सच कहें -- भारत देश का जो कबाड़ा हुआ है, उसका सबसे बड़ा श्रेय जाता है देश की (अ)न्याय व्यवस्था को! न राजनीतिकों, न सामंतों, और न ही पुलिस को -- केवल जजों को।
लोग एड़ियाँ रगड़ते रह जाते हैं कि जज साहब न्याय देंगे, लेकिन उसके नाम पर उनको बस चूरन ही मिलता है। मैंने खुद देखा है कि मेरे स्वर्गीय पिता जी कैसे न्याय की गुहार करते रहे उम्र भर (कोई तीस साल लड़े वो केस), लेकिन उनको मिला नहीं। उन्होंने मुझे उम्र भर रोके रखा कि मैं “अपने” तरीक़े से उचित न्याय ले सकूं। उनको अपने आख़िरी समय तक न्याय की आशा थी। लेकिन उनको न्याय नहीं ही मिलना था, सो नहीं ही मिला -- केवल तारीख़ें और चूरन! बस!
उनके जाने के बाद मैंने बस एक बार विपक्षी का टेंटुआ दबाया (असली हिंसा नहीं - बस बल और रसूख़ की हिंसा), और पूरा केस (जो हमेशा से ही झूठ और बेईमानी पर आधारित था) तितर बितर हो गया। पिता जी जीवित होते, तो उनको मेरी इस हरक़त पर दुःख होता, लेकिन क्या करें? जानवर मनुष्य की भाषा नहीं सीख सकता न! उससे उसी भाषा में बात करनी चाहिए, जो उसको समझ में आती है। इसलिए जिस तरह से पत्री ने जज की मैया एक करी है, वो उचित है। जब तक इनके पिछवाड़ों में आग नहीं लगेगी, आम लोगों को न्याय नहीं मिल सकता।
बात अब बहुत आगे जा चुकी है। अगर भैरव सिंह को न्याय-प्रणाली की कोई भी इज़्ज़त होती, तो वो इस तरह से व्यवहार ही न करता। वो इन सब से ऊपर जा चुका है। स्वयं को भगवान समझता है। ऐसे लोगों को धरातल की व्यवस्था की कोई परवाह नहीं होती। वो बस एक ही भाषा समझ सकता है - और वो है हिंसा की... भय की। वही भय जो वो वैदेही और विश्व के कारण महसूस करता है। अंततः गाँव वालों ने भैरव सिंह का सामना कर ही लिया। मरी हुई चमड़ी भी कभी न कभी ऐंठ जाती है। इसलिए इस मृतकों की बस्ती में भी कभी न कभी विद्रोह होना ही था।
लेकिन वैदेही की मृत्यु का बहुत दुःख है। उनका और कोई अंजाम हो भी नहीं सकता था। दुःख इस बात का है कि वो अपने जीते जी भैरव सिंह का अंत न देख सकीं। लिखने को बहुत कुछ है, लेकिन मन खिन्न हो गया है भाई। वैसा ही जैसा मेरा हुआ था अपनी ही कहानी में पहले गैबी, और फिर देवयानी की मृत्यु पर हुआ था। इसलिए अधिक नहीं लिख सकता इस घटना पर।
स्थिति अब तय है - भैरव सिंह को केवल मृत्यु दण्ड ही मिल सकता है, और कुछ भी नहीं।