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Romance श्राप [Completed]

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28, Update #29, Update #30, Update #31, Update #32, Update #33, Update #34, Update #35, Update #36, Update #37, Update #38, Update #39, Update #40, Update #41, Update #42, Update #43, Update #44, Update #45, Update #46, Update #47, Update #48, Update #49, Update #50, Update #51, Update #52.

Beautiful-Eyes
* इस चित्र का इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है! एक AI सॉफ्टवेयर की मदद से यह चित्र बनाया है। सुन्दर लगा, इसलिए यहाँ लगा दिया!
 
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rangeeladesi

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प्रिय पाठकों : इस कहानी में और कुछ लिखने का कोई औचित्य नहीं रह गया है।
सभी भेद खुल चुके हैं, इसलिए शादी का प्रसंग लिखने का अब कोई अर्थ नहीं है। अकारण ही रबड़-बैंड के जैसे कहानी खींचने में क्यों समय नष्ट करना।
इसलिए यह कहानी यहीं समाप्त होती है।

समाप्त
Waah!
 

Raj_sharma

परिवर्तनमेव स्थिरमस्ति ||❣️
Supreme
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Update #1


“अभिवादन हो महाराज,” राजपुरोहित जी ने अपने आसन से उठते हुए अतिथि-सत्कार गृह में प्रवेश करते हुए ज़मींदार बलभद्र देव का अभिवादन किया।

चंद्रपुर रियासत के ज़मींदार - या राजा ही कह लीजिए - बलभद्र देव करीब पैंसठ साल के युवा थे। रियासत का भारतीय गणराज्य में विलय तो कई वर्षों पहले ही हो चुका था, लेकिन वहाँ की प्रजा में उनके लिए जैसा आदर पहले था, वैसा ही अभी भी था। उनको सभी ‘महाराज’ कह कर ही बुलाते थे। इसके बहुत से कारण थे।

अपने समकक्ष और समकालीन अन्य ज़मींदारों और राजाओं के विपरीत विलासमय जीवन से वो बहुत परे थे। बेहद संयम से अपना जीवन यापन करते थे। यूँ तो वो ज़मींदार थे, लेकिन पढ़ने लिखने की तीव्र प्रेरणा और प्रजावत्सल होने के कारण उन्होंने लन्दन से वकालत की डिग्री हासिल करी थी। जब भारत में अंग्रेज़ों का वर्चस्व था, तब उन्होंने अपनी वकालत, और मृदुभषिता के हुनर के बलबूते अपनी और आसपास की कई रियासतों की जनता को अनावश्यक करभार से छुटकारा दिला रखा था। इस कारण से उनकी जनता उनका बहुत आदर सम्मान करती थी।

स्वतंत्रता मिलने के पश्चात जब रियासतों और जागीरदारी का भारत देश में राजनीतिक विलय की बात उठी, तो उस पहल को सबसे पहले उसको स्वीकारने वालों में से वो एक थे। राय बहादुर मेनन और लौह पुरुष सरदार ने उस कारण से चंद्रपुर में कई सारे राजकीय निवेश करने का वचन दिया, और उस पर अमल भी किया। हाल ही में वहाँ एक राजकीय अस्पताल और दो (एक लड़कों के लिए, और दूसरा लड़कियों के लिए) इंटर कॉलेज भी बनाए गए थे। रेल तंत्र की प्रांतीय पुनर्व्यवस्था अभी हाल ही में संपन्न हुई थी, और उसके कारण चंद्रपुर एक मुख्य रेल-स्थानक बन गया था। जब आम चुनाव हुए, तो उनके विरुद्ध कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं हुआ - इतना सम्मान था उनका!

बलभद्र देव ने सम्मानपूर्वक राजपुरोहित जी के चरण-स्पर्श किए और उनको आसन ग्रहण करने का आग्रह किया।

“चिरंजीवी भव महाराज, यशस्वी भव!” राजपुरोहित ने दोनों हाथ उठा कर उनको आशीर्वाद दिए, और अपने स्थान पर पुनः बैठ गए।

कुछ समय एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछने के बाद राजपुरोहित जी अपने प्रमुख मुद्दे पर आ गए।

“महाराज,” उन्होंने हाथ जोड़ कर कहना शुरू किया, “हमारे जीवन में बस एक कार्य शेष रह गया... उसी हेतु एक अंतिम प्रयास है यह,”

बलभद्र जी ने भी हाथ जोड़ दिए, “किस विषय में राजपुरोहित जी?”

उनको समझ में आ रहा था कि विषय क्या है। यूँ ही अकारण राजपुरोहित जी सवेरे सवेरे राजमहल आने वालों में से नहीं थे।

“महाराज, विगत पंद्रह वर्षों से हम राजकुमारी जी के विवाह के लिए कोई सुयोग्य वर ढूँढने में रत हैं... किन्तु अभी तक विफ़लता ही हाथ लगी है।”

बलभद्र जी ने गहरी साँस छोड़ी! तो उनका संदेह सही निकला।

उनकी एक ही पुत्री थी - प्रियम्बदा। अपने पिता के ही समान उनको भी ज्ञानार्जन का बहुत शौक था। लिहाज़ा, वो अपने पिता से भी कई हाथ आगे निकल गईं थीं। जिस समय राजपरिवार अपनी पुत्रियों को फ़ैशन, ऊँचे ख़ानदान में रहने सहने की शिक्षा देते थे, उस समय बलभद्र जी ने प्रियम्बदा को एम.ए. तक की शिक्षा दिलाई। बहुत संभव है कि वो पूरे राज्य में इतनी शिक्षा प्राप्त किये कुछ ही गिने चुने लोगों में से एक हों! जहाँ एक तरफ़ प्रियम्बदा पढ़ने लिखने में लीन थी, वहीं दूसरी तरफ़ बलभद्र जी परमार्थ के कार्य में लीन थे! अब इस चक्कर में राजकुमारी की शादी में विलम्ब होने लगा।

कोई सुयोग्य वर ही न मिलता। ऊँचे राजवाड़े उनके साथ नाता नहीं करना चाहते थे क्योंकि वो राजा नहीं थे, केवल ज़मींदार थे। और उनके समकक्ष ज़मींदारी में प्रियम्बदा जितने पढ़े लिखे लड़के ही नहीं थे। जब लड़कियों का इंटर कॉलेज शुरू हुआ, तब प्रियम्बदा ने ही उसके प्रशासन की कमान सम्हाली, और आज कल वो उसी में व्यस्त रहती थी।

“किन्तु,” बलभद्र जी ने कहना शुरू किया, “आप आज आए हैं... तो लगता है कि कोई शुभ समाचार अवश्य है!”

“महाराज, समाचार शुभ तो है!” राजपुरोहित ने थोड़ा सम्हलते हुए कहा, “किन्तु बात तनिक जटिल है! आपके पास समय हो, तभी आरम्भ करते हैं!” उन्होंने हाथ जोड़ दिए।

बलभद्र जी साँसद थे, और उनके पास काम की कमी नहीं थी। सुबह से ही उनसे मिलने वालों का ताँता लगा रहता था। वो किसी को न नहीं करते थे। और यह सभी बातें राजपुरोहित जी को मालूम थीं।

“कैसी बातें कर रहे हैं आप, राजपुरोहित जी!” उन्होंने भी हाथ जोड़ दिए, “बस... बिटिया का विवाह हो जाए... अब तो हमारी यही इच्छा शेष है! आप बताएँ सब कुछ... विस्तार से!”

“महाराज, हमको ज्ञात है कि आप जैसा विद्वान पुरुष, विद्या-देवी का उपासक, अपने होने वाले दामाद में यही सारे गुण चाहता है... राजकुमारी जी स्वयं विदुषी हैं! तो अंततः हमको एक सुयोग्य वर मिल गया है।”

“बहुत अच्छी बात है ये तो! बताईए न उसके बारे में!”

“अवश्य महाराज,” कह कर राजपुरोहित जी ने अपने झोले से एक पुस्तिका निकालते हुए कहना शुरू किया, “हमारे हिसाब से राजकुमारी प्रियम्बदा के लिए सबसे सुयोग्य वर, राजस्थान की सीमा पर स्थित, महाराजपुर राज्य के राजा, महाराज घनश्याम सिंह जी के ज्येष्ठ सुपुत्र, युवराज हरिश्चंद्र सिंह जी हैं।”

“तनिक ठहरिए राजपुरोहित जी... महाराजपुर? सुना हुआ नाम लग रहा है! क्यों सुना है, ध्यान नहीं आ रहा है!”

“अवश्य सुना होगा महाराज! हम आपको सब बताते हैं!” राजपुरोहित ने बड़े धैर्य से कहा, “लेकिन आप हमारी सारी बात सुन लें पहले!”

“जी!” बलभद्र जी ने फिलहाल शांत रहना उचित समझा।

एक तो प्रियम्बदा बत्तीस की हो गई थी, और इस उम्र में किसी लड़की का विवाह होना संभव ही नहीं रह जाता। ऊपर से राजपुरोहित जी एक राजपरिवार से सम्बन्ध लाए थे। कुछ भी कह लें - अपनी एकलौती पुत्री के लिए एक सुयोग्य वर का लालच तो किसी भी लड़की के पिता में होता ही है!

