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पूरे पंद्रह साल के बाद गांव लौट रहा था स्टेशन से बाहर निकल कर सोचा की पैदल ही चलू पर बैग और ट्राली एक साथ ले कर चलना मुश्किल होता इसलिए एक रिक्शे वाले को अपने चाचा का नाम बताया और वो चल पड़ा.......
गाँव पहले के मुकाबले काफी बदल चुका था…………जहां पर पहले खाली जमिने हुआ करती थी वहाँ पर अब दो – तीन मंजिला मकानों ने कब्जा इख्तियार कर लिया था....……जो बाजार पहले कुछ हद तक सीमित था अब वो कुछ ज्यादा ही दूर तक फैल गया था और लगभग हर तरह की दुकाने मौजूद थी.......
बचपन और जवानी के दिनों की यादें ताजा होने लगी थी इसलिए खुद को रोक नहीं पाया और रिक्शे वाले को चौराहे पर रुकने का बोला और पैसे देने के बाद पैदल ही आगे बढ़ने लगा....……जैसे जैसे घर नजदीक आ रहा था एक बेचैनी सी हो रही थी सीने मे.......घर के सामने पहुंचा तो देखा की बचपन के घर और अब के घर मे हालात और सूरत दोनों बदले हुए थे.......……
दरवाजा खटखटाया तो एक छोटी सी बच्ची ने दरवाजा खोला और पूछा आप कौन किस्से मिलना है आपको तो मै कुछ बोलता उससे पहले पीछे से बड़े चाचा की आवाज आई आ गया तू......
मैं उनके पाँव छूने झुकने ही लगा था की वो अन्दर की ओर मुड़ गए....……मै भी क्या करता उनके साथ अन्दर आ गया और वहाँ मेरी नजर आँगन में बैठी चाची और कुछ लोगों पर पड़ी......पहले मैने चाचा के पाँव छूए और वो बिना आशीर्वाद दिए चाची से बोले की बहादुर से कह कर इसके रहने के लिए ऊपर का कमरा साफ करवा दो और जा कर अपनी कुर्सी पर बैठ गए जहां वो मेरे आने से पहले बैठ कर अखबार पढ़ रहे थे.....बैठते के साथ उन्होंने सवाल दागा कितने दिनों के लिए आया है....
मै चाची की तरफ जा रहा था पर उनका सवाल सुन कर रुक गया और बोला अभी हु कुछ दिन उसके बाद उन्होंने काम धंधे के बारे में पूछा और गृहस्थ जीवन के बारे मे जिसपर मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने भी दुबारा कुछ नहीं पूछा ना मैंने कुछ बोलने कहने की जहमत उठाई.......
इतने मे घर बहादुर ने मेरे सामने भी चाय का कप ला कर रख दिया और वो ऊपर कमरे की तरफ निकल गया........अपनी चाय खतम करने के बाद मै भी ऊपर की तरफ निकला जहा मेरे लिए कमरे की सफाई की गई थी.........कमरे मे आ कर देखा तो सब कुछ वैसे ही था धूल से सना हुआ सिर्फ बिस्तर की चादर बदल कर और टेबल की सफाई कर दी थी.......
थोड़ी देर सुस्ताने के बाद मै कमरे के भीतर ही बने बाथरूम मे से नहा धो कर निकला और तैयार हो कर नीचे जाने को हुआ पर पता नहीं मन नहीं माना तो ऊपर सीढ़ियों के पास खड़े हो कर नीचे झाकने लगा.........
सब अपने मे व्यस्त थे थोड़ी देर युही निहारने के बाद मै नीचे उतरा और बिना किसी को बोले बाहर निकल गया सोचा आज अपने बचपन की गलियों मे एक बार फिर से घूम कर आया जाए.........
घूमते हुए मुझे काफी देर हो चुकी थी अब ना तो वो बचपन के दोस्त थे और नाही बचपन वाली बात इसलिए थोड़ी देर युही घूमने के बाद घर लौट आया और सीधा अपने कमरे मे चला गया वैसे भी जब से आया था तब से देख रहा था छोटे लोग जो मुझे पहली बार देख रहे थे उनकी आंखों में एक अजनबीपन दिख रहा था और जो पहले से जानते थे उनके लिए मेरा होना या ना होना कोई खास मायने नहीं रखता था.........
