अनमने से मन से , कुछ थोड़ी नराजगी से मैं अपने कपडे और किताबो को जमा रहा था . अब ये पुराना छप्पर ही मेरा कमरा था . ये वैसे तो ज्यादा बड़ा नहीं था पर मेरा जुगाड़ हो ही सकता था . मैंने फिर एक तार की सहायता से बल्ब भी लगाया और थोड़ी बहुत सफाई भी कर ली, आखिर मुझे अब यही रहना था , ऐसा नहीं था की मेरे पास रहने को कमरा नहीं था, था, पर कुछ परिस्तिथिया ऐसी हो गयी थी की फ़िलहाल ये छप्पर ही मेरा आशियाना था .
तक़रीबन तीन महीने हॉस्पिटल में रहने के बाद आज ताउजी को घर लाया गया था तो जिस कमरे में मेरा जुगाड़ था अब वहां ताउजी को शिफ्ट कर दिया गया था, , कहने को तो हमारा घर ठीक ठाक सा था पर तीन भाइयो वाली फॅमिली में थोड़ी बहुत कमी तो वाजिब ही थी . और फिर पिछले कुछ महीने खास बढ़िया भी तो नहीं थे. वैसे तो ताउजी काफी सालो से अम्बाला में बसे हुए थे , एक जूतों की दुकान थी उनकी , आना जाना भी बस शादी ब्याह या फिर किसी मौत पर ही हो पता था हम और छोटे चाचा गाँव में रहते थे , पिताजी की नौकरी पास के ही शहर में थी तो सुबह जाके देर शाम तक घर आजाते थे, और चाचा हमारे दरजी , गाँव के अड्डे पर ही दुकान की हुई थी,फैशन के कपडे सीते थे तो अपना काम मस्ती में रहते थे.
मम्मी और चाची का ज्यादातर समय घर के कामो और खेत खलिहान में बीतता था , घर में बालको के नाम पर मैं था और ताउजी का एक लड़का था जो इसी साल कोई कोर्स करने देहरादून गया था . एक हमारी दादी थी जो घर की हिटलर थी और दादाजी हमारे रिटायर डॉक्टर थे, अब कब थे डॉक्टर ये तो मालूम नहीं जबसे देखा बस रिटायर ही देखा तो ये था इंट्रोडक्शन ...............................................
कहानी शुरू होती है अब.
ताउजी के एक्सीडेंट की खबर ने जैसे बिजली सी गिरा दी थी परिवार पर , अम्बाला का रास्ता गाँव से कोई पन्द्रह घंटे लग जाते थे बस में , कैसे कटा हम ही जानते थे, मैंने पहली बार ताईजी को रोते हुए देखा . मुस्किल घडी थी वो , पर ख़ुशी इस बात की थी की जान बच गयी थी , तीन महीने लगे और फिर डॉक्टर ने भी हार मान ली थी कमर के निचे का हिस्सा काम नहीं कर पायेगा ऐसा बताया तो हम सब सदमे में थे, फिर दादाजी ने निर्णय लिया और उनको गाँव ले आये. घर का माहौल थोडा सा उदास था ऊपर से अब मिलने जुलने वाले आ रहे थे जा रहे थे . तो मैंने छप्पर को सेट करने के बाद थोड़ी देर घर से बाहर निकल जाने का सोचा .
रेत पर बैठ कर डूबते सूरज को देखने का भी अपना ही सुख था मेरे लिए. गर्म रेत जब तक ठंडी होकर मेरे पैरो को चुभने नहीं लगती मैं नदी किनारे बैठा रहता था , ये नदी भी बस नाम की ही नदी थी पानी था ही नहीं इसमें , बड़े बुजुर्गो से बस सुना था तो मानते थे की नदी है. ये एक तरह की सरहद थी क्योंकि इसके पार जंगल शुरू हो जाता था . पर न जाने क्यों भरे गाँव में मेरा दिल यहीं पर लगता था .
वापसी में कुछ दोस्तों संग गप्पे मारते हुए मैं घर पंहुचा तो मेरा सामना ताईजी से हो गया . ताईजी का नाम गीता देवी था , उम्र कोइ अड़तीस साल होगी शरीर भी ठीक ठाक था .
ताईजी- बेटा, मैं तुम्हारी ही राह देख रही थी . दूकान पे जाओ और कडवा तेल ले आओ मुझे जरुरत है .