‘आशा है कि राजकुमार पढ़े लिखे भी हों!’ उन्होंने मन ही मन सोचा।

“युवराज इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं, और अंतिम वर्ष में हैं।”

यह सुन कर बलभद्र जी को बड़ा सुख मिला।

राजपुरोहित जी कह रहे थे, “यह सम्बन्ध महाराज की ही तरफ़ से आया है... उनको भी आपके जैसा ही परिवार चाहिए... ऐसा परिवार जहाँ लोग उत्तम पढ़े लिखे हों... अंधविश्वासों से दूर हों!”

“अच्छी बात है...”

“राजपरिवार में चार ही सदस्य हैं... महाराज, महारानी, युवराज, और उनके छोटे भाई! ... युवराज की आयु त्रयोविंशति (तेईस) वर्ष की है...”

“किन्तु राजपुरोहित जी, युवराज तो मेरी प्रियम्बदा से बहुत छोटे हैं...”

“जी महाराज, ज्ञात है हमको!” राजपुरोहित ही ने बलभद्र जी को जैसे स्वांत्वना दी हो, “लेकिन राजकुमारी की आयु उनके लिए कोई समस्या नहीं है। ... वैसे भी, राजकुमारी जी की ख़्याति अब सुदूर क्षेत्रों में भी फ़ैल रही है।”

“आश्चर्य है! राजपुरोहित जी, हमको लग रहा है कि इस हर अच्छी बात के उपरान्त एक ‘परन्तु’ आने ही वाला है!” बलभद्र जी ने हँसते हुए कहा।

जिस अंदाज़ में उन्होंने ये कहा, राजपुरोहित भी हँसने लगे।

“राजपरिवार धनाढ्य है! महाराज भी आप जैसे ही प्रजावत्सल रहे हैं, अतः जनता की शुभकामनाएँ और आशीर्वाद उनको प्राप्त हैं। ... परन्तु, एक समय था, जब ऐसा नहीं था।” राजपुरोहित जी ने ‘परन्तु’ का ख़ुलासा करना शुरू कर ही दिया, “कोई सौ, सवा सौ वर्ष पूर्व महाराज के एक पूर्वज, महाराज श्याम बहादुर पर विदेशी आक्रांताओं का दास होने का आरोप लग चुका है। ... कहते हैं कि वो इतने दुराचारी और अत्याचारी थे, कि उन्होंने किसी को न छोड़ा...! हर प्रकार के दुर्गुण थे उनमें... मदिरा-प्रेमी, विधर्मी, अनाचारी!”

बलभद्र इस बात को रोचकता से सुन रहे थे। बात किधर जाने वाली है, यह कहना कठिन था।

“कहते हैं कि एक बार एक ब्राह्मण संगीतज्ञ, और उसकी पत्नी, जो उसी के समान गुणी गायिका थी, दोनों उसके श्याम बहादुर महाराज के दरबार में आए... दीपोत्सव के रंगारंग कार्यक्रम में भजन - पूजन करने। श्याम बहादुर की कुदृष्टि ब्राह्मण स्त्री पर जम गई! रूपसि तो वो थी ही, उसका गायन भी अद्भुत था! किन्तु जहाँ सभा में उपस्थित अन्य लोग आध्यात्म सागर में डूबे हुए थे, वहीं महाराज को...” राजपुरोहित जी ने बात अधूरी ही छोड़ दी।

समझदार व्यक्ति को संकेत करना ही बहुत होता है। बलभद्र जी समझ गए इस बात को।

“वो रात्रि बहुत अत्याचारी रात्रि थी महाराज!” राजपुरोहित जी ने उदास होते हुए कहा, “कुछ लोग कहते हैं कि उस ब्राह्मण की हत्या कर दी गई... कुछ कहते हैं कि उसको किसी क्षद्म आरोप में कारावास में डाल दिया गया... इस समय तो कुछ भी ठीक ठीक ज्ञात नहीं है! इतने वर्ष बीत जाने पर घटनाएँ किंवदन्तियाँ बन जाती हैं!”

बलभद्र जी ने समझते हुए सर हिलाया। राजपुरोहित ने कहना जारी रखा,

“किन्तु श्याम बहादुर ने उस ब्राह्मण स्त्री के साथ अत्यंत पाशविक दुराचार किया...” राजपुरोहित जी से ‘बलात्कार’ शब्द कहा भी नहीं जा पा रहा था, “... इतना कि वो बेचारी अधमरी हो गई। पूरा समय वो अपने सतीत्व की दुहाई देती हुई महाराज से विनती करती रही, कि वो उस पर दया करें! कि वो उसको छोड़ दें! किन्तु उस निर्दयी को दया न आई!”

बलभद्र जी ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा, “किन्तु वो बहुत पुरानी बात हो गई है न राजपुरोहित जी? ऐसे ढूँढने लगेंगे तो प्रत्येक परिवार में ऐसे अनेकों गूढ़ रहस्य छुपे होंगे?”

“अवश्य महाराज! परन्तु मुख्य बात हमने आपको अभी बताई ही नहीं!” राजपुरोहित जी ने गहरी साँस भरते हुए और थोड़ा रुकते हुए कहा, “किंवदंतियों के अनुसार उस ब्राह्मण स्त्री ने अपनी छिन्न अवस्था में श्याम बहादुर महाराज को श्राप दिया कि पुरुष होने के दम्भ में अगर वो मानवता भूल गए हैं, अगर वो यह भूल गए हैं कि उनका स्वयं का अस्तित्व एक स्त्री के ही कारण संभव हुआ है, तो जा... तेरे परिवार में कन्या उत्पन्न ही न हो!”

“क्या?”

“जी महाराज,” राजपुरोहित जी ने गला खँखारते हुए कहा, “और... श्याम बहादुर महाराज के बाद राजपरिवार में जितनी भी संतानें आईं, उनमें से आज तक कोई भी कन्या नहीं हुई...”

“और उस ब्राह्मणी का क्या हुआ?”

“ज्ञात नहीं महाराज... कुछ लोग कहते हैं कि ब्राह्मण की ही तरह उसकी भी हत्या कर दी गई! कुछ कहते हैं कि ब्राह्मणी को राज्य के बाहर ले जा कर वन में छोड़ दिया गया कि वन्य-पशु उसका भक्षण कर लें... कुछ कहते हैं कि उस दुराचार के कारण ब्राह्मणी गर्भवती हुई और उसने किसी संतान को जन्म दिया! सच कहें, ये सब तो केवल अटकलें ही हैं!”

“हे प्रभु!” बलभद्र जी ने गहरी साँस भरते हुए, बड़े अविश्वास से कहा, “सच में... क्या ये बातें... श्राप इत्यादि... संभव भी हैं?”

“महाराज, संसार में न जाने कैसी कैसी अनहोनी होती रहती हैं! इस श्राप में कितनी सत्यता है, हम कह नहीं सकते! हम तो ईश्वर की शक्ति में विश्वास रखते हैं... सतीत्व में विश्वास रखते हैं...! आपका संसार अलग है! आप तर्क-वितर्क में विश्वास रखते हैं! किन्तु एक तथ्य यह अवश्य है कि महाराजपुर राजपरिवार में विगत सवा सौ वर्षों में किसी कन्या के जन्म का कोई अभिलेख नहीं मिलता!”

“तो क्या इसीलिए...”

“महाराज, आप अंधविश्वासों में नहीं पड़ते, किन्तु समाज उसको मानता है! कुछ दशकों से अनेकों राजपरिवारों ने महाराजपुर राजपरिवार का, कहिए सामाजिक परित्याग कर दिया है। ... एक अभिशप्त परिवार में कौन अपनी कन्या देगा?”

“तो क्या वो लोग अपनी बहुओं को...”

“नहीं महाराज... उसमें आप संशय न करें! ... पुत्रवधुओं का ऐसा सम्मान तो हमने किसी अन्य परिवार में नहीं देखा! अन्य लोग केवल कहते हैं कि उनके घर आपकी पुत्री राज करेगी! किन्तु महाराजपुर राजपरिवार में पुत्रवधुएँ सत्य ही रानियों जैसी रहती हैं! उनका ऐसा आदर सम्मान होता है कि क्या कहें!”

