मैं बिलकुल हट्टा कट्टा हूँ। देखने में कोई भला आदमी मुझे रोगी नहीं कह सकता। पर मेरी कहानी किसी भारतीय विधवा से कम करुण नहीं है; यद्यपि मैं विधुर नहीं हूँ। मेरी आयु लगभग पैंतीस साल की है । आज तक कभी बीमार नहीं पड़ा था। लोगो को बीमार देखता था तो मुझे बड़ी इच्छा होती थी की किसी दिन मैं भी बीमार पड़ता तो अच्छा होता। हालाँकि मेरे बीमार होने पर किसी न्यूज़ चैनल में कोई बुलेटिन तो नहीं निकलता लेकिन इतना अवश्य था की मेरे बीमार पड़ने पर हंटले पामर के बिस्कुट - जिन्हे साधारण अवस्था में घर वाले खाने नहीं देते - पर दवा की बात और है - मुझे खाने को मिलते। यु डी कलोन की शीशियां सिर पर कोमल हाथों से बीवी मलती और सबसे बड़ी इच्छा तो यह थी की दोस्त लोग आकर मेरे पास बैठते और गंभीर मुद्रा धारण करके पूछते – “कहिये किसकी दवा हो रही है ? कुछ फायदा है ?”
जब कोई इस प्रकार से रोनी सूरत बना कर ऐसे प्रश्न करता है तब मुझे बड़ा मजा आता है और उस समय मैं आनंद की सीमा के उस पार पहुँच जाता हूँ जब दर्शक लोग उठकर जाना चाहते हैं पर संकोच के मारे जल्दी उठते नहीं । यदि उस समय उनके मन की तस्वीर कोई चित्रकार खींच दे तो मनोविज्ञान के खोजियों के लिए एक अनोखी वस्तु मिल जाये।
हाँ, तो एक दिन मैं कबड्डी खेल कर घर आया, हालाँकि वैसे तो मुझे ज्यादातर क्रिकेट खेलना ही पसंद है किन्तु आज इंडिया चेन्नई टेस्ट में इंग्लैंड के हाथो बुरी तरह से हार गयी थी जिससे मन कुछ उदास था इसलिए क्रिकेट की बजाय कबड्डी खेल लिया। घर आकर कपडे उतारे फिर स्नान किया। शाम को भोजन कर लेने की मेरी आदत है, पर आज मैच में रिफ्रेशमेंट जरा ज्यादा ही खा गया था इसलिए भूख नहीं थी।
"आपके लिए खाना लगा दूँ ?" मेरी पत्नी अनीता ने पूछा।
"आज बाहर से मिठाई खा कर आया हूँ इसलिए ज्यादा भूख नहीं है अभी" मैंने जवाब दिया।
"ज्यादा नहीं तो थोड़ा ही खा लो, वो क्या है न की आज मुझे पिक्चर देखने जाना है तो हो सकता है की मुझे आने में कुछ देर हो जाये" मेरी पत्नी अनीता ने मुझे खाना जल्दी खिलाने के पीछे अपनी सफाई देते हुए कहा।
मैंने फिर इंकार नहीं किया, उस दिन थोड़ा ही खाया। बारह पूरियां थी और एक लीटर दूध, बस इतना ही खा पाया। पूरियां खाने और दूध पी चुकने के बाद पता चला की ज्ञानी भाई के यहाँ से रीवा बाजार का रसगुल्ला आया है, उन्हें फिर से लड़का जो हुआ था। रसगुल्ले छोटे नहीं थे बल्कि बड़े बड़े थे। रस तो होगा ही। संभव है की कल तक कुछ खट्टे हो जाये। ये सोच कर जल्दी से आठ रसगुल्ले फटाफट निगल कर मैंने चारपाई पर धरना दिया।
चारपाई पर लेटते ही मस्त नींद आयी, मेरी श्रीमती जी सिनेमा देख कर कब घर लौटी, इसका कुछ पता ही नहीं चला। लेकिन एकाएक तीन बजे रात को नींद खुली। नाभि के नीचे दाहिनी ओर पेट में लग रहा था की जैसे कोई बड़ी बड़ी सुइयां लेकर कोंच रहा है। परन्तु मुझे इससे कोई भय नहीं लगा क्योंकि ऐसे ही समय के लिए औषधियों का राजा, रोगो का रामबाण, अमृतधारा की एक शीशी सदा मेरे पास रहती है। मैंने तुरंत उसकी कुछ बूँदें पान की। दोबारा दवा पी। फिर तिबारा भी पी डाली। पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा की सार्थकता उसी समय मुझे मालूम हुई। प्रातः काल होते होते शीशी समाप्त हो गयी किन्तु दर्द में किसी प्रकार की कमी नहीं हुई। अंततः प्रातः काल एक डॉक्टर के यहाँ आदमी भेजना पड़ा।
डॉक्टर चूतिया, यहाँ के बड़े नामी डॉक्टर हैं। पहले जब प्रैक्टिस नहीं चलती थी, तब वह लोगो के यहाँ मुफ्त जाते थे। वहां से पता चला की डॉक्टर साहब नौ बजे ऊपर से उतरते हैं। इसके पहले वह कही जा नहीं सकते। लाचार होकर दूसरे डॉक्टर के पास आदमी भेजना पड़ा। दूसरे डॉक्टर साहब सरकारी अस्पताल के सब-असिस्टेंट थे। वे एक साइकिल पर तशरीफ़ लाये। सूट तो वह ऐसा पहने हुए थे की उन्हें देखकर लगता था जैसे कि प्रिंस ऑफ़ वेल्स के वेलेटों में हैं। ऐसे सूट वाले का साइकिल पर आना ठीक वैसा ही मालूम हुआ जैसा कि नेताओं का मोटर छोड़कर पैदल चलना।
