Update #2
बलभद्र देव जी किसी प्रकार के अंधविश्वासों में विश्वास नहीं करते थे। और तो और, वो लगभग नास्तिक थे - स्वयं सूर्य और पृथ्वी के पूजक थे। हाँ, यह अवश्य है कि उन्होंने किसी अन्य को अपने विश्वास का पालन करने से मना नहीं किया कभी भी। और अपनी परम्पराओं का भी सम्मान करते थे। लेकिन वो यह समझ रहे थे कि राजपरिवारों से जुड़ने का ऐसा सुनहरा अवसर उनके हाथ लगा है, तो बस अन्य राजपरिवारों के अंधविश्वास के कारण! राजपुरोहित जी के प्रस्ताव लाने के चार महीनों के ही अंतराल में युवराज हरिश्चंद्र सिंह और राजकुमारी प्रियम्बदा का विवाह सम्पन्न हो गया।
यह एक ऐसा विवाह था जिसका चंद्रपुर रियासत को एक बड़े लम्बे अर्से से इंतज़ार था। जनता में आशा थी कि राजकुमारी के युवा होते ही महल में विवाह का नाद होगा; आनंद रहेगा! किन्तु विधि का विधान - वैसा नहीं हुआ। साल दर साल बीत गए... चंद्रपुर की जनता, अपने भावी ‘राजा’ की राह देखती रह गई। अवश्य ही अब देश गणराज्य था, लेकिन राज-परिवारों को ले कर जनता का कौतूहल अभी भी बरकरार था - यहाँ तक कि बेहद सादगी से रहने वाले बलभद्र देव के परिवार को ले कर भी! संभव है कि यह कौतूहल बलभद्र जी के प्रजावत्सल होने के कारण रहा हो! वो जनता के शुभचिंतक थे, तो जनता भी उनकी शुभचिंतक थी! सभी बस यही चाहते थे कि राजकुमारी जी का शीघ्र ही विवाह हो, उनकी संतान हो, और वो चंद्रपुर रियासत का नेतृत्व करे! लेकिन बिना विवाह के कुछ संभव नहीं था।
इसलिए जब दोनों के सम्बन्ध तय होने की खबर चंद्रपुर की जनता में फ़ैली, ये केवल ज़मींदारों का ही नहीं, बल्कि पूरे चंद्रपुर की शान का प्रश्न हो गया। विवाह से एक सप्ताह पहले से ही ढोल-ताशों का नाद बजने लगा था चंद्रपुर में! हर घर में रंगाई पुताई, राजमहल जाने वाले रास्ते के दोनों किनारों पर चूने की लकीर और रास्ते की अच्छी साफ़ सफ़ाई! यह सब काम रियासत के वाशिंदों ने खुद किया... किसी से कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। और विवाह वाली रात पूरी रियासत असंख्य दीयों की रौशनी से ऐसी जगमगा रही हो, जैसे वो दिवाली की रात हो! ये कहना न्यूनोक्ति होगा कि महाराज घनश्याम सिंह ऐसा सम्बन्ध पा कर फूले नहीं समाए।
प्रियम्बदा कोई अपार सुंदरी नहीं थी - सामान्य चेहरे मोहरे, और कद काठी वाली, बत्तीस वर्ष की लड़की थी। थोड़ा साँवला रंग था उसका। अपने पिता का प्रोत्साहन पा कर घुड़सवारी का आनंद उठा लेती थी, लेकिन बस उतना ही! पहले तो उस पर भी उसकी माता का विरोध होता रहता था, लेकिन जैसे जैसे शादी की उम्र निकलने लगी, उसकी माता ने भी उस पर लगाई हुई मनाही थोड़ी कम कर दी। उसमें जो सुंदरता थी, वो सहज सुंदरता थी। लेकिन उसका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था!
