अपडेट --(१)
गाँव के बीचो-बीच खड़ी; ठाकुर रतन सिंह की हवेली वाकई काफी शानदार थी। कहते हैं की ठाकुर परम सिंह काफी दयानीधान कीस्म के इंसान थे। दुखीयों की मदद करना उनका पहला कर्तब्य था। यही वज़ह था, की आज भी इस हवेली की वही इज्जत बरकरार थी। ठाकुर परम सिंह तो नही रहें। पर हवेली को तीन अनमोल रत्न दे कर इस दुनीया से वीदा हुएं।
तो चलिए जानते हैं कुछ कीरदारों के बारे में---
(१) मनन सिंह (परम सिंह के बड़े बेटे)--
अपने पिता के तरह ही, अच्छे विचारो और दुसरों की मदद करने वालो में से थे। मगर शायद इस दुनीयां को उनकी अच्छाई नही भाई, और २६ साल की उम्र में ही चल बसे। कहते हैं की, इनके मौत का कारण कोई गम्भीर बीमारी थी। कम वर्ष की आयू में ही विवाह होने की वज़ह से १९ वर्ष की आयू में ही पिता बन गये।
संध्या सिंह (मनन सिंह की पत्नी)--
संध्या का जब विवाह हुआ तब वो मात्र १८ वर्ष की थी। शादी भी इसी शर्त पर संध्या ने की थी की, वो अपनी पढ़ाई नही छोड़ेगी। और शादी के बाद संध्या ने अपनी बी॰ए॰ की डीग्री की उपाधि हांसिल की। कॉलेज़ भी ठाकुर रमन सिंह का ही था। संध्या की ज़ींदगी में भुचाल तब आया जब अचानक ही उसके पति का देहांत हो गया। पति के मौत के बाद हवेली की सारी जीम्मेदारी संध्या ने ही संभाली। क्यूंकी ठाकुर परम सिंह का यही वसीयत था।
अभय सिंह (मनन सिंह का बेटा)--
हसमुख और पिता की तरह ही जीम्मेदार रहने वाला लड़का। अपने पिता को बहुत प्यार करता था, लेकिन शायद नसीब में ज्यादा दीन के लिए पिता का प्यार नही लीख़ा था। और ७ साल की उम्र में ही पीता का साया छीन गया।
(२) रमन सिंह (परम सिंह का दुसरा बेटा)--
मनन सिंह और रमन सिंह दोनो जुड़वा थे। इन दोनो की शादि भी एक सांथ हुई। और दोनो को बच्चे भी। फर्क सीर्फ इतना था की, मनन सिंह का बेटा रमन सिंह के बेटे से १५ दीन बड़ा था। और दुसरा ये की, रमन सिंह को जुड़वा हुए। एक बेटी भी। रमन सिंह बेहद अय्यास कीस्म का आदमी था। और सीर्फ अपने फ़ायदे के बारे में सोंचता था।
ललिता सिंह (रमन सिंह की पत्नी)--
सांवले रंग की बड़े नैन नक्श वाली औरत थी। काफी मज़ाकीया अंदाज़ था इस औरत का और इसके दीमाग में क्या चलता रहता है, कीसी को भी समझ पाना मुश्किल था।
अमन सिंह (रमन सिंह का बेटा) --
अमन सिंह संध्या का काफी दुलारा था। वो अमन को बहुत चाहती थी। गाँव भर में ये बात उठने लगी थी की, संध्या को अपने बेटे से ज्यादा रमन के बेटे की फीक्र रहती है। अब इस बात का जवाब तो कहानि में ही मीलेगा।
नीधि सिंह (मनन की बेटी) --
निधि अपने बाप के रंग-रुप में ढली थी। इसीलिए अपनी माँ की तरह सांवली ना हो कर, गोरी काया की लड़की थी।
(३) प्रेम सिंह (परम सिंह का तीसरा बेटा)--
प्रेम सिंह दीमाग से थोड़ा पैदल था। उसे घर-समाज़ में क्या हो रहा है, कुछ लेना देना नही था। जीस काम में लगा देते उसी काम में लगा रहता।
मालती सिंह (प्रेम सिंह की पत्नी)--