मैं अभी अपनी तकलीफ का पूरा हाल भी नहीं कह पाया था कि डॉक्टर साहब बोल पड़े, "जुबान दिखाइए"। प्रेमियों को जो मज़ा प्रेमिकाओं कि ऑंखें देखने में आता है, शायद वही मज़ा किसी डॉक्टर को मरीज़ों की जीभ देखने में।
"घबराने कि कोई बात नहीं है, दवा पीजिये, दो खुराक पीते पीते आपका दर्द वैसे ही गायब हो जायेगा जैसे कि हिंदुस्तान से सोना गायब हो रहा है" डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा।
"यहाँ मैं दर्द से बेचैन हूँ और डॉक्टर साहब को मसखरी सूझ रही है" मैंने मन ही मन मुंह बनाते हुए सोचा।
"अभी अस्पताल खुला नहीं होगा, नहीं तो आपको दवा मंगानी नहीं पड़ती। खैर, नैना फार्मेंसी से दवा मंगवा लीजियेगा, वहां दवाइयां ताज़ा मिलती हैं। और बोतल में पानी गरम करके सेंकिएगा" उन्होंने चलते चलते कहा।
डॉक्टर के जाने के बाद उनकी बताई हुई दवा मंगवा कर मैंने पी। गरम बोतलों से सेंक भी आरम्भ हुई। सेंकते-सेंकते छाले पड़ गए लेकिन दर्द में किसी प्रकार की कमी नहीं आयी।
दोपहर हुई, शाम हुई। पर दर्द में कमी न हुई, हटने का नाम तो दूर। लोग देखने के लिए आने लगे। मेरे घर पर मेला लगने लगा। ऐसे ऐसे लोग आये कि क्या बताऊँ ? पर हाँ, एक विशेषता थी। जो भी आता एक न एक नुस्खा अपने साथ लेता आता था।
किसी ने कहा, अजी, कुछ नहीं हींग पिला दो, किसी ने कहा, चूना खिला दो। खाने के लिए सिवा जूते के और कोई चीज़ बाकी नहीं रह गयी जिसे लोगो ने न बताई हो। यदि भारतीय सरकार को मालूम हो जाये कि देश में इतने डॉक्टर हैं तो निश्चय है कि सारे मेडिकल कॉलेज तोड़ दिए जाएँ। इतने खर्च कि आखिर आवश्यकता कि क्या है ?
कुछ समझदार लोग भी आते थे जो इस बात पर बहस छेड़ देते थे कि किसान आंदोलन सफल होगा कि नहीं, कोरोना बीमारी में कितनी सच्चाई है, अमेरिकन राष्ट्रपति चुनाव के बाद डोनाल्ड ट्रम्प को सजा होगी या नहीं, इत्यादि। मैं इस समय केवल स्मरण शक्ति से काम ले रहा हूँ। तीन दिन बीत गए लेकिन दर्द में कमी नहीं हुई। कभी कभी कम हो जाता था तो बीच बीच में जोरो का हमला हो जाता था, मानों चीन अमेरिका का युद्ध हो रहा हो।
तीसरे दिन तो ऐसा लगने लगा जैसे की मेरा घर क्लब बन गया है। लोग आते तो थे मुझे देखने के लिए, पर चर्चा छिड़ती थी कि इस बार नगर निगम पार्षद चुनाव में कौन जीतेगा, सलमान खान कि अगली फिल्म कैसी है, कोरोना में कितने मर गए, लोग आजकल ब्रुक बांड चाय क्यों नहीं पीते, हिंदी के दैनिक पत्रों में बड़ी अशुद्धियाँ रहती हैं, मेरी गाय ने आज दूध नहीं दिया, कुछ लोग हफ्ते में सातों दिन दाढ़ी क्यों बनवाते हैं, राजा चौहान, एनिग्मा और अमिता ने आज कोई अपडेट दिया या नहीं, casinar ने कौन सी स्टोरी कांटेस्ट में पोस्ट की, आनंदसिंह१२ Xforum में वापस कब लौटेंगे और लौटेंगे या नहीं? अर्थात अमेरिकन राष्ट्रपति और भारतीय सरकार से लेकर xforum की कहानियों तक की आलोचना यहाँ बैठकर लोग करते थे। और यहाँ दर्द की वह दर्दनाक हाकत थी की क्या लिखूं ? मुझे भी कुछ न कुछ बोलना ही पड़ता था। ऊपर से चाय, पान और सिगरेट की चपत अलग लगती थी, ऐसे में भला दर्द में कहाँ से कमी आती ? बीच बीच में लोग दवा की सलाह और डॉक्टर बदलने की सलाह और कौन डॉक्टर किस तरह का है, यह भी बतलाते जाते थे।
आखिर में लोगों ने कहा की तुम कब तक इस तरह पड़े रहोगे, किसी दूसरे की दवा करो। लोगों की सलाह से डॉक्टर चूहानाथ कतरजी को बुलाने की सबकी सलाह हुयी। आप लोग डॉक्टर साहब का नाम सुनकर हँसेंगे, पर यह मेरा दोष नहीं है। डॉक्टर साहब के माँ-बाप का दोष है। यदि मुझे उनका नाम रखना होता तो अवश्य ही कोई साहित्यिक या पौराड़ीक नाम रखता। परन्तु ये यथानाम तथा गुण। उनकी फीस 300 रुपये थी और आने जाने का 100 रुपये अलग। वो लंदन के एफ.आर.सी.यस. थे।
