एक सौ नौवां अपडेट
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वैदेही का पुरा परिचय जानने बाद दुकान दार उदय पहले हैरान हो जाता है l वैदेही और विश्व की ओर देखता है फिर अपने दुकान के बाहर लोगों को उत्सुकता वश उसके ओर देखते हुए पाता है l वह गांव वालों की ओर देखते हुए वैदेही से
उदय - नहीं... मैं तुम्हें राशन नहीं दे सकता...
वैदेही - क्यूँ...
उदय - बस... नहीं दे सकता...
वैदेही - मुफ़्त में... या खैरात में नहीं लेने आई हूँ... हक पैसे दे कर लेने आई हूँ...
तभी जो कुछ लोग तमाशा देखने जमा हुए थे, उनमें से कोई एक ऊंची आवाज में कहता है
एक - लगता है... अच्छा खासा पैसा बना कर आई है...
वैदेही मुड़ कर उस भीड़ की ओर देखती है और फिर उदय की ओर मुड़ कर उस से
वैदेही - मैं आपसे पूछती हूँ... मुझे क्यूँ नहीं देंगे... राशन...
उदय - वह... यह मेरी दुकान है... मेरी मर्जी...
वैदेही - ठीक है... (विश्व से) चल विशु... कोई और दुकान चलते हैं...
वैदेही और विश्व मुड़ कर वहाँ से जाने को होते हैं कि तभी उस भीड़ में से कोई चिल्लाता है l
"तु कहीं भी जा... तुझे राशन नहीं मिलने वाली..."
वैदेही वहीँ पर रुक जाती है और भीड़ के तरफ मुड़ कर देखती है I कुछ लोग बड़े बेशर्मी के साथ दांत दिखा रहे थे l वैदेही उनके पास जाने के लिए आगे बढ़ती है, विश्व उसके हाथ पकड़ लेता है l
विश्व - जाने दो दीदी...
वैदेही - छोड़ मेरा हाथ...
विश्व - दीदी...
वैदेही - (अपना हाथ छुड़ा कर) घर से निकलते वक़्त... जो तुने महसुस किया है या कर रहा है... वही जहनी हालत... उन लोगों को भी महसुस होनी चाहिए....
वैदेही उन लोगों के सामने आकर खड़ी होती है l अपने जबड़े को भींच कर सबके चेहरे को घूर कर देखने लगती है l
एक - (शायद भीड़ के पीछे से) ऐसे क्यूँ घूर रही है... खा जाएगी क्या...
यह सुन कर वैदेही हँसते हुए ताली मारने लगती है l वह लोग जो सामने खड़े हुए थे वह लोग पहले एक दुसरे को देखने लगते हैं फिर उनमें से
एक - ऐ... पागल हो गई है क्या...
वैदेही - हाँ... पागल हो गई हूँ... मुर्दों के बीच किसी जिंदे को ढूंढ रही थी... पर मुझ अबला पर छींटे कसने के लिए भी... मेरे सामने नहीं आ पा रहा है... पीछे से ताना मार कर... तमाशा देख रहा है...
तभी भीड़ के पीछे से एक आदमी सामने आता है l
आदमी - हाँ अब बोल.. मैं सामने आ गया...
वैदेही - हाँ तो मैं यह पूछ रही थी... क्यूँ नहीं मिलेगा मुझे राशन...
आदमी - क्यूंकि... तु गंदी है... गिरी हुई है...
वैदेही - अच्छा... यह तुमने कैसे पता लगा लिया...
आदमी - तु क्या समझती है... रंग महल में क्या होता है... हम कुछ नहीं जानते... सब जानते हैं... ठेके में... चौराहों में... चर्चे तेरे ही तो होते रहते थे...
वैदेही - ओ.. तो ठेके में... चौराहों में... चर्चे मेरे होते रहते थे... उस चर्चे में मुझे बनाए कौन रखता था.... क्या उसमें मेरी मर्जी होती थी...
वह आदमी चुप रहता है l वह अपने आस पास लोगों की ओर देखता है l फिर वैदेही से
आदमी - वह हम कुछ नहीं जानते... हमारे समाज में... तुम रह नहीं सकती... इससे हमारा समाज गंदा हो जाएगा...
वैदेही - एक अबला को... जीप और मोटर साइकिल में सवार... दस बारह लोग उठा ले जाते हैं... क्या तब समाज गंदा नहीं हो गया... एक लड़की चीखती रही... चिल्लाती रही... अपनी बेबसी पर रोते हुए... अपने भाई के बाद... जिन भाइयों को राखी बांधी थी... उन भाइयों को पुकारती रही... पर वह भाई... इस बहन को बचाने के वजाए... अपनी घरों में दुबके रहे... क्या तुम्हारा समाज... इससे गंदा नहीं हुआ...
दुकान के पास जो भीड़ थी उनमें मरघट चुप्पी छाई हुई थी, वैदेही की बात उसके आवाज़ के साथ चाबुक की तरह वहाँ पर मौजूद लोगों के जेहन पर लग रही थी l
वैदेही - मेरा अपना भाई लड़ा... पर... बेहोश हो कर गिर गया... मेरे बाबा... वह मार दिए गए... मैं पुकारती रही... उन रिश्तों की दुहाई देती रही... जो इस गांव की मिट्टी ने मुझे दिए थे... इस मिट्टी में बने थे... काका.. चाचा... मामा... मौसा... (थोड़ी देर के लिए चुप हो जाती है) कोई नहीं आया... सब के सब इसलिए छुपे हुए थे.. क्यूँकी.. वह सब... महापात्र परिवार पर गुजर रहा था... पर मैं पूछती हूँ... क्या तुम्हारा परिवार महफूज है... (फिर एक चुप्पी) मुझे मेरे भाई पर गर्व है... वह थोड़ी देर के लिए ही सही... लड़ा... अभी भले ही मुहँ झुकाए खड़ा है... पर बात जब अपनी दीदी पर आएगी.. वह फिर लड़ेगा... पर तुम लोगों का क्या...
कोई कुछ नहीं कह पाता, उस आदमी से रहा नहीं जाता l वह गुस्से से वैदेही की ओर आगे बढ़ता है कि विश्व वैदेही के सामने खड़ा हो जाता है l विश्व के सामने देख वह आदमी रुक जाता है l वैदेही विश्व को अपने सामने से हटा कर बगल में खड़ा करती है l
वैदेही - वैसे... अभी तुम्हें गुस्सा आया... मुझपर... किस लिए... (एक पॉज के बाद) मैं खुद को बचाने के लिए... कुछ कर नहीं पाई... इसलिए... या... तुम लोग उस वक़्त मर्द नहीं बन सके... इसलिए...
सन्नाटा, घोर सन्नाटा, वह जो आगे आकर खड़ा था वह धीरे धीरे पीछे हटने लगता है l
वैदेही - अरे... जानवर भी अपने बच्चों के लिए शिकारीओं से भीड़ जाते हैं... लड़ जाते हैं... हम तो इंसान हैं... फिर क्या कमी रह गई... के हम अपनों के लिए भी... शिकारी से नहीं लड़ पा रहे हैं...
