#4
घर आया तो देखा की वहां पर निर्मला पहले से ही मोजूद थी ,
निर्मला- कहाँ गायब थे सुबह से, कब से राह देख रही थी सरपंच जी को मालूम हुआ की समय पर खाना पीना न हो रहा तो मेरी खैर नहीं होगी.
मैं- भूख नहीं है .
निर्मला- कुछ चीजो के लिए खुद को दोष नहीं देना चाहिए मैं तो इतना कहूँगी
मैंने उसकी तरफ देखा , वो बोली- अजित सिंह से हुई झड़प का सबको मालूम हो गया है . वैसे भी गाँव में हवाओ से तेज बाते उडती है .
न जाने क्यों मुझे लगा की निर्मला मुझे ताना सा दे रही है .
मैं- ठीक है जो दिल करे बना दो .
मैंने निर्मला की भारी छातियो को देखते हुए कहा . ना जाने क्यों जबसे लखन ने मुझे वो बात बताई थी मेरा ध्यान बार बार निर्मला की छातियो पर ही जाता था . मैं चारपाई पर बैठ गया निर्मला आंगन में बने चूल्हे के पास बैठ कर आटा गूंथने लगी. उसकी खनकती चुडिया, ब्लाउज से बहार झांकती चुचिया, मैंने लखन को सोचा, दुबला-पतला शराब के नशे में चूर रहने वाला चोकीदार जो रात भर घर से बाहर रहता था , इतनी गदराई लुगाई रात को बिस्तर पर अकेले करवट बदलती होगी, ठीक ही किया इसने जो और किसी से चुदवा लिया
“किस सोच में खोये हो ” निर्मला ने कहा
मैं- कुछ नहीं तुमको क्या लगता है इस बार सरपंची कौन जीतेगा
निर्मला- सरपंच जी के आलावा और कौन .हमेशा की तरह इस बार भी वोट उनको ही पड़ेगा.
मैं- हवा तो कुछ और कहती है , अजित का बाप भी जीत सकता है
निर्मला- ये तो सपने है उनके , खैर, मैं दोपहर को जंगल में जाउंगी यहाँ पर लकडिया कम हो गयी है .
मैं- रहने देना मैं काट लाऊंगा तुम बस घर का ध्यान रखना और बापू आये तो कहना की मैं घर पर ही था .
मैंने खाना खाया, भोजन परोसते समय एक दो बार उसका आंचल सरका कसम से मैंने अपने बदन में इतनी कम्पन महसूस नहीं की थी पहले कभी, जबसे लखन ने वो बात बताई थी निर्मला के लिए मेरी नजरे बदली बदली सी हो गयी थी . खैर मैं फिर कुल्हाड़ी लेकर जंगल की तरफ निकल गया. जेठ की गर्मी में सब कुछ तप रहा था , एक दो जगह देख कर मैंने लकडिया काटनी शुरू की . कुछ गर्मी का असर कुछ मेरे कानो में अजित की आवाज अभी तक गूँज रही थी .”मनहूस कहीं का ” . मैंने पेड़ पर जोर जोर से कुल्हाड़ी मारी . लकड़ी को जैसे चीर देना चाहता था मैं . अजित का गुस्सा पेड़ पर उतारा जा रहा था .
मैंने दो चार दिन जितनी लकडिया इकठ्ठा की और चल दिया पुल के पास पहुंचा तो देखा की वो ही लड़की पानी में पैर डाले बैठी थी , जैसे ही उसकी नजर मुझ पर पड़ी वो उठी और मेरी तरफ आई .
मैं- इस तरह रास्ता रोकना ठीक नहीं लाडली
वो-सुबह झगडा क्यों कर रहे थे
मैं- सुबह की बात सुबह गयी , तू बता अकेली इस बियाबान में क्यों भटक रही है
वो- घर पर मन नहीं लग रहा था सोचा घूम लू
मैं- जंगल में अकेले आना ठीक नहीं जानवरों का डर है, किसी को साथ ले आती .
वो- अब कहाँ अकेली हूँ तुम साथ हो न मेरे
मैं-ये भी सही है थोड़ी परे हट इस बोझ को रख दू फिर बात करेंगे
वो- तुमको ये सब छोटे काम करने की क्या जरुरत है , लोग है न इन कामो के लिए
मैं- काम तो काम है लाडली, जब कोई और कर सकता है इस काम को तो मैं क्यों नहीं फर्क नहीं पड़े की किसने किया बस समय पर काम हो जाना चाहिए .
वो- मैं समझ नही पा रही तुमको
मैं- गणित का सवाल तो हूँ नहीं जो समझ ना आऊ
वो मुस्कुरा पड़ी मैं भी हंस दिया
वो- रोज शाम को आती हूँ मैं पानी भरने के लिए
मैं- तेरा कुछ न बिगड़ेगा बेचारे कुम्हार की मेहनत बढ़ जाएगी
वो- तुम भी ना . भूल हुई माफ़ करो उस बात के लिए
मैं- कौन सी बात
उसने त्योरिया चढ़ाई , “शाम को आओगे न ” पूछा उसने
मैं- आ जाऊंगा.
थोड़ी देर और बतियाने के बाद मैं वापिस घर आ गया . दरवाजे को हल्का सा धक्का दिया अन्दर आकर मैंने लकडिया रखी और हाथ मुह धोने के लिए नलके के पास जा ही रहा था की मेरी नजर निर्मला पर पड़ी जो नलके पर नंगी नहा रही थी उसकी पीठ मेरी तरफ थी . गोरी चमड़ी धुप में चमक रही थी , उसके मांस से भरे चुतड उफ्फ्फ्फ़. जीवन में पहली बार मैंने किसी भी औरत को ऐसे देखा था .तभी वो घुटनों पर साबुन लगाने के लिए झुकी और कसम से मेरा बदन ऐंठ गया , मांसल जांघो के बीच जो नजारा था मैं तो बस देखता ही रह गया . उसकी चूत को बेशक मैं दूर से देख रहा था पर जो दीदार था न क्या ही कहे.
“मैं लखन की जगह होता तो लात मार देता चोकिदारी को ” मैंने अपने लंड को मसलते हुए कहा . पर तभी मुझे वहां से हट जाना पड़ा क्योंकि वो पलट रही थी . बाकि फिर पुरे दिन मुझे चैन नहीं मिला शाम को मैं मंदिर पर गया . बाबे के दरबार में बैठा मैं सोच रहा था की तभी किसी की आवाज ने मुझे पुकारा
“अर्जुन जानता था तुम यही पर मिलोगे उस आदमी ने कहा ”
मैंने उस को पहले कभी नहीं देखा था .
मैं - कौन हो भाई , क्या काम है
वो- काम तो तुमसे ही है जनाब. मेरा नाम रमेश चंद है पेशे से वकील हूँ
मैं- मुझसे भला क्या काम
वो- एक मिनट दो बस मुझे,
उसने अपने झोले से कुछ निकाला और मेरी तरफ कर दिया.
मैं- क्या है ये
वो- तुम्हारी अमानत