तो कह नही सकता कि मैं रुकूँगा)
बिरजू- अरे, वापिस जाना होगा मतलब.....नही नही, ऐसे कैसे? इस घर के दामाद हो इतने दिनों बाद आए हो और तुरंत चले भी जाओगे, नही...नही रुको एक दो दिन, और हां खेत में पूरा दिन थोड़ी लगेगा अभी दोपहर तक वापिस आ जाएंगे।
महेन्द्र- बाबू जी वैसे तो मेरे पास रुकने के लिए वक्त नही था, घर पर भी यही बोला था कि भैरवपुर जा रहा हूँ कल तक आ जाऊंगा, पर अब बीच में आपका हाल चाल पूछने के लिए इधर आ गया, घरवालों को भी नही पता है, खैर चलो कोई बात नही, आपकी आज्ञा मैं टाल नही सकता, आज रात रुक जाऊंगा पर कल मुझे जाना होगा।
बिरजू- अरे बेटा क्या ये तेरा घर नही?, बेटा ससुराल है तुम्हारी यह, हम तो अपनी ससुराल में बिना घर पर बताए मेहमान नवाजी कराने चले जाते थे और दो चार दिन रुककर ही आते थे, घरवाले भी जान जाते थे कि हो न हो अपनी ससुराल चला गया होगा।
(इतना कहकर बिरजू हंसने लगा और महेन्द्र भी मुस्कुरा दिया)
बिरजू- तो बेटा रुको एक दिन, ठीक है कल चले जाना।
महेन्द्र- ठीक है बाबू जी चलिए खेत पर, पर जरा रुकिए मैं कुछ सामान लाया था नीलम को दे दूं।
(महेंद्र का मन नीलम से मिलने का था तो वो किसी बहाने से उसके पास जाना चाहता था)
बिरजू- हां हां बेटा क्यों नही, जाओ दे आओ, घर में ही है वो, रसोई में होगी, खाना बना रही होगी दोपहर का, जाओ दे आओ मैं तब तक चलता हूं खेत की तरफ तुम आ जाना।
महेन्द्र- हाँ बाबू जी आप चलते रहिये मैं आता हूँ, कौन से खेत की तरफ जाएंगे?
बिरजू- अरे वही जो उत्तर की तरफ वाला खेत है नहर के पास वाला, इधर से उत्तर की तरफ जो चकरोट जा रहा है न बस वही पकड़ कर आ जाना, सीसम के बाग के पीछे ही है खेत।
महेन्द्र- ठीक है बाबू जी आप चलिए, आता हूँ मैं
(बिरजू खेत की तरफ अंगौछा कंधे पर रख कर चल दिया और महेन्द्र दबे पांव फल और मिठाई से भरा थैला लेकर जो उसने ससुराल आते वक्त रास्ते में बाजार से खरीदा था घर में गया)
(महेन्द्र थैला लिए लिए ही रसोंई तक पहुंचा जहां नीलम दूसरी तरफ मुँह किये चूल्हे पर भगोने में चढ़ाए हुए चावल को कलछुल से चला रही थी और कभी कभी झुककर चूल्हे की बुझती आग में और लकड़ी लगाकर फूंक फूंक कर तेज कर रही थी)
महेन्द्र ने धीरे से नीलम के गाल को सहलाया तो नीलम ने चौंक कर पीछे देखा- अरे आप, ऐसे चुपके चुपके आ गए मुझे पता भी नही चला।
महेन्द्र- खाना बना रही हो?
नीलम- हां, दोपहर का खाना।
महेन्द्र- ऐसे ही बेसुध होकर काम करती हो, कोई चुपके से आ जाये तो पता भी नही चलेगा तुम्हे।
नीलम- अरे अब तुम इतने दबे पांव आ रहे हो, क्या पता लगता मुझे, मेरे कोई पीछे आंख थोड़ी लगी है। खैर और बताओ कैसे हो, मन नही लगा क्या मेरे बगैर?
महेन्द्र- नही लगा तभी तो चला आया।
नीलम- हां बड़े आये......चला आया......तुम तो बाबू को देखने आए हो न.......मेरे लिए कहाँ आये हो?
