संजू अपने प्लान के मुताबिक़ मुझे लेकर अपने घर के पीछे पहुँच गया. दूर तक फैला एक खेत था उसके घर के ठीक पीछे जिसमें चाँदनी में नहाई हरी भरी फसलें लहलहा रही थी. एक दम सुनसान जगह थी वो. दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था.
उसने साइकिल रोक कर चारो तरफ नज़र दौड़ाई और धीरे से बोला, “कोई नहीं है हमें यहाँ देखने वाला. चल उतर जल्दी.”
“वो तो स्वाभाविक ही है. इस समय ऐसी जगह कौन घूमेगा,” मैंने साइकिल से उतरते हुए कहा.
“बहुत सारे नमूने हैं हमारे गाँव में. कब कौन कहाँ पहुँच जाए कोई नहीं कह सकता,” वो साइकिल खड़ी करते हुए बोला और उस दीवार कि तरफ चल दिया जिस पर चढ़ कर हम उसके घर में घुसने वाले थे.
मैंने दीवार को गौर से देखा. लगभग पांच फुट ऊँची दीवार थी वो. उस पर चढ़ना कोई मुश्किल काम नहीं था. आराम से चढ़ सकती थी मैं उस पर. मगर मेरा दिल ऐसा करने को नहीं मान रहा था.
“संजू रहने दो…,” मैंने कहा.
“क्यों… क्या हुआ?”
“मुझे दीवार फाँद कर अन्दर जाना अच्छा नहीं लग रहा.”
“अरे डरने की कोई बात नहीं है. मैं कईं बार कर चुका हूँ ये काम. कोई दिक्कत नहीं होगी.”
“तुम्हारी बात अलग है. ये घर है तुम्हारा. तुम जैसे मरजी इसमें जा सकते हो. मेरी बात अलग है.”
उसने गहरी साँस ली और बोला,“ जैसी तेरी मरजी. मैं तो पहले ही मना कर रहा था… तो कहाँ जाए अब? कार के पास चले तेरी? वही इंतज़ार करेंगे नोनू का.”
“हाँ वही ठीक रहेगा.”
“चल बैठ फिर…” वो बोला और साइकिल पर चढ़ गया.
जब मैं साइकिल पर बैठने वाली थी तो मुझे अपना मन बदलता हुआ महसूस हुआ. मुझे एक बार फिर अपने घर बात करने की ललक सताने लगी. मैंने दीवार की तरफ देखा और बोली, “संजू क्या तुम्हे यकीन है कि हम बिना किसी दिक्कत परेशानी के फ़ोन तक पहुँच पायेंगे?”
“ये क्यों पूछ रही है जब तेरा दीवार फाँदने का मन नहीं है?”
“मैं सोच रही थी कि एक बार कोशिश कर लेते हैं…”
वो साइकिल से उतर गया और उसे खड़ी करके दीवार की तरफ जाते हुए बोला, “तू भी ना अजीब है… कभी हाँ… कभी ना… इस हाँ ना के चक्कर में मत पड़ और दीवार पे चढ़ जल्दी. जो होगा देखा जाएगा.”
मैं डरी सहमी दीवार की तरफ बढ़ी.
“मदद करूँ या तू चढ़ जायेगी?” वो बोला.
“मैं चढ़ जाउंगी,” मैंने तुरंत जवाब दिया. मैं नहीं चाहती थी कि वो मुझे दीवार पर चढाने के बहाने यहाँ वहाँ छुए.
“चल चढ़ फिर. ज्यादा ऊँची नहीं है दीवार. कोई दिक्कत नहीं होगी तुझे,” वो मेरी तरफ देखते हुए बोला. ये तो मैं जानती ही थी. मेरा मन तो बस ऐसा अजीब काम करने से घबरा रहा था.
मैंने गहरी साँस ली और दीवार का उपरी छोर पकड कर उस पर चढ़ गई. उस पल ऐसा लगा मुझे जैसे कि मैं कोई बहुत बड़ी चोरी को अंजाम देने जा रही हूँ. मन हो रहा था कि वापिस कूद जाऊँ नीचे. मगर वैसा करना ठीक नहीं था. जैसे तैसे मैं मन बना कर दीवार पर चढ़ी थी. अब आगे बढ़ते रहना ही उचित था.