रात के खाने के वक्त वही सुबह दरवाजे पे आई बच्ची ने मेरे कमरे मे आ कर पूछा आप खाना खाएंगे तो मै कुछ सोच कर उसे बोला हा खाऊँगा पर यही ऊपर......
मै ऐसा इसलिए सोचा क्यूंकी परिवार के लोगों के साथ मेरा इतने दिनों बाद भी मिलने पर रवैया बिल्कुल अच्छा नहीं था पर फिर सोचा की अकेले ऊपर खाना भी सही नहीं लगेगा इसलिए मैंने उस बच्ची को बोला मै नीचे ही आता हु.....
जब मैं नीचे आया तब डाइनिंग टेबल पर सभी ने पहले ही खाना शुरू कर दिया था.....मैंने वही एक कुर्सी खींची और बैठ गया और बहादुर ने मेरे सामने प्लेट लगाई और उसमे खाना परोस दिया.........मैंने अभी खाना खतम भी नहीं किया था की बाकी सब एक एक कर के अपना खाना खतम कर के उठ कर चले गए सिवाय उस छोटी सी लड़की के अलावा वो वही बैठी रही जब तक मैंने अपना खाना खतम ना कर लिया........
ऐसे ही तीन दिन बीत गए किसी को मुझसे कोई मतलब नहीं था सिवाय उस नन्ही सी जान के....वो बच्ची मेरे हर जरूरत का ख्याल रख रही थी और एक बात उसका चेहरा जाना पहचाना लगता था.......तभी एक शाम जब वो एक प्लेट मे मेरे खाने के लिए समोसे लाई तब मैंने उससे पूछा की क्या नाम है तुम्हारा किसकी बेटी हो तुम.....वो घबराई सी मुझे देखे जा रही थी तो मैंने उसे बोला नाम बताओगी तो मुझे तुम्हें बुलाने मे आसानी रहेगी तो उसने धीरे से बोला संध्या और इतना बोलते ही वो भाग गई......
मै थोड़ा हैरान था वो ऐसे भागी जैसे उसे किसी ने मना कर रखा हो मुझसे ज्यादा बात चित करने से.....खैर मैं उस शाम भी घूमने निकला और आज घूमते घूमते अचानक से एक चेहरा दिखा और वो था मेरे बचपन का दोस्त नरेंद्र.....मैंने तुरंत उसके पास जा कर उसे रोका तो वो भी मुझे तुरंत पहचान गया और मेरे गले लगते हुए बोला अरे महेश कैसा है यार बड़े सालों बाद दिखाई दिया.....कब आया गावं मै बोला अरे अभी कुछ दिन हुए मुझे आए पर मुझे इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था की तू मुझे यहाँ मिल जाएगा.....जैसे बाकी लोगों ने ये गाँव छोड़ दिया था वैसे ही तू भी तो चला गया था ना तेरी तो नौकरी लगी थी ना दिल्ली मे तो फिर यहाँ....
नरेंद्र बोला अरे यार नौकरी तो आज भी कर रहा हु पर दिल्ली नहीं यही बनारस सिविल कोर्ट मे.....मै बोला ये तो बढ़िया हो गया यारकितने दिन हुए यहाँ जॉइन किए........तो वो बोला पिताजी के जाने के बाद घर बार खेत खलिहान सब वीरान पड़े थे इसलिए दिल्ली से यहाँ ट्रांसफर ले लिया अब यही रहता हु और रोज कोर्ट से आना जाना रहता है....
मैं बोला ये सही है भाई और बाकी सब घर में कैसे है....यूंही बाते करते करते हम उसके घर पहुंचे और फिर चल पड़ा बातो का सिलसिला जिसमे बचपन और जवानी के दिन याद करते हुए हमने एक बार फिर से उन पलों को जी लिया.....बातो बातो में नरेंद्र ने एक ऐसी बात याद दिला दी जिसको सुन कर मेरा पूरा अतीत मेरे आंखों के सामने से घूम गया और मेरा मन बेचैन हो उठा.....
उसके बाद मेरा वहाँ रुकना मुश्किल हो गया तो मै चल पड़ा घर की तरफ....……जब यहाँ आ रहा था तो सोच रखा था की उसके बारे मे कोई भी बात अपनी जेहन मे आने नहीं दूंगा पर किस्मत भी नया हमारे साथ बड़ा ही अजीब खेल खेलती है....…उस दिन घर मै थोड़ी देर से आया और घर आने के बाद मेरी नजरे किसी को ढूंढ रही थी वो और कोई नहीं संध्या थी......