मैं- घर में होगा न ताईजी उसमे से ले लो.
ताईजी- बेटा. उनके लिए मालिश का तेल बनाना है तो ज्यादा की जरुरत है .
मैंने आगे कुछ नहीं पूछा और पैसे लेकर दुकान की तरफ चल पड़ा. तेल लाके दिया , कुछ देर छोटी चाची के साथ टाइम पास किया इन्ही सब में दस- साढ़े दस बज गए, तो मैं छप्पर में आ गया, किवाड़ बंद किया और लैंप की रौशनी थोड़ी बढ़ा दी . इत्मिनान से मैंने अपनी किताबो के ढेर में हाथ दिया और उस चीज़ को ढूंढ ने लगा जिसकी अब मुझे जरुरत थी,
“कहाँ, गयी ” बुदबुदाते हुए मैंने कहा ,
कुछ और किताबो को इधर उधर सरकाया और फिर तमाम ढेर ही छान मारा पर वो किताब न मिली, होनी तो यही चाहिए थी मैंने सोचा . पर यहाँ थी नहीं. कल ही शहर से मैं अश्लील कहानियो की किताब खरीद कर लाया था जिसे आज पढने का सोचा था मैंने . दो तीन बार देख लिया पर किताब थी ही नहीं यहाँ पर , कही कमरे में तो नहीं रह गयी मेरे मन में ख्याल आया और ये बहुत ही गलत ख्याल था . घरवालो में से किसी को भी वो किताब मिली तो मेरी तो लंका लग जाएगी . मन बेचैन सा हो उठा , मैं आँगन में आया और चहलकदमी करने लगा.
पुरे घर में अँधेरा था बस ताउजी के कमरे में लैंप जल रहा था . कहीं किताब वहीँ तो नहीं रह गयी होगी. खिड़की खुली थी मैंने उसमे से झाँका. ताईजी अभी जागी हुई थी उनकी पीठ मेरी तरफ थी . उन्होंने अपनी साडी का पल्लू पकड़ा और साड़ी को उतार कर पलंग पर रख दिया. उस हलके से पेटीकोट में मैंने ताईजी के कुछ मोटे कुलहो की झलक देखि . मेरी आँखे जैसे उनके जिस्म पर चिपक ही गयी हों.
अब वो ब्लाउज खोल रही थी और जब ब्लाउज उतरा तो मेरी सांसे हलक में ही अटक गयी. गोरी पीठ की चिकनाहट का अंदाजा मुझे उस दुरी से ही हो गया था और वो काली ब्रा की डोरिया उस गोरे रंग पर क्या खूब सज रही थी . मुझे अपने बदन में बेहद तेज सनसनाहट महसूस हुई. उस वक़्त मेरी तमन्ना थी की वो मेरी तरफ पलट जाये और मैं सामने से उनकी छातियो को देख सकू. पर इन्सान की कहा सारी हसरते पूरी होती है .
ताईजी ने पेटीकोट के नाड़े में अपनी उंगलिया फंसाई और उनके कुलहो को चूमते हुए वो निचे पैरो पर गिर पड़ा. ताईजी उस समय सिर्फ ब्रा और कच्छी में थी , और वो कच्छी भी बस नाम की ही थी. मैं उनके गोल मटोल चुतड़ो को आँखे फाडे देख रहा था , कच्छी की वो पतली डोरी उनमे जैसे गुम ही हो गयी थी. पर हद तो होनी जैसे बाकी ही थी वो पेटीकोट उठाने निचे को झुकी तो कुल्हे और भी इतरा कर बाहर को आ गए. मेरे जीवन का ये पहला अवसर था जब मैंने किसी भी औरत को इस हाहाकारी रूप में देखा था .
मेरे होश गुम हो चुके थे, दिमाग में जैसे हजारो घंटिया एक साथ बज रही थी . ताई तीन चार पल ही झुकी रही थी पर वो नहीं जानती थी की कितने खूबसूरत थे वो पल. उन्होंने पास रखी मेक्सी पहनी और फिर लैंप को बुझा दिया.