वहाँ पर खड़े सभी का चेहरा उतर जाता है और सिर अपने आप ग्लानि भाव से झुक जाता है
वैदेही - मैं... यहाँ मैं कोई क्रांति की बिगुल फूंकने नहीं आई हूँ... बस अपने भाई के साथ जिंदगी बिताना चाहती हूँ... (हाथ जोड़ कर) मैं... आप लोगों में से एक हूँ... सताई हुई... कुचली हुई... आगे आपकी मर्जी...
कह कर विश्व की हाथ पकड़ कर वापस अपने घर की ओर चल देती है l विश्व भी अपना सिर झुकाए वैदेही के पीछे पीछे चल देता है l
घर पर पहुँच कर वैदेही धप से चारपाई पर बैठ जाती है l विश्व देखता है वैदेही की साँसे तेज तेज चल रही थी l गुस्से और अवसाद से भरा चेहरे पर हल्की सी हँसी दिख रही थी l
विश्व - कुछ नहीं होगा दीदी... तुम कितनी भी चिंगारी भड़काओ... गिले बारूद में... धमाका नहीं होगी...
वैदेही - (विश्व की ओर देख कर) तु क्या सोच रहा है... मैं उनसे कोई उम्मीद पाले गई थी...
विश्व - (हैरान हो कर) तो...
वैदेही - मैं खुद को जिंदा करने गई थी... तुझे जिंदा करने गई थी...
विश्व - म.. मत.. लब...
वैदेही - तु आज भी मेरे लड़ जाएगा... इसी विश्वास को मजबूत करने गई थी... और तुने मेरा विश्वास टूटने नहीं दिआ...
विश्व - (हैरानी से वैदेही का मुहँ ताकने लगा) मेरा तुम्हारे लिए... सामने आना स्वभाविक है दीदी...
वैदेही - हाँ... तेरे लिए और मेरे लिए... यह स्वभाविक है... पर इस गांव में रहने वालों के लिए... यह स्वभाविक नहीं है... मेरे भाई... जो जुल्म हमारे पर हुआ... वैसे ही जुल्मों के शिकार यह गांव वाले हैं... पर... हर कोई उसे भुला कर जीना चाहता है...
विश्व - तो दीदी भुल जाने दो उन्हें... हमें क्या...
वैदेही, एक दर्द भरी मुस्कान लेकर विश्व की ओर देखती है I फिर एक गहरी सांस छोड़ कर खड़ी होती है l विश्व की ओर देखते हुए
वैदेही - विशु... मेरे भाई... जानता है... तु जब जनम लेने को था... माँ को अथाह दर्द उठा... डॉक्टर यश पुर में था... माँ का दर्द देख कर मुझसे रहा ना गया... मैं बाहर भागी... चिल्लाने लगी... (आवाज भर्रा जाती है) मौसी... काकी... मामी... नानी... पता नहीं क्या क्या... और किसे बुलाने लगी... सभी आस पास पड़ोस के औरतें भागते हुए आए... उनकी देख रेख में तु पैदा हुआ... (वैदेही कुछ देर के लिए चुप हो जाती है) विशु... रिश्ते... सिर्फ खुन के नहीं होते हैं... जिनकी हदें... चार दीवारी के अंदर सिमट जाते हैं... रिश्ते... दिल के होते हैं... आत्मा के होते हैं... मिट्टी से होते हैं... तेरे जनम पर उन रिश्तों ने साथ दिया है... बेशक उन रिश्तों पर... राजा साहब की हुकूमत... बेवसी... लाचारी... अकर्मण्यता की परत चढ़ गई है... तुझे और मुझे उन परतों को हटाना है... मत भुल... तुझ पर उन रिश्तों का कर्ज है....
तभी विश्व का ध्यान टूटता है l वह खुद को सड़क के बीचों-बीच पाता है l अपने अतीत के एक पन्ने को याद करते हुए, चलते चलते ना जाने कब वह सड़क के बीच पहुँच गया था I उसके पीछे कई गाडियाँ अटकी हुई थी l वह सब को हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए सड़क के बीच से हट जाता है और किनारे हो जाता है l विश्व के हटने के बाद गाडियाँ फिर से सड़कों पर दौड़ने लगती हैं l
कुछ देर के लिए वह सोच में पड़ जाता है l फिर वह किनारे किनारे चलने लगता है l कुछ देर चलने के बाद उसके समानांतर एक गाड़ी को चलते हुए देखता है l विश्व के रुकते ही वह गाड़ी रुक जाती है l विश्व के तरफ वाली खिड़की नीचे उतरने लगती है l अंदर बैठे शख्स को देख कर विश्व की भवें सिकुड़ जाती हैं l
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ESS ऑफिस
वीर की कैबिन में वीर अपने रीवल्वींग चेयर पर बैठा हुआ है और चेयर पर दाएं बाएं झूमते हुए अनु को देख रहा है l उसके ठीक समाने सामने अनु बैठी हुई है l वीर एक टक पलकें झुकाए बिना अनु को देखे जा रहा है और अनु जैसे ही वीर से नज़रें मिलती है सिर शर्म के मारे झुका लेती है l शर्म ओ हया चेहरे पर इस कदर छाई हुई है कि गाल सुर्ख लाल हो चुके हैं l अनु हँसने की कोशिश करती है पर हँस नहीं पाती l असमंजस जी अपनी जगह पर बैठी हुई है पर उठ नहीं पाती l बड़ी मुश्किल से उसके मुहँ से आवाज निकलती है
अनु - राजकुमार जी.. मुझे ऐसे ना देखिए प्लीज...
वीर - क्यूँ...
अनु - वह... वह मुझे... बहुत... श्शर्म आ रही है...
वीर - (एक ठंडी आह भरते हुए)
कई बार ख्वाहिश की...
इन कत्थई आँखों की गहराई में डूब मरने की...
पर हाय... उनकी यह मासूमियत है या अदा...
नजरों से घायल करते हैं वह हमें...
नजरें फ़ेर कर मरने भी नहीं देतीं...
यह सुनते ही अनु अपनी कुर्सी से उठ कर तेजी से वीर के पास आती है और वीर के होंठों पर हाथ रख देती है l
अनु - यह आप मरने की बात क्यूँ कर रहे हैं... भगवान करे... आपको मेरी भी उम्र लग जाये...
वीर का चेहरा कुछ ऐसा हो है, जैसे उसके मुहँ में किसीने खट्टे के साथ कुछ कड़वा रख दिया हो l वह अपने मुहँ से अनु का हाथ निकाल देता है l
अनु - क्या हुआ राजकुमार जी...
वीर - अनु... तुमने सारा गुड़ का गोबर कर दिया...
अनु - मैंने क्या किया...
वीर - (अनु की हाथ को लेकर अपने सीने पर रखता है) अपनी दिल की ज़ज्बात को... अल्फाजों में पिरों कर... तुम्हें सुनाया... तुमने यह समझा... की मैं मरने वाला हूँ... अरे डफर... मैं तो अभी भी मर रहा हूँ... तुम पर...
अनु - (शर्मा जाती है, और अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश करती है) छोड़िये ना...
वीर - (चुप रहता है,पर हाथ छोड़ता नहीं है )
अनु - (अनु अपनी कोशिश रोक देती है, वीर की आँखों में देखते हुए) छोड़िए ना...