कुछ लोगों का सौंदर्य रात में बढ़ जाता है वैसे ही डॉक्टरों की फीस रात में बढ़ जाती है। खैर, डॉक्टर साहब बुलाये गए। आते ही हमारे हाल पर रहम किया और बोले, "अभी मिनटों में दर्द गायब हो जायेगा, आप थोड़ा पानी गरम करवाइये और जल्दी से यह दवा मंगवाइये।" उन्होंने एक पुर्जे पर अपनी दवा लिखी। पानी गरम हुआ। दो सौ की दवा आयी। डॉक्टर बाबू ने तुरंत एक छोटी सी पिचकारी निकाली, उसमे एक लम्बी सुई लगाईं, पिचकारी में दवा भरी और मेरे पेट में वह सुई कोंच कर दवा डाली।
यह कहना आसान है कि मेरा कलेजा निगाहीं के नेजे के घुस जाने से रेजा रेजा हो गया है, अथवा उनका दिल बरुनी की बर्छियों के हमले से टुकड़े टुकड़े हो गया है, पर अगर सचमुच एक आलपिन भी धंस जाये तो बड़े बड़े प्रेमियों को नानी याद आ जाये, अपनी प्रेमिकाएं भूल जाएँ। डॉक्टर साहब कुछ कहकर और मुझे सांत्वना देकर चले गए। इसके बाद मुझे नींद आ गई और मैं सो गया। मेरी नींद कब खुली कह नहीं सकता, पर दर्द में कमी हो चली थी और दूसरे दिन प्रातः काल पीड़ा रफूचक्कर हो गई थी।
कोई दो सफ्ताह मुझे पूरा स्वस्थ होने में लगे। इस दौरान बराबर डॉक्टर चूहानाथ कतरजी की दवा पीता रहा। पचास रुपये की शीशी प्रतिदिन आती रही। दवा के स्वाद का क्या कहना, अगर किसी मुर्दे के मुख में डाल दी जाये तो वह भी तिलमिला उठे। पंद्रह दिन के बाद मैं डॉक्टर साहब के घर गया। उन्हें धन्यवाद दिया।
"डॉक्टर साहब, अब तो दवा पीने की कोई जरुरत नहीं होगी ना ?" मैंने उनसे पूंछा।
"यह तो आपकी इच्छा पर है। पर यदि आप काफी एहतियात नहीं करेंगे तो आपको 'अपेंडिसाइटीज़' हो जायेगा। यह कोई मामूली दर्द नहीं था, असल में आपको 'सीलियो सेंट्रिक कोलाइटीज़' हो गया था। और उससे डेवलप कर 'पेरिकार्डियल हाइड्रेटयुलिक स्टैमकॉलिस' हो जाता, फिर ब्रम्हा भी कुछ नहीं कर पाते । ऐसा लगता है की आपकी पत्नी बहुत भाग्यवती हैं, अगर दो-चार घंटे की देर और हो जाती तो उन्हें ज़िंदगी भर रोना पड़ता। वह तो अच्छा हुआ की आपने मुझे बुला लिया। अभी कुछ दिनों तक आप मेरी दवा जारी रखिये। " डॉक्टर साहब ने कहा।
डॉक्टर साहब ने ऐसे ऐसे रोगों के नाम सुनाये की सुनते ही मेरी तबियत फड़क उठी। भला मुझे ऐसे रोग हुए जिनका नाम साधारण आदमी तो क्या, बड़े बड़े पढ़े लिखे लोग भी नहीं जानते। मालूम नहीं, ये मर्ज सब डॉक्टरों को मालूम हैं या फिर सिर्फ हमारे डॉक्टर चूहानाथ को ही मालूम हैं। खैर, मैंने उनकी दवा आगे कुछ दिन जारी रखी।
अभी एक सप्ताह भी पूरा ना हुआ था की एक दिन दोपहर दो बजे एकाएक फिर से दर्द रुपी फ़ौज ने मेरे शरीर रुपी किले पर हमला कर दिया। डॉक्टर साहब ने जिन जिन भयंकर मर्जों का नाम लिया था, उनका स्वरुप मेरी तड़पती हुई आँखों के सामने नृत्य करने लगा।
मैं सोचने लगा, "लो हो गया हमला उन्ही भयंकर मर्जों में से किसी एक का"
तुरंत डॉक्टर साहब के यहाँ आदमी दौड़ाया गया, ये बोलकर की इंजेक्शन का सामान लेकर जल्दी चलिए। लेकिन भेजा गया आदमी वहां से आदमी बिना मांगी पत्रिका की भांति वापिस लौटकर आ गया और बताया की डॉक्टर साहब कहीं गए हुए हैं। इधर मेरे दर्द की हालत ऐसी थी की जिसका वर्णन यदि सरस्वती भी शॉर्टहैंड से लिखें तो संभवतः समाप्त ना हो। मैं एरोप्लेन के पंखे की तेज़ी के सामान दर्द में तड़पते हुए बिस्तर में करवटे बदल रहा था।