कहते हुए राजपुरोहित जी ने एक पत्र निकाला, “... आप स्वयं मिल लें उनसे! ये महाराज घनश्याम सिंह जी की ओर से आपको और महारानी को निमंत्रण भेजा गया है! ये निमंत्रण पत्र उन्होंने ही लिखा है... हमारे सामने!” और बलभद्र जी को सौंप दिया।

उन्होंने समय ले कर उस पत्र को पढ़ा।

संभ्रांत, शिष्ट लेखन! पढ़ कर ही समझ में आ जाए कि किसी खानदानी पुरुष ने लिखा है। पत्र में महाराज ने लिखा था कि किसी प्रशासनिक कार्य से उनका दिल्ली जाना हुआ था, जहाँ पर उन्होंने राजकुमारी प्रियम्बदा को दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में होने वाले किसी कार्यक्रम में बोलते हुए सुना। उनसे मुलाकात तो न हो सकी, लेकिन जानकारों से पूछने पर उनके बारे में पता चला। और यह कि उनको राजकुमारी प्रियम्बदा, युवराज हरिश्चंद्र के लिए भा गईं। और अगर महाराज की कृपा हो, तो वो राजकुमारी को बहू बना कर कृतार्थ होना चाहते हैं, और राज्य और राजपरिवार की उन्नति में एक और कदम रखना चाहते हैं। पत्र के साथ ही युवराज की तस्वीर और राजपरिवार की भी तस्वीर संलग्न थी।

*
Mind blowing writing ✍️ avsj bhai👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻 jo maja devnagri lipi or hindi bhasha mr hai wo kahi nahi, aapne sabhit kar diya, just awesome :claps: :claps: :claps:
 
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Raj_sharma

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Update #1


“अभिवादन हो महाराज,” राजपुरोहित जी ने अपने आसन से उठते हुए अतिथि-सत्कार गृह में प्रवेश करते हुए ज़मींदार बलभद्र देव का अभिवादन किया।

चंद्रपुर रियासत के ज़मींदार - या राजा ही कह लीजिए - बलभद्र देव करीब पैंसठ साल के युवा थे। रियासत का भारतीय गणराज्य में विलय तो कई वर्षों पहले ही हो चुका था, लेकिन वहाँ की प्रजा में उनके लिए जैसा आदर पहले था, वैसा ही अभी भी था। उनको सभी ‘महाराज’ कह कर ही बुलाते थे। इसके बहुत से कारण थे।

अपने समकक्ष और समकालीन अन्य ज़मींदारों और राजाओं के विपरीत विलासमय जीवन से वो बहुत परे थे। बेहद संयम से अपना जीवन यापन करते थे। यूँ तो वो ज़मींदार थे, लेकिन पढ़ने लिखने की तीव्र प्रेरणा और प्रजावत्सल होने के कारण उन्होंने लन्दन से वकालत की डिग्री हासिल करी थी। जब भारत में अंग्रेज़ों का वर्चस्व था, तब उन्होंने अपनी वकालत, और मृदुभषिता के हुनर के बलबूते अपनी और आसपास की कई रियासतों की जनता को अनावश्यक करभार से छुटकारा दिला रखा था। इस कारण से उनकी जनता उनका बहुत आदर सम्मान करती थी।

स्वतंत्रता मिलने के पश्चात जब रियासतों और जागीरदारी का भारत देश में राजनीतिक विलय की बात उठी, तो उस पहल को सबसे पहले उसको स्वीकारने वालों में से वो एक थे। राय बहादुर मेनन और लौह पुरुष सरदार ने उस कारण से चंद्रपुर में कई सारे राजकीय निवेश करने का वचन दिया, और उस पर अमल भी किया। हाल ही में वहाँ एक राजकीय अस्पताल और दो (एक लड़कों के लिए, और दूसरा लड़कियों के लिए) इंटर कॉलेज भी बनाए गए थे। रेल तंत्र की प्रांतीय पुनर्व्यवस्था अभी हाल ही में संपन्न हुई थी, और उसके कारण चंद्रपुर एक मुख्य रेल-स्थानक बन गया था। जब आम चुनाव हुए, तो उनके विरुद्ध कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं हुआ - इतना सम्मान था उनका!

बलभद्र देव ने सम्मानपूर्वक राजपुरोहित जी के चरण-स्पर्श किए और उनको आसन ग्रहण करने का आग्रह किया।

“चिरंजीवी भव महाराज, यशस्वी भव!” राजपुरोहित ने दोनों हाथ उठा कर उनको आशीर्वाद दिए, और अपने स्थान पर पुनः बैठ गए।

कुछ समय एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछने के बाद राजपुरोहित जी अपने प्रमुख मुद्दे पर आ गए।

“महाराज,” उन्होंने हाथ जोड़ कर कहना शुरू किया, “हमारे जीवन में बस एक कार्य शेष रह गया... उसी हेतु एक अंतिम प्रयास है यह,”

बलभद्र जी ने भी हाथ जोड़ दिए, “किस विषय में राजपुरोहित जी?”

उनको समझ में आ रहा था कि विषय क्या है। यूँ ही अकारण राजपुरोहित जी सवेरे सवेरे राजमहल आने वालों में से नहीं थे।

“महाराज, विगत पंद्रह वर्षों से हम राजकुमारी जी के विवाह के लिए कोई सुयोग्य वर ढूँढने में रत हैं... किन्तु अभी तक विफ़लता ही हाथ लगी है।”

बलभद्र जी ने गहरी साँस छोड़ी! तो उनका संदेह सही निकला।

उनकी एक ही पुत्री थी - प्रियम्बदा। अपने पिता के ही समान उनको भी ज्ञानार्जन का बहुत शौक था। लिहाज़ा, वो अपने पिता से भी कई हाथ आगे निकल गईं थीं। जिस समय राजपरिवार अपनी पुत्रियों को फ़ैशन, ऊँचे ख़ानदान में रहने सहने की शिक्षा देते थे, उस समय बलभद्र जी ने प्रियम्बदा को एम.ए. तक की शिक्षा दिलाई। बहुत संभव है कि वो पूरे राज्य में इतनी शिक्षा प्राप्त किये कुछ ही गिने चुने लोगों में से एक हों! जहाँ एक तरफ़ प्रियम्बदा पढ़ने लिखने में लीन थी, वहीं दूसरी तरफ़ बलभद्र जी परमार्थ के कार्य में लीन थे! अब इस चक्कर में राजकुमारी की शादी में विलम्ब होने लगा।

कोई सुयोग्य वर ही न मिलता। ऊँचे राजवाड़े उनके साथ नाता नहीं करना चाहते थे क्योंकि वो राजा नहीं थे, केवल ज़मींदार थे। और उनके समकक्ष ज़मींदारी में प्रियम्बदा जितने पढ़े लिखे लड़के ही नहीं थे। जब लड़कियों का इंटर कॉलेज शुरू हुआ, तब प्रियम्बदा ने ही उसके प्रशासन की कमान सम्हाली, और आज कल वो उसी में व्यस्त रहती थी।

“किन्तु,” बलभद्र जी ने कहना शुरू किया, “आप आज आए हैं... तो लगता है कि कोई शुभ समाचार अवश्य है!”

“महाराज, समाचार शुभ तो है!” राजपुरोहित ने थोड़ा सम्हलते हुए कहा, “किन्तु बात तनिक जटिल है! आपके पास समय हो, तभी आरम्भ करते हैं!” उन्होंने हाथ जोड़ दिए।

बलभद्र जी साँसद थे, और उनके पास काम की कमी नहीं थी। सुबह से ही उनसे मिलने वालों का ताँता लगा रहता था। वो किसी को न नहीं करते थे। और यह सभी बातें राजपुरोहित जी को मालूम थीं।

“कैसी बातें कर रहे हैं आप, राजपुरोहित जी!” उन्होंने भी हाथ जोड़ दिए, “बस... बिटिया का विवाह हो जाए... अब तो हमारी यही इच्छा शेष है! आप बताएँ सब कुछ... विस्तार से!”

“महाराज, हमको ज्ञात है कि आप जैसा विद्वान पुरुष, विद्या-देवी का उपासक, अपने होने वाले दामाद में यही सारे गुण चाहता है... राजकुमारी जी स्वयं विदुषी हैं! तो अंततः हमको एक सुयोग्य वर मिल गया है।”

“बहुत अच्छी बात है ये तो! बताईए न उसके बारे में!”

“अवश्य महाराज,” कह कर राजपुरोहित जी ने अपने झोले से एक पुस्तिका निकालते हुए कहना शुरू किया, “हमारे हिसाब से राजकुमारी प्रियम्बदा के लिए सबसे सुयोग्य वर, राजस्थान की सीमा पर स्थित, महाराजपुर राज्य के राजा, महाराज घनश्याम सिंह जी के ज्येष्ठ सुपुत्र, युवराज हरिश्चंद्र सिंह जी हैं।”

“तनिक ठहरिए राजपुरोहित जी... महाराजपुर? सुना हुआ नाम लग रहा है! क्यों सुना है, ध्यान नहीं आ रहा है!”

“अवश्य सुना होगा महाराज! हम आपको सब बताते हैं!” राजपुरोहित ने बड़े धैर्य से कहा, “लेकिन आप हमारी सारी बात सुन लें पहले!”

“जी!” बलभद्र जी ने फिलहाल शांत रहना उचित समझा।

एक तो प्रियम्बदा बत्तीस की हो गई थी, और इस उम्र में किसी लड़की का विवाह होना संभव ही नहीं रह जाता। ऊपर से राजपुरोहित जी एक राजपरिवार से सम्बन्ध लाए थे। कुछ भी कह लें - अपनी एकलौती पुत्री के लिए एक सुयोग्य वर का लालच तो किसी भी लड़की के पिता में होता ही है!

‘आशा है कि राजकुमार पढ़े लिखे भी हों!’ उन्होंने मन ही मन सोचा।

“युवराज इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं, और अंतिम वर्ष में हैं।”

यह सुन कर बलभद्र जी को बड़ा सुख मिला।

राजपुरोहित जी कह रहे थे, “यह सम्बन्ध महाराज की ही तरफ़ से आया है... उनको भी आपके जैसा ही परिवार चाहिए... ऐसा परिवार जहाँ लोग उत्तम पढ़े लिखे हों... अंधविश्वासों से दूर हों!”

“अच्छी बात है...”

“राजपरिवार में चार ही सदस्य हैं... महाराज, महारानी, युवराज, और उनके छोटे भाई! ... युवराज की आयु त्रयोविंशति (तेईस) वर्ष की है...”

“किन्तु राजपुरोहित जी, युवराज तो मेरी प्रियम्बदा से बहुत छोटे हैं...”