वीर - (अनु के आँखों में देखते हुए) छोड़ दूँ...
अनु - (अपना सिर झुका लेती है और अपना सिर ना में हिलाती है)
वीर - अनु...
अनु - हूँ...
वीर - जानती हो... ऐसा कोई पल नहीं... जब तुम मेरी सोच में नहीं होती... एक ख्वाहिश मेरे दिल में हमेशा उफान लेती है... हर पल... तुम मेरे आँखों के सामने रहो.. और हर पल.. मैं तुम्हारी प्यारी बातेँ सुनता रहूँ... और...
अनु की हाथ को खिंच देता है l अनु झटके के साथ वीर पर झुक जाती है l अनु का चेहरा वीर के चेहरे के बिल्कुल पास आ जाती है l अनु की धड़कन बढ़ जाती है, सांसे तेजी से चलने लगती हैं l
अनु - (वीर की आँखों में देखते हुए, बड़ी मुश्किल से) और...
वीर - (अपनी नाक को अनु के नाक से लड़ाता है) इस तरह से... अपनी नाक तुम्हारी नाक से लड़ाता रहूँ...
अनु के चेहरे पर शर्म और खुशी के भाव उभर आते हैं l अपने दुसरा हाथ चेहरे पर रख कर आपनी आँखे मिंच लेती है l
वीर - अनु... (अनु अपनी उँगलियों की फांको से वीर को देखती है) आई लव यू...
अनु इस बार मुड़ कर खड़ी हो जाती है, वीर उसे खिंच कर अपनी गोद में बिठा लेता है l
वीर - अनु...
अनु - (बड़ी मुश्किल से) ज.. जी..
वीर - मुझसे भी कहो ना...
अनु - क्क्क्या...
वीर - वही... जो मैंने तुमसे कहा... आई लव यू...
अनु - (अपना सिर हिला कर ना कहती है)
वीर - क्यूँ... क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती...
अनु - (अपना सिर हाँ की मुद्रा में कंधे पर झुका कर रह जाती है)
वीर - फिर कहो ना...
अनु - (फिर सिर हिला कर ना कहती है)
वीर - क्यूँ...
अनु - (अपने दोनों हाथों से चेहरे को छुपा कर) मुझे बहुत शर्म आ रही है...
वीर - कमाल करती हो... तीन ही शब्द... दुनिया की सबसे प्यारे शब्द... जो दो प्यार करने वाले एक दुसरे को कहते हैं... एक नहीं कई बार... मैं तो सिर्फ़ एक बार सुनना चाहता हूँ...
आई लव यू... बस
तभी वीर की मोबाइल बज उठती है l मोबाइल के बजते ही वीर की पकड़ ढीली हो जाती है और अनु भी वीर की गोद से उठ जाती है l वीर डिस्प्ले देखता है राजगड़ फ्लैश हो रहा था l वीर फोन उठाता है
वीर - हैलो... माँ... क्या हुआ...
सुषमा - हाँ... कैसा है...
वीर - मैं तो ठीक हुँ... पर माँ.. तुम इस वक़्त... फोन... सब ठीक तो है ना..
सुषमा - अभी तक तो ठीक है... पर पता नहीं...
वीर - क्या... क्या मतलब है...
सुषमा - रुप आई है... और उसने जिस तरह से... बड़े राजा साहब से बात की.... मैं हैरान हो गई....
वीर - क्या... (चौंकते हुए) नंदिनी... राजगड़ में है... कब... गई कैसे... कल रात तो... मैंने देखा था उसे...
सुषमा - अच्छा... तो अपनी बहन का ऐसा खयाल रखा है तुने...
वीर - माँ... (शर्मिंदगी के साथ) ऐसी बात नहीं है... मुझे वाकई मालुम नहीं है... और सुबह घर में किसी ने कहा भी कुछ नहीं...
सुषमा - क्या... (चौंक कर) कल रात को देखा था... और कल ही रात को... विक्रम ने फोन पर बताया कि... रुप दोपहर को महल पहुँचेगी...
वीर - ओ...
सुषमा - क्या हुआ... घर में कुछ मनमुटाव हुआ है क्या...
वीर - नहीं नहीं... ऐसा कुछ नहीं है... खैर क्या हुआ... तुम किस बात से परेशान हो....
सुषमा - वह......
कहते कहते चुप हो जाती है, वीर अपने कान से मोबाइल निकाल कर मोबाइल देखता है l फिर अपने कानों से लगा कर
वीर - हैलो... माँ..
सुषमा - हाँ... हाँ वीर...
वीर - क्या हुआ... तुम... किस बात से परेशान हो...
सुषमा - पता नहीं कैसे कहूँ... (फिर चुप हो जाती है)
वीर - प्लीज माँ... बताओ क्या हुआ है... किस बात का टेंशन है...
सुषमा - (एक गहरी सांस छोड़ते हुए) नहीं... अभी रहने दे... रुप अभी है यहीं पर... मैं... मैं... मैं बाद में तुझसे कहती हूँ...
वीर - माँ... बताओ ना क्या हुआ...
सुषमा - (चुप रहती है)
वीर दोबारा अपना फोन कान से निकाल कर देखता है और फिर कान से फोन लगाता है l
वीर - माँ... तुम चुप क्यूँ हो...
सुषमा - कु.. कुछ नहीं बेटा... मैं यह सोच कर परेशान थी... के घर के दीयों से... घर रौशन हो रही है... या घर में आग लग रही है...
वीर - माँ यह... क्या बोल रही हो...
सुषमा - कुछ नहीं बेटा... तुझसे बात किया... तो मुझे एहसास हुआ... के मैं माँ हूँ... इस घर में... मर्द और औरत के बीच... जो खाई रखा गया था... उसे मुझे ही तो भरना है... जिन्हें इस कैद खाने से आजादी मिली है... उन्हें अब पंख भी मिली है... आसमान में उड़ने के लिए... मैं तुझ में या रुप में क्यूँ फर्क़ करूँ.... बस तुझसे बात करते हुए... मैं यह समझ गई...
वीर को कुछ भी समझ में नहीं आया l वह बस सुनता रहा l वीर को इतना जरूर एहसास हुआ कुछ तो हुआ है, रुप अचानक राजगड़ गई है, जिससे सुषमा परेशान है l
अनु - क्या हुआ...
वीर अनु की तरफ देख कर अपना सिर ना में हिला कर "कुछ नहीं" कहता है l
सुषमा - वीर... बहु है क्या... तेरे साथ...
वीर - वह... हाँ... हाँ माँ...
सुषमा - जरा देना उसे फोन...
वीर अपना मोबाइल अनु की तरफ बढ़ा देता है, और अपने मुहँ से इशारे से कहता है "माँ" I अनु झट से वीर की हाथों से फोन ले कर
अनु - नमस्ते माँ...
सुषमा - जीती रहो बेटी... कैसी हो...
अनु - जी अच्छी हूँ...
सुषमा - और तुम्हारी दादी...
अनु - जी वह भी ठीक हैं...
सुषमा - ठीक है बेटी... वीर से और तुम से बात कर किया तो अच्छा लगा... तुम वीर के पास हो... साथ हो... यही काफी है...