मैं वापिस अपने बिस्तर पर आ गया पर आँखों में नींद की जगह ताईजी ने ले ली थी . मेरा हाथ लंड पर चला गया और अपनी आँखों में ताईजी के उस द्रश्य को लिए मैं मुट्ठी मारने लगा. उफ्फ्फ कितने सुकून से झडा था मैं उस रात. इतना वीर्य पहले कभी नहीं गिरा था मेरा. जिस्म से जैसे जान जुदा ही हो गयी थी उस लम्हात में .
तक़रीबन तीन महीने हॉस्पिटल में रहने के बाद आज ताउजी को घर लाया गया था तो जिस कमरे में मेरा जुगाड़ था अब वहां ताउजी को शिफ्ट कर दिया गया था, , कहने को तो हमारा घर ठीक ठाक सा था पर तीन भाइयो वाली फॅमिली में थोड़ी बहुत कमी तो वाजिब ही थी . और फिर पिछले कुछ महीने खास बढ़िया भी तो नहीं थे. वैसे तो ताउजी काफी सालो से अम्बाला में बसे हुए थे , एक जूतों की दुकान थी उनकी , आना जाना भी बस शादी ब्याह या फिर किसी मौत पर ही हो पता था हम और छोटे चाचा गाँव में रहते थे , पिताजी की नौकरी पास के ही शहर में थी तो सुबह जाके देर शाम तक घर आजाते थे, और चाचा हमारे दरजी , गाँव के अड्डे पर ही दुकान की हुई थी,फैशन के कपडे सीते थे तो अपना काम मस्ती में रहते थे.
मम्मी और चाची का ज्यादातर समय घर के कामो और खेत खलिहान में बीतता था , घर में बालको के नाम पर मैं था और ताउजी का एक लड़का था जो इसी साल कोई कोर्स करने देहरादून गया था . एक हमारी दादी थी जो घर की हिटलर थी और दादाजी हमारे रिटायर डॉक्टर थे, अब कब थे डॉक्टर ये तो मालूम नहीं जबसे देखा बस रिटायर ही देखा तो ये था इंट्रोडक्शन ...............................................
कहानी शुरू होती है अब.
ताउजी के एक्सीडेंट की खबर ने जैसे बिजली सी गिरा दी थी परिवार पर , अम्बाला का रास्ता गाँव से कोई पन्द्रह घंटे लग जाते थे बस में , कैसे कटा हम ही जानते थे, मैंने पहली बार ताईजी को रोते हुए देखा . मुस्किल घडी थी वो , पर ख़ुशी इस बात की थी की जान बच गयी थी , तीन महीने लगे और फिर डॉक्टर ने भी हार मान ली थी कमर के निचे का हिस्सा काम नहीं कर पायेगा ऐसा बताया तो हम सब सदमे में थे, फिर दादाजी ने निर्णय लिया और उनको गाँव ले आये. घर का माहौल थोडा सा उदास था ऊपर से अब मिलने जुलने वाले आ रहे थे जा रहे थे . तो मैंने छप्पर को सेट करने के बाद थोड़ी देर घर से बाहर निकल जाने का सोचा .
रेत पर बैठ कर डूबते सूरज को देखने का भी अपना ही सुख था मेरे लिए. गर्म रेत जब तक ठंडी होकर मेरे पैरो को चुभने नहीं लगती मैं नदी किनारे बैठा रहता था , ये नदी भी बस नाम की ही नदी थी पानी था ही नहीं इसमें , बड़े बुजुर्गो से बस सुना था तो मानते थे की नदी है. ये एक तरह की सरहद थी क्योंकि इसके पार जंगल शुरू हो जाता था . पर न जाने क्यों भरे गाँव में मेरा दिल यहीं पर लगता था .
वापसी में कुछ दोस्तों संग गप्पे मारते हुए मैं घर पंहुचा तो मेरा सामना ताईजी से हो गया . ताईजी का नाम गीता देवी था , उम्र कोइ अड़तीस साल होगी शरीर भी ठीक ठाक था .
ताईजी- बेटा, मैं तुम्हारी ही राह देख रही थी . दूकान पे जाओ और कडवा तेल ले आओ मुझे जरुरत है .
मैं- घर में होगा न ताईजी उसमे से ले लो.
ताईजी- बेटा. उनके लिए मालिश का तेल बनाना है तो ज्यादा की जरुरत है .