“जी महाराज, ज्ञात है हमको!” राजपुरोहित ही ने बलभद्र जी को जैसे स्वांत्वना दी हो, “लेकिन राजकुमारी की आयु उनके लिए कोई समस्या नहीं है। ... वैसे भी, राजकुमारी जी की ख़्याति अब सुदूर क्षेत्रों में भी फ़ैल रही है।”

“आश्चर्य है! राजपुरोहित जी, हमको लग रहा है कि इस हर अच्छी बात के उपरान्त एक ‘परन्तु’ आने ही वाला है!” बलभद्र जी ने हँसते हुए कहा।

जिस अंदाज़ में उन्होंने ये कहा, राजपुरोहित भी हँसने लगे।

“राजपरिवार धनाढ्य है! महाराज भी आप जैसे ही प्रजावत्सल रहे हैं, अतः जनता की शुभकामनाएँ और आशीर्वाद उनको प्राप्त हैं। ... परन्तु, एक समय था, जब ऐसा नहीं था।” राजपुरोहित जी ने ‘परन्तु’ का ख़ुलासा करना शुरू कर ही दिया, “कोई सौ, सवा सौ वर्ष पूर्व महाराज के एक पूर्वज, महाराज श्याम बहादुर पर विदेशी आक्रांताओं का दास होने का आरोप लग चुका है। ... कहते हैं कि वो इतने दुराचारी और अत्याचारी थे, कि उन्होंने किसी को न छोड़ा...! हर प्रकार के दुर्गुण थे उनमें... मदिरा-प्रेमी, विधर्मी, अनाचारी!”

बलभद्र इस बात को रोचकता से सुन रहे थे। बात किधर जाने वाली है, यह कहना कठिन था।

“कहते हैं कि एक बार एक ब्राह्मण संगीतज्ञ, और उसकी पत्नी, जो उसी के समान गुणी गायिका थी, दोनों उसके श्याम बहादुर महाराज के दरबार में आए... दीपोत्सव के रंगारंग कार्यक्रम में भजन - पूजन करने। श्याम बहादुर की कुदृष्टि ब्राह्मण स्त्री पर जम गई! रूपसि तो वो थी ही, उसका गायन भी अद्भुत था! किन्तु जहाँ सभा में उपस्थित अन्य लोग आध्यात्म सागर में डूबे हुए थे, वहीं महाराज को...” राजपुरोहित जी ने बात अधूरी ही छोड़ दी।

समझदार व्यक्ति को संकेत करना ही बहुत होता है। बलभद्र जी समझ गए इस बात को।

“वो रात्रि बहुत अत्याचारी रात्रि थी महाराज!” राजपुरोहित जी ने उदास होते हुए कहा, “कुछ लोग कहते हैं कि उस ब्राह्मण की हत्या कर दी गई... कुछ कहते हैं कि उसको किसी क्षद्म आरोप में कारावास में डाल दिया गया... इस समय तो कुछ भी ठीक ठीक ज्ञात नहीं है! इतने वर्ष बीत जाने पर घटनाएँ किंवदन्तियाँ बन जाती हैं!”

बलभद्र जी ने समझते हुए सर हिलाया। राजपुरोहित ने कहना जारी रखा,

“किन्तु श्याम बहादुर ने उस ब्राह्मण स्त्री के साथ अत्यंत पाशविक दुराचार किया...” राजपुरोहित जी से ‘बलात्कार’ शब्द कहा भी नहीं जा पा रहा था, “... इतना कि वो बेचारी अधमरी हो गई। पूरा समय वो अपने सतीत्व की दुहाई देती हुई महाराज से विनती करती रही, कि वो उस पर दया करें! कि वो उसको छोड़ दें! किन्तु उस निर्दयी को दया न आई!”

बलभद्र जी ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा, “किन्तु वो बहुत पुरानी बात हो गई है न राजपुरोहित जी? ऐसे ढूँढने लगेंगे तो प्रत्येक परिवार में ऐसे अनेकों गूढ़ रहस्य छुपे होंगे?”

“अवश्य महाराज! परन्तु मुख्य बात हमने आपको अभी बताई ही नहीं!” राजपुरोहित जी ने गहरी साँस भरते हुए और थोड़ा रुकते हुए कहा, “किंवदंतियों के अनुसार उस ब्राह्मण स्त्री ने अपनी छिन्न अवस्था में श्याम बहादुर महाराज को श्राप दिया कि पुरुष होने के दम्भ में अगर वो मानवता भूल गए हैं, अगर वो यह भूल गए हैं कि उनका स्वयं का अस्तित्व एक स्त्री के ही कारण संभव हुआ है, तो जा... तेरे परिवार में कन्या उत्पन्न ही न हो!”

“क्या?”

“जी महाराज,” राजपुरोहित जी ने गला खँखारते हुए कहा, “और... श्याम बहादुर महाराज के बाद राजपरिवार में जितनी भी संतानें आईं, उनमें से आज तक कोई भी कन्या नहीं हुई...”

“और उस ब्राह्मणी का क्या हुआ?”

“ज्ञात नहीं महाराज... कुछ लोग कहते हैं कि ब्राह्मण की ही तरह उसकी भी हत्या कर दी गई! कुछ कहते हैं कि ब्राह्मणी को राज्य के बाहर ले जा कर वन में छोड़ दिया गया कि वन्य-पशु उसका भक्षण कर लें... कुछ कहते हैं कि उस दुराचार के कारण ब्राह्मणी गर्भवती हुई और उसने किसी संतान को जन्म दिया! सच कहें, ये सब तो केवल अटकलें ही हैं!”

“हे प्रभु!” बलभद्र जी ने गहरी साँस भरते हुए, बड़े अविश्वास से कहा, “सच में... क्या ये बातें... श्राप इत्यादि... संभव भी हैं?”

“महाराज, संसार में न जाने कैसी कैसी अनहोनी होती रहती हैं! इस श्राप में कितनी सत्यता है, हम कह नहीं सकते! हम तो ईश्वर की शक्ति में विश्वास रखते हैं... सतीत्व में विश्वास रखते हैं...! आपका संसार अलग है! आप तर्क-वितर्क में विश्वास रखते हैं! किन्तु एक तथ्य यह अवश्य है कि महाराजपुर राजपरिवार में विगत सवा सौ वर्षों में किसी कन्या के जन्म का कोई अभिलेख नहीं मिलता!”

“तो क्या इसीलिए...”

“महाराज, आप अंधविश्वासों में नहीं पड़ते, किन्तु समाज उसको मानता है! कुछ दशकों से अनेकों राजपरिवारों ने महाराजपुर राजपरिवार का, कहिए सामाजिक परित्याग कर दिया है। ... एक अभिशप्त परिवार में कौन अपनी कन्या देगा?”

“तो क्या वो लोग अपनी बहुओं को...”

“नहीं महाराज... उसमें आप संशय न करें! ... पुत्रवधुओं का ऐसा सम्मान तो हमने किसी अन्य परिवार में नहीं देखा! अन्य लोग केवल कहते हैं कि उनके घर आपकी पुत्री राज करेगी! किन्तु महाराजपुर राजपरिवार में पुत्रवधुएँ सत्य ही रानियों जैसी रहती हैं! उनका ऐसा आदर सम्मान होता है कि क्या कहें!”

कहते हुए राजपुरोहित जी ने एक पत्र निकाला, “... आप स्वयं मिल लें उनसे! ये महाराज घनश्याम सिंह जी की ओर से आपको और महारानी को निमंत्रण भेजा गया है! ये निमंत्रण पत्र उन्होंने ही लिखा है... हमारे सामने!” और बलभद्र जी को सौंप दिया।

उन्होंने समय ले कर उस पत्र को पढ़ा।

संभ्रांत, शिष्ट लेखन! पढ़ कर ही समझ में आ जाए कि किसी खानदानी पुरुष ने लिखा है। पत्र में महाराज ने लिखा था कि किसी प्रशासनिक कार्य से उनका दिल्ली जाना हुआ था, जहाँ पर उन्होंने राजकुमारी प्रियम्बदा को दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में होने वाले किसी कार्यक्रम में बोलते हुए सुना। उनसे मुलाकात तो न हो सकी, लेकिन जानकारों से पूछने पर उनके बारे में पता चला। और यह कि उनको राजकुमारी प्रियम्बदा, युवराज हरिश्चंद्र के लिए भा गईं। और अगर महाराज की कृपा हो, तो वो राजकुमारी को बहू बना कर कृतार्थ होना चाहते हैं, और राज्य और राजपरिवार की उन्नति में एक और कदम रखना चाहते हैं। पत्र के साथ ही युवराज की तस्वीर और राजपरिवार की भी तस्वीर संलग्न थी।

*
Mind blowing writing ✍️ avsj bhai👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻 jo maja devnagri lipi or hindi bhasha mr hai wo kahi nahi, aapne sabhit kar diya, just awesome :claps: :claps: :claps: :claps:
 
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कुछ लिख लेता हूँ
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प्रिय मित्रों, आप सभी को शुभ दीपावली 🪔🪔
 
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चरित्रं विचित्रं..
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प्रिय मित्रों, आप सभी को शुभ दीपावली 🪔🪔
avsji भाई जी, आप को एवं समस्त आत्मीय पाठकों, लेखकों को दिपावली महापर्व कि अनंत हार्दिक शुभकामनाएं...
 