महेन्द्र- अरे आया तो मैं अपनी जान के लिए ही हूँ, बाबू तो एक बहाना हैं, बहाना मिला तो चला आया।
नीलम- वाह! अपनी पत्नी के पास आने के लिए तुम्हे बहाना चाहिए, चलो रहने दो, सब समझती हूं मैं। आओ बैठो
(नीलम ने बगल में एक पीढ़ा रखते हुए कहा, महेन्द्र उसपर बैठ गया, थैला उसने नीलम की गोद में रख दिया )
नीलम- इसमें क्या है, इतना सारा फल और मिठाई लाने की क्या जरूरत थी।
महेन्द्र- क्यों नही जरूरत थी, अपने ससुराल आ रहा था तो क्या खाली हाँथ झुलाते हुए चला आता।
नीलम- तुम भी न, लो फिर मिठाई खाओ।
(नीलम ने मिठाई के डब्बे से मिठाई निकालकर महेन्द्र के मुंह मे डाला और महेन्द्र ने भी नीलम को मिठाई खिलाई, इतने में चावल बलकने को हुआ तो नीलम ने भगोने का ढक्कन हटा कर नीचे रख दिया)
नीलम- मेरी याद नही आती थी न
महेंद्र- आती थी तभी तो चला आया, याद तो तुम्हे नही आती तभी तो ज्यादातर मायके में ही रहती हो।
नीलम- अच्छा तुम्हे ज्यादा पता है.....याद नही आती........मेरी बात नही सुनी जाती तो क्या करूँ, मेरी अवहेलना करते हो तो क्या करूँ, न मेरी इच्छा की फिक्र है तुम्हे, जो कहती हूँ उसको मानते नही हो, सुनकर हवा में उड़ा देते हो, तो जहां इज़्ज़त मिलेगी वहीं रहूँगी न।
महेन्द्र- अब इतनी भी शिकायतें न करो, कौन सी बात मैंने तुम्हारी नही मानी, क्या अवहेलना की है तुम्हारी। बहुत प्यार करता हूँ मैं तुमसे।
(दरअसल महेन्द्र कुछ महीनों से चुदाई के लिए तड़प रहा था इसलिए वो नीलम को मस्का लगा रहा था)
नीलम- कितनी बार बोला है कि अपना इलाज करा लो, मेरी कोख कब तक सूनी रहेगी, शादी हुए चार साल हो गए, मेरी भी तो कुछ इच्छा है, पर तुम न मेरी कभी सुनते हो न उसपर अमल करते हो, और कहते हो कि मैं बहुत प्यार करता हूँ, प्यार करने का मतलब एक दूसरे की भावनाओ की कद्र करना भी होता है, तुम बस यही बोलते हो कि ईश्वर की इच्छा होगी तो सब हो जाएगा, वो बात मैं भी जानती हूं कि सब ईश्वर की कृपा से होता है पर इंसान अपनी तरफ से तो कोशिश करता ही है न, जब तुम मेरी बात नही मानते तो मुझे भी यही लगता है कि मेरी भावनाओ की किसी को मेरे ससुराल में फिक्र ही नही, खासकर जब मेरे पति को ही नही है तो और किसको होगी, तो फिर मैं अपने अम्मा बाबू के पास ही रहने आ जाती हूँ।
महेन्द्र- हे भगवान, इतना गुस्सा और नाराज़गी।
नीलम- मैं गुस्सा नही हूँ और न ही नाराज़ हूं, अगर नाराज़ होती तो मिठाई खिलाती तुम्हे, मिठाई खिलाई न अपने हाँथ से।
महेन्द्र- हाँ खिलाया तो
नीलम- तो फिर.........नाराज़ नही हूँ.........पर मेरी भावनाओं को तो समझने की कोशिश किया करो........क्या तुम्हारी इच्छा नही होती कि मेरी कोख हरी भरी हो जाये, हमारा भी एक बच्चा हो, क्या इच्छा नही होती? सच बोलो
