Update #1
“अभिवादन हो महाराज,” राजपुरोहित जी ने अपने आसन से उठते हुए अतिथि-सत्कार गृह में प्रवेश करते हुए ज़मींदार बलभद्र देव का अभिवादन किया।
चंद्रपुर रियासत के ज़मींदार - या राजा ही कह लीजिए - बलभद्र देव करीब पैंसठ साल के युवा थे। रियासत का भारतीय गणराज्य में विलय तो कई वर्षों पहले ही हो चुका था, लेकिन वहाँ की प्रजा में उनके लिए जैसा आदर पहले था, वैसा ही अभी भी था। उनको सभी ‘महाराज’ कह कर ही बुलाते थे। इसके बहुत से कारण थे।
अपने समकक्ष और समकालीन अन्य ज़मींदारों और राजाओं के विपरीत विलासमय जीवन से वो बहुत परे थे। बेहद संयम से अपना जीवन यापन करते थे। यूँ तो वो ज़मींदार थे, लेकिन पढ़ने लिखने की तीव्र प्रेरणा और प्रजावत्सल होने के कारण उन्होंने लन्दन से वकालत की डिग्री हासिल करी थी। जब भारत में अंग्रेज़ों का वर्चस्व था, तब उन्होंने अपनी वकालत, और मृदुभषिता के हुनर के बलबूते अपनी और आसपास की कई रियासतों की जनता को अनावश्यक करभार से छुटकारा दिला रखा था। इस कारण से उनकी जनता उनका बहुत आदर सम्मान करती थी।
स्वतंत्रता मिलने के पश्चात जब रियासतों और जागीरदारी का भारत देश में राजनीतिक विलय की बात उठी, तो उस पहल को सबसे पहले उसको स्वीकारने वालों में से वो एक थे। राय बहादुर मेनन और लौह पुरुष सरदार ने उस कारण से चंद्रपुर में कई सारे राजकीय निवेश करने का वचन दिया, और उस पर अमल भी किया। हाल ही में वहाँ एक राजकीय अस्पताल और दो (एक लड़कों के लिए, और दूसरा लड़कियों के लिए) इंटर कॉलेज भी बनाए गए थे। रेल तंत्र की प्रांतीय पुनर्व्यवस्था अभी हाल ही में संपन्न हुई थी, और उसके कारण चंद्रपुर एक मुख्य रेल-स्थानक बन गया था। जब आम चुनाव हुए, तो उनके विरुद्ध कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं हुआ - इतना सम्मान था उनका!
बलभद्र देव ने सम्मानपूर्वक राजपुरोहित जी के चरण-स्पर्श किए और उनको आसन ग्रहण करने का आग्रह किया।
“चिरंजीवी भव महाराज, यशस्वी भव!” राजपुरोहित ने दोनों हाथ उठा कर उनको आशीर्वाद दिए, और अपने स्थान पर पुनः बैठ गए।
कुछ समय एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछने के बाद राजपुरोहित जी अपने प्रमुख मुद्दे पर आ गए।
“महाराज,” उन्होंने हाथ जोड़ कर कहना शुरू किया, “हमारे जीवन में बस एक कार्य शेष रह गया... उसी हेतु एक अंतिम प्रयास है यह,”
बलभद्र जी ने भी हाथ जोड़ दिए, “किस विषय में राजपुरोहित जी?”
उनको समझ में आ रहा था कि विषय क्या है। यूँ ही अकारण राजपुरोहित जी सवेरे सवेरे राजमहल आने वालों में से नहीं थे।
“महाराज, विगत पंद्रह वर्षों से हम राजकुमारी जी के विवाह के लिए कोई सुयोग्य वर ढूँढने में रत हैं... किन्तु अभी तक विफ़लता ही हाथ लगी है।”
बलभद्र जी ने गहरी साँस छोड़ी! तो उनका संदेह सही निकला।
उनकी एक ही पुत्री थी - प्रियम्बदा। अपने पिता के ही समान उनको भी ज्ञानार्जन का बहुत शौक था। लिहाज़ा, वो अपने पिता से भी कई हाथ आगे निकल गईं थीं। जिस समय राजपरिवार अपनी पुत्रियों को फ़ैशन, ऊँचे ख़ानदान में रहने सहने की शिक्षा देते थे, उस समय बलभद्र जी ने प्रियम्बदा को एम.ए. तक की शिक्षा दिलाई। बहुत संभव है कि वो पूरे राज्य में इतनी शिक्षा प्राप्त किये कुछ ही गिने चुने लोगों में से एक हों! जहाँ एक तरफ़ प्रियम्बदा पढ़ने लिखने में लीन थी, वहीं दूसरी तरफ़ बलभद्र जी परमार्थ के कार्य में लीन थे! अब इस चक्कर में राजकुमारी की शादी में विलम्ब होने लगा।
कोई सुयोग्य वर ही न मिलता। ऊँचे राजवाड़े उनके साथ नाता नहीं करना चाहते थे क्योंकि वो राजा नहीं थे, केवल ज़मींदार थे। और उनके समकक्ष ज़मींदारी में प्रियम्बदा जितने पढ़े लिखे लड़के ही नहीं थे। जब लड़कियों का इंटर कॉलेज शुरू हुआ, तब प्रियम्बदा ने ही उसके प्रशासन की कमान सम्हाली, और आज कल वो उसी में व्यस्त रहती थी।
“किन्तु,” बलभद्र जी ने कहना शुरू किया, “आप आज आए हैं... तो लगता है कि कोई शुभ समाचार अवश्य है!”