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avsji भाई जी, आप को एवं समस्त आत्मीय पाठकों, लेखकों को दिपावली महापर्व कि अनंत हार्दिक शुभकामनाएं...
बहुत बहुत धन्यवाद उमाकांत भाई साहब 🙏
 
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Kala Nag

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Update #1


“अभिवादन हो महाराज,” राजपुरोहित जी ने अपने आसन से उठते हुए अतिथि-सत्कार गृह में प्रवेश करते हुए ज़मींदार बलभद्र देव का अभिवादन किया।

चंद्रपुर रियासत के ज़मींदार - या राजा ही कह लीजिए - बलभद्र देव करीब पैंसठ साल के युवा थे। रियासत का भारतीय गणराज्य में विलय तो कई वर्षों पहले ही हो चुका था, लेकिन वहाँ की प्रजा में उनके लिए जैसा आदर पहले था, वैसा ही अभी भी था। उनको सभी ‘महाराज’ कह कर ही बुलाते थे। इसके बहुत से कारण थे।

अपने समकक्ष और समकालीन अन्य ज़मींदारों और राजाओं के विपरीत विलासमय जीवन से वो बहुत परे थे। बेहद संयम से अपना जीवन यापन करते थे। यूँ तो वो ज़मींदार थे, लेकिन पढ़ने लिखने की तीव्र प्रेरणा और प्रजावत्सल होने के कारण उन्होंने लन्दन से वकालत की डिग्री हासिल करी थी। जब भारत में अंग्रेज़ों का वर्चस्व था, तब उन्होंने अपनी वकालत, और मृदुभषिता के हुनर के बलबूते अपनी और आसपास की कई रियासतों की जनता को अनावश्यक करभार से छुटकारा दिला रखा था। इस कारण से उनकी जनता उनका बहुत आदर सम्मान करती थी।

स्वतंत्रता मिलने के पश्चात जब रियासतों और जागीरदारी का भारत देश में राजनीतिक विलय की बात उठी, तो उस पहल को सबसे पहले उसको स्वीकारने वालों में से वो एक थे। राय बहादुर मेनन और लौह पुरुष सरदार ने उस कारण से चंद्रपुर में कई सारे राजकीय निवेश करने का वचन दिया, और उस पर अमल भी किया। हाल ही में वहाँ एक राजकीय अस्पताल और दो (एक लड़कों के लिए, और दूसरा लड़कियों के लिए) इंटर कॉलेज भी बनाए गए थे। रेल तंत्र की प्रांतीय पुनर्व्यवस्था अभी हाल ही में संपन्न हुई थी, और उसके कारण चंद्रपुर एक मुख्य रेल-स्थानक बन गया था। जब आम चुनाव हुए, तो उनके विरुद्ध कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं हुआ - इतना सम्मान था उनका!

बलभद्र देव ने सम्मानपूर्वक राजपुरोहित जी के चरण-स्पर्श किए और उनको आसन ग्रहण करने का आग्रह किया।

“चिरंजीवी भव महाराज, यशस्वी भव!” राजपुरोहित ने दोनों हाथ उठा कर उनको आशीर्वाद दिए, और अपने स्थान पर पुनः बैठ गए।

कुछ समय एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछने के बाद राजपुरोहित जी अपने प्रमुख मुद्दे पर आ गए।

“महाराज,” उन्होंने हाथ जोड़ कर कहना शुरू किया, “हमारे जीवन में बस एक कार्य शेष रह गया... उसी हेतु एक अंतिम प्रयास है यह,”

बलभद्र जी ने भी हाथ जोड़ दिए, “किस विषय में राजपुरोहित जी?”

उनको समझ में आ रहा था कि विषय क्या है। यूँ ही अकारण राजपुरोहित जी सवेरे सवेरे राजमहल आने वालों में से नहीं थे।

“महाराज, विगत पंद्रह वर्षों से हम राजकुमारी जी के विवाह के लिए कोई सुयोग्य वर ढूँढने में रत हैं... किन्तु अभी तक विफ़लता ही हाथ लगी है।”

बलभद्र जी ने गहरी साँस छोड़ी! तो उनका संदेह सही निकला।

उनकी एक ही पुत्री थी - प्रियम्बदा। अपने पिता के ही समान उनको भी ज्ञानार्जन का बहुत शौक था। लिहाज़ा, वो अपने पिता से भी कई हाथ आगे निकल गईं थीं। जिस समय राजपरिवार अपनी पुत्रियों को फ़ैशन, ऊँचे ख़ानदान में रहने सहने की शिक्षा देते थे, उस समय बलभद्र जी ने प्रियम्बदा को एम.ए. तक की शिक्षा दिलाई। बहुत संभव है कि वो पूरे राज्य में इतनी शिक्षा प्राप्त किये कुछ ही गिने चुने लोगों में से एक हों! जहाँ एक तरफ़ प्रियम्बदा पढ़ने लिखने में लीन थी, वहीं दूसरी तरफ़ बलभद्र जी परमार्थ के कार्य में लीन थे! अब इस चक्कर में राजकुमारी की शादी में विलम्ब होने लगा।

कोई सुयोग्य वर ही न मिलता। ऊँचे राजवाड़े उनके साथ नाता नहीं करना चाहते थे क्योंकि वो राजा नहीं थे, केवल ज़मींदार थे। और उनके समकक्ष ज़मींदारी में प्रियम्बदा जितने पढ़े लिखे लड़के ही नहीं थे। जब लड़कियों का इंटर कॉलेज शुरू हुआ, तब प्रियम्बदा ने ही उसके प्रशासन की कमान सम्हाली, और आज कल वो उसी में व्यस्त रहती थी।

“किन्तु,” बलभद्र जी ने कहना शुरू किया, “आप आज आए हैं... तो लगता है कि कोई शुभ समाचार अवश्य है!”

“महाराज, समाचार शुभ तो है!” राजपुरोहित ने थोड़ा सम्हलते हुए कहा, “किन्तु बात तनिक जटिल है! आपके पास समय हो, तभी आरम्भ करते हैं!” उन्होंने हाथ जोड़ दिए।

बलभद्र जी साँसद थे, और उनके पास काम की कमी नहीं थी। सुबह से ही उनसे मिलने वालों का ताँता लगा रहता था। वो किसी को न नहीं करते थे। और यह सभी बातें राजपुरोहित जी को मालूम थीं।

“कैसी बातें कर रहे हैं आप, राजपुरोहित जी!” उन्होंने भी हाथ जोड़ दिए, “बस... बिटिया का विवाह हो जाए... अब तो हमारी यही इच्छा शेष है! आप बताएँ सब कुछ... विस्तार से!”

“महाराज, हमको ज्ञात है कि आप जैसा विद्वान पुरुष, विद्या-देवी का उपासक, अपने होने वाले दामाद में यही सारे गुण चाहता है... राजकुमारी जी स्वयं विदुषी हैं! तो अंततः हमको एक सुयोग्य वर मिल गया है।”

“बहुत अच्छी बात है ये तो! बताईए न उसके बारे में!”

“अवश्य महाराज,” कह कर राजपुरोहित जी ने अपने झोले से एक पुस्तिका निकालते हुए कहना शुरू किया, “हमारे हिसाब से राजकुमारी प्रियम्बदा के लिए सबसे सुयोग्य वर, राजस्थान की सीमा पर स्थित, महाराजपुर राज्य के राजा, महाराज घनश्याम सिंह जी के ज्येष्ठ सुपुत्र, युवराज हरिश्चंद्र सिंह जी हैं।”

“तनिक ठहरिए राजपुरोहित जी... महाराजपुर? सुना हुआ नाम लग रहा है! क्यों सुना है, ध्यान नहीं आ रहा है!”

“अवश्य सुना होगा महाराज! हम आपको सब बताते हैं!” राजपुरोहित ने बड़े धैर्य से कहा, “लेकिन आप हमारी सारी बात सुन लें पहले!”

“जी!” बलभद्र जी ने फिलहाल शांत रहना उचित समझा।

एक तो प्रियम्बदा बत्तीस की हो गई थी, और इस उम्र में किसी लड़की का विवाह होना संभव ही नहीं रह जाता। ऊपर से राजपुरोहित जी एक राजपरिवार से सम्बन्ध लाए थे। कुछ भी कह लें - अपनी एकलौती पुत्री के लिए एक सुयोग्य वर का लालच तो किसी भी लड़की के पिता में होता ही है!

‘आशा है कि राजकुमार पढ़े लिखे भी हों!’ उन्होंने मन ही मन सोचा।

“युवराज इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं, और अंतिम वर्ष में हैं।”

यह सुन कर बलभद्र जी को बड़ा सुख मिला।

राजपुरोहित जी कह रहे थे, “यह सम्बन्ध महाराज की ही तरफ़ से आया है... उनको भी आपके जैसा ही परिवार चाहिए... ऐसा परिवार जहाँ लोग उत्तम पढ़े लिखे हों... अंधविश्वासों से दूर हों!”

“अच्छी बात है...”

“राजपरिवार में चार ही सदस्य हैं... महाराज, महारानी, युवराज, और उनके छोटे भाई! ... युवराज की आयु त्रयोविंशति (तेईस) वर्ष की है...”

“किन्तु राजपुरोहित जी, युवराज तो मेरी प्रियम्बदा से बहुत छोटे हैं...”