इधर मित्रों और घरवालों की कॉन्फ्रेंस हो रही थी की अब किसको बुलाया जाये, पर 'डिसआर्मामेंट कॉन्फ्रेंस' की भांति कोई किसी की बात नहीं मान रहा था, न ही कोई निश्चय हो पा रहा था। मालूम नहीं, लोगों में क्या बहस हुई, कौन कौन प्रस्ताव फेल हुए, कौन कौन पास। जहाँ मैं पड़ा कराह रहा था, उसी के बगल में लोग बहस कर रहे थे। कभी कभी किसी-किसी की चिल्लाहट सुनाई दे जाती थी। बीमार मैं था, अच्छा-बुरा होना मुझे था, फीस मुझे देनी थी, परन्तु लड़ और लोग रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे की उन्ही में से किसी की जमींदारी कोई जबरदस्ती छीने लिए जा रहा है। अंत में हमारे मकान के बगल में रहने वाले पंडित जी की विजय हुयी और आयुर्वेदाचार्य, रसज्ञ रंजन, चिकित्सा-मार्तण्ड, प्रमेह-गज-पंचानन, पंडित सुखड़ी शास्त्री को बुलाने की बात तय हुई।
आधा घंटा तो बहस में बीता, खैर किसी तरह से कुछ तय हुआ। एक सज्जन उन्हें बुलाने के लिए भेजे गए। लगभग पैंतालीस मिनट बीत गए, परन्तु वहां से न वैद्य जी आये,और न ही भेजे गए सज्जन का ही कुछ पता चला। एक ओर दर्द इनकम टैक्स की तरह बढ़ता ही चला जा रहा था, दूसरी ओर इन लोगों का भी पता नहीं था जिससे बेचैनी बढ़ रही थी । अंत में जो साहब गए थे वे लौटे । उसको खाली हाथ आया देख कर सभी ने पूंछा तो उसने बताया की वैद्यराज सुखड़ा शास्त्री ने पत्रा देखने के बाद कहा की, "अभी बुद्ध क्रांति-वृत्त में शनि की स्थिति है, इकतीस पल नौ विपल में शनि बाहर हो जायेगा और डेढ़ घडी एकादशी का योग है, उसके समाप्त होने पर मैं चलूँगा। "
वैद्य जी को बुलाने गए सज्जन उन्हें एक घंटे बाद आने को कह आये थे। ये सुनकर मेरा कलेजा कबाब हो गया। मगर वे कह आये, अतएव बुलाना भी आवश्यक था। कोई एक घंटे बाद वैद्य जी एक फटफटिया पर तशरीफ़ लाये और आते ही मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गए। वे धोती पहने हुए थे और कंधे पर एक सफ़ेद दुपट्टा डाले हुए थे। इसके अतिरिक्त शरीर पर सूत के नाम पर केवल जनेऊ था, जिसका रंग देखकर यह शंका होती थी की वैद्यराज कहीं से कुश्ती लड़कर आ रहे हैं। वैद्य जी ने कुछ और न पूंछा, पहले नाड़ी हाथ में ली, पांच मिनट तक एक हाथ की नाड़ी देखी फिर दूसरे हाथ की।
"वायु का प्रकोप है, यकृत से वायु घूमकर पित्ताशय में प्रवेश कर आंत्र में जा पहुंची है। इससे मंदाभि का प्रादुर्भाव होता है और इसी कारण जब भोज्य पदार्थ प्रतिहत होता है तब शूल का कारण बन जाता है। संभव है की मूत्राशय में अश्मन भी एकत्र हो। " पंडित सुखड़ी शास्त्री ने मेरी नाड़ी देखते हुए कहा।
वैद्य जी मालूम नहीं क्या बक रहे थे, और ये सब सुनकर मेरी तबियत, दर्द और क्रोध से एक दूसरे ही संसार में जा रही थी। आखिर मुझसे न रहा गया तो मैंने अपनी पत्नी अनीता से कहा, "जरा अलमारी में से आप्टे का कोष तो निकाल कर देना। "
यह सुनकर वहां बैठे लोग चकराए। कुछ लोगों को संदेह हुआ की अब मैं अपने होश हवाश में नहीं हूँ। मैंने कहा, "दवा तो बाद में होगी, लेकिन पहले मैं ये तो समझ लू की आखिर मुझे रोग क्या है ?"
पंडित सुखड़ी शास्त्री जी कहने लगे, "अजी साहब, देखिये आजकल के नए डॉक्टरों को रोगों का निदान तो ठीक से मालूम ही नहीं है, इलाज़ क्या ख़ाक करेंगे। अंग्रेजी पढ़े लिखों का वैद्यक शास्त्र पर से विश्वास उठ गया है, परन्तु हमारे यहाँ ऐसी-ऐसी औषधियां हैं कि इंसान को एक बार मृत्युलोक से भी लौटा लें। बस मुहूर्त मिल जाना चाहिए और अच्छा वैद्य मिल जाना चाहिए।"
इसके पश्चात् वैद्य जी चरक,सुश्रुत, रसनिघन्टु, भेषजदीपिका,चिकित्सा-मार्तण्ड के श्लोक सुनाने लगे। और अंत में उन्होंने कहा, "देखिये मैं दवा देता हूँ, अभी आपको लाभ हो जायेगा परन्तु इसके पश्चात् आपको पर्पटी का सेवन करना होगा। क्योंकि आपका शुक्र मंद पड़ गया है। गोमूत्र में आप पर्पटी का सेवन कीजिये, फिर देखिये आपका सारा दर्द पारद के समान उड़ जायेगा और गंधक के समान भस्म हो जायेगा। शास्त्रों में लिखा भी है कि,
गोमूत्रेण समायुक्ता रसपर्पटीकाशिता, मासमात्रप्रयोगेन शूलं सर्वे विनाशयेत। "