“महाराज, समाचार शुभ तो है!” राजपुरोहित ने थोड़ा सम्हलते हुए कहा, “किन्तु बात तनिक जटिल है! आपके पास समय हो, तभी आरम्भ करते हैं!” उन्होंने हाथ जोड़ दिए।
बलभद्र जी साँसद थे, और उनके पास काम की कमी नहीं थी। सुबह से ही उनसे मिलने वालों का ताँता लगा रहता था। वो किसी को न नहीं करते थे। और यह सभी बातें राजपुरोहित जी को मालूम थीं।
“कैसी बातें कर रहे हैं आप, राजपुरोहित जी!” उन्होंने भी हाथ जोड़ दिए, “बस... बिटिया का विवाह हो जाए... अब तो हमारी यही इच्छा शेष है! आप बताएँ सब कुछ... विस्तार से!”
“महाराज, हमको ज्ञात है कि आप जैसा विद्वान पुरुष, विद्या-देवी का उपासक, अपने होने वाले दामाद में यही सारे गुण चाहता है... राजकुमारी जी स्वयं विदुषी हैं! तो अंततः हमको एक सुयोग्य वर मिल गया है।”
“बहुत अच्छी बात है ये तो! बताईए न उसके बारे में!”
“अवश्य महाराज,” कह कर राजपुरोहित जी ने अपने झोले से एक पुस्तिका निकालते हुए कहना शुरू किया, “हमारे हिसाब से राजकुमारी प्रियम्बदा के लिए सबसे सुयोग्य वर, राजस्थान की सीमा पर स्थित, महाराजपुर राज्य के राजा, महाराज घनश्याम सिंह जी के ज्येष्ठ सुपुत्र, युवराज हरिश्चंद्र सिंह जी हैं।”
“तनिक ठहरिए राजपुरोहित जी... महाराजपुर? सुना हुआ नाम लग रहा है! क्यों सुना है, ध्यान नहीं आ रहा है!”
“अवश्य सुना होगा महाराज! हम आपको सब बताते हैं!” राजपुरोहित ने बड़े धैर्य से कहा, “लेकिन आप हमारी सारी बात सुन लें पहले!”
“जी!” बलभद्र जी ने फिलहाल शांत रहना उचित समझा।
एक तो प्रियम्बदा बत्तीस की हो गई थी, और इस उम्र में किसी लड़की का विवाह होना संभव ही नहीं रह जाता। ऊपर से राजपुरोहित जी एक राजपरिवार से सम्बन्ध लाए थे। कुछ भी कह लें - अपनी एकलौती पुत्री के लिए एक सुयोग्य वर का लालच तो किसी भी लड़की के पिता में होता ही है!
‘आशा है कि राजकुमार पढ़े लिखे भी हों!’ उन्होंने मन ही मन सोचा।
“युवराज इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं, और अंतिम वर्ष में हैं।”
यह सुन कर बलभद्र जी को बड़ा सुख मिला।
राजपुरोहित जी कह रहे थे, “यह सम्बन्ध महाराज की ही तरफ़ से आया है... उनको भी आपके जैसा ही परिवार चाहिए... ऐसा परिवार जहाँ लोग उत्तम पढ़े लिखे हों... अंधविश्वासों से दूर हों!”
“अच्छी बात है...”
“राजपरिवार में चार ही सदस्य हैं... महाराज, महारानी, युवराज, और उनके छोटे भाई! ... युवराज की आयु त्रयोविंशति (तेईस) वर्ष की है...”