अगले ही पल संजू भी दीवार पर चढ़ गया और धीरे से बोला, “पहले मैं कूदुंगा नीचे. तुम मेरे बाद कूदना.”
मैंने सहमती में गर्दन हिलाते हुए चारो तरफ नज़र दौडाई. उसके घर के पीछे का आँगन काफी बड़ा था. एक कोने में टूटा फूटा सामान पड़ा था. और एक कोने में छोटा सा कमरा जैसा कुछ था. उस कमरे के नजदीक ही एक बड़ा आम का पेड़ था.
संजू ऐसे कूदा जमीन पर जैसे कि उसका ये रोज का काम हो. आवाज तो हुई उसके कदमों की मगर बहुत कम.
“आ मैं तुझे उतारता हूँ,” वो धीरे से बोला.
“नहीं मैं उतर जाउंगी,” मैं बोली और जैसे दीवार के छोर को पकड़ कर चढ़ी थी वैसे ही दीवार के छोर को पकड़ कर नीचे उतर गई. मेरे क़दमों की जरा भी आहाट नहीं हुई.
“अरे वाह... तू तो दीवार फाँदने में माहिर लग रही है,” वो मुझे कोहनी मारता हुआ बोला.
“श्श्ह… बातें मत करो. मुझे जल्दी लैंडलाइन तक ले चलो,” मैं अपने मुँह पर ऊँगली रखते हुए बोली.
“मेरे पीछे आओ,” वो धीरे से बोला. “जरा भी आवाज मत करना. हम बापू के कमरे के नजदीक से निकलेंगे. वैसे बापू को कम सुनाई देता है मगर फिर भी हम रिस्क नहीं ले सकते.”
मैंने हामी में सिर हिलाया और उसके पीछे-पीछे चल पड़ी. मेरी छाती में मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था. धक-धक की आवाज मुझे मेरे कानो तक सुनाई दे रही थी. मगर मैं आगे बढती गई संजू के पीछे-पीछे. हमने बिना कोई आवाज किए घर के पीछे वाले आँगन को पार किया और फिर उसके बापू के कमरे के नजदीक से गुजरते हुए घर के सामने वाले आँगन तक पहुँच गए. सामने वाले आँगन में ही बैठक थी घर के मुख्य दरवाजे के पास. वहाँ तक पहुंचना ज्यादा रिस्की महसूस हो रहा था. मगर मैं संजू के पीछे-पीछे अपनी साँस थामे चलती गई. शुक्र है कोई गड़बड़ नहीं हुई. हम बिना आवाज किए बैठक में घुस गए. लंबी राहत की साँस ली मैंने उस वक्त. ऐसा लग रहा था जैसे कि कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो मैंने.
बैठक में बिलकुल अँधेरा था. मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ देर बाद वहां के अँधेरे के लिए मेरी आँखों ने खुद को ढाल लिया तो खिड़की से आ रही चाँद की रौशनी में मुझे हल्का-हल्का दिखाई देने लगा. तीन लोगों के बैठने लायक एक बड़ा सोफ़ा रखा हुआ था दीवार के नजदीक. उस से नब्बे डिग्री पर दो लोगों के बैठने लायक दूसरा सोफ़ा रखा था. साथ ही एक कुर्सी भी रखी हुई थी. जो कि ऐसी लग रही थी जैसे कि वहां गलती से रखी गई हो. एक सेंट्रल टेबल भी रखी हुई थी सोफों के बीच. दोनों सोफे जुड़ कर जो वर्गाकार जगह बना रहे थे उसमें एक छोटा सा स्टूल रखा था. उसी पर लैंडलाइन फ़ोन रखा हुआ था.
“वो रहा कोने में फ़ोन. जल्दी से बात कर ले. और आवाज धीमी रखना,” संजू ने फ़ोन की तरफ इशारा करते हुए कहा.
मैं बिना देरी किए फ़ोन के पास पहुँची और महेश का नंबर मिलाया. रिंग बज रही थी मगर महेश फ़ोन नहीं उठा रहा था. पता नहीं क्या माजरा था.