अनु - (कुछ कह नहीं पाती)
सुषमा - अनु बेटी... तुम अपना, दादी का और वीर का खयाल रखना...
अनु - जी...
सुषमा कॉल कट कर देती है l अनु फोन को लेकर देखती है कॉल कट हो चुका था, वह मोबाइल को वीर की तरफ बढ़ा देती है l वीर अपनी सोच में खोया खोया मोबाइल लेता है और फिर अचानक रुप को फोन लगाता है l
महल में अपने कमरे में रुप सोई हुई थी l मोबाइल के बजने से उसकी नींद में खलल पड़ जाता है l नींद भरे आँखों में रुप आँख मलते हुए मोबाइल देखती है I वीर का नाम देख कर कॉल उठाती है
रुप - हैलो...
वीर - तु... कब राजगड़ चली गई...
रुप - आज सुबह ही...
वीर - (थोड़ा संजीदा हो कर) नंदिनी... सच सच बता... क्या हुआ है... माँ क्यूँ परेशान है...
रुप - (चौंक कर उठ बैठती है) क्या... चाची माँ परेशान हैं... क्यूँ...
वीर - अरे पागल लड़की... मैं तुझसे पूछ रहा हूँ... तु उल्टा मुझसे पूछ रही है...
रुप - (समझ जाती है, सुषमा ज़रूर वीर से जानने की कोशिश की है) चाची माँ ने क्या पूछा... मेरा मतलब है... क्या कहा...
वीर - कुछ नहीं बताया... पर लगता है... तुने उन्हें किसी असमंजस स्थिति में डाल दिया है...
रुप अपने दांतों तले जीभ चबा लेती है और अपने माथे पर हाथ मारती है l
रुप - (अपने आप से) कुछ ज्यादा ही बोल गई... ओवर कंफिडेंट में... पर लगता है... चाची माँ ने... अपना डाऊट पुछा नहीं है वीर भैया से....
वीर - नंदिनी... कुछ पूछा तुमसे...
रुप - वही तो सोच रही हूँ... क्या कहूँ तुमसे... (फिर से अपनी जीभ चबा लेती है)
वीर - क्या...
रुप - (मन ही मन में) ओह गॉड... मुझे बात को घुमाना पड़ेगा...
वीर - नंदिनी... अब तुम मुझसे क्या छुपा रहे हो...
रुप - मैं कहाँ छुपा रही हूँ... छुपा तो तुम रहे हो...
वीर - मैं... मैंने क्या छुपाया है तुमसे...
रुप - अच्छा... क्या छुपाया है... तुमने भाभी सिलेक्ट कर ली... माँ को भी दिखा दिया... पर हमें भूल गए...
वीर - (अपनी गलती का एहसास करता है) ओह सॉरी बहना... क्या तुम इस बात से नाराज हो...
रुप - और नहीं तो... हाँ...
वीर - अच्छा बहना तु जल्दी आजा... मैं तुझसे और भाभी से मिलवाता हूँ... अभी कहे तो... वीडियो कॉल करवाके दिखाता हूँ...
रुप - ना ना भैया... मैं तो आमने सामने देखूँगी... रही जल्दी आने की बात... वह तो मैं आ ही जाऊँगी... पर आपको भी एक काम करना होगा...
वीर - क्या... काम... कैसा काम...
रुप - (थोड़ी संजीदा हो कर) भैया... आप बहुत खुश हो... मैं भी बहुत खुश हूँ... पर हम दोनों जिनके पास ठहरे हैं... क्या वह दोनों खुश भी हैं...
वीर - क्या मतलब खुश हैं या नहीं... भैया और भाभी... उनके बीच अभी वह दूरी तो नहीं है...
रुप - दूरी नहीं है... पर नजदीकी भी तो नहीं...
वीर - नंदिनी... वे दोनों अब एक ही कमरे में रह रहे हैं... उन दोनों के बीच फिर भी दूरियाँ है... तो हम क्या कर सकते हैं... उन दोनों की चार दीवारी की दुनिया जहां खत्म होती है... उनकी दुनिया की उस हद के बाद... हम उनके दुनिया में आते हैं... उस चारदीवारी के भीतर ना हमें जाना चाहिए... ना झाँकना चाहिए...
रुप - (दबी आवाज में) ठीक है वीर भैया... मैं फोन रखती हूँ... शायद राजा साहब आ गए हैं...
फोन कट जाता है l वीर अनु की देखता है, अनु उसे गंभीर नजरों से देख रही है l
वीर - क्या बात है अनु... तुम्हें क्या हुआ...
अनु - यह चार दीवारी... भैया भाभी...
वीर - ओ... एक्चुयली... मेरे भैया और भाभी के बीच कुछ... डिफरेंसेस है... और देखो मेरी पागल बहन... उनके बीच की दूरियाँ दूर करने के लिए... मुझसे कह रही है...
अनु - तो गलत क्या कह रही हैं नंदिनी जी... वह अपने भैया और भाभी के लिए... अपने भाई से ही तो कह रही हैं...
वीर - (अनु की ओर हैरान हो कर देखते हुए) अनु... ठीक है... उसने अपने बड़े भाई और भाभी के लिए... मुझसे कुछ करने के लिए कहा... पर... पर मैं क्या कर सकता हूँ... इतने बड़े घर में... एक ही कमरे में... रहने के बावजूद... उनके बीच दूरियाँ है... भाभी को मनाने के लिए... भैया को जतन करते हुए हमने देखा है... अब फिर भी... उनके बीच दूरियाँ है... तो मैं क्या कर सकता हूँ...
अनु - वह घर... बहुत बड़ा है... है ना...
वीर - हाँ... तो...
अनु - चार लोग आप रहते हो... तीन जन.. सिर्फ खाने के समय ही शायद आपके भाभी जी के साथ होते हो... बाकी समय... वह अकेली रहती हैं... है ना...
वीर - (इस बार कुछ नहीं कहता सिर्फ अपना सिर हाँ में हिलाता है) पर अनु उनके अकेले पन को... भैया ही दूर कर सकते हैं...
अनु - हाँ... मैं भी यही कह रही हूँ... आप कुछ ऐसा कीजिए... उस घर से.. भैया और भाभी कुछ दिनों के लिए... कहीं दुर चले जाएं... जहां भी जाएं... सिर्फ वही दोनों हों... उनके पास... कोई ना हो... इस जंजाल भरे दुनिया से दूर.... उनके बीच की तन्हाई की खाई को... वही दोनों ही भरेंगे...
वीर - (अनु को देखता रह जाता है)
अनु - क्या हुआ...
वीर - मैं अपनी जज्बातों को... कितनी भारी अल्फाजों में सजा कर तुम्हें बताया... तुम वह समझ नहीं पाई... पर किसीके बीच की दूरियाँ कैसे मिटाना है... तुम्हें इसकी समझ खूब है... ह्म्म्म्म
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विक्रम इशारे से गाड़ी के अंदर आने को कहता है l विश्व गाड़ी का दरवाजा खोल कर विक्रम के बगल में बैठ जाता है l विक्रम गाड़ी को आगे बढ़ाता है l
विक्रम - सो... कहाँ पर ड्रॉप करूँ...