मैंने उनकी बात सुनकर थोड़ी गुस्से में कहा, "शुक्र अस्त नहीं हो गया,यही क्या कम है ? पंडित जी, गोमूत्र भर ही क्यों, गोबर भी खिलाइये। शायद आप लोगों के शास्त्र में और कोई भोजन रह ही नहीं गया है। इसी कारण से आप लोगों के दिमाग कि बनावट भी विचित्र है।"
खैर पंडित जी ने दवा दी और कहा कि अदरक के रस में इस औषधि का सेवन करना होगा। खैर साहब, फीस दी गयी, किसी प्रकार वैद्य जी से पिंड छूटा। दो दिन तक उसकी दवा पीता रहा, दर्द कभी-कभी तो अवश्य कम हो जाता था लेकिन दर्द पूरी तरह से नहीं गया। वह सी.आई.डी. कि तरह मेरे पीछे ही पड़ गया था। वैद्य जी के यहाँ जब भी कोई आदमी भेजता तो कभी रविवार के कारण, कभी प्रदोष के कारण तो कभी त्रिदोष के कारण वे ठीक समय से दवा ही नहीं देते थे।
अब वैसी बेचैनी नहीं रह गयी थी लेकिन बलहीन होता गया। खाना पीना भी ठीक मिलता ही न था, लिहाज़ा चारपाई पर पड़ा रहने लगा। दिन में मित्रों कि मंडली आती थी, वह आराम देती थी कम, दिमाग चाटती थी ज्यादा। कभी-कभी दूर के रिश्तेदार भी आते थे और सब लोग डॉक्टरों को गाली देकर और मुझे बिना मांगी सलाह देकर चले जाते थे।
मैं चारपाई पर 'इंटर्न' था। आखिर मैंने सोचा कि क्यों न फिर से डॉक्टर साहब को ही बुलाया जाये। जिस समय मैं ये सोच रहा था, उस समय मेरे पास राजनीतिक पार्टी के एक व्यक्ति बैठे हुए थे। यह सज्जन अभी जेल से रिहा होकर लौटे थे और मुझे देखने के लिए तशरीफ़ लाये थे।
"भाई, आप लोगों को देश का हर समय ध्यान रखना चाहिए। ये डॉक्टर सिवा विलायती दवाओं के ठेकेदार के अलावा और कुछ नहीं होते। इनके कारण ही विलायती दवाएं आती हैं। आप किसी भारतीय हकीम अथवा वैद्य को दिखलाइये।" उन महाशय ने सलाह दी।
ऐसी खोपड़ी वालों से मैं क्या बहस करता ? मैंने मन में सोचा कि, " वैद्य महाराज को तो मैंने देख ही लिया है। शायद कुछ और रुपयों पर ग्रहण लगना बाकी होगा तो चलो हकीम को भी देख ही लेते हैं। "
एक की सलाह से मसीहुअ हिन्द, बुकराते जमां, सुकरातुश्शफा जनाब हकीम आलुए बुखारा साहब के यहाँ आदमी भेजा। वह फ़ौरन तशरीफ़ ले आये। इस ज़माने में भी जब तेज से तेज सवारियों का प्रबंध सभी जगह मौजूद है, वे पैदल ही आ गए।
हकीम साहब आये। यद्यपि मैं अपनी बीमारी का जिक्र और अपनी बेबसी का हाल लिखना चाहता हूँ, लेकिन हकीम साहब की पोशाक और रहन सहन तथा फैशन का जिक्र न करूँ, ऐसा मुझसे न हो सकेगा। सर्दी बहुत तेज़ थी। मध्य प्रदेश में सतना जिले से करीब पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर बसे बिरसिंगपुर में कड़ाके की ठंडी होती है। बिरसिंगपुर अपने भव्य शिव-लिंग मंदिर के लिए लगभग पूरे भारत वर्ष में विख्यात है। अभी यहाँ ऊनी कपडे पहनने का समय ही चल रहा है, परन्तु हकीम साहब चिकन का बंददार कुर्ता पहने हुए थे, सिर पर बनारसी लोटे की तरह टोपी रखी हुयी थी। पाँव में पाजामा ऐसा मालूम होता था जैसे कि चूड़ीदार पाजामा बनने वाला था लेकिन दर्जी ईमानदार था, उसने कपडा चुराया नहीं बल्कि सबका सब लगा दिया। अथवा यह भी हो सकता है कि ढीली मोहरी के लिए कपडा दिया गया हो और दर्जी ने कुछ क़तर ब्योंत की हो और चुस्ती दिखाई हो। जूता कामदार दिल्ली वाला था, मोजा नहीं था, रुमाल इतना बड़ा था कि अगर उसमे कसीदा कढ़ा न होता तो मैं समझता कि यह रुमाल मुंह अथवा हाथ पोंछने के लिए नहीं बल्कि तरकारी बाँधने के लिए है। हकीम साहब कि दाढ़ी के बाल ठुड्डी कि नोंक पर ही इकट्ठे हो गए थे, लगता था कि हज़ामत बनाने का ब्रश है। वे इतने दुबले पतले थे कि उन्हें देखकर लगता था जैसे कि अपनी तंदुरुस्ती उन्होंने अपने मरीज़ों में बाँट दी हो। हकीम साहब में नज़ाकत भी बला कि थी, रहते थे बिरसिंगपुर में मगर कान काटते थे सिरमौर के।
उनके आते ही मैंने सलाम किया, जिसका जवाब उन्होंने मुस्कुराते हुए बड़े अंदाज़ से दिया और बोले, "मिज़ाज़ कैसा है ?"