तभी मुझे उसकी आवाज आई, “हैलो कविता… शुक्र है तुमने फ़ोन किया. तुम्हारा फ़ोन क्यों नहीं लग रहा? कब से फ़ोन कर रहा हूँ… सुनो मैं बैंक के काम से मुंबई जा रहा हूँ.”
“मुंबई… अचानक… क्या हुआ?” मैं बोली.
“जरुरी मीटिंग है वहाँ. चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर हूँ मैं. प्लेन में बैठ चुका हूँ. तुम कब घर पहुँचोगी?”
मैं निराशा में डूब गई. मैं तो उसे गाँव बुलाने का सोच रही थी पर वो तो प्लेन में चढ़ चुका था. अब क्या फायदा होगा उस से बात करके? लेकिन फिर भी मैंने उसे अपनी दिक्कत कि जानकारी देना उचित समझा. “मेरी कार ख़राब हो गई है महेश. उसी को ठीक करवाने में लगी हूँ. थोड़ी देर हो जायेगी.”
“अंजलि भी तुम्हारे साथ है ना?”
“हाँ वो साथ ही है,” मैंने झूट बोल दिया. मैं नहीं चाहती थी कि महेश मेरी चिंता में पड़े अपने काम पर जाते वक्त.
“देखो रात ज्यादा हो गई है. कार तो ठीक करवा लो मगर आज रात वहीँ गाँव में रुक जाओ किसी के घर. अंजलि तो जानती ही होगी किसी को गाँव में. तुम कह रही थी कि वो कईं बार जा चुकी है वहां पहले.”
सुझाव तो अच्छा था महेश का. अगर अंजलि साथ होती तो ज़रूर सोचती मैं इस बारे में. मगर मैं तो अकेली थी. इसलिए मैं बात को टालते हुए बोली, “पहले कार ठीक हो जाए फिर देखती हूँ.”
“रुकना ही पड़ेगा तुम्हे. रात को मत निकलना. रात का सफ़र ठीक नहीं है.”
“अच्छा सोचती हूँ बाबा...”
“मम्मी की चिंता है तो उन्हें मैं बोल दूंगा. तुम आराम से वहीँ रुको… सुनो फ़ोन बंद करना पड़ेगा. प्लेन टेक ऑफ करने वाला है. बाय. टेक केयर.”
फ़ोन कट गया और मैंने मायूसी में फोन पटक दिया. फ़ोन जिस मकसद से किया था वो तो पूरा हुआ ही नहीं था. मायूसी तो होनी ही थी. एक तो महेश प्लेन में बैठा था ऊपर से बहुत जल्दी में था. मैं उसे ठीक से कह ही नहीं पाई अपनी मुसीबत के बारे में. खैर अब क्या हो सकता था. मुझे अब अपनी योजना के अनुसार ही इस मुसीबत से निपटना था. कोई और नहीं आने वाला था वहाँ मेरी मदद के लिए.
“हो गई बात?” संजू धीरे से बोला.
मैं पलटी और बोली, “हाँ हो गई. चलो चलते हैं.”
किस से बात कि तूने? अपने पति से?”
“तुम्हे क्या लेना देना?” मैं थोडा गुस्से में बोली.
“वैसे ही पूछ रहा था.”
“मुझे अच्छे नहीं लगते ऐसे सवाल... चलो अब यह से चलते हैं.”
“हाँ हाँ चलो... मैं तो तैयार खड़ा हूँ.”
हम दबे पाँव बैठक से बाहर निकले और घर के सामने वाले आँगन से होते हुए घर के पिछले आँगन की तरफ चल दिए. मैं संजय से बात करके इतनी निराशा में डूबी हुई थी कि मेरा ध्यान नहीं गया स्टील की बाल्टी पर और मैं गलती से उस से टकरा गई.
बाल्टी लुडक गई और उसके कारण हुई आवाज रात के सन्नाटे को चीरती हुई हर तरफ फ़ैल गई. मैं दांत भींच कर जहाँ थी वहीँ खड़ी हो गई. संजू भी रुक गया और अपने माथे पर हाथ मारा मेरी इस बेवकूफी पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए.