विश्व - अभी घर पर कोई नहीं होंगे... इसलिए... तुम मुझे जहां ले कर जाना चाहो... चल सकते हो...
विक्रम - मैंने सोचा... एट लिस्ट... तुम मुझे थैंक्स कहोगे...
विश्व - वजह...
विक्रम - अभी अभी.. तुम्हें अपनी गाड़ी से उड़ा सकता था... पर किया नहीं...
विश्व - तो उड़ा ही देते... किस खुशी में... ब्रेक लगाया...
विक्रम - अगर उड़ा दिया होता... तो राजगड़ में भूत बनकर घूम रहे होते... हाँ यह बात और है... तुम भूत बन कर घूमने ही वाले हो...
विश्व - यह... निजी सुरक्षा वाहिनी और राजनीति छोड़ कर... ज्योतिषी की दुकान खोल लिए क्या... भविष्यवाणी करने लगे...
विक्रम - अंजाम... जो होने वाला है... वही बता रहा हूँ... तुम रुप फाउंडेशन केस को... रिओपन कर... कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे...
विश्व - कुछ हासिल करने के लिए... केस को दोबारा नहीं खुलवा रहा हूँ... इस केस के खुलते ही... कुछ लोग खोयेंगे जरुर... बहुत कुछ... नाम... शोहरत... इज़्ज़त... और ना जाने क्या क्या...
विक्रम चुप रहता है l गाड़ी चली जा रही है l दोनों के बीच कुछ देर के लिए एक चुप्पी थी l
विश्व - कहीं तुम डर तो नहीं गए...
विक्रम - विश्व प्रताप... तुम्हारा पाला क्षेत्रपालों से पहले भी पड़ा है... और तुम यह अच्छी तरह से जानते होगे... हम क्षेत्रपाल किसीसे डरते नहीं हैं...
विश्व - हा हा हा हा हा हा... (हँसने लगता है) डर... बहुत ही अच्छा लफ्ज़ है... और क्षेत्रपाल... जो नाम... रुतबा और रौब को... जिस ऊंचाई पर बनाए रखे हैं... कहीँ वह गिर ना जाए... इसलिए हर तरह के हथकंडे अपना रहे हो... और बोल रहे हो... क्षेत्रपाल नहीं डरते किसी से... हा हा हा हा हा...
विश्व अपना हँसी रोक कर विक्रम की ओर देखता है l विक्रम के चेहरे पर ना कोई शिकन था ना कोई तनाव l गाड़ी की रफ्तार थोड़ी बढ़ जाता है और विक्रम के चेहरे पर नाराजगी जरुर दिखाई देता है l
विश्व - क्षेत्रपाल के युवराज... मुझे लगता है... मेरे लिए तुम्हारे पास... कोई शिकायत है...
विक्रम - हाँ... है तो...
विश्व - हूँउँ.. नाराज हो... या गुस्सा...
विक्रम - तुम दुश्मन हो... नाराजगी या गुस्सा... दुश्मनों के लिए पाला नहीं जाता... नफरत या फिर जहर...
विश्व - हाँ यह भी सच है... तो बताओ... मेरे खिलाफ अपने दिल में... क्या क्या जहर पाले हुए हो... और मुझसे क्या चाहते हो...
विक्रम - जहर तो गले तक भरा हुआ है... वह भी इतना के मैं तुम्हें... जिंदा नहीं देखना चाहता...
विश्व - ह्म्म्म्म... तो मतलब इसबार गाड़ी ने नहीं... कोई निजी ज़ज्बात तुम्हें धोका दे गया...
विक्रम - हाँ.. हम दोस्तों से भी एहसान नहीं लेते... पर तुम... तुम्हारा एहसान... जो मुझ पर कर्ज बन गया है... बोझ है...
विश्व - हा हा हा हा... फिर से हँसाया... क्षेत्रपालों के दोस्त... होते भी हैं... हा हा हा...
विक्रम - दुश्मन तो होते हैं... और दुश्मन का एहसान... बदकिस्मती होती है... जो बहुत चुभती ही रहती है...
विश्व - तब तो बड़े बद किस्मत हो... विक्रम सिंह... जब तक भैरव सिंह को... मैं उसके अंजाम तक ना पहुँचा दूँ... तब तक... तुम्हारी किस्मत.. तुम्हारा साथ नहीं देगा...
विक्रम - विश्व प्रताप... जिस अंजाम की तलबगार हो... कहीं ऐसा न हो... उससे पहले ही यह जहान... तुम्हें रास ना आए...
विश्व - मुझे मारने की ख्वाहिश तो बहुतों ने पाला है... पता नहीं... पर... इतना जरूर है... होश सम्भालने से पहले से ही.. मैं मौत से... और मौत मुझसे... आंख-मिचौली खेल रहे हैं... पैदा होने से पहले मौत ने.... मुझे मारने की कोशिश की... हार गया... महल में... भैरव सिंह के कुत्तों ने कोशिश की... हार गए... जैल में.. कुछ ना मुराद मरदुदों ने कोशिश की... नहीं हुआ उनसे... और अभी देखो... कुछ देर पहले... तुमसे भी नहीं हुआ...
विक्रम - (जबड़े भींच जाता है) कहा ना... तुम्हारा... यानी एक दुश्मन के एहसान का कर्ज है मुझ पर...
विश्व - वरना... उड़ा देते...
विक्रम - नहीं... इतनी आसान मौत... नहीं.. हरगिज़ नहीं...
विश्व - तो एहसान का बदला... एहसान करने के लिए... ट्रैफ़िक पर नहीं उड़ाया मुझे...
विक्रम - एहसान... ऐसा वापस करूँगा... के तुम अपने घुटने पर आ कर एहसान मानोगे...
विश्व - अच्छा... (हँसते हुए) अपनी गाड़ी में ब्रेक लगा कर... मुझ पर एहसान जाता रहे थे...
गाड़ी एक मैदानी इलाके में पहुँचती है l विक्रम गाड़ी रोक देता है और गाड़ी से उतर जाता है l विश्व भी उतर जाता है l विक्रम गाड़ी से कुछ दूर जाकर खड़ा होता है l विश्व भी जाकर उसके बगल में खड़ा हो जाता है l
विश्व - यह विक्रम वही है ना... जो शहर में जब भी गुज़रता था.. उसके आगे पीछे कंवॉय हुआ करता था... आज कल अकेले गाड़ी चला रहे हो...
विक्रम - हाँ वही है... जिसका अपना कंवॉय हुआ करता था... तुमने उस विक्रम को... उसीके नजरों में गिरा दिया... इसलिए तुम्हें मार कर... अपनी नजर से उठना चाहता हूँ...
विश्व - ओ... तो वह मार... सिर्फ जिस्म पर नहीं लगे थे... दिल से लेकर रूह में छप गए थे...
विक्रम - तुमसे मार खाई... इस बात का मलाल नहीं है मुझे... हार और मौत से कोई दुख नहीं होता... पर मेरी जिंदगी के लिए... मेरी पत्नी घुटने पर आ गई... और तुमसे भीख मांगने लगी... यही... यही मेरी मर्दानगी को कचोट रही है... मैं तुम्हें एक दिन घुटने पर देखना चाहता हूँ... और तुम्हारे किसी अपने को... तुम्हारे लिए गिड़गिड़ाते हुए... देखना चाहता हूँ... और वादा है तुमसे... मैं वह दिन दिखाऊंगा जरूर...