मैंने कहा, "मर रहा हूँ। बस, आपका ही इंतज़ार था। अब ये ज़िंदगी आपके ही हाथों में है। "
हकीम साहब ने कहा, "या रब ! आप तो ऐसी बातें करते हैं गोया ज़िंदगी से बेजार हो गए हैं। भला ऐसी गुफ्तगू भी कोई करता है। मरें आपके दुश्मन। नब्ज़ तो दिखाइए, खुदाबंदकरीम ने चाहा तो आननफानन में दर्द रफूचक्कर हो जायेगा। "
मैंने कहा, "अब आपकी दुआ है। आपका नाम बिरसिंगपुर में ही नहीं, सतना रीवा तक लुकमान कि तरह मशहूर है। इसीलिए आपको तकलीफ दी गयी है। "
दस मिनट तक हकीम साहब ने नब्ज़ देखी। फिर बोले, "मैं यह नुस्खा लिखे देता हूँ। इसे इस वक़्त आप पीजिये, इंशा अल्लाह जरूर शफा होगी। मैंने बगौर देख लिया, लेकिन आपका मेदा साफ़ नहीं है और सारे फसाद की बुनियाद यही है। "
"तो बुनियाद उखाड़ डालिये, किस दिन के लिए छोड़ रहे हैं ?" मैंने कहा।
"तो आप मुसहिल ले लीजिये। पांच रोज तक मुजिज़ पीना होगा, इसके बाद मुसहिल। इसके बाद मैं एक माज़ून लिख दूंगा। उसमे ज़ोफ़ दिल, ज़ोफ़ दिमाग, ज़ोफ़ जिगर, ज़ोफ़ मेदा, ज़ोफ़ चश्म, हर एक कि रियायत रहेगी। "
मुझसे न रहा गया। मैं बोला, "कई ज़ोफ़ आप छोड़ गए, इसे कौन अच्छा करेगा ?"
"जब तक मैं हूँ, आप कोई फ़िक्र न कीजिये। " हकीम साहब ने कहा।
मेरी पत्नी ने उनके हाथों में फीस रखी। हकीम साहब चलने को तैयार हुए। उठे। उठते-उठते बोले, "जरा एक बात का ख्याल रखियेगा कि आजकल दवाइयां लोग बहुत पुरानी रखते हैं, मेरे यहाँ ताज़ा दवाइयां रहती हैं। "
मैंने उनकी दवा उस दिन पी। वह कटोरा भर दवा जिसकी महक रामघाट के सीवर से कम्पटीशन के लिए तैयार थी, किसी प्रकार गले के नीचे उतारा। दूसरे दिन मुजिज़ आरम्भ हुआ, उसका पीना और भी एक आफत थी। लगता था जैसे कि भरतपुर के किले पर मोर्चा लेना है। मेरी इच्छा हुयी कि उठाकर गिलास फेंक दूँ, पर घरवाले और मेरी पत्नी, जेल के पहरेदारों कि तरह सिर पर सवार रहते थे। चौथे दिन मुसहिल की बारी आयी। एक बड़े से मिट्टी के बंधने से दवा पीने को दी गयी। शायद दो सेर के लगभग रही होगी। एक घूँट गले के नीचे उतरा होगा कि जान बूझकर करवा मैंने गिरा दिया। करवा गिरते ही असफल प्रेमी के ह्रदय कि भांति चूर चूर हो गया और दवा होली के रंग के समान सबकी धोतियों पर जा पड़ी। उस दिन के बाद से हकीम साहब कि दवा मुझे पिलाने का फिर किसी को साहस न हुआ। खेद इतना ही रह गया कि उसी के साथ हकीम साहब वाला माज़ून भी जाता रहा।
दर्द फिर कम हो चला था परन्तु दुर्बलता बढ़ती जा रही थी। कभी कभी दर्द का दौरा अधिक वेग से हो जाता था। अब लोगों को मेरे सम्बन्ध में विशेष चिंता नहीं रहती थी। कहने का मतलब ये है की अब लोग मुझे देखने सुनने कम ही आते थे। सिर्फ मेरे ख़ास दोस्त ही देखने आते रहते थे बीच बीच में। मेरी पत्नी और मेरे घरवालों के साथ साथ अब मुझे भी अपने दर्द के सम्बन्ध में विशेष चिंता होने लगी थी। कोई कहता की सतना जाओ, कोई कहता की रीवा जाओ, कोई कहता की नागपुर जाओ, तो कोई एक्स-रे का नाम लेता था। किसी किसी ने तो राय दी की जल-चिकित्सा कीजिये। एक सज्जन ने कहा, "ये सब कुछ नहीं, आप होमियोपैथी इलाज़ शुरू कीजिये, देखिये कितनी जल्दी लाभ होता है, इन नन्ही नन्ही गोलियों में मालूम नहीं कहाँ का जादू है, भाई जादू का काम करती हैं, जादू का।"
एक नेचर-क्योर वाले ने कहा, "आप गीली मिटटी पेट में लेपकर धूप में बैठिये, एक हफ्ते में दर्द हवा हो जायेगा। " फिर मेरे ससुर जी एक डॉक्टर को ले आये। उन्होंने कहा, "देखिये, आप पढ़े लिखे आदमी हैं, समझदार हैं...."