काफी शांत और अच्छे चरीत्र की औरत। कोई बच्चा नही, इसका कारण कुछ पता नही। पर अभय को जी जान से प्यार करती थी। अभय का हसमुख चेहरा उसे बहुत भाता था।
(बाकी के कीरेदार कहानी के सांथ पेश कीये जायेगें)
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ट्रेन के गेट पर बैठा वो लड़का, एक टक बाहर की तरफ देखे जा रहा था। आँखों से छलकते आशूं उसके दर्द को बयां कर रहे थे। कहां जा रहा था वो? कीस लिए जा रहा था वो? कुछ नही पता था उसे। अपने चेहरे पर उदासी का चादर ओढ़े कीसी बेज़ान पत्थर की तरह वो ट्रेन की गेट पर गुमसुम सा बैठा था। उसके अगल-बगल कुछ लोग भी बैठे थे। जो उसके गले में लटक रही सोने की महंगी चैन को देख रहे थे। उनकी नज़रों में लालच साफ दीख रही थी। और शायद उस लड़के का सोने का इंतज़ार कर रहे थे। ताकी वो अपना हांथ साफ कर सके।
पर अंदर से टूटा वो परीदां जीसका आज आशियाना भी उज़ड़ गया था। उसकी आँखों से नींद कोषो दूर था। शायद सोंच रहा था की, अपना आशियाना कहां बनाये???
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सुबह-सुबह संध्या उठते हुए हवेली के बाहर आकर कुर्सी पर बैठ गयी। उसके बगल में रमन सिंह और ललिता भी बैठी थी। तभी वहां एक ३0 साल की सांवली सी औरत अपने हांथ में एक ट्रे लेकर आती है, और सामने टेबल पर रखते हुए सबको चाय देकर चली जाती है।
संध्या चाय की चुस्की लेते हुए बोली...
संध्या -- "तुम्हे पता है ना रमन, आज अभय का जन्मदिन है। मैं चाहती हूँ की, आज ये हवेली दुल्हन की तरह सजे,, सब को पता चलना चाहिए की आज छोटे ठाकुर का जन्मदिन है।"
रमन भी चाय की चुस्कीया लेते हुए बोला...
रमन -- "तुम चिंता मत करो भाभी, आज का दीन सबको याद रहेगा..."
रमन अभी बोल ही रहा था की, तभी वहां मालती आ गयी
मालती -- "दीदी, अभय को देखा क्या तुमने?"
संध्या -- "सो रहा होगा वो, मालती। इतनी सुबह कहां उठता है वो?"
मालती -- "अपने कमरे में तो नही है वो, मैं देख कर आ रही हूँ। मुझे लगा कल की मार की वज़ह से, डर के मारे आज जल्दी उठ गया होगा।"
मालती की बात सुनते ही, संध्या के गुलाबी गाल गुस्से में लाल हो गये। और एक झटके में कुर्सी पर से उठते हुए गुस्से में चील्लाते हुए बोली...
संध्या -- "बेटा है मेरा वो! कोई दुश्मन नही, जो मैं उसे डरा-धमका कर रखूंगी। हां हो गयी कल मुझसे गलती, गुस्से में मार दी थोड़ा-बहुत तो क्या हो गया?"
संध्या को इस तरह चीखती-चील्लाती देख मालती शीतलता से बोली...
मालती -- "अपने आप को झूंठी दीलासा क्यूँ दे रही हो दीदी? मुझे नही लगता की कल आपने अभय को थोड़ा-बहुत ही मारा था। और वो शायद पहली बार भी नही था।"
अब तो संध्या जल-भून कर राख सी हो गयी, शायद मालती की सच बात उसे तीखी मीर्ची की तरह लगी या शायद खुद की गलती का अहेसास था जो गुस्से की सीमा की चरम पर था
संध्या -- "तू कहना क्या चाहती है.....? म...मै भला उससे क्यूँ नफरत करुंगी? तूझे लगता है की मुझे उसकी फीक्र नही, सीर्फ तूझे ही है क्या?"
गुस्से खलबलायी संध्या चील्लाते हुए बोली...