महेन्द्र- अरे तुम फिर वही लेके बैठ गयी, इच्छा होती है पर मैं उसमे करूँ क्या, मुझे तो ऐसा कुछ नही लगता कि मुझसे कोई कमी है, तुम बार बार मेरी मर्दानगी पर सवाल उठा कर मुझे आहत करती हो, ऐसा नही है कि मेरी इच्छा नही होती पर मैं ये सब नही करना चाहता, इलाज विलाज़, जब मुझमें कोई कमी नही है तो ये सब फालतू के काम क्यों।
(महेन्द्र थोड़ा अक्खड़ मिज़ाज़ का था उसको अपनी मर्दानी पर सवाल उठना अच्छा नही लगता था, दरअसल नीलम उसकी मर्दानगी पर सवाल नही उठाती थी वो तो बस ये चाहती थी कि उसकी कोख सूनी न रहे पर महेन्द्र उसको उल्टा समझ बैठता था, पर नीलम को भी अब रास्ता तो मिल ही गया था उसको पता था कोख तो अब उसकी हरी हो ही जाएगी, उसको बच्चा अब अपने सगे पिता से चाहिए था, बच्चा भी और असली मजा भी, ये सब तो सिर्फ बातें थी बस, इसलिए उसने बात को ज्यादा नही खींचा)
नीलम- मैं तुम्हारी मर्दानगी पर सवाल थोड़ी उठा रही हूं, मैंने तो कभी कहा नही की मैं आपसे संतुष्ट नही हूँ, पर मैं अपना हक तो तुम्ही से मांगूंगी न।
(महेन्द्र ये सुनकर खुश हो गया)
महेन्द्र- सब हो जाएगा मेरी जान, तुम बेवजह परेशान होती हो, जब वक्त आएगा तो सब हो जाएगा।
नीलम- देखते हैं
महेन्द्र- तुम्हारे पसीने की गंध ने तो मुझे पागल कर दिया आज और वो तुम्हारा पल्लू का गिरना, बाबू जी न होते तो वहीं मुँह में भर लेता।
नीलम मुस्कुरा उठी- पहली बार सूंघे हो क्या मेरा पसीना,और ऐसे क्यों घूर रहे थे, वहीं बाबू जी बैठे थे और तुम हो कि घूरे जा रहे थे, बाबू जी क्या सोचेंगे, देख तो लिया ही होगा उन्होंने।
महेन्द्र- क्या...क्या देख लिया होगा......तुम्हारे ये
(महेन्द्र ने नीलम की पसीने से भीगी हुई चूचीयों कि तरफ इशारा करके बोला)
नीलम- अच्छा........सोच समझ के बोलो.....बहुत बोलने लगे हो........पिता हैं वो मेरे.....कोई पिता अपनी बेटी के प्रति ऐसी अश्लील सोच रखेगा..........महापाप है ये.......समझे.......बड़े आये.....मेरे बाबू ऐसे नही हैं........मेरा मतलब तुम्हे मुझे ऐसे घूरते हुए जरूर देख लिया होगा।
महेन्द्र- माना कि कोई पिता ऐसी सोच नही रखता पर नज़र पड़ने पर हरकत तो मन में होती है जरूर।
(महेन्द्र ने नीलम को छेडा)
नीलम- तुम्हे होती होगी हरकत बहन बेटी को देखकर...........मेरे बाबू ऐसे नही है.......तुम्हारे ही गांव में ऐसा होता होगा.....हमारे यहां तो ऐसा नही होता।
(नीलम ने जानबूझकर पहले तो ऐसे बोला फिर)
नीलम- बड़ी मस्ती सूझ रही है तुम्हें, अगर बाबू जी मुझे ऐसे देखेंगे तो तुम बर्दाश्त कर लोगे।
(नीलम ने महेंद्र का मन टटोलने की सोची)
महेंद्र- अरे क्यों कर लूंगा बर्दाश्त, मेरी पत्नी हो तुम, कोई तुम्हे आंख उठा के देखे मुझे बर्दाश्त नही।
नीलम- वो कोई थोड़े ही हैं पिता हैं मेरे, तो फिर ऐसे क्यों बोला तुमने।
महेन्द्र- अरे वो तो मैं ऐसे ही मजाक में बोल रहा था, क्या करता कितने दिनों बाद दर्शन हुए थे, मन तो मचलना ही था, तुम्हारा पसीना पहली बार तो नही सूँघा था पर काफी दिन हो गए न इसलिए मन काबू करना मुश्किल हो गया था,अच्छा एक बात बताओ क्या बाबू जी ने देखा नही होगा?