मेरे कमरे के दरवाजे पे थोड़ी सी भी हलचल होती तो मै सोचता की संध्या होगी पर शायद आज वो नहीं आने वाली थी क्यूंकी मै आज काफी देर से आया था....……पर संध्या के ना आने से मेरा मन बहुत बेचैन था और आँखों से नींद काफी दूर थी और सालों पहले कीये उस अनजाने अपराध की काली परछाई मेरे को घेरे खड़ी थी.........
गाँव पहले के मुकाबले काफी बदल चुका था…………जहां पर पहले खाली जमिने हुआ करती थी वहाँ पर अब दो – तीन मंजिला मकानों ने कब्जा इख्तियार कर लिया था....……जो बाजार पहले कुछ हद तक सीमित था अब वो कुछ ज्यादा ही दूर तक फैल गया था और लगभग हर तरह की दुकाने मौजूद थी.......
बचपन और जवानी के दिनों की यादें ताजा होने लगी थी इसलिए खुद को रोक नहीं पाया और रिक्शे वाले को चौराहे पर रुकने का बोला और पैसे देने के बाद पैदल ही आगे बढ़ने लगा....……जैसे जैसे घर नजदीक आ रहा था एक बेचैनी सी हो रही थी सीने मे.......घर के सामने पहुंचा तो देखा की बचपन के घर और अब के घर मे हालात और सूरत दोनों बदले हुए थे.......……
दरवाजा खटखटाया तो एक छोटी सी बच्ची ने दरवाजा खोला और पूछा आप कौन किस्से मिलना है आपको तो मै कुछ बोलता उससे पहले पीछे से बड़े चाचा की आवाज आई आ गया तू......
मैं उनके पाँव छूने झुकने ही लगा था की वो अन्दर की ओर मुड़ गए....……मै भी क्या करता उनके साथ अन्दर आ गया और वहाँ मेरी नजर आँगन में बैठी चाची और कुछ लोगों पर पड़ी......पहले मैने चाचा के पाँव छूए और वो बिना आशीर्वाद दिए चाची से बोले की बहादुर से कह कर इसके रहने के लिए ऊपर का कमरा साफ करवा दो और जा कर अपनी कुर्सी पर बैठ गए जहां वो मेरे आने से पहले बैठ कर अखबार पढ़ रहे थे.....बैठते के साथ उन्होंने सवाल दागा कितने दिनों के लिए आया है....
मै चाची की तरफ जा रहा था पर उनका सवाल सुन कर रुक गया और बोला अभी हु कुछ दिन उसके बाद उन्होंने काम धंधे के बारे में पूछा और गृहस्थ जीवन के बारे मे जिसपर मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने भी दुबारा कुछ नहीं पूछा ना मैंने कुछ बोलने कहने की जहमत उठाई.......
इतने मे घर बहादुर ने मेरे सामने भी चाय का कप ला कर रख दिया और वो ऊपर कमरे की तरफ निकल गया........अपनी चाय खतम करने के बाद मै भी ऊपर की तरफ निकला जहा मेरे लिए कमरे की सफाई की गई थी.........कमरे मे आ कर देखा तो सब कुछ वैसे ही था धूल से सना हुआ सिर्फ बिस्तर की चादर बदल कर और टेबल की सफाई कर दी थी.......
थोड़ी देर सुस्ताने के बाद मै कमरे के भीतर ही बने बाथरूम मे से नहा धो कर निकला और तैयार हो कर नीचे जाने को हुआ पर पता नहीं मन नहीं माना तो ऊपर सीढ़ियों के पास खड़े हो कर नीचे झाकने लगा.........
सब अपने मे व्यस्त थे थोड़ी देर युही निहारने के बाद मै नीचे उतरा और बिना किसी को बोले बाहर निकल गया सोचा आज अपने बचपन की गलियों मे एक बार फिर से घूम कर आया जाए.........
घूमते हुए मुझे काफी देर हो चुकी थी अब ना तो वो बचपन के दोस्त थे और नाही बचपन वाली बात इसलिए थोड़ी देर युही घूमने के बाद घर लौट आया और सीधा अपने कमरे मे चला गया वैसे भी जब से आया था तब से देख रहा था छोटे लोग जो मुझे पहली बार देख रहे थे उनकी आंखों में एक अजनबीपन दिख रहा था और जो पहले से जानते थे उनके लिए मेरा होना या ना होना कोई खास मायने नहीं रखता था.........