“जी महाराज, ज्ञात है हमको!” राजपुरोहित ही ने बलभद्र जी को जैसे स्वांत्वना दी हो, “लेकिन राजकुमारी की आयु उनके लिए कोई समस्या नहीं है। ... वैसे भी, राजकुमारी जी की ख़्याति अब सुदूर क्षेत्रों में भी फ़ैल रही है।”

“आश्चर्य है! राजपुरोहित जी, हमको लग रहा है कि इस हर अच्छी बात के उपरान्त एक ‘परन्तु’ आने ही वाला है!” बलभद्र जी ने हँसते हुए कहा।

जिस अंदाज़ में उन्होंने ये कहा, राजपुरोहित भी हँसने लगे।

“राजपरिवार धनाढ्य है! महाराज भी आप जैसे ही प्रजावत्सल रहे हैं, अतः जनता की शुभकामनाएँ और आशीर्वाद उनको प्राप्त हैं। ... परन्तु, एक समय था, जब ऐसा नहीं था।” राजपुरोहित जी ने ‘परन्तु’ का ख़ुलासा करना शुरू कर ही दिया, “कोई सौ, सवा सौ वर्ष पूर्व महाराज के एक पूर्वज, महाराज श्याम बहादुर पर विदेशी आक्रांताओं का दास होने का आरोप लग चुका है। ... कहते हैं कि वो इतने दुराचारी और अत्याचारी थे, कि उन्होंने किसी को न छोड़ा...! हर प्रकार के दुर्गुण थे उनमें... मदिरा-प्रेमी, विधर्मी, अनाचारी!”

बलभद्र इस बात को रोचकता से सुन रहे थे। बात किधर जाने वाली है, यह कहना कठिन था।

“कहते हैं कि एक बार एक ब्राह्मण संगीतज्ञ, और उसकी पत्नी, जो उसी के समान गुणी गायिका थी, दोनों उसके श्याम बहादुर महाराज के दरबार में आए... दीपोत्सव के रंगारंग कार्यक्रम में भजन - पूजन करने। श्याम बहादुर की कुदृष्टि ब्राह्मण स्त्री पर जम गई! रूपसि तो वो थी ही, उसका गायन भी अद्भुत था! किन्तु जहाँ सभा में उपस्थित अन्य लोग आध्यात्म सागर में डूबे हुए थे, वहीं महाराज को...” राजपुरोहित जी ने बात अधूरी ही छोड़ दी।

समझदार व्यक्ति को संकेत करना ही बहुत होता है। बलभद्र जी समझ गए इस बात को।

“वो रात्रि बहुत अत्याचारी रात्रि थी महाराज!” राजपुरोहित जी ने उदास होते हुए कहा, “कुछ लोग कहते हैं कि उस ब्राह्मण की हत्या कर दी गई... कुछ कहते हैं कि उसको किसी क्षद्म आरोप में कारावास में डाल दिया गया... इस समय तो कुछ भी ठीक ठीक ज्ञात नहीं है! इतने वर्ष बीत जाने पर घटनाएँ किंवदन्तियाँ बन जाती हैं!”

बलभद्र जी ने समझते हुए सर हिलाया। राजपुरोहित ने कहना जारी रखा,

“किन्तु श्याम बहादुर ने उस ब्राह्मण स्त्री के साथ अत्यंत पाशविक दुराचार किया...” राजपुरोहित जी से ‘बलात्कार’ शब्द कहा भी नहीं जा पा रहा था, “... इतना कि वो बेचारी अधमरी हो गई। पूरा समय वो अपने सतीत्व की दुहाई देती हुई महाराज से विनती करती रही, कि वो उस पर दया करें! कि वो उसको छोड़ दें! किन्तु उस निर्दयी को दया न आई!”

बलभद्र जी ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा, “किन्तु वो बहुत पुरानी बात हो गई है न राजपुरोहित जी? ऐसे ढूँढने लगेंगे तो प्रत्येक परिवार में ऐसे अनेकों गूढ़ रहस्य छुपे होंगे?”

“अवश्य महाराज! परन्तु मुख्य बात हमने आपको अभी बताई ही नहीं!” राजपुरोहित जी ने गहरी साँस भरते हुए और थोड़ा रुकते हुए कहा, “किंवदंतियों के अनुसार उस ब्राह्मण स्त्री ने अपनी छिन्न अवस्था में श्याम बहादुर महाराज को श्राप दिया कि पुरुष होने के दम्भ में अगर वो मानवता भूल गए हैं, अगर वो यह भूल गए हैं कि उनका स्वयं का अस्तित्व एक स्त्री के ही कारण संभव हुआ है, तो जा... तेरे परिवार में कन्या उत्पन्न ही न हो!”

“क्या?”

“जी महाराज,” राजपुरोहित जी ने गला खँखारते हुए कहा, “और... श्याम बहादुर महाराज के बाद राजपरिवार में जितनी भी संतानें आईं, उनमें से आज तक कोई भी कन्या नहीं हुई...”

“और उस ब्राह्मणी का क्या हुआ?”

“ज्ञात नहीं महाराज... कुछ लोग कहते हैं कि ब्राह्मण की ही तरह उसकी भी हत्या कर दी गई! कुछ कहते हैं कि ब्राह्मणी को राज्य के बाहर ले जा कर वन में छोड़ दिया गया कि वन्य-पशु उसका भक्षण कर लें... कुछ कहते हैं कि उस दुराचार के कारण ब्राह्मणी गर्भवती हुई और उसने किसी संतान को जन्म दिया! सच कहें, ये सब तो केवल अटकलें ही हैं!”

“हे प्रभु!” बलभद्र जी ने गहरी साँस भरते हुए, बड़े अविश्वास से कहा, “सच में... क्या ये बातें... श्राप इत्यादि... संभव भी हैं?”

“महाराज, संसार में न जाने कैसी कैसी अनहोनी होती रहती हैं! इस श्राप में कितनी सत्यता है, हम कह नहीं सकते! हम तो ईश्वर की शक्ति में विश्वास रखते हैं... सतीत्व में विश्वास रखते हैं...! आपका संसार अलग है! आप तर्क-वितर्क में विश्वास रखते हैं! किन्तु एक तथ्य यह अवश्य है कि महाराजपुर राजपरिवार में विगत सवा सौ वर्षों में किसी कन्या के जन्म का कोई अभिलेख नहीं मिलता!”

“तो क्या इसीलिए...”

“महाराज, आप अंधविश्वासों में नहीं पड़ते, किन्तु समाज उसको मानता है! कुछ दशकों से अनेकों राजपरिवारों ने महाराजपुर राजपरिवार का, कहिए सामाजिक परित्याग कर दिया है। ... एक अभिशप्त परिवार में कौन अपनी कन्या देगा?”

“तो क्या वो लोग अपनी बहुओं को...”

“नहीं महाराज... उसमें आप संशय न करें! ... पुत्रवधुओं का ऐसा सम्मान तो हमने किसी अन्य परिवार में नहीं देखा! अन्य लोग केवल कहते हैं कि उनके घर आपकी पुत्री राज करेगी! किन्तु महाराजपुर राजपरिवार में पुत्रवधुएँ सत्य ही रानियों जैसी रहती हैं! उनका ऐसा आदर सम्मान होता है कि क्या कहें!”

कहते हुए राजपुरोहित जी ने एक पत्र निकाला, “... आप स्वयं मिल लें उनसे! ये महाराज घनश्याम सिंह जी की ओर से आपको और महारानी को निमंत्रण भेजा गया है! ये निमंत्रण पत्र उन्होंने ही लिखा है... हमारे सामने!” और बलभद्र जी को सौंप दिया।

उन्होंने समय ले कर उस पत्र को पढ़ा।

संभ्रांत, शिष्ट लेखन! पढ़ कर ही समझ में आ जाए कि किसी खानदानी पुरुष ने लिखा है। पत्र में महाराज ने लिखा था कि किसी प्रशासनिक कार्य से उनका दिल्ली जाना हुआ था, जहाँ पर उन्होंने राजकुमारी प्रियम्बदा को दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में होने वाले किसी कार्यक्रम में बोलते हुए सुना। उनसे मुलाकात तो न हो सकी, लेकिन जानकारों से पूछने पर उनके बारे में पता चला। और यह कि उनको राजकुमारी प्रियम्बदा, युवराज हरिश्चंद्र के लिए भा गईं। और अगर महाराज की कृपा हो, तो वो राजकुमारी को बहू बना कर कृतार्थ होना चाहते हैं, और राज्य और राजपरिवार की उन्नति में एक और कदम रखना चाहते हैं। पत्र के साथ ही युवराज की तस्वीर और राजपरिवार की भी तस्वीर संलग्न थी।

*
कहानी का यह भाग पहले पढ़ चुका था पर भूल गया था खैर कहानी फिर से पढ़ना शुरु किया है इसबार अंजाम तक पहुँचने तक पढ़ूंगा और कमेंट भी करूँगा
 
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Update #2


बलभद्र देव जी किसी प्रकार के अंधविश्वासों में विश्वास नहीं करते थे। और तो और, वो लगभग नास्तिक थे - स्वयं सूर्य और पृथ्वी के पूजक थे। हाँ, यह अवश्य है कि उन्होंने किसी अन्य को अपने विश्वास का पालन करने से मना नहीं किया कभी भी। और अपनी परम्पराओं का भी सम्मान करते थे। लेकिन वो यह समझ रहे थे कि राजपरिवारों से जुड़ने का ऐसा सुनहरा अवसर उनके हाथ लगा है, तो बस अन्य राजपरिवारों के अंधविश्वास के कारण! राजपुरोहित जी के प्रस्ताव लाने के चार महीनों के ही अंतराल में युवराज हरिश्चंद्र सिंह और राजकुमारी प्रियम्बदा का विवाह सम्पन्न हो गया।