नीलम- अब देखा होगा तो क्या करूँ, जानबूझ के तो गिराया नही मैंने पल्लू, अब गिर गया तो गिर गया। देख भी लिया होगा तो क्या हुआ बेटी हूँ उनकी मैं
(ऐसा कहकर नीलम मुस्कुराने लगी और महेन्द्र भी मुस्कुरा दिया)
महेन्द्र- देख लो ऐसे ही बार बार पल्लू गिरता रहेगा उनके सामने तो कहीं मन न मचल जाए उनका।
नीलम- बहुत बोल रहे हो तुम, कहना क्या चाहते हो? उनका मन मचल गया तो फिर मैं यहीं रहूँगी, तुम तो मेरी भावनाओ की कद्र करते नही हो कम से कम वो तो करते हैं।
(नीलम ने नहले पे दहला मारा)
महेन्द्र- अरे बाबा मैं तो ऐसे ही मजाक कर रहा था, तुम तो कुछ भी बोल देती हो।
नीलम- कुछ भी तो तुम बोल रहे हो, बाप और बेटी का अश्लील रिश्ता जोड़ रहे हो, कहीं होता है ऐसा? देखा है कहीं।
महेन्द्र- अच्छा बाबा माफ करो, अब ऐसा मजाक नही करूँगा।
नीलम- अच्छा ठीक है, आज गर्मी बहुत है न इसलिए बहुत पसीना आ रहा है, ऊपर से चूल्हे के पास काम, देखो पूरा भीग ही गयी हूँ।
महेन्द्र- बारिश भी खुलकर नही हुई है न इसलिए उमस भी हो रही है, बदल भी न अच्छे से बरस नही सकते कि गर्मी कम हो जाये।
(महेंद्र ने शिकायत भरे लहजे से कहा)
नीलम ने ये बात सुनकर double meaning में चुटकी ली- तुम तो बहुत बरसते हो जैसे, जो दूसरों को बोल रहे हो, तुम कितना गर्मी शांत कर देते हो, बड़े आये।
महेन्द्र- अरे मेरी जान मौका तो दो आज खुलकर न बरसा तो कहना, सारी गर्मी निकाल दूंगा तुम्हारी।
नीलम जोर से हंसी- बस बस......मायका है ये मेरा....ससुराल नही।
महेन्द्र- तो क्या मायके में प्यार नही कर सकता मैं अपनी पत्नी को।
नीलम- प्यार तो तब करोगे न जब रात को रुकोगे, जल्दबाजी में आये हो तो जल्दबाजी में ही जाओगे।
(नीलम ने चूल्हे पर से चावल का भगोना उतारने के बाद बटुई में अरहर की दाल चढ़ाते हुए बोला)
महेन्द्र- किसने कहा कि मैं चला जाऊंगा आज ही, आज रात रुकूँगा और कल जाऊंगा।
नीलम- किसी ने कहा नही मैं बस अंदाज़े से बोल रही थी।
महेन्द्र- नही नही....आज रात रुकूँगा और कल जाऊंगा, अपनी जान की गर्मी निकालनी है न।
नीलम ने महेन्द्र की तरफ देखा और मुस्कुराने लगी फिर बोली- मायका है ये मेरा, बड़े आये गर्मी निकालने वाले, सोओगे तुम बाहर बाबू जी के साथ और मैं सोती हूँ अंदर घर में, और इतना बड़ा तो तुम्हारा है नही की तुम बाहर लेटे लेटे घर के अंदर सोई हुई पत्नी की गर्मी निकाल दोगे, बोलो पतिदेव जी, कुछ करने से पहले सोच तो लो कि वो होगा कैसे?
(और इतना कहकर नीलम हंस दी, वो ऐसे ही कभी कभी महेन्द्र की खिंचाई भी कर देती थी, नीलम बेबाक स्वभाव की थी, चंचलता उसके अंदर कूट कूट के भरी थी)
महेन्द्र ने नीलम को कस के बाहों में भरकर चूम लिया और बोला- बताऊं अभी, कैसे निकलूंगा गर्मी तुम्हारी।
नीलम थोड़ा सिसकते हुए- अच्छा बाबा नही बोलूंगी......छोड़ो न दाल गिर जाएगी चूल्हे पे से, फिर खा लेना अच्छे से दोपहर का खाना।
महेन्द्र- बहुत मन कर रहा है......दोगी न।
नीलम फिर हंसते हुए- क्या....क्या चाहिए मेरे पतिदेव को।
महेन्द्र- वाह जी वाह जैसे तुम समझ ही नही रही हो।
नीलम मुस्कुरा कर महेन्द्र की तरफ देखते हुए- क्यों नही दूंगी, मैं भी तो प्यासी हूं, पर मेरी जान ये मायका है, मैं घर में सोती हूँ और बाबू जी बाहर, और ये तो तय है कि तुम भी बाहर बाबू जी के साथ बाहर ही सोओगे, तो होगा कैसे?
महेन्द्र- वो तो तुम जानो.... मुझे नही पता।
नीलम- अच्छा जी.....चलो ठीक है मैं कुछ उपाय निकालती हूँ।
महेन्द्र ने एक बार फिर से नीलम के होंठों को चूम लिया, हालांकि नीलम ने उसका साथ दिया पर न जाने क्यों उसको वो मजा नही आ रहा था जो उसको अपने सगे पिता के साथ आता है उसको ऐसा लग रहा था जैसे मिठाई खाने के बाद किसी ने चाय पीने को दे दी हो, अब चाय तो फीकी लगेगी ही।
महेन्द्र- ठीक है मैं चलता हूँ, नही तो बाबूजी कहेंगे कि इतना वक्त कैसे लगा दिया, वो इंतज़ार कर रहे है मेरा।
नीलम- हाँ जाइये और दोपहर तक आ जाना।
इतना कहकर महेन्द्र बाहर निकल गया और खुशी खुशी खेतों की तरफ चल पड़ा।