"समझदार न होता तो भला आपको यहाँ क्यों बुलाता ?" मैं बीच में ही बोल उठा।
"दवा तो नेचर की सहायता करने के लिए होती है। आप कुछ दिनों तक अपना डायट बदल दीजिये। मैंने इसी डायट पर कितने ही रोगियों को अच्छा किया है। मगर हम लोगों की सुनता कौन है। असल में आपमें विटामिन 'एफ' की कमी है। आप नीबू, नारंगी, टमाटर, प्याज, धनिया के रस में सलाद भिगोकर खाया कीजिये। हरी भरी पत्तियां खाया कीजिये। " डॉक्टर महोदय ने कहा।
मैंने पूंछा, "पत्तियां खाने के लिए पेड़ पर चढ़ना होगा। अगर इसकी बजाय घास बतला देते तो अच्छा होता। जमीन पर ही मिल जाएगी। "
इसी प्रकार जो आता इतनी हमदर्दी दिखलाता था कि एक डॉक्टर, हकीम या वैद्य अपने साथ लेता आता था।
खाने के लिए साबूदाना ही मेरे लिए अब न्यामत थी। ठंडा पानी मिल जाता था, यह परमात्मा कि दया थी। तीन बजे एक पंडित जी महाराज आकर एक पोथी में से बड़-बड़ पाठ किया करते थे और मेरा भेजा खाते थे। शाम को एक और पंडित आकर मेरे हाथ में कुछ धूल रख जाते , ये कहकर कि ये महामृत्युंजय का प्रसाद है। इसी बीच में मेरी मौसी मुझे देखने आयी, उन्होंने बड़े प्रेम से देखा।
"मैं तो पहले ही सोच रही थी कि यह कुछ ऊपरी खेल है। " उन्होंने देखकर कहा।
"यह ऊपरी खेल क्या है मौसी जी ?" मैंने पूंछा।
"बेटा, सब कुछ किताब में ही थोड़े लिखा रहता है, यह किसी चुड़ैल का फसाद है " मौसी ने कहा।
"मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। " मेरी माँ ने भी मौसी कि हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा।
"देखो न इसकी बरौनी कैसी कड़ी हैं, जरूर कोई चुड़ैल लगी है। किसी को दिखा देना चाहिए। " मेरी पत्नी और माँ कि ओर दिखाकर मौसी ने कहा।
"डॉक्टर तो मेरी जान के पीछे ही लग गए हैं, चुड़ैल क्या उनसे भी बढ़कर होगी ?" मैंने कहा।
"तुम लोगों कि बात क्यों नहीं मान लिया करते ? कुछ हो या न हो, एक बार दिखाने में हर्ज़ ही क्या है ? कुछ खाने कि दवा तो देंगे नहीं" सबके चले जाने के बाद मेरी पत्नी ने कहा।
"तुम लोगों को जो कुछ करना है करो, मगर मेरे पास किसी को मत बुलाना। कोई ओझा या भूत का पचड़ा मेरे पास लेकर आया तो चप्पल से उसकी मरम्मत करूंगा। " मैंने कहा।
"अरे, वह कोई ओझा थोड़े ही हैं। एम्.ए. पास हैं। कुछ समझा होगा तभी तो यह काम करते हैं। कितनी स्त्रियां और पुरुष रोज उनके पास जाते हैं, बड़े वैज्ञानिक ढंग से उन्होंने इसका अन्वेषण किया है। " मेरी पत्नी ने मुझे समझाते हुए कहा।
मेरे दर्द में किसी विशेष प्रकार की कमी नहीं हुयी। ओझा से तो किसी प्रकार की आशा क्या करता, पर बीच बीच में दवा भी होती जाती थी। अंत में मेरे साले साहब आये और उन्होंने भी अपनी सलाह देनी शुरू कर दी।
"जीजा जी, यह सब झेलना इसलिए है क्योंकि आप ठीक दवा नहीं करते। होमियोपैथी का इलाज़ शुरू कीजिये, आपका सारा दर्द गंजे आदमी के सिर के बाल कि तरह गायब हो जायेगा। " मेरे साले ने जोर देकर कहा।
"ठीक है भाई, ये भी करके देख लो, क्या फर्क पड़ता है, मुर्दे पर जैसे बीस मन वैसे पचास। ऐसा न हो कि कोई ये कह दे कि फलाना सिस्टम का इलाज़ छूट गया। " मैंने साले साहब की बात का जवाब दिया।
अब सब सोचने लगे कि किस होमियोपैथ को बुलाया जाये। हमारे मकान से कुछ दूरी पर होमियोपैथ डाकिया था। दिन भर चिट्ठी बांटता था, सुबह और शाम को पचास रुपये पुड़िया दवा बांटता था। सैकड़ों मरीज उसके यहाँ जाते थे, बड़ी प्रैक्टिस थी। एक और होमियोपैथ थे, जो सौ रुपये के हिसाब से दिन में पुस्तकों का अनुवाद करते थे और शाम को दो चार सौ रुपये होमियोपैथी से पैदा कर लेते थे। एक मास्टर जी भी थे, जो कहा करते थे "कि सच पूंछो तो जैसी स्टडी होमियोपैथी कि मैंने की है, वैसे किसी ने नहीं की। "
कुछ बहस के बाद एक डॉक्टर का बुलाना निश्चित हुआ, जो कि बंगाली थे। आते ही सिर से पाँव तक मुझे तीन चार बार ऐसे देखा मानों मैं कोई होनोलुलू से पकड़कर लाया गया हूँ और खाट पर लिटा दिया गया हूँ। इसके पश्चात् मेडिकल सनातन धर्म के अनुसार मेरी जीभ देखी।
फिर पूंछा, "दर्द ऊपर से उठता है कि नीचे से, बांयें से कि दाएं से, नोचता है कि कोंचता है, चिकोटता है कि बकोटता है, मरोड़ता है कि खरबोटता है ?"