रात के खाने के वक्त वही सुबह दरवाजे पे आई बच्ची ने मेरे कमरे मे आ कर पूछा आप खाना खाएंगे तो मै कुछ सोच कर उसे बोला हा खाऊँगा पर यही ऊपर......
मै ऐसा इसलिए सोचा क्यूंकी परिवार के लोगों के साथ मेरा इतने दिनों बाद भी मिलने पर रवैया बिल्कुल अच्छा नहीं था पर फिर सोचा की अकेले ऊपर खाना भी सही नहीं लगेगा इसलिए मैंने उस बच्ची को बोला मै नीचे ही आता हु.....
जब मैं नीचे आया तब डाइनिंग टेबल पर सभी ने पहले ही खाना शुरू कर दिया था.....मैंने वही एक कुर्सी खींची और बैठ गया और बहादुर ने मेरे सामने प्लेट लगाई और उसमे खाना परोस दिया.........मैंने अभी खाना खतम भी नहीं किया था की बाकी सब एक एक कर के अपना खाना खतम कर के उठ कर चले गए सिवाय उस छोटी सी लड़की के अलावा वो वही बैठी रही जब तक मैंने अपना खाना खतम ना कर लिया........
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मै थोड़ा हैरान था वो ऐसे भागी जैसे उसे किसी ने मना कर रखा हो मुझसे ज्यादा बात चित करने से.....खैर मैं उस शाम भी घूमने निकला और आज घूमते घूमते अचानक से एक चेहरा दिखा और वो था मेरे बचपन का दोस्त नरेंद्र.....मैंने तुरंत उसके पास जा कर उसे रोका तो वो भी मुझे तुरंत पहचान गया और मेरे गले लगते हुए बोला अरे महेश कैसा है यार बड़े सालों बाद दिखाई दिया.....कब आया गावं मै बोला अरे अभी कुछ दिन हुए मुझे आए पर मुझे इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था की तू मुझे यहाँ मिल जाएगा.....जैसे बाकी लोगों ने ये गाँव छोड़ दिया था वैसे ही तू भी तो चला गया था ना तेरी तो नौकरी लगी थी ना दिल्ली मे तो फिर यहाँ....
नरेंद्र बोला अरे यार नौकरी तो आज भी कर रहा हु पर दिल्ली नहीं यही बनारस सिविल कोर्ट मे.....मै बोला ये तो बढ़िया हो गया यारकितने दिन हुए यहाँ जॉइन किए........तो वो बोला पिताजी के जाने के बाद घर बार खेत खलिहान सब वीरान पड़े थे इसलिए दिल्ली से यहाँ ट्रांसफर ले लिया अब यही रहता हु और रोज कोर्ट से आना जाना रहता है....
मैं बोला ये सही है भाई और बाकी सब घर में कैसे है....यूंही बाते करते करते हम उसके घर पहुंचे और फिर चल पड़ा बातो का सिलसिला जिसमे बचपन और जवानी के दिन याद करते हुए हमने एक बार फिर से उन पलों को जी लिया.....बातो बातो में नरेंद्र ने एक ऐसी बात याद दिला दी जिसको सुन कर मेरा पूरा अतीत मेरे आंखों के सामने से घूम गया और मेरा मन बेचैन हो उठा.....
उसके बाद मेरा वहाँ रुकना मुश्किल हो गया तो मै चल पड़ा घर की तरफ....……जब यहाँ आ रहा था तो सोच रखा था की उसके बारे मे कोई भी बात अपनी जेहन मे आने नहीं दूंगा पर किस्मत भी नया हमारे साथ बड़ा ही अजीब खेल खेलती है....…उस दिन घर मै थोड़ी देर से आया और घर आने के बाद मेरी नजरे किसी को ढूंढ रही थी वो और कोई नहीं संध्या थी......
मेरे कमरे के दरवाजे पे थोड़ी सी भी हलचल होती तो मै सोचता की संध्या होगी पर शायद आज वो नहीं आने वाली थी क्यूंकी मै आज काफी देर से आया था....……पर संध्या के ना आने से मेरा मन बहुत बेचैन था और आँखों से नींद काफी दूर थी और सालों पहले कीये उस अनजाने अपराध की काली परछाई मेरे को घेरे खड़ी थी.........
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