विश्व - ह्म्म्म्म... समझ गया... वैसे यह खुद से तुम्हारी नाराजगी है... मुझसे किस बात की नाराजगी है...
विक्रम - तुम हो क्या... (चिल्लाता है) तुम हो कौन...(गहरी गहरी सांस छोड़ते हुए विश्व के करीब आता है) मेरा भाई... मेरा हम साया... आज मेरे खिलाफ हो गया है.... तुम्हारे लिए... क्यूँ... तुम मेरे जीवन में... जब से आए हो... एक नासूर बन गए हो... रोज कोई ना कोई दर्द दे रहे हो... क्यूँ...
वापस चल कर गाड़ी के बोनेट पर दोनों हाथ मारता है l फिर विश्व की ओर मुड़ कर
विक्रम - बचपन से लेकर... आज तक वह मेरे साथ था... मैं उसके लिए बहुत खास हुआ करता था... मेरे लिए वह दुनिया में... किसीसे भी दुश्मनी ले सकता था.... पर तुम... पता नहीं कब से.. तुम उसके जिंदगी में आए हो... वह मुझसे दूर चला गया है... एक बात सुन लो विश्व... मेरे लिए... मेरा वीर सब कुछ है... उसके लिए... मैं कुछ भी छोड़ सकता हूँ... (और कुछ नहीं कह पाता, चुप हो जाता है, गहरी गहरी सांस लेने लगता है) तुम... तुमने उसे क्या दिया है...
विश्व - दोस्ती... (एक पल के लिए चुप हो जाता है) अपने हिस्से की सच्ची दोस्ती... मैंने उससे कुछ भी ख्वाहिश नहीं की... पर वह निभा रहा है... मुझसे अपने हिस्से की सच्ची दोस्ती...
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शाम का समय
क्षेत्रपाल महल
रुप अपने कमरे में बैठ कर पढ़ रही है l महल में रुप की निजी नौकरानी सेबती, रुप के कमरे के बाहर से आवाज दे कर अंदर आने की इजाजत मांगती है l रुप उसे अंदर आने के लिए कहती है l रुप उसे गौर से देखती है l
सेबती - (अपना सिर झुकाए हुए) राजकुमारी जी... राजा साहब आपको याद किया...
रुप - ठीक है... चलते हैं... अच्छा सेबती... एक बात पूछूं..
सेबती - जी पूछिये... क्या तुम हमेशा ऐसे ही खुद को... घूंघट के पीछे छुपाये रखती हो...
सेबती - जी...
रुप - अच्छा.... एक बात बताओ... यहाँ अंतर्महल में कोई पुरुष नहीं आते... तो तुम्हें खबर किसने की...
सेबती - वह राजकुमारी... अंतर्महल तक कोई खबर दे देता है... वह खबर हम में से कोई पहुँचा देता है....
रुप - ओ...
सेबती - राजकुमारी जी.... वह राजा साहब...
रुप - ह्म्म्म्म... चलेंगे... तुम जाओ... मैं तैयार हो कर निकलती हूँ...
सेबती अपना सिर झुकाए बिना पीठ किए कमरे से बाहर निकल जाती है l उसके जाने के बाद रुप अपनी आँखे बंद करती है और कुर्सी से उठ खड़ी होती है l दोनों हाथों के उँगलियों को मोड़ कर () फिंगर क्रॉस करते हुए खुद से बड़बड़ाने लगती है l
"कुल... रुप कुल... दो पहर को... ज्यादा एक्साइटमेंट के साथ साथ... ओवर कंफिडेंट हो गई थी... इसलिए खतरे की घंटी बजते बजते रह गई... तुझे चाची माँ का साथ चाहिए... उन्हें चैलेंज नहीं करना है... इसलिए कुल... राजा साहब के सामने अच्छे से पेश आना है..."
फिर उफ करते हुए एक गहरी सांस छोड़ती है, फिर अपने कमरे से निकल कर महल के बैठक प्रकोष्ठ में पहुँचती है l कमरे में भैरव सिंह अकेला सिंहासन पर बाएं पैर पर दाहिना पैर मोड़ कर बैठा हुआ था l रुप अपनी नजरें झुकाए भैरव सिंह के सामने खड़ी हो जाती है l
भैरव सिंह - राजकुमारी... राजगड़ में कैसे आना हुआ आपका...
भैरव सिंह के इतने मात्र पुछ लेने से रुप की हालत खराब हो जाती है उसकी सारी की सारी आत्मविश्वास धरी की धरी हो जाती है l
भैरव सिंह - हमने आपसे कुछ पुछा...
रुप - जी... म्म... हम वह... छोटी रानी जी से मिलना चाहते थे... और... महल की याद भी आ रही थी...
भैरव सिंह - आपका सफर कैसा रहा...
रुप - जी बहुत अच्छा...
भैरव सिंह - महताब बता रहा था... xxx चौक पर... आपकी गाड़ी रुक गई थी... आप अपने गाड़ी से उतरे और... (भैरव सिंह रुक जाता है और रुप की प्रतिक्रिया देखने लगता है)
रुप - जी... जी.. वह गाड़ी वहीँ पर रुक गई... स्टार्ट नहीं हुई... इसलिए... हमने.. सामने जो दुकान दिखी... उसके भीतर चले गए...
भैरव सिंह - फिर...
रुप - (अपनी आँखे जोर से बंद कर लेती है और जबड़े भींच लेती है)
भैरव सिंह - हम दोबारा नहीं पूछते...
रुप - (आवाज में डर था) जी... वह... हम... उस दुकान में... गए... पर... ज्यादा समय नहीं रुक पाए... वह दुकान... और उसकी मालकिन... हमें बिल्कुल अच्छी नहीं लगी... इसलिए हम तुरंत वापस चले आए...
रुप ख़ामोश हो जाती है l भैरव सिंह भी कुछ पल के लिए चुप रह कर रुप को देख रहा था, फिर
भैरव सिंह - ह्म्म्म्म... अच्छा किया आपने... पर बड़े राजा साहब... आपसे खुश नहीं हो पाए... ऐसा क्यूँ...
रुप - ह... हम... हम नहीं जानते...
भैरव सिंह - ठीक है... आपको वापस जाना कब है...
रुप - दो चार दिन रुक कर... फिर...
भैरव सिंह - ठीक है... आप अभी जा सकती हैं...
रुप - ह... हम... आपसे कुछ माँगना चाहते हैं...
भैरव सिंह - मांगिये...
रुप - क्क्क... क्या... हम हफ्ते दस दिन में... कुछ दिनों के लिए... यहाँ आयें...
भैरव सिंह - (एक पॉज लेकर) ठीक है...
रुप - (आवाज में हल्की सी खुशी छा जाती है) अब हमें... इजाजत दीजिए...
भैरव सिंह - ठीक है... आप जा सकती हैं...