मैंने कहा कि, "मैंने दर्द की कोई फिल्म तो उतरवाई नहीं है, को कुछ भी होता है, मैंने आपसे कह दिया है। "
डॉक्टर साहब ने फिर कहा, "बिना सिमटाम (सिस्टम) के देखे कोई कैसे दवा देने सकता है ? एक एक दवा का भेरियस (वेरियस) सिमटाम होता है। "
फिर मालूम नहीं कितने सवाल मुझसे पूंछे। इतने सवाल तो आई.सी.यस. 'वाइवावोसी' में भी नहीं पूंछे जाते। उनमे से कुछ प्रश्नो का जिक्र यहाँ कर रहा हूँ।
मुझसे पूंछा, "तुम्हारे बाप के चेहरे का रंग कैसा था, कै बरस से तुमने सपना नहीं देखा, जब चलते हो तब नाक हिलती है या नहीं, किसी स्त्री के सामने खड़े होते हो तब दिल धड़कता है या नहीं, जब सोते हो तब दोनों आँख बंद रहती हैं कि एक, सिर हिलाते हो तो खोपड़ी में खटखट की आवाज़ आती है कि नहीं ?"
मैंने झुंझला कर कहा, "आप एक शॉर्टहैंड राइटर भी साथ लेकर चलते हैं कि नहीं ? इतने सवालों के जवाब देना मेरे लिए असंभव है। "
फिर डॉक्टर बाबू ने पचीसों पुस्तकों का नाम लिया और बोले, "फेरिंगटन यह कहते हैं, नैश यह कहते हैं, क्लार्क के हिसाब से यह दवा होगी। " डॉक्टर साहब पंद्रह बीस किताबें भी साथ लाये थे। आधे घंटे तक उन्हें देखते रहे, तब दवा दी । उनकी दवा से कुछ लाभ तो जरूर हुआ किन्तु पूरा फायदा नहीं हुआ। मैंने अब पक्का कर लिया कि सतना जा कर किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाया जाये, जो बात बिरसिंगपुर में नहीं हो सकती वह सतना में हो सकती है। वहां सभी साधन हैं।
सब तयारी हो चुकी थी कि इतने में एक और डॉक्टर को एक मेहरबान लिवा लाये। आते ही वह मुझे देखने लगे, मेरी तकलीफ पूँछी।
फिर बोले, "जरा मुंह तो दिखाइए"
मैंने कहा, "मुंह जीभ, जो चाहे देखिये"
मुंह देखकर वह बड़े जोर से हँसे। उनको ऐसे हँसते देखकर मैं घबराया। ऐसी बेढंगी हंसी तो मैंने सिर्फ रामायण और महाभारत सीरियल में राक्षसों को हँसते हुए ही देखी और सुनी थी। मैं चकित भी था।
डॉक्टर हँसते हुए बोले, "किसी डॉक्टर को ये समझ ही नहीं आया, असल में तुम्हे 'पायरिया' है, उसी का जहर पेट में जा रहा है और ये सब फसाद पैदा कर रहा है।"
मैंने कहा, "तब क्या करूँ ?"
डॉक्टर साहब बोले, "इसमें करना क्या है ? किसी डेंटिस्ट के यहाँ जा कर सब दांत निकलवा दीजिये"
मैंने अपने मन में कहा, "आपको तो यह कहने में कुछ कठिनाई ही नहीं हुई, जैसे कि दांत निकलवाने में कोई तकलीफ ही नहीं होती ?"
खैर, रात भर मैंने सोचा और ये निश्चय किया कि यही डॉक्टर ठीक कहता है। डेंटिस्ट के यहाँ से पूँछवाया। उसने बताया कि, "पांच सौ रुपये एक दांत कि तुड़वाई लगेगी, कुल दांतों के लिए सोलह हज़ार रुपये लगेंगे। मगर मैं आपके लिए पांच सौ रुपये छोड़ दूंगा। इसके अतितिक्त दांत बनवाई बीस हज़ार अलग "
यह सुनकर पेट के दर्द के साथ साथ मेरे सिर में भी चक्कर आने लगा। मगर फिर मैंने सोचा कि जान सलामत है तो सब कुछ सलामत है। इतना और खर्च सही। अपनी पत्नी से मैंने रुपये मांगे क्योंकि मेरे पास जितने भी पैसे थे, वो सब इस इलाज़ में ख़त्म हो चुके थे। क्योंकि मैं जनता हूँ कि पति की जेब काट कर पत्नियां कुछ पैसे लुका छुपा कर रख ही लेती हैं।
पत्नी ने कहा, "तुम्हारी कसम, तुम्हारी माँ कि कसम, मेरे पास जहर खाने तक के लिए भी पैसे नहीं हैं"
अक्सर मैंने ये देखा है कि जब भी बीवियों से पैसे मांगो तो वह एकदम मुकर जाती हैं। कसम भी खाएंगी तो पति की या पति की माँ कि ही खाएंगी लेकिन अपनी या अपनी माँ कि कसम कभी नहीं खाती।
मैंने कहा, "ठीक है, जाने दो, कोई बात नहीं"
पत्नी ने पूंछा, " वैसे किसलिए चाहिए ?"
फिर मैंने सारा हाल कह सुनाया। सुनते ही वह भड़क गयी।
उसने कहा, "तुम्हारी बुद्धि कहीं घास चरने गई है क्या ? आज कोई कहता है कि सारे दांत उखड़वा डालो, कल कोई कहेगा कि सारे बाल उखड़वा डालो, परसों कोई डॉक्टर कहेगा कि नाक नोचवा डालो, आँख निकलवा दो, यह सब फिजूल है। तुम सुबह टहला करो, किसी एक अच्छे डॉक्टर की दवा करो, खाना ठिकाने से खाओ, पंद्रह दिन में ठीक हो जाओगे। मैं सबका इलाज़ भी देख लिया है। "
मैंने कहा, "जब तुम्हे अपनी ही दवा करनी थी तो इतने रुपये क्यों बर्बाद करवाए ?"
कुछ दिन के बाद मैंने समझा की स्त्रियों में भी बुद्धि होती है, विशेषतः बीस वर्ष की आयु के बाद।
.....THE END.....