जब महाराज घनश्याम ने प्रियम्बदा को एक सभा को सम्बोधित करते हुए देखा और सुना, तो न जाने क्यों उनको एक आनंद सा महसूस हुआ। उनको लगा कि इस लड़की में उनके घर की बहू, और राज्य की अगली रानी बनने की समस्त खूबियाँ हैं। पता करने पर मालूम हुआ कि वो अभी भी कुँवारी है और खानदानी, राजसी परिवार से है! थोड़ा प्रयास करने से उनको देव परिवार के बारे में सब कुछ मालूम हो गया! उनको अपार हर्ष भी हुआ जब बलभद्र देव महाराज ने उनका विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
सुदूर पूर्व और सुदूर पश्चिम का ऐसा सुन्दर मिलन! आज के समय में सब कुछ होता है, लेकिन उस समय तो कोई स्थानों के नाम भी ठीक से जानता भी नहीं था।
उस समय परिवारों के बड़े ही आपस में बातचीत कर के अपने बच्चों के सम्बन्ध तय कर लेते थे। यहाँ भी यही हुआ था, लेकिन गनीमत यह थी कि बलभद्र जी ने अपनी बेटी को, उसके होने वाले पति के बारे में जितना संभव था, उतनी जानकारियाँ उपलब्ध कराईं। अपने स्तर पर जो संभव था, उन्होंने भावी दामाद के बारे में जानने का प्रयास किया। हरिश्चंद्र, जिसको अब उनके घर ‘हरीश’ नाम से पुकारते थे, एक अच्छा युवा था। अपने समय के पुत्रों के समान उसको भी अपने पिता की, अपने परिवार के सम्मान की बड़ी चिंता रहती थी। इसलिए उसका पूरा प्रयास रहता था कि वो कोई ऐसा कदम न उठाए जिससे कि उसके परिवार का सर नीचा हो। वैसे भी उसके लकड़दादा के पाप का बोझ कुछ ऐसा भारी था, कि रजवाड़े होते हुए भी वो सभी अपना सर थोड़ा नीचे ही रख कर चलते थे। पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ निकलती जा रही थीं, फिर भी वो बोझ बढ़ता ही जा रहा था! एक तरह का सामाजिक बहिष्कार उनको झेलना पड़ रहा था अपने समकक्ष राजाओं से! पढ़ा लिखा तो वो था ही; आकर्षक भी था। विश्वविद्यालय में अनेकों लड़कियों को वो भाता था। हो भी क्यों न? और ऐसा नहीं है कि वो उन लड़कियों की चेष्टाओं से अनभिज्ञ था। लेकिन फिर भी उसने कभी अपनी इच्छाओं से वशीभूत हो कर कुछ नहीं किया। कहीं कुछ ऐसा न हो जाए, कि खानदान का सर और झुक जाए, यह डर सदैव बना रहता था उसके हृदय में! जब प्रियम्बदा के साथ यह सम्बन्ध उसके सामने प्रस्तुत हुआ, तो उसने माता पिता के चरण छू कर उसको स्वीकार कर लिया।
प्रियम्बदा को भी स्वयं को ले कर कोई उदात्त अनुमान नहीं थे। वो जानती भी थी और समझती भी थी कि वो एक सामान्य सी दिखने वाली लड़की है। साथ ही साथ वो हरीश से आयु में बहुत बड़ी भी है। ऐसे में उसका वैवाहिक जीवन फिल्मों में दिखाई जा रही कहानियों जैसा नहीं होने वाला था। ऊपर से, ज़मींदार की लड़की होने से ले कर युवरानी और भावी रानी होने का सफ़र भी उसी को तय करना था। कठिन काम था यह! लेकिन उसके संस्कार पुख़्ता थे। पढ़ी लिखी, समझदार और गुणवती लड़की थी वो। उसको मालूम था कि वो एक आदर्श बहू बन सकती है, और उसका प्रयास था कि उसके कार्य ऐसे रहें जिससे उसके अपने माता पिता, और अपने ससुराल दोनों का ही सम्मान और बढ़े!