रुप के जाते ही भैरव सिंह अपने सिंहासन से उठता है और नागेंद्र के कमरे की ओर जाने लगता है l उसके राह में जो भी नौकर दिखते हैं सब अपने सिरों को झुका कर किनारे हो जाते हैं l नागेंद्र के कमरे में आते ही देखता है सुषमा खड़ी है और एक नौकरानी नागेंद्र की मुहँ को पोंछ रही है l भैरव सिंह के पहुँचने पर सभी अदब से खड़े हो जाते हैं l
भैरव सिंह - बड़े राजा साहब का खाना हो गया...
सुषमा - (अपनी सिर झुका कर) जी राजा साहब...
भैरव सिंह - ठीक है... अभी हमें.. बड़े राजा साहब जी के साथ... एकांत चाहिए...
सभी उस कमरे से अपना अपना सिर झुकाए बाहर निकल जाते हैं l
नागेंद्र - कहिए... राजा साहब...
भैरव सिंह - राजकुमारी... हर हफ्ते या दस दिन में कुछ दिनों के लिए राजगड़ आना चाहती हैं...
नागेंद्र - तो क्या निष्कर्ष निकाला आपने...
भैरव सिंह - पुरे राज्य में... जो भी हमारे बारे में... जरा सी भी जानकारी रखते होंगे... कोई राजकुमारी जी के निकट होने की जुर्रत नहीं कर सकते हैं... फिर भी... हमने अपने तरफ से एक बंदे को भेज दिया है... तसल्ली के लिए इन तीन महीनों की खबर निकालने के लिए...
नागेंद्र - ह्म्म्म्म... अच्छा किया आपने... हमें... राजकुमारी की आवाज़ में... तिब्रता खली थी...
भैरव सिंह - पर हमसे... राजकुमारी जी... नीची और धीमी आवाज में ही बात की... और वह... हर हफ्ते दस दिन के अंतराल में... राजगड़ आना चाहती हैं... इसमें.. हमें कोई गलत नजर नहीं आ रही है...
नागेंद्र - ह्म्म्म्म... लगता है.... हमने कुछ ज्यादा ही सोच लिया... (भैरव सिंह चुप रहता है) राजा भैरव सिंह...
भैरव सिंह - जी...
नागेंद्र - आप... आप नहीं लग रहे हैं... ध्यान भटका हुआ लग रहा है... कोई परेशानी है...
भैरव सिंह - नहीं... सात साल पहले का इतिहास सामने आ कर खड़ा होने वाला है... कोई बदलना चाह रहा है... हमें दोहराना है...
नागेंद्र - ऐसा कौन सूरमा है... जो हमारी लिखी इतिहास को बदलने की हिमाकत कर रहा है...
भैरव सिंह - (चुप रहता है)
नागेंद्र - राजा साहब....
भैरव सिंह - वही... जिसके वजह से... हमें राजगड़ के दायरे से निकल कर... राजधानी में पहुँचे थे...
नागेंद्र - विश्वा... हमारे घर के टुकड़ों में पलने वाला कुकुर.... (अपने लकवे जीभ में धार लाते हुए) राजा भैरव सिंह... कुकुर.. हमेशा कुत्ता ही रहता है.. रंग केशर के चढ़ जाने से... सिंह नहीं हो जाता...
भैरव सिंह - हम जानते हैं... पर लड़ाई छिड़ जाए... तो मैदान छोड़ तो नहीं सकते...
नागेंद्र - कुकुर कभी सिंह को ललकारता नहीं है... अगर औकात से आगे जाकर ललकारे... तो उसके मुकाबले और एक कुकुर को छोड़ो... हम ऊँचाई पर हैं... कुकुर से निपटने के लिए.. नीचे नहीं उतर सकते...
भैरव सिंह - जी... ठीक कहा आपने... दारोगा... और वकील को लगा रखा है... उस कुत्ते से निपटने के लिए...
नागेंद्र - बहुत अच्छे... वह विश्व के बारे सोच कर... अपने ओहदे को नीचा ना करो... आगे की सोचो... आने वाले चुनाव में... छोटे राजा और युवराज कैसे विधान सभा में जाएंगे... उसकी तैयारी में लग जाओ... अब किंग मेकर की भूमिका में नहीं रहना है... किंग ही बनना है... क्षेत्रपाल अलवेज रूल्स...
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देर शाम खाना खतम होने के बाद वैदेही अपनी और गौरी की थाली उठा कर धोने ले जाती है l पर गौरी नीचे चटाई पर मुहँ फूला बैठी हुई थी l थालीयों को बर्तनों के साथ रखने के बाद वापस आकर जब गौरी को मुहँ फुलाये बैठी देखती है उसकी हँसी छूट जाती है l
वैदेही - क्या हुआ काकी... यूँ मुहँ बनाए... क्यूँ ऐसे बैठी हो...
गौरी - आज तो दुपहर से... मेरी मगज खराब है...
वैदेही - क्यूँ बिचारी लड़की की बात को दिल से लगा बैठी हो...
गौरी - बिचारी लड़की... हूँह्... देखा नहीं कैसे अपने खानदान की रंग दिखा रही थी... और तुझे तो इतना अपमान किया उस पिद्दी ने... तु हँसे जा रही है...
वैदेही - वह पिद्दी कहाँ है... काकी... देखा नहीं मुझसे भी चार उँगल लंबी है...
गौरी - मुझसे मज़ाक कर रही है...
वैदेही - ओह ओ काकी... दोपहर की बात को... अभी तक दिल से लगाए बैठी हो... जाओ... हाथ मुहँ धो लो... मैं तुम्हारे लिए... दरी बिछा कर बिस्तर लगाती हूँ...
गौरी बिदक कर उठ कर जाती है और हाथ मुहँ धो कर जब तक आती है तब तक वैदेही बिस्तर लगा चुकी थी l गौरी आकर एक किनारे पर बैठ जाती है l
वैदेही - अब क्या हुआ काकी... अभी भी गुस्सा हो...
गौरी - हाँ..
वैदेही - उस छोटी बच्ची के लिए... मन खराब कर.. यूँ गरिया कर... क्यूँ अपनी सेहत खराब कर रही हो...
गौरी - छोटी बच्ची... वह तुझे छोटी बच्ची लग रही है... (वैदेही की तरफ पीठ कर बिस्तर पर लेट जाती है) मैंने क्षेत्रपाल परिवार की औरतों को देखा है... मिली हूँ उनसे... उस परिवार के मर्दों के विपरित गुणी हैं... पर यह लड़की...
वैदेही चुप रहती है, वैदेही से कोई जवाब ना पा कर मुड़ती है l बगल में वैदेही लेती हुई थी l
गौरी - कुछ कहा क्यूँ नहीं...
वैदेही - काकी.. बे फिजूल गाली सुन सुन कर... मैं अपनी रात क्यूँ खराब करूँ...
गौरी - अरे... चार या पाँच पीढियों बाद.. उस घर में एक लड़की आई है... पर गुण.. अपने पुरखों के लाई है... अरे उसे तो... हर सुबह... ईश्वर की कृपा के लिए श्रद्धा अर्पण करनी चाहिए... के वह क्षेत्रपाल महल की नर्क से निकलेगी... किसी और घर में जाएगी... पर नहीं... नर्क से निकलेगी... और जहां जाएगी... उस घर को नर्क ही बनाएगी... देखना..