मैंने आगे कुछ नहीं पूछा और पैसे लेकर दुकान की तरफ चल पड़ा. तेल लाके दिया , कुछ देर छोटी चाची के साथ टाइम पास किया इन्ही सब में दस- साढ़े दस बज गए, तो मैं छप्पर में आ गया, किवाड़ बंद किया और लैंप की रौशनी थोड़ी बढ़ा दी . इत्मिनान से मैंने अपनी किताबो के ढेर में हाथ दिया और उस चीज़ को ढूंढ ने लगा जिसकी अब मुझे जरुरत थी,
“कहाँ, गयी ” बुदबुदाते हुए मैंने कहा ,
कुछ और किताबो को इधर उधर सरकाया और फिर तमाम ढेर ही छान मारा पर वो किताब न मिली, होनी तो यही चाहिए थी मैंने सोचा . पर यहाँ थी नहीं. कल ही शहर से मैं अश्लील कहानियो की किताब खरीद कर लाया था जिसे आज पढने का सोचा था मैंने . दो तीन बार देख लिया पर किताब थी ही नहीं यहाँ पर , कही कमरे में तो नहीं रह गयी मेरे मन में ख्याल आया और ये बहुत ही गलत ख्याल था . घरवालो में से किसी को भी वो किताब मिली तो मेरी तो लंका लग जाएगी . मन बेचैन सा हो उठा , मैं आँगन में आया और चहलकदमी करने लगा.
पुरे घर में अँधेरा था बस ताउजी के कमरे में लैंप जल रहा था . कहीं किताब वहीँ तो नहीं रह गयी होगी. खिड़की खुली थी मैंने उसमे से झाँका. ताईजी अभी जागी हुई थी उनकी पीठ मेरी तरफ थी . उन्होंने अपनी साडी का पल्लू पकड़ा और साड़ी को उतार कर पलंग पर रख दिया. उस हलके से पेटीकोट में मैंने ताईजी के कुछ मोटे कुलहो की झलक देखि . मेरी आँखे जैसे उनके जिस्म पर चिपक ही गयी हों.
अब वो ब्लाउज खोल रही थी और जब ब्लाउज उतरा तो मेरी सांसे हलक में ही अटक गयी. गोरी पीठ की चिकनाहट का अंदाजा मुझे उस दुरी से ही हो गया था और वो काली ब्रा की डोरिया उस गोरे रंग पर क्या खूब सज रही थी . मुझे अपने बदन में बेहद तेज सनसनाहट महसूस हुई. उस वक़्त मेरी तमन्ना थी की वो मेरी तरफ पलट जाये और मैं सामने से उनकी छातियो को देख सकू. पर इन्सान की कहा सारी हसरते पूरी होती है .
ताईजी ने पेटीकोट के नाड़े में अपनी उंगलिया फंसाई और उनके कुलहो को चूमते हुए वो निचे पैरो पर गिर पड़ा. ताईजी उस समय सिर्फ ब्रा और कच्छी में थी , और वो कच्छी भी बस नाम की ही थी. मैं उनके गोल मटोल चुतड़ो को आँखे फाडे देख रहा था , कच्छी की वो पतली डोरी उनमे जैसे गुम ही हो गयी थी. पर हद तो होनी जैसे बाकी ही थी वो पेटीकोट उठाने निचे को झुकी तो कुल्हे और भी इतरा कर बाहर को आ गए. मेरे जीवन का ये पहला अवसर था जब मैंने किसी भी औरत को इस हाहाकारी रूप में देखा था .
मेरे होश गुम हो चुके थे, दिमाग में जैसे हजारो घंटिया एक साथ बज रही थी . ताई तीन चार पल ही झुकी रही थी पर वो नहीं जानती थी की कितने खूबसूरत थे वो पल. उन्होंने पास रखी मेक्सी पहनी और फिर लैंप को बुझा दिया.
मैं वापिस अपने बिस्तर पर आ गया पर आँखों में नींद की जगह ताईजी ने ले ली थी . मेरा हाथ लंड पर चला गया और अपनी आँखों में ताईजी के उस द्रश्य को लिए मैं मुट्ठी मारने लगा. उफ्फ्फ कितने सुकून से झडा था मैं उस रात. इतना वीर्य पहले कभी नहीं गिरा था मेरा. जिस्म से जैसे जान जुदा ही हो गयी थी उस लम्हात में .