चन्द्रपुर से महाराजपुर का सफ़र लम्बा था - अधिकतर समय ट्रेन से जाना, फिर रेल-स्थानक से गाड़ी से महाराजपुर! समय लगता है। उस समय द्रुतगामी ट्रेन नहीं होती थीं! लिहाज़ा लगभग तीन दिन लगने थे इस यात्रा में! अच्छी बात यह थी कि ट्रेन में फर्स्ट क्लास की व्यवस्था थी। इसलिए राजपरिवार उसी में सफ़र कर रहा था। वैसे उस ट्रेन में इस बार अधिकतर लोग राजपरिवार के ही थे। पारस्परिक अंतर्ज्ञान के लिए नई नवेली जोड़ी के पास कुछ अवसर अवश्य था, किन्तु कुछ ऐसा हिसाब किताब बैठा कि दोनों को बात करने के अवसर कम ही मिले; और जो मिले, वो बस हाँ, हूँ, में ही निकल गए। हर मुख्य रेल-स्थानक पर महाराज घनश्याम से मिलने वाली बड़ी बड़ी हस्तियाँ मौजूद थीं! अवश्य ही वो सामाजिक रूप से हाशिए पर थे, लेकिन राजनीतिक रूप से उनका प्रभाव प्रबल था। इसलिए मिलने वालों की कोई कमी नहीं थी। इसलिए अपने गंतव्य तक पहुँचते पहुँचते ट्रेन को और भी अधिक समय लग गया।
जब वो महाराजपुर पहुँचे तो नवविवाहिता युवरानी के स्वागत के लिए भव्य बंदोबस्त था! प्रियम्बदा की आँखें चुँधिया गईं - ऐसा स्वागत हुआ! उस समय लगभग संध्या हो चली थी; युवरानी की देखभाल के लिए ससुराल से सेविकाएँ आई हुई थीं! वैसे तो राजपरिवारों में चलन यह था कि बहू अपने साथ अपने मायके से ही सेविकाएँ ले आती थी, लेकिन प्रियम्बदा वैसी नहीं थी। सरल सी जीवनशैली थी उसकी! इसलिए ससुराल ने ही पूरा बंदोबस्त किया था। सेविकाओं ने ही उसको स्वागत योग्य परिधान और भारी ज़ेवर पहनाए, और महाराजपुर से एक स्टेशन पहले ही पूरी तरह सुसज्जित कर दिया! रेलवे स्थानक पर राजसी बैण्ड बाजा मौजूद था, और पूरा स्टेशन ऐसा सुसज्जित था कि जैसे वो कोई रेलवे स्थानक नहीं, बल्कि कोई मैरिज-हॉल हो! रेल के डब्बे से निकलने के मार्ग पर लाल कालीन बिछी हुई थी, जिस पर फूलों की भी एक कालीन सी बिछी हुई थी। उसके चेहरे पर एक पतला, किन्तु लम्बा सा घूँघट डाला हुआ था, जो परंपरा के अनुसार ही था। लेकिन घूँघट के अंदर से वो बाहर के दृश्य भली-भाँति देख सकती थी। नव-युगल की आरती होने के बाद, डब्बे से ले कर बाहर कार तक पहुँचते हुए पुष्प-वर्षा थमी नहीं! अद्भुत सा, रोमांचक अनुभव! अब जा कर प्रियम्बदा को समझ में आया कि उसका जीवन कितना बदल गया है!
महाराजपुर में भी चन्द्रपुर जैसी ही व्यवस्था थी - जिधर दृष्टि जाती, हर घर में जगमग करते दीये जल रहे थे। गाड़ियों का काफ़िला धीरे धीरे चल रहा था! उसके ससुर और उसके पति अपनी जनता से मिल रहे थे, और सभी का यथोचित आशीर्वाद ले रहे थे। प्रियम्बदा कार में अकेली ही थी - हाँ उसके लिए एक सेविका आगे बैठी हुई थी। कुछ बच्चे कार के शीशे से अंदर झाँक कर नई दुल्हन को देखने का प्रयास भी कर रहे थे, लेकिन बाहर गोधूलि के प्रकाश के कारण कुछ देख नहीं पा रहे थे। उसको बाद में मालूम हुआ कि आज रात से ले कर एक सप्ताह तक पूरे महाराजपुर में प्रतिदिन भोज का आयोजन है!
‘बाप रे!’
इसको कहते हैं सम्पन्नता!
राजमहल पहुँच कर उसका पुनः, और पहले से भी कहीं भव्य स्वागत हुआ। गाजे-बाजे, ढोल, नगाड़े, तुरही, और ऐसे ही नाना प्रकार के उच्च स्वर वाले वाद्य-यंत्र बज रहे थे! राजमहल के द्वार पर अपनी बहू के स्वागत के लिए महारानी स्वयं मौजूद थीं, और फूलों की वर्षा के बीच, अपने बेटे और बहू की आरती उतार रही थीं। आरती के बाद महावर की थाल में पैर रख कर जब प्रियम्बदा आगे बढ़ी, तो उसका हृदय धमकने लगा!
‘ये अपना घर है!’
घर नहीं, महल था वो! द्वार से ले कर अंदर मुख्य हॉल तक पहुँचने तक गलियारे के दोनों तरफ़ इस राज-परिवार के पूर्वजों के दस दस फुट ऊँचे चित्र लगे हुए थे। रेशम के महीन, रंग-बिरंगे कपड़ों के पर्दे गलियारे के हर खम्भे के बीच झूल रहे थे। गलियारे पर रेशम की ही सुन्दर सी कालीन बिछी हुई थी, जिस पर वो चल रही थी। यह तो केवल झलक मात्र थी! ये था राजसी ठाठ-बाठ! हर बात की ऐसी बहुतायत! ऐसे ऐश-ओ-आराम में रहने की आदत ही नहीं थी उसकी!