तभी एक आवाज आई. “कौन है?”
मेरी सिट्टी पिट्टी गुम हो गई वो आवाज सुन कर.
“चल वापिस बैठक में चलना पड़ेगा,” संजू दौड़ता हुआ बोला.
मेरे पास कोई और उपाय नहीं था इसलिए मैं भी तुरंत भागते हुए उसके साथ दुबारा बैठक में घुस गई.
“तूने बाल्टी में लात क्यों मारी?” वो हांफते हुआ बोला. हम दोनों दरवाजे से दूर दीवार के पीछे खड़े थे.
“मैंने जानबूझ कर नहीं मारी. गलती से लग गई,” मैं अपनी साँसे थामने की कोशिश करते हुए बोली. जरा सा भाग कर ही मेरी साँस इतनी उखड गई थी कि साँस लेना मुश्किल हो रहा था.
संजू ने आगे बढ़ कर दरवाजे से बाहर झाँका और तुरंत पीछे हट कर बोला, “बापू है आँगन में औरे वो इधर ही आ रहा है.”
“हे भगवान अब क्या होगा?” मैं बोली, मेरे माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई थी.
“हमें छुपना होगा. उसने हमें देख लिया तो मुसीबत हो जायेगी.”
मैंने चारो तरफ नज़र दौड़ाई. बैठक में सोफों के अलावा कोई छुपने की जगह नहीं थी. और वो छुपने के लिए उचित नहीं लग रहे थे.
“तुम उस तीन सीट वाले सोफ़े के पीछे छुप जाओ,” संजू लडखडाती आवाज में बोला. मेरी तरह वो भी बहुत डरा हुआ लग रहा था. उसकी ऐसी हालत देख कर मेरा डर और बढ़ता जा रहा था.
“वो-वो ठीक रहेगा क्या छिपने के लिए?” मैं कांपती आवाज में बोली.
“बातें मत कर जल्दी छुप,” वो फिर बोला. उसकी आवाज में बड़ी बेचैनी थी.
मैंने तुरंत उसकी बात पर अमल किया और सोफे के पीछे जा कर बैठ गई. वो सब देख रहा था कि मैं कैसे छिपी हूँ और झल्लाहट में बोला, “ऐसे कैसे बचेगी तू बापू की नज़रों से? वो सोफे के पास आया तो तुझे देख लेगा. नीचे लेट जा.”
बात सही थी उसकी. इसलिए मैं बिना देरी किए पेट के बल नीचे लेट गई. बड़ी कम जगह थी सोफे और दीवार के बीच. मैं बड़ी मुश्किल से उसमें फिट हो पा रही थी. सिर से लेकर पाँव तक बुरी तरह काँप रही थी मैं. ऐसा लग रहा था जैसे कि कुछ बहुत बुरा होने वाला है.
संजू यहाँ वहां दौड़ रहा था बैठक में छुपने के लिए. मगर उसे कोई जगह नहीं मिल रही थी.
“संजू तू है क्या?” संजू के बापू कि आवाज आई. वो बैठक के नजदीक पहुँच चुका था. उसके क़दमों कि आहट साफ़ सुनाई दे रही थी. किसी भी वक्त वो अंदर आने वाला था. मैं तो ठीक से छुपी हुई थी. मगर संजू अभी भी छुपने की जगह तलाश रहा था.
तभी संजू उस सोफे के पास आया जिसके पीछे मैं छुपी हुई थी और आनन फानन में मेरे ऊपर लेट गया. मैं हैरान रह गई. ये क्या बदतमीजी थी? ऐसे कैसे लेट सकता था वो मेरे ऊपर. मैं छटपटाई उसे अपने ऊपर से उतारने के लिए.
“श्श्ह… शांत रहो.. बापू दरवाजे पर है…” संजू मेरे कान में बोला.
मरती क्या ना करती. मैं शान्त हो गई. इसके सिवा कोई चारा भी तो नहीं था. दरवाजे पर वाकई में उसका बापू खड़ा था. अगर उसे नीचे उतारने के लिए मैं जद्दोजहद करती तो हम दोनों मुश्किल में पड़े जाते. इसलिए मैं चुपचाप दम साधे पड़ी रही