यह एक ऐसा विवाह था जिसका चंद्रपुर रियासत को एक बड़े लम्बे अर्से से इंतज़ार था। जनता में आशा थी कि राजकुमारी के युवा होते ही महल में विवाह का नाद होगा; आनंद रहेगा! किन्तु विधि का विधान - वैसा नहीं हुआ। साल दर साल बीत गए... चंद्रपुर की जनता, अपने भावी ‘राजा’ की राह देखती रह गई। अवश्य ही अब देश गणराज्य था, लेकिन राज-परिवारों को ले कर जनता का कौतूहल अभी भी बरकरार था - यहाँ तक कि बेहद सादगी से रहने वाले बलभद्र देव के परिवार को ले कर भी! संभव है कि यह कौतूहल बलभद्र जी के प्रजावत्सल होने के कारण रहा हो! वो जनता के शुभचिंतक थे, तो जनता भी उनकी शुभचिंतक थी! सभी बस यही चाहते थे कि राजकुमारी जी का शीघ्र ही विवाह हो, उनकी संतान हो, और वो चंद्रपुर रियासत का नेतृत्व करे! लेकिन बिना विवाह के कुछ संभव नहीं था।

इसलिए जब दोनों के सम्बन्ध तय होने की खबर चंद्रपुर की जनता में फ़ैली, ये केवल ज़मींदारों का ही नहीं, बल्कि पूरे चंद्रपुर की शान का प्रश्न हो गया। विवाह से एक सप्ताह पहले से ही ढोल-ताशों का नाद बजने लगा था चंद्रपुर में! हर घर में रंगाई पुताई, राजमहल जाने वाले रास्ते के दोनों किनारों पर चूने की लकीर और रास्ते की अच्छी साफ़ सफ़ाई! यह सब काम रियासत के वाशिंदों ने खुद किया... किसी से कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। और विवाह वाली रात पूरी रियासत असंख्य दीयों की रौशनी से ऐसी जगमगा रही हो, जैसे वो दिवाली की रात हो! ये कहना न्यूनोक्ति होगा कि महाराज घनश्याम सिंह ऐसा सम्बन्ध पा कर फूले नहीं समाए।

प्रियम्बदा कोई अपार सुंदरी नहीं थी - सामान्य चेहरे मोहरे, और कद काठी वाली, बत्तीस वर्ष की लड़की थी। थोड़ा साँवला रंग था उसका। अपने पिता का प्रोत्साहन पा कर घुड़सवारी का आनंद उठा लेती थी, लेकिन बस उतना ही! पहले तो उस पर भी उसकी माता का विरोध होता रहता था, लेकिन जैसे जैसे शादी की उम्र निकलने लगी, उसकी माता ने भी उस पर लगाई हुई मनाही थोड़ी कम कर दी। उसमें जो सुंदरता थी, वो सहज सुंदरता थी। लेकिन उसका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था!

जब महाराज घनश्याम ने प्रियम्बदा को एक सभा को सम्बोधित करते हुए देखा और सुना, तो न जाने क्यों उनको एक आनंद सा महसूस हुआ। उनको लगा कि इस लड़की में उनके घर की बहू, और राज्य की अगली रानी बनने की समस्त खूबियाँ हैं। पता करने पर मालूम हुआ कि वो अभी भी कुँवारी है और खानदानी, राजसी परिवार से है! थोड़ा प्रयास करने से उनको देव परिवार के बारे में सब कुछ मालूम हो गया! उनको अपार हर्ष भी हुआ जब बलभद्र देव महाराज ने उनका विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

सुदूर पूर्व और सुदूर पश्चिम का ऐसा सुन्दर मिलन! आज के समय में सब कुछ होता है, लेकिन उस समय तो कोई स्थानों के नाम भी ठीक से जानता भी नहीं था।

उस समय परिवारों के बड़े ही आपस में बातचीत कर के अपने बच्चों के सम्बन्ध तय कर लेते थे। यहाँ भी यही हुआ था, लेकिन गनीमत यह थी कि बलभद्र जी ने अपनी बेटी को, उसके होने वाले पति के बारे में जितना संभव था, उतनी जानकारियाँ उपलब्ध कराईं। अपने स्तर पर जो संभव था, उन्होंने भावी दामाद के बारे में जानने का प्रयास किया। हरिश्चंद्र, जिसको अब उनके घर ‘हरीश’ नाम से पुकारते थे, एक अच्छा युवा था। अपने समय के पुत्रों के समान उसको भी अपने पिता की, अपने परिवार के सम्मान की बड़ी चिंता रहती थी। इसलिए उसका पूरा प्रयास रहता था कि वो कोई ऐसा कदम न उठाए जिससे कि उसके परिवार का सर नीचा हो। वैसे भी उसके लकड़दादा के पाप का बोझ कुछ ऐसा भारी था, कि रजवाड़े होते हुए भी वो सभी अपना सर थोड़ा नीचे ही रख कर चलते थे। पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ निकलती जा रही थीं, फिर भी वो बोझ बढ़ता ही जा रहा था! एक तरह का सामाजिक बहिष्कार उनको झेलना पड़ रहा था अपने समकक्ष राजाओं से! पढ़ा लिखा तो वो था ही; आकर्षक भी था। विश्वविद्यालय में अनेकों लड़कियों को वो भाता था। हो भी क्यों न? और ऐसा नहीं है कि वो उन लड़कियों की चेष्टाओं से अनभिज्ञ था। लेकिन फिर भी उसने कभी अपनी इच्छाओं से वशीभूत हो कर कुछ नहीं किया। कहीं कुछ ऐसा न हो जाए, कि खानदान का सर और झुक जाए, यह डर सदैव बना रहता था उसके हृदय में! जब प्रियम्बदा के साथ यह सम्बन्ध उसके सामने प्रस्तुत हुआ, तो उसने माता पिता के चरण छू कर उसको स्वीकार कर लिया।

प्रियम्बदा को भी स्वयं को ले कर कोई उदात्त अनुमान नहीं थे। वो जानती भी थी और समझती भी थी कि वो एक सामान्य सी दिखने वाली लड़की है। साथ ही साथ वो हरीश से आयु में बहुत बड़ी भी है। ऐसे में उसका वैवाहिक जीवन फिल्मों में दिखाई जा रही कहानियों जैसा नहीं होने वाला था। ऊपर से, ज़मींदार की लड़की होने से ले कर युवरानी और भावी रानी होने का सफ़र भी उसी को तय करना था। कठिन काम था यह! लेकिन उसके संस्कार पुख़्ता थे। पढ़ी लिखी, समझदार और गुणवती लड़की थी वो। उसको मालूम था कि वो एक आदर्श बहू बन सकती है, और उसका प्रयास था कि उसके कार्य ऐसे रहें जिससे उसके अपने माता पिता, और अपने ससुराल दोनों का ही सम्मान और बढ़े!

चन्द्रपुर से महाराजपुर का सफ़र लम्बा था - अधिकतर समय ट्रेन से जाना, फिर रेल-स्थानक से गाड़ी से महाराजपुर! समय लगता है। उस समय द्रुतगामी ट्रेन नहीं होती थीं! लिहाज़ा लगभग तीन दिन लगने थे इस यात्रा में! अच्छी बात यह थी कि ट्रेन में फर्स्ट क्लास की व्यवस्था थी। इसलिए राजपरिवार उसी में सफ़र कर रहा था। वैसे उस ट्रेन में इस बार अधिकतर लोग राजपरिवार के ही थे। पारस्परिक अंतर्ज्ञान के लिए नई नवेली जोड़ी के पास कुछ अवसर अवश्य था, किन्तु कुछ ऐसा हिसाब किताब बैठा कि दोनों को बात करने के अवसर कम ही मिले; और जो मिले, वो बस हाँ, हूँ, में ही निकल गए। हर मुख्य रेल-स्थानक पर महाराज घनश्याम से मिलने वाली बड़ी बड़ी हस्तियाँ मौजूद थीं! अवश्य ही वो सामाजिक रूप से हाशिए पर थे, लेकिन राजनीतिक रूप से उनका प्रभाव प्रबल था। इसलिए मिलने वालों की कोई कमी नहीं थी। इसलिए अपने गंतव्य तक पहुँचते पहुँचते ट्रेन को और भी अधिक समय लग गया।

जब वो महाराजपुर पहुँचे तो नवविवाहिता युवरानी के स्वागत के लिए भव्य बंदोबस्त था! प्रियम्बदा की आँखें चुँधिया गईं - ऐसा स्वागत हुआ! उस समय लगभग संध्या हो चली थी; युवरानी की देखभाल के लिए ससुराल से सेविकाएँ आई हुई थीं! वैसे तो राजपरिवारों में चलन यह था कि बहू अपने साथ अपने मायके से ही सेविकाएँ ले आती थी, लेकिन प्रियम्बदा वैसी नहीं थी। सरल सी जीवनशैली थी उसकी! इसलिए ससुराल ने ही पूरा बंदोबस्त किया था। सेविकाओं ने ही उसको स्वागत योग्य परिधान और भारी ज़ेवर पहनाए, और महाराजपुर से एक स्टेशन पहले ही पूरी तरह सुसज्जित कर दिया! रेलवे स्थानक पर राजसी बैण्ड बाजा मौजूद था, और पूरा स्टेशन ऐसा सुसज्जित था कि जैसे वो कोई रेलवे स्थानक नहीं, बल्कि कोई मैरिज-हॉल हो! रेल के डब्बे से निकलने के मार्ग पर लाल कालीन बिछी हुई थी, जिस पर फूलों की भी एक कालीन सी बिछी हुई थी। उसके चेहरे पर एक पतला, किन्तु लम्बा सा घूँघट डाला हुआ था, जो परंपरा के अनुसार ही था। लेकिन घूँघट के अंदर से वो बाहर के दृश्य भली-भाँति देख सकती थी। नव-युगल की आरती होने के बाद, डब्बे से ले कर बाहर कार तक पहुँचते हुए पुष्प-वर्षा थमी नहीं! अद्भुत सा, रोमांचक अनुभव! अब जा कर प्रियम्बदा को समझ में आया कि उसका जीवन कितना बदल गया है!