हाँलाकि उसको पता था कि उसकी ससुराल में बहू और बेटी में कोई अंतर नहीं किया जाता, फिर भी अज्ञात का डर, अज्ञात की आशंका बनी ही रहती है! कोई जान-पहचान का न हो, तो वैसे ही व्यक्ति घबराने लगता है। अपने नए परिवार के किसी सदस्य से मिली भी तो नहीं है वो!
उसने पाँच छः पग धरे होंगे कि उसका देवर उसको सामने से भागता आता हुआ दिखा। विवाह के दौरान उसने देखा था अपने देवर, हर्षवर्द्धन को! हरीश का सहबाला बना हुआ था! बेचारा विवाह की रस्मों के दौरान ऊब गया था, और अधिकतर समय सोता ही रहा था। महाराज और महारानी की सबसे छोटी संतान है वो! उसको देख कर लगता है कि हरीश अपने बचपन में कैसे रहे होंगे! चुलबुल, लेकिन शर्मीले!
“भाभी माँ,” उसने कहा, “आपको हम आपके कक्ष में ले कर जाएँगे!”
उसने ‘हम’ इतने हक़ से कहा, जैसे कि ये काम उसके अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता।
उसकी बात पर महारानी हँसने लगीं!
“अवश्य राजकुमार!” उन्होंने हँसते हुए कहा, “आपकी भाभी अब आपके सुपुर्द हैं! आपको इनका पूरा ख़याल रखना होगा! लेकिन, इनको परेशान न करिएगा! समझ गए?”
“जी माँ,” उसने कहा, और अपनी भाभी का हाथ पकड़ कर उनको उनके कक्ष में ले जाने लगा।
हॉल के किनारों से ऊपर जाने के लिए दोनों तरफ़ सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। राजपरिवार का आवास ऊपर था। काफ़ी देर चलने के बाद दोनों एक आलीशान कमरे में प्रविष्ट हुए।
“भाभी माँ, आईये! ... यह है आपका कक्ष!” हर्ष ने चहकते हुए प्रियम्बदा को बताया, और हाथ पकड़ कर उसको अंदर ले आया।
यह एक विशालकाय कक्ष था। एक ओर आलीशान पलँग बिछा हुआ था, और बाकी के कमरे में बैठने के लिए सोफ़े, गद्दियाँ, टेबल, इत्यादि की व्यवस्था थी।
प्रियम्बदा को सोफ़े पर बिठा कर हर्ष बोला, “भाभी माँ, अब हम चलते हैं!”
“कहाँ जा रहे हैं आप राजकुमार?”
“आपके स्वागत की व्यवस्था भी तो देखनी है!” उसने इतने सयानेपन से कहा कि प्रियम्बदा ने बड़ी कठिनाई से अपनी हँसी दबाई कि कहीं बच्चे को बुरा न लग जाए!
“अपनी भाभी माँ के पास नहीं बैठेंगे आप?” प्रियम्बदा ने कहा, “हमको अकेली छोड़ कर चले जाएँगे?”
“ओह, हाँ... आप हमारे जाने पर अकेली तो हो जाएँगी! ... ठीक है, हम नहीं जाते!” उसने कहा, फिर कुछ सोच कर, “... किन्तु, आपके लिए जलपान...”
उसी समय एक सेविका ने अदब से आवाज़ दी, “युवरानी जी... राजकुमार जी... हम महारानी जी का सन्देश ले कर आई हैं!”
“आ जाईए भीतर,” प्रियम्बदा ने कहा।
‘इतना फॉर्मल है सब कुछ...’ उसने मन में सोचा, ‘कितना एडजस्ट करना पड़ेगा!’
राजकुमारियाँ या युवरानियाँ कैसे रहती हैं, उसको इन सब का कोई अंदाज़ा नहीं था। कभी सीखा ही नहीं, और न ही कभी इन सब बातों की ज़रुरत ही समझी।
“युवरानी जी,” मुख्यसेविका बोली, “महारानी ने कहा है कि रात्रिभोज भोजन गृह में सजा दिया गया है। आप यदि तैयार हैं, तो हम आपको लिवा लाएँ!”
“जी... ठीक है!”
अपने लिए ‘जी’ सम्बोधन सुन कर सेविका की आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गईं; वो पूरे अदब से नब्बे अंश झुक कर दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार कर के कमरे से बाहर निकल गई।
“राजकुमार जी,” उसने अपने देवर से कहा, “आप हमारे साथ रात्रिभोज करेंगे?”
“अवश्य, भाभी माँ!”
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