मालती -- "मुझे क्या पता दीदी? तुम्हारा बेटा है, मारो चाहे काटो, मुझे उससे क्या? मुझे वो अपने कमरे में नही मीला, तो बस यूं ही पुछने चली आयी।"
कहते हुए मालती वहां से चली जाती है। संध्या अपना सर पकड़ कर वही चेयर पर बैठ जाती है। संध्या को इस हालत में देख रमन संध्या के कंधे पर हांथ रखते हुए बोला...
रमन -- "क्या भाभी तुम भी छोटी-छोटी बात को दील..."
रमन अपनी बात पूरी भी नही कर पाया था की संध्या बीच में ही बोल उठी...
संध्या -- "रमन जाओ यहां से, मुझे कुछ समय के लिए अकेला छोड़ दो।"
संध्या की सख्त आवाज़ सुनकर, रमन को लगा, अभी इस समय यहां से जाना ही ठीक होगा।
संध्या अपने सर पर हांथ रखे बैठी गहरी सोंच में डूबी थी। की तभी उसकी दोनो आँखो पर कीसी के हथेली पड़े और संध्या की आँखे बंद हो गयी। अपनी आँखो पर पड़े हथेली को टटोलते हुए संध्या के चेहरे पर एक मुस्कान की लकीरे उमड़ पड़ती है और खुश होते हुए बोली...
संध्या -- "नाराज़ है ना तू अपनी माँ से? एक बार माफ़ कर दे, आगे से ऐसा कुछ नही करुगीं जीससे तूझे तकलीफ़ हो।"
संध्या की बात सुनते हुए अमन खीलखीला कर हंस पड़ा, और अपनी हथेली संध्या की आँखों पर से हटाते हुए उसके सामने खड़ा हो जाता है। संध्या को लगा था की, ये उसका बेटा अभय है पर ये तो अमन था। चेहरे की मुस्कान ऐसे उड़ी जैसे फुदकती चींड़ीया।
अमन --"अरे ताई माँ, आपको क्या लगा? की मैं अभय हूं?"
अमन की बात सुनकर संध्या अपने गम को छीपाते हुए एक झूठी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए बोली...
संध्या -- "बदमाश कही का, सच में मुझे ऐसा लगा की ये अभय है।"
अभय -- "आपको लगता है ताई माँ, की अभय ऐसा कर सकता है? वो करता तो अब तक दो-चार थप्पड़ खा चुका होता। और वैसे भी, बेचारा कल रात आपके हांथो से मार खाकर, घर से ऐसा भागा, की वापस ही नही लौटा।"
अब चौंकने की बारी संध्या की थी, अमन की बात सुनते ही उसके हांथ-पांव में कंपकपी उठने लगी। वैसे तो धड़कने बढ़ने लगती है, मगर संध्या की मानो धड़कने थमने लगी थी। सुर्ख हो चली आवाज़ और चेहरे पर घबराहट के लक्षण लीए बोल पड़ी...
संध्या --" क...क्या मतलब? क...कहां भाग ग...गया था? क...कब?"
अमन --"कल रात की पीटाई के बाद, जब आप गुस्से में अपने कमरे में चली गयी। वैसे ही वो घर से भाग गया था। मैने रात को दो-तीन बार उठ कर उसके कमरे में भी देखा था पर वो नही था।"
संध्या झट से चेयर पर से उठ खड़ी हुई, और हवेली के अंदर भागी।
संध्या -- "अभय...अभय...अभय!!"
पागलो की तरह संध्या चीखती-चील्लाती अभय के कमरे की तरफ बढ़ी। संध्या की चील्लाहट सुनकर, मालती,ललीता,नीधि और हवेली के नौकर-चाकर भी वहां पहुंच गये। सबने देखा की संध्या पगला सी गयी है। सब हैरान थे, की आखिर क्या हुआ? ललिता ने संध्या को संभालते हुए पूछा...
ललिता --"क...क्या हुआ दीदी?"
संध्या --"अ...अभय...अभय कहां हैं?"
ये सुनकर मालती बोली...