महाराजपुर में भी चन्द्रपुर जैसी ही व्यवस्था थी - जिधर दृष्टि जाती, हर घर में जगमग करते दीये जल रहे थे। गाड़ियों का काफ़िला धीरे धीरे चल रहा था! उसके ससुर और उसके पति अपनी जनता से मिल रहे थे, और सभी का यथोचित आशीर्वाद ले रहे थे। प्रियम्बदा कार में अकेली ही थी - हाँ उसके लिए एक सेविका आगे बैठी हुई थी। कुछ बच्चे कार के शीशे से अंदर झाँक कर नई दुल्हन को देखने का प्रयास भी कर रहे थे, लेकिन बाहर गोधूलि के प्रकाश के कारण कुछ देख नहीं पा रहे थे। उसको बाद में मालूम हुआ कि आज रात से ले कर एक सप्ताह तक पूरे महाराजपुर में प्रतिदिन भोज का आयोजन है!

‘बाप रे!’

इसको कहते हैं सम्पन्नता!

राजमहल पहुँच कर उसका पुनः, और पहले से भी कहीं भव्य स्वागत हुआ। गाजे-बाजे, ढोल, नगाड़े, तुरही, और ऐसे ही नाना प्रकार के उच्च स्वर वाले वाद्य-यंत्र बज रहे थे! राजमहल के द्वार पर अपनी बहू के स्वागत के लिए महारानी स्वयं मौजूद थीं, और फूलों की वर्षा के बीच, अपने बेटे और बहू की आरती उतार रही थीं। आरती के बाद महावर की थाल में पैर रख कर जब प्रियम्बदा आगे बढ़ी, तो उसका हृदय धमकने लगा!

‘ये अपना घर है!’

घर नहीं, महल था वो! द्वार से ले कर अंदर मुख्य हॉल तक पहुँचने तक गलियारे के दोनों तरफ़ इस राज-परिवार के पूर्वजों के दस दस फुट ऊँचे चित्र लगे हुए थे। रेशम के महीन, रंग-बिरंगे कपड़ों के पर्दे गलियारे के हर खम्भे के बीच झूल रहे थे। गलियारे पर रेशम की ही सुन्दर सी कालीन बिछी हुई थी, जिस पर वो चल रही थी। यह तो केवल झलक मात्र थी! ये था राजसी ठाठ-बाठ! हर बात की ऐसी बहुतायत! ऐसे ऐश-ओ-आराम में रहने की आदत ही नहीं थी उसकी!

हाँलाकि उसको पता था कि उसकी ससुराल में बहू और बेटी में कोई अंतर नहीं किया जाता, फिर भी अज्ञात का डर, अज्ञात की आशंका बनी ही रहती है! कोई जान-पहचान का न हो, तो वैसे ही व्यक्ति घबराने लगता है। अपने नए परिवार के किसी सदस्य से मिली भी तो नहीं है वो!

उसने पाँच छः पग धरे होंगे कि उसका देवर उसको सामने से भागता आता हुआ दिखा। विवाह के दौरान उसने देखा था अपने देवर, हर्षवर्द्धन को! हरीश का सहबाला बना हुआ था! बेचारा विवाह की रस्मों के दौरान ऊब गया था, और अधिकतर समय सोता ही रहा था। महाराज और महारानी की सबसे छोटी संतान है वो! उसको देख कर लगता है कि हरीश अपने बचपन में कैसे रहे होंगे! चुलबुल, लेकिन शर्मीले!

“भाभी माँ,” उसने कहा, “आपको हम आपके कक्ष में ले कर जाएँगे!”

उसने ‘हम’ इतने हक़ से कहा, जैसे कि ये काम उसके अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता।

उसकी बात पर महारानी हँसने लगीं!

“अवश्य राजकुमार!” उन्होंने हँसते हुए कहा, “आपकी भाभी अब आपके सुपुर्द हैं! आपको इनका पूरा ख़याल रखना होगा! लेकिन, इनको परेशान न करिएगा! समझ गए?”

“जी माँ,” उसने कहा, और अपनी भाभी का हाथ पकड़ कर उनको उनके कक्ष में ले जाने लगा।

हॉल के किनारों से ऊपर जाने के लिए दोनों तरफ़ सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। राजपरिवार का आवास ऊपर था। काफ़ी देर चलने के बाद दोनों एक आलीशान कमरे में प्रविष्ट हुए।

“भाभी माँ, आईये! ... यह है आपका कक्ष!” हर्ष ने चहकते हुए प्रियम्बदा को बताया, और हाथ पकड़ कर उसको अंदर ले आया।

यह एक विशालकाय कक्ष था। एक ओर आलीशान पलँग बिछा हुआ था, और बाकी के कमरे में बैठने के लिए सोफ़े, गद्दियाँ, टेबल, इत्यादि की व्यवस्था थी।

प्रियम्बदा को सोफ़े पर बिठा कर हर्ष बोला, “भाभी माँ, अब हम चलते हैं!”

“कहाँ जा रहे हैं आप राजकुमार?”

“आपके स्वागत की व्यवस्था भी तो देखनी है!” उसने इतने सयानेपन से कहा कि प्रियम्बदा ने बड़ी कठिनाई से अपनी हँसी दबाई कि कहीं बच्चे को बुरा न लग जाए!

“अपनी भाभी माँ के पास नहीं बैठेंगे आप?” प्रियम्बदा ने कहा, “हमको अकेली छोड़ कर चले जाएँगे?”

“ओह, हाँ... आप हमारे जाने पर अकेली तो हो जाएँगी! ... ठीक है, हम नहीं जाते!” उसने कहा, फिर कुछ सोच कर, “... किन्तु, आपके लिए जलपान...”

उसी समय एक सेविका ने अदब से आवाज़ दी, “युवरानी जी... राजकुमार जी... हम महारानी जी का सन्देश ले कर आई हैं!”

“आ जाईए भीतर,” प्रियम्बदा ने कहा।

‘इतना फॉर्मल है सब कुछ...’ उसने मन में सोचा, ‘कितना एडजस्ट करना पड़ेगा!’

राजकुमारियाँ या युवरानियाँ कैसे रहती हैं, उसको इन सब का कोई अंदाज़ा नहीं था। कभी सीखा ही नहीं, और न ही कभी इन सब बातों की ज़रुरत ही समझी।

“युवरानी जी,” मुख्यसेविका बोली, “महारानी ने कहा है कि रात्रिभोज भोजन गृह में सजा दिया गया है। आप यदि तैयार हैं, तो हम आपको लिवा लाएँ!”

“जी... ठीक है!”

अपने लिए ‘जी’ सम्बोधन सुन कर सेविका की आँखें आश्चर्य से चौड़ी हो गईं; वो पूरे अदब से नब्बे अंश झुक कर दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार कर के कमरे से बाहर निकल गई।

“राजकुमार जी,” उसने अपने देवर से कहा, “आप हमारे साथ रात्रिभोज करेंगे?”

“अवश्य, भाभी माँ!”


*
खैर यहाँ तक तो पहले भी पढ़ चुका था
अच्छा लगा पुरानी बात धीरे धीरे याद आ रहा है l देखते हैं आगे आगे क्या होगा
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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पुनः स्वागत है मित्र!
आपने शायद "मोहब्बत का सफ़र" भी पूरा नहीं पढ़ा।
(मैंने उसको कमेंट के लिए बंद करवा दिया है - कुछ नामुरादों ने नाक में दम कर दिया था बिना वजह की टीका टिप्पणी कर के - कहने के बावज़ूद कि शांति से पढ़ लें)
 

Kala Nag

Mr. X
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पुनः स्वागत है मित्र!
आपने शायद "मोहब्बत का सफ़र" भी पूरा नहीं पढ़ा।
(मैंने उसको कमेंट के लिए बंद करवा दिया है - कुछ नामुरादों ने नाक में दम कर दिया था बिना वजह की टीका टिप्पणी कर के - कहने के बावज़ूद कि शांति से पढ़ लें)
हाँ मोहब्बत का सफर पूरा नहीं पढ़ा
वैसे भी उसका अंत मालूम था उसका दुख नहीं है पर श्राप को अधूरा छोड़ा था इस बात का दुख था l कोई नहीं मैं सब कहानी पढ़ने के बाद ही अपनी कहानी पर लेखन शुरु करूँगा
 
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