वैदेही - (उठ बैठती है) ओह ओ... जिस घर में जाएगी... उन घर वालों के प्रभाव में... बदल भी तो सकती है...
गौरी - (उठ कर बैठती है) नहीं बदलेगी... देखना.. अपनी रौब बनाए रखने के लिए... किसी बेवक़ूफ़ शादी करेगी...
वैदेही - तो करने दो ना...
गौरी - और देखना... वह लड़का... उस नकचढ़ी की आगे पीछे... दुम हिलाता फिरेगा...
वैदेही - एक मिनट काकी... तुम लड़की को कुछ भी कहो... उस बेचारे लड़के को क्यूँ कोस रही हो...
गौरी - अरे... मैं कहाँ किसी लड़के को कोस रही हूँ... मैं तो उस मुई नकचढ़ी की भविष्य बता रही हूँ.... वैसे भी... मैं उस नकचढ़ी की... होने वाले पति की बात कह रही हूँ... तुझे उसके लिए... तकलीफ हो रही है...
वैदेही - तकलीफ... मुझे क्यूँ होगी तकलीफ... हाँ चलो हुआ भी तकलीफ... जिसे तुम जानती नहीं... पहचानती नहीं... उसके बारे में... कैसे ऐसे सोच सकती हो...
गौरी - अरे.. सोच कहाँ रही हूँ... मैं तो सच बता रही हूँ... और यह मत भूल तुझसे दुगनी उम्र की हूँ...
वैदेही - अच्छा काकी... गलती हो गई... अब तो सो जाओ...
गौरी - हाँ... हाँ... सो जा...
वैदेही गौरी की तरफ पीठ कर सो जाती है, गौरी भी वैदेही की तरफ पीठ कर सो जाती है l
गौरी - वैदेही...
वैदेही - (चुप रहती है)
गौरी - ऐ.. वैदेही...
वैदेही - फिर क्या हुआ... काकी...
गौरी - माफ कर दे मुझे...
वैदेही - किस बात के लिए काकी...
गौरी - उस लड़की के लिए.. जिससे कोई ताल्लुक नहीं.. उसे लेकर दिन और वक़्त दोनों खराब किया...
वैदेही - (गौरी के तरफ मुड़ कर) ठीक है काकी... अब तो सो जाओ...
गौरी - अच्छा वैदेही... विश्व परसों आ रहा है...
वैदेही - हूँ... आ रहा है... क्या हुआ काकी...
गौरी - मैंने कभी उसे देखा नहीं है... ना... इसलिए पुछ रही थी...
वैदेही - सो जाओ काकी...
गौरी - तु हर दम उसके बारे में सोचती रहती है... वह भी तेरे बारे में सोचता होगा ना...
वैदेही - (गंभीर हो कर) हाँ काकी... उसका दुनिया... मुझसे शुरु होती थी... मुझी पर खतम होती थी... और वह दुनिया देखा ही कहाँ... जो चौदह साल मुझसे दुर रहा... एक हिस्सा खूब सुरत था... दुसरा हिस्सा बहुत ही बुरा था...
और उस बीच के एक साल... वह मेरी बातों को गांठ बांध कर मानता था....
गौरी की खर्राटे सुनाई देने लगती है l वैदेही सीधी हो कर पीठ के बल सोती है और अपने अतीत को याद करने लगती है l
उदय की दुकान से लौटने के बाद विश्व और वैदेही दोनों ही घर के अंदर बंद थे l तभी दरवाजे पर दस्तक होता है l वैदेही उठने को होती है पर विश्व उसे रोकता है
विश्व - तुम रुको दीदी... मैं देखता हूँ...
जैसे ही विश्व दरवाजा खोलता है सामने देख कर चौंक जाता है l
वैदेही ने बिना कोड़े चाबुक के गांव के मर्दों के अंहकार की ऐसी धज्जियां उड़ा दी कि कोई बोलने लायक ना रहा। सबको समाज का ठेकेदार बनना है मगर समाज को सुधारना कोई नही चाहता है।
अनु भी वीर के जज्बातों का सही पोपट कर देती है, अब जैसा उसने खुद कहा है बात देर से समझती है मगर तब तक बात और वीर की भावनाओ, दोनो का राम नाम सत्य हो चुका होता है।
अब मां ने वीर को रूप के राजगढ़ आने और बगावती तेवरों का अनुमान दे दिया और वीर चितित भी हो गया क्योंकी रूप राजगढ़ में है और वहां पर ऐसा करना मतलब अपनी मौत को दावत देना है। पहले वाले वीर को शायद इस बात से कोई फर्क ना पड़ता मगर ये वीर रिश्तों को दिल से मानने लगा है तो उसका ऐसे चिंता करना बनता भी है। रूप ने भी बात को बहुत चालाकी से घुमा दिया। अब देखना है की रूप की बड़े भईया भाभी को लेकर चिंता और अनु के सुझाव को वीर कैसे प्रयोग में लाता है।
एक और मुलाकात विक्रम और विश्व की। विक्रम ना तो अपने झूठे अंहकार पर लगी चोट को और ना विश्व के अहसान को भूली पाया है। मगर साथ ही अभी तक अपने क्षेत्रपाल होने के अहंकार से भी नही निकल पाया है, जिस दिन ये अंहकार खत्म उसी दिन विक्रम से जुड़े हर रिश्ते को सुकून मिल जायेगा। नाबोलते हुए भी एक तरह से वीर के लिए भीख ही मांग रहा था। विक्रम को वीर का विश्व का साथ देना बुरा लगा मगर वो ये भूल गया की जब वीर को अपने भाई अपने दोस्त की सबसे ज्यादा जरूरत थी तब विक्रम नही विश्व उसके साथ था और यही तो सच्ची दोस्ती होती है
ये क्षेत्रपाल अपने अंहकार और झूठे दिखावे में अपने खून के रिश्ते भी खतम कर चुके है बस ये चुतियापे के बड़े राजा साहब, राजा साहब, रानी, युवराज और युवरानी रह गए है। कुछ समय के बाद बस ये खोखली उपाधि ही रह जाएंगी क्योंकि इनसे जुड़े इंसान अपने कर्मो की वजह से बिखर या संवर चुके होंगे।
कोई भी रूप के अंदर के तूफान को नही पढ़ पाया है सिर्फ शुभ्रा और सुषमा के और ये दोनो ही उसकी सखी, मां, भाभी और गुरु रही है। आगे होने वाले महासंग्राम में ये दोनो ही अहम भूमिका निभाने वाली है।
विश्व और वैदेही दोनो ही अपने अतीत को याद करके अपने अंदर की आग को ज्वालामुखी बना रहे है ताकि जब दुश्मन के साथ आर या पार का मुकाबला हो तो दुश्मन का सबकुछ उस लावे में जल कर भस्म हो जाए।
वैदेही और विश्व के प्यार और एक दूसरे के लिए पूरा संसार बन जाने वाले रिश्ते पर ये लाइन याद आ गई
अकेले हम अकेले तुम
जो हम तुम संग हो तो
फिर क्या गम
और ये लाइन हमारे लेखक साहब
Kala Nag बुज्जी भाई के लिए
अब क्या मिसाल दूँ मैं तुम्हारे लेखन की
जज्बात बन गई है ये कहानी हम पाठको की