मालती --"वही तो मैं भी पुछने आयी थी तुमसे। क्यूंकी अभय मुझे सुबह से नही दीख रहा है।"
अब संध्या की हालत को लकवा मार गया था। थूक गले के अंदर ही नही जा रहा था। आँखें हैरत से फैली, चेहरे पर बीना कीसी भाव के बेजान नीर्जीव वस्तु की तरह वो धड़ाम से नीचे फर्श पर बैठ गयी। संध्या की हालत पर सब के रंग उड़ गये। ललिता और मालती संध्या को संभालने लगी।
ललिता --"दिदी घबराओ मत, इधर ही कहीं होगा आ जायेगा।"
पर मानो संध्या एक जींदा लाश थी, और उसी स्वर में बीना कीसी भाव के बोली...
संध्या --"चला गया वो, अब नही आयेगा.......!"
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इधर ट्रेन एक स्टेशन पर आकर कर रुकती है। वो लड़का स्टेशन पर अपने कदम रखते हुए ट्रेन से नीचे उतर जाता है। स्टेशन पर भारी भीड़ थी, लड़का चकमका जाता है। उसे समझ नही आ रहा था, की कीधर जाये। तभी उसे स्टेशन पर ही एक दुकान दीखी और दुकान के अंदर पानी की बॉटल।
वो उसी दुकान की तरफ बढ़ा, और नज़दीक पहुंच कर दुकानदार से बोला-
"भैया थोड़ा पानी मीलेगा? बहुत प्यास लगी है?"
दुकान दार ने उपर से नीचे उस लड़के को गौर से देखा और बोला...
"चल भाग यहां से, भीखारी कहीं का!"
ये सुनकर उस लड़के को गुस्सा आ गया।
"भीखारी होगा तेरा बाप साले, नही देना है तो मत दे, भीखारी कीसे बोल रहा है?"
"ओ...हो, तेवर तो देखो इसके। भीखारी नही तो क्या राजा लग रहा है क्या? खुद की हालत देख पहले।"
दुकानदार की आवाज़ सुनकर लड़का अपने आप को देखने लगा। तो पाया की उसके कपड़े पूरी तरह से गंदे हो गये थे। लड़का मन मान कर वहां से चलते बना और स्टेशन से बाहर नीकलते हुए एक मार्केट में पहुंचा। लड़का ठीक से चल नही पा रहा था। और बार-बार अपना हांथ अपने पेट पर रख लेता। शायद भूंखा था और थका भी।
वो हीम्मत बांधे यूं ही कुछ दूर तक चलता रहा और फीर एक दुकान के सामने आकर उसके पैर रुक गये। नज़र उठाकर दुकान की तरफ देखा और दरवाज़े के उपर लगे बोर्ड को पढ़ने लगा...
"ताराचन्द ज्वेलर्स"
ये पढ़कर उसे कुछ समझ आया की नही आया वो नही पता। पर दुकान के अंदर बैठे एक ३५ साल के सक्श को देखकर समझ गया की ये सोनार है। लड़का अपने कदम दुकान के अंदर की तरफ बढ़ा दीया...
"अरे छोरे...कहां घूसा चला आ रहा है? चल बाहर चल।"
दुकान के अंदर बैठा सख्श दुत्कारने जैसी आवाज़ में बोला...
लड़के ने अपना हांथ उठाते हुए गले तक ले कर गया, और शर्ट के अंदर हांथ डालते हुए गले में पहनी मोटी सोने की चैन को बाहर नीकालता है। चमचमाती सोने की चमक जौहरी सेठ की आँखें चौंधीयां दी। लड़का सेठ को देखते हुए सोने की चैन को हवा में उछालते हुए उसे कैच कर के बोला...
"ठीक है सेठ जाता हूँ, ये बता की इधर और कोई दूसरी दुकान है क्या? मुझे ये चैन बेचनी है।"
ये सुनकर सेठ का माथा ठनका और मज़ाकीये अंदाज में बोला...
"अ...अरे भायो, मैं तो मज़ाक कर रहा था। इसे अपनी ही दुकान समझ आ जा बैठ।"
लड़का ये सुन कर मुस्कुराते हुए बोला...
"अब आया ना औकात पे।