“किन्तु राजपुरोहित जी, युवराज तो मेरी प्रियम्बदा से बहुत छोटे हैं...”
“जी महाराज, ज्ञात है हमको!” राजपुरोहित ही ने बलभद्र जी को जैसे स्वांत्वना दी हो, “लेकिन राजकुमारी की आयु उनके लिए कोई समस्या नहीं है। ... वैसे भी, राजकुमारी जी की ख़्याति अब सुदूर क्षेत्रों में भी फ़ैल रही है।”
“आश्चर्य है! राजपुरोहित जी, हमको लग रहा है कि इस हर अच्छी बात के उपरान्त एक ‘परन्तु’ आने ही वाला है!” बलभद्र जी ने हँसते हुए कहा।
जिस अंदाज़ में उन्होंने ये कहा, राजपुरोहित भी हँसने लगे।
“राजपरिवार धनाढ्य है! महाराज भी आप जैसे ही प्रजावत्सल रहे हैं, अतः जनता की शुभकामनाएँ और आशीर्वाद उनको प्राप्त हैं। ... परन्तु, एक समय था, जब ऐसा नहीं था।” राजपुरोहित जी ने ‘परन्तु’ का ख़ुलासा करना शुरू कर ही दिया, “कोई सौ, सवा सौ वर्ष पूर्व महाराज के एक पूर्वज, महाराज श्याम बहादुर पर विदेशी आक्रांताओं का दास होने का आरोप लग चुका है। ... कहते हैं कि वो इतने दुराचारी और अत्याचारी थे, कि उन्होंने किसी को न छोड़ा...! हर प्रकार के दुर्गुण थे उनमें... मदिरा-प्रेमी, विधर्मी, अनाचारी!”
बलभद्र इस बात को रोचकता से सुन रहे थे। बात किधर जाने वाली है, यह कहना कठिन था।
“कहते हैं कि एक बार एक ब्राह्मण संगीतज्ञ, और उसकी पत्नी, जो उसी के समान गुणी गायिका थी, दोनों उसके श्याम बहादुर महाराज के दरबार में आए... दीपोत्सव के रंगारंग कार्यक्रम में भजन - पूजन करने। श्याम बहादुर की कुदृष्टि ब्राह्मण स्त्री पर जम गई! रूपसि तो वो थी ही, उसका गायन भी अद्भुत था! किन्तु जहाँ सभा में उपस्थित अन्य लोग आध्यात्म सागर में डूबे हुए थे, वहीं महाराज को...” राजपुरोहित जी ने बात अधूरी ही छोड़ दी।
समझदार व्यक्ति को संकेत करना ही बहुत होता है। बलभद्र जी समझ गए इस बात को।
“वो रात्रि बहुत अत्याचारी रात्रि थी महाराज!” राजपुरोहित जी ने उदास होते हुए कहा, “कुछ लोग कहते हैं कि उस ब्राह्मण की हत्या कर दी गई... कुछ कहते हैं कि उसको किसी क्षद्म आरोप में कारावास में डाल दिया गया... इस समय तो कुछ भी ठीक ठीक ज्ञात नहीं है! इतने वर्ष बीत जाने पर घटनाएँ किंवदन्तियाँ बन जाती हैं!”
बलभद्र जी ने समझते हुए सर हिलाया। राजपुरोहित ने कहना जारी रखा,
“किन्तु श्याम बहादुर ने उस ब्राह्मण स्त्री के साथ अत्यंत पाशविक दुराचार किया...” राजपुरोहित जी से ‘बलात्कार’ शब्द कहा भी नहीं जा पा रहा था, “... इतना कि वो बेचारी अधमरी हो गई। पूरा समय वो अपने सतीत्व की दुहाई देती हुई महाराज से विनती करती रही, कि वो उस पर दया करें! कि वो उसको छोड़ दें! किन्तु उस निर्दयी को दया न आई!”
बलभद्र जी ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा, “किन्तु वो बहुत पुरानी बात हो गई है न राजपुरोहित जी? ऐसे ढूँढने लगेंगे तो प्रत्येक परिवार में ऐसे अनेकों गूढ़ रहस्य छुपे होंगे?”
“अवश्य महाराज! परन्तु मुख्य बात हमने आपको अभी बताई ही नहीं!” राजपुरोहित जी ने गहरी साँस भरते हुए और थोड़ा रुकते हुए कहा, “किंवदंतियों के अनुसार उस ब्राह्मण स्त्री ने अपनी छिन्न अवस्था में श्याम बहादुर महाराज को श्राप दिया कि पुरुष होने के दम्भ में अगर वो मानवता भूल गए हैं, अगर वो यह भूल गए हैं कि उनका स्वयं का अस्तित्व एक स्त्री के ही कारण संभव हुआ है, तो जा... तेरे परिवार में कन्या उत्पन्न ही न हो!”
“क्या?”
“जी महाराज,” राजपुरोहित जी ने गला खँखारते हुए कहा, “और... श्याम बहादुर महाराज के बाद राजपरिवार में जितनी भी संतानें आईं, उनमें से आज तक कोई भी कन्या नहीं हुई...”
“और उस ब्राह्मणी का क्या हुआ?”
“ज्ञात नहीं महाराज... कुछ लोग कहते हैं कि ब्राह्मण की ही तरह उसकी भी हत्या कर दी गई! कुछ कहते हैं कि ब्राह्मणी को राज्य के बाहर ले जा कर वन में छोड़ दिया गया कि वन्य-पशु उसका भक्षण कर लें... कुछ कहते हैं कि उस दुराचार के कारण ब्राह्मणी गर्भवती हुई और उसने किसी संतान को जन्म दिया! सच कहें, ये सब तो केवल अटकलें ही हैं!”
“हे प्रभु!” बलभद्र जी ने गहरी साँस भरते हुए, बड़े अविश्वास से कहा, “सच में... क्या ये बातें... श्राप इत्यादि... संभव भी हैं?”
“महाराज, संसार में न जाने कैसी कैसी अनहोनी होती रहती हैं! इस श्राप में कितनी सत्यता है, हम कह नहीं सकते! हम तो ईश्वर की शक्ति में विश्वास रखते हैं... सतीत्व में विश्वास रखते हैं...! आपका संसार अलग है! आप तर्क-वितर्क में विश्वास रखते हैं! किन्तु एक तथ्य यह अवश्य है कि महाराजपुर राजपरिवार में विगत सवा सौ वर्षों में किसी कन्या के जन्म का कोई अभिलेख नहीं मिलता!”
“तो क्या इसीलिए...”
“महाराज, आप अंधविश्वासों में नहीं पड़ते, किन्तु समाज उसको मानता है! कुछ दशकों से अनेकों राजपरिवारों ने महाराजपुर राजपरिवार का, कहिए सामाजिक परित्याग कर दिया है। ... एक अभिशप्त परिवार में कौन अपनी कन्या देगा?”
“तो क्या वो लोग अपनी बहुओं को...”
“नहीं महाराज... उसमें आप संशय न करें! ... पुत्रवधुओं का ऐसा सम्मान तो हमने किसी अन्य परिवार में नहीं देखा! अन्य लोग केवल कहते हैं कि उनके घर आपकी पुत्री राज करेगी! किन्तु महाराजपुर राजपरिवार में पुत्रवधुएँ सत्य ही रानियों जैसी रहती हैं! उनका ऐसा आदर सम्मान होता है कि क्या कहें!”
कहते हुए राजपुरोहित जी ने एक पत्र निकाला, “... आप स्वयं मिल लें उनसे! ये महाराज घनश्याम सिंह जी की ओर से आपको और महारानी को निमंत्रण भेजा गया है! ये निमंत्रण पत्र उन्होंने ही लिखा है... हमारे सामने!” और बलभद्र जी को सौंप दिया।
उन्होंने समय ले कर उस पत्र को पढ़ा।
संभ्रांत, शिष्ट लेखन! पढ़ कर ही समझ में आ जाए कि किसी खानदानी पुरुष ने लिखा है। पत्र में महाराज ने लिखा था कि किसी प्रशासनिक कार्य से उनका दिल्ली जाना हुआ था, जहाँ पर उन्होंने राजकुमारी प्रियम्बदा को दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में होने वाले किसी कार्यक्रम में बोलते हुए सुना। उनसे मुलाकात तो न हो सकी, लेकिन जानकारों से पूछने पर उनके बारे में पता चला। और यह कि उनको राजकुमारी प्रियम्बदा, युवराज हरिश्चंद्र के लिए भा गईं। और अगर महाराज की कृपा हो, तो वो राजकुमारी को बहू बना कर कृतार्थ होना चाहते हैं, और राज्य और राजपरिवार की उन्नति में एक और कदम रखना चाहते हैं। पत्र के साथ ही युवराज की तस्वीर और राजपरिवार की भी तस्वीर संलग्न थी।
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